- शैलेश यादव
शोध सार : भारत में संवैधानिक रूप से जनजाति कही जाने वाली आदिवासी सभ्यता के जीवन मूल्य आज भी महान है। भारत में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श की तरह ही आदिवासी विमर्श भी अपनी अस्मिता की लड़ाई के लिए शुरू हुई। जल, जंगल, जमीन- आदिवासी अपनी इसी पहचान और इनसे जुड़ी हुई परंपरा और अपनी इस धरोहर की रक्षा-संरक्षण हेतु जन आंदोलन और साहित्यिक विमर्श की तरफ मुड़े। अन्य लेखन की तरह ही आदिवासी साहित्य सृजन में स्त्री लेखिकाओं ने अपनी आवाज, अपने अनुभव संघर्ष और अपनी वैचारिक दृष्टि को सामने रखने के लिए कलम का सहारा लिया। इसी कड़ी में आदिवासी कथा लेखिकाओं का विषय आदिवासी समुदायों के आदिवासी जीवन दर्शन को बचाने तथा इनके समाज में व्याप्त अंधविश्वासों, गलत परंपराओं से मुक्त करने का है। साथ ही साथ इनके कथा साहित्य में प्रकृति के दोहन एवं संपत्ति संग्रहण वादी विकास के मॉडल से आदिवासी समाज का शोषण और विस्थापन की पीड़ा सर्वत्र व्याप्त है। आदिवासी महिला कथाकारों के सृजन संसार में न केवल आदिवासी अस्मिता की बात आती है बल्कि आदिवासी अस्मिता के बीच यहाँ भी स्त्री अस्मिता की पहचान का प्रश्न बराबर कुरेदता है। इस दृष्टि से ही आदिवासी महिला कथाकारों का लेखन और अधिक प्रासंगिक हो जाता है। आदिवासी कथाओं में आदिवासी समस्याओं को हिंदी में लेखन के माध्यम साहित्य में रखने वाली प्रमुख लेखिकाएँ एलिस एक्का, रोज केरकेट्टा बिजोया सावियान, जोराम यालाम,तथा प्रीती मुर्मू आदि हैं।
बीज
शब्द : आदिवासी विमर्श,
आदिवासी समाज, जंगल, समुदाय,
दीकू, मानवीय मूल्य, सभ्यता,
संस्कृति, कथा लेखिकाएँ, विकास, औद्योगीकरण, नगरीय
सभ्यता, आदिवासी कथा साहित्य, जनजाजियाँ,
कहानियाँ, रीति-रिवाज, परंपरा,
आदिवासी, स्त्री विमर्श, पुरुष सत्ता, विस्थापन, इलाज,
बिमारी, आत्महत्या, भ्रूण
हत्या, प्रकृति समस्या।
मूल
आलेख : भारत में आदिवासियों के कई समुदाय व
क्षेत्र पाए जाते हैं। संवैधानिक रूप से इन्हें जनजाति सामान्य रूप से आदिवासी,
गिरिजन, जंगल वासी व अंग्रेजी में ट्राइब नाम
से जाना जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ जनजातियों को ‘इंडिजीनस
पीपुल्स’ यानी ‘स्वदेश लोग’ कहती है। ये आदिवासी लोग प्रकृति के बीच रहना अधिक पसंद करते हैं।
दुर्भाग्यवश खनिज आदि संपदा होने के कारण इन्हें इस वैश्वीकरण के दौर में वहाँ से
भी खदेड़ा जा रहा है। वैसे तो "प्राचीन काल में इनका भूमि पर अधिकार था परंतु
धीरे-धीरे आधुनिक सभ्यता ने उन्हें केवल वनवासी भ्रमणक जैसा ही बना दिया तथा इनके
भूमि संबंधी अधिकार को छीन लिया।"[1]
इन्होंने पारिस्थितिकीय तंत्र के अनुरूप ही अपनी जीवन शैली विकसित की है। आदिवासियों
ने अलग-अलग समुदाय, अलग-अलग सामाजिक, सांस्कृतिक
रूप से जीवन जीना प्रारंभ किया इसलिए इनके रीति-रिवाज सामाजिक संरचना व जीवन मूल्य
अलग-अलग होते हुए भी मानवता के हित में हैं, प्रकृति के हित
में हैं। आधुनिक सभ्यता विकास के नाम पर इसे नष्ट करती जा रही है। आदिवासियों को हाशिये
पर धकेल दिया गया है। आज आदिवासी अपनी परंपरा, संस्कृति और
सामाजिक मूल्यों को बचाने की कोशिश में लगा हुआ है। इन आदिवासियों से मूल्यों और
प्रकृति की बनाई हुई चीजों को बिना क्षति पहुँचाए आनन्दित जीवन की कला को सीख लेने
की जरूरत पूरी मानव सभ्यता को है। आदिवासी समाज में पुरुष के साथ-साथ महिलाओं की
भूमिका लगभग समानता की है। वे भी आदिवासी जीवन मूल्यों को अपनी सृजन शक्ति के
माध्यम से संजोए रखना चाहती हैं। आदिवासी लेखिकाएँ आदिवासी के प्रकृति प्रेम,
सुखित जीवन को विकासवादी सभ्यताओं तक पहुँचाने के लिए कथा के माध्यम
से लोगों के सामने लाती है। इनके कथा साहित्य में एक तरफ शोषण, पलायन, विस्थापन, आदिवासी
अस्मिता को बचाए रखने का दर्द है तो दूसरी तरफ इनसे पार पाने के लिए संघर्ष व
आंदोलन भी है। ये कथा लेखिकाएँ आदिवासी महिलाओं की समस्याओं को उजागर करने के साथ
ही साथ सामाजिक और नैतिक मूल्यों को भी बचाए रखने के लिए कथा के माध्यम से
प्रयासरत हैं। इस विकास के नाम पर ह्रास होती परंपरा के बारे में बताना तथा
अंधविश्वासों से मुक्ति भी इनके कथा साहित्य का ध्येय है। उक्त सभी मूल्यों और
विकास को इनकी कहानियों के माध्यम से पड़ताल करने की कोशिश करेंगे। विभिन्न आदिवासी
समुदाय व क्षेत्रों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक समानता-विविधता पर भी विचार करने की
कोशिश करेंगे।
आदिवासी
महिलाओं की कहानियों में प्रकृति का एकाकार रूप प्रतिबिंबित होता है। हर दृष्टि
में प्रकृति और आदिवासी बस्ती की शोभा मनोरम एवं दर्शनीय है। आदिवासियों की तरह ही
आस-पास पेड़-पौधे, जीव-जंतु भी
प्रकृति का एक हिस्सा हैं। अपनी मनोरम छटा के आगोश में प्रकृति आदिवासी रूपी शिशु
को पाल रही है। आदिवासी यह भली-भाँति जानते हैं कि प्रकृति ही हमारा जीवन है,
प्रकृति नहीं तो जीवन की कल्पना भी नहीं। हर आदिवासी समुदाय की
कहानियों में प्रकृति की सुलभ मनोहर छटा दिखाई देती है। झारखण्ड के सारंगा के जंगल
हो या अरुणाचल प्रदेश के जंगलों के वृक्ष सभी को कथा साहित्य के अलग-अलग रूपों व
शब्दों में उसके घनत्व तथा महत्व को उल्लेखित किया गया है। हर जगह आदिवासियों के
जीवन का आधार भी जंगल ही है। वन/जंगल जैसा सीधा एवं सरल स्वभाव आदिवासियों का भी
होता है। एलिस एक्का की ‘वन कन्या’ कहानी
में वन कन्यायें एक बाहरी समाज के घायल व्यक्ति की सेवा-सूश्रूषा वनों की औषधियों
से ही करती हैं। ठीक होने पर वह व्यक्ति इन जंगल वासियों के प्रति अविभूत हो जाता
है और जंगल छोड़ते समय उसकी आँखे आर्द्र हो जाती हैं। इन जंगलों में गर्मी की तपती दुपहरी
में भी शीतलता और अंधेरा रहता है। जंगल प्राकृतिक जीव-जंतु सभी आदिवासियों के सहचर
नजर आते हैं। झारखण्ड की आदिवासी लेखिका एलिस एक्का का एक सुक्ष्म निरीक्षण
द्रष्टव्य है- ‘‘पेड़ वहाँ इतने ऊँचे, ऐसे
छतनार कि सूरज की किरणें भी जंगल की धरती पर नहीं पहुँच पाती। सर्वत्र शांति और
शीतलता विराजती है। जंगली जानवरों, साँप बिच्छुओं और
कीड़े-मकोड़ों का सुखद वास स्थान। वहाँ झींगुर की झनकार, पक्षियों
की काकल, पत्तियों की चुरमुराहट और खड़खड़ाहट, हवा की सरसराहट और साँय-साँय। एक ओर नदी अपनी कलकल ध्वनि के साथ बहती जाती
है।’’[2] झारखण्ड
की प्रकृति को विभिन्न बाँध परियोजनाओं एवं कोयला उत्खनन आदि के कारण बहुत नुकसान
हुआ है। जिस जंगल में दिन में भी ठंडा व अंधेरा रहता था, जहाँ लोग जाने से डरते थे, वहाँ आजकल कारखनों के कारण वृक्ष विहीन
मैदान, नंगी चोटी, कानफाड़ू आवाज ही बच
पाई है।
आदिवासी लेखिकाओं की हर कहानी में प्रकृति किसी न किसी रूप में मौजूद है। प्राकृतिक जीव-जंतु के संरक्षण की बात रोज केरकेट्टा के ‘फिक्स डिपॉजिट’, ‘मैंग्नोलिया प्वांइट’, सेरिङ छेरोल की ‘अखरोट की दरख्त’ कहानी में विशेष रूप से उठाई गई है। जितना प्रकृति का संरक्षण का भाव कश्मीर की लेखिका सेरिङ छेरोल में मिलता है उतना संरक्षण का भाव पूर्वोत्तर की कहानियों और मध्य भारत की लेखिकाओं की कहानियों में नहीं दिखाई देता है। ‘अखरोट के दरख्त’ कहानी में प्रकृति की कोमलता, अखरोट के पेड़ से दोस्ती या कह लें मानवीय रूप को दिखाया गया है। इस कहानी में विकास के नाम पर सड़क बनने के कारण अखरोट के पेड़ को काट दिया जाता है और उस बच्ची की भी मौत उसी समय हो जाती है। ‘संगीत प्रेम ने प्राण लिए’, ‘कोयल की लाडली सुमरी’ कहानी में एलिस जी ने बहुत ही अच्छे से जंगलों का वर्णन किया है। हांलाकि प्रकृति कभी-कभी घातक हो जाती है। जैसे उषा किरण अत्राम की ‘भूख’ कहानी में बच्चे बाढ़ के कारण भूख-भूख करते मर जाते हैं। रोज की कहानी ‘दुनिया रंग रंगीली रे बाबा’ में आँधी-तूफान के कारण एक फौजी मर जाता है। मंमग देई की ‘देवों की वर्षा भूमि’ में बाढ़ दिखाया गया है, लेकिन किसी भी कहानी में प्रकृति को दोषी नहीं ठहराया गया है। प्रकृति को कोसना अकाल, सूखा की मार सहते एलिस जी ने अपनी कहानी ‘धरती लहरायेगी झालो नाचेगी’ में भी नहीं दिखाया है। आदिवासी प्रकृति पर निर्भर है, प्रकृति भी आदिवासियों और सभी लोगों से संरक्षण मांगती है।
आदिवासियों
के शोषण का रूप कमोबेश एक समान होता है चाहे वह मध्य भारत का आदिवासी हो या
उत्तर-पूर्व का या फिर पश्चिम भारत का आदिवासी हो। विकास के नाम पर आदिवासी
किसानों की जमींन छीन कर उन्हें बेघर व मजदूर आदि बना दिया जाता है। ऐसे में एक
कमाता-खाता किसान भी अपनी परंपरा, रीति-रिवाज
छोड़कर अभाव ग्रस्तता का जीवन जीने के मजबूर हो जाता है। रोज केरकेट्टा की कहानी ‘फिक्स डिपॉजिट’ इसका सटीक उदाहरण प्रस्तुत करती है।
मनोहर दा एक संपन्न एवं सम्मानित किसान थे। उनका घर धन-धान्य से भरा रहता था तथा
वे पर्व-त्योहार पर दूसरों के यहाँ भी पहुँचाया करते थे, लेकिन बाँध बनने के नाम पर
उनकी जमीने चली गईं। वे बेघर हो गए। जहाँ पूरा गाँव मिलकर उत्सव, त्योहार आदि मनाया करते थे, वहाँ आज वीरानगी फैली
है। संस्कृति तो नष्ट हुई ही साथ में ही बच्चे नशाखोरी व गलत आदतों की तरफ आकर्षित
होते चले गए। उनकी मानवता यहाँ तक चली गई कि वे अपने ही माँ-बाप को मार-मार कर मार
ही डालते हैं। सभी रीति-रिवाज व परंपरा नष्ट हो गई। तिरपन घरों में केवल सात घर रह
गया हैं। ‘‘गाँव में कौन रह गया है? और
अब खेती-बारी है नहीं सब कुली कबाड़ी हैं सबके जवान बेटे मतवार हैं। कौन किसको
बोलेगा।’’[3] रोज
की इस कहानी के अलावा अन्य आदिवासी लेखिकाओं की कलम मौन है। यह कहानी ही आदिवासी
विस्थापन की समस्या के मर्म को उजागर करने के लिए काफी है। रमेश चन्द्र मीणा ने
इसे अमानवीय कृत्य करार दिया है- ‘‘किसी मूलवासी को उसकी
जमीन से उखाड़ कर किसी दूसरे नागरिक का विकास करना अलोकतांत्रिक, अव्यावहारिक और अमानवीय ही कहा जाएगा।’’[4]
आदिवासी
स्त्री कथाकारों ने आदिवासियों के शोषण और नस्ली भेदभाव को भी उजागर किया है। यह
शोषण आदिवासी एवं आदिवासी स्त्री अधिकार को लेकर लड़ाई,
अंग्रेज और उच्च वर्ग के जीमींदारों के बीच दिखाई है। बाहरी समाज
दलित की ही तरह आदिवासियों से भी भेद-भाव करता है। आदिवासियों के शिक्षित एवं
योग्य होने के बाद भी सामान ढोने, साफ-सफाई के लायक ही समझा
जाता है। रोज केरकेट्टा की ‘जिद’ कहानी
में कोलेंग अपनी मेहनत और ईमानदारी से काम करते हुए भी सरकारी स्कूल का हिस्सा नहीं
बन पाती है। बाद में आए लोग नौकरी व उन्नति पा लेते हैं, वह
मात्र इसलिए पद व सम्मान प्राप्त न कर सकी क्योंकि वह आदिवासी है। उसका मजाक ‘मिस ग्रेजुएट’ करके उड़ाया जाता है। जबकि सच्चाई यह
है कि उसी की मेहनत को बेकार बताकर पहले फेंक दिया जाता है, बाद में उसी के द्वारा
तैयार फाइल को उठाकर अपने नाम से उपयोग करते हैं। कोलेंग काफी संघर्ष करके नौकरी
तो पा लेती है, उस पर भी जाँच बैठा दी जाती है। लोगों की नजर
में एक आदिवासी लड़की कैसे नौकरी पा जाती है, यही भेद-भाव भरा
प्रश्न कुरेदता रहता है। झारखण्ड का आदिवासी समुदाय इस भेदभाव से ज्यादा ही
प्रभावित दिखाई देता है। रोज की दो प्रेमियों की कहानी ‘मैंग्नोलिया
प्वांइट’ में मैंग्नोलिया अंग्रेज किशोरी और पंचु आदिवासी
है। दोनों एक न हो पाने के कारण पहाड़ी से कूदकर मृत्यु को गले लगा लेते हैं। गौर
किशोरी मैंग्नोलिया के नाम वह मैंग्नोलिया प्वाइंट बन गया ‘‘इसलिए
सभी नेतरहाट के मैंग्नोलिया प्वाइंट से मैंग्नोलिया को याद करते हुए प्रकृति को
निहारते हैं। और पंचु? कोई उसे स्मरण नहीं करता। नेटिव था न?
तो नेतरहाट का सुंदर विश्व प्रसिद्ध सौन्दर्य एक आदिवासी युवक और
महामहीम की गोरी युवा लड़की की प्रेमकथा यहीं आकर एक सामान्य प्रेमकथा न रहकर नस्ली
भेदभाव से भरी दुनिया के खिलाफ सुलगता सवाल बन जाता है।’’[5] रोज केरकेट्टा की ही दूसरी कहानी ‘घाना लोहार का’
में जमींदारी शोषण व्यवस्था को उजागर किया गया है। जमींदार
आदिवासियों को छोटी जाति का समझ कर उनकी बहू-बेटियों को उठा लेते हैं। यह आम बात
थी, लेकिन उनको संपत्ति का हिस्सा भी नहीं दिया जाता। यह कहानी आदिवासी स्त्री रोपनी
के शोषण की कहानी है। सबसे बड़ी बात कि पंचायत भी जमींदार के हक में ही फैसला
सुनाती है। आदिवासी स्त्री अपना अपमान शोषण सह सकती थी, लेकिन अपने पुत्र के अधिकार
को लेकर सजग थी। संपत्ति में हिस्सा न मिलने के कारण वह प्रतिरोध स्वरूप जमींदार
की हत्या कर खुद पुलिस को सौंप देती है। इन्ही की जमींदार के अत्याचार और शोषण की कहानी ‘भाग्य’ में दर्शाया गया है जिसमें जमींदार गंझू के
पूरी मजदूरी न दिए जाने के कारण और एक आदिवासी परिवार भूख को न सह पाने के कारण पिता
अपने ममत्व की हत्या कर पुत्र-पुत्री को छोड़कर चला जाता है। शोषण और अत्याचार के
संबंध में झारखण्ड के आदिवासियों के समुदाय और अरुणाचल के आदिवासी समुदाय में कुछ
हद तक समानता दिखाई देती है। जोराम यालाम की कहानी ‘दिलासा’
में ठेकेदारी में कड़ाके की ठंड व बरसात के समय भी काम करवाया जाता
है। उनके घायल होने पर उन्हें बेसहारा ही छोड़ दिया जाता है। इलाज के पैसे भी गरीब
मजदूरों को नहीं दिए जाते हैं। यह आठ मजदूरों की दर्द भरी कहानी है। पूर्वोत्तर
भारत की कहानियों के अनुसार आदिवासियों में अभी तक जमींदारी शोषण व अत्याचार
व्यवस्था नहीं दिखाई देती है। दीकू समाज मध्य भारत के आदिवासियों के बीच ज्यादा
अंदर तक पहुँचकर, उनकी संस्कृति को दूषित कर अत्याचार व शोषण करता है। पूर्वोत्तर
के आदिवासियों में इस तरह का भेदभाव व शोषण का अभाव है।
शिक्षा
हर नागरिक को जागरूक बनाने के लिए जरूरी है। आदिवासी समुदाय या क्षेत्र अभी भी
शिक्षा से कोसों दूर है। कहीं विद्यालय ही नहीं है। आजादी के पचहत्तर साल बाद भी
सुदूर आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी अपनी पारंपरिक दिनचर्या जी रहा है तो कहीं वह
दीकूओं का शिकार बन रहा है, कहीं ठेकेदार और
साहूकार की ठगी का शिकार बन रहा है। भारत सरकार हर नागरिक तक शिक्षा पहुँचाने का
दावा तो करती है पर आने वाले आँकड़े और रचनाएँ अलग ही कहानी बयाँ कर रही है। ‘‘आदिवासी पिछड़ेपन का दूसरा नाम रहा है आजादी के दशकों बाद भी उनमें
उल्लेखनीय बदलाव नहीं आ सका।’’[6] इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है शिक्षा का उन तक न पहुँचना। जहाँ भी स्कूल है,
शिक्षक हैं वहाँ के बच्चे शिक्षा ग्रहण करना चाहते हैं, लेकिन
दुर्भाग्यवश अधिकतर गाँवों में अभी स्कूल ही नहीं है। सरकार की फाइलों और योजनाओं
में हर जगह स्कूल चल रहा है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी कहती है। ‘‘जो भी इनके बीच जाता है वह इन्हें लाभान्वित करने की कामना से नहीं अपितु
स्वयं उनसे लाभ उठाने के लालच से जाता है।’’[7] ऐसे ही कहानी रोज केरकेट्टा की कहानी ‘जिद’ है। इसमें बाहरी व्यक्ति रिश्वत देकर सरकारी कर्मचारी तो बन जाता है, लेकिन
वह अपने काम पर उन्नति पाने के लिए दूसरे के काम चुराता है। आदिवासी बालक-बालिकाओं
में पढ़ने की ललक हर आदिवासी महिला कहानीकार ने दिखाने की कोशिश की है। भारत के सभी
भागों में यह समानता दिखाई देती है। रोज केरकेट्टा ‘फ्राक’
कहानी के माध्यम से स्कूल के लिए लड़कियों को तैयार करती हैं तो ‘पगहा जोरि जोरि रे घाटो’ में चरवाहा के रूप में एक
लड़की के पढ़ने की ललक को दिखाया है। पशु को चराते समय खिड़की से चिपक कर लिखना-पढ़ना
सब सीख जाती है। वह आगे भी पढ़ाई जारी रखती है। वहीं पूर्वोत्तर की कहानी ‘उसका नाम यापी था’ (जोराम यालाम) में यापी बड़ी उम्र
में पढ़ना तो चाहती है, लेकिन वह बार-बार बलात्कृता होती है। नागालैण्ड की आदिवासी
लेखिका तेमसुला आओ की ‘तीन औरतें’ कहानी
में मार्था स्कूल में अच्छे नंबरों के साथ पहला स्थान लाती है। यह अलग बात है कि
वह दिखने में काली व कुरूप है इसलिए बच्चे चिढ़ाते हैं। ममंग देई की कहानी ‘आईना’ में पहली बार आदिवासी इलाके में मास्टर साहब
की नियुक्ति होती है। शिक्षा प्राप्त कर मास्टर, डॉक्टर आदि
बनते आदिवासी लोगों को दिखाया गया है। रोज की ‘रमोणी’
कहानी में रमोणी के पढ़े-लिखे होने के कारण व्यापार की ठगी कम
होती है तो इन्हीं की कहानी ‘से महुआ गिरे सगर राति’ में जोसफा नर्स की ट्रेनिंग लेकर बीमारों की सेवा का काम करती है। ऐसे ही
पूर्वोत्तर की कहानियों में तेमसुला आओ की ‘तीन औरते’
कहानी में मार्था की माँ नर्स का काम करती है। जोराम यालाम की कहानी
‘उसका नाम यापी था’ में यापी की सहेली
पढ़-लिखकर शहर में काम पर होती है। शिक्षा पाकर लोगों में जागरूकता भी बढ़ी है जैसे ‘रमोणी’ कहानी में रमोणी गाँव की भलाई के लिए काम
करती है, तो ‘केराबांझी’ में छोटा परिवार सुखी परिवार के प्रति जागरूकता दिखाई गई है। यह उन्नति
बहुत सी कहानियों में आने के बाद भी आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा, शिक्षक एवं संसाधनों का सर्वतः अभाव दिखाई देता है।
आदिवासी
कथा लेखिकाओं ने आदिवासीयों की अन्य समस्याओं पर विस्तार से प्रकाश डाला है या
दूसरे शब्दों में कह लें आदिवासी स्त्री को साहित्य पटल पर उत्कीर्ण करना ही
लेखिकाओं का प्रमुख उद्देश्य है। इन कहानियों में आदिवासी स्त्री,
अन्य समाज की तुलना में स्वतंत्र है। वह चहारदीवारी में कैद होकर
केवल पुरुष के कहे अनुसार नहीं चलती है। स्त्री पत्नी होने के साथ-साथ सहयोगिनी
होती है।[8]
घर-बाहर के सारे काम वह फुर्ती के साथ करती है, ‘वनकन्या’
(एलिस एक्का) कहानी में स्त्री जंगल से सामान लाती है, अकेले या समूह में घर से बाहर निकलती है। लगभग सभी कहानियों में दर्शाया
गया है। इसी कहानी में फेचो जंगली औषधियों को भी जानती है वैसे ही पूर्वोत्तर में
वर्णित सभी कहानियों में यह स्वतंत्रता पाई जाती है। जोराम यालाम के उपन्यास ‘जंगली फूल’ में स्त्री युद्ध भी करती है तथा
दोलियांग जैसी स्त्री सभी औषधियों को जानती है जिसमें दो-चार कबीले लाभान्वित होते
हैं। आदिवासी स्त्रियाँ परिश्रमी भी होती हैं। जंगल से पानी लकड़ी तथा अन्य वनोपज
लाने का काम इन्हीं स्त्रियों का होता है। इसे ‘वनकन्या’,
‘आँचल का टुकड़ा’, ‘जंगली फूल’ आदि कथाओं में दिखाया गया है। इन सब स्वतंत्रता के बावजूद कथा लेखिकाओं ने
स्त्रियों से संबंधित विभिन्न समस्याओं को उठाया हैं। भारत मे पितृसत्तात्मक
व्यवस्था है। इस व्यवस्था में स्त्री कितना भी स्वतंत्र हो, लेकिन पुरुष सत्ता कहीं
न कहीं हावी हो ही जाती है। कहीं बेटी पैदा होने पर खुशी मनाई जाती है तो कहीं
बेटी पैदा होना उदास कर देता है। हालाँकि बाहरी समाज व्यवस्था में माता-पिता दहेज
आदि के कारण गहन चिंता में डूब जाते हैं, लेकिन आदिवासी समाज बेटियों को बोझ नहीं
मानता क्योंकि ये धन लाने वाली होती है घर में। आदिवासी का हर समुदाय तो एक जैसा
नहीं हो सकता। रोज की कहानी ‘केराबांझी’ में एक पुत्री होने पर ही अपने समाज की परंपरा को चुनौती देती है। यहाँ की
परंपरा में एक से अधिक बच्चे पैदा करना ही अच्छा मानते हैं। यही बेटी ही सब कुछ
है। यहाँ लेखिका, संपत्ति के वारिस केवल बेटे ही बन सकते हैं,
की परंपरा को तोड़ती हैं। बेटी को वारिस व एक पुत्र-पुत्री की
विचारधारा को स्थापित करने के लिए परिवार व समाज से संघर्ष करती हैं। एलिस एक्का की
कहानी ‘सलगी जुगनु अंबा गाछ’ कहानी में
सलगी के पैदा होने पर सलगी की माँ बहुत खुश होती है और उसे ही बहुत प्यार करती है।
वहीं रोज की ‘फिक्स डिपॉजिट’ कहानी में बेटे
को वारिस बनाकर मनोहर बहुत पछताता है क्योंकि वह अपने माता-पिता को ही मारते-मारते
मार डालता है। बेटी को याद करते-करते प्राण निकल जाते हैं। बेटा, बेटी में अंतर को संघर्ष के माध्यम से लेखिका रोज जी ‘पगहा
जोरि जोरि रे घाटो’ व 'प्रतिरोध' कहानी में खत्म करना चाहती
हैं। प्रथम कहानी में दया स्कूल जाने के लिए जिद करती है। दया माँ से कहती है। ‘‘मेरा भी नाम स्कूल में लिखा दो अपने बेटों को पढ़ाती हो। मुझसे सारा काम
कराती हो। माँ बोली पढ़ के क्या करोगी। विवाह होगा तो ससुराल में भी चूल्हा
फूँकोगी। काम सीखो बेटी। सिखलाही बहू को सास भी प्यार करती है सास का तो कमनी बहू
चाहिए। पागल मत बनो।’’[9]ऐसे ही प्रतिरोध कहानी में बेटियाँ अपनी स्वतंत्रता के लिए शहर से सीखकर
गाँव में पहली बार फुटबाल खेलती हैं। अभी तक यह खेल केवल लड़कों का ही था। इन्ही की ‘मैना’ कहानी में गाँव के लड़के ही लड़कियों की
स्वतंत्रता के लिए अपने समाज से संघर्ष करते हैं। इस तरह आदिवासी कथा लेखिकाएँ उत्तर
व मध्य भारत के समाज में बेटा-बेटी के अंतर को संघर्ष से पाटना चाहती हैं।
पूर्वोत्तर भारत का आदिवासी कथा साहित्य इस अंतर को कम करने की कोशिश करता है।
आदिवासियों की दुनिया भी बुरी नजर वाले पुरुषों से बची नहीं है। इनसे बाहरी समाज का पुरुष बलात्कार करता है और फल उस बिना दोषी महिलाओं को भुगतना पड़ता है। एलिस एक्का की कहानी ‘कोयल की लाडली सुमरी’ में सुमरी के साथ जंगल में चार लोगों ने बलात्कार किया। इसी जैसी वसुधा मंडावी गोंडी कहानी ‘इरुक’ है। इरुक का बालात्कार बाईक सवार दो बाहरी लड़कों ने किया। रोज की ‘बड़ा आदमी’ कहानी व ‘मैना’ कहानी में बालात्कार होता है, लेकिन बड़ा आदमी कहानी में शहर गई स्त्री का मालिक व उसके बेटे के द्वारा रोज बलात्कार किया जाता है। वहीं दूसरी तरफ अपने समाज के द्वारा स्त्री बलात्कृता होती है। वहाँ अपने ही समाज के कुछ मन बढे़ लोग स्त्री शरीर को बलात हासिल करना चाहते हैं। ऐसा कभी आदिवासी समुदाय में नहीं था। यह समस्या बाहरी समाज के वर्चस्व के कारण ही आदिवासियों में भी पनपने लगी है। ‘अंतिम टारगेट’ (मीरा राम निवास) कहानी में पति का बड़ा भाई ही बलात्कार करता है। इसी तरह ‘आईना’ (ममंग देई) कहानी में एक खूबसूरत लड़की का बलात्कार करने की कोशिश उसी समाज के एक लड़के के द्वारा की जाती है। जब बलात्कार की कोशिश पूरी नहीं हो पाती तो उसका मुख कोयले की आग से जला दिया जाता है। रोज की ही कहानी ‘भँवर’ में जमीन हथियाने के कारण गाँव के ही कुछ लोग मिलकर सामूहिक बलात्कार कर माँ-बेटी की हत्या कर देते हैं। पूर्वोत्तर भारत की जोराम यालाम की कहानी ‘उसका नाम यापी था’ मे भी यापी को आदिवासियों द्वारा बार-बार बलात्कार का शिकार बनाया जाता है। तेमसुला आओ की कहानी ‘तीन औरते’ में भी दादी बलात्कार का शिकार होते हुए भी बच्चे को जन्म देतीं हैं। बाहरी समाज से भिन्नता यहाँ यह है कि बाहरी समाज में बलात्कृता स्त्री को अपने समाज का ढ़ाँचा ही जिन्दा रहने नहीं देता है। आदिवासी समाज में स्त्री से बलात्कारी पुरुष का नाम पूछकर, यदि दोनों की सहमति होती है तो शादी करवा दी जाती है। यदि दोनों राजी नहीं होते तो कुछ अर्थदण्ड आदि पंचायत द्वारा लगाकर छोड़ दिया जाता है। ये पंचायतें सरकार के कोर्ट के फैसले जितना क्रूरतम फैसला व फैसले देने में देरी नहीं करती है। आदिवासी समाज के बारे में राज किशोर ठीक ही कहते हैं कि ‘‘आदिवासी समाजों में बलात्कार कम से कम होते हैं और जब होते हैं तब न तो कोई स्त्री आत्महत्या करती है और न ही यह मान लिया जाता है कि उसका सर्वस्व लुट गया है।’’[10] बलात्कार भारतीय स्त्री जीवन को एक झटके में खत्म कर देता है, जबकि वह निर्दोष होती है। वहीं बलात्कारी पुरुष खुला घूमता है। आत्महत्या और गर्भपात जैसी घटना आदिवासियों में नहीं थी, लेकिन अन्य समाज को देखते हुए यह खराब चीजें इनमें भी फैलती जा रही है। यह आदिवासी समाज के लिए या किसी भी समाज के लिए बहुत ही हानिकारक है। एलिस की ‘कोयल की लाडली सुमरी’ कहानी में सुमरी ने दीकू वर्चस्ववादी अपने समाज से मजबूर होकर आत्महत्या की, ममंग देई की ‘आईना’ की युवती भी अपना बदसूरत चेहरा देखकर आत्महत्या करती है। वहीं पूर्वोत्तर की जोराम की कहानी ‘उसका नाम यापी था’ में यापी ने भी इस दूषित समाज से छुटकारा पाने के लिए गर्भवती होने पर भी मौत को गले लगा लेती है। गर्भपात या भ्रूणहत्या की घटना पहली बार दो कहानियों में दिखाई देती है। एक झारखण्ड के आदिवासियों में दूसरी अरुणाचल के आदिवासी समुदाय में। ‘मेरे बाप की शादी’ कहानी में दो बेटी और एक बेटे की माँ ने अपने पति के दबाव में आकर गर्भपात करवाती है इसलिए मर भी जाती है। पूर्वोत्तर की कहानी ‘उसका नाम यापी था’ में यापी खुद से गर्भपात करवाती है। आदिवासी कथा साहित्य में स्त्रियाँ बलात्कार, आत्महत्या व गर्भपात का विरोध करती है, लेकिन यह तेजी से बदलता समाज उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर देता है, जिसमें स्त्री का कोई दोष नहीं होता है। उत्तर-मध्य भारत में गर्भपात का विभेद है कि यहाँ की स्त्रियों को न चाहते हुए भी गर्भपात करवाया जाता है, जबकि पूर्वोत्तर में स्त्री खुद से गर्भपात करवाने का कदम उठाती है।
आदिवासियों
के पास जंगली उपज के अलावा और कोई जीने का उपाय नहीं हैं। सरकारें विकास का दावा
तो करती हैं, लेकिन इनके दावे कागजों पर ही सिमट कर रह जाते हैं। यहाँ तक कि
आदिवासियों के पास उनकी मूलभूत आवश्कता की चीजें जैसे दवाइयाँ,
शिक्षा, सड़क आदि नहीं पहुँच पाती है। रोज की ‘फ्राक’ कहानी में एक बच्ची का फ्राक न होने के कारण
स्कूल नहीं जाती है। उसे बहुत दुख उठाना पड़ता है तब फ्राक मिलता है। एलिस की कहानी
‘कोयल की लाडली सुमरी’ में सुमरी अपने
पिता को बचाना चाहती है, लेकिन जंगल पार कर डॉक्टर को बुलाने में ही उसके पिता नहीं
बचते और उस समय हास्पिटल में डॉक्टर भी नदारत थे। एलिस की ही कहानी ‘सलगी जुगनी अंबा गाछ’ में एक फूल सी बच्ची की असमय
मौत हो जाती है, क्योंकि अभाव व गरीबी के कारण उसका फूस का छत रात भर टपक रहा था,
वह बीमार पड़ी तो मर ही गई। दवाई उसके मरने के बाद ही पहुँचती है। इन्ही की कहानी ‘धरती लहराएगी झालो नाचेगी’ में अकाल में लोग भूखे
मरने के लिए तैयार रहते हैं। उत्तर और मध्य भारत की सी ही समस्या पूर्वोत्तर भारत
में भी दिखाई देती है। जोराम की ‘दिलासा’ कहानी में आठ घायल मजदूर कड़ाके की ठण्ड में रात भर उपचार के लिए कराहते
रहे, लेकिन इलाज सुबह किसी तरह मिला। आदिवासी समुदाय में छोटी से छोटी बीमारी भी
डॉक्टर की अनुपस्थिति में जानलेवा हो जाती है। मूलभूत जरूरत के सामानो के मामले
में मजलूम हैं ये आदिवासी। इसलिए वीर भारत तलवार जी ठीक ही कहते हैं- ‘‘बिमारियाँ होती हैं उनको, बड़ी मामूली सी बिमारियाँ,
जिनका इलाज कराने की क्षमता नहीं है उनमें, और
जिनके बारे में वे जानते भी नही हैं। एक मामूली सी क्रोसीन से जिन बिमारियों का
इलाज संभव है, उन बिमारियों से आदिवासी सहज रूप से मर जाते
हैं।’’[11]
आदिवासी
समाज में सांस्कृतिक रूप से विभिन्नता होते हुए भी कुछ मामलों में एकता दिखाई देती
है। यह विभिन्न क्षेत्र, समुदाय आदि पर
विशेष रूप से निर्भर करती है। स्वास्थ्य शरीर में जंगली फूलों और पत्तों से सजने
का रीवाज बहुत पहले से झारखण्ड की आदिवासी ही नहीं वरन सभी आदिवासी क्षेत्रों में
है। झारखण्ड में आदिवासी लड़कियाँ घुटनों तक लाल पाड़ की साड़ियाँ, गले में पोत की मालाएँ, कान में तरपत व हाथ में लाह
का कंगन पहनती हैं।[12]
पूर्वोत्तर के ‘जंगली फूल’ उपन्यास (जोराम यालाम) में
पुरुष आदिवासी अपने लिंग को काले कपड़े से ढका रहता है तथा स्त्रियाँ पत्तों से कटि
प्रदेश व वक्ष स्थल को ढकी होती हैं। झारखण्ड व मध्य भारत में विवाह लड़की के पसंद
से ही होता है। जब घोटुल, जतरा आदि में लड़कियाँ व लड़के एक
दूसरों को जीवन साथी चुन लेते हैं तब दोनों के माता-पिता मिल-बैठ कर शादी करा देते
हैं। पूर्वोत्तर भारत में एक पति की कई पत्नियाँ होती हैं। जिसकी जितनी ही
पत्नियाँ होती है वह उतना ही बलशाली कहलाता है। बड़ी पत्नी ही अन्य सभी पत्नियों को
अपने पति के लिए लाती है। माँ-बाप वर से मिथुन व सामान लेकर लड़की की शादी कर देतें
हैं। यदि लड़की वहाँ खुश नहीं है तो उसे उसके बदले दिए गए मिथुन आदि को वापस करना
पड़ता है तथा फिर खुद से किसी की दूसरी, तीसरी या चौथी पत्नी
बनना पड़ता है। स्त्रियाँ बलशाली पुरुष को ही पति के रूप में पसंद करती है। कभी-कभी
गर्भ में ही बच्चों की शादी कर दी जाती है। यदि पत्नी किसी और पुरुष के साथ पकड़ी
जाती है तो उसे बद से बदतर सजा दी जाती है। उसके शरीरिक अंगो व यौन अंगो के साथ
सामाजिक रूप से खिलवाड़ किया जाता है व यातना दी जाती है। यहाँ पर बेटा-बेटी कभी
अवैध व अनाथ नहीं होते हैं। कुछ अंधविश्वास हर जगह व्याप्त है जैसे एलिस की 'वनकन्या' कहानी
में ‘ओटंगा’ चाकू लेकर गर्मियों में
देवी देवताओं के लिए आदमी का खून खोजते हुए लोगों की हत्या कर देते हैं। डायन या शैतान
कह कर औरतों को मार दिया जाता है। ‘जंगली फूल’ में रुंगिया के साथ ऐसी ही घटना घटती है। आदिवासी समुदाय में भी अलग-अलग
क्षेत्र की अलग-अलग समस्याएँ हैं। सभी आदिवासी क्षेत्रों में नृत्य-गान का प्रचलन
है, इससे वे दिन भर की थकान को दूर करतें हैं।
इन
आदिवासी कथा लेखिकाओं के हिसाब से आदिवासी कभी शहरी सभ्यता को स्वीकार नहीं करता
है। वह अपने परंपरा, रीति-रिवाज को
छोड़कर जाने के पक्ष में बिल्कुल भी नहीं है। आज तेजी से आदिवासी जल, जंगल व जमीन को खत्म किया जा रहा है ऐसे में विस्थापित होकर या पलायन करके
शहर में जाना उसकी मजबूरी हो जाती है। वहाँ जाकर वह अपनी संस्कृति व सभ्यता को
नष्ट प्राय पाता है तथा अपने सीधेपन के कारण बार-बार ठगा जाता है। आदिवासी विकास
के नाम पर मूलभूत चीजों और जल, जंगल, जमीन
को बचाए रखना चाहता है। बाकी अपने रीति-रिवाज, परंपरा व
मानवीय संवेदनाओं को संजोए रखना चाहता है। रोज की ‘फिक्स डिपॉजिट’
कहानी में मनोहर एक सम्मानित किसान होकर अपने रीति-रिवाजों के साथ
जी रहा था। विकास के नाम पर उस गाँव की जमीन जब बाँध में चली गई तब उसकी मानवता व उसका
सम्मान सब खत्म हो गया। उसका बेटा चंद पैसों के लिए अपने ही माँ-बाप को मार-मार कर
मार डालता है और गाँव का कोई बोलने भी नहीं आता। रोज की दूसरी कहानी ‘सच्चा सुख’ में शहर गया आदिवासी व्यक्ति अनायास
वस्तुओं का संग्रह कर अपने को बड़ा आदमी कहलाना चाहता है, लेकिन वह भूल जाता है
प्यार और शांति के लिए आधुनिक वस्तुओं के संग्रह की जरूरत नहीं, वह टूटी पलंग में
पनपता है। जो नींद गद्दे पड़े बेड पर नहीं आती वह खेत आदि में मेहनत करने से टूटी
खाट पर आती है। आदिवासी समाज में बलात्कृता स्त्री का भी स्थान था, लेकिन बाहरी
वर्चस्व व वैश्वीकरण के कारण सुमरी जो जीना चाहती है उसे भी आत्महत्या के लिए
मजबूर होना होता है। बाहरी समाज के कुछ लोगों के हस्तक्षेप के कारण संपत्ति का
लालच इतना बढ़ गया है कि रोज की ‘कोपलों को रहने दो’ कहानी में बूढ़े बाप को अपने जीते ही बेटी को अनाथालय में छोड़ना पड़ता है। इन्ही की ‘भाग्य’ कहानी में जमींदार के काम के बदले अनाज न
देने के कारण एक पिता अपने बेटे-बेटियों को छोड़कर भाग जाता है। शहरी सभ्यता,
संस्कृति कहीं न कहीं आदिवासियों की परंपरा व पहचान को नष्ट कर रही
है। रोज की ही चर्चित कहानी ‘बिरूवार गमछा’ में एक गमछा के कारण संस्कृति को संजोए रखना चाहता है। आदिवासी समाज अपनी
संस्कृति के मूल्य को जानकर फिर से महत्व देना चाहता है। शहरी लोगों के घुसपैठ के
कारण आज ठगी, बेईमानी और बलात्कार की घटनाएँ बढ़ गई हैं। दीकू
समाज के प्रभाव के कारण ही आदिवासी भी आज स्त्रियों को दीवारों में कैद करना चाहता
है।
इस
प्रकार समग्र रूप से कहा जाय तो आदिवासी समाज आज भी अपनी पहचान बनाए रखने की कोशिश
में लगा हुआ है। आदिवासी समाज को दीकू समाज व नगरीय व्यवस्था से बहुत ही हानि
उठाना पड़ रही है। जो सीधे अपने रीति-रिवाजों के अलावा कुछ जानते भी नहीं थे,
वे अपने में ही आनन्दित रहते थे, वे इस वैश्वीकरण के दौर में
अपसंस्कृति, नशाखोरी आदि का शिकार हो रहें हैं। औद्योगीकरण व
नगरीय विकास के कारण वे पलायन करने पर भी मजबूर हो रहे हैं। इन आदिवासियों की,
सरकारें भी मदद के नाम पर खून चूसने और रिश्वत लेने वाली पुलिस को
भेज देती हैं। यह पुलिस भी ठेकेदार साहूकार व दीकू की ही सुनती है। आवश्यकता है इस
अपराध रहित व्यवस्था को पोषण देने की, क्योंकि इससे न्याय पाने के लिए न्यायालय के
सालों-साल चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे। महिला कथाकारों ने महिलाओं के शोषण, बलात्कार, रूढ़ि, परंपरा व इनके
प्रति वर्चस्व को तोड़ने के प्रति संघर्ष को दिखाया है। इन स्त्रियों का संघर्ष खुद
के समाज से तथा दीकू समाज से भी है। आदिवासी समाज विकास तो चाहता है, लेकिन अपने
मानवीय मूल्यों वाले रीति-रिवाज व शांति को बचाकर। इनका विकास शिक्षा को हर
व्यक्ति तक पहुँचाकर किया जा सकता है। आदिवासी भी अब धीरे-धीरे धन संचयन व अपराध
के गर्त में धसता चला जा रहा है।
संदर्भ
:
[1]भारत
के आदिवासी : चुनौतियाँ एवं संभावनाएं, सं. डॉ. जनक
सिंह मीना, डॉ. कुलदीप सिंह मीना, वाणी
प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2017,
पृष्ठ सं.- 59
[2]एलिस
एक्का की कहानियाँ, सं. वंदना टेटे, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली,
पहला संस्करण 2015, पृष्ठ सं.- 37
[3]बिरुवार
गमछा तथा अन्य कहानियाँ, रोज केरकेट्टा, प्रभात प्रकाशन नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2017,
पृष्ठ सं.- 69
[4]आदिवासी
विमर्श,
डॉ. रमेश चन्द मीणा, राजस्थान हिंदी ग्रंथ
अकादमी, प्रथम संस्करण 2013, पृष्ठ
सं.- 23
[5]बिरुवार
गमछा तथा अन्य कहानियाँ, रोज केरकेट्टा, प्रभात प्रकाशन नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2017,
पृष्ठ सं.- 13
[6]आदिवासी
विमर्श,
डॉ. रमेश चन्द मीणा, राजस्थान हिंदी ग्रंथ
अकादमी, प्रथम संस्करण 2013, पृष्ठ
सं.- 175
[7]आदिवासी
विमर्श,
डॉ. रमेश चन्द मीणा, राजस्थान हिंदी ग्रंथ
अकादमी, प्रथम संस्करण 2013, पृष्ठ
सं.- 176
[8]स्त्री
महज एक पंक्ति, रोज केरकेट्टा, प्यारा
केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची, झारखण्ड,
प्रथम संस्करण 2014, पृष्ठ सं.- 95
[9]पगहा
जोरि जोरि रे घाटो, रोज केरकेट्टा, प्रभात प्रकाशन ,दिल्ली, प्रथम
संस्करण 2019, पृष्ठ सं.- 145-146
[10]स्त्री
के लिए जगह, राज किशोर, वाणी
प्रकाशन, पृष्ठ- 120
[11]आदिवासी
विमर्श,
डॉ. रमेश चन्द मीणा, राजस्थान हिंदी ग्रंथ
अकादमी, प्रथम संस्करण 2013, पृष्ठ सं-
1
[12]एलिस
एक्का की कहानियाँ, सं. वंदना टेटे, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली,
पहला संस्करण 2015, पृष्ठ सं.- 40
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
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