हिंदी साहित्य की गुणवत्ता का आंकलन : तकनीकी विकास के परिप्रेक्ष्य
में
- अभिषेक सिंह
शोध-सार : तकनीक ने हमारे जीवन को
सुविधाजनक बना दिया है।विज्ञान और तकनीक ने हमें इतनी
सुख-सुविधाएँ प्रदान की हैं, जो कुछ समय पहले तक कल्पनीय नहीं
थी। आधुनिक उपकरणों की खोज से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का संचालन तंत्र सरल बना
है। हिंदी की दुनिया भी इससे अछूती नहीं है। आज के वैज्ञानिक युग में
वही भाषा लोकप्रिय है जिसका व्याकरण विज्ञान संगत व लिपि कम्प्यूटर की लिपि है।इस
दृष्टि से,क्या हिन्दी भाषा स्वयं को समृद्ध कर पायी है? तकनीक के सुविधाजनक प्रयोग में विदेशी भाषाएं
जहां पहले से सफल और समृद्ध हैं जिनका प्रयोग इंटरनेट से लेकर हरप्रकार की कंप्यूटर युक्ति द्वारा, चाहे वह लैपटॉप हो या स्मार्ट फोन, सभी में काम
करना और करवाना आसान है तथा इनकी अपनी भाषा में अथाह सामग्री उपलब्ध है वहीं। दूसरी
ओर हिंदी ने कुछ दशक पूर्व ही यूनिकोड के अस्तित्व में आने के बाद तकनीकी के द्वारा
अपनी विस्तार और विकास की यात्रा शुरू की है जो कहाँ तक पहुंची है? इसका मूल्यांकन
आवश्यक है।
हिंदी जो तकनीकी से पूर्व टाइपिंग और कार्यालयी भाषा
तक सीमित थी वह इससे निकलकर वैश्विक दुनिया में विचरण कर रही है। तकनीकी विकास ने भारतीय भाषाओं को एक दूसरे से जोड़ दिया
है। तकनीकी विकास के साथ न केवल हिंदी भाषा वरन् हिंदी साहित्य लेखन में भी
अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिलते हैं, जिसमें ई-पुस्तकें, ब्लॉग लेखन, सोशल
मीडिया, इंटरनेट इत्यादि द्वारा हिंदी का प्रसार हुआ है परंतु इस प्रचार-प्रसार के साथ ही हिन्दी की संरचनागत विशेषताओं तथा शैली
इत्यादि में क्या और कितना परिवर्तन आया हैं? इसकी पड़ताल आवश्यक है। क्या यह
परिवर्तन हिन्दी साहित्य के पारंपरिक आलोचना के ढाँचे का अनुसरण करता हैं? या इस
तकनीकी ने जो नए लेखक और पाठक वर्ग तैयार किये हैं जो अपनी रुचि के अनुसार कुछ भी
लिख और पढ़ सकतें है, क्या वे केवल साहित्य का बाजारीकरण करके इसके मूल्यों का पतन
करते जा रहे है?
इसके साथ ही तकनीकी प्रयोगों से हिंदी साहित्य के प्रसार
माध्यमों में अनेक बदलाव लक्षित हुए परंतु प्राथमिक
रूप से इन सभी माध्यमों का मूल ध्येय अभिव्यक्ति की सीमाओं को खोलकर सृजित साहित्य
को अधिकाधिक पाठकों तक पहुँचाना है, परन्तु बड़ा प्रश्न यह है की क्या आज भी हिंदी
साहित्य उतना ही गुणवत्ता परक है जो इन सभी तकनीकी माध्यमों के विकास से पहले हुआ
करता था? क्या इस सर्जना में गुणवत्ता का समावेश पहले जैसा ही है? इस शोधपत्र का
लक्ष्य कुछ ऐसे ही प्रश्नों पर विचार करते हुए किसी निष्कर्ष पर पहुंचना है।
बीज-शब्द : हिन्दी साहित्य, गुणवत्ता, लिपि, यूनिकोड,
तकनीकी पक्ष, प्रौद्योगिकी, मोबाइल, रेडियो, टेलीविजन, कम्प्यूटर, इंटरनेट,
मूल्यांकन, ई-पत्रिका, ई-बुक, साहित्यिक पारंपरिक मापदंड, आलोचना के मापदंड,
साहित्य का बाजारीकरण, सोशल मीडिया, ब्लॉग्स, पाठकीय चेतना व रुझान, रचना प्रसिद्धि
का आधार, सकारात्मक व नकारात्मक प्रभाव, इत्यादि।
मूल आलेख : साहित्यिक गुणवत्ता पर पड़ने वाले तकनीकी प्रभाव को जानने के
लिए हिंदी साहित्य को परखने वाले कुछ जरूरी पारंपरिक मापदंडों का अवलोकन कर लेना
आवश्यक है l
1.आलोचना,समीक्षा व
समालोचना - 'आलोचना' शब्द
'लुच' धातु
से बना है। 'लुच' का
अर्थ है 'देखना'। आलोचना का
कार्य किसी कृति को भली-भाँति परख कर उसकी सम्यक व्याख्या अथवा गुण-दोषों का
निष्पक्ष भाव से विवेचन
करना है। “आलोचना मूलतः दर्शन है, उसका काम देखना है। उसका अर्थ भी समग्रता में
देखना है। रचना की आलोचना रचना का समग्र साक्षात्कार है, उसका अंतरबाह्य परिदर्शन
है।”[1] सामान्यतः
समीक्षा एवं समालोचना को आलोचना के अर्थों में ही लिया जाता है परन्तु कुछ विद्वान
इन तीनों में भेद मानते हैं। आलोचना को
केवल नकारात्मक पक्षों के सन्दर्भ में रख कर समालोचना को सम्यक दृष्टि परक
सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों पक्षों को देखने वाला सिद्ध किया जाता है। समीक्षा का शाब्दिक अर्थ है-
‘सम्यक परीक्षा’ या ‘संतुलित परीक्षा’। इसी प्रकार समीक्षा
को आलोचना विधा की ही एक शाखा माना जाता है। इनके
अनुसार जब समीक्षा अतिव्यापक वस्तुपरक व विश्लेषणात्मक हो जाए तो वह आलोचना
बन जाती है।
अतः इस
परिप्रेक्ष में देखेँ तो ब्लॉग्स, वेबसाइट्स, सोशल साइट्स,
इंटरनेट आदि पर उपलब्ध साहित्यिक सामग्री पारंपरिक मापदंड से भिन्न है। जिसमें
संरचनागत और शैलीगत दोनों रूपों में विषमता है। जो विचारधाराओं से मुक्त, सीमा रहित,
स्वतंत्र भाषा और भाषा शैली, अभिव्यक्ति और संवेदनाका खुलापन लिए हुए है जिसे
व्यवस्थित करने के लिए साहित्यिक आलोचक, समीक्षक तथा भाषाविद् की आवश्यकता है।
इस प्रकार से, वर्तमान पीढ़ी में आलोचना कर्म की स्थिति संतोषजनक नहीं है जिसे प्रमुख
हिंदी पत्रिका ‘परिकथा’ के सम्पादक शंकर जी लक्षित करते हुए कहतें है की “हर पीढ़ी
अपना आलोचक ले कर आती है। यह बात कभी कभी कहीं ओर सुनी गयी हैl लेकिन अगर पूरे परिदृश्य पर नजर डाली जाये
तो यह बात सिर्फ नयी कहानी और नयी कविता के दौर के लिए ही सच ठहरती दिखती है। बाद
की पीढ़ियों के लिए कोई नियमित या व्यवस्थित आलोचना कर्म दिखाई नहीं पड़ता है।”[2]
2. पाठकीय चेतना व साहित्य
की उपयोगिता - साहित्य पाठक की चेतना को
प्रभावित करता है और यह चेतना समाज को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ‘पाठकीय संवेदना’, ‘युग चेतना’ के साथ गहराई से जुड़ी हुई है। हडसन के अनुसार “साहित्य युग युगान्तरों से
किसी भी समाज के मन और चरित्र के क्रमिक विकास का चित्र है।”[3] समय के सापेक्ष विशेष साहित्य की माँग भी पाठक द्वारा की जाती है। लेखक युग चेतना को
पाठकीय चेतना से सम्बंधित करता है इसलिए कभी-कभी लेखक पाठक की माँग, अभिरुचि या
संवेदना के आधार पर ही साहित्य की रचना करता है। लेकिन साहित्य का मूल्य पाठकीय
चेतना को सकारात्मक दिशा देने पर निर्भर करता है। साहित्य संस्कृत के ’सहित’
शब्द से बना है। संस्कृत के
विद्वानों के अनुसार साहित्य का अर्थ है- “हितेन सह सहितं तस्य भावः” अर्थात कल्याणकारी भाव। साहित्य का सबसे पहला और सर्वाधिक महत्वपूर्ण
उद्देश्य लोक-कल्याण है। साहित्य जनमानस के मार्गदर्शक की
भूमिका अदा करता है। साहित्य की प्रासंगिकता का प्रश्न केवल साहित्य और समाज के
आपसी संबंध तक सीमित नहीं है। इसकी आधारशीला साहित्य
की सामाजिक उपयोगिता है।
पारंपरिक
मापदंडों को प्रभावित करते तकनीकी पक्ष - वाचिक संवाद की परंपरा
को प्रिंटिंग माध्यम के विकास ने बदल दिया। रेडियो के विकास ने लिखित और मुद्रित
माध्यम से अलग अपनी जगह बनाई। फिर टेलीविजन ने पुराने माध्यमों पर अपना प्रभाव कायम
किया और आज इन्टरनेट के विशाल प्रयोग ने विभिन्न युक्तिओं द्वारा हिंदी साहित्य
के संचार को बुनियादी ढंग से बदल दिया है। यह कह सकते हैं कि हिंदी
को अब तकनीक के पंख लग चुके हैं, जो अब टाइपिंग और कार्यालयी भाषा की दुनिया से
निकलकर वैश्विक दुनिया में विचरण कर रही है।[4] नए संप्रेषण माध्यमों की प्रसार क्षमता
पुराने माध्यमों से ज्यादा आकर्षक, निजी
और शक्तिशाली दिखाई पड़ती है। पुराने माध्यम एक ही दिशा में संचारित होते थे परंतु
नये माध्यम अंत:क्रियात्मक है, इनके द्वारा आपसी संवाद संभव
है। वर्तमान में तकनीकी क्रांति ने साहित्य को डेस्कटॉप, कंप्यूटर व लैपटॉप से
निकाल कर मोबाइल फोन पर ला दिया है। आधुनिक समय में गुणवत्ता आंकलन के पारंपरिक
मापदंडों पर तकनीकी पक्षों के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है। इसके अंतर्गत
निम्न बिदुओं को रखा जा सकता है-
1. बाजारीकरण, प्रसिद्धि व प्रसार– पूँजीवादी संस्कृति ने हिंदी साहित्य को अत्यधिक प्रभावित किया
है। व्यवसायिक होती जा रही कार्यप्रणाली में साहित्य को भी माल की तरह बेचा जा रहा
है, जिसे ‘साहित्य के बाजारीकरण’ की संज्ञा दी जा सकती है। आज साहित्य को जन-जन तक पहुंचाने के लिए मीडिया
का सहारा लेना अनिवार्य आवश्यकता प्रतीत होती है। आजकल कुछ ऐसी वेबसाइट्स व
एप्लीकेशन आ गयी हैं जिन पर लेखक स्वयं अपनी रचना की प्रमोशन और ब्रांडिंग करते
नजर आते हैं। जिसका सीधा अर्थ यह है की अगर
लेखक तकनीकी ज्ञान से युक्त है तो वो अपने लेखन को अधिक से अधिक पाठकों तक प्रेषित
कर सकता है। किसी पुस्तक का जितना अधिक
तकनीकी प्रसार होगावह पुस्तक पाठकों के मध्य उतना ही अधिकध्यान आकर्षित करने में
सक्षम होगी, परिणामस्वरूप
रचना की लोकप्रियता व गुणवत्ता सिद्ध करने का एक आभासी वातावरण तैयार होता है।
सोशल मीडिया पर रचना प्रमोशन के अनेक उदाहरण हमारे सामने आ रहे
हैं। लेखक सत्य व्यास ने अपनी पुस्तक 'दिल्ली दरबार' के प्रचार से हिंदी
किताबों के प्रमोशन के नये तरीकों की शुरुआत की थी।[5] किताब के प्रचार में सत्य व्यास ने इलस्ट्रेशन की एक सीरीज जारी
की जिसमें उपन्यास के मुख्य और अन्य पात्र अपने संवाद बोलते नजर आते हैं। इस इलस्ट्रेशन वीडियो
के यूट्यूब पर अपलोड होने के एक हफ्ते के भीतर करीब बीस हजार लोगों ने इसे देखा। आज
के समय में एक हिंदी किताब के लिए यह एक महत्वपूर्ण आँकड़ा है। इस प्रचार के
कारण किताब के मुख्य पात्र किताब के प्रकाशन से पूर्व लोगों में परिचित हो गए।लोगों ने मनोरंजन स्वरुप इन्हें अपनी वाल पर
शेयर किया।फिल्मों और अंग्रेजी किताबों में इस तरह
का प्रमोशन पहले से ही किया जाता रहा है लेकिन हिंदी साहित्य मे यह अधिक पुराना
नहीं है। लेखक दिव्य प्रकाश दुबे ने सन 2012 में अपनी पहली हिंदी पुस्तक' टर्म एंड कंडीशन अप्लाई' का प्रमोशन वीडियो जारी
किया था।[6] हिंदी
साहित्य के प्रचार का यह पहला वीडियो था। इसके बाद इन्होने एक अन्य पुस्तक ‘मुसाफिर कैफे’ का एक वीडियो जारी किया जो काफी लोकप्रिय तथा चर्चा में था। प्रमोशन
वीडियोज के जरिये पाठकों की किताब के प्रति जिज्ञासा में वृद्धि होना आम बात
है जिसके बाद इसकी बिक्री मे भी वृद्धि निश्चित है। सन 2014
में सोशल मीडिया पर व्यंग्यकार एवं पत्रकार
नीरज बधवार की किताब 'हम सब फेक हैं' प्रकाशित हुई। युवा साहित्यकार
यतीन्द्र मिश्र ने अपनी किताब 'लता-सुरगाथा' का प्रमोशन
भी इसी प्रकार किया था। इस तरह प्रोमोशनकी
श्रेणी मे सत्य व्यास की पहली किताब 'बनारस टॉकीज' जनवरी2015 में आई थी जो उस समय की सबसे ज्यादा
बिकने वाली किताबों में से एक है।[7] कहानीकार अनु
सिंह चौधरी के कहानी संग्रह ‘नीला स्कार्फ’ की ऑनलाइन प्री-बुकिंग की गयी।
यह हिंदी की पहली किताब थी जिसकी छपने से पहले ही करीब 2000 कापियाँ बिक गयी थी।[8] अब
प्रश्न यह है की यह लोकप्रिय साहित्य सर्वथा उल्लेखनीय साहित्य है या नहीं।
लोकप्रियता साहित्यिक गुणवत्ता के पैमाने पर कहाँ तक खरी उतरती है? टेलीविज़न पर
प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों पर भी साहित्य के बाजारीकरण का प्रभाव परिलक्षित
होता है। जगदीश्वर चतुर्वेदी के
अनुसार-“भारतीय समाज में टेलीविज़न का विस्तार अनेक समस्याएँ और चुनौतीयाँ लेकर आया
है। इसकी स्पष्ट समझ और परिप्रेक्ष्य के बिना इस माध्यम के प्रभाव, संस्कृति, कला और
समाज के साथ बन रहे रिश्ते को हम सुसंगत और समग्र रूप से नहीं समझ सकते। हिंदी भाषा विद्वानों में इस माध्यम के
प्रति अज्ञानता, हिकारत और मोह एक ही साथ देखने को मिलता है।”[9]
कुछ समय पहले तक किसी साहित्यिक कृति पर बनने वाले धारावाहिकों में उसके
भावों एवं गहराई को अभिनय के माध्यम से वैसा ही रूप देने का प्रयास किया जाता था।ऐसे लोग जिनकी भाषा की समस्या या किताबों की अनुपलब्धता या किसी अन्य कारण से
साहित्य तक पहुंच नहीं हो पाती, उन तक
साहित्य को पहुंचाने का काम धारावाहिकों ने किया है। लेकिन समय के साथ इनका रूप भी
विकृत हो गया है। साहित्य को परदे पर मिर्च मसालेदार
बना कर प्रस्तुत किया जाता है, ताकि अधिक से अधिक दर्शक बटोरे जा सकें। साहित्यिक
कृतियों पर बने ऐतिहासिक धारावाहिकों में तो यह एक प्रचलन सा बन गया है। इन
धारावाहिकों में ऐतिहासिक तथ्यों से इतर इतनी अधिक मात्रा में काल्पनिक सामग्री
डाली जाती है की इनका स्वरुप ही बदल जाता है। झाँसी की रानी, जोधा अकबर, चाणक्य, पेशवा बाजीराव और
चन्द्रगुप्त मौर्य इसके प्रमाण हैं। फिल्मों की भी यही स्थिति बनी हुई
है। हिंदी में फिल्मों को महज एक
मनोरंजन का साधन मान लेने की जो अवधारणा बनी हुई है, वह गंभीर साहित्यिक कृतियों
के फिल्मांकन में बाधा बनती है। फिल्मों को एक व्यवसाय मान कर, उसमें
सैकडों रूपये लगा कर, उसी अनुपात में मुनाफा कमाने की जो व्यावसायिक बाध्यताएँ
हैं, और उनके चलते जो तमाम तरह के जो अनुचित समझौते होते हैं, वे उन्हें साहित्यिक
कृतियों के फिल्मांकन के लिए प्रेरित ही नहीं का पाते हैं।[10] केवल
सर्जनशीलता सिनेमा या धारावाहिकों के लिए पर्याप्त नहीं है, इनके लिए पूँजी भी
आवश्यक है। इसलिए निर्देशक अपनी सुविधा
अनुसार साहित्यिक कृति को तोड़ मरोड़ कर पेश करता है। कुछ
साहित्यकारों द्वारा इस परिवर्तन का विरोध भी किया गया।
इन साहित्यकारों में एक प्रमुख नाम ‘प्रेमचंद’ का भी है। जवरीमल्ल
पारख के अनुसार-“प्रेमचंद के रहते सेवासदन पर बनी फिल्म को ले कर प्रेमचंद
असंतुष्ट रहेl 'निर्मला’ और ‘कर्मभूमि’ पर बने धारावाहिकों ने प्रेमचंद की इन रचनाओं के
साथ जो मजाक किया वह शर्मनाक ही कहा जायेगा।“[11]
2. पाठकों का रुझान –युग परिवर्तन पाठकों के बौद्धिक स्तर, इच्छा व संवेदनाओं को प्रभावित करता है। समय के साथ पाठकों की साहित्यिक अभिरुचि, सोचने-समझने का नजरिया, वैचारिक दृष्टिकोण और रहन-सहन अलग होना स्वाभाविक है। तकनीक ने भी इस अलगाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज से कुछ दशक पहले तक भारत में प्रत्येक आयु वर्ग का व्यक्ति मनोरंजन स्वरुप कॉमिक्स पढना पसंद करता था लेकिन अब ये किताबें किसी दुकान में धूल खाती मिलेंगी। कुछ समय पहले तक खाली समय व्यतीत करने के लिए बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन पर लगे स्टाल से व्यक्ति पुस्तक खरीद कर पढता दिखाई देता था, लेकिन अब यह पुराने दिन की बातें हो गयी हैं। तकनीकी यंत्रों के अभाव में वह अपना मनोरंजन साहित्यिक पुस्तकों के माध्यम से कर सकता था जिससे उसकी साहित्यिक समझ व रूचि का दिन प्रतिदिन परिष्कार होता था। पर जैसे-जैसे सूचना क्रांति का विकास हुआ प्रत्येक आय वर्ग के व्यक्ति की पहुँच टेलीविजन, मोबाइल, कंप्यूटर और इन्टरनेट तक चली गयी। एक शोध समूह की सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार-“ई-बुक मार्किट की माँग दिन-प्रतिदिन बढती जा रही है। आज उसके खरीददारों की संख्या लगभग सत्रह प्रतिशत तक पहुँच गयी है l इस तरह ई-बुक्स डाउनलोड करने वालों की संख्या आने वाले समय में 16 मिलियन तक पहुँच सकती है।“[12] मनोरंजन के साधन असीमित हो गए हैं। पुस्तकों का स्थान धीरे-धीरे इन्टरनेट ने ले लिया है। सबसे पहले सोशल मीडिया खाली समय को भरने का आसान माध्यम बना और इसी कारण उपजे आत्म केंद्रिता के भाव ने पाठक के नैतिक व सामजिक मूल्यों में बदलाव लाने का अहम कार्य किया। तकनीकी दुनिया से उपजी चकाचौंध युवाओं को आकर्षित करती गयी और पारंपरिक संस्कारों एवं नैतिक बंधनों से मुक्त करती गयी। यही वजह है की युवाओं को साहित्य भी वही पसंद आ रहा है जो उनकी जीवन शैली से मिलता जुलता हो। वैसे तो आज का अधिकांश युवा साहित्यिक किताबें पढ़ने को एक व्यर्थ कार्य समझता हैं। ऐसे में मूल्यवान साहित्य कौन सा है या कौन सा नहीं, कौन सा साहित्य हमें विचार करने को मजबूर करता है कौन सा नहीं इसकी फिक्र ही किसे है। लेखक के समक्ष भी जीवन शैली के अनुसार साहित्य के बदलाव की माँग खडी हो गयी हैl इसका नतीजा साहित्य के बाजारीकरण और प्रचार प्रसार के रूप में हमारे सामने है। अपने लेखन को पाठक के समक्ष लाना लेखक की सबसे पहली चुनौती है। इसके लिए लेखक तकनीकी प्रसार का सहारा लेने लगा है। तकनीकी प्रसार की अंधी दौड़ में अपने साहित्य को पाठक की रूचि के अनुकूल बनाना लेखक की दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है। क्योकि अब पाठक गुणवत्ता निर्धारण की पारंपरिक कसौटियों पर साहित्य को परख कर साहित्य पढ़ने का आदि नहीं रहा,अब ‘जो दिखता है वही बिकता है’ की धारणा साहित्य का मूल्य निर्धारण कर रही है।शोधार्थी द्वारा किये गए एक सर्वे मेंभी 51.1% पाठकों ने यह स्वीकार किया की ऑनलाइन साहित्य की भरमार हिंदी साहित्य की गुणवत्ता में कमी का कारण प्रतीत होती है।[13] पहले साहित्य समाज की चेतना को विकसित अधिक करता था लेकिन अब चेतना के अनूरूप साहित्य में परिवर्तन की आवश्यकता ने जन्म ले लिया है। पाठक साहित्य खरीद कर पढ़ने को विवश नहीं है,उसके पास अपनी रूचि अनुसार ‘सामग्री’ देखने व पढने के असंख्य अवसर विद्यमान हैं।
3. आलोचना
का बदलतास्वरुप- निर्मल वर्मा ने कला की
चौथी प्रासंगिकता का जिक्र करते हुए कहा है-“वह हर युग में बने बनाये सत्यों और
उत्तरों के पैटर्न को बिगाड़ देती है, भंग कर देती है, हर विश्वास को शंकालु बना
देती है।”[14] तात्कालिकता के परिणामस्वरूप साहित्य रचना अब पारंपरिक ढाँचे
से मुक्त हो चुकी है। भूमंडलीकरण के प्रभाव
साहित्य पर भी साफ़ झलकते हैं। आलोचना को भी
इस बदलाव के साथ कदम से कदम मिला कर चलना पडता है।
आलोचना के सैद्धांतिक मापदंडों की बात पुरानी हो चुकी है। अब आलोचक का ध्यान केवल रचनाशीलता पर है। भाषा और विचारधारा के परिप्रेक्ष्य से साहित्य में अभूतपूर्व बदलाव
देखे जा सकते हैं और इस नवीन परिदृश्य में तकनीक का बहुत बड़ा हाथ है। तकनीक के बढ़ते कदमों ने हिंदी को शास्त्रीयता
और परिष्कृत भाषा के आवरण से हटा कर सम्प्रेषणीय व्यवहारिक रूप में दुनिया के
समक्ष ला खड़ा किया है।
आलोचक भी इसी रूप में कृति का मूल्यांकन करने को विवश है। कृति का भाषाई चिंतन भी रचना विमर्श के केंद्र
में है। भाषाई बंधनों से मुक्ति ने एक ओर
तो स्त्री, आदिवासी, दलित, किसान आदि सभी की अनछुई
और महत्वपूर्ण शब्दावली को प्रश्रय दिया ताकि अभिव्यक्ति को आजादी मिल सके लेकिन
दूसरी ओर सोशल मीडिया पर बिखरे साहित्य ने भाषाई प्रतिमानों में अस्थिरता लाने का
कार्य किया। इन्टरनेट पर प्रकाशित होने
वाली रचना किसी भी आलोचनात्मक स्तर से गुजरने के बाद प्रकाशित नहीं होती है। इसलिए आलोचना का पहले जैसा उद्देश्यपूर्ण और
सैद्धांतिक स्वरुप दिखाई नहीं देता।नयी सदी
की आलोचना विचारधाराओं को भी नकारती चलती है। अब
से पहले की आलोचनाओं में रचना की उद्देश्यता से प्रेरित हो कर सिद्धांत निर्मित
होते थे और सिद्धांतों से कृति की परख संभव हो पाती थी, आलोचक भी निश्चित
विचारधाराओं से प्रेरित हो कर आलोचना कर्म करते थे।अब
तो विचारधारा शब्द ही सीमित ज्ञान का प्रतीक समझा जाने लगा है। समकालीन आलोचना में विचारों का स्थान सूचना ने
ले लिया है। हाल ही के कुछ वर्षों में एक
हवा बन रही है की जीवन में कई नये सच आ गए हैं, जीवन की प्राथमिकतायें बदल गयी
हैं, जीवन के प्रश्न बदल गए हैं, चरित्रों के स्वरुप बदल गए हैं, रचना कर्म के
तकाजे बदल गए हैं, इसलिए आलोचना के अब तक के प्रतिमान और औजार पुराने पड़ गए हैं और
जरूरत इसकी है की आलोचना के नये प्रतिमान और औजार हों।[15] समस्त पारिवेशिक
परिस्थितियों को ध्यान में रख कर रचना की सम्पूर्णता को परखने का कार्य अब दिखलाई
नहीं पड़ता। केवल सतही ‘पुस्तक समीक्षा’ ही
आलोचना का पर्याय बन कर रह गयी है। सत्य तो
यह भी है की पुराने प्रतिमानों से नयी रचना का मूल्यांकन कार्य पूर्णतः संभव नहीं
है, परन्तु नये प्रतिमानों का निर्धारण भी अपेक्षित है। पारंपरिक मूल्यों की सुरक्षा के साथ-साथ नये प्रतिमानों को विकसित
कर सकें ऐसे गंभीर और स्तरीय आलोचकों का न होना चिंता का विषय है।
निष्कर्ष : कहते
हैं की तकनीक का इस्तेमाल प्रयोगकर्ता पर निर्भर करता है, सही और सकारात्मक रूप से
प्रयोग की गयी कोई भी तकनीक लाभदायी ही सिद्ध होती है। इस बात में
कोई संशय नहीं है की तकनीक ने हिंदी साहित्य एवं भाषा का अत्यधिक विस्तार किया
है,साहित्य के विविध रूपों तक पाठकों की पहुँच को सुलभ बनाया है और हिंदी ही नहीं
बल्कि दुनिया के तमाम साहित्य एवं साहित्यकारों से हमारा संपर्क स्थापित करने में
अहम योगदान दिया है।
पूँजीवादी संस्कृति के
प्रभाव के कारण तथा तकनीक
के साथ उपजे ई-बुक मार्किट की माँग, बाजारीकरण
और वैश्वीकरण के जाल ने साहित्यकार को भी अपने साथ जकड लिया है
जिस से बाजार का मोह उनकी रचनाओं में भी परिलक्षित होता है।रचना और रचनाकार की
प्रसिद्धि और प्रसार सोशल मीडिया पर प्रमोशन, यूट्यूब
पर अपलोड इत्यादि के रिव्यू, रेटिंग, लाइक, शेयर आदि से तय किया जा रहा है, जिससे उपजी
चकाचौंध युवाओं को आकर्षित करती है और पारंपरिक संस्कारों एवं नैतिक बंधनों से
मुक्त करती है। जिससे अब पाठक गुणवत्ता निर्धारण की पारंपरिक कसौटियों पर साहित्य
को परख कर साहित्य पढ़ने का आदि नहीं रहा, अब ‘जो दिखता है वही बिकता
है’ की
धारणा चल पड़ी है। अतः अब साहित्य को पाठक की रूचि के अनुकूल बनाना लेखक की मजबूरी
बनती जा रही है।
तकनीक का प्रभाव साहित्य पर
भी साफ़ दिखाई दे रहा है, साहित्यिक रचना अब पारंपरिक ढाँचे से मुक्त हो चुकी है। इससे एक लाभ जरूर हुआ है की हिंदी को शास्त्रीयता
और परिष्कृत भाषा के आवरण से हटा कर सम्प्रेषणीय व्यवहारिक रूप में दुनिया के
समक्ष ला खड़ा किया है। वहीं दूसरी तरफसमकालीन
आलोचनामें विचारों का स्थान भले ही सूचना ने ले लिया हो परंतु इन सभी तकनीकी
पक्षों को देखते हुए कहना उचित होगा की आलोचना के पुराने प्रतिमानों से नयी रचना का
मूल्यांकन कार्य पूर्णतः संभव नहीं है, अतः नये प्रतिमानों का निर्धारण अपेक्षित है।
हालांकि
यह कहना जल्दबाजी होगी की सम्पूर्ण साहित्यिक संसार में इन सभीतथ्यों की व्याप्ति हो गयी है परन्तु इससे अभी तक
साहित्यिक गुणवत्ता एवं मूल्योंमें जो गिरावट हुई है उसके प्रति सचेत होना हमारी
जिम्मेदारी हैताकि भविष्य में होने वाले दुष्परिणामों से बचा जा सके।
ध्यातव्य हो की माध्यम चाहे जो हो साहित्य की गुणवत्ता बरकरार रखना ही
प्रत्येक साहित्य प्रेमी का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए साथ ही तकनीक के
इस आभासी संसार में हिंदी साहित्य को निरंतर स्वयं को निखारते रहना होगा।
क्योंकि आभासी संसार में हिंदी की उपस्थिति हिंदी भाषी समूहों की जरूरतों, आकांक्षा और अभिव्यक्ति का
परिणाम है।
सन्दर्भ सूची :
[1] धनंजयवर्मा, आलोचना
का अन्तरंग,आलेख प्रकाशन,शहादरादिल्ली,2008,प्रथम संस्करण 2005,पृष्ठ संख्या 213
[2] शंकर, सड़क पर मोमबत्तियाँ (परिकथा
सम्पादकीय टिप्पणियाँ),अनुज्ञा बुक्स,नयी दिल्ली,प्रथमसंस्करण 2020, पृष्ठ संख्या
27
[3] करुणाशर्मा,लक्ष्मी
नारायण लाल का नाट्य-साहित्य: सामजिक दृष्टि,वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली,2002,पृष्ठ
संख्या 32
[4] संजय
सिंहबघेल, हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास, वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली, प्रथम
संस्करण 2020, पृष्ठ संख्या117
[5] अंजली मिश्रा, हिंदी के नये लेखक सिर्फ
लिखना ही नहीं लिखकर बेचना भी जानते हैं, (27 दिसम्बर2016),https://satyagrah.scroll.in/article/103631/new-writers-in-Hindi-not-only-knows-writing-but-selling-it-too
[6] https://en.wikipedia.org/wiki/Divya_Prakash_Dubey
[7] https://en.wikipedia.org/wiki/Satya_Vyas
[8] https://www.shethepeople.tv/film-theatre/anu-singh-choudhary-alma-matters-inside-the-iit-dream-netflix-aarya-writer/
[9] जगदीश्वरचतुर्वेदी,
जनमाध्यम प्रौद्योगिकी और विचारधारा,अनामिका पब्लिशर्सनयी दिल्ली,2000,पृष्ठ
संख्या 150
[10] नरेन्द्रनागदेव, विमर्श: साहित्य और
सिनेमा के अंतर्संबंध,(13 जनवरी 2019)
https://www.jansatta.com/sunday-magazine/discussions-article-about-interpretation-ofliterature-and-cinema/878993/
[11] जवरीमल्लपारख,
लोकप्रियसिनेमा और सामाजिक यथार्थ,अनामिका पब्लिशर्स,नयी दिल्ली,2001,पृष्ठ संख्या 207
[12] शेर सिंहबिष्ट, समीक्षा की कसौटी पर,वाणी
प्रकाशन,नयी दिल्ली,2018, पृष्ठ संख्या 203
[13] गूगल फॉर्म के प्रश्नावली सर्वे के आँकड़े
और चार्ट ।
[14] मैनेजर पाण्डेय, आलोचना
की सामाजिकता,वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली,प्रथम संस्करण 2005,दूसरा संस्करण 2008,
पृष्ठ संख्या 290
[15] शंकर, सड़क पर मोमबत्तियाँ
(परिकथा सम्पादकीय टिप्पणियाँ),अनुज्ञा बुक्स,नयी दिल्ली,प्रथम संस्करण 2020,
पृष्ठ संख्या 26
अन्य:
[16] सुशील कुमार भारद्वाज,खरीद बिक्री के
आंकड़े साहित्य का मूल्य तय नहीं करते,(2017,फ़रवरी 15),https://www.jankipul.com/2017/02/9028.html
[17] राम प्रकाशद्विवेदी, इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया और सिनेमा,प्रासंगिक पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रथम
संस्करण, 2012
अभिषेक सिंह
शोधार्थी दिल्ली विश्वविद्यालय एवं अतिथि शिक्षक-स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
singh.abhishekit1994@gmail.com, 9718214161
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
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