मानवता के सजग प्रहरी कवि रहीम
बीज
शब्द : नवरत्न,
भावुकता, मार्मिकता, विश्वदृष्टि, मानवीयता, सांस्कृतिक, बहुलता,
स्वार्थपरता, समरसता।
मूल आलेख : अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना अकबर के नवरत्नों में से एक थे। इनका समय (1556-1627 ई०) के बीच का था। इनके पिता बैरम ख़ाँ की मृत्यु के बाद अकबर जिस मनोयोग से रहीम का पालन-पोषण और उनकी शिक्षा के लिए उचित प्रबन्ध किया, वह आगे चलकर फलीभूत हुआ। रहीम एक सशक्त सेनापति और अव्वल दर्जे के कवि हुए। ऐसा नहीं है कि मध्यकाल के दूसरे अन्य कवि उनके जैसा नहीं थे पर उन विशिष्टताओं में रहीम अलग ही हैं। इसलिए तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपने इतिहास ग्रन्थ में रहीम को तुलसी के बराबर का दर्जा देते हैं और उनकी काव्यगत विशेषताओं का उल्लेख करते हुए लिखते हैं- “संसार का इन्हें बड़ा अनुभव था। ऐसे अनुभवों के मार्मिक पक्ष को ग्रहण करने कि भावुकता इनमें अद्वितीय थी। अपने उदार और ऊँचे हृदय को संसार के वास्तविक व्यवहारों के बीच रखकर जो संवेदना इन्होंने प्राप्त की है, उसी की व्यंजना अपने दोहों में की है। तुलसी के वचनों के समान रहीम के वचन भी हिंदी-भाषी भूभाग में सर्वसाधारण के मुँह पर रहते हैं। इसका कारण है जीवन की सच्ची परिस्थितियों का मार्मिक अनुभव। रहीम के दोहे वृन्द और गिरधर के पद्यों के समान कोरी नीति के पद्य नहीं हैं। उनमें मार्मिकता है, उनके भीतर एक सच्चा हृदय झाँक रहा है। जीवन की सच्ची परिस्थिति के मार्मिक रूप को ग्रहण करने की क्षमता जिस कवि में होगी वही जनता का प्यारा कवि होगा।”1
रहीम
का पूरा समय युद्ध में बीता! अकबर और जहाँगीर ने इनके सैन्य-कौशल को ध्यान में रखते
हुए अनेक युद्धों में प्रमुख सेनापति बनाकर भेजा, जिस कारण इन्हें समाज के
प्रत्येक क्षेत्र की जानकारी थी। ये दरबारी परिवेश में पले-बढ़े होकर भी लोक-जीवन
से पूरी तरह परिचित थे। वे अरबी, तुर्की, फारसी और संस्कृत के विद्वान होने के
बावजूद भी कविता की भाषा अवधी और ब्रज को चुना, जिसकी पहुँच आम जन तक थी। इस कारण
रहीम के दोहे तुलसी के समान आमजन के ज़बान पर हैं। रहीम को यह यश उनकी सहज कविता के
कारण मिला। उनकी कविता की इसी विशेषताओं को रेखांकित करते हुए मैनेजर पाण्डेय कहते
हैं कि “कवि की विश्वदृष्टि और आम जनता के बीच जितनी दूर तक सहभागिता होती है,
उतनी ही दूर तक लोकप्रियता जाती है।”2 रहीम दरबारी भले ही
रहे लेकिन उनको दरबार नहीं सुहाता है। उनको तो केवल वही अच्छा लगता है जो मज़हब और
जाति से ऊपर उठकर प्रियतम की तरह गले लगा ले-
रहीम
मुसलमान थे लेकिन उनकी कविताओं में मज़हबीपन जैसी कोई चीज नहीं है। तभी तो नामवर
सिंह इनके विषय में कहते हैं कि- “रहीम की हिंदी कविताओं को पढ़ते समय
सर्वसाधारण जन यह भूल ही जाते हैं कि एक आस्थावान मुसलमान थे। स्पष्ट है कि रहीम
भाव की उच्च भूमि पर पहुँच गये थे। जहाँ एक मुसलमान होकर भी सिर्फ मुसलमान नहीं रह
जाता और न हिन्दू रह जाता है।”4 यहाँ यह समझने का विषय है कि रहीम
की कविताई उपज लोक के बीच की है। अकबर ने उनकी कार्यकुशलता को ध्यान में रखते हुए
उन्हें ‘ख़ानेख़ाना’ की पदवी दी, लेकिन फिर भी उन्हें बादशाही ठाठ से नफरत हो गयी थी।
वे एक दोहे में राजा के पास करोड़ों की सम्पत्ति होने के बाद भी ऐसे जीवन को
धिक्कार के योग्य समझते हैं।
जो रहीम कोटिन मिले, धिग जीवन जग माहि।।5
रहीम
के पास अकूत सम्पत्ति थी और उन्हें राजदरबार से मान-सम्मान भी प्राप्त था किन्तु
उनकी निगाह में हमेशा गरीब ही रहे। वे मानवीयता को महत्व देते हैं इसलिए तो वे
छोटे से छोटे आदमी का अहमियत समझते हैं। उन्हीं का एक दोहा इस बात का प्रमाण है-
जहाँ काम आवै सुई, कहा कर तरवारि।।6
रहीम के जीवन में एक बार ऐसा
समय आया, जब उन पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा और अपने पुत्रों को आँखों के सामने
मरते देखा। इस वजह से वे पूरी तरह टूट गये थे और उनसे ख़ानेख़ाना की पदवी तथा उपहार
स्वरूप दी गयी जागीरें भी छीन ली गयी थी। यह सब होने के बाद भी वे अपने दुःख एवं
कष्ट को कभी बाहर प्रदर्शित होने नहीं दिया लेकिन उनके दोहों में अंतर्मन का दुःख
साफ दिखाई पड़ता है, जो आने वाली पीढ़ी को सचेष्ट करता है।
अर्थात्
रहीम कहते हैं कि यदि सांसारिक जीवन जीना है तो झूठ का सहारा लेना पड़ेगा। यदि आप
सच का साथ देते हैं तो दुनियादारी निभाने में तमाम अड़चनें आयेंगी। इसी झूठ का
सहारा लेकर लोगों को गद्दी प्राप्त हो जाती है लेकिन इस झूठ से सम्मान, यश और
धन-सम्पदा भले ही मिल जाये किन्तु ईश्वर का साक्षात्कार तो केवल सत्य से होता है।
यह आज के समय का कटु सत्य भी है कि यदि हम समाज में सत्य की राह पर चले तो पूरे
समाज का वही व्यक्ति सबसे खराब हो जाता है, जो सत्य की राह पर चलता है। उसी पर सभी
प्रकार के लांछन लगाये जाते हैं। यहाँ रहीम आज के समय में मानवता का पाठ पढ़ाते हैं।
रहीम
को कला और संस्कृति से बहुत लगाव था। वे छोटे-छोटे कलाकारों को सम्मान देकर उनका
मनोबल बढ़ाया करते थे। यह भी एक मानवता का प्रतीक ही है। उनकी कविताओं में भारतीय
संस्कृति की झलक स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है, जिसमें राम भी हैं, कृष्ण भी
हैं और अल्लाह भी हैं। इसलिए तो मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं कि- “रहीम मध्यकाल
में भारत की सांस्कृतिक बहुलता, भाषिक बहुलता के प्रतिनिधि कवि हैं।”8
रहीम को दुनिया-जहान की समझ
बहुत गहरी थी। दुनिया-जहान के सभी तथ्य को उन्होंने बड़ी सूक्ष्मता से जाँचा-परखा
था। इसका प्रमाण उनके एक दोहे में मिलता है। जिसमें वे कहते हैं कि जब व्यक्ति के
पास धन-सम्पत्ति आती दिखाई देती है तब बहुत से लोग मित्र, सम्बन्धी और हितैषी बनने लगते हैं। परन्तु जो लोग मुश्किल के समय में
आपके साथ खड़े हों वही आपका सच्चा हितैषी है। वे आगे कहते हैं कि ऐसे लोगों को कोई
फर्क नहीं पड़ता है कि आपकी कैसी स्थिति है? उनके मन में तो हमेशा अपने मित्र के
सुख-दुःख में शामिल होने की ललक होती है।
रहीम
के दोहों को मैं छोटी कक्षाओं से पढ़ते आ रहा हूँ। इन कक्षाओं में रहीम के केवल
नीति सम्बन्धी दोहे ही लगे होते हैं। हिन्दी के कुछ विद्वानों का मानना है कि रहीम
के नीति सम्बन्धी दोहों की बहुलता है किन्तु यदि हम उनके लिखे दोहों का गहराई से
अध्ययन करें तो यह समझ सकते हैं कि वे केवल नीतिकार ही नहीं थे बल्कि उन दोहों में
समाज के प्रत्येक क्षेत्र का गूढ़ रहस्य भी छिपा हुआ है। इसी को लक्ष्य करके प्रो०
सदानन्द शाही कहते है कि- “उनमें नीतिबोध था पर वे केवल नीतिकार नहीं थे, उनमें
सन्तई थी पर वे सिर्फ सन्त नहीं थे, श्रृंगार भी था पर वे सिर्फ श्रृंगारिक भी
नहीं हो सकते थे। चाहें तो उन्हें नीति, श्रृंगार और वैराग्य कि त्रिवेणी बहाने
वाले भर्तृहरि की परम्परा में रख सकते हैं।”10
रहीम
मानवीय स्वभाव के विषय में कहते हैं कि अहंकार से भरा मनुष्य का जीवन कभी सार्थक
नहीं होता है। उसका जीवन तभी सार्थक होगा जब उसका व्यवहार सहज और सरल होगा। आगे वे
कहते हैं कि मिट्टी का बना शरीर एक दिन मिट्टी में ही मिल जाना है तो फिर अभिमान
और अहंकार क्यों?
रहीम
अपने एक दोहे में वर्तमान समय की सच्चाई व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि दुनिया
में बहुधा देखा जाता है कि जिससे काम पड़ता है, उसे पूरे समर्पण के साथ आदर और
सम्मान दिया जाता है। परन्तु काम निकल जाने के बाद उसे पहचानने से इंकार कर दिया
जाता है। यहाँ रहीम मनुष्य की स्वार्थपरता को दर्शाते हैं।
उन्होंने
साधारण से साधारण दैनिक क्रिया को बहुत बारीकी से मनन किया था। इसलिए वे जनमानस को
समझते और समझाते हुए कहते हैं कि कटु वचन बोलने वाले मनुष्य की सजा खीरे की तरह
होनी चाहिए। जिस तरह खीरे की कड़ुवाहट उसके ऊपरी सिरे को काटने के बाद नमक रगड़कर
समाप्त की जाती है।
खीरा
सिर तें काटिए, मलियत नोन लगाय।रहिमन
करुए मुखन को, चहियत यही सजाय।।13
गुणवान
मनुष्य की विशेषताएँ बताते हुए कहते हैं कि जिस तरह कुएँ में जल गहराई पर होता है,
इस कारण उसे साधारण उपाय से नहीं निकाला जा सकता है। परन्तु गुणवान लोग रस्सी की
सहायता से जल निकाल लेते हैं। ठीक इसी तरह अच्छे गुणों से दूसरे के हृदय में भी
अपने लिए प्रेम उत्पन्न किया जा सकता है क्योंकि किसी का मन कुएँ से अधिक गहरा
नहीं होता। इसलिए निरन्तर प्रयास से किसी का भी दिल जीता जा सकता है।
गुनतें
लेत रहीम जन, सलिल कूपतें काढ़ि।कूपहु
ते कहुँ होत है, मन काहू के बाढ़ि।।14
समाज
में सबसे छोटे लोग उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं जितने कि बड़े। यहाँ तक कि हम सभी
जानते है कि छोटों से बड़ों की शान होती है। अपने एक दोहे में रहीम समाज में समरसता
स्थापित करते हुए कहते हैं कि घोड़ा और खूँटा एक-दूसरे के पूरक-अनुपूरक होते हैं।
घोड़े की शोभा खूँटे से ही होती है। इससे स्पष्ट है कि कोई भी वस्तु छोटा या बड़ा
नहीं होता है। उसे परिस्थितियाँ ही महत्वपूर्ण अथवा कम महत्वपूर्ण बनाती है।
रहीम
हमेशा से साधनहीन गरीबों के पक्षधर थे। वे यह चाहते थे कि जो समर्थ और साधन-संपन्न
लोग हैं वे गरीबों की सहायता करें। स्वयं भी ऐसे लोगों की सहायता किया करते थे। ये
जगजाहिर है कि रहीम बड़े दानी थे। उनके दरबार में जो भी आया वह खाली हाथ नहीं गया।
वे अपने एक दोहे में कृष्ण-सुदामा की दोस्ती की तरह जो साधन-संपन्न लोग हैं, वे
गरीबों की सहायता करते हैं, जो बहुत साधुवाद के पात्र हैं।
कहा सुदामा बापुरो कृष्ण मिताई जोग।।16
वे
मनुष्य को मानवता का पाठ पढ़ाते हुए कहते हैं कि जैसे पृथ्वी पर सभी मौसमों की मार
पड़ती है। अर्थात् पृथ्वी तपती धूप, कड़ाके की ठण्ड और घनघोर बरसात को सहन करती है।
वैसे ही मनुष्य को सुख-दुःख, भूख-प्यास, हानि-लाभ आदि को सहने की आदत डालनी चाहिए
क्योंकि ये सब जीवन के अभिन्न अंग हैं। मनुष्य की जिंदगी का यही उद्देश्य होना
चाहिए कि सभी परिस्थितियों में समभाव रहकर अपना काम करते रहें।
दैनिक
जीवन में हम सभी यह महसूस करते हैं कि छोटी सोच रखने वाला व्यक्ति यदि ऊँचे पद पर
पहुँच जाता है तो उसमें अहंकार आ जाता है। वह बात-बात में अकड़ दिखाने लगता है तो
इस पर रहीम कहते हैं कि किसी को इस तरह नहीं करना चाहिए। क्योंकि शतरंज के खेल की
भाँति पासा पलटते देर नहीं लगती है।
रहीम
का एक बहुत चर्चित दोहा है जो अधिकांश लोगों से सुनने को मिल जाता है। उसमें वे
मनुष्य को बहुत बड़ी सीख देते हुए कहते हैं कि यदि कोई प्रियजन जिससे अनूठा लगाव हो
और वह किसी कारण बस रूठ जाता है तो उसे मनाने का लगातार प्रयास करते रहना चाहिए।
सौ बार मनाने से वह न माने तो कोशिश जारी रखनी चाहिए। जैसे कीमती मोतियों की माला
टूटकर बिखर जाती है तो उन मोतियों को बार-बार धागे में पिरो कर पहना जाता है। ठीक
इसी तरह मनुष्य के बीच का आपसी सम्बन्ध होता है। इस दोहे में रहीम के जीवन का उसूल
पता चलता है कि वे सम्बन्धों का किस तरह निर्वहन करते थे।
रहीम आपसी प्रेम को महत्त्व
देते हुए कहते हैं कि जब परिजन, मित्र, हितैषी और रिश्तेदार आपस में मिल-जुल रहते
हैं। तब उनमें एक अटूट सम्बन्ध बन जाता है। यह आपसी सम्बन्ध कभी नहीं तोड़ना चाहिए।
कभी-कभी रिश्तों में मनमुटाव भले ही हो जाता है लेकिन कड़वाहट नहीं आनी चाहिए। अगर
यह रिश्ता एक बार टूट जाता है तो फिर बिना गाँठ के नहीं जुड़ता है। इस तरह से देखें
तो रहीम की कविताओं में कहीं न कहीं मानवता को बचाये रखने की सीख मिलती है, जो आज
के समय लिए जरूरी भी है।
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि रहीम के जीवन में बहुत उतराव-चढ़ाव आया लेकिन वे कभी विचलित नहीं हुए। वे हमेशा एक धुन में चलते रहे है। उनके पास जिस समय कुछ भी नहीं था उस समय भी उनके द्वार पर आया व्यक्ति खाली हाथ नहीं गया। इसलिए आज के समय में हम सभी को रहीम के व्यक्तित्व से सीखने की जरूरत है।
संदर्भ
:
2. सं० त्रिवेदी हरीश, अब्दुर्रहीम खानेखाना : काव्य सौन्दर्य और सार्थकता, प्रथम संस्करण 2019, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं०- 54
3. सं० मिश्र सत्यप्रकाश, रहीम रचनावली, प्रथम संस्करण 2021, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद, पृष्ठ सं०- 59
4. सं० त्रिवेदी हरीश, अब्दुर्रहीम खानेखाना : काव्य सौन्दर्य और सार्थकता, प्रथम संस्करण 2019, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं०- 48
5. सं० मिश्र सत्यप्रकाश, रहीम रचनावली, प्रथम संस्करण 2021, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद, पृष्ठ सं०- 56
6. वही, पृष्ठ सं०-76
7. वही, पृष्ठ सं०-55
8. सं० त्रिवेदी हरीश, अब्दुर्रहीम खानेखाना : काव्य सौन्दर्य और सार्थकता, प्रथम संस्करण 2019, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं०- 53
9. सं० मिश्र सत्यप्रकाश, रहीम रचनावली, प्रथम संस्करण 2021, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद, पृष्ठ सं०- 58
10. सं० त्रिवेदी हरीश, अब्दुर्रहीम खानेखाना : काव्य सौन्दर्य और सार्थकता, प्रथम संस्करण 2019, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं०- 71
11. सं० मिश्र सत्यप्रकाश, रहीम रचनावली, प्रथम संस्करण 2021, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद, पृष्ठ सं०- 58
12. वही, पृष्ठ सं०- 58
13. वही, पृष्ठ सं०- 59
14. वही, पृष्ठ सं०- 60
15. वही, पृष्ठ सं०- 61
16. वही, पृष्ठ सं०- 61
17. वही, पृष्ठ सं०- 62
18. वही, पृष्ठ सं०- 63
19. वही, पृष्ठ सं०- 64
20. वही, पृष्ठ सं०- 76
शोधार्थी- हिन्दी विभाग, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला(हि०प्र०)
ashish319155@gmail.com, 8808868252
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
एक टिप्पणी भेजें