शोध आलेख : अखरा : दस्तावेजी फिल्मों के ज़रिए आदिवासी आंदोलनों को व्यक्त करते बीजू टोप्पो और मेघनाथ / प्रीति

अखरा : दस्तावेजी फिल्मों के ज़रिए आदिवासी आंदोलनों को व्यक्त करते बीजू टोप्पो और मेघनाथ
- प्रीति

शोध-सार : संघर्ष और उन तमाम आन्दोलनों को शब्दबद्ध और दृश्यबद्ध करने का काम कलम और कैमरा ने बखूबी निभाया है और आज आदिवासी समाज अपनी अस्मिता के लिए लड़ने और अपने संघर्षरत आंदोलन को दुनिया के समक्ष पेश करने के लिए किसी और का मोहताज नहीं है, आज उसी आदिवासियत संघर्ष की देन है कि महादेव टोप्पो, बीजू टोप्पो, मेघनाथ, रंजीत उरांव, संजय काक, श्रीप्रकाश और निरंजन कुजूर जैसे प्रतिबद्ध निर्देशक जिन्होंने दर्शक की सहूलियत के हिसाब से न केवल क्षेत्रीय भाषाओं में फिल्मों और दस्तावेजी फिल्मों का निर्माण किया बल्कि उन्होंने मुख्य धारा की भाषाओं हिंदी और अंग्रेजी में भी निर्देशन किया है। लेकिन यहां यह भी कहना होगा कि इन लोगों ने निर्देशक की भूमिका से आगे जाकर न केवल प्रतिरोध के स्वर को एकीकरण के सूत्र में बाँधा बल्कि जनता की पहुँच से दूर सिनेमा की अहमियत और उसकी ताकत को देखते हुए खुद अलग-अलग ग्रामीणों और शहरों में जाकर उन फिल्मों का प्रदर्शन और उन्हें समझाया भी। यही भूमिका निभाई है 'अखरा' फ़िल्म प्रोडक्शन समूह के माध्यम से बीजू टोप्पो और मेघनाथ ने।
 
बीज शब्द : हिंदी सिनेमा, विमर्श, आदिवासी, समानांतर सिनेमा, प्रतिरोध, अखरा, दस्तावेजी सिनेमा, हाशियाकृत समाज, ऑपरेशन ग्रीनहंट, कोल माफिया, मनरेगा योजना, पूंजीवाद, नक्सल इत्यादि।
 
मूल आलेख :
For greed, all nature is too little”1(Seneca)
ये शब्द चौथी ईसा पूर्व के दार्शनिक सेनेका(Lucius Annaeus Seneca) के हैं जो आज अधिक प्रासंगिक जान पड़ते हैं, जो ये दर्शाते हैं कि संचयन और लालच की प्रवृत्ति ने मनुष्य को प्राकृतिक संसाधनों और मनुष्य का ही दुश्मन बना दिया है। जहाँ एक ओर उसने नयी चीज़ों का निर्माण किया है तो दूसरी ओर उतना ही विनाश भी। आज हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जब मनुष्य वस्तु के समान विश्व बाजार में उत्पादक और उपभोक्ता जैसे खाँचो में बंट चुका है, आज वस्तु से लेकर मनुष्य तक, महज़ एक ब्रेंड के रूप में तब्दील कर दिया गया है। पारिभाषिक शब्दावली में हम इसे पूँजीवाद कहते हैं, जहाँ सत्ता पर आसीन कुछ मुट्ठी भर लोग बहुल आबादी पर लोभ और आनंद के चलते लगभग 90 प्रतिशत से अधिक संसाधनों को हथियाये हुए हैं।
 
    भारत विभिन्नता का देश है जो इसकी विशेषता भी है, तो कुछ नेताओं और कट्टरपंथियों के लिए समस्या भी। कुछ प्रतिशत लोग जो पूरी व्यवस्था को अपनी ताकत के बूते नचाते फिरते हैं, जिन्होंने अपनी उस सत्ता को बचाने के लिए न जाने कितनी ही दीवारें खड़ी की हुई हैं। लिंग, जाति, धर्म, राष्ट्रीयता और न जाने कितनी ही कि शोषित वर्ग आपस में विभाजित रहे, एक न हो पाए और जो गरीबी की दीवार खड़ी कर दी गई है उसे तोड़ न सकें।
 
    उत्तर आधुनिकता के इस  दौर में यदि शोषण के विभिन्न तरीके ईजाद हुए हैं तो उसके प्रति विरोध और विद्रोह को अभिव्यक्त करने का जज्बा भी कुछ कम नहीं बढ़ा है। उनमें साहित्य और सिनेमा ने आज बखूबी अपनी भूमिका अदा की है। साहित्य में जहां विभिन्न विमर्शों के माध्यम से हाशियाकृत इकाइयों के विद्रोह और संघर्ष को चित्रित किया गया तो वहीं सिनेमा भी अपनी भूमिका से पीछे नहीं रहा, उसने साहित्य और समाज के शब्दों को  दृश्यांकित करने का कार्य किया। मुख्य रूप से समानांतर सिनेमा से उपजा प्रतिरोध का सिनेमा जिसे आंदोलनरत सिनेमा भी कहा जा सकता है। इसे ही वृत्तचित्र या दस्तावेजी(डॉक्यूमेंट्री) फ़िल्म कहा गया। वृत्तचित्र या दस्तावेजी सिनेमा यथार्थपरक सिनेमा है जिसे सिनेमा में प्रतिरोध या आंदोलन के रूप में देखा जा सकता है, जिसके माध्यम से किसी घटना, समस्या या आंदोलन को उसके पीछे के कारणों और परिणाम को प्रस्तुत किया जाता है। इस सिनेमाई प्रतिरोध की शुरूआत 1975 में आनंद पटवर्धन अपनी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ‘क्रांति की तरंगेंसे करते हैं जिसमें आपातकाल से उपजे जेपी आंदोलन का दस्तावेजीकरण किया गया। जिसने युवा वर्ग को राजनैतिक आन्दोलनों की ओर प्रेरित किया। प्रमोद मीणा अपने एक लेख में कहते हैं कि- “दस्तावेज़ी सिनेमा या डॉक्यूमेंट्री संज्ञा में ही तथ्यात्मकता और प्रमाणिकता का अर्थ ध्वनित होता है। दस्तावेज़ी फिल्मों के पिता कहे जाने वाले जॉन ग्रियर्सन ने भी दस्तावेज़ी सिनेमा को यथार्थ की सर्जनात्मक प्रस्तुति कहा था।“2  इस तरह वृत्तचित्र फिल्मों ने मुख्य सिनेमा के व्यवसायिक और मनोरंजन से परे जाकर समाज के यथार्थ को हूबहू प्रस्तुत किया।
 
    अखराफ़िल्म प्रोडक्शन 1990 में बीजू टोप्पो, मेघनाथ और महादेव टोप्पो द्वारा शुरू किया गया एक समूह हैइसने समानांतर सिनेमा द्वारा शुरू किये बीज विद्रोह को न केवल अंकुरित किया बल्कि शोषण के विरुद्ध एकजुटता और प्रतिरोध की एक नई धारा उत्पन्न की। बीजू टोप्पो और मेघनाथ ने इस समूह के माध्यम से आदिवासी समुदाय के शोषकों के विरुद्ध आन्दोलनों और समस्याओं  (विशेष रूप से झारखंड के आदिवासियों) पर न केवल फिल्मों का निर्माण किया बल्कि उन्हें गांव-शहरों में जाकर प्रदर्शित भी किया ताकि एक गांव की समस्याओं और संघर्ष को देख दूसरे गांव के आदिवासी शोषण के प्रति जागरूक और एकजुट हों सकें। उन्होंने कई दस्तावेजी फिल्मों, गीतों का निर्माण किया जिनमें आदिवासी अस्मिता, क्षेत्रीय भाषाओं को बचाने का संघर्ष अपनी परम्पराओं, सरकार और कॉरपोरेट दलालों की अवैध खनन माफियाओं द्वारा उनका शोषण, आदिवासियों का उनके खिलाफ आंदोलन आदि इन फिल्मों में दिखाई देता है। उनकी फिल्में आंदोलनों और प्रतिरोध को दिखा विद्रोह के लिए एकजुट कर, आदिवासियों को अपने साथ हो रहे शोषण के प्रति जागरूक करती नज़र आती हैं। मनोज कुमार सिंह का कहना है कि- “आदिवासी समाज और उनके सवालों को देखने की राह बीजू टोप्पो, शंकर दास, मेघनाथ, संजय काक और अखरा के दस्तावेजी सिनेमा से होकर गुजरती है।“3 समानांतर सिनेमा और उसके बाद का यथार्थवादी एवं प्रतिरोधी सिनेमा ने जातिगत भेदभाव और हिंसा, महिलाओं के साथ होने वाले शारीरिक तथा मानसिक शोषण, साम्प्रदायिकता, लैंगिक भेदभाव, गरीबी और आदिवासियों के साथ हो रहे शोषण को फिल्मों और वृत्तचित्र के द्वारा दर्शाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
 
    बीजू टोप्पो अपने एक लेख ‘आंदोलनधर्मी कैमरे की जद्दोजहदमें फिल्म और कैमरे के महत्व पर रोशनी डालते हुए कहते हैं कि- “अक्सर कहा जाता है कि फिल्में मनोरंजन के लिए बनती हैं, लेकिन फिल्मों से सिर्फ मनोरंजन ही होता है ऐसा नहीं है। इसमें आत्मसम्मान, ज्ञान, अस्तित्व, अस्मिता और जल-जंगल-ज़मीन की बात होनी चाहिए लेकिन ऐसा हुआ नहीं। हम लोगों ने कोशिश की कि लोगों की समस्याओं को सामने लाएं। इससे हम कैमरे के माध्यम से फिल्में बनाकर जनांदोलन की मदद कर सकते हैं। यही हम लोगों का मुख्य उद्देश्य है।“4

    उन्होंने 25 से अधिक प्रतिरोधी फिल्मों और गीतों का निर्माण किया जिसमें अधिकतर को न केवल कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों(2010 और 2018) से नवाज़ा गया बल्कि उन्होंने दर्शकों का फिल्म देखने का नजरिया भी बदला और उन्हें आदिवासियों के आंदोलनधर्मी संघर्ष से रूबरू भी किया।
           
    उनकी प्रमुख फिल्मों में शहीद जो अंजान रहे(1996), एक हादसा और भी(1997), जहाँ चींटी लड़ी हाथी से(1998), हमारे गांव में हमारा राज(2000), development flows from the Barrel of the Gun(2003),कोरा राजी(2005), 100 days work for you a film on MGNREGA(2009),गाड़ी लोहरदगा मेल(2006), लोहा गर्म है(2008), एक रोपा धान(2010), सोना गही पिंजरा(2011), टेकिंग साइड(2015), दि हंट(2015), नाची से बाची(2017) और झरिया जैसी दस्तावेजी फिल्में शामिल हैं।
 
    उनकी फिल्मों में रोपनी जैसे आदिवासी लोक गीत, सोहराई और करम जैसे त्यौहारों, आदिवासी आंदोलनकारियों और विकास व खनिजों के अवैध खनन के नाम पर आदिवासियों के शोषण को दिखाया गया है। ये डॉक्यूमेंट्री फिल्में विभिन्न समस्याओं पर रोशनी डालती हैं जैसे सन 1996 में बनी ‘शहीद जो अंजान रहेडॉक्यूमेंट्री फ़िल्म 19 अप्रैल 1985 में झारखंड के साहेबगंज जिले बांझी में एक छोटे से तालाब के विवाद को लेकर एंथोनी मुर्मु और 14 अन्य की हत्या आधारित घटना पर बनाई गई थी। इसे अक्सर बांझी नरसंहारकहा जाता है। विकास के नाम पर तहस-नहस होते प्राकृतिक संसाधनों, अवैध खनन और खनन माफियाओं के द्वारा आदिवासी जन जीवन पर पड़ते नकारात्मक प्रभावों को विकास बन्दूक की नाल से( Development flows from the Barrel of the Gun), लोहा गरम है, जहाँ चींटी लड़ी हाथी से(1998), दि हंटहमें विकास की धूल नहीं चाहिए(We do not need Dust of Development) जैसी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों में दिखाया है। ‘लोहा गरम है’(2008) फ़िल्म खदानों और फैक्ट्रियों के कारण आदिवासियों पर पड़ते नकारात्मक प्रभाव को दिखाती है। प्रमोद मीणा अपने एक लेख ‘दस्तावेजी सिनेमा और हमारे आदिवासीमें लोहा गरम है के संदर्भ में कहते हैं कि- “इस फ़िल्म में कुकुरमुत्तों की तरह खड़े हो रहे लौह स्पंज उद्योग के कारखानों से होने वाले विषैले प्रदूषण और उस प्रदूषण में अस्तित्व खोते आदिवासियों के जीवन की त्रासदी समुचित आंकड़ों और जमीनी प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया गया है।“5
 
    विकास बन्दूक की नाल से (Development flows from the Barrel of the Gun) फ़िल्म  विकास और आधुनिकता के नाम पर आदिवासियों को उनके ही जल-जंगल-जमीन से खदेड़, विस्थापन के लिए मजबूर करने के खिलाफ उनके आन्दोलनों को प्रस्तुत करती है। इसके सन्दर्भ में प्रमोद मीणा कहते हैं कि-“’डेवलपमेंट फ़्लोज फ्रॉम दि बैरल ऑफ ए गनकेंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों की आदिवासी विरोधी नवउदारवादी विकास परियोजनाओं के खिलाफ हिंसक-अहिंसक संघर्ष कर रहे आदिवासियों के पक्ष में प्रतिबद्धता दिखाते हुए इन्होंने एक फ़िल्म बनाई।“6
 
    कलिंग से काशीपुर(2004) उड़ीसा के कोरापुर जिले के काशीपुर प्रखंड में एक एल्युमिनियम फैक्ट्री के खिलाफ आदिवासियों के विरोध को व्यक्त करती है। टेकिंग साइड, झरिया और नाची से बाची जैसी फिल्में आदिवासी समाज के विकास में योगदान देने वाले व्यक्तित्वों पर आधारित है, जिनमें वेल्सा जॉन, सिमोन उरांव और पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा के संघर्षों और कार्यों को दिखाया गया है। सोना गही पिंजरा एक नौकरीपेशा युवक की मानसिक उलझनों को दर्शाती है और सवाल खड़ा करती है कि आदिवासी बहुल क्षेत्रों में आदिवासियों के त्योहारों को मान्यता और सम्मान क्यों नहीं है? वहीं झारखंड से विस्थापित होकर असम और बंगाल में आकर चाय बागानों में कार्य कर रहे आदिवासी मजदूरों की तकलीफों, जद्दोजहद एवं संघर्ष को कुड़ुख भाषा में बनी कोरा राजी दस्तावेजी फ़िल्म प्रस्तुत करती है। ‘हिंदी सिनेमा:दलित-आदिवासी विमर्शपुस्तक में मनोज कुमार सिंह अपने लेख के माध्यम से कोरा राजी के विषय में कहते हैं कि- “कोरा राजी वृतचित्र के माध्यम से बीजू टोप्पो जोर आजमाइश और दबाव के जरिए हुए झारखंड के विस्थापन को असम के चाय बागान तक ले गए।“7


    100 Days work for you A film on MGNREGA(2009) मनरेगा योजना की जमीनी हकीकत को बीजू टोप्पो और मेघनाथ इस फ़िल्म के जरिए दिखाते नज़र आते हैं। 2005 में सरकार द्वारा ग्रामीण जनता को 100 दिन के रोजगार की गारंटी के साथ महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम’(MGNREGA) को लागू किया गया। यहाँ यह फ़िल्म इस योजना की हकीकत को दिखाती है कि किस तरह वहां ठेकेदारों और दलालों की घुसपैठ के कारण मजदूरी कर रहे मजदूरों को न तो पूरी मजदूरी मिल रही और न ही उन लोगों को रोजगार की गारंटी। इसके अंतर्गत बनाये गए बेरोजगार होने की स्थिति में या 100 दिन में मजदूरी न मिलने पर मजदूरी भत्ता देने का प्रावधान भी नजर नहीं आता। फ़िल्म दिखाती है कि यह योजना महज़ एक कानूनी प्रावधान बनकर रह गई। बीजू टोप्पो और मेघनाथ द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों ने इस योजना की ज़मीनी हकीकत सरकार के समक्ष लाने के लिए विभिन्न आदिवासी ग्रामीण क्षेत्रों में सर्वे किए। ग्रामीण आदिवासियों को इस योजना के प्रति नाटकों और जन सभाओं द्वारा जागरुक किया गया है।
 
    आदिवासियों को मुख्यधारा के तथाकथित सभ्य समाज के लोग असभ्य, विकास को न स्वीकारने वाले, गैर तार्किक एवं पिछड़ा होने का आरोप लगाते हैं। प्रमोद मीणा कहते हैं कि- “बीजू टोप्पो और मेघनाथ ने आदिवासियों को गैर तार्किक और पिछड़ा मानने के इन्हीं पूर्वाग्रहों को खारिज करते हुए एक रोपा धानशीर्षक से छोटे काश्तकारों और आदिवासी किसानों को कम लागत में अधिक धान उत्पादन की विशिष्ट पद्धति के प्रति जागरुक करने के लिए एक दस्तावेजी फ़िल्म बनाई थी।”8
 
    गाड़ी लोहरदगा मेल यह दस्तावेजी फ़िल्म झारखंड में ट्रेन जो 1907 में शुरू हुई और 2003 में बंद कर दी गई, यह फ़िल्म लोहरदगा पैसेंजर ट्रेन पर आधारित है जिसने 2004 में इतिहास रच दिया। उसपर आदिवासियों ने किस प्रकार अपने भावों को व्यक्त किया उसे दिखाती है। ट्रेन के आखिरी सफर में सभी यात्री जो रोज अपना सामान बेचने या किसी अन्य जगह जाने के लिए इसका इस्तेमाल करते थे। वे अपने इस आखिरी सफर को यादगार बनाने के लिए अपनी-अपनी कहानियाँ, अनुभव, लोककथाएँ एक-दूसरे से बांटते हैं। वे सभी गानों और बांसुरी के माध्यम से अपने भावों को व्यक्त करते हैं। इसमें तीन मुख्य कलाकार डॉ रामदयाल मुण्डा, मुकुंद नायक और मधुमंसूरी हंसमुख हैं। आज ये तीनों ही कलाकार पद्मश्री के सम्मान से सम्मानित हैं। लेखक प्रमोद मीणा का कहना है कि-“बीजू टोप्पो की फिल्मों में विषयगत विविधता हमारा ध्यान बरबस आकर्षित करती है। उनकी फिल्म ‘गाड़ी लोहरदगा मेलउस प्रसिद्ध ट्रेन की संगीतात्मक स्मृति है जो मध्य भारत के आदिवासियों को पूर्वोत्तर के चाय बागानों में मजदूरी करने ले जाती थी।“9
 
     टेकिंग साइड(2015) फ़िल्म उस व्यक्तित्व पर आधारित है जिसने आजीवन आदिवासियों के शोषण के विरुद्ध संघर्ष किया। सदियों से न जाने कितने ही लोगों ने उत्पीड़ितों के हक़ की लड़ाई में अपनी जान तक गंवाई है, वेल्सा जॉन उन्हीं में से एक हैं। जिनके संघर्ष पर बीजू टोप्पो और मेघनाथ ने 2015 में डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म टेकिंग साइड बनाई। फ़िल्म वेल्सा जॉन की मृत्यु के बाद की है जहाँ झारखंड के विभिन्न लोगों द्वारा उनके कार्यों और संघर्ष सुनने को मिलता है। उनका जन्म केरल में हुआ था और वे एक सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षिका थींउन्होंने झारखंड के संथाल आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन के अधिकार और कोल माफियाओं के खिलाफ विरोधी आंदोलन छेड़ दिया। झारखंड के आदिवासियों को शिक्षित करने और उन्हें अपने अधिकारों, उनके साथ हो रहे शोषण के खिलाफ विद्रोह के लिए जागरुक किया। उन्होंने सरकार द्वारा विकास के नाम पर आदिवासियों की ज़मीनों को भूमि माफियाओं और उद्योगपतियों को देने का पुरजोर विरोध किया। उनके इसी विरोध के चलते 15 नवम्बर 2011 में माइनिंग माफियाओं द्वारा हत्या कर दी गई। यह फ़िल्म उनकी मृत्यु के बाद आदिवासियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और उनके परिचितों द्वारा उनके सामाजिक योगदान और आन्दोलनों को दिखाती है।
           
    झरिया(2018) झारखंड के सिमोन उरांव के संघर्षों और कार्यों पर आधारित फिल्म है। उन्होंने झारखंड के आदिवासियों के सामने आ रही पानी की समस्या को दूर करने के लिए कई कार्य किए। उनके गांव वाले कृषि के लिए पूरी तरह वर्षा जल पर निर्भर थे और इसी कारण उन्हें कृषि करने में काफी समस्याओं का सामना करना पड़ता था, उन्होंने इस समस्या को हल करने के उपाय शुरू किए। उन्होंने मात्र 15 साल की उम्र से ही डैम बनाने की शुरुआत की। वे 1951 से जल-जंगल-जमीन के लिए काम कर रहे हैं। सिंचाई जलाशयों के निर्माण के साथ ही पर्यावरण परियोजना जिसमें बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण और कुँओं-तालाबों की खुदाई शामिल है। जिसमें 51 गाँव आते हैं। उन्होंने 2020 तक 3 डैम, 6 तालाब और 10 कुंओं का निर्माण किया। उन्हें झारखंड का वॉटर मैन भी कहा जाता है, गांव वाले उन्हें सिमोन बाबा कहकर बुलाते हैं। 1964 में गांव वालों ने उन्हें परहा राजा यानी जनजाति प्रमुख घोषित किया था। सिमोन उरांव को 2016 में भारत सरकार द्वारा उनके सामाजिक योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
 
    हमें विकास की धूल नहीं चाहिए (we do not need Dust of Development) यह फ़िल्म खनिज संपदा से संपन्न भारत के उन क्षेत्रों की कहानी को बयां करती है जहां देश की सबसे गरीब आबादी आवास करती है यानी देश के जिन इलाकों में सबसे अधिक सम्पदा है, उन्हीं इलाकों में सबसे अधिक गरीबी भी है और वहीं सबसे अधिक प्रतिरोध के स्वर भी उठते हैं।
 
जहां एक तरफ देश में विकास के नाम पर अडानी-अम्बानी जैसे कुछ औद्योगिक घरानों के हाथों में जल-जंगल-जमीन हड़पने का अधिकार दे दिया गया है तो वहीं आदिवासियों को उनकी ही जमीन और वनों के अधिकार से वंचित कर उन्हें विस्थापन और भूखों मरने के लिए विवश कर दिया गया है।
 
    इस वृत्तचित्र में पूंजीपतियों द्वारा लगातार प्राकृतिक संपदा पर होते कब्जे और दोहन के सम्बंध में आदिवासियों का कहना है कि- “हम प्रकृति पर कब्ज़ा नहीं करना चाहते न उस पर अपना वर्चस्व ही जताना चाहते हैं। हम प्रकृति के साथ-साथ जीने में विश्वास करते हैं, विनाश में नहीं।“10 निर्देशक बीजू टोप्पो और मेघनाथ ने फ़िल्म के माध्यम से दिखाया है कि झारखंड में सालों से विकास के नाम पर माइनिंग कम्पनियों के अधिक से अधिक खनिज संपदा को लूटने की भूख ने न केवल प्रकृति और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया बल्कि वहां के स्थानीय आदिवासियों के जीवन पर भी बुरा प्रभाव डाला है। यूरेनियम और विभिन्न खनिजों की खुदाई के कारण वहाँ के आसपास के आदिवासी क्षेत्रों में कैंसर और विकलांगता जैसी भयावह बीमारियां फैल रही हैं लेकिन उनके स्वास्थ्य के प्रति सरकार और कॉरपोरेट दोनों ही अपने मुनाफ़े के चलते आँखें मूंदे हुए है। फ़िल्म में विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ताओं के साक्षात्कार झारखंड और वहाँ के निवासियों की परिस्थितियों को बताते चलते हैं कि किस तरह सरकार और उद्योग कंपनियां झारखंड के विकास को खनिज दोहन से आगे नहीं देख पातीं। इन्हीं आगे के विकल्पों को फ़िल्म पेश करती है।
           
    दि हंट फ़िल्म 15 अप्रैल 2009 को बढ़निया घाटी जिला लातेहार में पुलिस द्वारा नक्सलियों की आड़ में निर्दोष आदिवासी ग्रामीणों को मारे जाने की घटना पर आधारित है, जिसमें ऑपरेशन ग्रीन हंट के नाम पर 6 लोगों को मार दिया गया और कई लोगों को नक्सली के आरोप में जेलों में ले जाकर पीटा गया। फ़िल्म दिखाती है कि किस तरह पुलिस आदिवासियों की मदद करने की बजाय झूठे आरोपों के बहाने उनके घरों में घुसकर तोड़-फोड़ करना, लूटना तथा मारपीट करना फिर चाहे वो महिला हो, पुरूष हो या बच्चे। फ़िल्म विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ताओं के योगदान और विचारों को भी रखती है, जहां वे बताते हैं कि किस तरह आदिवासियों की मदद करने, उनके हक़ की बात करने पर उनपर भी झूठे आरोप लगा दिए जाते हैं। नक्सलवाद का समर्थन करने और अर्बन नक्सल जैसे तमगों से गढ़ दिया जाता है। सोनी सोरेन जैसे कई सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपने हक़ के लिए बोलने पर उनके साथ पुलिस द्वारा हिंसा तक की जाती है। ग्लेसडन डुंगडुंग जो एक ह्यूमन राइट्स कार्यकर्ता हैं, का कहना है कि भारत सरकार राज्य सरकारों के साथ मिलकर आदिवासी इलाकों में माओवादियों को खत्म करने के नाम पर अभियान चला रही है, इस अभियान का नाम दिया गया है-‘ऑपरेशन ग्रीन हंट11  सामाजिक कार्यकर्ता ग्लेसडन डुंगडुंग का कहना है कि ऑपरेशन ग्रीन हंट के नाम पर निर्दोष आदिवासियों पर हमले किये जा रहे हैं, जिसका असल कारण उनकी ज़मीनों और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा कर कॉरपोरेट कम्पनियों को बेचना है। नक्सलियों या माओवादियों की किसी भी तरह की हिंसक क्रियाओं का समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन सरकार उन तमाम शांति वार्ताओं या अंहिसात्मक आंदोलन करने के बावजूद समस्याओं को सुनने के लिए तैयार नहीं होती इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मानवाधिकार कार्यकर्ता शर्मिला इरोम का देखा जा सकता है, जिन्होंने 16 साल तक अफस्पा(सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम 1958 के विरोध में भूख हड़ताल पर बैठी रहीं लेकिन सरकार ने किसी भी तरह की वार्ता या समझौता करने की कोई कोशिश नहीं की। यह दिखाता है कि सरकार या कहें सत्ता अपने विरोध में किसी की आवाज़ को सुनना नहीं चाहती ख़ासकर हाशियाकृत समाज की।
 
    जिन क्षेत्रों में आदिवासियों ने सरकार की साज़िश द्वारा उनकी ज़मीनों व वनों को कॉरपोरेट कम्पनियों के हाथों बेचने का विरोध किया, वहाँ-वहाँ सरकारी आलाओं द्वारा उन्हें माओवादी घोषित कर दिया गया। उनकी बस्तियां, घर, खेत सब बर्बाद कर दिए गए और आदिवासियों को नक्सली बताकर ऑपरेशन ग्रीनहंट के नाम पर मार दिया गया या जेलों में भर दिया गया तथा हजारों आदिवासियों को अपने ही घर छोड़ कर विस्थापित होने के लिए मजबूर कर दिया गया।
           
    इस प्रकार बीजू टोप्पो और मेघनाथ ने अपनी दस्तावेजी फिल्मों के माध्यम से न केवल अपने विद्रोह और सहयोग द्वारा आदिवासी आंदोलन का समर्थन किया बल्कि विभिन्न क्षेत्रों के आदिवासियों को अपने अधिकारों के लिए जागरुक और एकजुट भी किया। आदिवासी आंदोलन की मनःस्थिति और एकजुटता को यह कविता सही अर्थों में व्यक्त करती है-“लड़ रहे हैं, नक़्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ”12 अनुज लुगुन की कविता ‘अघोषित उलगुलानकी इस पंक्ति में घटते घनत्व से तात्पर्य महज़ जनसंख्या मात्र से नहीं अपितु एक अस्तित्व, एक भाषा, एक समाज के ख़त्म होने की ओर संकेत किया गया है। इसलिए यहाँ लड़ाई अपने अस्तित्व की, अपनी भाषा, अपने अधिकारों को बचाये रखने की है, लड़ाई महज़ अपनी घटती जनसंख्या की नहीं अपितु प्रकृति को बचाये रखने की भी है। लेखक प्रमोद मीणा उनकी फिल्मों के संदर्भ में टिप्पणी करते हैं कि- “बीजू टोप्पो उन चुनिंदा आदिवासी निर्देशकों में से एक हैं जो कैमरे के माध्यम से आदिवासियों की अस्तित्व रक्षा की लड़ाई में अपना योगदान कर रहे हैं।बीजू टोप्पो अपने समुदाय की,अपने आदिवासी लोगों की आवाज़ अपनी फिल्मों के माध्यम से सामने रखने की कोशिश करते हैं।“13
           
    मुख्य धारा का सिनेमा जहाँ अधिकांशतः मनोरंजन और व्यवसाय पर आधारित है तो प्रतिबद्ध सिनेमा माने समस्याओं पर आधारित प्रतिरोध का सिनेमा ने सामाजिक यथार्थ और विसंगतियों को फिल्मों के ज़रिए पेश किया है। अखरा के माध्यम से बीजू टोप्पो और मेघनाथ सिनेमा में जो प्रतिरोध व्यक्त कर रहे थे, उनकी तरह और भी निर्देशक थे जो अपनी फिल्मों के माध्यम से हाशियाकृत समाज को दर्शकों के समक्ष चित्रित कर रहे थे। उनमें प्रमुख रूप से आनंद पटवर्धन, श्रीप्रकाश, संजय काक, रंजन पालित,समरेंद्र सेन,अमिताभ पात्रा, निरंजन कुजूर और रंजीत उरांव आदि। जिनमें पैनल्टी कॉर्नर(रंजीत उरांव), निरंजन कुजूर द्वारा निर्देशित- पहाड़ा, एड़पा काना,खइका टूंपा(सूखी कली), श्रीप्रकाश द्वारा निर्देशित- ‘बुद्धा वीप्स इन जादूगोड़ा’(1999),संजय काक की ‘रेड आंट ड्रीम’ (2013), ‘इन दि फॉरेस्ट हेंग्स अ ब्रिज’ (1999),सुमा जोसन की ‘नियमगिरि यू आर स्टिल अलाइव(2006)’ इत्यादि फिल्में शामिल हैं।
 
    लगातार विकास के नाम पर सरकार और कॉरपोरेट द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और आदिवासियों की ज़मीन हड़पने की नीतियों के चलते बड़ी संख्या में आदिवासियों को विस्थापन के लिए मजबूर करने के बावजूद उन्होंने कभी अपने जल-जंगल-जमीन को छोड़ा नहीं और लगातार वे एकजुट हो आन्दोलनों के ज़रिए लाठी-डंडे खाते हुए उसका विरोध करते रहे हैं, इसी विरोध को बीजू टोप्पो द्वारा निर्देशित ये गीत बखूबी व्यक्त करता है-“गाँव छोड़ब नहीं,जंगल छोड़ब नहीं, माय माटी छोड़ब नहीं लड़ाई छोड़ब नहीं।“14 कुछ इसी तरह का आंदोलित स्वर उनकी तमाम दस्तावेजी फिल्मों में ध्वनित होता है और विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों को एकीकृत करने का काम करता है। बीजू टोप्पो और मेघनाथ एक बेहतरीन निर्देशक होने के साथ ही सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी उभरे हैं, जहां वे शोषण के विरुद्ध अपनी फिल्मों के जरिये आवाज उठाते आ रहे हैं और वे यह काम आज भी कर रहे हैं। महादेव टोप्पो जो स्वयं भी एक बेहतरीन लेखक और अभिनयकर्ता हैं, का बीजू टोप्पो व मेघनाथ की दस्तावेजी फिल्मों  के संदर्भ में कहना है कि-“बीजू टोप्पो व मेघनाथ ने विकास, पर्यावरण और आदिवासी समस्याओं, मुददों पर कई अच्छी डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनाईं हैं।“15 उनके इस योगदान में आज की युवा पीढ़ी का सहयोग महत्वपूर्ण है क्योंकि इस प्रतिरोध को आगे बढ़ाने का काम इस युवा पीढ़ी का ही है।

सन्दर्भ  :
1. नक्सलबाड़ी, पार्थो मित्रा,28 नवम्बर 2020
2. गौरीनाथ,हिंदी सिनेमा में हाशिए का समाज,अन्तिका प्रकाशन गाजियाबाद,2019,पृष्ठ-103
3. प्रमोद मीणा,हिंदी सिनेमा: दलित-आदिवासी विमर्श, अनन्य प्रकाशन दिल्ली,2016,पृष्ठ-106
4. वही,पृष्ठ-93
5. गौरीनाथ,हिंदी सिनेमा में हाशिए का समाज,अन्तिका प्रकाशन गाजियाबाद,2019,वही,पृष्ठ -116
6. वही,पृष्ठ-120
7. प्रमोद मीणा,हिंदी सिनेमा: दलित-आदिवासी विमर्श, अनन्य प्रकाशन दिल्ली,2016,पृष्ठ-106
8. गौरीनाथ,हिंदी सिनेमा में हाशिए का समाज,अन्तिका प्रकाशन गाजियाबाद,2019,पृष्ठ -118
9. वही,पृष्ठ-120
10. हमें विकास की धूल नहीं चाहिए(we do not need Dust of Deployment),बीजू टोप्पो और मेघनाथ
11. दि हंट, बीजू टोप्पो, 2015
12. अनुज लुगुन, अघोषित उलगुलान(कविता)
13. गौरीनाथ,हिंदी सिनेमा में हाशिए का समाज,अन्तिका प्रकाशन गाजियाबाद,2019,पृष्ठ-115
14. गाँव छोड़ब नहीं, के पी ससि, गायक-मधुमंसूरी हँसमुख, लेखक-मेघनाथ, सुनील मिंज और विनोद कुमार,2009
15. सम्पादक गौरीनाथ,हिंदी सिनेमा में हाशिए का समाज,अन्तिका प्रकाशन गाजियाबाद,2019,पृष्ठ-82
- डॉक्यूमेंट्री लिंक
 https://youtu.be/M88BG3Pdmt8
 https://youtu.be/Uva35_ngZhc
 https://youtu.be/bCEhNQ2JNnc
 https://youtu.be/NASh_GiVJDo
 https://www.facebook.com/akhra.ranchi/videos/257840655430191/
 https://youtu.be/RgZ-evPilRk
● https://youtu.be/A9UKQRMqWS4
 
प्रीति
शोधार्थी, सोनिया विहार, उत्तर पूर्वी दिल्ली- 110090
9643699151

   
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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