-डॉ. विजया दीक्षित
पिछले कुछ सालों से दिवाली पर घर जाना, रोजमर्रा की जिंदगी से थोड़े दिनों के लिए अलविदा लेना, मेरे जीवन का हिस्सा सा रहा है। और हो भी क्यों न? अम्मा पूरे साल इंतज़ार करती हैं बेटी के घर आने का। साफ़-सफाई, रंगाई-पुताई, पापड़-अचार, पूरी-भाजी, घी-लड्डू और न जाने क्या क्या। हर रोज फ़ोन पर वही सवाल, तुमने टिकट बुक किये? बाबू साथ में आ रहें हैं कि नहीं? अम्मा कितनी बार पूछोगी? बताया तो कि वो नहीं आ पायेगें। मैं अकेली ही आ रही हूँ । अच्छा, कोई नहीं, तुम्हारे पिताजी आ जाएगें गोरखपुर तुम्हे लेने। अरे नहीं मैं आ जाउगीं न! फिर वही माँ-बेटी की कहासुनी हर बार की तरह। पिछले नवम्बर की शुरुआत समय। पीहर में कुछ नया नहीं था। वही गाँव, वही लोग, वही घर, खेत-खलिहान और बगीचें। “दादी दादी! बुआ आ गयीं” छोटा भतीजा जोर से चिल्लाता हुआ दौड़ा। अम्मा गेट के सामने ही कुर्सी लगा के बैठी थीं बेटी के इंतज़ार में। चौखट लाघंते ही अम्मा की वही पुरानी गिटपिट। कितनी पतली हो गयी हो? इतना फीका कुरता क्यों पहना है? सिंदूर क्यों नहीं लगाती? और चूड़ियाँ क्यों नहीं पहनी? इतने दिनों बाद घर आयी हो तो कुछ गहने तो पहन के आती। अच्छा अब चाय बनाऊ? पहले दही-शक्कर तो खा लो। अम्मा पहले हाथ मुँह तो धोने दो। नहीं, पहले दही-चीनी मुँह में डालो। वही माँ-बेटी की पुरानी बातें। पिताजी ने जोर से नीचे से आवाज लगायी, “कुछ लाना है क्या बाजार से?” अम्मा खिसियायी-सी बोलीं, “कल ही तो गए थे। बाजार गए बिना जी ही नहीं लगता।” पिताजी ने टीवी का वॉल्यूम थोड़ा और तेज कर दिया। अम्मा को अनसुना करने की उनकी यह पुरानी तरकीब थी। सांझ ढलने को आ रही थी, चिड़ियों की चहचहाट पेड़ों की सरसराहट के साथ मिल कर एक अलग ही सुर-ताल में बज रही थी। कितना सुकून था इस स्वर में! यहाँ किसी को कहीं पहुँचने की जल्दी नहीं थी, गाड़ियां नहीं दौड़ रहीं थी, लोग-बाग पैदल खेतों से वापस आ रहे थे। इस ठहरे हुए वक़्त में भी दिमाग बज रहा था। कुछ शब्द मसलन डेटॉक्स, स्लो लिविंग, रिजुविनेशन, इत्यादि बेवजह ही कोलाहल मचा रहे थे।
सुबह नींद गाड़ियों की हॉर्न से नहीं, बंदरों के उत्पात से खुली। जमदार मियां जोर जोर से टिन का डब्बा बजा कर
बन्दर भगा रहे थे, साथ ही जोर जोर से सुना भी रहे थे,
“इस बार प्रधान उसी को बनायेगें जो गाँव से बन्दर भगा दे।” हाँ जी, गाँव से बंदरों को निकलना दस एक साल से
चुनावी मुद्दा तो था ही। बुजुर्ग बताते हैं कि वन विभाग वाले कुसुमी जंगल से
बंदरों को पकड़ कर गाँव की नदी किनारे छोड़ गए थे और तब से बन्दर यहीं के हो के रह
गए। उनका कुनबा बड़ा होता चला गया। वे कब गाँव की कहानी के अहम् किरदार बन गए यह
पता भी नहीं चला। चाहें बात धरम की हो या राजनीती की - गाँव
में बानरों का खासा दबदबा था।
सुबह सुबह अम्मा पूजा-पाठ में व्यस्त थीं और पिताजी दरवाजे पर
राजनीतिक परिचर्चा में। मैं भी चाय का कप लिए दरवाजे पर आ गयी। मधुमालती के पत्तों
पर ओस की एक झीनी चादर बिछी हुई थी, गाँव की हवा में एक
अलग ही ठंडक थी, सर्दी ने दस्तक दे दी थी। मैं इस खुशनुमा
सुबह का लुत्फ़ उठा रही थी कि अम्मा की जोर कि आवाज सुनाई पड़ी, “अरे किसकी बकरियाँ हैं? सुबह सुबह सारे फूल-पत्ते चरा
दिये। और तुम खड़े-खड़े क्या देख रही हो, बकरियाँ तो हाँको।”
इतने में हांफती-गिरती जमदार मियाँ की बीबी, जिन्हे
पूरा गाँव जमदरायिन बुलाता था, हाथ में डंडा लिए बुदबुदाती
हुई आती दिखीं, “अब इस उम्र में यह सब नहीं होता मुझसे!”
जमदरायिन अम्मा से भी कुछ ज्यादा उम्र की थीं, पचहत्तर साल के करीब। पीठ थोड़ी झुक गयी थी, बाल सारे
सफ़ेद हो चले थे और चेहरे पर झुर्रियां इतनी की आखें बमुश्किल ही दिखाई दे रही थीं।
मियाँयिन तीन बेटियों की माँ थीं लेकिन जायदाद का झगड़ा ऐसा लगा कि दो बेटियों ने
अम्मी-अब्बू से बिलकुल ही मुँह फेर लिया था। मंझली बेटी कभी-कभार आ जाती और
दवा-दारु का इंतज़ाम कर जाती। जमींदार मियाँ और जमदरायिन शहर की भाषा में कहें तो
हमारे इमीडियेट नेबर थे। छत से उनका आँगन-ओसारा साफ़ दिखता था। कब चूल्हा जला,
कब बुझा; कब बकरियाँ हाँकी गयीं, कब लौट के आयीं; कब मियाँ-बीबी की तू-तू, मैं-मैं हुई - सब आस-पड़ोस के लोगों को पता रहता,
मानों उन्हें किसी प्राइवेसी की दरकार न थी। कुछ साल पहले इंदिरा
आवास योजना में सरकार ने एक कमरा और टॉयलेट बनवा दिया था, लेकिन
मियाँ-मियाँयिन बकरियों के साथ फूस के पलान में ही पड़े रहते, चाहें जेठ की दुपहरी हो या माघ की किटकिटा देने वाली ठण्ड। बचपन में हम
बच्चों को जगाया भी जाता था तो मियाँ के घर के जिक्र से। “देखो!
उधर खाना भी बन गया और तुम लोग अभी भी बिस्तर में पड़े हो,” दादा
जी सुबह सुबह झिड़कियां देते।
मियाँयिन मुझे देख कर ठिठक गयी, “अरे बेटी तुम कब आयी? इतने दिनों बाद आयी हो तो कुछ
दिन रहोगी न? दामाद जी कहाँ हैं? नौकरी-चाकरी
तो सही चल रही? सास-ससुर कैसे हैं?” ऐसे
तमाम सवाल वह एक सांस में पूछ गयीं। निजता की सीमाओं के आडम्बर से परे कितना
अपनापन था इन सवालों में!
गाँव में अब ज्यादातर बड़े-बुजुर्ग ही रह गए थे।
हाँ! तीज त्यौहार पर बच्चे घर जरूर आ जाते थे कुछ दिनों के लिए। थोड़े दिन रौनक
रहती, फिर वही रीतापन। नयी पीढ़ी के लिए गाँव में करने को
कुछ ज्यादा था नहीं। कुछ लोग खेती-बाड़ी में लगे थे तो कुछ छोटी-मोटी दुकान चला कर
गुजारा कर रहे थे। कुछ सरकारी दफ्तरों में भी लगे हुए थे और कुछ सेना -पुलिस में
भर्ती हो गए थे। नौजवान अधिकत्तर शहर पकड़ चुके थे, कुछ
रोजगार के लिए तो कुछ पढ़ाई के लिए। उम्मीदों की इस जद्दोज़हद ने गाँव का हुलिया बदल
दिया था। मियाँटोली से लेकर कुर्मी टोले तक, चाहें मकान हों
या सड़क, कॉन्क्रीट ने हर तरफ कब्ज़ा जमा लिया था। कच्ची मिटटी
के मकान तो पुरातत्व का विषय बन चुके थे। पास के टाउन में कुछ इंग्लिश मीडियम
स्कूल भी खुल गए थे।
दिवाली दो दिन ही रह गयी थी। भरी दुपहरी में
मिटटी के दीये बेचने को कुम्हार आवाज़ लगा रहे थे। मनिहारिनें चूड़ियाँ बेच रही थीं।
साँझ ढलते ही नदी पार बाज़ार की रौनक के क्या कहने! अब गाँव और बाजार लगभग एक दूसरे
से मिल से गए थे। नदी के किनारे जो कभी मूँज का जंगल हुआ करते थे और जहाँ
भूत-पिचास का ऐसा डर कि चरवाहे साँझ ढलते ही झटपट रवाना हो जाने में भलाई समझते थे, नयी-नयी दुकानें, पेट्रोल पंप, आटा-चक्की और जाने क्या-क्या खुल गए थे। साँझ ढलते ही घाट के किनारे
चाट-पकौड़े जलेबी के ठेले सज जाते थे। इस रेलम-पेल से अबूझ नदी अब बूढ़ा चली थी।
चौड़ा पाट सिमट कर नाले की शक्ल अख्तियार कर चुका था। दूर-दूर तक रेत ही रेत। नदी
जो कभी उत्श्रृंखल, अल्हड़ मदमाती सी उछलती-कूदती बहती थी,
अब रुग्ण दम तोड़ती वृद्धा सरीखी इस पीढ़ी की दया-कृपा की मोहताज हो
चली। जगमगाती रोशनी से नहाये हाट-बाजार में नदी की चिंता भला किसे थी!
दादी बताती थीं कि लगभग तेरह साल की उम्र में जब
वो बहू बन के इस गाँव आयीं थीं तो नदी पर पुल नहीं था; पक्के घाट भी नहीं थे; बरसात में उफनती नदी गाँव को
छू कर निकल जाती थी पर जलपा मैया की कृपा ऐसी कि कभी बाढ़ की नौबत नहीं आयी। जन्म
से लेकर मरण तक व्याप्त, आस्था और समर्पण के इर्द-गिर्द
गुंथे, नदी और गाँव के रिश्ते से जुड़ी ऐसी और भी तमाम
कहानियों में तार्किकता की न तो आवश्यता थी, न ही जगह। नदी
गाँव की इस कहानी की किरदार भी थी और रंगमंच भी। नदी जो बदलते वक़्त की विटनेस भी
थी और विक्टिम भी!
दिवाली के बाद गोबर्धन पूजा और फिर शहर वापसी की
तैयारी। जैसा कहीं पढ़ा था - टाइम ग्रोज शार्ट। तीज-त्यौहार के बीच एक हफ्ता कैसे
निकल गया पता ही नहीं चला। अम्मा हर बार ही जिद करतीं, “छठ पूजा तक रुक क्यों नहीं जाती? दो-चार दिन की तो
और बात है।” उन्हें बड़े मुश्किल से समझा पाती कि छठ की
छुट्टियाँ युपी-बिहार से बाहर नहीं होतीं। वो समझती भी तो कैसे? उनका जीवन कैलेंडर के हिसाब से नहीं, व्रत-त्योहार
के माफिक बीता था, अब दिवाली फिर छठ-एकादसी-पूर्णमासी। ऐसे
साल दर साल बीतते जाते। अम्मा जैसे बेटी के आने की तैयारी में लगी थीं, वैसे ही बिदा करने की तैयारी में जुट गयीं। “अरे कुछ
भी तो नहीं रख रही,” ऐसा कहते कहते उन्होंने घी, अचार, पूरी-आलू, मिठाई के
डब्बे, नमकीन, अपनी पसंदीदा साड़ियाँ सब
करीने से दबा दबा कर पैक कर ही दिया। घर छोड़ते हुए जी भारी हो चला था। गाँव के इस
पुस्तैनी मकान की तरह अम्मा-पिताजी साल दर साल जर्जर होते जाते पर जिद्द पकड़ रखी
थी गाँव न छोड़ने की। चाहें कितना भी समझा लो उनका एक ही जबाब होता, “हम तो यहीं ठीक हैं।”
गाँव से पहले गोरखपुर, फिर गोरखपुर से
दिल्ली। कुल मिलाकर पूरे दिन अकेले ट्रैवल करने के ख्याल से मन और बोझिल हो रहा
था। वैसे तो गोरखपुर से दिल्ली के लिए हवाई उड़ान का समय दोपहर 12 बजे का था, लेकिन गाँव से गोरखपुर जाने के लिए
ट्रेन तड़के छह बजे छूटती थी। बाद में सिर्फ टैक्सी का ऑप्शन बचता था जिसके लिए
पिताजी कत्तई तैयार ना होते।
सुबह-सुबह गोरखपुर पहुँच कर चार-पाँच घंटे काटना
आसान न था। अब करती क्या? रेलवे स्टेशन की भींड़ को देखते हुए शहर घूमने का ख़याल
ही बेहतर लगा। मेरा गोरखपुर बहुत सालों बाद जाना हुआ था। एक रिक्शा किया और शहर का
चक्कर लगाने निकल पड़ी। शहर की फ़िज़ा लगभग वही पुरानी। कुछ ब्रांडेड शॉप, अंडरपास और फ्लाईओवर के अलावा ज्यादा कुछ नहीं बदला था शहर में। हाँ, गाड़ियों की चिल्ल-पों जरूर बढ़ गयी थी। यूनिवर्सिटी के बाहर थोड़ा समय बिताने के बाद
एक चाय की दुकान पर तसल्ली से बैठ कर आने जाने वालों को देखती रही। सुबह का वक़्त
काटे नहीं कट रहा था।
चाय की दुकान क्या थी, अमर्त्य सेन के 'आर्गुमेंटेटिव इंडियन' की जीती जागती मिशाल थी। क्या चुनाव, क्या लोकतंत्र,
क्या अर्थव्यवस्था - सबके एक्सपर्ट यहाँ जोर शोर से चर्चा में लीन थे।
रिक्शे वाले भैया से बात-चीत के दौरान पता चला कि वे मेरे गाँव के पास के ही गाँव
से थे। खेती-बाड़ी गुजर-बसर के लिए बराबर नहीं पड़ रही थी, सो
बरसों पहले शहर आकर रिक्शा चलाने लगे थे। मैंने बात ही बात में पूछ लिया, “भैया गोरखपुर तो थोड़ा बदल सा ही गया है?” भैया ने
बेपरवाही से अपने सर पर हाथ फेरा और कहने लगे, “मैडम,
कुछ ख़ास तो नहीं, हाँ सड़के थोड़ी चौड़ी कर दी
हैं; और देखिए न सड़क के बीचों-बीच में ताड़ का पेड़ लगा दिया
है।” भैया ने सड़क के किनारे एवं बीच में लगे पॉम के सजावटी
पेड़ की तरफ इशारा करते हुए कहा, “अरे नीम होता तो दातुन भी
करते और सुस्ताते भी। यह ताड़ का पेड़ तो किसी काम का नहीं। चिड़िया भी नहीं बैठती इस
पर; और तो और किसी मोटर साइकिल सवार के सर पर इसके पत्ते गिर
जाएँ तो एक्सीडेंट ही हो जाए।” शहर के नए कलेवर से दुखी
रिक्शे वाले भैया बोलते ही गए, “अरे मैडम, ठेकेदार ने बहुत पैसे बनाएं हैं एह पेड़ लगाने में, पहली
बार तो यह पेड़ सूख ही गए थे, दुबारा से लगे हैं।” मैंने भैया की तरफ देखते हुए धीरे से हामी भरी। वक़्त वक़्त की बात थी,
शहर जो नीम, आम, जामुन,
पीपल, बरगद, पाकड़,
गौरैया, कौवा, कठफोड़वा,
मैना, तोता सबका हुआ करता था, वहाँ अब पॉम का बोलबाला था।
थोड़ी देर और तफरी करने के बाद मैंने सोचा क्यों न
एयरपोर्ट ही जा कर बैठा जाए। एयरपोर्ट पर भी काफी भीड़ होने का अंदेशा था, सो टैक्सी ले कर मैं छावनी की तरफ चल पड़ी। घडी की तरफ देखा तो अभी साढ़े नौ
ही बजे थे। समय काटना मुश्किल हो रहा था, दिन भी चढ़ने लगा था,
थोड़ी भूख भी लग आयी थी। टैक्सी में बैठे-बैठे मैंने अम्मा की पैक की
हुई पूरी-आलू ख़तम की। एक अजीब सी ऊबन हो रही थी मुझे, बोरियत
और निराशा से माहौल बोझिल सा हो रहा था। कुछ समय के लिए चुप्पी साधे आँखे बंद किये
बैठी रही कैब में। इतने में टैक्सी वाले भैया की आवाज सुनाई थी, "मैडम आ गया एयरपोर्ट"। मेरा छोटा सा स्ट्रॉली बैग उठा कर उन्होंने
सड़क के किनारे रख दिया और मुस्कुराते हुए विदा ली।
एयरपोर्ट का माहौल कुछ अलग ही था। छावनी के बाहर
सुरक्षा बलों की ऐसी भारी तैनाती थी मानों कोई युद्ध क्षेत्र हो। एक जवान मेरे पास
आ कर बोला, “मैडम एयरपोर्ट का गेट अगला है, यह छावनी का गेट है”। सॉरी कहते हुए मैं अगले गेट की
तरफ बढ़ गयी। एक बड़े से बरगद के पेड़ के नीचे सुरक्षाकर्मी टिकट चेक करे थे साथ ही बानरों की सेना उधम मचाये हुई थी। एयरपोर्ट का ऐसा दृश्य मैंने
पहले कभी नहीं देखा था, आपाधापी मची थी। एक छोटा बन्दर मेरी
तरफ लपका पानी का बोतल छीनने को; मैंने गॉर्ड को आवाज़ लगाई।
गॉर्ड भैया बन्दर भागने के बजाय मुस्कुराते हुए आगे बढे, "अरे मैडम, इनकी कोई खेती बाड़ी तो है नहीं, हमारा-आपका दिया हुआ ही तो खायेगें; दे दीजिये ना
कुछ हो तो इनको"। जैसे तैसे वहाँ से आगे निकली तो लाउंज एरिया में हज़ारों लोग
सिक्योरिटी चेक के लिए खड़े थे। एयरलाइन्स स्टाफ कतार लगवाने को जद्दोजहद कर रहा
था। बड़ी मुश्किल से एक सवा घंटे में मैंने सिक्योरिटी चेक कम्पलीट की तथा बोर्डिंग
का इंतज़ार करने लगी। बैठने की कोई जगह नहीं थी; पैसेंजर
ट्रैन की बोगी की तरह लाउन्ज खचाखच भरा था। थोड़ी देर में बोर्डिंग शुरू हो गयी और
मैंने चैन की साँस ली, चलो अब कम से कम बैठने को तो मिलेगा।
अपनी सीट पर बैठ कर आँखें बंद कर गहरी सांस लेते
हुए मैंने खुद को समेटने की कोशिश की। आगे या पीछे वाली सीट से अचार पराठे और
मिठाई की खुशबू आ रही थी। घर की याद कुछ ज्यादा ही आ रही थी; व्यग्रता थकान में तब्दील हो चुकी थी; आँख लगने ही
वाली थी तभी एक आवाज़ आयी, "एक्सक्यूज़ मी।" विंडो
सीट पर एक झक सफ़ेद टोपी लगाए सफ़ेद कुरता पजामा पहने सज्जन आ कर बैठ गए। थोड़े
परेशान-हैरान से वे अपने हैंड बैग में कुछ ढूढ़ रहे थे साथ ही साथ फ़ोन पर किसी से
बात भी किये जा रहे थे। उर्दू के लफ्ज़ और लहज़े, बार बार सऊदी
का जिक्र, सफ़ेद टोपी, घनी काली दाढ़ी।
मैं पता नहीं क्यों असहज महसूस करने लगी थी। मैंने हाल ही में मैंने ‘फैमिली मैन’ सीजन वन देख रखी थी, मूसा का किरदार अचानक ही मेरे जेहन में कौंध गया!
नींद कहीं गायब हो गयी थी। मेरी ज्ञानेन्द्रियाँ
उस महाशय पर केंद्रित हो गयी थीं। मैं अपने रोक नहीं पायी और पूछ लिया, “ज़नाब आप कहाँ जा रहे हैं, क्या करते हैं ?” बातचीत से पता चला कि वह ज़नाब गल्फ में दर्जी का काम करते थे तथा
छुट्टियाँ मना कर वापस सऊदी जा रहे थे। “आप बहुत परेशान लग
रहे हैं।” मैंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा। महाशय मायूसी से
बोले, “देखिये न, घर से अचार लाया था;
गलती से बैग केबिन में रख दिया था; सिक्योरिटी
वालों ने निकाल कर फ़ेंक दिया; पूरे साल चल जाता; पता होता तो बड़े सूटकेस में ही रख दिया होता।”
संशय की जगह ग्लानि ने ले ली थी - सोच रही थी, खामखां भले आदमी पर शक किया! फ्लाइट
रनवे पर दौड़ने लगी थी। जमदराईन के बेपरवाह आत्मीय सवाल एक बार फिर मन में कौंध से
गए।
असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर
98997 80540
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
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