जीवन संघर्ष के कवि ‘निराला’
- विनोद कुमार
पूरे
हिन्दी साहित्य में जो स्थान भक्तिकाल का है, वही स्थान आधुनिक हिन्दी कविता में
छायावाद का है। भक्तिकाल हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग है, तो छायावाद आधुनिक
हिन्दी काव्य साहित्य का स्वर्ण युग है। भक्तिकाल में जो स्थान कबीरदास का है वही
स्थान छायावाद में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का है। जिस प्रकार कबीर आजीवन सामाजिक
रूढ़ियों एवं बुराइयों का सामना करते रहे उसी प्रकार निराला भी आजीवन संघर्षरत रहे।
हिन्दी साहित्य में छायावाद का समय 1918 ई0 से
1936 ई0 तक माना जाता है। जैसा कि सदैव होता आया है कि जब भी कोई नए मार्ग पर चलता
है, तो उसका विरोध होता है, छायावाद के आगमन पर भी इसका खूब विरोध हुआ। छायावाद को
विद्वानों ने अलग-अलग नामों जैसे– रहस्यवाद, अन्योक्ति पद्धति, स्वच्छन्दतावाद एवं
अग्रेजी के मिस्टिसिज्म और रोमैण्टिसिज्म शब्दों का प्रयोग किया है किन्तु बाद में
इसे सर्वमान्य रूप से हिन्दी साहित्य में छायावाद के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
छायावाद शब्द का पहली बार प्रयोग जबलपुर से निकलने वाली ‘श्री शारदा’ पत्रिका के सम्पादक मुकुटधर
पाण्डेय ने किया। उन्होंने 1920 ई0 के जुलाई, सितम्बर, नवम्बर एवं दिसम्बर के अंक
में ‘छायावाद’ से चार निबन्धों की एक
लेखमाला छपवाई थी। लेखमाला के निबन्धों का शीर्षक क्रमशः 1. कवि स्वातन्त्र्य, 2.
छायावाद क्या है?, 3. हिन्दी में छायावाद, 4. हिन्दी में
छायावाद। इस लेखमाला का दूसरा निबन्ध छायावाद क्या है में आरम्भ में ही लेखक कहता है– “अंग्रेजी या किसी पाश्चात्य साहित्य अथवा बंग साहित्य की वर्तमान स्थिति
की कुछ भी जानकारी रखने वाले तो सुनते ही समझ जाएँगे कि यह शब्द मिस्टिसिज्म के
लिए आया है।”1 इसी लेख में वे
आगे लिखते है कि– “ छायावाद की आवश्यकता हम इसीलिए समझते है
कि उससे कवियों को भाव प्रकाशन का एक नया मार्ग मिलेगा। इस प्रकार के अनेक मार्गों
अनेक रीतियों का होना ही उन्नत साहित्य का लक्षण है।”2
सरस्वती पत्रिका में सर्वप्रथम छायावाद का
सर्वप्रथम उल्लेख जून 1921 ई0 के अंक में मिलता है। इस पत्रिका में सुशील कुमार जी
ने 1921 ई0 के अंक में ‘हिन्दी में छायावाद’
शीर्षक से एक निबन्ध लिखा। सरस्वती पत्रिका के सम्पादक जब तक आचार्य महावीर प्रसाद
द्विवेदी जी थे तब तक कोई लेख छायावाद के नाम से नहीं छपा क्योंकि द्विवेदी जी खुद
इस शब्द से अपरिचित थे जैसा कि वे स्वयं कहते हैं– “ छायावाद
से लोगों का क्या मतलब है कुछ समझ में नही आता। शायद उनका मतलब है किसी कविता के
भावों की छाया यदि कहीं अन्यत्र जाकर पड़े तो उसे छायावादी कविता कहना चाहिए।”3
रामचन्द्र शुक्ल ने छायावाद की परिभाषा इस प्रकार दी है– “छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए एक तो
रहस्यवाद के अर्थ जहाँ इसका सम्बन्ध काव्यवस्तु से है अर्थात जहाँ कवि उस अनन्त और
अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यन्त चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार
से व्यंजना करता है। छायावाद शब्द का दूसरा प्रयोग काव्यशैली या पद्धति विशेष के
व्यापक अर्थ में है।”4 इस
प्रकार हम देखते है कि शुक्ल जी छायावाद को रहस्यवाद और प्रतिबिम्बवाद कहते हैं।
जयशंकर प्रसाद जी ने
छायावाद को स्पष्ट करने के लिए दो लेख रहस्यवाद एवं यथार्थवाद और छायावाद लिखा,
पहले लेख में रामचन्द्र शुक्ल के उस मत का विरोध किया गया है, जिसमें उन्होनें
रहस्यवाद को अभारतीय कहा है। दूसरे लेख
में छायावाद को परिभाषित किया गया है। प्रसाद जी के अनुसार– “जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति हुई तब हिन्दी
में उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता,
सौन्दर्यमय प्रतीक विधान तथा उपचार वक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृत छायावाद की
विशेषताएँ हैं।”5
नंददुलारे वाजपेयी अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य : बीसवीं शताब्दी’ के महादेवी वर्मा शीर्षक निबन्ध में छायावाद की परिभाषा इस प्रकार देते
हैं– “मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौंदर्य
में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की सर्वमान्य व्याख्या हो सकती
है।”6
इस प्रकार हम देखते है
कि जिस अस्पष्टता के लिए छायावाद शब्द चलाया गया उसे रहस्यवाद एवं आध्यामिकता,
स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह आदि तरीके से परिभाषित करने का प्रयास किया गया
लेकिन कोई भी परिभाषा छायावाद को पूर्णरूप से परिभाषित नहीं कर पाती। सभी ने
छायावाद के कुछ हिस्सों के आधार पर उसकी व्याख्या कर उसे परिभाषित किया। वास्तव
में साहित्य में नए विचार, नयी दृष्टि, नयी परम्परा को ग्रहण करते हुए जिस नवीन
साहित्य का उन्मुक्त रूप से साहित्यिक रूढ़ियों एवं परम्पराओं का खण्डन करते हुए
सृजन किया गया वह छायावाद कहलाया। बाद में यह जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी
निराला, सुमित्रानन्दन पंत एवं महादेवी वर्मा की रचनाओं के लिए रूढ़ हो गया। डा0
नगेन्द्र ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में सर्वप्रथम छायावाद नाम से काल
विभाजन किया। जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘झरना’(1918ई0) छायावाद का प्रथम काव्य संग्रह माना
जाता है जिसे छायावाद की प्रथम प्रयोगशाला भी कहा जाता है। पंत कृत युगान्त
(1936ई0) छायावाद की अन्तिम कृति मानी जाती है।
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का छायावाद में वही स्थान है जो
भक्तिकाल में कबीरदास का है। निराला आजीवन रूढ़ियों व आड़म्बरों के विरुद्ध लड़ते
रहे जिसके कारण लगातार विरोधियों के निशाने पर रहे। तत्कालीन विरोधी उनकी कृतियों
में सिर्फ कमियाँ ही खोजते रहे जिस कारण जो सम्मान निराला को उस समय मिलना चाहिए
था, नहीं मिल पाया। ऐसे प्रतिभा सम्पन्न कवि व उनकी कृति जिससे लोग अपरिचित से थे,
को पहचान दिलाने में निश्चित रूप से आलोचक रामविलास शर्मा का योगदान अद्वितीय है।
निराला का जन्म 21
फरवरी 1899 ई0 को बंगाल के मेदिनीपुर जिले के महिषादल नामक रियासत में हुआ था।
इनके पिता पं0 रामसहाय त्रिपाठी महिषादल रियासत में सिपाही की नौकरी करते थे। इनकी
माता का नाम रुक्मणी देवी था जो रामसहाय त्रिपाठी की दूसरी पत्नी थी। निराला का
पैतृक गाँव गढ़कोला है जो उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले में स्थित है। पं0 रामसहाय
त्रिपाठी महिषादल के ईमानदार नौकर और राजा के कृपापात्र थे जिससे महिषादल राज्य ने
बालक निराला के पालन-पोषण एवं शिक्षा–दीक्षा की व्यवस्था कर दी। महिषादल के राजा
निराला की बुद्धिमत्ता से काफी प्रसन्न रहते थे। निराला की प्रारम्भिक शिक्षा
बंगाल में बांग्ला भाषा में हुई। ये बांग्ला भाषा के कवियों से बहुत प्रभावित थे।
सात-आठ वर्ष की अवस्था में निराला बांग्ला भाषा में कविता करने लगे थे। स्कूल की
शिक्षा इनकी नवीं कक्षा तक ही हुई। हाईस्कूल तक की शिक्षा के साथ ही साथ इन्होंने
संगीत, घुड़सवारी, कुश्ती में भी दक्षता प्राप्त की थी। क्रिकेट और फुटबाल खेलने
में भी ये कुशल थे। जब ये नवीं कक्षा में थे तब इनका विवाह डलमऊ, रायबरेली उत्तरप्रदेश
निवासी पं0 रामदयाल की पुत्री मनोहरा देवी से हो गया। विवाह के समय निराला की आयु
15 वर्ष एवं मनोहरा देवी की आयु 12 वर्ष थी। हाईस्कूल की परीक्षा में फेल हो गए तो
इनके पिताजी ने इनको पत्नी सहित घर से निकाल दिया जिससे नाराज होकर निराला सीधे
ससुराल पहुँच गए। बाद में पिता को अपनी ग़लती का अहसास हुआ तो वे पुत्र और बहू को मनाकर वापस महिषादल ले आए।
निराला का बचपन गढ़कोला और महिषादल दोनों जगहों पर व्यतीत हुआ जिसके कारण इन पर
उत्तरप्रदेश और बंगाल दोनों स्थानों का प्रभाव रहा।
सन् 1918 ई0 में देश में
महामारी का प्रकोप फैला। जो निराला के
परिवार पर कहर बनकर टूटा। पिता की मृत्यु हो गई। एक साल बाद इनके चाचा, भाई–भाभी,
भतीजी और पत्नी की भी मृत्यु हो गयी। पत्नी मनोहरा देवी की मृत्यु मायके में हुई
थी, उस समय निराला महिषादल में थे, जब डलमऊ पहुँचे तब तक सब कुछ समाप्त हो गया था।
पत्नी तीन वर्ष के एक पुत्र रामकृष्ण और डेढ़ वर्ष की पुत्री सरोज एवं निराला को
अकेला छोड़कर चली गई थी, जिससे निराला को बड़ा गहरा आघात लगा। तेईस वर्षीय निराला
पर अपने चाचा की चार संतानों एवं अपने पुत्र–पुत्री सहित कुल छः बालकों के
भरण-पोषण का भार आ पड़ा। अपने पुत्र एवं पुत्री को नाना-नानी के पास छोड़कर तथा
चारों भतीजों को साथ लेकर निराला बंगाल चले गए। निराला का पूरा जीवन तूफानों से
घिरने, टकराने और अन्ततः दृढ़ता से उन पर विजय पाने की अमर गाथा है। निराला के
शब्दों में– “सोलह-सत्रह साल की उम्र में भाग्य में जो
विपर्यय शुरु हुआ वह आज तक रहा। लेकिन मुझे इतना ही हर्ष है कि जीवन के उसी समय
में मै जीवन के पीछे दौड़ा, जीव के पीछे नही, जीव के पीछे पड़ने वाला बड़े-बड़े
मकान, राष्ट्र, चमत्कार और जादू से प्रभावित होकर जीवन से हाथ धोता है, जीवन के
पीछे चलने वाला जीवन के रहस्य से अनभिज्ञ नही होता।”7
अपने जीविकोपार्जन के लिए निराला ने महिषादल राज्य में नौकरी
कर ली किन्तु बाद में अपने स्वभाव के कारण किसी बात पर राजा के हाउस होल्ड
सुपरिटेण्डेण्ट से अनबन हो गयी और नौकरी छोड़ दी। जीविका का अन्य कोई साधन न था तो
साहित्य–लेखन में लग गए और जो कुछ भी लिख सकते थे लिखते रहे। उस समय की अपनी
स्थिति का विवरण देते हुए निराला कहते है कि– “मैं बेकार था सरस्वती से कविता और लेख वापस आ जाते थे, एकाध चीज छपी थी।
प्रभा में मालूम हुआ बड़े-बड़े आदमियों के लेख–कविताएँ छपते हैं। एक दफा आफिस जाकर
बातचीत की, उत्तर मिला- इसमें भारतीय आत्मा, राष्ट्रीय पथिक, मैथिलीशरण गुप्त जैसे
कवियों की कविताएँ छपती हैं, मुँह लटकाकर लौट आया।”8 इन तमाम झंझावातों से लड़ते हुए निराला ने अपने साहित्य प्रेम को नही
छोड़ा। सन् 1922 ई0 में वे समन्वय के संपादक मण्डल में सम्मिलित हो गए और रामकृष्ण
मिशन के साधुओं के साथ रहने लगे। यहीं पर उन्होनें अद्वैत दर्शन का गहन अध्ययन
किया जिसका प्रभाव उनकी रचनाओं पर दृष्टिगत होता है। सन् 1923 ई0 में सेठ महादेव
प्रसाद के संपादकत्व में कलकत्ता से साप्ताहिक पत्र मतवाला का संपादन प्रारम्भ हुआ
तो सेठ महादेव प्रसाद जी ने निराला को संपादक मण्डल में रखा। मतवाला का मोटो-
अमिय गरल शशि सीकर रविकर, राग-विराग भरा
प्याला।
पीते हैं जो साधक,
उनका प्यारा है मतवाला ।।
निराला का बनाया हुआ था। मतवाला के तुक पर ही निराला शब्द का आविर्भाव हुआ।
निराला इसके मुखपृष्ठ के लिए कविता लिखते थे साथ ही साथ गरगज सिंह वर्मा नाम से
समालोचनात्मक लेख भी लिखा करते थे। मतवाला के चाबुक स्तम्भ में निराला बिना किसी
हिचक के अत्यन्त निर्भयतापूर्वक हिन्दी संसार के धुरन्धर साहित्यकारों और उनकी
रचनाओं में खटकने वाली बातों पर समालोचना लिखा करते थे। निराला के कठोर आलोचनात्मक
प्रहार से सरस्वती पत्रिका भी न बची। मतवाला के अंको में जब लगातार सरस्वती पर
आघात होने लगे तो आचार्य द्विवेदी से न रह गया और एक दिन जिन-जिन अंकों में आलोचना
छपी थी, उन सब अंको को संशोधित परिवर्द्धित करके ‘दूसरे का छिद्रान्वेषण करने से पहले अपनी ओर देख लेना चाहिए’ इस नोट के साथ रजिस्ट्री से
निराला के पास भेज दिया। जिसे देखकर निराला बेतहाशा हँसे थे, परन्तु बाद में फिर
कभी उन्होंने सरस्वती पर कोई टिप्पणी नहीं की। निराला लगभग एक वर्ष मतवाला में रहे
किन्तु इसी अल्पकाल में निराला साहित्य जगत् में सब ओर छा गए। वस्तुतः मतवाला से ही
उनके कवि का नया जन्म हुआ।
निराला का व्यक्तित्व
कबीर की तरह है किन्तु कृतित्व तुलसीदास की तरह अतुलनीय है। निराला मुक्त छंद के
प्रणेता है। मुक्त छंद के विषय में विचार व्यक्त करते हुए वे परिमल की भूमिका में
कहते है– “मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी
मुक्ति होती है मनुष्यों की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की
मुक्ति छंदो के शासन से अलग हो जाना है।”9 अपने काव्य विकास के अलग–अलग चरणों में उन्होने अलग–अलग तरह के शब्द समूह
का उपयोग किया। अनामिका, परिमल, गीतिका से लेकर तुलसीदास तक तत्सम शब्दों के
प्रयोग की अधिकता है तो कुकुरमुत्ता, बेला, नए पत्ते में तद्भव की। अर्चना, आराधना
और गीतगुंज के गीतों में एक सहज देशीपन का आत्मविश्वास है। उनके काव्य का विकास
जैसे उनके व्यक्तित्व की विकास यात्रा है। राम की शक्ति पूजा में आभिजात्य का वैभव
है तो कुकुरमुत्ता बिना किसी की चिन्ता किए हुए स्वयं से उपजा। निराला के विकास
क्रम को समझे बिना सहसा यह विश्वास करना कठिन हो जाता है कि दोनों कविताएँ एक ही
कवि की लिखी हुई हैं। निराला ने न केवल परम्परा से विद्रोह किया बल्कि स्वयं अपनी
उपलब्धियों से भी जिनसे कालान्तर में परम्परा बनती थी। यह निरन्तर विद्रोह भाव एक
बड़ा कारण है निराला के यहाँ काव्य–वैविध्य का। ‘जुही की कली’ से लेकर ‘पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा’ हुआ तक एक लम्बी काव्य यात्रा है। जिसमें कवि रास्ते के
साथ–साथ बराबर अपनी भी पहचान करता चलता है।
निराला ने तीन लम्बी कविताएँ लिखीं– सरोज
स्मृति, राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास। सरोज–स्मृति निराला ने अपनी प्रिय पुत्री
सरोज की मृत्यु के उपरान्त उसकी स्मृति में लिखा। यह हिन्दी का एक सर्वश्रेष्ठ शोकगीत
है। यह निराला की आत्मकथात्मक कविता है, जिसकी सामग्री उन्होंने अपने जीवन से ली
है। इसमें सरोज के जन्म से मृत्यु तक की कथा है। सरोज के माध्यम से निराला ने अपने
जीवन के बारे में भी बहुत सारी चर्चा की है। यह रचना इस दृष्टि से भी अद्वितीय है
क्योंकि पहली बार किसी कृति में किसी लड़की के बाल्यकाल का चित्रण किया गया है।
राम की शक्ति पूजा लिखने की प्रेरणा निराला को रविन्द्रनाथ टैगोर की लम्बी कविताओं
से मिली। इस कविता की सामाग्री निराला ने वस्तुतः बंगला के कवि कृतिवास की रामायण
से ली है। सरोज-स्मृति पुत्री प्रेम की कविता है तो राम की शक्ति पूजा पत्नी प्रेम
की कविता है। यह इस कविता की संरचना से प्रमाणित होता है क्योंकि इसके केन्द्र में
सीता है। राम की शक्ति पूजा कविता कथात्मक ढंग से शुरू होती है और इसमें घटनाओं का
विन्यास इस ढंग से किया गया है कि वे बहुत कुछ नाटकीय हो गई है। वर्णन इतना सजीव
है कि लगता है कि आँखों के सामने कोई त्रासदी प्रस्तुत की जा रही है। तुलसीदास में
स्वाधीनता की भावना है। निराला ने इसमें दिखाया है कि किस प्रकार एक कवि अंधकार को
दूर करने की चेष्टा करता है। तुलसीदास के रूप में निराला ने आधुनिक कवि के
स्वतंत्रता सम्बन्धी भावों के उद्गम एवं विकास का चित्रण किया है। जिस प्रकार
तुलसीदास को ज्ञान रूपी चक्षु पत्नी के डाँटने पर खुलते हैं उसी प्रकार निराला को
भी पत्नी मनोहरा देवी के माध्यम से ही हिन्दी साहित्य से लगाव हुआ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उपर्युक्त
तीनों कविताओं में निराला ने अपने को भी अभिव्यक्त करने का बहुत ही अच्छा प्रयास
किया है। इन तीनों रचनाओं में निराला का अपना जीवन है। ये तीनों कविताएँ निराला की
प्रसिद्धि का आधार हैं यदि वे अन्य रचनाएँ न भी लिखते तो भी वे उतनी ही प्रसिद्धि
पाते।
इसके अतिरिक्त निराला ने गद्य
में अलका, अप्सरा, प्रभावती, काले कारनामे, चमेली, निरूपमा नामक उपन्यास, चतुरी
चमार, सुकुल की बीबी, लिली, सखी नामक कहानी संग्रह, बिल्लेसुर बहरिहा, कुल्लीभाट
नामक रेखाचित्र, प्रबन्ध प्रतिमा, चाबुक, प्रबन्ध परिचय, प्रबन्ध पद्य नामक निबन्ध
संग्रह, रविन्द्र कविता कानन नामक आलोचना शकुन्तला, समाज नामक नाटक एवं ध्रुव,
भीष्म एवं राणा नामक जीवनी लिखी हैं।
इस प्रकार हम देखते है कि
निराला ने न केवल पद्य में बल्कि गद्य में भी अनेक रचनाएँ लिखी जो हिन्दी साहित्य
की अमूल्य धरोहर हैं। वे आजीवन अनेक प्रकार की कठिनाइयों से जूझते रहे फिर भी आपने
हिन्दी साहित्य की अप्रतिम सेवा की एवं अपनी अमूल्य रचनाओं से उसके भण्डार को भर
दिया। रामविलास शर्मा ने सच ही कहा है– “निराला भारत के ऋषि–मुनियों की ही परम्परा में एक सच्चे ऋषि और विद्रोही,
क्रांतिकारी तथा युग प्रवर्तक कवि थे। उनके काव्य में ऐसी मानवता के दर्शन होते है
जो जाति या राष्ट्र की सीमाओं में बंधी नहीं है। वह सत्य के पुजारी और धुन के
पक्के थे। उन्होंने साहित्य की परम्पराओं में नई शैलियों का समावेश किया तथा
प्रजातंत्र, मानवता एवं प्रगति के लिए अपना सारा जीवन लगा दिया।”10
संदर्भ-
1. छायावाद, डा0
नामवर सिंह – पृष्ठ सं0- 11
2. छायावाद, डा0
नामवर सिंह – पृष्ठ सं0- 12
3. छायावाद, डा0
नामवर सिंह – पृष्ठ सं0- 13
4. हिन्दी
साहित्य का दूसरा इतिहास, बच्चन सिंह – पृष्ठ संख्या- 329
5. हिन्दी
साहित्य का दूसरा इतिहास, बच्चन सिंह – पृष्ठ संख्या- 330
6. छायावाद, डा0
नामवर सिंह – पृष्ठ सं0- 15
7. निराला – सं0
इन्द्रनाथ मदान – पृष्ठ सं0- 19
8. निराला – सं0 इन्द्रनाथ मदान – पृष्ठ सं0- 19
9. निराला – सं0
इन्द्रनाथ मदान – पृष्ठ सं0- 36
10. निराला का साहित्य
– लक्ष्मी पाण्डेय – पृष्ठ – 13
विनोद कुमार
असि0 प्रोफेसर (हिन्दी), लाल बहादुर शास्त्री पीजी कालेज, मुगलसराय, चंदौली।
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
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