राजमार्ग पर मजदूरों का ‘धर
कोसा धर मझला’ (कोरोना त्रासदी भाग-3)
- डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर
उस दिन मनोहरगढ़ क्षेत्र का फील्ड सर्वे करने के
लिए निकला ही था कि रास्ते में चाकू छुरी तेज करवाने वाली मशीन को पीठ पर ढोते एक
मजदूर को देख कर रुक गया। मशीन पर लिखा था, ‘मेरा भारत महान’। मुझे लगा कि यह वाक्य पूरे देश पर अठ्ठाहास कर रहा है। ‘महान भारत’ का बोझ मजदूरों की पीठ पर टिका हुआ है,
यह बात आज समझ आई। बदले में मजदूरों को व्यवस्था बिना किसी उचित
सहयोग के सदियों से देश को ढोने हेतु मजबूर कर रही है। जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया,
मजदूरों के रेले के साथ-साथ उनका दर्द अंतहीन फैलाव कि और बढ़ता
गया। लंबा रेला देखने के बावजूद इस विषय पर कुछ ज्यादा गंभीरता नहीं दिखा पाया।
सर्वे का कार्य जल्दी करने का निर्देश राज्य सरकार की ओर से हमें मिले हुए थे।
पहली लहर के समय कोरोना को लेकर जो डर लोगों के बीच में फैला था, उससे मैं भी अछूता नहीं था। किसी बाहरी व्यक्ति के माध्यम से ही कोरना
किसी अन्य क्षेत्र में फैलेगा, ऐसी अफवाह चारों तरफ आम थी।
सरकारी दिशा निर्देश भी कुछ ऐसे थे कि इनसे दूरी बनाए रखना सरकारी आदेश था। लगभग
दो सप्ताह तक पैदल चलते मजदूरों की पीड़ा को नजरअंदाज करते हुए क्षेत्र सर्वे और
दोस्तों द्वारा उपलब्ध कराई गई रसद सामग्री आम लोगों तक पहुँचा रहा था जिसका
जिक्र पिछले दो भाग में हो चुका है। ऐसी
पुख्ता जानकारियाँ भी पर्याप्त मात्रा में मिल रही थी कि प्रतापगढ़ शहर के भीतर इन
मजदूरों को ठहरने और भोजन की व्यवस्था कुछ लोग कर रहे हैं।
शायद 15 अप्रैल, 2022 के आसपास की बात होगी। सोशल मीडिया पर पैदल चलते मजदूरों के एक रेले का फोटो एक संक्षिप्त टिप्पणी के साथ पोस्ट किया। पोस्ट करने के कुछ घंटों के बाद माणिक्य लाल वर्मा राजकीय महाविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ.मनीष रंजन का कॉल आया। उन्होंने अब तक किए गए कार्य का फीडबैक लिया और सवाल किया कि तुमने अभी तक पैदल चलते हुए मजदूरों के लिए क्या किया।
“सर मजदूरों के लिए तो गाँव-गाँव में राहत कैंप खुले
हुए हैं।”
“नहीं, मुझे यह बताओ कि तुमने अभी
तक मजदूरों के लिए क्या योजना बनाई है? दूसरे क्या कर रहे
हैं यह मत बताओं।”
“अब तक तो कुछ नहीं कर पाया, सिवाय
उनको चलते हुए देखने और फोटो लेने के अलावा। मजदूरों को तो जगह-जगह पर खाना मिल
रहा है इसीलिए मेरी प्राथमिकता में दूरदराज के क्षेत्रों में रहने वाले वंचित
लोगों तक साधन पहुँचाना है।”
“तुम इतने दावे के साथ कैसे कह सकते हो कि इन मजदूरों
को किसी प्रकार की जरूरत नहीं है?” प्रोफेसर साहब के इस सवाल
ने मुझे चुप कर दिया।
"तो सर अब आप ही बताइए कि क्या रूपरेखा
बनाऊँ?
“अपने झोले (काले बैग) में पैदल चलने वाले मजदूरों के
लिए भी कुछ सामग्री तैयार रखो और उन्हें कैसे बांटना है, इसका
फैसला जमीनी हकीकत के आधार पर खुद लो।”
“ठीक सर।”
कॉल डिस्कनेक्ट होने के बाद उधेड़बुन में पड़
गया। प्रतापगढ़ के देहाती इलाकों में सामग्री वितरण के लिए तो उदयपुर और भीलवाड़ा
के शोधार्थी मित्र मदद कर रहे हैं, पैदल चलते मजदूरों के
लिए मदद कहाँ से माँगू? काफी द्वंद्व के बाद आखिर उसी अंतिम
बिंदु पर पहुँचा जहाँ अक्सर मुझे रास्ता मिल जाता है, वह
बिंदु है, “जो होगा वो देखा जाएगा, चलो
काम शुरू करें, पैसों की जरूरत के लिए “डायर बैंक जिंदाबाद।”
तो साहब सुबह झोले में बिस्किट के पैकेट और
भुंगड़े रखकर निकल पड़ा मनोहरगढ़ की ओर। आपको बता दूं मनोहरगढ़ का रास्ता
प्रतापगढ़ और रतलाम को जोड़ने वाला एक राजमार्ग हैं। इसी राजमार्ग से होकर दलोट, सैलाना, रतलाम और आगे उज्जैन की ओर लोग जा रहे थे।
अब हर घड़ी लोगों को सामग्री बांटता रहूँ तो देहात का सर्वे और वहाँ जरूरी सामग्री
कौन पहुँचाएगा? इस सवाल के उत्तर की तलाश करते हुए रास्ता
निकाला कि शाम के समय यानी 3:00 से 5:00 बजे के बीच इनको सामग्री बांटी जाएगी।
इसके पीछे का मुख्य कारण यह है कि सुबह-सुबह आने वाले मुसाफिर प्रतापगढ़ और अन्य
जगहों से खाना खाकर निकलते थे और शाम के समय कईयों को खाना समय पर नहीं मिल पाता
तथा दिन के समय चिलचिलाती धूप में लोग कम ही सड़कों पर दिखाई देते थे। 11:00 से
3:00 तक का समय सर्वे और सामग्री वितरण के लिए भी निश्चित था।
मजदूरों के लिए पहला बेस कैंप कक्षा 11 के
विद्यार्थी संजय गोस्वामी की बंद दुकान को बनाया। उस किराने की छोटी सी दुकान से
कुछ सामग्री खरीदने के साथ-साथ शाम को बैठकर मजदूरों को सामग्री बांटना शुरू किया।
सहायता राशि के लिए फिर अपने उदयपुर और भीलवाड़ा की मित्रों के आगे हाथ फैलाया।
उन्होंने मुझे निराश नहीं किया।
काम की शुरुआत के साथ ही कई समस्याएँ सामने आने
लगी। संजय की दुकान को बेस कैंप बनाना कुछ ग्रामीणों को अनुचित लगा, सो सप्ताह भर बाद ही उसे बंद करना पड़ा। इसके अलावा पैदल चलने वाले
मजदूरों को भोजन राशन की जगह किसी आवागमन के साधन की ज्यादा जरूरत लग रही थी। एक
तरफ तो कोरोना का डर दूसरी तरफ ठप आवागमन व्यवस्था। अब ऐसे में मदद कैसे की जाए?
यह प्रश्न फिर डॉ मनीष रंजन साहब के सामने रखा तो सलाह मिली कि बेस
कैंप किसी सुने घर में रखो, बाकी यातायात की व्यवस्था के लिए
अपने स्तर पर कुछ देखो। लगभग सप्ताह भर तक कलेजे पर पत्थर रखकर आते जाते मजदूरों
को देखता रहा, पर उनकी कोई विशेष मदद नहीं कर पाया। आटा
चक्की के मालिक और लाइब्रेरियन भीम सिंह जी मीणा जो मनोहरगढ़ में रोड किनारे ही
रहते हैं, से मुलाक़ात हुई। उन्होंने अपना एक कमरा राहत
सामग्री रखने हेतु सहमति दिखा दी। साथ ही लोगों को अपने स्तर पर उस सामग्री को
पहुँचाने की जिम्मेदारी भी उठा ली। इस तरह से एक जिम्मेदारी से मुक्ति मिली,
अब दूसरी जिम्मेदारी साधन की थी।
कुछ-कुछ मालवाहक ट्रक माल पहुँचाने के लिए
प्रतापगढ़ आ जा रहे थे। एक तो सरकार की सख्ती और दूसरा मैं एक सामान्य मास्टर, भला मेरा रौब किस पर चलता? एक दिन संजय के घर के पास
पीपल के पेड़ के नीचे बैठा दोपहर को मजदूरों के एक जत्थे से बातें कर रहा था कि एक
ट्रक प्रतापगढ़ से रतलाम की ओर जाता दिखाई दिया। आज हिम्मत कर ट्रक वाले को रुकने
के लिए कहा। गले में आइडेंटी कार्ड और कंधे पर बैग देख कर उसने ट्रक रोक दिया।
मजदूरों को ले जाने के लिए जब प्रस्ताव उनके सामने रखा तो उसने कहा, “मुझे कोई दिक्कत नहीं है, पर आगे अरनोद के पास हो
सकता है कि मुझे प्रशासन पकड़ ले। इसलिए मुझे आपकी तरफ से जवाबदारी चाहिए।”
एक कागज पर एक छोटी सी एप्लीकेशन लिख कर नीचे अपने साइन कर
व्याख्याता की छाप लगाकर मोबाइल नंबर लिख दिए और ट्रक वाले को कहा कि अगर कहीं
परेशानी आए तो इसकी संपूर्ण जिम्मेदारी मेरे पर डाल दीजिएगा। यह मेरा मोबाइल नंबर
है। ट्रक वाला भला मानस था। उसने हिम्मत दिखाकर लगभग 15 से 20 यात्रियों को ट्रक
पर बिठा दिया और निकल पड़ा गंतव्य की ओर। उस ट्रक वाले का आज तक कोई फोन नहीं आया।
इस गतिविधि ने मेरे आत्मविश्वास को बढ़ा दिया। अब
तो हर आने वाले वाहन को रोकने के लिए हाथ बढ़ा देता है और अक्सर वाहन वाले रोक भी
देते। उनमें यात्रियों को बिठाकर रवाना करते वक्त डर में छुपी हुई खुशी का एहसास
होता। उन सभी वाहन वालों का धन्यवाद अदा करता हूँ। इस बिना रौब वाली अफसरी का
जनहित में उपयोगकर्ता रहा। पर क्या सभी ऐसे खुश किस्मत होते हैं? इसका आसान सा उत्तर आप भी जानते हैं, नहीं।
पाली जिले से पैदल चलकर आए उन दो रेबारी समाज के
लोगों की शक्ल बार-बार आंखों के सामने तैर जाती है। 10 दिनों से लगातार पैदल चलते
इन दोनों बुजुर्गों को पीपल की छाया में लगभग 1 घंटे तक बिठाए रखा। इस दरमियान
बुजुर्गों से बातचीत करते कई जानकारियाँ हासिल की। रतलाम के हरे भरे क्षेत्र में
इनका डेरा है जहाँ के लिए ये पाली से निकले हैं। अभी लगभग 100 किलोमीटर और चलना
है। अक्सर हर वर्ष हमारी भेड़ों की रेवड़ गर्मी के समय मालवा में ही चरती है। कुछ
समय के लिए हम मारवाड़ वापस ले जाते हैं।
“बासा! तालाबंदी के समय आप क्यों बाहर निकले? थोड़े दिन बाद जब सब कुछ सामान्य हो जाता तब वैसे ही आप अपने परिवार से मिल सकते थे, बिना पैदल चले।”
“यह बात तो ठीक है मार साहब, पर
रतलाम में बाल बच्चे न जाने किस हालत में होंगे। इस बीमारी के कारण अगर कुछ हो हुआ
गया तो हम अपने आप को जवाब नहीं दे पाएँगे।”
“आप ठीक कहते हैं पर बीमारी तो आपको भी लग सकती है,
ऐसे में आप थोड़ा इंतजार कर लेते।”
“अब तो जो होगा सो देखा जाएगा मार साहब। परदेश में मरे
या अपने देश में, हम अपने परिवार वालों की आंखों के सामने
मरना उचित समझते हैं। इस बात का मर्म तो परिवार वाला ही समझ सकता है।”
अपने साथ लाई देसी चिलम के कश लगाते और मुंह से
उड़ते धुएँ के बीच ‘आरोहन’ कहानी के पात्र भूप सिंह
की छवि तैर गई। काफी इंतजार करने के बाद भी जब कोई साधन नहीं आया तो निकल पड़े
अपने रास्ते पर पैदल ही। मारवाड़ के लोगों की जीवटता और कार्य के प्रति लगन क्या
होती है, इसे समझने के लिए पीछे खड़ा इन दोनों के कदमों और
सड़क की लंबाई को तब तक देखता रहा जब तक वे ओझल नहीं हो गए।
दो-तीन दिनों बाद दो साइकिल सवार मेरे बेस कैंप
के सामने गुजरे। पानी की मनवार की तो थोड़ा रुक कर पीपल के पेड़ के नीचे खड़े-खड़े
ही सुस्ताने लगे। साइकिल कुछ नयी-नयी लग रही थी। पूछने पर पता चला कि जोधपुर से ही
उन्होंने यह साइकिल खरीदी है दलोट जाने के लिए।
“पर आप जोधपुर क्यों गए?”
“वहाँ पर मकान चुनाई का काम करते हैं साहब। हर साल जाते
हैं। इन दिनों में साथ में बच्चे भी जाते हैं। कुछ मजदूरी भी हो जाती हैं, यही सोचकर लॉकडाउन लगने के दो दिन पहले ही जोधपुर पहुंचे थे कि सब कुछ बंद
हो गया।”
“तो क्या यह साइकिल आपको आपके मालिकों ने खरीद करके दी।”
“अरे कहाँ साहब, उन्होंने तो
हमारी पिछली मजदूरी भी नहीं दी। यह साईकिल तो हम जो कुछ पैसे खर्चे के लिए यहाँ से
साथ में लेकर के गए और वहाँ के मित्रों से उधार माँग कर लाए हैं।”
“कितने दिन हो गए आपको चलते हुए?”
“आठ दिनों से साइकिल चला रहे हैं साब।” बात आगे बढ़ती इससे पहले उसका बेटा जो पीछे चल रहा था, वह भी साथ में आ गया।
“वापस जाओगे जोधपुर लॉकडाउन खुलने के बाद?”
“पेट की खातिर जाना पड़ेगा साहब। गाँव में मजदूरी है ही
नहीं तो क्या करें।”उनकी साइकिलें गंतव्य की ओर बढ़ चुकी थी
और उनके आखिरी वाक्य मुझे काफी दूरी तक साइकिल के पीछे घसीटते ले गया।
लॉकडाउन लगे लगभग डेढ़ महीना गुजर चुका था। झुलसा
देने वाली मई की दोपहर के बीच जब राहत सामग्री बांटकर सड़क के किनारे राहगीरों को
तलाशता गुजर रहा था कि एक पेड़ के नीचे कुछ राहगीर सुस्ताते मिले। पास में जाकर
पूछा तो बताया कि कल शाम को खाना खाया, धमोत्तर से कुछ
नाश्ता लेकर निकले थे। लगभग तीस-चालीस जनों का यह काफिला छोटी सादड़ी से चलकर आ
रहा था।
“बीच में पूरा महीना कहाँ गुजार दिया इस लॉकडाउन में?”
“गुरु जी, 20 मार्च को ही हम लोग
दलोट से गेहूँ काटने के लिए छोटी सादड़ी के लिए निकले थे। हम हर साल जाते हैं। इस
बार भी यही सोच कर निकले थे कि कुछ पैसा कमा कर ले आएँगे, पर
जब जाते ही वहाँ पर लॉक डाउन लग गया तो हम फंस गए। लगभग दस-बारह दिनों तक जहाँ हम
मजदूरी करने के लिए गए, वहाँ के खेत वालों ने आसरे के साथ
साथ खाने-पीने की व्यवस्था की। बाद में जब गेहूँ की फसल सूख गई तो हम खेतों में
रहकर उसे काटने लगे। आसपास के क्षेत्र में मजदूरों की कमी भी थी, इसीलिए हम वहाँ पर कुछ ज्यादा दिनों तक रुक कर के मजदूरी करने लगे। आधा
पैसा उन्होंने अभी दे दिया है, आधा कुछ समय के बाद देने का
वादा किया है।” इस बातचीत के दौरान उनकी भाषा और रहन-सहन से
पता लगाया कि वे सभी आदिवासी समाज के लोग हैं। बातों-बातों में जब औरतों की तरफ
नजर पड़ी तो दो औरतें गर्भवती दिखी। मैंने पूछा कि इन औरतों को क्यों साथ ले गए?
जवाब था, “साहब भारी पैर होने पर आराम करवाने
का रिवाज आप बड़े लोगों के घरों में होता होगा, हमारे यहाँ
तो लगातार काम करना पड़ता है, क्योंकि खुद का पेट भरना और पेट वाले का पेट भरना बहुत
जरूरी है। यह महिलाएँ जिन्हें आप देख रहे हैं हमारे लिए खाना बनाने के साथ-साथ
हमारे साथ गेहूँ काटने का काम में भी बराबर सहयोग करती रही है।”
दूसरे बेस कैंप यानी भीम सिंह जी के मकान से राशन
के दो पैकेट यानी दाल, गेहूँ, आलू प्याज तेल और 10
किलो आटा इनको देखकर घर चला गया। रात को अचानक तेज अंधड़ के साथ बारिश शुरू हो गई।
गर्मी की बरसात मुझे हमेशा पसंद रही हैं. पर आज यह बरसात मुझे अच्छी नहीं लगी।
मानस पटल पर पैदल चलती उन गर्भवती औरतों के परिवार की तस्वीर परेशान कर रही थीं।
ऐसा लगा कि वह इस तूफानी बारिश के बीच शायद जंगलों में लगातार पैदल चल रहे होंगे
वे।
कुछ दिनों बाद पैदल चलते मजदूरों की तस्वीरों से
सोशल मीडिया भर गया और सरकार का मानना था कि पैदल चलते मजदूर बिमारी को एक जगह से
दूसरी जगह ले जा रहे हैं, तब ऐसे में सड़कों पर मजदूर न निकले इसके लिए उन्हें बाहर
निकलने से रोकने के लिए सख्ती बरतनी होगी। इसके बाद मुख्य सड़कों पर मजदूर दिखना
कुछ कम हो गए। शहरों के आसपास आते ही वे उनके आजू बाजू के कच्चे टेढ़े मेढ़े
रास्तों से होकर आगे निकल जाते। अब ऐसे में इन लोगों के लिए खाने पीने की व्यवस्था
करने वाली संस्थाओं के लिए चुनौतियाँ खड़ी हो गई। यह चुनौती मेरे सामने भी आई। रोज
का फीडबैक लेते समय डॉ मनीष रंजन सर ने एक रात सुझाया कि अपना बेस कैंप थोड़ा और
आगे खिसका दो। या फिर एक और बेस कैंप लगाओं। मैंने बेस कैंप की जगह बदलने की बजाय
एक और बेस कैंप लगाना उचित समझा। मनोहरगढ़ से आगे एक गाँव पड़ता है पानडिया। वहाँ
कक्षा 11 का विद्यार्थी सुनील मीणा पिता भैरूलाल का घर पड़ता है। राहत सामग्री
बांटते समय उससे अक्सर वहाँ पर बातचीत हो जाती और उससे मैं मदद भी ले लिया करता
था। उसकी माँ ने बताया कि उनका खेत माल (जंगल) में है। वहाँ से अक्सर रोज मजदूरों
का बहुत बड़ा रेला निकलता है और हमारे खेत की हद के पास ही वो लोग अक्सर आम की
पेड़ की छाया में सुस्ताते हैं। जंगल में जाकर के सामग्री दे पाना मेरे लिए
मुनासिब नहीं था। इसके लिए सुनील और उसकी माँ को यह जिम्मेदारी सौंपी की जब भी
सूचना मिले कि वहाँ से कोई पैदल मजदूर गुजर रहा है तो उन्हें राशन सामग्री जरूर
देवे। यह काम अब आप लोगों को करना होगा। मेरे इस प्रस्ताव को सुनील की माँ ने बहुत
खुश होकर स्वीकार किया। राशन के कुछ पैकेट सुनील के घर पर रख दिए। अब उनका परिवार
भी मजदूरों की सेवा में लग गया। खेत पर रहने वाले व्यक्ति द्वारा जब भी खबर मिलती
कि कोई जरूरत मंद को राशन की जरूरत है तो बिना धूप छांव देखें सुनील के परिवार
वाले दौड़ कर उनको राशन पहुँचाते। कई बार तो उन मजदूरों के पीछे चार-पांच किलोमीटर
जा कर राशन देने तक का काम इस परिवार ने किया है। अब इस परिवार के साथ मेरा ‘राखी डोरे’ का रिश्ता हो गया है।
एक दिन एक बच्ची को पिता की अंगुली पकड़कर चलते
देखा। पिता के माथे पर एक बैग भी था। नन्ही सी बच्ची के पैरों में चप्पल नहीं थी।
मई महीने की दोपहर की धूप सीसी रोड को भी तड़पा रही थी। बच्ची उचल-उचल कर` चल रही थी। जब उससे नहीं रहा गया तो लगभग रोते हुए स्वर में अपने पिता से
आग्रह करती हैं, “पापा म न तोगी लो पग बळी रया।” उसकी इस गुजारिश ने मेरी आंखों को भी आंसुओं से भर दिया। अपने थैले को
कहीं किसी तरह से एडजेस्ट करने के बाद उसका पिता बड़ी मुश्किल से उसे गोद में लेता
है। जब राशन सामग्री उसे देने लगा तो फूट-फूट कर रोने लगा। साहब चलते चलते टांगे
टूट गई पर सफर पूरा नहीं हो रहा है। कोई व्यवस्था करवा दीजिए।”
“इसकी माँ कहाँ है?”
“इसकी माँ तो पेट से है इसलिए उसे चित्तौड़ ही छोड़ कर
के आ गया हूँ। घर पर बूढ़े माँ बाप बिना राशन के परेशान हो रहे हैं इसलिए मैं निकल
पड़ा सैलाना की ओर। सैलाना से भी 30 किलोमीटर आगे है मेरा गाँव।”
“इस बच्ची को क्यों लाए? माँ के
पास ही छोड़ देते?”
“इसका खर्चा वहाँ कौन उठाता साहब। बार-बार गली में बाहर
निकल कर आ जाती है। पुलिस वालों की डांट अलग से साथियों को सुननी पड़ती है,
इसके कारण। इसलिए चुपके से मौका देखकर इसे साथ लेकर निकल पड़ा गाँव
के लिए।” कुछ देर वाहन का इंतजार करने के बाद जब कोई साधन
नहीं मिला तो नजरे चुरा कर इन दोनों के सामने से बच कर निकल गया मैं अपने घर की
ओर। क्या करूं पत्थर दिल बन गया था आखिरकार मैं भी।
राशन सामग्री बांटने का काम लगभग दो महीने तक इन
मजदूरों के लिए चलता रहा। जब ईद का त्योहार आया तो सामुहिक नमाज पढ़ने रोक थी। ऐसे
में ईद तो मनानी ही थी, क्योंकि ईद के दिन फितरा और जकात का भी दस्तूर हैं,
ऐसे में इस रवायत को कैसे निभाएँगे। घर पर जब इस बात को लेकर चर्चा
हुई तो बच्चों ने कहा कि पापा क्यों न है अबकी बार ईद पैदल चलने वाले मजदूरों के
साथ मनाई जाए? फिर क्या था, घर पर खीर
बनाई गई और खीर को बड़ी केतली में भर के पैदल चलते मजदूरों को बांटने लगे। यह
कार्य मेरे दोनों बच्चें अपनी इच्छा से कर रहे थे। मनोहरगढ़ के क्षेत्र में जहाँ
पर भी कोई पैदल मजदूर दिखा, उनके पास जाकर के भी ईद मुबारक
देने के साथ-साथ खीर का दोना भी देने से नहीं चूकते। कुछ मजदूर जो दलोट से आगे के
किसी गाँव के थे खीर पीते वक्त रो पड़े। कारण जाना तो बताया कि कई दिनों से पैदल
चलने के साथ-साथ न तो कहीं आराम मिला, न ही कहीं सम्मान।
इन मजदूरों की बात सुनते सुनते मुझे मेरा दोस्त बंटी फरीद याद आ गया। मोहनलाल सुखाड़िया यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग का यह स्कॉलर किसी काम से बांसवाड़ा गया था और लॉकडाउन लगने के कारण वहाँ फंस गया। 25 तारीख को वहाँ से पैदल ही निकले इस स्कॉलर को उदयपुर पहुँचने में लगभग चार दिन लगे। वह बता रहा था कि बीमारी का खौफ लोगों में इतना था कि सहायता करने की बात तो दूर लोग गाँव में घुसने तक नहीं दे रहे थे। खेतों, पहाड़ों और जंगलों से गुजरते हुए नदी-नालों का पानी पीते हुए किसी तरह से घर पहुँचा। रास्ते में कोई भला आदमी मिल जाता तो थोड़ा बहुत खाने के लिए भी दे देता और पानी के लिए भी पूछ लेता, पर अक्सर ज्यादातर जगह दुत्कार ही मिली। जंगल में मौजूद कुछ फलों को छोड़कर खेतों से चने के हरे बूटे पाड़ कर खाता हुआ चलता रहा। सोने के लिए कहीं कोई कभी पेड़ का सहारा लिया तो कभी किसी खंबे का या फिर कहीं सुनी सराय या फिर किसी पुल की छत।
अक्सर मैंने पैदल चलते हुए मजदूर जो देखे वे
जयपुर, जोधपुर, चित्तौड़गढ़, पाली, ब्यावर, उदयपुर या फिर
छोटी सादड़ी की ओर से आने वाले और रतलाम की ओर जाने वाले होते थे। पर एक दिन एक
महाराज अपनी एक बुजुर्ग शिष्या के साथ विपरित दिशा से आ रहे थे। अपने झोले में से
जब कुछ राहत सामग्री उनको देना चाहा तो उन्होंने कहा,“बेटा
हमें भीख नहीं चाहिए।”
“बाबा जी यह भीख नहीं है, बल्कि
हमारी तरफ से भेंट हैं। रास्ते में जरूरत पड़े तो इसे काम में ले लीजिएगा।”
थोड़ा सोचने के बाद उन्होंने सामग्री स्वीकार कर ली। जब पूछा कि “बाबा आप इधर कहाँ से आ रहे हैं क्योंकि मैं अक्सर अधिकतर मजदूरों को आप की
विपरीत दिशा में जाते हुए देखता हूँ।
“बेटा हम गुजरात से आ रहे हैं।”
“तालाबंदी के लगभग तीन महीनों के बाद आप निकले हैं,
इतना देरी से क्यों?”
“देरी से इसलिए बेटा कि वहाँ पर पहले मुझे कोई तकलीफ
नहीं थी। मैं जिस देवस्थान में सेवा कर रहा था, वहाँ पिछले
कई वर्षों से था। पर अब इस तालाबंदी में वहाँ कोई दूसरा सेवक आ गया है। उसका दावा
है कि वह मुझसे पहले वहाँ पर वह सेवा कर रहा था, इसलिए मेरा
हक पहले हैं और आप वापस अपने देश चले जाइए। तो हम निकल आए अपने देश के लिए।”
“बाबा आप कहाँ के रहने वाले हैं और अब आगे कहाँ जा रहे
हैं?”
“हम जयपुर के रहने वाले हैं और वहीं पर अब हमारे पुरखों
के गाँव में जा रहे हैं आगे का जीवन बिताने के लिए। जो कुछ भी इस उम्र में भगवान
की सेवा हो पाएगी, करेंगे। ईश्वर ने जीवन की इस संध्या बेला
में परीक्षा ली है तो डर के क्यों भागु?”
इतना वार्तालाप होने के बाद महाराज और उनकी बुजुर्ग शिष्या चल पड़े जयपुर के राजमार्ग की तरफ पैदल। और मैं कभी उन्हें तो कभी राजमार्ग पर राजधानी की ओर उनके बढ़ते कदम देखता रहा,एकटक।
व्याख्याता (हिंदी), राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, आलमास, ब्लॉक माँडल, जिला भीलवाड़ा
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
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