बांदनवाड़ा का अंतिम मेवाड़-मुग़ल संघर्ष (1711 ई.)
- डॉ. हेमेन्द्र सिंह सारंगदेवोत
शोध-सार : मेवाड़ राज्य का दिल्ली सल्तनत एवं मुगल शासकों से निरंतर संघर्ष बना रहा। इसी क्रम में महाराणा अमरसिंह द्वितीय के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (1711-1734 ई.) के शासनकाल में भी मेवाड़ का मुगल शासक से बांदनवाड़ा का युद्ध हुआ जिसमें मेवाड़ विजयी रहा और मुगल सेना को पराजय का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में हुए त्याग और समर्पण का प्रकाशन अभी तक कहीं नहीं किया गया है। मेवाड़ राज्य के उत्तरी सीमान्त पर स्थित बांदनवाड़ा कस्बे (वर्तमान अज़मेर में) में हुए इस युद्ध में मेवाड़ के अनेक योद्धाओं ने अपना पराक्रम दिखाया। युद्ध में मेवाड़ के महाराणा लाखा के द्वितीय पुत्र अज्जा के पुत्र सारंगदेव के वंशज रावत महासिंह सारंगदेवोत का बलिदान भी शौर्यपूर्ण रहा। उन्होंने मेवाड़ की सेना का नेतृत्व करते हुए मुगल मनसबदार रणबाज खान मेवाती को मार डाला। इन सारंगदेवोत अज्जावतों की जागीरी में मेवाड़ राज्य में कानोड़ व बाठेड़ा ठिकाने रहे। यह युद्ध अभी तक अनुसंधान का विषय बना हुआ है। प्रस्तुत शोध-पत्र में बांदनवाड़ा युद्ध पर लेखकगण की ओर से किए गए इतिहास व भूगोल संबन्धी अनुसंधान कार्य का विस्तारपूर्ण वर्णन किया गया है।
बीज शब्द
: मेवाड़,
मुगल, ओरंगजै़ब, सारंगदेवोत, रावत महासिंह, कानोड़, बाठेड़ा, बलिदान
मूल आलेख
: भारतीय उपमहाद्वीप के
दक्षिणी भाग में स्थित राजस्थान का दक्षिणी-पश्चिमी भू-भाग मेवाड़ राज्य के रूप में
सुविख्यात रहा है।[1]
आर्थिक,
राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से मेवाड़ राज्य सदैव ही
राजनीति का केन्द्र बिन्दु रहा। प्राचीन काल में मेवाड़ को ‘‘मेदपाट’’ कहा जाता था।
क्षेत्रफल की दृष्टि से यह तत्कालीन राजस्थान का एक बड़ा रियासती राज्य रहा। भारतीय
संघ में विलय से पूर्व इसका क्षेत्रफल 12,691 वर्गमील (2,043.626 वर्ग कि.मी. या 22,032.92 वर्ग किमी.) था।[2] यह वर्तमान राजस्थान में 23°49’
से 25°28’ उत्तरी अक्षांशों तथा 73°1’ से 75°49’ पूर्वी देशान्तरों के मध्य स्थित एक विशाल क्षेत्र है।
राजनीतिक इकाई के रूप में मेवाड़ का विकास छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ‘‘गुहिल अथवा गुहिलोत वंश’’ की स्थापना के साथ हुआ। गुहिल वंश के संस्थापक गुहिल थे।[3] इतिहासकारों तथा अभिलेख सामग्री के आधार पर गुहिल की वंशावली को अयोध्यापति श्री रामचंद्र के ज्येष्ठ पुत्र कुश से जोड़ा जाता है और इस आधार पर उन्हें सूर्यवंशी घोषित किया गया।[4] गुहिलोत सिसोदिया शासकों ने मेवाड़ राज्य पर 7वीं शताब्दी से शासन करना प्रारंभ किया। मेवाड़ महाराणा हम्मीरदेव सिसोदिया (1326-1364 ई.) के पौत्र एवं महाराणा खेता (1364-1381 ई.) के पुत्र महाराणा लाखा (1381-1411 ई.) के द्वितीय पुत्र अज्जा के पुत्र सारंगदेव से उद्भूत ‘‘सारंगदेवोत अज्जावत सिसोदिया शाखा’’ प्रसिद्ध हुई।[5] इस शाखा की जागीर में कानोड़ एवं बाठेड़ा ठिकाने शामिल रहे। कानोड़ ठिकाना मेवाड़ के सारंगदेवोत सिसोदिया सरदारों का प्रथम श्रेणी का 16 उमरावों के अंतर्गत मुख्य ठिकाना रहा है जो कि बाठेड़ा सहित इस शाखा का पाटवी अथवा मुख्य ठिकाना है। इसके अतिरिक्त अज्जा जी का शासन उत्तरी गुजरात स्थित ईडर पर भी रहा। रावत अज्जा के वंशज रावत भाणसिंह हुए जिन्होंने मगध (बिहार में स्थित औरंगाबाद जिला) में देवउमगा राज्य पर गुहिलोत सिसोदिया सारंगदेवोत राजवंश की स्थापना की।[6] रावत भाणसिंह के उत्तराधिकारी रावत जगन्नाथ सिंह एवं रावत मान सिंह हुए।
बाठेड़ा राजमहल |
रावत मानसिंह के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र महासिंह 1690 ई. में बाठेड़ा में गद्दी पर बैठे। 1707 ई. में मुगल शासक औरंगजे़ब की मृत्यु के बाद महाराणा
अमरसिंह ने अपने खोए हुए क्षेत्रों अर्थात् पुर, बदनोर व मांडल आदि परगनों पर पुनः अधिकार कर लिया। मुगल
शासक जहाँदारशाह (1711-1712ई.)के काल में जुल्फिकारखाँ जब वजीर बना तो उसने पुर व
मांडल के परगने मेवाती रणबाज खाँ को और मांडलगढ़़ का परगना नागौर के राव इन्द्रसिंह
(जोधपुर महाराजा जसवंतसिंह के बड़े भाई अर्थात् नागौर शासक अमरसिंह राठौड़ के पुत्र)
को दे दिया। परन्तु मुगल शाहज़ादा अमीमुश्शान इसके पक्ष में नहीं था। इसलिए उसने
मेवाड़ के वकील को इशारा कर दिया कि इन परगनों पर उनका अधिकार मत होने देना। परन्तु
रणबाज खाँ महाराणा संग्रामसिंह-द्वितीय (1711-34 ई.) के समय पुर व मांडल पर कब्जा करने के लिए आ धमका।[7]
रावत महासिंह |
जब
घमासान युद्ध होने लगा तो महासिंह ने रणबाज खाँ के हाथी के कुंभ स्थल पर कठोर
प्रहार किया जिससे हाथी सहित नवाब भी युद्धक्षेत्र से भाग खड़ा हुआ। इस प्रकार जब
रणबाज खाँ ने रणक्षेत्र से भागने का प्रयास किया ‘‘.....इस पर महासिंह ने कहा कि तू फौज का
सेनापति होकर नामर्दों की तरह भाग रहा
है।। तू अपने मालिक को क्या मुँह दिखायेगा। अगर साहस और शौर्य रखता है तो मेरा
मुकाबला कर.......” महासिंह के ललकारने पर रणबाज खाँ हाथी से नीचे उतर आया और
युद्ध के मैदान में लड़ने लगा। उधर महासिंह भी अपने हाथी को छोड़ नीचे उतर आए और दोनों
के बीच मुकाबला हुआ। रणबाज खाँ ने तलवार
से जोरदार वार किया जो ढाल को काटते हुए तथा जिरह-बख्तर को चीरते हुए सीधे सीने
में उतर गई। महासिंह ने हिम्मत करके उस पर हमला किया और उसके दिल-ए-ज़िगर को हिला
डाला। रणभूमि में एक ओर रावत महासिंह धराशायी हुए और दूसरी ओर रणबाज खाँ जा गिरा।
इस प्रकार दोनों ही युद्ध लड़ते हुए मारे गए।[11] चूँकि कानोड़ तवारीख का लेखक मुस्लिम था अतः
उसने अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से रणबाज खाँ को वीर दिखाने का प्रयास किया।
रावत
महासिंह का स्मारक बांदनवाड़ा से करीब डेढ़ मील दूर बना हुआ है,
जो आज भी उस वीर की याद दिला रहा है। महासिंह के प्रति
सारंगदेवोत सिसोदियों एवं बांदनवाड़ा के जनमानस में बड़ी आस्था है और लोक-देवता के
रूप उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। रणबाजखाँ के दो भाई रणांगन से भाग गए थे।
सामंत
सिंह चुण्डावत(सलूम्बर-बम्बोरा) और महासिंह के भाई सूरत सिंह ने उनका पीछा किया और
उन्हें मार गिराया। कोठारी भीमसी(बेंगू) स्वाभाविक जोश से लड़ा और युद्ध में काम
आया। मोही के ठाकुर सबल सिंह भाटी ने भी अपना रक्त बांदनवाड़ा की धरती पर बहाया।[12]
चान्दनमल
भाणावत द्वारा लिखित ‘‘बाठरड़ा का इतिहास’’ में बांदनवाड़ा युद्ध का निम्नलिखित
वृत्तांत प्राप्त होता है- ‘‘.......उदयपुर महाराणा और मुगल बादशाह औरंगजे़ब की
सन्धि हो गई। मेवाड़ के कुछ परगनों-हुरड़ा आदि जागीरों के पट्टे कपट से कुछ
मेवातियों और मुसलमानों के नाम लिख दिए, उन मेवातियों में रणबाज खाँ, नाहर खाँ, दलेल खाँ आदि मुख्य थे। ये लोग फौज लेकर इन परगनों पर
अधिकार करने आए, यह समाचार सुनकर दरबार की ओर से सेना भेज दी गई। शत्रुओं के आने और उनसे
मुकाबला करने के लिए फौज भेजने की सूचना बाठरड़ा रावत महासिंह ने सुनी तो उसे बड़ा
दुख हुआ कि मुझे इस युद्ध में नहीं बुलाया। इसका कारण ढूँढ रहे थे तभी महाराणा का
नाहर मंगरा जाना हुआ, वहाँ जाकर महासिंह और छोटे भाई सूरतसिंह ने युद्ध की सूचना
व युद्ध में नहीं भेजने का प्रश्न किया तो दरबार ने रावत महासिंह को वृद्धावस्था
के चलते युद्ध में भेजना उचित न समझा, इसलिए आज्ञा न दी। परन्तु जब रावत महासिंह व रावत सूरतसिंह
ने युद्ध में जाने की ज़िद्द की तो महाराणा ने दोनों को युद्ध में जाने की आज्ञा दे
दी तथा साथ ही रावत महासिंह को फौज का मुसाहिब (मुख्य सेनापति या संचालक) बना
दिया। रावत महासिंह ने अपने छोटे भाई को लेकर हुरड़ा पहुँचकर मुसाहिबी (मुख्य
प्रशासनिक मंत्रीपद) कार्य संभाला।[13] इस युद्ध में सलूम्बर रावत के छोटे भाई
सामन्तसिंह , बेगूं रावत,
बदनोर ठाकुर, शाहपुरा राजाधिकार और बांसी रावत गंगदास आदि अपनी जमीयत के
साथ फौज में शामिल हुए। 14 अप्रैल, 1711 को बांदनवाड़ा के निकट रणबाज खाँ और महासिंह के बीच युद्ध
हुआ,
जिसमें महासिंह ने रणबाज खाँ को मार डाला तथा महासिंह के
घाव लगे जिससे दो दिन बाद वो भी वीर गति को प्राप्त हुए। हुरड़ा में जिस स्थान पर
वो काम आए, उस स्थान पर आज भी छतरी(मृत्यु स्मारक) बनी हुई है। रणबाज खाँ के मरने से दलेल
खाँ और नाहर खाँ भी मैदान छोड़़कर भागे तो सलूम्बर के सामन्तसिंह व बाठरड़ा के
सूरतसिंह ने उसका पीछा किया और उनको मार डाला, परन्तु आज तक पता नहीं कि किसने किस-किस को मारा,
क्योंकि फौज वाले वहाँ पहुँचे तो उनके पूछने पर दोनों ने
एक-दूसरे को इस कार्य का श्रेय दिया। इस युद्ध में मेवाड़़ विजयी रहा। विजय आक्रमण
का वृत्तान्त महाराणा को पता चला तो बडे़ प्रसन्न हुए। मुगल शत्रु सेना के मुखिया
रणबाज खाँ को मारकर युद्ध में काम आने पर बाठरड़ा रावत महासिंह के बेटे सारंगदेव को
एक लाख आय की बाठरडे़ की जागीर के बदले कानोड़़़ की जागीर दी गई।[14]
अब
प्रश्न उठता है कि दूसरे शत्रुओं को किसने
मारा,
फौज वालों ने बताया कि दोनों सरदारों को सामन्तसिंह व
सूरतसिंह ने मारा। जब उनसे पूछा तो दोनों ने एक-दूसरे को दुश्मन को मारने वाला
बताया,
दोनों सरदार परम स्नेही पगड़ी बदल भाई थे,
इसलिए इस शौर्यपूर्ण कार्य की प्रशंसा व श्रेय वे एक दूसरे
को देना चाहते थे। जब महाराणा इन्हें एकलिंग जी(नागदा) भी ले गए तब भी इन्होंने
नहीं बताया तो विवश होकर दोनों को 50-50 हजार की जागीर दी गई। सलूम्बर रावत के छोटे भाई सामन्तसिंह
को ‘मुण्डकटी’ (बलिदान के रूप में अर्थात् युद्ध में वीरतापूर्वक मृत्यु की
प्राप्ति) में 50 हजार वार्षिक आय की बम्बोरा जागीर दी और रावत सूरतसिंह को वही 50 हजार वार्षिक आय की बाठरड़ा की जागीर मिली।[15] बाठेड़ा इतिहास (भाणावत संग्रह) में सामंतसिंह
चुण्डावत को मुण्डकटी में ‘‘बम्बोरा जागीर’’ मिलना लिखा है जो कि ग़लत है क्योंकि
उनकी वीरता से प्रसन्न होकर महाराणा द्वारा यह जागीर उनको मिली थी और युद्ध के बाद
भी वे जीवित थे।
‘‘श्री याद ख्यात की’’ में रावत महासिंह और नवाब रणबाज खाँ का
युद्ध वर्णन -
इतिहास
जानने के साधनों में ख्यातों का अत्यधिक महत्त्व रहा है। ख्यातों में प्रायः
प्रसिद्ध राजपूत राजवंशों की स्थापना, राजाओं का वंशक्रम, राज्यक्रम या शासन काल सहित युद्धों निर्माण कार्य आदि का
वर्णन होता है। ‘ख्यात‘ को पीढ़ियावली व वंशावली का विकसित रूप कह सकते है
जिनमें राजनीतिक पक्षों सहित सांस्कृतिक-आर्थिक विवरण भी उल्लखित होता हैं।
राजस्थान के विभिन्न राज्यों की भाँति उन राज्यों से सम्बन्धित कई ठिकानों में भी ख्यातें
लिखवाई गई थी। मेवाड़ राज्य के कई ठिकानों
में ख्यातें लिखवाई गई, जैसे कि कानोड़, देवगढ, सलूम्बर, बाठेडा, बदनोर इत्यादि। ‘कानोड़‘ मेवाड़ का प्रथम श्रेणी का ठिकाना
था। ख्यात हमेशा ख्याति या प्रशंसा में लिखी जाती थी। कानोड़़़ ठिकाना दस्तावेज में
‘श्री याद ख्यात की’ के नाम से लिखी गई एक ख्यात मिली है किन्तु ख्यातकार का नाम
एवं ख्यात पूर्ण करने की किसी तिथि विशेष का कहीं पर भी उल्लेख नहीं है। फिर भी यह
सुनिश्चित है कि रावत उम्मेदसिंह ने 19वीं शताब्दीं के उत्तरार्ध में इसे लिखवाना प्रारंभ किया
था।
इस
प्रकार बांदनवाड़ा में रावत महासिंह के नेतृव में हुए युद्ध का वर्णन ‘श्री याद
ख्यात की’ में निम्नानुसार दिया हुआ है- ‘‘रावत म्हासीघजी रा जगड़ा री पातसा
अरंगजेब मेवाड़ उप्रे वा श्रीजी दवारे आव्या सो राणा जी श्री जेसीघजी की वार म्हे
सो जेसीघ जी जगड़ो कीदो अर पातसा ने भगाओ (भगायो) ने फोज लूट लीदी ने पातसा रूपनगर[16] वे नीकलो सो रूपनगर पण फोज को सज लेलीदो सो ऊठा
सू आबुजी[17] गयो। अचलेसरजी रो ऊथापन करो ने पचे दली गओ
(गयो) ने पाचे पातसा मेवाड़ हारेन गओ जीसु पादड़ी मेवाड़ ने सरद करणी वीचारी सो नवाब
रणबाज खान हो सो वाने फकीर ओलीया[18] री बदगी करी सो रसाणकर नवाब ने देवा लागो सो
नवाब ली दो न्ही के आपका प्रताप सु मारे रसाण हो रही हे हे पर आप वचन देवे तो मे
मागु जद वचन दीदो के नवाब मागी के मारी जगड़ा म्हे पीठ न्ही फरे ओर फते होवे जदी
ओलीये वर दीदो के तुमारे फते होगी अर कजा तो माफ नहीं हो सकती हे पण तुमारी पीठ
न्हीं फरेगा। ओ (यो) वर ही सो पातसा या बात सामली सो पातसा ने फोज मु साफ मेलो दो
चार जगा सो फते करी जद इीने सारी फोज की मालकी दी दी अर फोज लाख 200000 दोय दे ने मेवाड़ उप्रे मेला ने हुकम की दो के हमारी फोज
मेवाड़ वारा लट (लूट) ली दी सो मेवाड़ कु बरबाद कर पातसाही (बादशाही) अमल कर दो सो
इीपर फोज लेर नवाब रणबाजषा आओ (आयो) अर अठे म्हाराणाजी श्री सगराम सीघजी ने मालम
हुइी के नवाब रणबाजषान ने श्री पातसा ओरगजे फोज ले मेला हे सो कसी धार ने सो मेवाड़
वगाड़े जी पर श्री जी फोज बदी कर पधारणो वचारो जी पर उमरावा अरज की दी के पातसा सू
काम पड़े जद कीने कीने लेजावा या कर श्री जी ने तो नारामंगरा (नाहरमंगरा) सु हाजरी
लेन पाचा पधारा ने फोज हरले आवी ने वठे सू म्हेता मालदासजी श्री जी म्हे अरज लषी
के म्हे तो कागद मे ले दसगत वाच दीवाण म्हासीघ ने फोज म्हे मेले जद भाजे तुरकाण
असी अरज आवी सो रावत म्हासीघ जी के कारी
तेज री आवती जी सू श्री जी आगी काडी ने चीती अरज
श्री जी वाचता ने रावत जी जाणे गआ (जान गये) सो अरज करदू बोले ने चड़ा सो
पाधरा फोज म्हे पधारा ने दुजे दन पटाण नारषा (नाहरखाँ) फोज म्हे आवो नजर बाज वे ने
जीने रावतजी दो ओ सो (दुआसूँ-दोनों ओर) बलावे हुकम कीदो के फेर वारी षात्र जादा
कीदी ने दुजे दन फोज म्हे हेलो पडावो सो जी रे धरम पुन करणो वे समान सपाड़ो सो करजो
परसु जगडो हे या करे ने दुजे दन रावत सुरतसीघजी बाटरो (बाठरड़ा),
रावत सामत सीघजी बबोरो (बंबोरा) का तराव (तालाब) में सनान
कर रआ जतरे पातसा री फोज म्हे थी असवार 4नवाब नारषा लालषा (नाहरखाँ, लालखाँ) फोज देषवा आवा ने रावतजी ढ़ाबे न समाचार कआ (कहे) के
तुम कबाण वावो जीप्र कबाणो वावो सो वरडो
म्हे सा दाग डगओ पचे आपणा सरदार कओ के नमतो कबाणो वावो हम गोरी (गोली) वावे जी
म्हे बदे जी री षात्र रेवे जी पर साइी माड दो इी जणा 8 आठ फेर कीदा जी म्हे वणा ता कबाणा सात वावा जत्रे आपणे
सीरदार आट गोरा (आठ गोला)बावी जीरो हाजरी देष ने कओ के अेसा आदमी हे जद तम हार कबी
न्ही आवेगा आ केर पाचा फरगआ-........अर पातसा री फोज को नजरबाज नबाबा में लो फकीर
वे ने रावतजी ने देषवा आव्यो सो वीने ओरष[19] लीदो सो बुलावे अर षात्री[20] करी ने हुकम कीधो की पातसा की तरफ सु थाने
मेल्या हे ने माने श्री द्रबार की त्रफ थी
मेला हे सो अब दो इी त्रफो लुण ऊजार देणो
हे[21]
सो अब रणबाजषान न केवो सो कोअे तरे अब काची न्ही वचारे या केर हुरडा सु जुद वे वा
लागो सो जगडो सो वेता वेता वेगम (बेगूँ)
रो कोठारी वरदभाणजी[22] जमीन लेने हाजर वो जी पर म्हासीघजी कओ के वेगम
सु रावतजी तो आआ (आया) न्ही ने थे आआ सो अठे लेषा चोषा षरा लाटणा (लेखा-चोखा,खरा लाटना) हे न्ही जी पर अरज कीधी के रावत जी तो न्ही
पधारया जी को मारो जोर नहीं अर मासु बंदगी हुकम मुजब मुड़ी (मै भी) ऊठाऊगा यो के रे
(यह कह कर) कोठारी बी गोडा ऊठावा अर जगड़ो करयो ने जगड़ो कर पाचो आअे रावतजी सु
मुजरो कीधो जी पर हुकम कीदो के थारो भरोसो
हो जसी कर देषाइी अर भाटी म्हासीघजी मोड़ी वाला बी सामल हा जगड़ा म्हे सो जगड़ो वेरओ
जी वगत रावत म्हासीघजी आपका सात न मुड़ा गेले र सारी फोज ने दाकल ने गोडा आगा कीधा
ने तरवार चलाइी सो मेवातियां री फोज ने
धकाअे हुरडा सु वाधाणवाड़ा (बांधनवाड़ा या
वांदनवाड़ा) रा गोर म्हे ले गआ अर अठे दो त्रफी फोज षेत पड़ी रावत गंगादासजी बानसी
(बानसी) वाला हा सोइी ता पाचा फरागआ रावत
म्हासीघजी रे ने रणबाजखाँ रे फोज को जगड़ो
वे रओ जी वगत रावत म्हासीघजी नवाब केबाइी[23] के अे चेटी[24] रे ने जगड़ो कु करा अर फोज कु तोड़ा वे हे अब ता डीला डील भडणो[25] (भिड़ना) हे सो हाती सु ऊतरे ने जगड़ो करा सो रावत
म्हासीघजी भी उतर्या ने रणबाजषा भी उतर्या ने रावत म्हासीघजी कही रणबाजषान ने सो
तु चलाअे ने आवो सो तु वावजी पर रावतजी कओ मु बाऊगो[26] तो थारे मन म्हे रे जावेगा कारण थु मेवाड़ लेबा
रे वासते आवो हे जी सु थने हीज पेला (पहले) बाइी (चलानी) चावे सो असी मनवार हुइी
ने नवाब पेला रावत म्हासीघजी[27] पर
तलवार बाइी सो (षग) खड्ग[28] पर लागी अर म्हासीघजी का हात की
तरवार नवाब रणबाजषा के वइी जुलम कट अर
वगतर फट अर मातो (सिर) कट गयो ओर नवाब मार
लीओ अर रावत म्हासीघजी वी षेत पडया ओर मोड (मोही) भाटी म्हासीघजी बी काम आआ अर
कोठारी बेगम (बेगूं) वालो बी काम आया अर कानोर की रजवार[29] काम आइी जीमे अतरा तो माजी काम आआ...................................
वीगत....................................रावत म्हासीघजी षेत पडया ..........।’’[30]
इस लड़ाई
में रावत महासिंहजी ने दो मदमस्त हाथियों को मारकर, मुगल मनसबदार राणबाज खाँ मेवाती को पराजित करके उसे यमलोक पहुँचाकर
उसका मुगलाई पादशायी या पातसाई या बादशाही लवाजमा साजो सामान भी छीन लिया जिसमें चाँदनी
डेरे(निवास हेतु चाँदनी रंग की टेंट), नगाड़ा, निसान या निशान, सुथरी अर्थात् रस्सी या सुतली,
हाथी का निशान और हाथी रो नोपती अर्थात् गज के ऊपर रखी गई
नौबत नामक वाद्ययंत्र यंत्र को बजाने वाला, चँवर, सुखपाल अर्थात् पालकी, जुजुरबा उठा रा अर्थात् ऊँटो के गहने,
चड़ी अर्थात् हाथी के पैर पर बंधने वाला गहना,
गोरा आरव या आरब अर्थात् हाथी के चेहरे पर कपड़े का या धातु
का आवरण एवं गज के मुखमंडल व पीछे पूँछ पर बँधने वाले गहने इत्यादि प्रमुख थे। ये
लवाजमा अभी तक कानोड़ गढ़ में सुरक्षित हैं।
चित्तौड़-उदयपुर
का पाटनामा में बाठेड़ा महारावत महासिंह के साथ युद्ध में शहीद हुए कानावत सिसोदिया
सरदारों का उल्लेख मिलता है।[31] रावत महासिंह सारंगदेवोत की बाँधनवाड़ा युद्ध
में प्रदर्शित वीरता व बलिदान पर निम्नलिखित गीत (अज्ञात रचयिता) लिखा गया-
माहवा सुवर कज अछर वर आंटे मले,मले रूद्र अग्यारह कमल माटे...।[32]
रावत
महासिंह के आदमकद चित्र से ज्ञात होता हैं कि उनकी आँखें बड़ी,
मूँछें लम्बी और शरीर बड़ा प्रचंड विशालता लिए हुए रणक्षेत्र
में शत्रुओं का संहार करने वाले मदमस्त गज के समान तेजस लिए हुआ था। जिरह बख्तर व अस्त्र-शस्त्रों
से सुसज्जित ये योद्धा अपने मुखमंडल पर
ओजस्वी भाव लिए उन्नत भाल, तीखी शुक नासिका में अपने पूर्वज बापा रावल का स्मरण करा ही
देते हैं। उनको एक अन्य चित्र में कलीदार पगड़ी पर बंधी रत्नजड़ित पछेवड़ी धारण किए
आमली,
मौक्तिक कर्ण कुंडल सहित गले में मुक्ताहार पहने तेजस्वी
मुख-मंडलयुक्त दर्शाया गया है जहाँ विशाल बादामी आकार के नेत्र और उनकी दीर्घाकार
वक्ष-स्पर्शी मूंछे उनके कर्मठ सिंह स्वरूप को प्रतिबिंबित करती है तो महाबाहु पर
झुलता धनुष एवं कमरबंध पर बंधी छुरिका व कटार उनके योद्धा स्वरूप को सृजित करती
है। रावत मान सिंह के 82 वर्ष की अवस्था में स्वर्गवासी होने के पश्चात् रावत महा
सिंह भी परिपक्व आयु में गद्दी पर बैठे जिन्होंने अपने कुंवरपदे में ही शासन
प्रबंध का अच्छा अनुभव ले लिया था। उनके व्यक्तित्व व पराक्रम के सन्दर्भ में
निम्नलिखित काव्य रचना ‘‘महाव जस प्रकाश‘‘ व रावत प्रताप कृत कानोड़ ठिकाने की
ऐतिहासिक डायरियों सहित कानोड़ के अधीनस्थ जागीरदारों के अभिलेखों में उल्लिखित है,
साथ ही मुख मंडल अर्थात् लोक श्रवण गीतों के रूप में भी
प्रचलन में है, जैसे कि ढ़ीकिया, कराणा व खेड़ी के सम्मानित ठाकुर साब इन जैसी कई पंक्तियों
को अपनी जुबान पर रखते हैं.............
सिरमोर सारंगदे, राखी लाज राण संग्रामसी ।
माहव जस प्रकाश ग्रन्थ(हस्तलिखित ) |
निष्कर्ष - मेवाड़ राज्य का मध्यकालीन इतिहास में दिल्ली सल्तनत एवं मुगल साम्राज्य के धर्मांध एवं साम्राज्यवादी शासकों से निरंतर संघर्ष बना रहा। इसी क्रम में अपने पूर्वज गुहिलोत शासकों की परम्परा का अनुकरण करते हुए मेवाड़ महाराणा अमरसिंह द्वितीय के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (1711-1734 ई.) के शासनकाल में भी मेवाड़ का मुगल शासक से अजमेर के मार्ग पर स्थित बांदनवाड़ा स्थान पर युद्ध हुआ जिसमें मेवाड़ विजयी रहा और मुगल सेना को पराजय का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में हुए मेवाड़ी योद्धाओं के त्याग और बलिदान पर मेवाड़ के ऐतिहासिक प्राथमिक स्रोतों द्वारा प्रकाश डाला गया है। मेवाड़ राज्य के उत्तरी सीमान्त पर स्थित बांदनवाड़ा कस्बे(वर्तमान अज़मेर में) में हुए इस युद्ध में मेवाड़ के अनेक योद्धाओं ने अपना पराक्रम दिखाया। युद्ध में मेवाड़ के महाराणा लाखा के द्वितीय पुत्र अज्जा के पुत्र सारंगदेव के वंशज रावत महासिंह सारंगदेवोत लड़ते काम आते हैं और आपका बलिदान उत्तर मध्यकालीन इतिहास में उल्लेखनीय रहा। इस युद्ध के बाद मुगलों के पतन में भी तीव्रता दृष्टव्य होती है।
[1] कविराजा श्यामलदास, वीर विनोद, भाग-1, पृ. 99-100; ओझा गौरीशंकर हीराचन्द, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग-1, पृ. 1-2 ; अहमद शाहिद, मध्ययुगीन राजपूताने की शासन प्रणाली, पृ.38
[3] कविराजा श्यामलदास, वीर विनोद, भाग-1, पृ. 248-250; ओझा गौरीशंकर हीराचन्द, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग-1, पृ. 65-66
[5] कविराजा श्यामलदास, वीर-विनोद, भाग-1, पृ. 308; ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग-1, पृ. 270, पाद टिप्पणी क्र.सं. 4
[6] कानोड़़ का इतिहास (हस्तलिखित अप्रकाशित तवारीख), पृ. 1-4,45
[7] ओझा गौरी शंकर हीराचन्द, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग-2, पृ. 610-611
[8] भीलवाड़ा-अजमेर मार्ग पर स्थित मेवाड़ राज्य क्षेत्र का उत्तरी सीमा बिन्दु, वर्तमान में भीलवाड़ा जिले में स्थित
[10] ठिकाना कानोड़़ तवारीख याददाश्त, पृ. 2, वि.सं. 1767 में नवाब रणबाज खां की रावत महासिंह से हुरड़ा के पास लड़ाई हुई;तवारीख सार राजस्थान कानोड़़, मेवाड़़, पृ. 50-52; सं. भाटी हुकमसिंह, मज्जमिका, महावजस प्रकाश, पृ. 37-40, 62-63
[11] महाराणा संग्रामसिंह का सारंगदेव को परवाना भेजा उसमें लिखा कि ‘‘....... रावत महासिंघ दरवार रे काम आया यो सावधरमो थारी इंणी धरती सरसो है‘‘ परवाने में महाराणा ने अपने हाथ से लिखा कि ‘रावत महासिंघजी काम आया सो चिन्ता घणी हुई। पण ईसा ठाकुर धरती र काम आवे जदी दरबार र आछो दीसे.........जब रावत जी कणी बात री चिन्ता राषो मती‘‘.........रावत योगेश्वरसिंह ठिकाना कानोड़ का संग्रह;विद्यापीठ साहित्य संस्थान में संग्रहीत परवाना (फोटोफ्रेम या तस्वीर में सुरक्षित) वि. सं. 1767 आषाढ़ वदी 14 सोम एवं इसकी प्रतिलिपि; तवारीख सार राजस्थान कानोड़़, मेवाड़़, पृ.53 ; मानसिंह आसिया कृत हस्तलिखित ग्रन्थ महावजस प्रकाश, पृ. 10-20, इसमें बांधनवाड़ा युद्ध के संदर्भ में मेवाड़़ के अन्य सरदारों सहित विशेषतः महासिंह सारंगदेवोत की वीरता का विवरण मिलता है; कानोड़़ का इतिहास (हस्तलिखित अप्रकाशित तवारीख), पृ. 46; कानोड़़ रावत प्रतापकृत हस्तलिखित डायरी ‘कानोड़़ का इतिहास‘ के अनुसार, पृ. 75-77
[12] बाठेड़ा तवारीख, पृ. 12 , तवारीख सार राजस्थान, कानोड़ मेवाड़, पृ. 51
[13] बाठेड़ा तवारीख, पृ. 13 , तवारीख सार राजस्थान, कानोड़ मेवाड़, पृ. 51-52
[16] देसुरी की नाल के ऊपर अरावली पर्वत श्रृखंला में स्थित सोलंकियों का ठिकाना
मल्ल या द्वन्द्व युद्ध
[20] खातिरदारी करना
सं. डॉ. हुकमसिंह भाटी, मज्जमिका महावजस प्रकाश,पृ.सं. 79-87
[27] ठिकाना गोड़ो के खेड़ो के पूर्वज महा सिंह
[32] सं. डॉ. हुकमसिंह भाटी, मज्जमिका महावजस प्रकाश,पृ.सं. 79-87
2.राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, उदयपुर
3.सरस्वती भवन पुस्तकालय, उदयपुर
4.प्रताप शोध प्रतिष्ठान, उदयपुर
5.साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर
- साक्षात्कार संग्रह
1.कानोड़ राजमाता इन्द्रा कुंवर का साक्षात्कार
2.ठिकाना बाठेड़ा के भेरूसिंह सारंगदेवोत का साक्षात्कार
3.कानोड़ रावत सारंगदेवोत योगेश्वरसिंह से साक्षात्कार, उम्र- 50 वर्ष, 7.8.2012
6.प्रसिद्ध साहित्यकार भैरुसिंह राव, (सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापक) का साक्षात्कार, उम्र-80 वर्ष, जिनका कानोड़ इतिहास के संदर्भ में साहित्यिक लेखन कार्य भी है।
7.खेडी ठाकुर, विजय सिंह सारंगदेवोत का साक्षात्कार
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