- प्रो. अजय कुमार जैतली एवं पूजा कुशवाहा
शोध सार : जनजातीय परम्परा व संस्कृति का कलात्मक रूप से समाज में विशेष
योगदान है। क्षेत्रीय समूहों में निवास करने के कारण इनकी संस्कृति क्षेत्रीय संस्कृतियाँ
मानी जाती हैं। भारत में संस्कृति तथा परम्पराएँ स्थान-स्थान पर बदली हुई मिलती हैं।
इनका जीवन कलात्मकतापूर्ण होता है। इनकी कलाएँ साधारण होने के बावजूद जीवन्त तथा प्रभावशाली
होती हैं। जनजातीय समाज मांगलिक अवसरों व उत्सवों में विभिन्न कलाओं का प्रदर्शन करते
हैं । इस शोध पत्र में मुख्य रुप से गोंड, पटुआ, भील,
सौरा, वर्ली तथा अन्य
जनजातीयों में प्रचलित मुख्य चित्रकलाओं जैसे - गोंड चित्र, पिथौरा चित्र, पटचित्र, सौराचित्र, वर्लीचित्र आदि की तकनीकि , विषय-वस्तु एवं अवधारणाओं की वर्णनात्मक व्याख्या की गई है । इस प्रकार जनजातीय
समाज चित्रकला के द्वारा अपनी परम्परागत विशिष्टता की छवि को प्रदर्शित करता है ।ये
समाज अन्य अनेक विधाओं जैसे -लोकगीत, मूर्तिकला,
संगीत एवं नृत्य कला तथा कथा-कहानियों के द्वारा भी अपने अंचल
को प्रस्तुत करता है।
बीज शब्द : जनजातीय, कलात्मक, गोंड, पटुआ, भील,
सौरा, वर्ली, पिथौरा चित्र, पटचित्र,
परम्परागत
विशिष्टता।
मूल आलेख : भारतीय भू-भाग विभिन्न संस्कृतियों का संगम है जहाँ अनेक वर्ग, जातियाँ, समूह व जनजातियाँ
निवास करती हैं। जिनकी अपनी विशेष परम्पराएँ हैं जो उनके वेश-भूषा, रहन-सहन, बोलचाल व स्थानीय
वातावरण में परिलक्षित होता है। सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भारत को विभिन्न
भागों में विभाजित किया जा सकता है। इन विभिन्नताओं में एक ऐसा समाज निवास करता है
जो आज भी संस्कृति के आरम्भिक धरातल पर जीवन यापन करता है जिन्हें ‘‘आदिवासी’’ या
‘‘जनजाति’’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है। आदिवासी व जनजातीय समुदाय का जीवन यापन
अत्यन्त कठिन होता है। उनका खान-पान, रहन-सहन जंगली वातावरण तथा प्राकृतिक स्रोतों पर आधारित होता है। इनका जीवन सहजता
व सरलतापूर्ण होता है।जनजाति एक संगठित, सुदृढ़ व क्षेत्रीय मानव समूह है जिसकी अपनी सामान्य भाषा तथा एक विशिष्ट नाम होता
है। अतः हम कह सकते हैं कि आदिम समूह का एक संगठन या समुदाय जिसकी जाति का नाम हो तथा
सामान्य बोलचाल की भाषा हो तथा एक निश्चित भू-भाग में निवास करने के साथ-साथ किसी सामान्य
विशिष्ट संस्कृति का अनुसरण करता हो, जनजाति के अन्तर्गत आता है। जनजाति एक स्थायी क्षेत्रीय समूह है जो एक निश्चित
भौगोलिक क्षेत्र में परम्परागत रूप से निवास करते हैं। ये संगठित, व्यवस्थित व अधिक सुस्पष्ट राजनीतिक संगठनयुक्त होते हैं। अपने
समुदायों में विभिन्न अवसरों को मनाते हैं, चाहे वह सुख का क्षण हो या दुःख का। जनजाति काल्पनिक पूर्वजों व कथाओं का सहारा
लेते है। ये लोग अपने देवी-देवताओं को प्रमुख मानते हैं किसी धर्म के तथ्यों को नहीं।
फिर भी जनजातियाँ किसी गोत्र का नाम ग्रहण कर या वंशावली में बदलाव कर अथवा बिना नाम
बदले हिन्दू समाज में विलय का प्रयास कर रही हैं। प्रकृति के सानिध्य में रहने वाली
आदिवासी जनजाति का जीवन अत्यन्त विषम परिस्थितियों तथा आधुनिक संसाधनों की कमी में
व्यतीत होता है जो प्रकृति पर निर्भर होता है। इसके बावजूद भी इनका जीवन सरल, सहज एवं साधारण होता है। परिस्थितियों की जटिलता के बाद भी ये
समुदाय अपनी विशिष्ट संस्कृति व धरोहरों को जीवित रखता है। जिसके लिए ये लोग प्राकृतिक
संसाधनों का अधिकतम प्रयोग करते हैं। जैसे लकड़ी, बांस,
पशु,
चर्म, मिट्टी, पत्थर, खनिज पदार्थ, धातु आदि। दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली उपयोगी वस्तुएँ तथा
साज-सज्जा हेतु अलंकारिक एवं सौन्दर्यपूर्ण वस्तुओं का सृजन करते हैं जिनमें इनका कलात्मक
एवं सृजनात्मक कौशल शुद्ध रूप से परिलक्षित होता है। इनका सम्पूर्ण जीवन कलात्मक अभिव्यक्ति
से भरा हुआ होता है। रहन-सहन, वेशभूषा, श्रंगार, अस्त्र-शस्त्र, पर्व व उत्सव, संस्कार,
रीति-रिवाज आदि में इनकी संस्कृति एवं परम्परा का अद्भुत व आकर्षक
समन्वय देखने को मिलता है। इनके द्वारा चुने गये रंग-बिरंगे व मनभावन रंग तथा सरल रूपाकृतियाँ
सरल होते हुए भी विशिष्टता की अनुभूति प्रदान करती है। इनके द्वारा निर्मित शिल्पाकृतियाँ
तथा हस्तशिल्पकारी में धैर्य, परिश्रम, कल्पना व सौन्दर्य स्पष्ट रूप से झलकता है। ये लोग हस्तकलाओं
व वस्त्रनिर्माण में भी पारंगत होते हैं। दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली वस्तुओं
जैसे डलिया,
बर्तन, चटाई, दरी आदि में भी कलात्मक दर्शन दिखायी देता है। साथ ही रंग-बिरंगे
वस्त्रों को बुनना तथा सुन्दर व आकर्षक हस्तनिर्मित आभूषण बनाना, जिनमें फूल-पत्ती, पक्षियों के पंख,
मनके, सीप, हड्डी एवं धातुओं आदि का समावेश होता है। इन्हें सौन्दर्य बोध
का ज्ञान होता है। इन समुदायों में गोदना (अंगालेखन) की परम्परा भी प्रसिद्ध है। ये
समूह मिट्टी के सुन्दर बर्तनों, खिलौनों तथा मूर्तियों
का निर्माण करने में भी पारंगत होता है। हस्तशिल्प, मूर्तिशिल्प,
चित्रकारी के साथ-साथ ये समुदाय नृत्य व संगीत के माध्यम से
भी अपने हुनर संस्कृति तथा परम्पराओं का प्रदर्शन सामाजिक गतिविधि के उद्देश्य की पूर्ति
के लिए करता है। चूकि एक निश्चित परिवेश में सीमित होने के कारण भौगोलिक तत्व उन्हें
प्रभावित करते हैं। यह एक ऐसा समुदाय है जो राज्य के विकास से पहले अस्तित्व में था।
19वीं सदी में अंग्रेजों के द्वारा भारत के कुछ समुदायों को जनजातीय
रूप में वर्गीकृत करने की परम्परा प्रारम्भ की गयी। इनके लिए विभिन्न सम्बोधन का प्रयोग
किया जाता है जैसे आदिवासी,
वन्यजाति, पर्वतवासी, वनवासी तथा आदिम जाति। ‘‘परिवारों या पारिवारिक वर्गों का एक
ऐसा समूह जो एक निश्चित भू-भाग पर निवास करते हें, जिनका सामान्य
नाम है,
जो सामान्य भाषा का प्रयोग करते हैं, जनजाति कहलाते हैं। पूरे विश्व में भारत एक ऐसा देश है जहाँ
सबसे ज्यादा जनजातीय समूह पाया जाता है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जनजातियाँ फैली
हुई हैं। कहीं ज्यादा तो कहीं कम मात्रा में। केवल नाम के आधार पर लगभग 287 जनजाति समूह है परन्तु विभिन्नताओं के अनुसार लगभग 535 जनजातियाँ हैं। अर्थात् कई अलग-अलग क्षेत्रों में एक ही नाम
की जनजातियाँ निवास करती हैं परन्तु भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक स्तर से भिन्न है। भौगोलिकता के आधार पर जनजातीय समूहों
को चार मुख्य क्षेत्रों में बाँटा गया है -
(1) हिमालय
का क्षेत्र (10.60 प्रतिशत)
(2) मध्य भारत
का क्षेत्र (50 प्रतिशत)
(3) पश्चिमी
भारत का क्षेत्र (28 प्रतिशत)
(4) तटवर्ती
द्वीप समूहों के साथ दक्षिणी भारत का क्षेत्र (10.92 प्रतिशत)
1. हिमालय
के क्षेत्र के अन्तर्गत हिमांचल प्रदेश, उत्तरांचल, उत्तर प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, अरूणांचल, असम, मेघालय, मिजोरम आते हैं। इन क्षेत्रों में निवास करने वाली जनजातियाँ
गद्दी,
गुज्जर, भोट, किन्नरा (हिमांचल प्रदेश), थारू, भोटिया(उत्तरांचल), कुकी, कचारी गारो, खासी (असम और मेघालय), नागा समूह (नागालैण्ड), रियाना (त्रिपुरा), थाडोरू, तान्गखुल, माओ (मणिपुर), मिजो (मिजोरम)
तथा डाफला और आपातानी (अरूणांचल) आदि हैं।
2. मध्य भारत
क्षेत्र के अन्तर्गत पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार, उड़ीसा तथा छत्तीसगढ़
सहित मध्य प्रदेश शामिल है जिसमें संथाल, मुण्डा, उराँव, गोंड, हो, मालेर (झारखड), जुआंग (उड़ीसा)
तथा गोंड,
कमार, बैगा, कोरकू, हलवा (म0प्र0),
मध्य भारत जनसंख्या तथा क्षेत्र दोनों ही दृष्टिकोण से बड़ा है।
अतः 50 प्रतिशत से ज्यादा जनजातीय इसी क्षेत्र में निवास करते हैं।
3. पश्चिमी
भारत में राजस्थान,
गुजरात तथा महाराष्ट्र के साथ संघ क्षेत्र - लक्षद्वीप, दादर-नगर हवेली, दमन और दीव सम्मिलित
है। सम्पूर्ण जनजातीय का लगभग 28 प्रतिशत इस क्षेत्र
में निवास करते हैं जैसे - मीना, भील, घोटिया, गामिल, कोली, महादेव तथा कोकमा
आदि।
4. दक्षिणी
भारत के अन्तर्गत आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, अण्डमान व निकोबार द्वीप समूह और लक्षद्वीप शामिल है। इस क्षेत्र
में जनजातीय आबादी की लगभग 10.92 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है जिसके अन्तर्गत आन्ध्र प्रदेश
में कोया,
अनादी, येरूकूलू तथा कोण्डा
डोरा,
तमिलनाडु में इरूला, माला,
कुरावान तथा टोडा, कर्नाटक में नैकाडा,
भारती और यरावा, केरल में पुलायन, पनीयान, कादर, अण्डमान और निकोबार में अण्डमानी, निकोबारी, सेन्टलीज, ओंगे, जाखा तथा लक्षद्वीप में पासी सम्मिलित हैं।
जनजातीय समूह विकसित नगरीय परिवेश से दूर जंगलों तथा प्राकृतिक वातावरण में निवास
करती हैं। इनकी अपनी संस्कृति, नियम तथा व्यवस्थायें
होती हैं। इनकी परम्पराओं,
धार्मिक संस्कृति व रीति रिवाजों का मुख्य आधार धार्मिक आस्था, विश्वास तथा उपासना है। ये लोग प्रकृति एवं अपने पूर्वजों को
उच्चतर मानते हैं। अपनी अभिव्यक्ति को कलात्मक रूप से प्रस्तुत करते हैं। जो विभिन्न
माध्यमों द्वारा प्रदर्शित की जाती है जैसे चित्रकला तथा मूर्तिकला, गीत-संगीत व नृत्य तथा मौखिक साहित्य।
जनजातीय समाज की
प्रमुख चित्रकला-
स्थानीय चित्रकारी की तरफ ध्यान दिया जाय तो हम देखते
हैं कि कला का एक वृहद् मौलिक स्रोत हमारे भारत के विभिन्न स्थानों में निहित है। जिन्हें
हम जनजातीय कला के नाम से भी जानते हैं। जैसे -मध्य प्रदेश के मण्डला क्षेत्र के गोंड
आदिवासियों द्वारा भित्ति पर बनाई जाने वाली लोक चित्रण शैली है जिसको मांगलिक अवसरों
पर बनाया जाता है। जादो पट चित्रण जो कि झारखण्ड के संथाली आदिवासी द्वारा बनाई जाती
है। ये लोक पटचित्र लपेटे जाने वाले खर्रे के रूप में कथा चित्र होते हैं तथा इन कथाओं
को रात्रि में गाँव -गाँव में जाकर गीत के रूप में वर्णित करते हैं। पट चित्र जो कि
पश्चिम बंगाल की जनजातीय कला है इसमें चित्रों का विषय रामायण, महाभारत, विभिन्न देवी-देवताओं
के प्रसंग तथा धार्मिक आख्यान होते हैं। इसे पटुआ जाति के चित्रकार बनाते हैं। मिथिलांचल
में भी पटचित्र की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। झारखण्ड में पथकार चित्रण, महाराष्ट्र में ठाकर आदिवासी द्वारा पिंगुली चित्रकथा चित्र
भूमिज रंगों द्वारा बनाया जाता है। ग्रामीण व आदिवासी क्षेत्रों में दीवार पर गोबर
द्वारा लीपकर रंगों से बनायी जाती है। मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में सहरिया जनजाति
द्वारा चित्रण कार्य किया जाता है। सन्थाल, जादूपटा,
झारखण्ड, उड़ीसा एवं पश्चिम
बंगाल में निवास करने वाली सन्थाल जनजाति द्वारा बनाया जाता है। उड़ीसा तथा आन्ध्र प्रदेश
में सौरा आदिवासियों द्वारा बनाये जाते हैं। इसे सांवरा चित्रण के नाम से जाना जाता
है। सौराष्ट्र (गुजरात) में गोबर के लेप से तैयार भित्ति पर बनायी जाने वाली कला है।
यह कार्य यहाँ की स्त्रियाँ करती हैं। सत्रिय शैली जो कि असम की परम्परागत शैली वैष्णव
धर्म से प्रभावित है। विन्ध्य चित्रण उत्तर प्रदेश की ग्रामीण व आदिवासी चित्रण शैली
है जो भित्ति पर बनाया जाता है। महाराष्ट्र की वर्ली चित्र स्थानीय जनजाति द्वारा किया
जाता है। मध्य भारत की भील जनजाति द्वारा चित्रण किया जाता है जिसमें बहुरंगीय बिन्दुओं
का प्रयोग किया जाता है।
जनजातीय समाज उत्सव तथा पर्व हर्षोल्लास के
साथ मनाते हैं। इन अवसरों पर ये लोग अपने घर - आँगन में कलात्मक रूप से साज-सज्जा करते
हैं। घर की भित्तियों पर सौन्दर्यपूर्ण अलंकारिक अभिव्यक्ति करते हैं। यह कला भित्ति
से प्रारम्भ होकर आधुनिक समय में कागज, कपड़ा तथा अन्य उपयुक्त धरातलों पर किया जाता है। प्रत्येक जनजाती अपने क्षेत्र, परम्परा, आनुष्ठानिक क्रिया
व पौराणिक गाथाओं के अनुसार भिन्न-भिन्न चित्रकारी करते हैं। । जिससे भारतीय संस्कृति
व परम्परा की समृद्धि का स्वतः ही अनुमान हो जाता है। इनका आवासीय क्षेत्र लिपाई-पुताई
तथा अलंकरण युक्त होता है।
1.गोण्ड चित्रण
यह जनजातीय मध्य प्रदेश के मण्डला क्षेत्र से सम्बन्धित है जो अपनी परम्परा के अनुसरण करते हुए विभिन्न अवसरों पर भित्ति चित्रण करते हैं। इनके देवी-देवता प्रकृति के सभी रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वृक्षों को देवता के रूप में पूजते हैं। साज वृक्ष बड़ा देव तथा पाकड़ी वृक्ष ठाकुरदेव से सम्बन्धित है। इनकी मान्यता यह है कि इनके देवी-देवता संरक्षक के रूप में विद्यमान हैं तथा क्षति से बचाते हैं। इनके कलाओं की अभिव्यक्ति व माध्यम यह दर्शाता है कि इनका प्रकृति से अटूट सम्बन्ध है। गोंड जनजाति अपने घरों के बाहरी तथा भीतरी हिस्सों में गोबर से लीप कर भित्ति तैयार करते हैं तथा उस पर वानस्पतिक तथा खनिज रंगों का प्रयोग करते हैं, जिसके अन्तर्गत फूल, पत्तियां, चिकनी मिट्टी, पत्थर, चावल, हल्दी आदि सम्मिलित है। कूँची के रूप में नीम या बबूल की टहनी तथा कपड़ों के टुकड़ों का प्रयोग करते हैं। भित्ति चित्रण में पशु-पक्षी, फूल, पत्ती की आकृतियों को अपनी अद्भुत कल्पना के साथ चटख रंगों का प्रयोग करके सौन्दर्यपूर्ण अभिव्यक्ति किया जाता है। आकृतियों को सपाट रंगों द्वारा भर कर उन पर छोटी-छोटी बिन्दुओं, रेखाओं तथा धारियों को अंकित किया जाता है। इनका मुख्य विषय देवी-देवता, स्थानीय कथाएँ, नर्मदा कहानी जीवन, प्राकृतिक दृश्य तथा पशु-पक्षी आदि होते हैं। गोंड जनजाति की मान्यता है कि घर के बाहर बाघ का चित्र अंकित करने से घर की रक्षा होती है। सरल व सहज रूपाकार व रंगों को समन्वित कर मनमोहक संयोजन का सृजन करते हैं।
आधुनिक समय में यह कला दीवारों से होकर हस्तनिर्मित कागज, कैनवास तथा कपड़ों पर की जाने लगी है। सामाजिक स्थलों तथा महंगे
व आलीशान भवनों की भित्तियों पर भी उकेरी जा रही है । मालवा तथा बुन्देलखण्ड के गोंड
समुदाय भी इसी प्रकार चित्रांकन करते हैं। जनगढ़ सिंह श्याम प्रथम गोंड परधान कलाकार
थे। इस शैली को जनगढ़ कलाम भी कहा जाता है।
2.पिथौरा चित्र
यह चित्र गुजरात, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। इस क्षेत्र में निवास करने वाली भील जनजाति द्वारा पिथौरा चित्रण किया जाता है। यह मुख्य रूप से भित्ति चित्रण है जो विवाह, पर्व आदि मांगलिक अवसरों पर किया जाता है। जिसमें मुख्य रूप से घोड़ों का अंकन किया जाता है। उज्जवल पृष्ठभूमि पर नीला,पीला, नारंगी, लाल आदि रंगों का बहुतायत प्रयोग किया जाता है। ये चित्र पिथौरा की कथाओं पर आधारित होते हैं। जो बारात का दृश्य दर्शाता है।इस चित्र में मुख्यतः आठ घोड़ों को दर्शाया जाता है जो एक सीधे क्रम में अंकित किए जाते हैं जिनमें से एक पर पिथौरा देव को बैठा हुआ अंकित किया जाता है। भील जनजाति अपने आपको एकलव्य से सम्बन्धित मानती है। इनके चित्रों में भील के जीवन से जुड़ा प्रत्येक पहलू चित्रित किया जाता है जैसे सूर्य, चन्द्र, पशु, वृक्ष, कोट, नदियाँ, भू-भाग तथा पौराणिक देवता आदि। पिथौरा चित्रण के ऊपरी भाग में देवी-देवता तथा निचले भाग में सामाजिक क्रियाओं का अंकन किया जाता है, जिसके अन्तर्गत जंगली वातावरण, जीव-जन्तु तथा वृक्षों की काल्पनिक अभिव्यक्ति की जाती है। बाँस द्वारा निर्मित तूलिका का प्रयोग किया जाता है। राठवा जनजाति के लोग भी इसी प्रकार चित्रण कार्य करते हैं। ये जनजाति प्रकृति के अत्यधिक निकट व कृषि पर आधारित होती है। पितौल की भूरी बाई 1980 के दशक में भोपाल आयी तथा आज वह आदिवासी लोक कला अकादमी में कलाकार के रूप में कार्यरत है। भूरी बाई को मध्य प्रदेश सरकार ने सर्वोच्च पुरस्कार शिखर सम्मान (1986-87) तथा अहिल्या सम्मान (1998) से विभूषित किया । उन्हें सन् 2021 में भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार अर्थात् पद्मश्री से सम्मानित किया गया । प्रेमा फट्या भी पिथौड़ा चित्रकार के रूप में जाने जाते हैं। जिन्होंने म्यूजियम आॅफ मैनकाइंड की दीवारों पर कार्य किया है जो भोपाल में स्थित है।
3.पट चित्रण
यह चित्र या पट्टचित्र सामान्यतः कागज तथा कपड़ों पर किया जाता है जो पूर्वी भारतीय
राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल,
उड़ीसा, बांग्लादेश, बिहार क्षेत्र में आता है। इन चित्रों का धरातल कागज की सतह
को तैयार करके बनाया जाता है। यह मूलतः कथानकों या दृष्टान्तों पर आधारित होते हैं
जिनमें रामायण,
महाभारत तथा देवी- देवताओं के प्रसंग सम्मिलित होते हैं। इन
क्षेत्रों में संथाल जनजातियां निवास करती हैं, इसलिए कलाकारों द्वारा इन जनजातियों के सामाजिक जीवन का चित्रण भी किया जाता है।
यहां पर चित्र विभिन्न खण्डों में बनाया जाता है जिसमें कथा के अनुसार चित्रों को बनाया
जाता है। मध्य में बड़े आकार तथा उसके चारों
ओर छोटे आकार में चित्रण किया जाता है। इन चित्रों के लिए धरातल के रूप में कागज तथा
कपड़े का प्रयोग किया जाता है। इन चित्रों का निर्माण पटुआ जाति के चित्रकारों द्वारा
किया जाता है। इसमें खनिज तथा वानस्पतिक रंग प्रयोग में लाये जाते हैं जिनमें लाल, पीला, नारंगी व हरा रंग
प्रयोग में लाया जाता है। रेखांकन हेतु काले रंग का प्रयोग किया जाता है। इन चित्रों
बिन्दु,
रेखा, पेड़-पौधे व फूल-पत्ती
के अलंकरण का प्रयोग किया जाता है। मुख्य रूप से यह चित्र समाज के लिए संदेश देने का
कार्य करता है। यह मुर्शिदाबाद तथा वीरभूमि में अधिकांशतः किया जाता है।
4.सौरा चित्रण
सौरा आदिवासी चित्रण भारत के उड़ीसा राज्य के घने जंगलों में रहने वाले आदिवासियों (जो वर्तमान में पारलाखेमुण्डी, गंजम, गजापति, कोरापट और रायगढ़ जनपद में रहते हैं) द्वारा बनाया गया चित्रण है। ये जनजाति ईश्वरीय शक्तियों में दृढ़ विश्वास रखती हैं। सौरा चित्रण ईश्वर को पूजने का एक माध्यम है। सौरा चित्रण अत्यन्त प्राचीन व ऐतिहासिक माना जाता है जो रामायण एवं महाभारत में भी सम्मिलित है। यह कला घरों के भित्तियों पर बनायी जाती है। पृष्ठभूमि लाल व भूरे रंग का होता है। इस चित्रण में प्राकृतिक खनिज रंग शामिल किए जाते हैं। चावल, पत्थर, पुष्प व पत्तियों का रस प्रयोग में लाया जाता है। चित्रकारी हेतु बांस द्वारा हस्तनिर्मित कोमल कूचियों का प्रयोग किया जाता है। इनकी रूपाकृतियों में सूर्य, चन्द्रमा, वृक्ष व पौधे, हाथी-घोड़े तथा ग्रामीण परिदृश्य ज्यामितीय रूप में चित्रित किया जाता है। वर्तमान समय में सौरा चित्रण कागज व कपड़ों पर एक्रिलिक व अन्य रंगोंद्वारा बनाया जाता है। सौरा चित्रण तथा वर्ली चित्र के ज्यामितीय रूपाकारों, रंगों तथा तकनीकी समान होते हुए भी सूक्ष्म अंतर दिखलाई पड़ता है। ये चित्र मुख्य रूप से उत्सव व पर्व पर बनायी जाने वाली कला है जो उड़ीासा के साथ-साथ आन्ध्र प्रदेश के जनजातियों द्वारा बनाया जाता है। जिसे ‘‘सांवरा’’ चित्र के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है।
5.वर्ली चित्र
पश्चिमी भारत में महाराष्ट्र राज्य के मुम्बई शहर के उत्तरी ब्रम्हांचल में बसी ‘‘वर्ली’’ जनजाति अत्यन्त विशाल जनजाति है। इन जनजातियों के द्वारा वर्ली चित्रण किया जाता है। 1970 के लगभग में इस कला के बारे में पता चला (हालांकि इसका लिखित ब्यौरा नहीं प्राप्त है)। यह चित्र वर्ली जनजाति की सामाजिक एवं दैनिक जीवन का चित्रण है। यह मांगलिक कार्यों में बनाये जाते हैं। गोबर द्वारा पुताई की गयी कच्ची दीवारों/भित्तियों पर लाल रंग का धरातल तैयार किया जाता है। तत्पश्चात् उस पर सफेद रंग (जो कि पीसे हुए चावल द्वारा निर्मित किया जाता है) से छोटी-छोटी रेखाओं के द्वारा प्रतीकात्मक आकृतियों का चित्रांकन किया जाता है। आकृतियां सरल एवं ज्यामितीय रूप में होती हैं। ये रेखाएं वर्ली जनजाति की सामाजिक गतिविधियों को प्रदर्शित करती हैं। ये आकृतियां लयात्मक रूप से गतिशील बनायी जाती है। मुख्य रूप से फसलों की कटाई, नृत्य, वैवाहिक कार्यक्रम, दैनिक जीवन तथा देवी-देवताओं का अंकन किया जाता है। इन कलाकॄतियों में चक्राकार गति देखने को मिलती है। इसके अतिरिक्त सूर्य, चन्द्रमा, व तारों के द्वारा पृष्ठभूमि को सुसज्जित किया जाता है। बांस के सींक या टहनी का प्रयोग चित्र बनाने के लिए किया जाता है। प्राचीन समय से ये चित्र महिलाओं द्वारा बनाया जाता था परन्तु आधुनिकता के दौर में पुरूष भी वर्ली चित्रण में पारंगत रूप से कार्य कर रहे हैं। वर्ली चित्रण भित्तियों के अलावा कागज, कपड़ा, कैनवास व अन्य धरातलों पर भी निर्मित की जा रही है जो कि देखने में अत्यन्त प्रभावशाली प्रतीत होती है। अपनी परम्परागत शैली के साथ-साथ नये विचार व तकनीकों के द्वारा वर्ली चित्रण बाजार में अपना विशेष स्थान बनाए हुए हैं।
निष्कर्ष : आदिवासी कला समस्त कलाओं का मूल है तथा भिन्न-भिन्न कलाओं, परम्पराओं और संस्कृतियों को अपने में समेटे हुए हैं। इन जनजातियों
का कला बोध व सौन्दर्यपरकता हमारे देश को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान कर रहा है
तथा जनजातीय अंचल का सौन्दर्य विश्वस्तर तक पहुँच चुका है। परन्तु आदिम कलाकारों का
जीवन व सुख-सुविधाएँ अब भी अत्यंत सीमित है। शहरीकरण के कारण इनकी मौलिकता का ह्रास
हो रहा है। हमारी सांस्कृतिक सम्पदा को सुरक्षित रखने के लिए उचित कदम उठाने की आवश्यकता
है।
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16.चित्र - इण्टरनेट।
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
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