07 जुलाई 1929 को डूंडलोद राजघराने में जन्मे रणवीर सिंह का हाल ही में 93 वर्ष की आयु में 23 अगस्त 2022 को निधन हो गया। रणवीर सिंह प्रतिबद्ध रंगकर्मी थे और जन नाट्य संघ से इनकी प्रतिबद्धता आजीवन बनी रही। राजस्थान में आधुनिक रंगमंच के पुरोधाओं में से एक रणवीर सिंह जी ने राजस्थान में पारसी नाटक की यात्रा को सहेजने व विश्लेषित करने का महत्वपूर्ण कार्य भी किया। अपने अंतिम दिनों में भी वे अध्ययन के समन्दर में गोते लगाकर कोई मोती खोज लाने के लिए प्रयास रत थे। जून 2022 में शोधार्थी बलदेवा राम ने राजस्थान के रंगमंच के संदर्भ में रणवीर सिंह जी से लम्बी बातचीत की। प्रस्तुत है उस बातचीत के कुछ अंश .....
जब रामप्रकाश थियेटर को बंद कर सिनेमा हॉल बना दिया गया उसके बाद कोई भी पारसी थियेटर जयपुर में नहीं हुआ। कोई दो-चार आदमी इधर-उधर रह गए, उन्होंने कुछ कर लिया हो, वह अलग बात है। लेकिन जो आंदोलन होना चाहिए था, पेशेवर रूप में नाटक होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। मेरे लिए यह कहना बड़ी बात है कि 1953 में सबसे पहला थिएटर ग्रुप मैंने बनाया था, जयपुर थियेटर ग्रुप। इससे पहले कोई नहीं था, यह एमेच्योर थिएटर ग्रुप था। यह मॉडर्न थिएटर ग्रुप था, उसमें हमने कुछ अंग्रेजी के नाटक किए और बाद में हिंदी के भी। हालांकि बीच में मैं इलाहाबाद चला गया और वहाँ से लौटकर आया तो यह ग्रुप इतना संगठित न रह गया था, लेकिन मैंने इतना तय कर लिया था कि मैं नौकरी वगैरह नहीं करूँगा, जीवन भर थियेटर में ही काम करूँगा। एक जमाना आया था जब पारसी थियेटर खत्म हुआ, उसके बाद अगर कहीं हिंदी का थिएटर रहा तो अधिकतर रेडियो में रहा। यूँ कह सकते है कि जयपुर का थियेटर भी रेडियो से विकसित हुआ। यह तब की बात है जब गंगा प्रसाद जी ने रेडियो स्टेशन में काम करना शुरू किया, बल्कि उसके पहले यहाँ रेडियो नाटक शुरू हो गया था।
आप लम्बे समय तक भारतीय नाट्य संघ से भी जुड़े रहे। आपकी रंग-यात्रा के उस महत्वपूर्ण हिस्से के बारे में कुछ बताइये।
1959 में मैं दिल्ली चला गया और वहाँ मैंने कुछ समय के लिए ‘यात्रिक’ में भी काम किया। दिल्ली में भारतीय नाट्य संघ बना था जिसमें चेयरमैन कमलादेवी चट्टोपाध्याय थी। मैंने उनके साथ काम किया, तब मुझे मालूम हुआ कि थिएटर किस तरह काम करता है, हालांकि वहाँ अभिनय और निर्देशन मेरे से छूटता गया। भारतीय नाट्य संघ इसलिए बना कि जब पचास के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी को बैन किया तब इप्टा (इंडियन पिपुल्स थिएटर एसोसिएशन) बैन हुई। हालाँकि विशेष रूप से इप्टा को बैन नहीं किया गया था, क्योंकि पार्टी के सारे यूनिट्स थे, वो सभी बैन हो गए थे। तब कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने इप्टा के ‘जन’ को हटाकर भारतीय नाट्य संघ बनाया। भारतीय नाट्य संघ पूरे हिंदुस्तान के अंदर फैल गया था। मगर इप्टा प्रोफेशनल था और सब लोग एक ढंग से काम करते थे और सभी विचारधारा से जुड़े हुए थे, वह बात अब खत्म हो गई थी। वहाँ एमेच्योर थिएटर आ गए थे तो भारतीय नाट्य संघ के अंदर प्रोफेशनलिज्म नहीं रहा और विचारधारा भी नहीं रही थी।
आपने
इप्टा और जन नाट्य संघ का दौर देखा है, क्या उस समय से ही नाटकों के प्रदर्शन के
लिए सरकारी सहायता मिला करती थी? वर्तमान परिदृश्य में सरकारी अनुदान पर रंगमंच की
निर्भरता के सम्बन्ध में आप क्या सोचते हैं? यह कितना आवश्यक है अथवा अनावश्यक ?
असल में सरकारी अनुदान नाटक में कुछ अलग ही तरह से शुरू हुआ। सरकार की तरफ से कुछ गलतियाँ हुई। सन 1954 या उसके बाद जब नेहरू जी ने अकादमियाँ गठित की तो उनका आईडिया था कि इन अकादमियों में कला एवं संस्कृति से सम्बन्धित अकादमिक कार्य होंगे और इनकी बागडोर भी ऐसे ही लोगों के हाथों में होगी। आप देखिए कि साहित्य अकादमी के चेयरमेन नेहरू स्वयं बने थे, उसके बाद उन्होंने श्री राधाकृष्णन जी को चेयरमैन बनाया और कृपलानी साहब को जॉइंट सेक्रेटरी बनाया। लेकिन इन संस्थाओं का संविधान तो ब्यूरोक्रेट ने लिखा, बाद में चेयरमेन मंत्री बन गए और सचिव नौकरशाह, यह हुआ। अकादमियों के सचिव कला एवं साहित्य के सम्बन्ध में रूचि या ज्ञान नहीं रखते थे तो उन्होंने हमारे जैसे लोग, जो काम कर रहे थे, उनसे कहा कि हम तुम्हें अनुदान देते हैं, तुम अकादमी का काम कर दो, कोई नाटक कर दो, तो यह जो अनुदान का जहरीला काम है, वह यहाँ से शुरू हुआ और आज चरम सीमा पर पहुंच गया। अगर आज सरकार मतलब केंद्रीय सरकार और राज्य सरकार अनुदान बंद कर दे अधिकांश शौकिया थिएटर बंद हो जायेगा। यह सारा थियेटर है, वह अनुदान का थिएटर है। इनके पास ना कोई मकसद है, तथा ना कोई नाटक है, इसी अनुदान के चलते धीरे-धीरे नाट्य समूहों की संख्या में भी भारी इजाफा हुआ।
आपने रंग प्रशासक के साथ-साथ नाटककार की भूमिका के रूप में भी राजस्थान के रंगमंच को समृद्ध किया है। एक नाटककार और नाट्य निर्देशक में सच्चा सृजक कौन है? आलेख और प्रस्तुतिकरण के अंतर्संबंध को आप किस तरह देखते हैं?
पहली बात तो ये है कि आपको ऐसे नाटककार कम मिलेंगे जिनको थियेटर के सम्बन्ध में पूरी जानकारी होती है। नाटककार थियेटर वालों के साथ बैठते ही नहीं। ज्यादातर हिंदी लेखक नाटक इसलिए लिखते हैं कि उन्होंने कविता भी की है, उपन्यास भी लिखा है। वह नाटक छप जाता है और हमारे पास आता है तो उसमें बहुत जबरदस्त काट-छांट करनी पड़ती है। ‘अँधा युग’ एक रेडियो नाटक के रूप में लिखा गया था। यह रेडियो डायरेक्टर गोपाल दास जी के द्वारा लिखवाया गया था, अलाहाबाद रेडियो में रोजाना धर्मवीर भारती जी उनके साथ बैठते थे, रोज परिवर्तन करते थे, आज भी वह रेडियो नाटक ही है। भीष्म साहनी ने ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ एम.के.रैना के साथ बैठकर लिखा। मैंने स्वयं कुछ नाटक इसी तरह लिखे। जब तक आप डायरेक्टर के साथ नहीं बैठेंगे तब तक थियेटर के लिए बेहतर आलेख नहीं लिख पायेंगे। कई नाटक तो ऐसे होते है जिन्हें हम खेल ही नहीं सकते और दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि यही नाटक जो खेले नहीं जा सकते हैं, उन्हीं नाटकों को आप(साक्षात्कार कर्ता से) कोर्सेज में पढ़ाते हैं। नाटक को कोरे व्याख्यान के साथ कभी नहीं पढ़ाया जाना चाहिए। नाटक लेखन एक बहुत तकलीफ की चीज है, सबसे बड़ा मुश्किल काम साहित्य में अगर है तो वह है नाटक लिखना। सबसे आसान काम होता है कविता लिखना, आप देखोगे किसी भी देश में, किसी भी युग के विवेचन में सबसे पहले कविता आती है, उपन्यास आते हैं, फिर कहानी, नाटक बहुत बाद में आता है।
दूसरा
यह कि किसी आलेख को लेकर प्रत्येक नाट्य निर्देशक की अपनी दृष्टि होती है, उसमें
वह स्वतंत्र होता है और होना चाहिए। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास मल्लिका के लिए
लौटकर आता है और पाता है कि मल्लिका का विवाह विलोम से हो गया है। अब कालिदास जब
मल्लिका के घर से वापस निकलता है तब उसकी मनःस्थिति क्या होगी, यह निर्देशक की
अपनी दृष्टि है, यह नहीं है कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ जैसा आपने मंचित किया है वैसे ही
मैं भी कर दूँ। आज कोई बड़ा नाटककार नहीं है। हर आदमी नाटक लिख लेता है और यह बात
सही थी कि अगर असल में तुम्हारे पास कोई नाटककार नहीं है तो तुम कहानियों में रंगमंच
की संभावना देख लो, तो उसके बाद कहानियों का थिएटर आ गया और कहानियों का थिएटर
इतना जबरदस्त आया कि उसमें नाटककार की जरूरत ही नहीं। कहानियाँ उठाई, इधर-उधर किया
और नाटक तैयार कर दिया। उसमें एक नुकसान होता है, जब आप कहानी लेते हैं, उस पर आप
थिएटर के लिए काम करना चाहते हैं, उसमें काट-छांट, जोड़-तोड़ बहुत करनी पड़ती है।
असेंबल करना पड़ता है, तो असेंबलिंग के चक्कर में जो स्टोरी राइटर ने लिखा है अगर वह
खत्म हो गया तो मुश्किल होती है।
अभी अभी
आपकी पुस्तक प्रकाशित हुई है ‘पारसी थियेटर’। आपने जब नाटक शुरू किया तब पारसी
थियेटर की मंडलियाँ राजस्थान में मनोरंजक नाटक किया करती थी। राजस्थान में पारसी
नाटकों के अवसान और आधुनिक नाटक के प्रारम्भ को लेकर क्या कोई सीमा रेखा खिंची जा
सकती है ?
राजस्थान में पारसी थियेटर बहुतायत रूप में तो 1940 तक रहा। बीकानेर और जोधपुर में थिएटर बने हुए थे और बाकी जो कंपनियाँ थी, वहाँ खेलती थी। सन 1940 के आसपास पूरा पारसी थिएटर ही खत्म हो गया। यह थियेटर अपनी शुरुआत में बहुत बड़ा आंदोलन बन गया था क्योंकि 1906 से लेकर1947 तक के दौर में अंग्रेजो के खिलाफ आवाज उठाने वाले अलग-अलग तरीके से नाटक हुए। बीच-बीच में में गीत भी डाल दिए या अन्य मनोरंजन सामग्री भी डाल दी लेकिन असल में यह पॉलिटिकल आंदोलन बन रहा था। इसी वजह से इसके ऊपर सेंसरशिप भी लगी और धीरे-धीरे उसके बाद उसे बंद करने की बातें हुई और पारसी कम्पनियों को अपने सेट लगाने की परमिसन मिलनी बंद हो गयी। फिर थोड़ी सी फिल्में आ गई, पारसी थियेटर में काम करने वाले कलाकारों को फिल्मों में बड़ी आसानी से काम मिला, तो बहुत से कलाकार सिनेमा में चले गए। थियेटर हॉल थे वे सिनेमा हॉल बन गए।
आपके कहने का तात्पर्य यह है कि पारसी नाटक कोरे मनोरंजक नाटक न होकर सोद्देश्य हुआ करते थे .....
आप देखिए कि मैंने अपनी पुस्तक ‘पारसी थिएटर’ में इन सब बातों पर
ध्यान दिया है। पारसी थिएटर के हर नाटक में अंग्रेजो के खिलाफ प्रतिक्रिया थी। आजादी
को लेकर, जातिवाद को लेकर इन नाटकों में गीत लिखे जाते थे और उन गीतों को जब लोग
गाते चले जाते थे, समाज में वे विस्तार पाते तो वह एक आंदोलन बनता था। आज कोई भी
आदमी इस तरह की बात नहीं करता, असल और सीधी बात है कि लोग डरे हुए हैं। बेवजह या कोई
वजह है, यह मैं नहीं कह सकता परंतु सब लोग डरे हुए हैं। अब जब तक आप थिएटर को समाज
से नहीं जोड़ोगे, समाज का मनोरंजन अच्छे तरीके से नहीं कर पाएँगे। आप गीत लिखिए,
कुछ भी करिए, आपकी जो शिक्षा है, वह भी दीजिए। थियेटर की सबसे बड़ी मुश्किल यही है
कि मनोरंजन भी करना है और शिक्षा भी देनी है। इनका जो मिलन है वह आप जब तक बराबर
नहीं करोगे तब तक थिएटर काम नहीं करेगा। आप ने थिएटर में प्रवचन कर दिया तब भी कोई
नहीं आएगा, कोई भी नाटक नहीं देखेगा। कोरा मनोरंजन कर दोगे तो दर्शक नाटक देख तो
लेगा लेकिन देखकर भूल जाएगा। थियेटर का मकसद है कि दर्शक के मन में सवाल उठना
चाहिए। यह कहना कि थिएटर समाज बदल देगा या हम बदल देंगे, यह सब कहने की बातें हैं
लेकिन समाज को बताना पड़ेगा कि आज जो गलतियाँ हो रही है, वह यहाँ हो रही है, इससे
बचके तुमको रहना है, यह पुराने नाटकों में था।
जब आप पुराने नाटकों की सोद्देश्यता और विचारधारा की बात कह रहे हैं तो ऐसे में आप वर्तमान थियेटर को कैसे देखते हैं?
मैं पचास के दशक से लेकर.............. असल में मैं पूरे हिंदी थिएटर पर काम कर रहा हूँ, और मुझे लगता है कि सत्तर के दशक तक यह अपने चरम पर था। सत्तर के बाद धीरे-धीरे बर्बादी आई और इस बर्बादी में कई चीजें हैं। पहली बात तो यह हुई कि सत्तर तक एक दिशा जो थी, विचारधारा से बंधी हुई थी। उस ज़माने में करीब-करीब थिएटर की विचारधारा लेफ्ट साइड पर थी। उस वक्त नाटक बड़े अच्छे लिखे जा रहे थे। फोर्ड फाउंडेशन अमेरिका ने एक साजिश के तौर पर एक काम किया। आज की जो लोक प्रथा है, उन लोक नाटकों में से आफ एलिमेंट्स लीजिए और मॉडर्न नाटकों में डालिए, इससे आप का नाटक मशहूर हो जाएगा। यह सुनने में बहुत अच्छा लगता है किन्तु उस पर थोड़ा विचार से बात करेंगे तब आपको समझ आएगी कि लोकनाट्य जो है उसमें मनोरंजन ही अधिक है और वो एक ही चीज वर्षों घूमती रहती है। हम दो-चार लोगों ने इस साजिश का विरोध किया लेकिन वह विरोध किसी भी काम में आया नहीं, शुरुआत संगीत के लेन-देन से हुई लेकिन इस घटना ने नाटक की विचारधारा का भारी नुकसान किया। थिएटर का नाटक लिखा जा रहा था वो खत्म हो गया। फोर्ड फाउंडेशन चाहता था कि नाटक ख़राब हो, ये जो चीज हुई, इससे बहुत बड़ा नुकसान हुआ कि आज तक थिएटर सुधर नहीं सका।
आपने इतने व्यस्त होने
के बाद भी बातचीत के लिए इतना समय दिया, बहुत बहुत धन्यवाद |
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