शोध सार :
माता
शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः, न शोभते सभामध्ये
हंसमध्ये बको यथा। अर्थात्–ऐसे माता-पिता अपनी संतान के
शत्रु या बैरी के समान है, जो उसे शिक्षित नहीं करते या
पढ़ाते नहीं है। अशिक्षित व्यक्ति कभी भी बुद्धिमानो के बीच में सम्मान नहीं पाता,
वहां उसकी स्थिति ठीक उसी तरह होती है जैसे हंसों के झुण्ड में
बगुले की। जिस तरह स्वतंत्रता हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है, उसी
तरह भेदभाव रहित स्कूली शिक्षा पाना प्रत्येक बच्चे का जन्म-सिद्ध अधिकार है। भारत
में स्वतंत्रता प्राप्ति के लगभग 60 वर्ष पश्चात् हमें यह
अधिकार तब मिला, जब ‘निःशुल्क और
अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009’ लागू हुआ।
आर.टी.ई. एक्ट-2009 में 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को अनिवार्य रूप से बिना किसी भेदभाव के शुल्क
रहित प्राथमिक शिक्षा देनें का प्रावधान किया गया है, साथ ही
लोकतान्त्रिक विकेंद्रीकरण एवं सामाजिक सहभागिता के उच्च आदर्शों को वास्तविक
स्वरूप में स्थापित करने की दृष्टि से अधिनियम की धारा-21(1) में ‘विद्यालय प्रबंधन समिति’ (एस.एम्.सी.) के गठन का प्रावधान है, जिसमें बच्चों
के माता-पिता या संरक्षक, स्थानीय प्राधिकारी के प्रतिनिधि
और शिक्षकों को सम्मिलित किया गया है। आर.टी.ई. एक्ट-2009 की
धारा-21(2) में एस.एम्.सी. के अधिकारों एवं कर्तव्यों का
उल्लेख किया गया है। प्रस्तुत शोध-पत्र में ‘शिक्षा का
अधिकार अधिनिय, 2009’ के क्रियान्वयन के सन्दर्भ में ‘विद्यालय प्रबंधन समिति’ के सदस्यों में अपने
अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति सजकता व जागरूकता का अध्ययन किया गया है।
शोध-पत्र के प्रारंभ में ‘शिक्षा का अधिकार’ की ऐतिहासिक पृष्टभूमि को बतलाया गया है, इसके बाद
आर.टी.ई. एक्ट-2009 के प्रमुख प्रावधानों व एस.एम्.सी. को
बताया गया है। अध्ययन के परिणाम स्वरूप ज्ञात हुआ, कि मात्र 54.5% एस.एम्.सी. सदस्य ही अपने कर्तव्यों या दायित्वों का निर्वाह ठीक से कर
रहे है, जबकि एस.एम्.सी. के अभिभावक सदस्यों में यह आंकड़ा
केबल 40.91% ही है, हांलाकि एस.एम्.सी.
के शिक्षक सदस्यों में से 95% सदस्य, एस.एम्.सी.
के कर्तव्यों या दायित्वों के प्रति सजक व जागरुक है। अध्ययन से यह पता चला,
कि एस.एम्.सी. सदस्य में से अभिभावक सदस्य, स्थानीय
प्राधिकारी के प्रतिनिधि सदस्य और अध्यापक सदस्यों के मध्य जागरूकता एवं कर्त्तव्य
परायणता में तुलनात्मक दृष्टि से बहुत अंतर है। ‘शिक्षा का
अधिकार अधिनियम-2009’ का सफलता पूर्वक कार्यान्वयन तभी संभव
है, जब शिक्षा के प्रचार-प्रसार एवं स्कूल के संचालन व
प्रबंधन में समाज/समुदाय की सक्रीय सहभागिता को सुनुश्चित किया जाए।
प्रस्तावना
:- ‘शिक्षा’ शब्द का सामान्य अर्थ
सीखने-सिखाने की प्रक्रिया माना जाता है। शिक्षा, व्यक्ति की
अंतर्निहित क्षमताओं और उसके व्यक्तित्त्व का विकास करती है, इसलिए स्वामी विवेकानन्द जी ने मनुष्य की ‘अन्तर्निहित
पूर्णता की अभिव्यक्ति’ को शिक्षा कहा है। शिक्षा प्रत्येक
मनुष्य के सर्वांगीण विकास, सामाजिक-राष्ट्रीय प्रगति एवं
सभ्यता व संस्कृति के उत्थान के लिए आवश्यक है। इसके सन्दर्भ में कोठारी शिक्षा
आयोग, 1964-66 ने माना कि “शिक्षा
राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक विकास का शक्तिशाली साधन है,
शिक्षा राष्ट्रीय सम्पन्नता एवं राष्ट्र कल्याण की कुंजी है”
(राष्ट्रीय शिक्षा आयोग रिपोट-1966)। भारत
लम्बे स्वाधीनता संग्राम के बाद 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व ही भारत में संविधान
बनाने के लिए एक ‘संविधान-सभा’ का गठन
किया गया, जिसके द्वारा लगभग 3 वर्ष के
अथक प्रयासों के बाद ‘भारत का संविधान’ लिखा गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही प्राथमिक शिक्षा की सार्वभौमिक
उपलब्धता के लिए ‘शिक्षा’ को संविधान
के मूल अधिकारों में स्थान दिलाने के लिए अथक प्रयास हुए। संविधान-सभा में भी इस
विषय पर बहुत विमर्श व वाद-विवाद हुआ, परन्तु देश की
तत्कालीन परिस्थितियों एवं संसाधनों को दृष्टि में रखते हुए संविधान निर्माताओं ने
‘मुफ्त प्राथमिक शिक्षा’ को ‘राज्य के नीति-निर्देशक तत्व’ के अंतर्गत अनुच्छेद- 45 में सम्मिलित किया और ‘शिक्षा’ को ‘राज्य-सूची’ के विषय के
रूप में स्वीकार किया (डॉ.डी.डी. बसु-2016)।
संविधान लागू
होने के साथ ही भातर में स्वदेशी गणतांत्रिक सरकार का शासन प्रारम्भ हुआ, जिसके विभिन्न कालखंडों में प्राथमिक शिक्षा की सार्वभौमिक उपलब्धता और
शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक प्रयास हुए। शिक्षा के सभी क्षेत्र में विकास
की यथास्थिति का अध्ययन व इससे संबंधित संभावनाओं पर सलाह देने के लिए गठित ‘कोठारी आयोग-1964’ ने अपने प्रतिवेदन में कहा कि “14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान कराने
के लिए केंद्र सरकार ‘नेशनल एजुकेशन एक्ट’ और प्रांत सरकारें ‘स्टेट एजुकेशन एक्ट’ बनाएं” (कोठारी शिक्षा आयोग रिपोर्ट-1964)। कोठारी आयोग की सिफारिशों के आधार पर देश में 'राष्ट्रीय
शिक्षा नीति-1968' लागू की गई, यह
स्वतंत्र भारत की पहली शिक्षा नीति थी। इसी क्रम में सन्-1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा शिक्षा को ‘राज्य-सूची’ से हटा कर ‘समवर्ती
सूची’ में सम्मिलित किया गया, जिससे ‘शिक्षा’ पर नीति-निर्धारण व कानून निर्माण के
सम्बन्ध में केंद्र व राज्य सरकारें दोनों मिलकर कार्य कर सकें (डॉ. एस. पी.
गुप्ता-2016)। राजीव गांधी सरकार द्वारा तत्कालीन शिक्षा
प्रणाली पर पुनर्विचार कर उसे नया रूप देने की दृष्टि से 'राष्ट्रीय
शिक्षा नीति-1986' लागू की गई, यह देश
की दूसरी शिक्षा नीति थी। इस नीति में सन्-1990 तक, 11 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों को और सन्-1995 तक 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों को 'निशुल्क और
अनिवार्य शिक्षा' उपलब्ध की बात कही गई है (राष्ट्रीय शिक्षा
नीति-1986)।
राष्ट्रीय
शिक्षा नीति-1986 के अनुपालन में देश में साक्षरता की स्थिति
सुधारने व अधिक से अधिक लोगों को साक्षर बनाने के लिए सन्-1987-88 में ‘राष्ट्रीय साक्षरता मिशन’ चलाया गया। सन्-1990 में गठित आचार्य राममूर्ति
समिति के प्रतिवेदन में शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर ‘शत
प्रतिशत नामांकन’ के लिए ठोस प्रयास करने को कहा गया। इसी
क्रम में सन्-1995 में बच्चों के नामांकन में वृद्धि एवं
उनके विद्यालय में ठहराव की दृष्टि से प्राथमिक स्कूलों में ‘मध्याह्न भोजन योजना’ आरम्भ की गई। इस योजना से
बच्चों के नामांकन, उपस्थिति व उनके विद्यालय में ठहराव में
बढोतरी हुई जिससे प्राथमिक शिक्षा को बल मिला, साथ ही सन्-2001 में गुणवत्तापूरक प्रारंभिक शिक्षा के सर्व-सुलभीकरण हेतु ‘सर्व शिक्षा अभियान’ प्रारंभ किया गया। (डॉ नीलू
मैरी एलेक्स-2008)
सन्-1992 के ‘मोहनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य’ एवं 1993 के ‘उन्नीकृष्णन बनाम
आंध्रा-प्रदेश राज्य’ वाद में सुप्रीम कोर्ट (उच्चतम
न्यायालय) ने अपने निर्णयों में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने को अनुच्छेद-21 में निहित मूल अधिकार माना, साथ ही कहा कि “प्रत्येक नागरिक को निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना राज्य का
संवैधानिक दायित्व है” (डॉ. जे.एन. पांडे- 2019)।
सरकारों ने
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् प्राथमिक-शिक्षा के उत्थान एवं सर्वउपलब्धीकरण के
लिए अनेक आवश्यक कदम उठाए एवं अनेक आयोगों का गठन भी किया, किन्तु प्राथमिक-शिक्षा के विकास में विशेष उपलब्धि हांसिल नहीं हुई,
और न ही प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिक लक्ष्य को प्राप्त किया जा
सका। अंततः न्यायिक निर्णयों एवं तत्कालीन समय की मांग के चलते वर्ष-2002 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 86वां संविधान संशोधन
अधिनियम पारित किया, जिसके परिणाम स्वरुप ‘शिक्षा का अधिकार’ को अनुच्छेद 21 (क) के अंतर्गत ‘मूल मौलिक अधिकार’ का दर्जा मिला (भारत का संविधान-2020)। मूल संविधान
में जहाँ शिक्षा पाना बच्चों का संवैधानिक अधिकार था, अब यह
एक मौलिक या मूल अधिकार के रुप में परिवर्तित हो गया है। अक्तूबर 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा 86वां संविधान
संशोधन अधिनियम के प्रावधानों को क्रियान्वित करने के लिए ‘बच्चों
के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा विधेयक 2003’ का ‘पहला मसौदा’ तैयार किया गया तथा 2004 में ‘मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा विधेयक, 2004’
(संशोधित) प्रारूप तैयार किया गया। 2004 में
सत्ता परिवर्तन के साथ ही इस विधेयक को लेकर राजनैतिक उतार-चढाव का दौर प्रारम्भ
हुआ और अंततः 26 अगस्त 2009 को महामहिम
राष्ट्रपति महोदय के हस्ताक्षर के साथ ही निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार
अधिनियम- 2009 प्रतिस्थापित हुआ, जिसे 27 अगस्त 2009 को भारत के राजपत्र (असाधारण) में
अधिसूचित किया गया। (ममता मेहरोत्रा-2012)
‘शिक्षा
का अधिकार अधिनियम, 2009’ प्राथमिक शिक्षा की दिशा में ‘मील का पत्थर’ है, यह एक
बहुप्रतीक्षित अधिनियम है, जो आर.टी.ई. एक्ट के नाम से भी
जाना जाता है। यह अधिनियम समुचित सरकार को बाध्य करता है, कि
वह 6 से 14 वर्ष तक की आयु के प्रत्येक
बालक के लिए निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराए। शिक्षा का अधिकार
अधिनियम के
प्रमुख
बिंदु :-
1. इस अधिनियम में 6 से 14 वर्ष तक की आयु के प्रत्येक बालक को उसकी
प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक किसी आस-पास के विद्यालय में निःशुल्क और अनिवार्य
शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। साथ ही प्राथमिक शिक्षा लेने या पूरी करने के
लिए किसी भी तरह की शुल्क या फीस नहीं ली जा सकती।
2. इस अधिनियम में कक्षा में
प्रवेश न लेने या बीच में ही पढाई छोड़ देने वाले बालकों को ‘आयु
के अनुरूप समुचित कक्षा में प्रवेश’ देने और उन्हें ‘विशेष शैक्षिक प्रशिक्षण’ देने का प्रावधान है। साथ
ही किसी बालक के आयु का कोई भी सबूत नहीं होने के कारण किसी विद्यालय में प्रवेश
देने से इंकार किया जा सकता।
3. स्थानीय प्राधिकारी अपनी
अधिकारिता के भीतर निवास करने वाले 6 से 14 वर्ष की आयु के बालकों का विहित रीति के माध्यम से अभिलेख रखेगा, साथ ही प्रवासी कुटुम्बों के बालकों के प्रवेश को सुनिश्चित कराएगा।
4. प्रत्येक माता-पिता या संरक्षक
का परम कर्तव्य है कि, वह अपने बच्चों का पड़ोस के विद्यालय
मे प्रारम्भिक शिक्षा के लिए प्रवेश सुनिश्चित करें।
5. सभी प्राइवेट विद्यालय, पहली कक्षा में कुल स्थान या सीट का 25% स्थान पर
आस-पास के दुर्बल एवं वंचित समूह के बालकों के प्रवेश देंगे।
6. यह अधिनियम ‘प्रतिव्यक्ति शुल्क’ (कैपिटेशन फीस) लेने और
अनुवीक्षण प्रक्रिया (स्क्रीनिंग प्रोसेस) का निषेध करता है, अधिनियम में यह एक दण्डनीय अपराध है।
7. किसी बालक को परीक्षा परिणाम या
अन्य किसी कारण से उसी कक्षा में नहीं रोका जा सकता और न हीं उसे प्राथमिक शिक्षा
पूर्ण किए बिना विद्यालय से निष्कासित किया जा सकता।
8. किसी बच्चे को शारीरिक दण्ड तथा
मानसिक उत्पीड़न नहीं दिया जा सकता। यदि कोई व्यक्ति या शिक्षक ऐसा कृत करता है तो,
उसके विरूद्ध विभागीय अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाएगी।
9. शिक्षकों के कर्तव्य- प्रत्येक
कार्यदिवस में नियमितरूप से निर्धारित समय पर विद्यालत में उपस्थित रहना, पाठ्यक्रम का संचालन करना और निर्धारित समय में पूर्ण कराना, नियमित रूप से अभिभावकों से संवाद करना।
10. यह अधिनियम शिक्षक को जनगणना,
निर्वाचन एवं आपदा सेवाओं को छोड़ किसी गैर-शैक्षिक कार्य में लगाने
और शिक्षकों के प्राईवेट ट्यूशन या प्राईवेट शिक्षण क्रियाओं में भाग लेगा का
निषेध करता है।
11. प्रत्येक बालक को प्रारंभिक
शिक्षा पूरी कर लेने पर निर्धारित प्रारूप और रीति में एक प्रमाण-पत्र दिया जाएगा।
12. केंद्र सरकार 'राष्ट्रीय बालक अधिकार संरक्षण आयोग' और ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद्’ एवं राज्य सरकारें
राज्यों में 'राज्य बालक अधिकार संरक्षण आयोग' और ‘राज्य सलाहकार परिषद्’ का
गठन करेंगी। .................आदि (आर.टी.ई. एक्ट-2009)
‘विद्यालय
प्रबंधन समिति’ (SMC)- बालक विद्यालय और समुदाय दोनों से ही
नित नवीन कौशल व ज्ञान को सीखता है, दोनों ही एक-दूसरे के
संचालन एवं कार्यकरण को प्रभावित करते है। विद्यालय एक गतिशील तंत्र है, जो विद्यार्थी, अध्यापक, और
समुदाय के परस्पर सहयोग एवं समन्वय पर क्रियाशील रहता है। इसी लिए विद्यालय के
संचालन एवं कार्यकरण में अभिभावकों एवं स्थानीय समुदाय के रचनात्मक हस्तक्षेप एवं
सहयोग की दृष्टि से आर.टी.ई. एक्ट-2009 में एस.एम्.सी. का
प्रावधान किया गया है। ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009’
के सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रावधानों में से एक है, विद्यालय प्रबंधन समिति का गठन।
आर.टी.ई. एक्ट
की धारा- 21 (1) में कहा गया है कि प्रत्येक विद्यालय के लिए एक ‘विद्यालय प्रबंधन समिति’ का गठन किया जाएगा, जिसमें कम से कम तीन चैथाई सदस्य माता-पिता या अभिभावक होंगे। समिति में
दुर्बल वर्ग तथा अलाभित समूह विद्यार्थियों के माता-पिता या अभिभावको को सामान
अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाएगा, साथ ही कुल सदस्यों में
से पचास प्रतिशत सदस्य महिलाएं होंगी। आर.टी.ई. एक्ट की धारा- 21 (2) में विद्यालय प्रबंध समिति के कर्तव्य का वर्णन है जो निम्न है- विद्यालय
के दैनिक क्रिया-कलापों को मॉनिटर करना, विद्यालय के विकास
के लिए योजना बनाना तथा संस्तुति प्रदान करना, समुचित सरकार
तथा स्थानीय प्राधिकारी प्रदत्त अनुदान के उपयोग की निगरानी रखना और अन्य
निर्धारित कार्य करेगी। (आर.टी.ई. एक्ट-2009)
अध्ययन की
आवश्यकता एवं महत्त्व:- किसी नियम, कानून या योजना की
सफलता उसके सही क्रियान्वयन पर निर्भर करती है। आर.टी.ई. कानून को लागू हुए 10 वर्ष से अधिक समय हो गया है, वर्तमान परिस्थिति व
समय में इस बात का आंकलन करना अति आवश्यक है, कि जमीनी स्तर
पर इसका कार्यान्वयन कितना हुआ। ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 एवं इसके तपसिल में भारत की केन्द्रीय सरकार का नियम- 2010 में एस.एम्.सी. को महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व सौंपे गए है, अतः इनका सही क्रियान्वयाव तभी संभव है, जब
एस.एम्.सी. अपनी भूमिका का निर्वाह ठीक ढंग से करें। इसी लिए शोध-पत्र में ‘निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009’ के क्रियान्वयन में ‘विद्यालय प्रबंधन समिति’
की भूमिका का अध्ययन किया गया है।
उद्देश्य
:-
01. विद्यालय प्रबंधन समिति’(एस.एम्.सी.) के सदस्यों में
अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूकता का अध्ययन करना।
02. शिक्षा के प्रचार-प्रसार, विद्यालय के संचालन एवं
विकास में एस.एम्.सी. के सदस्यों के प्रयासों व योगदान का अध्ययन।
03. ‘निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009’ के क्रियान्वयन में ‘विद्यालय प्रबंधन समिति’
की सार्थकता का आंकलन करना।
परिकल्पना:- 01. ‘विद्यालय प्रबंधन समिति’ के सदस्य ‘निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009’और इससे सम्बंधित नियमों के सन्दर्भ में अपने कर्तव्यों या दायित्वों का
निर्वाह सजगता से कर रहे है।
02. ‘विद्यालय प्रबंधन समिति’ के सदस्यों द्वारा शिक्षा
के प्रचार-प्रसार, विद्यालय के संचालन, प्रबंधन एवं विकास में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया जा रहा है।
प्रविधि एवं
उपकरण:- प्रस्तुत अध्ययन में सर्वेक्षण-विधि का प्रयोग किया गया है, जिसमें स्वनिर्मित साक्षात्कार अनुसूची के माध्यम से प्रदत्तों या तथ्यों
को संकलित किया गया।
न्यादर्शन:- यह
अध्ययन सागर जिले के शाहगढ़ विकासखंड के शासकीय विद्यालयों की ‘विद्यालय
प्रबंधन समिति’ (एस.एम्.सी.) के सदस्यों पर किया गया है,
जिसमें उद्देशपूर्ण निदर्शन के आधार पर समग्र में से कुल 20 विद्यालयों को चुना गया और चयनित विद्यालयों की एस.एम्.सी. के सदस्यों
में से 200 उत्तरदाताओं को चयनित किया गया है।
प्रदत्तों का
वर्गीकरण-सारणीकारण एवं विश्लेष्ण-
तालिका एवं
दंडारेख क्रमांक- 01 का विश्लेष्ण एवं व्याख्या- ‘विद्यालय
प्रबंधन समिति’ के कुल 200 सदस्यों में
से 62 सदस्यों (31%) को ‘विद्यालय विकास योजना’ के बारे में सामान्य या
थोड़ी-बहुत जानकारी है और 48 सदस्यों (24%) को ही विशिष्ट या पर्याप्त जानकारी है, जबकि 42 सदस्यों (21%) ने माना कि उन्हें ‘विद्यालय विकास योजना’ के सन्दर्भ में कोई भी
जानकारी नहीं है और 48 सदस्यों (24%) ने
कोई उत्तर ही नहीं दिया है।
वहीं माता-पिता
या संरक्षकों के 120 सदस्यों में से 38 सदस्यों (31.66%)
को ‘विद्यालय विकास योजना’ के सन्दर्भ में सामान्य या थोड़ी-बहुत और 12 सदस्य (10%)
को ही विशिष्ट या पर्याप्त जानकारी है, जबकि
स्थानीय प्राधिकारी के प्रतिनिधियों के 40 सदस्यों में से 18 सदस्यों (45%) को सामान्य या थोड़ी-बहुत और 04 सदस्य (10%) को ही विशिष्ट या पर्याप्त जानकारी है।
हालांकि अध्यापक-सह प्रधानाध्यापकों के 40 सदस्यों में से 06 सदस्यों (15%) को ‘विद्यालय
विकास योजना’ के सन्दर्भ में सामान्य या थोड़ी-बहुत और 32 सदस्य (80%) को विशिष्ट या पर्याप्त जानकारी है।
तालिका एवं दंडारेख क्रमांक- 02 का विश्लेष्ण एवं व्याख्या- ‘विद्यालय प्रबंधन समिति’ के कुल 200 सदस्यों में से 28 सदस्य (14%) विद्यालय को प्राप्त अनुदानों एवं उसके उपयोग को कभी-कभी मानीटर करते है और 50 सदस्य (25%) ही नियमित रूप से या अधिकांशता मानीटर है, जबकि 74 सदस्यों (37%) ने माना कि वो विद्यालय को प्राप्त अनुदानों एवं उसके उपयोग को कभी भी मानीटर नहीं करते है और 48 सदस्यों (24%) ने कोई उत्तर ही नहीं दिया है।
वहीं माता-पिता
या संरक्षकों के 120 सदस्यों में से 14 सदस्य (11.66%)
इस सन्दर्भ में कभी-कभी मानीटर करते है और 12
सदस्य (10%) ही नियमित रूप से या अधिकांशता मानीटर है,
जबकि स्थानीय प्राधिकारी के प्रतिनिधियों के 40 सदस्यों में से 06 सदस्य (15%) कभी-कभी मानीटर करते है और 06 सदस्य (15%) ही नियमित रूप से या अधिकांशता मानीटर है। हालांकि अध्यापक-सह
प्रधानाध्यापकों के 40 सदस्यों में से 08 सदस्य (20%) इस सन्दर्भ में कभी-कभी मानीटर करते है
और 32 सदस्य (80%) नियमित रूप से या
अधिकांशता मानीटर है।
तालिका एवं
दंडारेख क्रमांक- 03 का विश्लेष्ण एवं व्याख्या- ‘विद्यालय
प्रबंधन समिति’ के कुल 200 सदस्यों में
से 72 सदस्य (36%) विद्यालय के संचालन
या कार्यकरण को कभी-कभी मानीटर करते है और 54 सदस्य (27%)
ही नियमित रूप से या अधिकांशता मानीटर है, जबकि
40 सदस्यों (20%) ने माना कि वो
विद्यालय के संचालन या कार्यकरण को कभी भी मानीटर नहीं करते है और 34 सदस्यों (17%) ने कोई उत्तर ही नहीं दिया है।
वहीं माता-पिता
या संरक्षकों के 120 सदस्यों में से 48 सदस्य (40%)
विद्यालय के संचालन या कार्यकरण को कभी-कभी मानीटर करते है और 18 सदस्य (15%) ही नियमित रूप से या अधिकांशता मानीटर
है, जबकि स्थानीय प्राधिकारी के प्रतिनिधियों के 40 सदस्यों में से 16 सदस्य (40%) कभी-कभी मानीटर करते है और 08 सदस्य (20%) ही नियमित रूप से या अधिकांशता मानीटर है। हालांकि अध्यापक-सह
प्रधानाध्यापकों के 40 सदस्यों में से 08 सदस्य (20%) विद्यालय के संचालन या कार्यकरण को
कभी-कभी मानीटर करते है और 28 सदस्य (65%) नियमित रूप से या अधिकांशता मानीटर है।
तालिका एवं दंडारेख क्रमांक- 04 का विश्लेष्ण एवं व्याख्या- ‘विद्यालय प्रबंधन समिति’ के कुल 200 सदस्यों में से 70 सदस्य (35%) कभी-कभी ही अभिभावकों के साथ संवाद एवं समन्वय करते है और 52 सदस्य (26%) नियमित रूप से या अधिकांशता संवाद एवं समन्वय करते है, जबकि 44 सदस्यों (22%) ने माना कि वो कभी भी अभिभावकों के साथ संवाद एवं समन्वय नहीं करते है और 34 सदस्यों (17%) ने कोई उत्तर ही नहीं दिया है।
वहीं माता-पिता
या संरक्षकों के 120 सदस्यों में से 44 सदस्य (36.66%)
कभी-कभी ही अभिभावकों के साथ संवाद एवं समन्वय करते है और 14 सदस्य (11.66%) नियमित रूप से या अधिकांशता संवाद
एवं समन्वय करते है, जबकि स्थानीय प्राधिकारी के
प्रतिनिधियों के 40 सदस्यों में से 18
सदस्य (45%) कभी-कभी संवाद एवं समन्वय करते है और 06 सदस्य (15%) नियमित रूप से या अधिकांशता संवाद एवं
समन्वय करते है। हालांकि अध्यापक-सह प्रधानाध्यापकों के 40
सदस्यों में से 08 सदस्य (20%) कभी-कभी
संवाद एवं समन्वय करते है और 32 सदस्य (80%) नियमित रूप से या अधिकांशता संवाद एवं समन्वय करते है।
परिणाम
:-
तालिका एवं
दंडारेख क्रमांक-01 का विश्लेष्ण एवं व्याख्या से ज्ञात होता है,
कि विद्यालय प्रबंधन समिति के 55% सदस्यों को
ही ‘शाला विकास योजना’ के सन्दर्भ में
जानकारी है, जबकि माता-पिता या संरक्षक सदस्यों में यह आंकड़ा
मात्र 41.66% और स्थानीय प्राधिकारी के प्रतिनिधि सदस्यों
में 55% है। हालांकि अध्यापक-सह प्रधानाध्यापक सदस्यों में
से 95% सदस्यों को शाला विकास योजना के सन्दर्भ में जानकारी
है।
तालिका एवं
दंडारेख क्रमांक-02 का विश्लेष्ण एवं व्याख्या से ज्ञात होता है,
कि विद्यालय प्रबंधन समिति के मात्र 39% सदस्य
ही ‘विद्यालय को प्राप्त अनुदानों एवं उसके उपयोग’ को मानीटर करते है, जबकि माता-पिता या संरक्षक
सदस्यों में यह आंकड़ा सिर्फ 21.66% और स्थानीय प्राधिकारी के
प्रतिनिधि सदस्यों में 30% है, हालांकि
अध्यापक-सह प्रधानाध्यापक सदस्यों में से 100% सदस्य
विद्यालय को प्राप्त अनुदानों एवं उसके उपयोग को मानीटर करते है।
तालिका एवं
दंडारेख क्रमांक-03 का विश्लेष्ण एवं व्याख्या से ज्ञात होता है,
कि विद्यालय प्रबंधन समिति के 63% सदस्य ही ‘विद्यालय के संचालन एवं कार्यकरण’ को मानीटर करते है,
जबकि माता-पिता या संरक्षक सदस्यों में यह आंकड़ा मात्र 55% और स्थानीय प्राधिकारी के प्रतिनिधि सदस्यों में 60% है, हालांकि अध्यापक-सह प्रधानाध्यापक सदस्यों में
से 85% सदस्य विद्यालय के संचालन एवं कार्यकरण को मानीटर
करते है।
तालिका एवं दंडारेख
क्रमांक-04 का विश्लेष्ण एवं व्याख्या से ज्ञात होता है,
कि विद्यालय प्रबंधन समिति के 61% सदस्य ही ‘अभिभावकों से संवाद एवं समन्वय’ संबंधी कार्य करते
है, जबकि माता-पिता या संरक्षक सदस्यों में यह आंकड़ा केबल 45.32% और स्थानीय प्राधिकारी के प्रतिनिधि सदस्यों में 60% है, हालांकि अध्यापक-सह प्रधानाध्यापक सदस्यों में
से 100% सदस्य अभिभावकों से संवाद एवं समन्वय संबंधी कार्य
करते है।
निष्कर्ष
:- परिणामों से ज्ञात होता है, कि औसत मात्र 54.5% एस.एम्.सी. सदस्य ही अपने कर्तव्यों या दायित्वों का निर्वाह कर रहे है,
जबकि अभिभावक सदस्यों में यह आंकड़ा केबल 40.91% ही है, हांलाकि शिक्षक सदस्यों में से 95% सदस्य विद्यालय प्रबंधन समिति के कर्तव्यों या दायित्वों का निर्वाह कर
रहे है। अध्ययन से यह भी पता चला, कि अभिभावक सदस्य, प्राधिकारी के प्रतिनिधि सदस्य और अध्यापक सदस्यों के मध्य जागरूकता एवं
कर्त्तव्य परायणता में तुलनात्मक दृष्टि से बहुत अंतर है।
सुझाव
:- एस.एम्.सी. सदस्यों को आर.टी.ई. एक्ट-2009 एवं इससे संबंधित
नियमों और इनके सन्दर्भ में अपने अधिकारों और दायत्वों के प्रति जागरुक, उन्मुख एवं प्रशिक्षित कराने की आवश्यकता है, जिससे
वे अपनी भूमिका का निर्वाह अधिक प्रभावी ढंग से कर सकें। विद्यालय प्रबंधन समिति
के सदस्यों की सक्रिय सहभागिता को सुनिश्चित करने और उन्हें अधिकार एवं कर्तव्यों
के प्रति शिक्षित व जागरुक बनाने के लिए विशेष तरह के प्रशिक्षण कार्यक्रम,
एवं कार्यशालाओं आदि का नियमित आयोजन किया जाना चाहिए, साथ ही समय विशेष के लिए कोई लक्ष्य निर्धारित करके एस.एम्.सी को कार्य
सौपें और उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाली समिति एवं सदस्यों को प्रोत्साहन के लिए
पुरुस्कृत किया जाए। विद्यालय प्रबंधन समितियां अपनी रचनात्मक सोच और सकारात्मक
संवाद के माध्यम से विद्यालयीन शिक्षा व्यवस्था को अधिक प्रभावी और सफल बना सकती
है।
सन्दर्भ
:
2. मेहरोत्रा, ममता एवं शर्मा महेश: शिक्षा का अधिकार, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2012
3. घोष, सुरेश चन्द्र: द हिस्ट्री ऑफ़ एजूकेशन इन मोड़न इण्डिया (1757 -2012), ओरिएण्ट ब्लैकस्वान, नई दिल्ली, 4-एडिशन, 2013
4. गुप्ता, डॉ एस.पी.: भारत का संविधान, LexisNexis पब्लिकेशन, तृतीय संस्करण-2016
5. बसु, डॉ. दुर्गा दास: भारत का संविधान एक परिचय, LexisNexis पब्लिकेशन, 11वां संस्करण- 2016,
6. पांडे, डॉ. जे. एन.: भारत का संविधान, सेंट्रल लॉ एजेंसी-इलाहाबाद, 52वां संस्मरण- 2019
7. भारत का संविधान (9, दिसंबर 2020 को तथाविद्यमान) भारत सरकार, नई दिल्ली
8. राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1964-66) रिपोर्ट- ‘शिक्षा एवं राष्ट्रीय प्रगति’, शिक्षा विभाग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली
9. राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986, शिक्षा विभाग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भातर सरकार, नई दिल्ली
10. आचार्य राममूर्ति समिति रिपोर्ट-1990 भारत सरकार, नई दिल्ली
11. भारत का राजपत्र (असाधारण) 27 अगस्त 2009, भारत सरकार, नई दिल्ली
12. सद् गोपाल, अनिल, संसद में शिक्षा का अधिकार छीनने वाला बिल, किशोर भारतीय सरोकार अकादमी, भोपाल, द्वितीय संस्करण-2009
13. फारुकी, उमर, (2011), शिक्षा हर बच्चे का मौलिक अधिकार, कुरुक्षेत्र- 57(7), 03-07 प्रकाशन विभाग, रामकृष्णपुरम्, नई दिल्ली,
14. प्रपन्न, कौशलेन्द्र, भारत में प्राथमिक शिक्षा, योजना 56(8), प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली-2012
15. विलानिलम, जे. वी., भारत में शिक्षा व्यवस्था: 1947-2012, योजना 56(8), प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली-2012
श्याम सुन्दर पटैरिया
शोध छात्र, राजनीति विज्ञान एवं लोकप्रशासन विभाग
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर 470003 (मध्यप्रदेश)
shyamsunderpateriya1312@gmail.com
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
एक टिप्पणी भेजें