पुरुष
भक्त कवियों का स्त्री स्वर : जेंडर और सेक्सुअलिटी के विविध आयाम
- अजय
कुमार यादव
शोध-सार : इस शोध आलेख में पुरुष भक्त कवियों के ‘स्त्री स्वर’
या Female persona का विश्लेषण किया जायेगा। भक्ति काव्य की लगभग सभी धाराओं में
पुरुष साधकों द्वारा ‘स्री स्वर’ का रचनात्मक प्रयोग हुआ
है। निर्गुण संत परंपरा, सूफी साधना, कृष्ण
भक्ति काव्य, माधुर्य भक्ति के रामोपासक रसिक कवि इसके उज्ज्वल उदाहरण हैं। पुरुष
भक्त कवियों के ‘स्त्री स्वर’ में
जेंडर और सेक्सुअलिटी के विभिन्न निहितार्थ छुपे हुए हैं। उनके ‘स्त्री स्वर’ ने स्त्रैणता
और उभय लिंगता को रचनात्मक आयाम दिया। अमेरिका के मूल निवासी ‘टू स्पिरिट पीपल’ की
तरह इनके यहाँ भी जेंडर का स्वरूप ‘फ्लूइड’ ‘नॉन-बाइनरी’ और लचीला है। भक्ति के इस
रूप को तत्कालीन समाज से स्वीकार्यता मिली थी। लेकिन भारत में अंगरेज़ी उपनिवेशवाद
के स्थापित होने के बाद स्थितियाँ बदल गई। मैस्कुलिन अंगरेज़ पुरुषों की स्त्रैणता को
हिकारत की दृष्टि से देखते थे। जेंडर फ्लूइडिटी को नष्ट कर जेंडर की पहचान को स्त्री/पुरुष के विभाजन (बाइनरी)
तक सीमित करने के लिए आधुनिक मेडिकल साइंस और मनोविज्ञान के सिद्धान्त का सहारा
लिया गया। इस आलेख में इन्हीं बिन्दुओं पर चर्चा की जाएगी।
बीज शब्द : भक्तियुग, भक्ति-साहित्य, भक्ति, स्त्रैणता,
उभयलिंगता, टू-स्पिरिट, स्त्री-स्वर, औपनिवेशिकता, आधुनिकता, बाई-सेक्सुअलिटी, नॉन-बाइनरी,
मस्कुलिनिटी, मनोविज्ञान |
मूल आलेख : भारत में पुरुष साधकों द्वारा ‘स्त्री स्वर’ में भक्ति सृजन का लम्बा इतिहास रहा है। ए. के. रामानुजन ने अपने निबन्ध
‘मेन,वीमेन एंड सेंट्स’ में लिखा है कि
“नाम्मालवार की लगभग एक हजार कविताओं में से दो सौ सत्तर औरत की
आवाज़ में हैं। स्त्री रूप धारण करने की यह परंपरा संगम काव्य तक जाती है, जहाँ बहुत से कवि कविता में नारी का रूप धारण करते हैं।”1
नम्मालवार, बासव, देवर दसिम्मया, अमीर खुसरो,
कबीर, चैतन्य महाप्रभु, नरसी मेहता, शाह इनायात और रामकृष्ण
परमहंस जैसे संतों की भक्ति साधना ‘मधुर स्त्री भाव’ से आप्लावित है। अली सरदार जाफरी का मत है कि “संत और भक्त कवियों ने
भक्ति के उत्साह में अपनी कल्पना दुल्हन के रूप में और परमात्मा की दूल्हे के रूप
में की है। यह उपमा सूफ़ियों के यहाँ भी इसी रूप में मिलती है। जो औलिया हैं वे
अल्लाह की दुल्हनें हैं। दुल्हनों को सिर्फ़ महरम (आत्मीय जन) ही देख सकते हैं।
मौलाना जलालुद्दीन रूमी ने अपनी मसनवी में यह उपमा इस्तेमाल की है। हिंदुस्तान में
फकीरों और दरवेशों का एक संप्रदाय ‘सदा सिहागिन’ के नाम से मशहूर हैं।’’2
देवर दसिम्मया इंसान के सेल्फ या
आत्म को जेंडर विभाजन से परे मानते हैं।
वाह्य रूप के आधार पर स्त्री और पुरुष की पहचान में विभेद किया जा सकता है, लेकिन मनुष्य का आत्म या
मनौवैज्ञानिक जगत जेंडर विभाजन से परे है। उसका स्वरूप उभयलिंगी भी हो सकता है।
उसमें स्त्रैण और पुल्लिंगी दोनों भाव सन्निहित हो सकते हैं। जेंडर एक सांस्कृतिक
निर्मिती है जबकि लिंग प्राकृतिक देवर दासिम्मया जेंडर बाइनरी को खारिज करते हुए
अपने एक वचन काव्य में लिखते हैं-
"यदि किसी के लंबे केश और वक्ष हो
तो, लोग उसकी पहचान स्त्री के रूप में करते हैं,
यदि किसी की दाढ़ी या मूँछ हैं
तो, लोग उसे पुरुष के रूप में पुकारते हैं,
किंतु आत्मा जहाँ निवास करती है
वह जगह न तो स्त्री है न ही पुरुष।"3
वीर शैव कवि बासव एक वचन काव्य में अपने स्त्रैण
भावों को अभिव्यक्त करते हैं। वह अशिव के लिए प्रेम निवेदन निम्न शब्दों में करते
हैं।
"हे प्रिय, इधर
देखो
मैं पुरुषों का वस्त्र सिर्फ तुम्हारे लिए धारण करता हूँ
जबकि, किसी क्षण में पुरुष हूँ तो, किसी क्षण स्त्री।"4
दरअसल, पूर्व औपनिवेशिक समाजों में जेंडर
विभाजन (स्त्री/पुरुष) की लकीरें इतनी कठोर नहीं थीं। जेंडर के स्वरूप में एक
लचीलापन था। अमेरिका के मूलनिवासी ‘टू स्पिरिट पीपल’ का उदारहरण लिया जा सकता हैं।
इन्हें टू स्पिरिट इसलिए कहा जाता है क्योंकि एक ही व्यक्ति के भीतर स्त्रैण और
पुल्लिंगी दोनों भाव पाए जाते हैं। उनके यहाँ जेंडर फ्लूइडिटी या जेंडर नॉन-बाइनरी
है, यानी एक ही व्यक्ति के भीतर स्त्रैण, पुल्लिंगी, उभय लिंगी या कई लैंगिक
पहचानें एक साथ हो उपस्थित हैं। “उनके एक ही आदिवासी समुदाय में 3, 5, 7 या कभी-कभी
12 प्रकार के जेंडर होते है।”5 अमेरिका
में जब फ्रांस, ब्रिटेन और स्पेन के उपनिवेशवादी पहुँचे तो उन्होंने वहाँ के मूलनिवासियों
की इस जेंडर विविधता को असामान्य मानकर उसका दमन किया। ये उपनिवेशवादी मस्कुलिन थे,
वे सिर्फ जेंडर बाइनरी(स्त्री/पुरुष) में विश्वास रखते थे। भारत में भी यही प्रक्रिया ब्रिटिश उपनिवेशवादियों
ने दोहराई।
पूर्व औपनिवेशिक भारतीय समाज मैक्सकुलिनिटी
के प्रकोप से इतना ग्रस्त नहीं था जितना कि औपनिवेशिक आधुनिकता के बाद हो गया। उस
समय के कवि या साधक स्त्रैण और उभयलिंगी भाव का दोहन अपने काव्य या जीवन जगत् में
कर सकते थे। भक्त कवियों के स्त्रैण, उभयलिंगी, फ्लूइड और कामुक आकांक्षा को उनके
भाव जगत् के साथ ही उनके समाज में भी लोकेट किया जा सकता है। मनुष्य का भावजगत, समाज जगत् से अलग नहीं
हो सकता।
पुरुष साधकों का 'स्त्री स्वर' उनके काव्य को उभयलिंगता के आयाम से जोड़ता है। ये कवि जैविक रूप से पुरुष
हैं वे लेकिन स्त्रैण भाव का दोहन करने से नहीं चूकते। उनकी मधुर प्रेम की
आकांक्षाएँ स्त्री जैसी हैं। उनके व्यक्तित्व में स्त्रैण और पुरुषत्व दोनों भाव
एकाकार हो जाते हैं। कुछ उदाहरणों के माध्यम से हम इसे समझ सकते हैं।
नरसी मेहता प्रेम में विह्वल होकर गोपी बन
जाते हैं और स्त्रैण या उभयलिंगी भाव में डूबकर अपना पुंसत्व भी छोड़ देते हैं –
"प्रेम में विहल होकर मैंने
गोपियों की उस प्रियतम की बाँह थामीं।
मैं बाकी सब भूल गया। यहाँ तक मेरा पुंसत्व भी मेरा
साथ छोड़ गया।
मैंने किसी स्त्री की तरह नाचना गाना प्रारम्भ कर दिया।
अपनी देह मुझे बदली हुई प्रतीत हुई, मैं गोपियों में से एक
हो गया।
मैं एक सखी की भाँति मध्यस्थ की भूमिका में था
और मैंने राधा को उसकी रूप गर्विता के लिए उपदेश देना
शुरू कर दिया।
ऐसे क्षणों में मैंने अतुलनीय माधुर्य और आनन्द का
अनुभव किया।
वह जो राधा संग बैठकर गा रहा है वह उसी क्षण मेरे
हृदय में भी बैठा है।"6
मनोविश्लेषक सुधीर कक्कड़ और साहित्य
समीक्षक ए. के. रामानुजन ने भक्ति का अध्ययन कर उसमें उभयलिंगता के तत्त्वों की
शिनाख़्त की है। भास्कर श्रीपाद का मानना है कि भारत में ‘साइकिक बाइसैक्सुअलिटी’ (मनोवैज्ञानिक उभयलिंगता) को सहज स्वीकार्यता प्राप्त है। कबीर के पदों
में भी मनोवैज्ञानिक उभयलिंगता के तत्त्व मिलते हैं। आलवार और नयनार संतों की
कविताओं में भक्त एक प्रेम पीड़ित स्त्री है और ईश्वर उसका चित्तचोर। पुरुषोत्तम
अग्रवाल के अनुसार "पुरुष देह और मन के भीतर स्त्रीत्व
की उपस्थिति का बोध वस्तुतः उभयलिंगी आत्म के साक्षात्कार का बोध है- नम्मालवार से
कबीर तक।"7
कबीर की कविता के दो स्वर हैं। एक 'स्त्री स्वर' और दूसरा 'पुरुष स्वर।' कबीर जब 'स्त्री स्वर' में कविता करते हैं तो वह स्त्री की प्रमाणिक अनुभूति को प्रकट करते हैं। यहाँ वे नारी निंदक नहीं हैं। वह उच्चस्तरीय स्त्रैण भावों की अभिव्यक्ति करते हैं। कबीर जब 'पुरुष स्वर' में कविता करते हैं तब उनका नारी निंदक रूप मुखरित हो जाता है। यहाँ वह पुरुष श्रेष्ठता या पितृसत्तात्मक मूल्यों की वकालत करते हैं। कबीर की मधुर और भावविह्वल कर देने वाली कविता स्त्री स्वर में कही गई हैं। जबकि उपदेशात्मक कविताएँ 'पुरुष स्वर' में प्रकट हुई हैं।
पुरुषोत्तम अग्रवाल कबीर के स्त्री स्वर
को सर्जनात्मक स्त्रीत्व की संज्ञा देते हैं। दाम्पत्य प्रेम और सुहागरात के
रूपकों द्वारा कबीर आत्मा और परमात्मा के मिलन तथा दोनों के एकाकार होने की
आध्यात्मिक व्यंजना निरुपित करते हैं।
बालम आवे हमारे गेह रे, तुम बिन दुखिया देह रे।
सब कोइ कहै तुम्हारी नारी, मोकौ इहै अंदेह रे
एकमेक हवै सेज न सोवै, तब लग कैसा नेह रे।।8
"कहा जाता है कि दाम्पत्य रति
कबीर के लिए साधना का रूपक है। कबीर की कविता से गुजरते हुए तो लगता है कि उनकी
साधना ही प्रेम के सबसे संश्लिष्ट रूप-दाम्पत्य रति का रूपक है। संसार में भले
स्त्री माया हो लेकिन 'कविता' के 'संसार' में तो वही प्रेम की विधायिका, कर्ता और द्रष्टा है।"9
कबीर ने अपने काव्य में स्त्री स्वर का
प्रयोग काव्य रुढ़ि, साधानात्मक युक्ति और आध्यात्मिक रूपक के तौर पर किया है।
किंतु इस पूरी प्रक्रिया में जो स्त्री बनकर तैयार हुई वह जीवंत और भाव प्रवण है।
वह अपने पिया से मन और तन से रति करना चाहती है। अग्रवाल जी लिखते हैं,
"कबीर के सारे पदों, साखियों को यदि एक
विराट रचना के रूप में पढ़ें तो देखेंगे कि वह प्रेमाभिव्यक्ति के धरातल पर नारी
की कविता--- नारी के बारे में कविता नहीं। कबीर की काव्य संवेदना वस्तुतः शाश्वत
स्त्रीत्व को अपने आपमें व्यापने देने के अन्तस्संघर्ष में भाषा के दो मुहावरे आपस
में टकराते हैं। रीति-रिवाज, धर्म-कर्म और प्रदत्त मर्यादा
का पुरुषोन्मुख मुहावरा कवि को नारी ही बना देता है।"10
पुरुष भक्त कवियों ने कई तरीकों से स्त्रैण भाव प्रकट
किए हैं। किसी ने शब्द, विचार और भाव के माध्यम से तो किसी ने आचार, व्यवहार और
शारीरिक भंगिमा के माध्यम से।
आधुनिक संत “रामकृष्ण परमहंस मधुरा भक्ति के समय स्वयं को ईश्वर की प्रेयसी मानकर स्त्रियों का वेश धारण करते थे। वह अन्तरंग रूप से स्त्रैण व्यवहार करते थे। वह स्वयं को कृष्ण की राधा मानते। उनके मासिक धर्म के बारे में भी विवरण मिलता है। जब वह समाधिस्थ होकर दैवीयता में तल्लीन हो जाते ऐसे क्षणों में उनके उनके त्वचा के रंध्रों से रक्त रिसने लगता।”11 रामकृष्ण के जीवनी लेखक मार्क ईशरवुड ने लिखा है कि “जब तक रामकृष्ण स्त्रैण वेश में होते तब तक उनका मन बहुत गहरे तक स्त्री भाव में डूबा रहता था। जो लोग रामकृष्ण को ऐसे क्षणों में देखते वे उनके इस शारीरिक रूपांतरण से अभिभूत हो जाते। रामकृष्ण के चलने, बोलने, शारीरिक हावभाव तथा अन्य व्यवहारों में अपने रूपांतरित चरित्र(स्त्री) से गजब की साम्यता होती थी।”12 जब वह स्त्रियों के बीच होते उन स्त्रियों को अहसास ही नहीं होता कि रामकृष्ण पुरुष हैं। उन्हें ऐसा लगता कि वह उन्हीं तरह कोई स्त्री है।
चैतन्य महाप्रभु कृष्ण के प्रेम में ‘राधा भाव’ से उन्मत्त होकर नृत्य करते थे। वह कृष्ण और राधा के संयुक्त अवतार माने जाते हैं। शाह इनायत ने अपने प्रेमी बुल्ले शाह को रिझाने के लिए नृत्य सीखा। वह स्वयं को बुल्ले शाह की “दीवानी लड़की(क्रेजी गर्ल)”13 कहते हैं।
रसिक सम्प्रदाय के साधु स्त्री की तरह शृंगार करते थे तथा घुँघरु पहनते थे। रसिक सम्प्रदाय में यह स्त्रैण भाव निम्बार्क मत के सखी संप्रदाय से आया है। सखी सम्प्रदाय के साधु अपने को सोलह सिंगार अर्थात् नख से लेकर चोटी तक अलंकृत करते हैं। सखी सम्प्रदाय के साधु अपने को सखी के रूप में मानते हैं, यहाँ तक की रजस्वला के प्रतीक के रूप में स्वयं को तीन दिवस तक अशुद्ध मानते हैं। रसिक सम्प्रदाय के साधु भी ‘रजस्वला’ जैसे अनुष्ठानों का पालन करते थे।
रसिक सम्प्रदाय के अन्तर्गत स्वसुखी और तत्सुखी सम्प्रदाय स्थापित हुए थे। स्वसुखी शाखा के साधक राम के साथ अपने मधुर सम्बन्ध या केलि क्रीड़ा की कल्पना भोक्ता के भाव से करते हैं। जबकि तत्सुखी सम्प्रदाय के साधक द्रष्टा के भाव से।
स्त्रैणता सिर्फ़ पौरुष की अनुपस्थिति नहीं है। पूर्व
औपनिवेशिक भारत में स्त्रैणता को हिकारत या नकारात्मक दृष्टि से नहीं देखा जाता था।
भारतीय संस्कृति में पुरुषों की स्त्रैणता का एक लम्बा इतिहास रहा है। मिथकों और
पुराणों में सैकड़ों ऐसी कहानियाँ है जहाँ पुरुष 'स्त्री रूप' धारणा
करता है। विष्णु ने स्वयं मोहिनी(सुंदर स्त्री) रूप धारण किया। शिव ने एकबार 'गोपी' बनकर कृष्ण की रासलीला में भाग लिया था। गोपी
बनने की ही वजह से उनका एक नाम 'गोपेश्वर' भी है। भारतीय कविता और चित्रकला की यह अनोखा विशेषता है कि यहाँ नायकों
के सौन्दर्य चित्रण के लिए भी उन्हीं रूपकों और प्रसाधनों का प्रयोग हुआ है जिनका
प्रयोग स्त्रियों के रूप सौन्दर्य वर्णन में होता है। प्रायः नायकों के लम्बे केश
होते हैं, शरीर और चेहरा आभूषण से सुसज्जित होता है, आँख में काजल और अधरों पर लाली होती है। कृष्ण कविता में कई ऐसे प्रसंग
आते हैं जहाँ गोपियाँ, कृष्ण की शृंगार सज्जा एक स्त्री की
तरह करती हैं। कृष्ण वहाँ स्त्री की तरह दिखते हैं।
स्त्रैणता और पुल्लिंगता(मैस्कुलिनिटी) को लेकर भारत और पश्चिम का दृष्टिकोण भिन्न रहा है। इसे मनोविज्ञान में हुए अध्ययनों के माध्यम से समझा जा सकता है। फ्रायड को मनोविज्ञान का पिता कहा जा सकता है। उसके मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव को लक्षित किया जा सकता है। फ्रायड का मनोविश्लेषण शिश्न केन्द्रित(फलागोसेंट्रिक) है। उनके विश्लेषण में स्त्रैणता की अवहेलना हुई है। एक तरह से उसने शिश्न या मस्कुलिनिटी के वर्चस्व को सैद्धांतिक अमली जामा पहनाया है।
फ्रायड का एक सिद्धांत है ‘कास्ट्रेशन एंग्जाइटी।’
इडिपस काम्प्लेक्स से सम्बंधित इस सिद्धांत के अनुसार बच्चों में अपना शिश्न खोने
या क्षति होने का भय रहता है। तीन से पाँच वर्ष आयु के बीच के बच्चों के भीतर माँ के
प्रति यौन आकर्षण होता है। लेकिन माँ तो सिर्फ़ पिता की है। इस लिए बच्चे को माँ के
प्रति आकर्षण त्यागना होगा अन्यथा बच्चे को पिता की तरफ से दंड के रूप में बधिया
किया जा सकता है। ऐसा होने पर बच्चा पुरुषत्व को खो देगा और वह स्त्रैण हो सकता
है। 'कास्ट्रेशन एंग्जाइटी' का यह भय वास्तविक और लाक्षणिक दोनों हो सकता है।
इंडियन साईको एनालिसिस सोसाइटी के
संस्थापक गिरिन्द्र शेखर बोस ने फ्रायड के कास्ट्रेशन एंग्जाइटी का प्रतिवाद किया। वे रेखांकित करते हैं कि
“भारत के पेसेंट्स में कास्ट्रेशन एंग्जाइटी उतनी नहीं है जितनी यूरोपीय पेरेंट्स
में है। कास्ट्रेशन एंग्जाइटी का सम्बंध स्त्रैण होने की चाहत से है। भारतियों में
स्त्रैण होने की सहज आकांक्षा रही है।”14
धर्म, मिथक और साहित्य में भारतीय पुरुषों
के स्त्री बनाने के अनेक उदाहरण हैं। भारत में पुरुष स्त्रैण भाव का दोहन करते रहे
हैं। इसलिए उनमें 'कास्ट्रेशन एंग्जाइटी' पश्चिम के
मुकाबले कम रही है। वे अपनी पुरुष पहचान खोने को लेकर उतने भयभीत नहीं रहे हैं
जितना पश्चिमी पुरुष। मनोवैज्ञानिक भास्कर श्रीपाद के अनुसार “भारत में साइकिक
बाइसेक्सुअलिटी को सामान्य स्वीकार्यता रही है।”15 साइकिक
बाइसेक्सुअलिटी का शाब्दिक अर्थ है 'मानसिक उभयलिंगता।' यानी मानसिक तौर पर एक ही व्यक्ति के भीतर स्त्री और पुरुष दोनों भाव
अनुस्यूत हो सकते हैं।
रुथ वनिता और सलीम किदवई ने अपनी पुस्तक 'सेम सेक्स लव इन इंडिया' में लिखा है कि
"अवध नवाब नसीरुद्दीन हैदर प्रत्येक इमाम के जन्मदिवस पर औरत
का रूप धारण करता था। वह बच्चा जन्मने वाली औरत का स्वांग करता था। अन्य पुरुष
उसकी नकल करते, इस दौरान वे औरतों की तरह परिधान पहनते तथा
औरतों की तरह व्यवहार करते थे।"16 ब्रिटिश विक्टोरियन मर्दों की दृष्टि में यह पतित, विकृत
और जनाना हरकतें थीं। जो प्रथा भारतीय संस्कृति में सदियों से सहज और प्रचलित थी
वह ब्रिटिश विक्टोरियन मर्दों की दृष्टि में जनाना और घृणित हो गई। वे पुरुष की
स्त्रैणता को उपहास और हिकारत के भाव से देखते थे। औपनिवेशिक नैतिकता के बोझ तले सूफ़ी
और भक्ति परम्परा की स्त्रैणता और उभयलिंगता को निन्दित किया गया।
जब अंगरेज़ों ने भारतीयों पर 'स्त्रैण' होने का आरोप लगाया तो भारतीयों को विचलित नहीं होना चाहिए था। न ही अंग्रेजों के जाल में फँसकर स्त्रैणता को हेय, जनाना और पतित मूल्य मानकर उसके ख़िलाफ़ अभियान चलाना था। यह औपनिवेशिक प्रभाव में भारतीयों की ऐतिहासिक गलती थी। अंग्रेजों और भारतीयों की सामाजिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भिन्न थी। अतः भारतीयों को अंगरेज़ी संस्कृति, नैतिकता और मूल्यदृष्टि की कसौटी पर स्वयं को तौलने की आवश्यकता नहीं थी।
महात्मा गांधी स्त्रैण थे। लेकिन क्या वे कम साहसी थे? क्या वे कायर थे? बिलकुल नहीं। ऐसे ही रविन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी स्त्रैणता को अवमूल्यित नहीं किया। इसके बावजूद टैगोर ने जो रचनात्मक ऊँचाई हासिल की वह अतुलनीय है। टैगोर और गांधी ने अपनी स्त्रैणता को हेय नहीं समझा। पुल्लिंगता बनाम स्त्रैणता का द्वैत बनाकर स्त्रैणता को नष्ट या दमित नहीं किया जा सकता। लेकिन औपनिवेशिक विक्टोरियन नैतिकता के दबाव में यह सब हुआ। ब्रिटिश विक्टोरियन मर्द और उनके प्रभाव में भारतीय मर्द दोनों ने मिलकर स्त्रैणता के विरुद्ध शुद्धीकरण अभियान चलाया, जिसका शिकार भक्ति कविता का स्त्री स्वर हुआ।
अंगरेज़ एक अलग ही सांस्कृतिक परिवेश से
आए थे। आशीष नंदी ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘इंटिमेट एनेमी’ में लिखा है कि “लगभग सत्रहवीं शताब्दी से यूरोपीय
व्यक्तित्व के अति मैस्कुलिन पहलू ने वहाँ के स्रैण, वात्सल्य
और आदिम सांस्कृतिक विशेषताओं को विस्थापित कर दिया।”17
अंगरेज़ अति मैस्कुलिन थे, उनकी जेंडर की मान्यताएँ
पुरुष केन्द्रित थीं, उन्हें स्त्रैण और उभयलिंगी मूल्यों से
घोर आपत्ति थी। अंगरेज़ भारत आने के बाद सबसे पहले बंगाल में स्थापित हुए।
बंगालियों के बारे में अंगरेज़ों की धारणा थी कि ये को भी स्त्रैण, निष्क्रिय और कायर होते हैं। उन्होंने बंगालियों की कथित स्त्रैणता का खूब
उपहास बनाया। मृणालिनी सिन्हा ने अपनी पुस्तक ‘कोलोनियल
मैस्कुलिनिटी’ में म-णालिनी इस परिघटना को कई उदाहरणों के
माध्यम से समझाती हैं।
ब्रिटिश शासन में एक आंग्ल भारतीय
प्रशासक सर लेपल गिफ्रिन थे। उन्होंने एक निबन्ध ‘द प्लेस ऑफ बैंगालिज इन पॉलिटिक्स’
(राजनीति में बंगालियों का स्थान) लिखा। यह निबन्ध 1892 में प्रकाशित हुआ। उसने लिखा कि अंगरेज़ी औरतों और बंगाली पुरुषों की
स्त्रैण विशेषताएँ(गुण) समान हैं। “महिलाओं की चारित्रिक विशेषताएँ(स्त्रैणता),
जो उन्हें सार्वजनिक राजनीति में भाग लेने के लिए अनुपयुक्त बनाती हैं।
औरतों का पुल्लिंगी होना उसका सबसे घटिया तिरस्कार है। किंतु पुरुष, जैसे कि बंगाली, राजनीतिक मताधिकार के अनुपयुक्त है
क्योंकि उनके अंदर स्त्रैण गुण हैं। स्त्रैण गुणों वाले इन बंगालियों को शक्तिशाली
और बहादुर नस्लों से निंदा और उपहास की अपेक्षा रखनी चाहिए। क्योंकि इन बहादुर
नस्लों ने लड़कर राजनीतिक मताधिकार हासिल किया है।”18
अंगरेज़ों के इस आरोप से बंगाली रक्षात्मक
मुद्रा में आ गए। अंगरेज़ों के इस आरोप को बंगालियों ने सत्य मान लिया कि उनके
पिछड़ने का कारण उनकी कथित स्त्रैणता है। अतः उन्नीसवीं सदी के बंगाली समाज सुधारकों
ने स्त्रैणता के विरुद्ध तीखा अभियान शुरू कर दिया। स्त्रैणता विरोधी इस अभियान का
शिकार भक्ति कविता की स्त्रैणता और शृंगारिकता हुई। जयदेव रचित महान संस्कृत ग्रंथ
गीतगोविंद की बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा की गई आलोचना इसी का उदाहरण हैं। बंकिम
लिखते हैं “गीतगोविंद के आरम्भ से लेकर अंत तक कहीं भी पुरुषोचित भाव की अभिव्यक्ति
नहीं है, स्त्रैण भावनाओं का ही विस्तार से वर्णन है।”19
बंकीम चन्द्र चटर्जी जयदेव के गीत गोविंद
की कलात्मक श्रेष्ठता को रेखांकित करते हैं। किंतु वह यह भी मानते हैं कि जयदेव के
काव्य में स्त्रैणता है। वह जयदेव को दुर्बल और कामुक नस्ल के कवियों की श्रेणी
में रखते हैं। अतः बंकिम कृष्ण भक्ति कविता के भीतर से कथित स्त्रैणता और कामुकता
का सफाया करते हैं क्योंकि बंकिम के अनुसार इस स्त्रैणता और कामुकता ने बंगाली
पुरुषों को दुर्बल, कायर और चारित्रिक रूप से कमज़ोर बना रखा है। यहाँ जयदेव अंगरेज़ों
द्वारा गढ़े गए बंगाली स्त्रैणता की औपनिवेशिक धारणा से सुर मिलाते हुए उसे और
मजबूती प्रदान कर रहे हैं।
अंगरेज़ मिशनरियों ने यह दुष्चरित किया कि
भारतीयों के पिछड़ेपन का कारण यहाँ के देवताओं(कृष्ण) का कामुक, अश्लील और स्त्रैण होना
है। बंकिम समेत तमाम भारतीयों ने इस दुष्प्रचार की सत्यता पर तार्किक या
प्रश्नवाचक दृष्टि से विचार करने की बजाए उसे सत्य मान लिया। ये उपनिवेशवाद के जाल
में फँस ।
पंकज
मिश्र ने अपने लेख ‘क्राइसिस इन मॉडर्न मस्कुलिनिटी’ में नृतत्त्व-शास्त्रियों और
इतिहासकारों के हवाले से लिखा है कि “पूर्व औद्योगिक समाजों में मस्कुलिनिटी का
ओजस्विता के साथ, स्त्रैणता का निष्क्रिय औरत के साथ तथा शारीरिक गठन का व्यवहार
के साथ कोई स्पष्ट सम्बंध नहीं था। ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को यह बात अजीब लगती थी
कि काली औरत होकर भी उग्र हैं जबकि कृष्ण पुरुष होकर सौम्य और मधुर भाव से बांसुरी
बजा रहे हैं।”20
यूरोपीय
साम्राज्यवाद और औपनिवेशिक आधुनिकता ने पिछले दो सौ वर्षों में जेंडर और
सेक्सुअलिटी की परिधि को बदल दिया है। पुरुष, नस्ल, राष्ट्र, साम्राज्य सबको मैस्कुलिन
गुण और आदर्श से भर दिया गया। जेंडर
बाइनरी को कठोर बनाने के लिए आधुनिक मेडिकल चिकित्सा का भी सहारा लिया गया।
निवेदिता मेनन ने इस परिघटना को अपनी किताब ‘सीइंग लाइक अ फेमिनिस्ट’ में कई उदाहरणों
के माध्यम से समझाया है। Gynecomastia पुरुषों में हार्मोन के असंतुलन की वजह उभरने वाला एक लक्षण है। इसकी वजह
से पुरुषों के सीने पर स्तन उभर आता- “डॉक्टरों का मानना है कि तीस प्रतिशत
पुरुषों को कभी न कभी यह लक्षण उभरता है।”21 सर्जरी के द्वारा इसे ख़त्म
कर दिया जाता है क्योंकि आज पुरुषों में स्त्रैणता के किसी भी लक्षण को असामान्य
और अस्वीकार्य माना जाता है।
“एण्ड्रोजन
‘मेल सेक्स हार्मोन होता’ है। महिलाओं में इसकी उपस्थिति को मेडिकल चिकित्सा
द्वारा मिटा दिया जाता है। एस्ट्रोजन फीमेल सेक्स हार्मोन है। पुरुषों के शरीर में
इसकी उपस्थिति को असामान्य मानकर ट्रीट किया जाता है।”22
जेंडर की आधुनिक अवधारणा यही है कि पुरुष में स्त्रैण तत्त्व या स्त्रैण हार्मोन नहीं होना चाहिए। वैसे ही महिलाओं में पुरुष हार्मोन अस्वीकार्य बना दिया गया है। वर्तमान मानव सभ्यता उग्र मस्कुलिनिटी से आक्रांत है। धर्म, परम्परा, संस्कृति, राष्ट्र सारी इकाईयाँ मस्कुलिनिटी से ग्रस्त हैं। ऐसी स्थिति में भक्ति कविता की स्त्रैणता, उभलिंगता और जेंडर फ्लुइडिटी हमारे समय के लिए अपरिहार्य और प्रासंगिक हो जाती है। अच्छी बात है जेंडर और QUEER थ्योरी में भक्ति के इस पहलू का अध्ययन हो रहा है।
सन्दर्भ :
1.
पुरुषोत्तम अग्रवाल। अकथ कहानी प्रेम की, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज नई दिल्ली, 2013, पृ। 382
2. अली सरदार जाफरी। कबीर बानी, राजकमल पेपरबेक्स दरियागंज नई दिल्ली, 2017, पृ। 118
3. Speakingof ShivaTranslated Withan IntroductionbyA। K। Ramanujan,Penguin Books, New York, 1973,P। 27
4.
वही, पृ। 29
6. कुमकुम संगारी। मीराबाई की
भक्ति की आध्यात्मिक अर्थनीति, वाणी प्रकाशन, दरियागंज नई दिल्ली, 2016, पृ। 88-89
7.
पुरुषोत्तम अग्रवाल। अकथ कहानी प्रेम की, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज नई दिल्ली, 2013, पृ। 384
8. अली सरदार जाफरी। कबीर बानी, राजकमल पेपरबेक्स दरियागंज नई दिल्ली, 2017, पृ। 54
9.
पुरुषोत्तम अग्रवाल। अकथ कहानी प्रेम की, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज नई दिल्ली, 2013, पृ। 367
10. वही, पृ। 368
11. Lal,
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Culcutta, 2003, p। 132
12. वही, पृ। 132
13. Menon, Madhavi। Infinite Variety:
A History of Desire in India। Speaking Tiger, 2018। P। 227
14. वही, पृ। 220
15. वही, पृ। 228
16. वही, पृ। 231-32
17. Nandy, Ashis। The Intimate
Enemy: Loss and Recovery of Self Under Colonialism। Oxford
University Press, 2009। P।
37
18. Sinha, Mrinalini। Colonial
Masculinity: The 'manly Englishman' and The' Effeminate Bengali' in the Late
Nineteenth Century। Manchester University Press, 1995। P। 35
19. पवन कुमार वर्मा। भारतीयता की
और संस्कृति और अस्मिता की अधूरी क्रांति (वैभव सिंह द्वारा अनुवाद), पेंगुइन बुक्स, यू। के। , 2010 पृ। 195, किंडल संस्करण
21. Menon, Nivedita। Seeing Like a
Feminist।
Zubaan in collaboration with Penguin Books, 2012। P। 72
22. वही, पृ। 73
अजय कुमार
यादव
शोधार्थी- भारतीय
भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
ajaykumarjnu100@gmail।
com, 9968816518
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
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