- रिचा नागर
शोध-सार : पौराणिक साहित्य को आधार बनाकर लिखे गए हिंदी उपन्यासों में स्त्री मिथकीय पात्रों पर भी खूब लिखा गया। यह शोध पत्र उन्हीं मिथकीय स्त्री पात्रों की आधुनिक व्याख्या और समकालीन स्त्री विमर्श के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए उनकी प्रासंगिकता की पड़ताल करता है। इसमें मूल रूप से पाँच स्त्री पात्रों से सम्बन्धित उपन्यासों को लिया गया है। जिनमें मृदुला सिन्हा के ‘परितप्त लंकेश्वरी’ और ‘अहल्या उवाच’ उपन्यास तथा रामकिशोर मेहता का ‘पराजिता का आत्मकथ्य’, आनंदनीलकंठन का ‘वानर’ और डॉ ममतामयी चौधरी का 'वैश्रवणी' उपन्यास केंद्र में हैं। लेखक-लेखिकाओं ने आधुनिक समाज के विचारों को केंद्र में रखा है और उनकी प्रासंगिकता सिद्ध करने का प्रयास किया है। इस शोध पत्र में रचनाकारों के उन्हीं विचारों और सिद्धांतों के मूल्यांकन का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द:- स्त्री अस्मिता, उपेक्षित स्त्री मिथकीय पात्र, रामायण, मंदोदरी, तारा, कैकेयी, अहल्या, शूपर्णखा।
मूल आलेख : परोक्ष रूप से नारी को समाज में पुरुषों के बराबर अधिकार दिए
गए हैं, देवी का दर्जा दिया गया है,
लेकिन उसे सारे अधिकार गौण रूप में
प्राप्त हैं। इसी समाज में स्त्रियों का पर्याप्त शोषण भी किया जाता है लेकिन क्या
कभी ऐसा समाज रहा है जहाँ स्त्री और पुरुष को समान अधिकार प्राप्त थे?
वैदिक युग में स्त्री और पुरुषों के मौलिक अधिकारों में कोई
खास अंतर था, ऐसा वैदिक साहित्य से नजर नहीं आता। विशेष वर्ग की स्त्रियों को
पुरुषों के समान संपत्ति और शिक्षा का अधिकार था। वे अपना आत्मविकास और उत्थान कर
सकती थीं। उत्तर वैदिक काल में यज्ञ और पूजा पाठ आदि कार्यों की पवित्रता और शुद्धता
के नाम पर स्त्रियों के साथ भेदभाव किया जाने लगा। वर्ग विशेष की स्त्रियाँ भी उसी
सामाजिक ढाँचे की शोषणकारी राजनीति का शिकार हो गई। स्मृति काल तक आते-आते स्त्रियों
की स्थिति और भी दयनीय हो गयी। वे पूरी तरह से परतंत्र हो गयी। यह सब जानकारी हमें
पौराणिक साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होती है। कहने का मतलब है कि भले ही हमारी संस्कृति
में प्राचीन काल में स्त्रियों की दशा कुछ हद तक अच्छी रही हो तथापि उनके शोषण में
कोई कमी नही थी। और जब हम किसी भी देश, काल और समाज में स्त्रियों की स्थिति
को देखते हैं तो 'रामायण' और 'महाभारत' जैसी विशिष्ट कृतियों को कैसे भूला
जा सकता है। 'रामायण' संस्कृत साहित्य के इतिहास में उन
विशिष्ट कृतियों में से एक है, जिसने परिवार और सामाजिक आदर्शों
के माध्यम से जीवन की व्यापक दृष्टि को पेश किया है। जब हम रामायण के महिला पात्रों
का अध्ययन विभिन्न दृष्टिकोणों से करते हैं तो हमें उनके रिश्ते, घर और समाज में उनकी स्थिति, महिलाओं के प्रति पुरुषों का रवैया, उनकी शिक्षा, स्वतंत्रता और मानदंड के बारे में
जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। 'रामायण' महाकाव्य में बहुत से महिला पात्र
हैं; जैसे- सीता, कौशल्या, कैकयी, सुमित्रा, शबरी, अहल्या, मंथरा, उर्मिला, तारा, मंदोदरी, त्रिजटा और शूपर्णखा इत्यादि। जब
भी 'रामायण' का नाम लिया जाता है तो वह सिर्फ
राम और सीता के इर्द-गिर्द ही सिमटकर रह जाती है। साहित्यकारों ने रामायण के स्त्री
पात्रों में सिर्फ 'सीता' को आधार बनाकर बहुत साहित्य लिखा
है लेकिन जिस प्रकार किसी नाटक या फ़िल्म में मुख्य कलाकारों के साथ-साथ अन्य सहायक
कलाकारों की भी आवश्यकता होती है; अन्य सहायक कलाकारों के अभाव में
नाटक या फ़िल्म का निर्माण नही किया जा सकता ठीक उसी प्रकार 'रामायण' में और भी सशक्त स्त्री पात्र हैं
जिनके बिना 'रामायण' महाकाव्य की रचना सम्भव ही नहीं
थी लेकिन वे हमेशा ही उपेक्षा के पात्र रहें। 21वीं सदी में भी रामायण के महिला
पात्रों पर उपन्यास लिखे गए हैं जिनमें उन्हें आधुनिक संदर्भों में दिखाया गया है।
उनमें मुख्य है- कैकेयी, मंदोदरी, अहल्या, तारा और शूपर्णखा। विभिन्न
उपन्यासों को आधार बनाकर हम उनके स्त्री पात्रों का आधुनिक नारी संदर्भों में
अध्ययन करेंगे।
- मंदोदरी - 'रामायण' कथा के अनुसार मंदोदरी को सिर्फ
रावण की पत्नी के रूप में ही जाना जाता है परंतु 'रामकथा' में मंदोदरी एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। मंदोदरी 'मयासुर' और 'रंभा' की पुत्री है। उसका विवाह लंका के राजा रावण के साथ होता है। मंदोदरी को रामकथा में एक महत्त्वपूर्ण स्थान देते हुए मृदुला सिन्हा जी ने 'परितप्त लंकेश्वरी' उपन्यास लिखा है। इस उपन्यास में मृदुला जी ने मंदोदरी
को रामकथा से भिन्न एक नया आयाम देकर 21वीं सदी में आधुनिक संदर्भ
में प्रस्तुत किया है। 'वाल्मीकि' और 'तुलसी' की रामकथा में मंदोदरी को सिर्फ एक बेबस और लाचार पतिव्रता
नारी के रूप में ही दिखाया गया है। एक तरफ तो मंदोदरी को रावण जैसे वीर, विद्वान, अजेय और शिवभक्त की पत्नी होने
का सौभाग्य मिलता है तो दूसरी तरफ क्रूर, स्त्रीलोलुप और अहंकारी पुरुष
की पत्नी होने का दुर्भाग्य। रावण जैसे वीर, विद्वान, अजेय और शिवभक्त की
पत्नी होने के अपने सौभाग्य को सराहते हुए उपन्यास में मंदोदरी कहती है - “दसग्रीव
का एक नाम विजयी भी होना चाहिए था। वे किसी भी हार के लिए उत्पन्न नहीं हुए
थे। ऐसा पति पाकर कौन नारी अपने सुहाग पर नहीं इठलाएगी। मैं सौभाग्यशालिनी तो
थी ही।”1 मंदोदरी को रामकथा में एक महत्त्वपूर्ण स्थान देते हुए उनकी वीरता
और विद्वत्ता का परिचय दिया गया है। मंदोदरी अपने पति को सन्मार्ग पर लाने के
लिए उसकी क्रूरता और अहंकार को कम करने के लिए अंत तक भरसक
प्रयास करते हुए कहती हैं - “मेरे पति की स्त्रीलोलुपता
को मैंने क्यों और कैसे सहा, यह तो मेरे जीवन के बाद भी
सोचा-समझा और कारण खोजा जाता रहेगा। मैंने अपने पति की क्रूरता कम करने, उन्हें अत्याचारी होने से बचाने और सीता को छोड़ देने के
लिए समझाने–बुझाने के अथक प्रयास किए। यह अवश्य है कि मुझे अपने पति-प्रबोधन के अभियान मैं पूर्ण
सफलता नहीं मिली। पर प्रयास तो प्रयास है। परिवार और समाज की भलाई के लिए प्रयास होते रहने चाहिए। उन प्रयासों के पूर्णत सफल नहीं होने पर भी उनका अस्तित्व
रहना चाहिए।”2 रावण के इतने शक्तिशाली होने पर भी वह उससे डरती
नही है, वह खुलकर उसके कुकृत्यों की निंदा करते हुए कहती हैं- “जहाँ नारी का आदर होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। शिव को भी शक्ति(स्त्री)का सहारा है। शक्ति के बिना तो शिव भी शव हो जाते हैं। आप स्त्री को मात्र भोग्या मत समझिए। उसकी आह मत लीजिए। याद रखिए उसकी गहरी सांसो से लंका भस्म हो जाएगी। वेद में कहीं स्त्री-पुरुष को असमान नहीं माना गया। आप
स्त्रीलोलुप हो सकते हैं और मैं राम की शक्ति की प्रशंसा भी नहीं कर सकती?”3 इस उपन्यास
में मंदोदरी के चरित्र को मानवीय गुणों से युक्त निश्छल, संवेदनशील एवं समर्पित चरित्र के रूप में उभारा गया है।
मानवीय गुणों से युक्त चरित्र का परिचय देते हुए मंदोदरी इस उपन्यास में अपने
पति रावण से कहती है – “आप स्वेच्छा से किसी जोड़े को
विलग नहीं करेंगे, विरह अग्नि में किसी को तड़पने नहीं देंगे, इसकी सौगंध आप खा सकते हैं?”4 साथ ही यह
भी दिखाया गया है कि किस तरह मंदोदरी ने सौभाग्य और दुर्भाग्य दो छोरों के बीच
दौड़ते हुए अपना जीवन जिया।
- अहल्या - 'अहल्या' रामकथा की एक महत्त्वपूर्ण लेकिन उपेक्षित पात्र रही है।
'अहल्या' ऋषि मुदगल और स्वर्ग की अप्सरा
मेनका की पुत्री थी। जिनका विवाह ऋषि गौतम से हुआ। 'अहल्या' को आधार बनाकर 'मृदुला सिन्हा' जी ने एक उपन्यास लिखा- ‘अहल्या
उवाच’। अहल्या अप्सरा मेनका की पुत्री होने के कारण अप्रतिम सौंदर्य
की धनी थी। उनके सौंदर्य पर मंत्रमुग्ध हो इंद्र, ऋषि गौतम का छद्मवेश
धारण कर उन्हें बलात्कार का शिकार बना लेता है जिसकी वजह से ऋषि गौतम अहल्या को
पत्थर होने का श्राप देते हैं। अहल्या निर्दोष और पति के प्रति निष्ठामयी होती
है। अहल्या पतिव्रता और पति के प्रति निष्ठावान है इसलिए वह कहती है कि “विवाह के पूर्व ही मैंने यह निर्णय लिया था कि अपने संगी-साथियों, गुरुजनों यहाँ तक कि माँ से भी ऊपर अपने
पति की इच्छाओं पर अधिक ध्यान दूंगी।”5 अपने पति के प्रति निष्ठामयी होने के बावजूद
भी वे उनके द्वारा शापित होती हैं। आधुनिक संदर्भ में भी नारी की यही स्थिति देखने
को मिलती है। अपने सारे पत्नी धर्म को बखूबी निभाते हुए भी वह अपने पति से और
अपनों से शोषित होती है। रचना के मूल में एक नारी है जो भिन्न-भिन्न भूमिकाओं
का निर्वाह करने वाले तीन पुरूषों के सान्निध्य में आती है, जहाँ वह एक के द्वारा शोषित होती है (इंद्र)। उपन्यास
में इंद्र द्वारा शोषित होने पर अहल्या बोलती है- “मैंने आँखें खोली। वे महर्षि नहीं थे। वह मुखड़ा भी परिचित था। वह इंद्र था। मेरे शरीर से प्राण निकल गये। चेतना समाप्त हो गई। उसी क्षण जड़ हो गए मन और शरीर दोनों।”6
जिसके पास शक्ति और सत्ता है वह हमेशा
शोषणकारी ही रहा है। इंद्र यहाँ उसी का प्रतीक है। यही वजह है कि गौतम और राम
दोनों ही उसको सजा नहीं दे पाते। दूसरा पुरुष ऋषि गौतम जो कि अहल्या का पति
होने का फर्ज नहीं निभा पाता है जबकि अहल्या ने अपने गुरुजनों, संगी-साथियों
और माँ से भी ज्यादा तवज्जो गौतम को दी है। ऋषि गौतम ने जब अहल्या को इंद्र
के साथ देखा तो उन्होंने बिना कुछ सोचे समझे अहल्या को दोषी मानते हुए शाप दे
दिया- “तुम जड़वत पाषाण हो जाओगी। तुम्हारे अन्दर कुछ भी नहीं बचेगा। इस अपवित्र कुटिया में इस अपवित्र शरीर को लेकर पड़ी रहो। तुमने वैवाहिक जीवन में अटूट सतीत्व का पालन किया है, इसलिए साँस बची रह सकती है।”7 गौतम ने
इंद्र के डर से न तो कोई व्यतिगत विरोध किया और न ही समाज के सामने उस समस्या
को सामूहिक प्रतिरोध के रूप में पेश करने की हिम्मत जुटा पाया चूँकि वह इस
कार्य में सक्षम था। उसके पास बड़ी मात्रा में शिष्य मण्डली थी और साथ ही उसके
कई विद्यार्थी अनेक जगहों पर शासन-प्रशासन का हिस्सा रहे होंगे। तो फिर क्या
कारण रहे होंगे कि एक बलात्कारी का विरोध भी न कर पाया? तीसरे पुरुष के रूप
में राम अहल्या के जीवन में आते हैं जो अहल्या को शाप से मुक्त करते हुए कहते
हैं- “माँ, आप कब से सोई हैं। उठिए। हमें आशीष दीजिये। मात्र कान ही नहीं, अन्य चारों ज्ञानेन्द्रियाँ
भी सजग हो गई। आँखें देखने लगीं। उनके हाथ
का स्पर्श तो पहले ही मैंने अनुभव किया था। एक सुगंध चारों ओर फ़ैल गई थी। देखने, सुनने, सूँघने और स्पर्श की अनुभूतियों ने जिह्वा पर भी उन सुदर्शन
एवं मनमोहक युवाओं के व्यक्तित्व का मधुर स्वाद पसार दिया। सम्पूर्ण शरीर में हलचल हुई। मैं उठकर खड़े होने का प्रयास करने लगी।”8 राम का
वैभवशाली और शासकीय चरित्र यहाँ बेहद कमज़ोर नजर आता है कि इंद्र को सजा देने
के बजाय अहल्या को देवी बना देते हैं। क्या गौतम की कोई गलती नहीं थी कि एक
पीड़ित स्त्री को समाज के बाहर कर दिया? लेखिका राम को सुदर्शन और मनमोहक
बनाकर भी गौतम और इंद्र को सजा नहीं दिलवा पाती है। तीनों पात्रों का
विश्लेष्ण करने से यही समझ आता है कि पितृसत्तात्मक सामाजिक सम्बन्धों में
पुरुषों की राजनीति ही है कि तीनों एक दूसरे को बरी करते हुए चलते हैं और
पीड़ित स्त्री को न्याय दिलाने के बजाय उसको देवी के रूप में स्थापित कर देते
हैं। आधुनिक संदर्भ में भी एक स्त्री अपने जीवन में अलग-अलग पुरुषों के सान्निध्य
में आती है; जैसे- पिता, भाई, मित्र, पति, पुत्र आदि जहाँ कोई उसे शोषित करता है तो कोई उसे पोषित
करता है। यह उपन्यास युगीन परिप्रेक्ष्य में नारी के रूप, पति-पत्नी सम्बन्ध तथा नारी-पुरुष के विभिन्न सम्बन्धों
पर केन्द्रित है।
- कैकेयी - कैकेयी जो न सिर्फ रामायण का
एक उपेक्षित बल्कि कलुषित समझे जाने वाला पात्र है। कैकेयी अयोध्या के राजा राम
की तीसरी पत्नी और भरत की माँ के रूप में जानी जाती है। रामकिशोर मेहता जी ने
'पराजिता का आत्मकथ्य' उपन्यास में 'कैकेयी' को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत किया है। सोलह वर्ष की आयु
में कैकेयी को साठ वर्ष बूढ़े राजा दशरथ की कामांधता की भेंट चढ़ा दिया गया था, तभी से वह राजा दशरथ के विरुद्ध घृणा और वितृष्णा से भर
उठी थी और ताउम्र उसके विरुद्ध प्रतिशोध एवं षड्यंत्र के कुचक्र रचती रहीं। वे
पुरुष प्रधान समाज की हमेशा विद्रोही बनी रही वह कहती है- “पुरुषों ने अपने लाभ के लिए युगों से स्त्री को विनिमय
की वस्तु के रूप में तथा दान दिए जाने योग्य संपत्ति के रूप में प्रयोग किया है। स्वयं मेरा उपयोग भी मेरे पिता ने इसी तरह किया है। इसके लिए मैं अपने पिता को कभी क्षमा नहीं कर पाई। हमेशा उस समाज से विद्रोही बनी रही।”9 मंथरा को
दासी न बताकर उसे कैकय देश की कूटनीतिज्ञ बताते हुए कैकेयी उसे सम्मान देती
है- “मंथरा को अपनी दासी कहकर एक
अपराध कर रही हूँ। वह मेरी दासी नहीं है। वह तो कैकय देश की कूटनीतिज्ञ है। मेरी मित्र है। दासी होना तो एक दिखावा है। वह इस देश में मेरा सबसे बड़ा सहारा रही है। उसने अपनी जान पर खेलकर भी कैकय राज के हित साधने का प्रयत्न
किया है।”10 उपन्यास में जैसे कैकेयी पुरुष वर्चस्ववादी
समाज में अपनी जगह तलाश रही है, ठीक उसी प्रकार आज भी स्त्री
पुरुष वर्चस्ववादी समाज में अपनी जगह तलाश रही है। कैकयी पुत्र और पुत्री में कोई भेद ना मानते हुए सीता
को पुत्रवती होने की जगह संतानवती होने का आशीर्वाद देते हुए कहती है- “मुझे अच्छी तरह याद है कि मैंने
उसे आशीर्वाद दिया था। सौभाग्यवती हो, संतानवती हो। मेरे संतानवती कहने पर उसने मुझे डबडबाई आँखों से देखा
था। क्या था उसकी आँखों में, कहना कठिन है। फिर सीता ने पूछा, माँ आपने मुझे संतानवती होने
का आशीष दिया। सामान्यत सभी पुत्रवती होने
का आशीष देते हैं।”11 किस प्रकार सत्ता के सूत्र अपने हाथों में समेटने
के लिए कैकेयी छल, कपट, षड्यंत्र, ब्लैकमेलिंग आदि का सहारा लेती है लेकिन आत्मविश्लेषण में
अपने कुकृत्य पर पछताती भी है। आज के समय में भी महिलाओं की यह स्थिति देखने को
मिलती है वो पुरुष प्रधान समाज में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिये सारे प्रयत्न
करती है लेकिन इस पुरुष वर्चस्ववादी समाज में स्त्री शाश्वत पराजिता है, उस पर विजय पाने कोई बाहर से नही आता है। वह तो अपनों से
ही विजित और पराधीन है।
- तारा - तारा रामायण में किष्किंधा
के वानर राजा बाली की पत्नी है लेकिन रामायण की एक उपेक्षित पात्र रही है। रामकथा
में तारा का एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है, वह राजनीति की कसौटी है। उसकी
बुद्धिमत्ता समय-समय पर अपने शक्तिशाली विचारों द्वारा अभिव्यक्त हुई है; जैसे-
अपना पत्नी धर्म निभाते हुए महत्त्वपूर्ण समय में बाली को अच्छी सलाह देती हैं
और उसे सावधान करती है, वह जानती है कि सुग्रीव राम
के साथ गठबंधन कर चुके हैं और वह राम की शक्तियों से भली-भाँति परिचित थी लेकिन
बाली उनकी बातों पर कोई विशेष ध्यान नही देता है और अंत में उसको परिणाम भुगतना
पड़ता है। आधुनिक संदर्भ में अगर इसको देखा जाये तो आज भी महिलाओं को बस उनके घरेलू
कामों तक ही सीमित रखा जाता है उनको बाहरी मामलों में सलाह मशविरे के काबिल नहीं
समझा जाता है। 'तारा' को रामकथा में एक महत्त्वपूर्ण
स्थान और आयाम देते हुए 'आनंद नीलकण्ठ' ने एक उपन्यास लिखा है 'वानर' जिसमें जिसमें तारा को आधुनिक सन्दर्भ में दिखाते हुए एक
सशक्त नारी के रूप में दिखाया गया है। आज नारी शक्तीकरण की बात खूब होती है
लेकिन उस दौर में महिलाओं की हालत न तो देवों और मनुजों के समाज में अच्छी थी,
न ही असुरों के समाज में। उपन्यास में वानरों की रानी तारा अपने आप से उस
दौरान जब लक्ष्मण ने शूपर्णखा की नाक काट दी थी एक महीन सवाल पूछते हुए कहती
है- “यह कौन सा पुरुषार्थ है, जिसमें
निजी शत्रुता की भेंट महिलाएँ चढ़ती हैं।”12 तारा को राजनीति और कूटनीति का अच्छा ज्ञान था।
तारा जीवन के हर मोड़ पर बहुत सोच समझकर फैसले लेती है, अपने पति बाली के मृत्यु के बाद वह सुग्रीव के संरक्षण
में आती है और उसे भी समय-समय पर सही सलाह देकर और लक्ष्मण के गुस्से से उसको
बचाकर अपनी सूझबूझ का परिचय देती है। आनंद नीलकण्ठ की तारा वाल्मीकि और तुलसी
की तारा की तरह विलाप करती हुई नज़र नहीं आती है, पति की मृत्यु के बाद वह और मजबूती के साथ खड़ी होती है
और अपनी सूझबूझ से अपने बेटे अंगद को राजगद्दी का उत्तराधिकारी बनाती है। लक्ष्मण
द्वारा शूपर्णखा की नाक काटने और बदले में रावण के द्वारा सीता का अपहरण होने
पर तारा पुरुषार्थ पर सवाल उठाती है और बोलती है। यह कौन सा पुरुषार्थ है, जिसमें निजी शत्रुता की भेंट महिलाएँ चढ़ती हैं। अतः तारा
का चरित्र अपने सम्पूर्ण गुण-दोषों से परिपूर्ण एक ऐसी नारी का चरित्र है, जो जटिल एवं विसंगतियों से पूर्ण आधुनिक युग में भारतीय
महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है।
- शूपर्णखा - शूपर्णखा को भारतीय पौराणिक
कथा रामायण में एक खलनायिका के रूप में जाना जाता है, शूपर्णखा रावण की बहन थी और रामकथा की एक उपेक्षित पात्र
रही है क्योंकि रामायण कैकयी और शूपर्णखा जैसी महत्त्वाकांक्षी और पहल करने वाली
स्त्रियों को घृणित बताकर स्त्रियों को नकारात्मक छवि प्रदान करता है। रामकथा
में शूपर्णखा को नया आयाम देते हुए डॉ. ममतामयी चौधरी ने 'वैश्रवणी' में शूपर्णखा को एक सशक्त और स्वछंद नारी के रूप में दिखाया
है जो सीधे पुरुषों की मर्यादा के प्रतिनिधि राम पर सवाल खड़े करती है। उपन्यास
में शूपर्णखा को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत करते हुए यह प्रश्न उठाया गया है
कि एक स्त्री जो सिर्फ अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करती है, उसके नाक-कान काट लेना कहाँ की मर्यादा है? शूपर्णखा अपने
भाई रावण को भी कटघरे में खड़ा करती है कि उसने कैसे कथित तौर पर अपनी मुक्ति या
दंभ के लिए अपनी बहन को हथियार बनाया। पुरुषों की मर्यादा के खिलाफ स्त्री
विद्रोह को प्रकट करते हुए शूपर्णखा कहती है- “छल, बल, कौशल से अपने को संसार
भर में श्रेष्ठ तथा महान प्रतिपादित करने का लोभ जो तुम्हारे भीतर जड़ जमाए
हुए है, उसे मैं अच्छी तरह देख सकती हूँ, चाहें तुम उसे लाख आवरण से छिपाने
का प्रयास क्यों न करो।”13 उपन्यास में शूपर्णखा के चरित्र के बहाने स्त्री आजादी
और उसके अधिकारों की आवाज़ मुखर होती है।
निष्कर्ष : लेखकों के दृष्टिकोण और मिथकीय चरित्रों के विवेचन के पश्चात हम कुछ निष्कर्षों पर पहुँचे हैं। मृदुला सिन्हा की मंदोदरी विद्रोहात्मक रूख अपनाने की कोशिशों में सफल नहीं हो पाती है। हालाँकि मंदोदरी के रोषपूर्ण व्यक्तव्य स्त्री के प्रति सामाजिक दु:खों में कमी नहीं कर पाते हैं और रावण के कर्मों को ही वह नियति मान लेती है। इसी तरह अहल्या का चरित्र भी समाज के मर्यादित दायरों से बाहर नहीं निकल पाता। राम का वैभव पुरुष सत्ता को ही मजबूत करते हुए आगे बढ़ता है। शोषण करने वाला भी पुरुष और न्याय करने वाला भी पुरुष लेकिन अत्याचार का दंड कहीं नहीं है। राम का न्याय विधान इंद्र या गौतम को दंड के बिना पुरुष सत्ता को ही मजबूत करने का प्रयास नज़र आता है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में अहल्या को कितने ही वर्षों समाज का निष्काषन झेलना पड़ा उसका कोई हिसाब नहीं है। रामकिशोर मेहता की कैकयी का चरित्र सम्पूर्ण उपन्यास में पुरुष जाति से घृणा और विद्रोह का रूप लिए रहता है परंतु अंत में आत्मविश्लेष्ण में पछताना मानवीय स्वभाव और समाज के दृष्टिकोण से न्यायसंगत हो सकता है लेकिन स्त्री दृष्टि से सार्थक नहीं क्योंकि पछताने से पुरुष सत्ता की क्रूरता कम न हो जाएगी। आनंद नीलकंठन की तारा घोर राजनीतिक, कूटनीतिज्ञ और समझदार ठहरती है। वह न केवल शासन सत्ता पर पकड़ बनाएँ रखती है अपितु लक्ष्मण द्वारा शूपर्णखा का नाक काटने के सवाल पर पुरुष सत्ता पर आँखें भी तरेरती है। आधुनिक संदर्भों में स्त्री आँख तरेरने से आगे बढ़कर कार्य व्यवहार तक पहुँचने की कोशिशों के रूप में देख सकते हैं। डॉ. ममतामयी चौधरी की शूपर्णखा स्त्री अधिकारों और स्वतंत्रता के मायने समझने में सबसे आगे है। उसके लिए अधिकार और इज्जत जीवन मरण का सवाल है। उनके लिए वह अपने भाई से भी बैर मोल लेने के लिए तैयार है और अपने प्रेम की अभिव्यक्ति को मर्यादाहीन चरित्र का हिस्सा मानकर चुप नहीं बैठती। इन पाँचों स्त्री मिथकीय पात्रों में से तारा और शूपर्णखा ही स्त्री अधिकारों, स्वतंत्रता और सम्मान के लिए अंतिम हदों तक संघर्ष करती नजर आती है। मंदोदरी, कैकयी और अहल्या के संघर्षों में स्त्री अधिकारों की लड़ाई का चरम देखने को नहीं मिलता लेकिन उनके संघर्ष पुरुष सत्तात्मक समाज में आधुनिक स्त्री के लिए प्रेरणास्रोत है।
1.परितप्त लंकेश्वरी, मृदुला सिन्हा, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, पृ. 107
2.वही, पृ. 122
3. वही, पृ. 194
4. वही, पृ. 78
5. अहल्या उवाच, मृदुला सिन्हा, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, पृ.72
6. वही, पृ.162
7. वही, पृ.164
8. वही, पृ.197
9. पराजिता का आत्मकथ्य, रामकिशोर मेहता, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, भूमिका
10. वही, पृ.14
11. वही, पृ.19
12.https://www.aajtak.in/literature/review/story/review-of-vanara-the-legend-of-baali-sugreeva-and-tara-a-anand-neelakantan-novel-670231-2019-07-23
13.https://www.aajtak.in/india-today-hindi/literature/story/the-story-of-women-rebel-questioning-lord-rama-215686-2014-07-21
शोधार्थी, हिंदी विभाग, राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय, बांदरसिंदरी, किशनगढ़, अजमेर, 305817
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
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