शोध आलेख : मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानियों में चित्रित स्त्री-जीवन / वंदना पाण्डेय एवं डॉ. विश्वजीत कुमार मिश्र

मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानियों में चित्रित स्त्री-जीवन
- वंदना पाण्डेय  एवं डॉ. विश्वजीत कुमार मिश्र

शोध सार : प्रस्तुत शोध-पत्र का मुख्य उद्देश्य मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानियों में चित्रित स्त्री-जीवन को रेखांकित करना है। स्त्री जीवन प्राचीन समय से ही चुनौतीपूर्ण रहा है। स्त्रियों को सदियों से विभिन्न समस्याओं से संघर्ष करते हुए देखा गया है। यह कोई नयी बात नहीं कि स्त्री शोषण की शिकार होती हैं क्योंकि स्त्रियाँ ऐसी दयनीयस्थिति का सामना सदियों से करती रही हैं और आज भी कर ही रही हैं। अपनी अस्मिता के लिए पुरुषवादी समाज से, विचारधारा से उनका संघर्ष वर्तमान में भी बना हुआ है। स्त्रियों का अपनी अस्मिता को लेकर चैतन्य रहने का ही यह परिणाम है कि आज के समय-समाज में स्त्रियाँ हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती नज़र रही हैं। लेखिका अपनी कहानियों के माध्यम से स्त्री जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालने की कोशिश करती नज़र आती हैं। स्त्री को अपने जीवन के हर मोड़ पर किन-किन कठिनाइयों से जूझना पड़ता है इसका चित्रण लेखिका की कहानियों में सहजता के साथ हुआ है।
 
बीज शब्द : स्त्री-जीवन, संघर्ष, मानसिक शारीरिक शोषण, भ्रष्टाचार, अग्निपरीक्षा, धार्मिक स्थल, दुराचार, यंत्रणा, बेमेल विवाह, अस्मिता, पितृसत्तात्मक समाज, मनीषा कुलश्रेष्ठ
 
मूल आलेख : स्त्री जीवन हमेशा से ही संघर्षों से घिरा रहा है। स्त्री को केंद्र में रखकर यदि इतिहास के पन्नों को पलट कर देखा जाये तो यह देखने को मिलता है कि हर युग में स्त्रियों को विभिन्न परिवेशों में संघर्षों के साथ जीवन यापन करना पड़ा। अनेक प्रकार की चुनौती एवं समस्याएँ उनके जीवन के इर्द-गिर्द घूमते नज़र आते हैं। स्त्री जीवन को लेकर पहली बात तो यह स्पष्ट है कि चाहे आदिकाल हो, भक्तिकाल हो या फिर आधुनिक काल ही क्यों हो उन्हें हमेशा से एकवस्तुके रूप में ही देखा गया है और कमोबेश आज भी देखा जाता है। पुरुषवादी समाज स्त्रियों को बंधनों में बाँ कर अपने अधीन रखने का प्रयत्न हमेशा से करते आया है। स्त्रियों के अतीत के बारे में प्रभा खेतान लिखती हैं – “तमाम कठिनाइयों के बावजूद आज की स्त्री की दृष्टि में उसका भविष्य जितना सुखद और रोचक है, उतना उसका अतीत कभी नहीं रहा। वर्तमान के आधार पर ही कहा जा सकता है कि हम स्त्रियों का अतीत सुखद नहीं था। क्या था हमारे अतीत में? चिंताओं पर जलती हुई औरतें। घूँघट की आड़ में रोती घुटती हुई औरतें। शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के लिये तरसती हुई औरतें। समाज के नियम इतने कठोर कि विरोध में स्त्री का एक भी शब्द बोलना नामुमकिन।1 किन्तु, जिस प्रकार रात के अँधेरों के बाद उम्मीद की किरणें दृष्टिगोचर होती हैं, रौशनी से पूर्ण एक नयी सुबह की शुरुआत होती है ठीक उसी प्रकार स्त्रियाँ भी परंपरा के नाम पर हो रहे शोषण और परिस्थितियों से समझौता करते-करते थक चुकी थी तथा अपने प्रति हो रहे शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाने की कोशिश करने लगी। आधुनिक परिवेश में रहकर अपने अस्तित्व को लेकर उनमें चैतन्यता का बोध होने लगा। आज स्त्रियाँ अपने अस्तित्व, अपने अधिकारों को लेकर वे सजग दिखने लगी और अपनी अस्मिता के लिये प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद करती परिलक्षित होने लगी है। वर्तमान समय में स्त्री अपने को इस काबिल बना रही हैं जहाँ वह किसी पर आश्रित ना रहे। आज के आधुनि दौर में जहाँ एक ओर स्त्री को उच्च शिक्षा प्राप्त है तो वहीं दूसरी ओर उसके लिए स्वावलंबी होना अधिक महत्वपूर्ण। आज हर क्षेत्र में स्त्रियों की भागीदारी परिलक्षित होती है। मनीषा कुलश्रेष्ठ ने स्त्री-जीवन, उनकी स्थिति, परिस्थिति आदि में हो रहे परिवर्तन को बारीकी से देखा और उसे अपनी कहानियों में शब्द-बद्ध किया है।
 
          स्त्री जीवन की जो दुखद स्थिति है वह यह है कि आज भी स्त्रियाँ सामाजिक, धार्मिक तथा राजनैतिक पहलुओं द्वारा शोषण की शिकार हो रही है जहाँ उसके आत्मसम्मान को चोटिल करने की भरपूर कोशिश की जाती है। सामाजिक परिस्थितियों के तहत उनकी संवेदनाओं को उल्लेखित करते हुए लेखिका ने स्त्री जीवन को बेमेल विवाह, आर्थिक संघर्ष, मानसिक पीड़ा आदि विषयों के माध्यम से स्पष्ट किया है।
 
स्त्री-जीवन समस्याओं से भरा हुआ होता है। जहाँ हर एक कदम पर उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उनके पास दो ही विकल्प होते हैं या तो उनके साथ जो कुछ भी हो रहा है, चाहे मानसिक प्रताड़ना हो या शारीरिक शोषण उससे चुप-चाप मूक बनकर सहती जाये या फिर एक विद्रोही की भांति उस शोषण का, मानसिक यंत्रणा का विरोध खुलकर करे। कितनी अजीब बात है हमारे समाज की जहाँ स्त्रियाँ चुपचाप सब सहती आती हैं तो उसे संस्कार से परिपूर्ण की उपाधि दी जाती है किन्तु जहाँ वह अपने अधिकारों के लिए, अपनी अस्मिता के लिए आवाज़ उठाती हैं तो चरित्रहीनता, संस्कारों का उल्लंघन करती स्त्री आदि की उपाधि से उसे नवाज़ा जाता है। अपनी अस्मिता के लिए उन्हें पितृसत्तात्मक समाजवादी मानसिकता से जीवन के हर एक मोड़ पर जूझना पड़ता है।
 
          हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण लेखिकाओं में अपनी पहचान बनाकर स्वयं को  स्थापित करने वाली कथाकारप्रभा खेतानस्त्रियों की स्थिति को लेकर अपने विचार कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त करती हैं – “आज की स्त्री पारंपरिक नारी की भूमिका में स्वयं को पंगु नहीं बना देना चाहती है, किन्तु इससे बाहर जाते ही उसे अपने नारीत्व का उल्लंघन करना पड़ता है। व्यस्त जिन्दगी शुरू करने वाली स्त्री को पुरुष की भाँति सफलता की कोई परम्परा नहीं मिलती। समाज उसे नए अध्यवासी पुरूषों के बराबर महत्त्व नहीं देता। उसके साथ यह दुनिया एक नये परिप्रेक्ष्य में पेश आती है। एक स्वतंत्र मानव व्यक्ति की हैसियत से स्त्री होना आज भी विलक्षण समस्याओं से भरा हुआ है।2
 
          मनीषा कुलश्रेष्ठ द्वारा लिखितकठपुतलियाँकहानी स्त्री की मनोदशा, दयनीय स्थति, मानसिक शारीरिक यंत्रणा को रेखांकित करती कहानी है। कहानी के केंद्र में लेखिका ने एक ऐसी स्त्री को चित्रित किया है जिसकी शादी एक पाव से पोलियो ग्रस्त विधुर के साथ होती है जिसके दो बच्चे भी होते हैं। जिसके पीछे का मुख्य कारण हैदहेज़ की समस्या सदियों से चली रही दहेज़ की समस्या वर्तमान में और विकराल रूप धारण किये हुए है। दिनों-दिन इसकी समस्या में तेज़ी से बढ़ात्तरी देखने को मिलती है जिसका बुरा प्रभाव स्त्री के जीवन पर पड़ता है। समाज की इसी वास्तविकता को लेखिका नेकठपुतलियाँकहानी में कुछ इस प्रकार से रेखांकित करती हैं – “बापू तो कहीं और बात तय कर गए थे, वो जोगेन्दर था...दसवीं फेल था। जीन्स की पैंट और लाल कमीज पहनता था धूप का चश्मा लगाता। सब जोगी कहते। पर उनके आँखें मूंदते ही लेन-देन की बात पर बाई ने तीन साल पुराना रिश्ता तोड़ दिया। रिश्ता टूट गया तो जेहन में गूँजता नाम भी पीछे छूट गया। तेरह साल की सगुनाबाई का ब्याह तीस बरस के अपाहिज और विधुर कठपुतली वाले रामकिशन से हो गया।3
 
          कहानी में जो दूसरी मुख्य बिंदु परिलक्षित होती है वह यह है कि क्यों समाज में स्त्री ही हमेशा से सवाल के कठघरे में खड़ी पायी जाती है। इसका यथार्थ का उल्लेख कहानी में कुछ इस प्रकार होता है कि विवाह उपरांत एक दिन सुगना की मुलाकात जोगी से होती है और उस मुलाकात के दौरान सुगना और जोगी पुरानी बातो को याद करने लगते है और उस पल में उनके बीच दैहिक सम्बन्ध बन जाता जिससे सुगना उससे गर्भवती हो जाती है। जब यह सब उसके ससुराल वालो को पता चलता है तब अपने बचाव में सुगना अड़ जाती है कि यह बच्चा उसके पति रामकिशन का ही है, पर इस बात को कोई नहीं मानता तथा यह बात पंचायत तक पहुँच जाती है और सुगना कोअग्निपरीक्षादेने के लिए विवश किया जाता है। एक पंच कहता है – “कहो कि मैंने जो कहा वह सच है, मुझे मंजूर है अग्निपरीक्षा। सुगना बाई, यह अग्नि परीक्षा औरत की मर्जी से ही ली जाती है।4  इस कहानी में जो बात मन में सवाल उठाते हैं वह यह कि हर बार अग्निपरीक्षा स्त्री को ही क्यों देना पड़ता है? समाज द्वारा यह बनाया गया कैसे नियम है जहाँ दोषी जो भी हो पर सवाल केवल और केवल स्त्री पर ही उठाये जाते हैं। चाहे प्राचीन समय हो या आज का समय कहीं कभी ये सुनने को क्यों नहीं मिलता कि समाज पुरुष से अग्निपरीक्षा की बात करे। यह समाज की एक ऐसी क्रूर और दयनीय वास्तविकता है जिससे जाने कितनी स्त्रियाँ आज भी जूझ रहीं हैं और जाने कब तक जूझती रहेंगी।

    स्त्री जीवन की सुरक्षा की बात रें तो यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि आज भी स्त्री जीवन कहीं सुरक्षित नहीं है। स्त्रियाँ चाहे घर में हो या घर से बाहर उन्हें वस्तु के रूप में देखा जाता है। वे शोषण की शिकार कभी अजनबियों के द्वारा तो कभी अपने परिवार में रिश्तेदार सगे-संबंधियों द्वारा होती हैं। इसी का चित्रण मनीषा कुलश्रेष्ठ अपनी कहानियों में पूरे यथार्थ के साथ करती हैं। उनके द्वारा लिखित कहानीफाँसऔरलापता पीली तितलीमें स्त्री के साथ घटित इसी कुकृत्य का वर्णन है।फाँसकहानी समाज के उस यथार्थ को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है जहाँ स्त्री जीवन घर के बाहर तो असुरक्षित होती ही है, किन्तु अब वे अपने घरो तक में अपने ही परिवार के सदस्य द्वारा बलात्कार की शिकार हो जाती है। कहानी की पात्र का अपने ही पिता द्वारा बलात्कार किया जाना, बाप-बेटी के रिश्तें को शर्मशार करती है। अंतिमा अपने पिता से बचने का हर संभव प्रयास करती है। किन्तु वह असफल हो जाती है – “उसने सोच रखा था कि अगली बार शराब के नशे में पिता ने ऐसी-वैसी कोई हरकत की तो उसका सिर दीवार से फोड़ देगी। उसके पिता ने ही उसका सिर दीवार से दे मारा। अर्धचेतना में जाने कब, समाज और सभ्यताओं के कानों में वर्षों से वह एक गाली, जो गरम सीसे सी गिरती थी, आज उसी सभ्यता की जांघों में वह लहू से लिख दी गयी।5
 
          यह महज एक कहानी नहीं है, अपितु समाज का यथार्थ है जिसका सामना स्त्रियों को हर एक कदम पर करना पड़ता है। स्त्री जीवन कितना असुरक्षित है इसका ज्ञा तब होता है जब हम अपने आस-पड़ोस के परिवेशों में एक नज़र डालते हैं। आये दिन यह ख़बर सुनने को मिलती है कि महिला के साथ दुराचार किया गया तथा बलात्कारियों द्वारा एक स्त्री के साथ बलात्कार कर उसकी मौत कर दी गयी। कितने मामलों में यह भी बात सामने आती है कि स्त्री के साथ हुए दुराचार में उसके घर के सदस्य, रिश्तेदार तो कभी जान-पहचान वाले ही लोगों का हाथ था। समाज की ऐसी स्थिति का उल्लेख लेखिका नेलापता पीली तितलीकहानी में किया है। यह कहानी मिन्नू अर्थात मनाली की है। जब वह तीन वर्ष की थी तब उसकी माँ के दफ्तर में काम करते डीके की उसपर गंदी नज़र होती है। मुख्यतः लापता पीली तितली कहानी चाइल्ड एब्यूज की शिकार हुई मिन्नू की कहानी है। डीके जैसे लोग समाज में सभ्य बने रहने का ढोंग रचते हैं तथा मासूमों के साथ कुकृत्य करते हैं पर तब भी समाज के समाने उनका असली चेहरा नहीं पाता। लेखिका के शब्दों में – “...डीके जैसे लोग समाजिकता का लबादा कसकर ओढ़ते हैं। आप ही की शादी के एलबमों में अपनी सौजन्य मुस्कुराहटों के साथ मौजूद रहते हैं। आप ही की शादी में लहंगा पहनकर उसे घुटने तक चढ़ाये खेलती छोटी लड़कियों को गोदी में उठाकर गाल आगे कर देते हैं, अंकल को किस्सी!!”6
 
          कहा जाता है विधवा जीवन एक अभिशाप है। ऐसा कहने के पीछे कई तरह के कारण होते हैं। उन्हें समाज में महिलाओ द्वारा तिरस्कृत नज़र से देखा जाता है तो पुरुषों द्वारा अकेली स्त्री के रूप में भोग की वस्तु के रूप में। विधवा स्त्री का जीवन हर स्थतियों में संघर्ष तथा समस्याओं से घिरा हुआ रहता है।विधवा स्त्रीके जीवन को केंद्र में रखकर लिखी गयी मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानीरंग-रूप-रस-गंधधार्मिक अनुष्ठानों जैसी जगहों पर हो रहे दुराचार को रेखांकित करती है। विधवा स्त्री की दयनीय स्थिति, चुनौतिपूर्ण जीवन को चित्रित करती इस कहानी में लेखिका यह चित्रित करती हैं कि स्त्रियाँ विधवा होने पर स्वयं के जीवन को ईश्वर के नाम समर्पित कर अपना शेष जीवन किसी धार्मिक स्थल, जैसे काशी आदि जगहों पर जीवन यापन करने चली जाती है। किन्तु समाज की वास्तविकता यह है कि धार्मिक स्थलों जैसे पवित्र स्थानों पर भी स्त्रियाँ शोषण-मुक्त नहीं रह पाती। वहाँ भी भगवान के पुजारियों द्वारा, पाखण्ड मुखौटा पहने पंडों द्वारा वे दुराचार की शिकार होती हैं। कहानी में इस यथार्थ का चित्रण कुछ इस प्रकार हुआ है – “प्रसाद गृह के पंडा रामबिलास चौबे प्रकट हो गए,...उसका हाथ पकड़कर खींचने लगे। वह चीखी जरूर... उसे घसीटकर चौबे जी, प्रसाद गृह के एक सुनसान कमरे में ले जाने लगे।...एक भारी-भरकम शरीर के नीचे, जया लगभग अचेत। बस ही नहीं चला। चौबे जी उठकर धोती बाँध रहे थे...जया माई...लांछित, आहत...”7
 
          समाज की विडम्बना यह है कि स्त्री चाहे रूपवान हो, आधुनिक पोशाक में हो या फिर गरीबी की चादर में लिपटी हो, पुरुषों की कु-दृष्टि से वे नहीं बच पाती हैं। धार्मिक स्थलों की इसी यथार्थता का अंकन लेखिका ने अपनी इस कहानी में किया है। कहानी की पात्रजया माईको केंद्र में रखकर विधवा स्त्री के जीवन की दयनीय स्थिति का चित्रण पूरे मार्मिकता के साथ लेखिका करती हैं। एक अकेली स्त्री को पुरुषों की कु-दृष्टि से अपने आप को बचाकर रखने का भय हमेशा बना रहता है। स्त्री मन को कहानी में कुछ इस प्रकार चित्रित किया गया है – “...वह अपनी इकहरी धोती का पल्ला साधे, गंजे सिर को ढाँपते लौट रही थी। उम्र की गिनती गिनना कब का बन्द कर दिया था। बल्कि यही सोचा करती थी कि जल्दी से ढले इस देह की शाम तो चैन की जिन्दगी जिये। कितना बचाये बत्तीस दाँतों के बीच इस यौवन की जीभ को?”8  ऐसी स्थिति कमोबेश हर जगह देखने को मिलती है जहाँ स्त्रियाँ यौन शोषण दुराचार की शिकार होती है।
 
          वर्तमान समय-समाज में स्त्रियों को अपने अस्तित्व को लेकर सजग रहना, चैतन्य रहना अतिआवश्यक है। उनमें चेतना का बोध होना महत्त्वपूर्ण है। स्त्री चेतना का अर्थ केवल यह नहीं समझा जाना चाहिए कि इसके अंतर्गतस्त्रीकी पुरुष से आज़ादी की बात होती है बल्कि इसमें स्त्रियों का जीवन मूल्य है। उनकी अस्मिताओं का प्रश्न शामिल होता है। नारी की अपने अस्तित्व और अधिकारों के प्रति अहसास अथवा अनुभूति नारी चेतना है। नारी चेतना का समाज में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका की समझ तथा अस्मिता बोध है। इसलिए नारी चेतना को समाज में नूतन क्रांति का बीजारोपण समझा जाता है। नारी चेतना के सन्दर्भ में नारियों ने अपनी आत्मचेतना, न्याय समानता के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाया है।9 नारी चेतना की महत्ता बताते हुएफ्रायड ने लिखा था कि – “चयन और निर्णय की स्वतंत्रता व्यक्ति के व्यक्तित्व, मनोविज्ञान के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है नारी चेतना।"10
 
          आज भी स्त्रियों के समाने यह स्थिति बनी हुई है कि पुरुषवादी समाज उन्हें अपने अधीन रखना चाहता है। पुरुषों की मानसिकता यह है कि उसकी पत्नी केवल घर की देखभाल करे तथा बच्चों को संभालने तक ही सीमित रह जाए। लेखिका ने अपनी कहानीकेयर ऑफ स्वात घाटीमें इसे स्पष्ट ढंग से उभारा है। कहानी की पात्र सुगन्धा अपनी अस्मिता बनाने के लिए स्वालंबी होना चाहती है। इसके लिए वह थियेटर में हो रहे नाटक में भाग लेती है जहाँ उसका लीडिंग रोल होता है पर उसका पति नहीं चाहता की वह थियेटर में जाये। उसकी पितृसत्तात्मक सोच कुछ इस तरह बाहर आती है – “...बस बन्द करो यह सब और घर में ठहरो थोड़ा बच्चों को देखो। जब मेरे ऑफिस में बहुत व्यस्तता होते भी तुम्हारा कोई कोई शौक मुंह उचकाने लगता है, पहले फ्रेंच सीखूंगी, फिर ये थियेटर।...मेरी मौजूदगी तो मौजूदगी, गैर-मौजूदगी में भी तेरे नौटंकीबाज यार यहां मजमा लगाये तो रहते हैं। वो तेरा बंगाली श्यामल, उसकी फेमिनिस्ट बीवी अनामा, जो तमाम मीडिया में फेमिनिज्म का झंडा लेकर घूमती फिरती है। तू मत करना कभी ये कोशिश, वरना उसी झंडे का डंडा...”11
 
          सुगन्धा का पति बलपूर्वक उसे रोकता है किन्तु वह अपनी पहचान को बनाने के लिए आगे बढ़ती है। सुगन्धा जिसे उसके पति ने बिस्तर पर धकिया दिया था, वह उठती है और बैग उठाकर चलने लगती है। उसका जाना उस सोच का विरोध करना हुआ जहाँ पुरुष चाहते हैं उनकी पत्नियाँ मूक बनकर एक गुलाम की तरह जीवन व्यतीत करे। यह स्थिति आज भी समाज में निहित हैं जहाँ स्त्रियाँ इस दंश को झेल रही होती है। जहाँ पुरुष नहीं चाहता कि उसकी पत्नी उसके सहारे के बिना अपने अस्तित्व को लेकर सजग रहे। किन्तु यह भी सत्य है कि स्त्रियाँ आज विभिन्न समस्याओं का सामना करते हुए भी अपनी अस्मिता को खोजने में लगी हुई हैं आज के समय की स्त्रियाँ अपने प्रति समाज की रूढ़िगत विचारधाराओं को, पितृसत्तात्मक सोच को नष्ट करने के लिए सजग हो रहीं हैं। वह अपने व्यक्तित्व के लिए, अपनी अस्मिता के लिए पूर्ण रूप से प्रयास करती नज़र आती हैं।
 
निष्कर्ष : मनीषा कुलश्रेष्ठ समकालीन महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों में से एक हैं। उनकी रचनाओं में विषयों की विविधता परिलक्षित होती है। विषय-वस्तु के वैविध्य में जिसे केंद्र में लेखिका रखती हैं वह हैस्त्री-जीवन लेखिका ने स्त्री-जीवन, उनकी स्थिति, परिस्थिति, मनोदशा, शोषण आदि की अभिव्यक्ति यथार्थता के धरातल पर करती हैं। उनकी कहानियों में सामाजिक यथार्थ से संघर्ष करती स्त्रियों का अंकन हुआ है। स्त्री मन को अपनी कहानियों में दर्शाते हुए लेखिका ने उनके साथ घटित समस्याओं का उल्लेख मार्मिक ढंग से किया है। उनके द्वारा लिखित कहानियों में स्त्रियाँ अपने अस्तित्व को लेकर सवाल करती नज़र आती हैं।
 
संदर्भ :
1. https://rrjournals.com
2. प्रभा खेतान, स्त्री उपेक्षिता, पृ. 319
3. मनीषा कुलश्रेष्ठ, ‘कठपुतलियां’, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण- 2008, पृ.8
4. वही, पृ. 21
5. मनीषा कुलश्रेष्ठ, ‘रंग-रूप रस-गंध भाग I’, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण- 2019, पृ. 338
6.  मनीषा कुलश्रेष्ठ, ‘रंग-रूप रस-गंध भाग II’, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण- 2019, पृ. 630
7. मनीषा कुलश्रेष्ठ, ‘कठपुतलियां’, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण- 2008, पृ.47
8. मनीषा कुलश्रेष्ठ, ‘कठपुतलियां’, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण- 2008, पृ.42
9. डॉ. संगीता के, ‘नारी चेतना की सार्थक तलाश’, जवाहर पुस्तकालय, हिंदी पुस्तक प्रकाशक एण्ड वितरक, मथुरा
10. डॉ. गीता सोलंकी, ‘नारी चेतना और कृष्णा सोबती के उपन्यास’, पृ. 28
11. मनीषा कुलश्रेष्ठ, ‘रंग-रूप रस-गंध भाग II’, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण- 2019, पृ. 385
                                                                                                                                                             
 वंदना पाण्डेय
पी-एच.डी शोधार्थी, हिन्दी विभाग, राजीव गांधी विश्वविद्यालय, अरुणाचल प्रदेश
 
 डॉ. विश्वजीत कुमार मिश्र
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, राजीव गांधी विश्वविद्यालय, अरुणाचल प्रदेश
nehu00vishwajit@gmail.com

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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