- पूर्विका अत्री
बीज शब्द : आंचलिकता, नशीले द्रव्य/पेय पदार्थ, नशाखोरी, शमक, सुधार आंदोलन, तड़बन्ना, गोल्डन क्रीसेंट, गोल्डन ट्रायंगल, मानसिक विचलन, अशिक्षा, अवैध व्यापार।
मूल आलेख : फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा रचित मैला आँचल एक आंचलिक उपन्यास है। आंचलिकता का अर्थ है- एक क्षेत्र विशेष, जो विशेष भौगोलिक स्थिति, संस्कृति, भाषा आदि से युक्त हो। “हिंदी साहित्य कोश में कहा गया है कि 'लेखक द्वारा अपनी रचना में' आंचलिकता की सिद्धि के लिए स्थानीय दृश्यों, प्रकृति, जलवायु, त्योहार, लोकगीत, बातचीत का विशिष्ट ढंग, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, भाषा के उच्चारण की विकृतियां, लोगों की स्वभावगत व व्यवहारगत विशेषताएँ, उनका अपना रोमांस, नैतिक मान्यताओं आदि का समावेश बड़ी सतर्कता और सावधानी से किया जाता है।”1 उपर्युक्त सभी विशेषताओं से सम्पन्न मैला आँचल एक आँचलिक उपन्यास है, जो अंचल की किसी एक ही समस्या पर केंद्रित नहीं है, यहाँ अंचल ही केंद्र में है। रेणु जी ने अंचल विशेष के रूप में बिहार के पूर्णिया जिले के मेरीगंज नामक विशेष क्षेत्र को चुना है। यह एक पिछड़ा क्षेत्र है, जो नेपाल, पूर्वी पाकिस्तान और बांग्लादेश से घिरा है। रेणु जी इस उपन्यास की भूमिका में लिखते हैं, “इसमें फूल भी हैं शूल भी; धूल भी है, गुलाब भी ; कीचड़ भी है, चंदन भी ; सुंदरता भी है, कुरूपता भी - मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।”2 अनेक समस्याओं की भाँति इस अंचल में नशे की समस्या भी एक शूल है, जो केंद्रीय न होते हुए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि रेणु जी ने आद्यन्त प्रसंगानुसार इससे जुड़े प्रत्येक तथ्य को मैला आँचल में प्रस्तुत किया है।
नशा करने के लिये व्यक्ति द्वारा मुख्यतः नशीले पदार्थों /द्रव्यों एवं पेय पदार्थों का उपयोग किया जाता है। “मनोवैज्ञानिक व समाजशास्त्रीय संदर्भों में,द्रव्य एक वह शब्द है जो उस आदत निर्माण (habit
forming) पदार्थ के लिए उपयोग किया जाता है जो मस्तिष्क व नाड़ीमण्डल को (nervous system)प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। सुतथ्यतः (precisely)यह एक रासायनिक पदार्थ को दर्शाता है जो शरीर के कार्य, मनः स्थिति, अनुभवजन्यता (perception)
व चेतना को प्रभावित करता है, जिसमें दुरुपयोग की क्षमता है और जो व्यक्ति व समाज के लिए हानिकारक हो सकता है(जूलियन,1977)।”3 इसी प्रकार शराब आदि नशीले पेय पदार्थ भी व्यक्ति के केंद्रीय स्नायु तंत्र(central nervous system) पर शमक अथवा अवरोधक के रूप में प्रभाव डालते हैं,
जिससे व्यक्ति का स्वयं पर नियंत्रण कम हो जाता है। इस प्रकार नशे की आदत या लत उसे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक रूप से धीरे - धीरे बर्बाद करती रहती है। माना जा सकता है कि- नशाखोरी मुख्यतः मनोवैज्ञानिक समस्या है, परंतु अब यह पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय समस्या बन चुकी है, इसका कारण है कि समय के साथ इसका क्षेत्रीय एवं संख्यात्मक प्रसार तथा रूप भी बदला है। अब नशे की समस्या देश के सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में फैल गयी है।सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा जारी “मैग्नीट्यूड ऑफ सब्सटांस यूज़ इन इंडिया, 2019”की रिपोर्ट के अनुसार – 'भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार प्राप्त जनसंख्या में से 23 करोड़ 40 लाख 17 हज़ार लोग किसी न किसी नशे का सेवन करते हैं। 7 करोड़ 31 लाख 15 हज़ार लोग मानसिक एवं शारीरिक रूप से रोग ग्रस्त हैं। वहीं 2 करोड़ 44 लाख 19 हज़ार लोग मादक पदार्थों पर निर्भर हैं ।’ यह दुःखद एवं भयानक है कि इतनी भारी संख्या में लोग नशे के आदी हैं। यदि नशे के बदले रूप की बात करें तो परंपरागत मादक पदार्थों जैसे भांग, गांजा, चरस के अलावा अन्य प्रतिबंधित पदार्थों यथा - अफ़ीम, कोकीन, हेरोइन, हशीश, मारिजुआना, मेथेम्फेटामाइंस, रिटालिन, साइलर्ट, बर्बिटुरेट्स, बेंजोडायजेपाइन, मार्फिन, कोडीन, फेंटाइनील, एलएसडी आदि की अवैध तस्करी एवं सेवन बढ़ गया है, साथ ही शराब सेवन की प्रवृत्ति में भी बढ़ोत्तरी हुई है। ऐसी गंभीर अवस्था में देश की अर्थव्यवस्था एवं चिकित्सीय सेवाओं पर दबाव बढ़ जाता है ।
भारत में नशीले पदार्थों के सेवन की परंपरा प्राचीन काल से ही रही है, ऋग्वेद, महाभारत, वाल्मीकि रामायण तक में अनेक प्रकार की मदिरा/ सूरा का वर्णन मिलता है और तभी से ही नैतिक आधार पर इसके उपयोग पर प्रश्नचिह्न लगाया जाता रहा है। राम आहूजा लिखते हैं कि “भारत में मादक पदार्थों के दुरुपयोग को अभी भी एक पथभ्रष्ट व्यवहार के रूप में माना जाता है न की एक समाजविरोधी अथवा एक गैर-अनुरूपी व्यवहार के रूप में।”4 परंतु आधुनिक समय में ज्ञान-विज्ञान के प्रसार से नशाखोरी को रोकने के पीछे न केवल नैतिक कारण है बल्कि वैज्ञानिक एवं सामाजिक भी। आज अनेक नशा विरोधी कानून है जिसके लिए आन्दोलन की शुरुआत 19वीं सदी के उत्तरार्ध में ही शुरु हो गया था। सावित्री बाई फुले ने लोगों के बीच जाकर अनेक नशा विरोधी भाषण दिए। 25 दिसंबर 1927 के महाड़ सम्मेलन में डॉ. अम्बेडकर ने महिलाओं को सम्बोधित करते हुए मदिरा सेवन का विरोध किया। गांधी जी भी शराब के उपयोग को सामाजिक बुराई मानते थे तथा इसके पूरे निषेध के पक्ष में थे। यही कारण है कि 1930 के गांधी इरविन समझौते की 11 शर्तों में से एक शर्त मद्य निषेध की थी। ध्यातव्य है कि इस दौर में मुख्यतः औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए पुरजोर आंदोलन चल रहे थे, लेकिन दूसरी ओर भारत में सामाजिक बुराइयों को खत्म करने के लिए सुधार आंदोलन भी चल रहे थे।
रेणु मैला आँचल में लिखते हैं कि, “यद्यपि 1942 के जन आंदोलन के समय इस गाँव में न तो फौजियों का कोई उत्पात हुआ था और न आंदोलन की लहर ही इस गाँव तक पहुँच पाई थी, किन्तु जिले-भर की घटनाओं की खबर अफवाहों के रूप में यहाँ तक जरूर पहुँची थी।”5 इस कथन से स्पष्ट है कि नशा निषेध के लिए चलाए जा रहे सामाजिक सुधार आंदोलन की खबर इस गाँव तक मुश्किल ही पहुँच पाती और रेणु जी ने मैला आँचल में इससे जुड़े किसी अफवाह को भी चित्रित नहीं किया है। रेणु जी के मैला आँचल में नशे का सेवन पूर्णिया अंचल के ग्रामीण जीवन एवं वहाँ की संस्कृति का हिस्सा है। गांववासी गर्मी के मौसम में साथ बैठकर ताड़ी पीते हैं और अनेक बार इसी बैठक में अपनी समस्याएँ भी सुलझा लेते हैं। रेणु जी लिखते हैं, “बैशाख और जेठ महीने में शाम को 'तड़बन्ना' में जिंदगी का आनंद सिर्फ तीन आने लबनी बिकता है।
चने की घुघनी, मूड़ी और प्याज, और सफेद झाग से भरी हुई लबनी ! … खट-मिट्ठी, शकर-चिनियाँ और बैर-चिनियाँ ताड़ी के स्वाद अलग-अलग होते हैं। बसन्ती पीकर बिरले पियक्कड़ ही होश दुरुस्त रख सकते हैं। जिसको गर्मी की शिकायत है, वह पहर-रतिया पीकर देखे। कलेजा ठंडा हो जाएगा, पेशाब में जरा भी जलन नहीं रहेगी। कफ प्रकृतिवालों को संझा पीनी चाहिए ; रात-भर देह गर्म रहता है ।
साल-भर के झगड़ों के फैसले तड़बन्ना की बैठक में ही होते हैं और मिट्टी के चुक्कड़ों की तरह दिल भी यहीं टूटते हैं। शादी-ब्याह के लिए दूल्हे-दुलहिन की जोड़ियाँ भी यहीं बैठकर मिलाई जाती हैं और किसी की बीवी को भगा ले जाने का प्रोग्राम भी यहीं बनता है।”6 इस विवरण के बाद तनिक संदेह नहीं रह जाता कि ताड़ी का सेवन इस अंचल के जीवन भाव से किस हद तक जुड़ा है। रेणु जी लिखते हैं कि “जो कभी नहीं गाता है, वह भी नशा होने पर गाने लगता है और सुंदर तो कीर्तनियाँ हैं, सुराजी कीर्तन भी गाता है और किरांती-गीत भी। नशा होने पर किरांती-गीत खूब जमता है!”7
रेणु जी ने एक तरफ तड़बन्ना के आचरण को चित्रित किया है, तो दूसरी ओर मेरीगंज में स्थित मठ के भीतर गांजे के आचरण को भी चित्रित किया है क्योंकि तथ्यतः मादक पदार्थ अपनी प्रकृति के अनुसार ही व्यक्ति पर प्रभाव डालता है जो उस व्यक्ति के व्यवहार से सामने आता है। मठ के महंत न केवल गांजा,चिलम के आदी हैं बल्कि मठ की स्त्रियों एवं अपनी स्त्री अनुयायियों पर कुदृष्टि भी रखते हैं। गांजा, चिलम की लत ऐसी है कि शरीर त्यागने से पहले महंत जी चिलम की माँग करते हैं, “रामचरन एक बार आखिरी चिलम पिलाओ बेटा।”8 इसी मठ में नए महंत की नियुक्ति के लिए बाहर से आचार्य एवं नागा बाबा आते हैं। लरसिंघदास मठ में नागा बाबा के आने पर उन्हें पांच 'भर’ गांजा देता है, इसके बावजूद वह रात में गांजे के लिए हंगामा करते हैं। उल्लेखनीय है कि मठ की इस पूरी स्थिति में गांजा पीना, उसके बाद उपद्रव करना सामाजिक समस्या नहीं है, बल्कि यह मठ की नैतिकता के दायरे से बाहर है। यही कारण है कि नए महंत की नियुक्ति के बाद इकरारनामे में लिखा गया कि अब मठ में किसी भी मादक द्रव्य का सेवन नहीं होगा।
मैला आँचल में गाँव के सभी जाति-जनजाति के लोगों में नशे की लत थी, चाहे वह उच्च जाति से हो या निम्न से। रेणु जी लिखते हैं कि “संथालों के घर चुलाया हुआ महुआ का दारू बड़ा तेज होता है।”9 ब्राह्मण ज्योतिषी जी की दूसरी पत्नी को हुक्के की लत थी। “दूसरी को हुक्का पीने की आदत थी। ब्राह्मण का हुक्का पीना? लेकिन जोतखी जी क्या करते - औरत की जिद्द। जब वह बीमार पड़ती थी तो बहुत बार जोतखी जी को ही हुक्का तैयार कर देना पड़ता था।”10 लेकिन आज नशे की समस्या किसी भी धर्म या जाति के नैतिक आग्रह से कोसों दूर हो गयी है। अब सभी धर्म एवं जाति से जुड़े लोग नशे के शिकार हैं।
वर्तमान समय में मादक पदार्थों की अवैध तस्करी एक बड़ी समस्या है, यह न केवल देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचाती है, बल्कि इससे प्राप्त गैरकानूनी धन से देश में आतंकवाद, उग्रवाद, हथियारों की तस्करी आदि घटनाएँ होती हैं। देश में अवैध तस्करी का एक बड़ा मार्ग पड़ोसी मुल्क हैं, पश्चिम में गोल्डन क्रीसेंट( पाकिस्तान, ईरान, अफगानिस्तान) और दक्षिण-पूर्व में गोल्डन ट्रायंगल (थाईलैंड, लाओस, म्यांमार) से अफीम, गांजा, हेरोइन जैसे- मादक पदार्थ भारत की सीमा के भीतर चोरी-छिपे पहुँचाए जाते रहते हैं। रेणु जी ने भी मैला आँचल में पड़ोसी मुल्कों से आने वाले अवैध मादक पदार्थों एवं उसके कारोबार का चित्रण किया है।“लरसिंघदास, नेपाली गांजा में बड़ा नफा होता है। दस रुपए का लाओ और चार सौ बनाओ। नेपाल से चार आने का सेर गांजा मिलता है। बराहछत्तर मेला के समय चलो ! ”11 इस प्रसंग से यही साबित होता है कि इस देश में नशे का अवैध कारोबार बहुत ही पुराना है।
मैला आँचल में चित्रित नशाखोरी और कलाजगत में अभिनय का आपसी संबंध बहुत ही प्रासंगिक बन पड़ा है। रेणु जी ने उपन्यास में दिखाया है कि गाँव में तमाशा दिखाने से पूर्व उनमें से कई कलाकार गांजा, चिलम पीकर अभिनय करते थे। परन्तु यह समस्या आज इतनी गंभीर हो गयी है कि अनेक बड़े-बड़े कलाकार नशे के कारण अपना जीवन गवां दिए।
नशीले पदार्थों में उत्तेजित करने की क्षमता होती है। यदि कोई व्यक्ति किसी के प्रति क्रोधित हो और उस क्रोध की अवस्था में नशे का सेवन कर ले, तो उसका क्रोध और तीव्र हो जाता है, जिस अवस्था में उसका मानसिक विचलन हो जाता है। ऐसा मानसिक विचलन कई बार हिंसा, उपद्रव और अपराध को जन्म देता है। मैला आँचल का एक पात्र हीरू अंधविश्वास में पड़कर पार्वती की माँ को डायन समझने लगता है, उसे लगता है कि उसके पुत्र के प्राण बुखार ने नहीं बल्कि पार्वती की माँ ने हर लिए हैं। इसी क्रोधवश हीरू रात में गांजा व शराब पीकर पार्वती की माँ की हत्या कर देता है और सलाखों के पीछे पहुँच जाता है। नशे के आदी व्यक्ति को चिकित्सीय सहायता की जरूरत होती है, जिससे उसकी बिगड़ी मानसिक एवं शारीरिक अवस्था को ठीक किया जा सके, अन्यथा अपराध होने की संभावना बनी रहती है।
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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