ऋग्वेद में वर्णित विवाह-सूक्त: एक अध्ययन
प्रो. शालिनी शुक्ला
शोध सार- भारतीय सभ्यता एवं
संस्कृति के आधार
स्तम्भ ऋग्वेद में
भारतीय जीवन पद्धति
के विविध आयाम
दृष्टिगत होते हैं।
वेद एवं वेदोत्तर
साहित्य में षोडश
संस्कारों का विस्तृत
वर्णन प्राप्त होता
है। इन जीवन मूल्यों ने युगों
से भारतीय समाज
को दिशा निर्देशित
किया है। इन संस्कारों में विवाह
को सामाजिक गतिशीलता
का मेरूदण्ड माना
जाए तो अतिशयोक्ति
नहीं होगी। वर्तमान
समय में इन अवधारणाओं में अनेक
परिवर्तन दृष्टिगत होते हैं,
किंतु इनमें सत्कार्यवाद
का सिद्धांत लागू
किया जाए तो हम मूल
ढांचे में अधिक
संसोधन नहीं प्राप्त
नहीं करते हैं।
ऋग्वेद में वर्णित
विवाह सूक्त के
आधार पर तत्कालीन
विवाह-व्यवस्था/संस्कार
क्या था? धर्मशास्त्रों
में इसका किस
रूप में निरूपण
किया गया? इसके
उद्देश्य एवं विविध
आयाम क्या थे?
विवाह के विषय में आधुनिक
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण क्या हैं?
इन महत्वपूर्ण बिन्दुओं
को केन्द्र में
रखकर प्रस्तुत अध्ययन
में इनका विश्लेषण
करने का प्रयास
किया गया है। प्रस्तुत शोधपत्र द्वितीयक
आंकड़ों पर आधारित
है, जिसमें ऋग्वेद
मूल एवं श्रीपाद
दामोदर सातवलेकर भाष्य,
मीमांसा, रघुवंश, मार्कण्डेय पुराण,
प्रख्यात समाजशास्त्रियों यथा के.
एम. कपाड़िया, श्री
पी. वी. काणे,
श्री के. एम. पणिक्कार, श्री राजबली
पाण्डेय, श्री पी.
एन. प्रभु के
विचारों एवं डॉ. प्रकाश चन्द्र
दीक्षित, डॉ. शिव
भानु सिंह, डॉ.
आर. जी. सिंह
की पुस्तकों पर
आधारित है।
संकेत
शब्द- ऋग्वेद विवाह
सूक्त, विवाह का
उद्देश्य, प्रकार, समाजीकरण, विवाह
प्रणाली।
हिन्दू समाज
में विवाह पारस्परिक
प्रेम व आध्यात्मिक
मिलन है। किंतु
आज के विवाह
में यह सभी बातें पूर्णतः
नहीं लागू हैं।
विवाह का कारण,
उसमें निभाये जाने
वाले रीति-रिवाज,
पति-पत्नी का
पारस्परिक संबन्ध विश्लेषणकी
अपेक्षा रखता है।
हिन्दू समाज में
विवह के विवेचन
के अनेक आधार
हो सकते हैं।
इसके विषय में
ऋग्वेद का अनुशीलन
आवश्यक है। हमारे
धर्मग्रन्थ हिंदू समाज
से संबंधित मूल्यों,
नैतिकता एवं व्यवहार
का आदर्श तथा
मर्यादा को प्रस्तुत
करते हैं। ऋग्वेद1
के अनुसार ‘‘विवाह
के पश्चात वधू
का भाग्य ही
उसे चलाए तथा
रथ में बैठकर
विवाह के पश्चात
पति के घर पहुँचकर वहां पति
के घर की गृहलक्ष्मी बनकर सभी
लोगों को अपने व्यवहार से वश में रखे।
ऐसी ही स्त्री
ही योग्य प्रसंग
में उत्तम सन्तति
दे सकती है।’’
हिन्दू समाज
में अनेक जातियों
व उपजातियों में
विभाजित है। जाति
विवाह के अनेक रूपों में
बंधी हुई है। और विवाह
के नियमों को
बांधे हुए ही हैं। जाति
में बंधी नैतिकताऐं
तथा उनके मूल्य
एवं उनके आचार
संहिता सभी स्थानों
पर शास्त्रअनुमोदित नहीं
हैं। इसीलिए विभिन्न
जातियों की विवाह
परंपरा तथा नीति
में विभेद है।
भारतीय समाज अत्यधिक
विस्तृत समाज है।
इसी कारण भिन्न-भिन्न स्थान
होने के कारण वैवाहिक विशेषताएँ भी
अलग-अलग हैं,
जो आज भी विद्यमान हैं। देश
और काल के आधार पर
विवाह की धारणा
क्षेत्रीय परंपराएँ परिवर्तित होती
रहती हैं। हमारे
देश में वैवाहिक
जीवन से संबंधित
धारणाएँ तथ रीतियाँ
आचार संहिता से
जुड़ी हुई हैं।
हिंदूू विवाह की
गूढ़ता को जानने
के लिए हमारे
देश की सभी स्थानीय नीतियाँ, क्षेत्रीय
परंपरा, मूल्य तथा
वैवाहिक जीवन पर वहाँ के
विचार को समझना
होगा।
हिंदू समाज
में आधुनिकीकरण, शहरीकरण
तथा औद्योगिकीकरण के
कारण नये रीति
रिवाज एवं व्यक्तित्ववादी एवं
सामाजिक नैतिकता को
प्रारम्भ किया है।
यह सभी मान्यताएँ
आत्मिबक प्रेम, विवाह
में वैयक्तिक विभिन्नता
एंव स्वछंदता, अपनी
इच्छाओं को संतुष्ट
करना तथा उसके
प्रति प्रकृतिवादी दृष्टिकोण,
स्त्री के अधिकार
तथा संतान को
जन्म देने के लिए भी
स्त्री की सहमति
अनिवार्य मानती है।
ऋग्वेद2 के अनुसार
धर्म का पालन करते हुए
पति पत्नी संतान
के साथ गृहस्थाश्रम
में उत्तम सुख
से रहे।जब वे
गृहस्थाश्रम से वानप्रस्थ
के लिए सज्ज
हो जाएँ तो उससे पूर्व
अपनी संतान को
उत्तम वचनों का
उपदेश दें। इस प्रकार सामाजिक
प्रगति के अनेक मानक निर्धारित
होते हैं। आधुनिक
समय में पाश्चात्यीकरण,
धर्मनिरपेक्ष, सुधारवादी आंदोलन एवं
सामाजिक विधानों ने
विवाह के विषय में बदलाव
दृष्टिगत होता है।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था3पुस्तक में
श्री प्रकाश चन्द्र
दीक्षित ने लिखा है कि
हमारे समाज में
विवाह का अर्थ
‘‘वर द्वारा वधू
को अपने घर ले जाने
से है।’’ किंतुविवाह केवल
कन्या को वर देना ही
नहीं होता है,
बल्कि दो परिवारों
एवं सामाजिक, धार्मिक
एवं लौकिक विचारों
का समावेश होता
है तथा सृष्टि
प्रक्रिया में अपना
अपूर्व योगदान देते
हैं। जीवन के मार्ग पर
चलने के लिए एक जीवनसााथी
की आवश्यकता होती
है। पुरानी मान्यताओं
की मानें तो
विवाह शरीर व मन की
शुद्धि के लिए किया जाने
वाला संस्कार है।
इसी कारण हिंदू
धर्म में विवाह
संस्कार को एक महत्वपूर्ण कृत्य के
रूप में माना
जाता है। भारतीय
परंपरा में स्त्री
पुरूष का विवाह
दो शक्तियों का
संयोग है जिसके
द्वारा ब्रह्मांड का
संचालन संभव है।
स्त्री-पुरूष जब
परिणय सूत्र में
बंधते हैं तो वे पुरूष-प्रकृति, ब्रह्मांड माता-पिता के
तुल्य होता है।
मनुस्मृति4 में कामना
को सृष्टि का
आधार बताया गया
है। सृष्टि के
प्रारम्भ में भी
परब्रह्म ने अपने
दो भाग किए हैंजिनमें वे आधे पुरूष व
आधे स्त्री हो
गए होंगे, भगवान
शिव का अर्द्धनारीश्वर
रूप भी इसी बात का
संकेत है। देवी
भागवत में भी स्त्री-पुरूष
के विभाजन की
बात कही गयी है। ईश्वर
भी अपनी शक्ति
के बिनाा निष्क्रिय
पड़ जाते हैं।
हमारे समाज में
स्त्री के लिए विवाह महत्वपूर्ण
बताया गया है क्योंकि पति ही उसका आध्यात्मिक
गुरू भी है उसी प्रकार
पत्नी भी पति की शिक्षिका
होती है। विवाह
संस्कार स्त्री के
लिए उपनयन संस्कार
की भांति रहा
है। उपनयन में
जैसे बालक पितृगुह
से गुरू के घर जाता
है, वैसे ही विवाह में
कन्या भी पितृगृह
से पति के घर जाती
है। वर्तमान समय
में न पूर्णतः
उपनयन संस्कार दृष्टिगत
होता है न कन्या का
पति गृहगमन।
विवाह संस्कार
को पाणिग्रहण संस्कार
भी कहा जाता
है जिसमें वर-वधू यज्ञाग्नि
को साक्षी मानकर
जीवन में कभी न छोड़ने
की प्रतिज्ञा करते
हैं। विवाह की
अग्नि पवित्र मानी
जाती है। इसे नचिकेताग्नि भी कहा जाता है।
हमारे समाज में
विवाह को अविच्छेदनीय
माना गया है क्योंकि हिंदू धर्म
के मतानुसार विवाह
में सप्तपदी या
सात फेरे होते
हैं जो अग्नि
के सम्मुख लिए
जाते हैं। अग्नि
के समक्ष अटल
प्रतिज्ञा करने के
कारण विवाह तोड़ना
अधर्म माना गया
है। विवाह संबंध
को केवल मृत्यु
ही अलग कर सकती है।
विवाह को पूर्व
जन्म का प्रतिफल
माना जाता है।
इसमें आने वाले
सुख दुख भी देव अधीन
माना गया है। प्रत्येक समाज में
विवाह के उद्देश्य
उसकी सांस्कृतिक अवस्था
पर निर्भर करता
है। कहीं पर विवाह द्वारा
यौन संतुष्टि पर
बल दिया जाता
है, कहीं लैंगिक
पाप से बचने के लिए
विवाह आवश्यक माना
गया है। विवाह
शास्त्रीय दृष्टिकोण से भी बहुत महत्व
रखता है। विवाह
के पश्चात पति-पत्नी दोनों
मोक्ष के अधिकारी
बन जाते हैं।
विवाह के द्वारा
स्त्री पुरूष दोनों
अपनी इच्छाओं और
आकांक्षाओं को नियंत्रित
करके संयम व त्याग के
द्वारा एक दूसरे
की उन्नति में
सहायता करते हैं।
एक विवाहित स्त्री
के लिए पतिव्रत,
गृहस्थ धर्म तथा
विवाहित पुरूष के
लिए उसका गृहस्थ
धर्म व पत्नीव्रत
आवश्यक है। भारतीय
समाज में यज्ञ,
पूजा पाठ आदि का विशेष
महत्व है। गृहस्थ
होने के बाद ही पत्नी
के साथ पूजा
यज्ञादि कार्य संपन्न
किये जा सकते हैं। पत्नी
विहीन पुरूष को
यज्ञ का अधिकारी
नहीं माना है।
पुरूष अपनी पत्नी
के अभव में अधूरा माना
जाता है। वेदों
में स्त्री को
मनुष्य की आत्मा
तथा अर्द्धांश माना
जाता है। धर्माचरण
में पत्नी का
साथ में होना
अति आवश्यक है।
श्रीराम ने भी अश्वमेघ यज्ञ की पूर्णता के लिए सीता जी
की स्वर्ण प्रतिमा
रख दी थी। विवाह प्रमुख
रूप से परिवार
को आगे बढ़ाने
की एक परंपरा
है। अतः विवाह
के पश्चात संतान
का जन्म आवश्यक
माना जाता है।
प्राचीन समय में जो स्त्री
माता नहीं बन सकती थी
उसे अशोभनीय माना
जाता था। संतान
उत्पत्ति को एक
महत्वपूर्ण कार्य माना
जाता था। इसी कारण गर्भवती
स्त्री को अधिक आदर व
सम्मान दिया जाता
है, था तथा एक से
अधिक संतान की
माता को अधिक सम्मान दिया
जाता था। प्राचीन
समय से ही पुत्र की
उत्पत्ति को आवश्यक
माना जाता रहा
है। इसके प्रमुखतः
दो कारण माने
जाते हैं। प्रथम
तो यह कि पिता का
दाह संस्कार पुत्र
करेगा, श्राद्ध कर्म
करेगा जिससे उसके
माता पिता को पितृ लोक
में कष्ट प्राप्त
न हो, जिनकी
पिंडोदक क्रिया नहीं
होती वे पितृलोक
से च्युत हो
जाते हैं। तथा
अधम लोकों को
प्राप्त होते हैं।
द्वितीय कारण यह है कि
व्यक्ति पितृ ऋण से उऋण
हो जाता है।
यदि व्यक्ति पितृऋण
से उऋण नहीं
हो पाता है तो वह
‘पुम्’ नामक नरक
में जाता है।
पुत्र शब्द से तात्पर्य है कि वह ‘पुम्’ नामक नरक से
तारने वाला, रक्षा
करने वाला होता
है।महाकवि कालिदास5 ने’’रघुवंश‘‘ में शुद्ध
वंश में उत्पन्न
सन्तान को इहलोक
एवं परलोक के
लिए कल्याणकारी कहा
है।
मनुष्य की
कुछ जैविक आवश्यकताएँ
होती हैं, जिनकी
पूर्ति उसके जीवन
में आवश्यक होती
है। भूख-प्यास और
श्वास आदि मनुष्य
को जीवन जीने
के लिए आवश्यक
है, उन्हीं में
से एक आवश्यकता
विवाह की भी होती है।
विवाह के पश्चात
व्यक्ति यौन संबंधों
की पूर्ति करता
है जिसके द्वारा
संतान की उत्पत्ति
होती है तथा समाज आगे
बढ़ता है। विवाह
समाज में मर्यादा
में रहकर यौन
संतुष्टि प्राप्त करने एवं
व्यभिचार रोकने का
माध्यम है। प्राचीन
भारतीय संस्कृति का
अवलोकन के द्वारा
यह पता चलता
है कि अपनी पत्नी से
ही यौन संतुष्टि
आर्दश था। पति-पत्नी के
संबंध प्राचीन समय
से ही बराबरी
के रहे होंगे।
धर्म के प्रत्यय
में वैवाहिक जीवन
के व्यवहारिक पहलू
वर्तमान में परिवर्तित
हो गये। विवाह
संस्कार एक ऐसा संस्कार है जो कि संयुक्त
परिवार के मुखिया
द्वारा संपन्न कराया
जाता है। इसके
द्वारा परिवार का
विकास होता है।
गृहस्थ धर्म का पालन करना
होता है। पारिवारिक
परंपराएँ इसी से
अक्षुण्ण रखी जाती
हैं। स्त्री-पुरूष
अपने दायित्व का
र्निवाह करते हैं।
बच्चों के लालन-पालन, उनके
संस्कार, देवी देवता
की पूजा तथा
पितरों का श्राद्ध
आदि करने में
विवाह की सार्थकता
निहित है।
हिंदू समाज
में धर्म के आधार पर
व्यवस्था, जाति व्यवस्था
और सामाजिक विधान
की नयी प्रणाली
में विवाह को
समझा जा सकता है। विवाह
के लिए वर-वधू का
चुनाव करना जातीय
व्यवस्था के कारण
जटिल है। जीवनसाथी
के चुनाव करने
के लिए जातीय
व क्षेत्रीय नियम
व्यवहार में लाये
जाते हैं। वर-वधू के
चुनाव के सिद्धांत
के इस विश्लेषण
को अगर दो भागों में
बांटा जाए तो प्रथम भाग
यह है जहां पति-पत्नी
के चुनाव के
लिए वांछनीय क्षेत्र
को चुना जाएगा
तथा दूसरा भाग
वह है जहाँ अवांछनीय क्षेत्रों को
जाना जा सकता है। ‘अनुलोम-प्रतिलोम’, स्वजाति व कुलीन विवाह आज
भी प्रचलित हैं।
किन्तु वैदिक काल
में युवक युवतियों
को अपना जीवन
सााथी चुनने की
पूर्ण स्वतंत्रता थी।
ऋग्वेद6 में कन्या
द्वारा वर चुनने
का प्रमाण मिलता
है। समन नामक
उत्सव में स्त्री
पति का चयन करती थी।
रामायण में सीता
स्वयंवर एक ऐसा ही उदाहरण
है। किंतु अब
स्वजाति में विवाह
न करना तथा
अन्य विशिष्ट जाति
में विवाह करना,
अन्तर्विवाह का सिद्धांत
सांस्कृतिक, प्रजातीय और क्षेत्रीय
मान्यताओं पर निर्भर
करता है। इसको
ध्यान में रखते
हुए अनुलोम-प्रतिलोम,
स्वजाति कुलीन, अन्तर्जातीय,
अन्तर्धर्म, अन्तराष्ट्रीय सिद्धांत व
व्यवहार पर विचार
किया गया है। वर्तमान समय में विचारधारा परिवर्तन के
अनेक कारकों के
कारण परिवर्तन इसमें
भी परिलक्षित है।
हमारे धर्मग्रन्थों के
अनुसार प्रत्येक व्यक्ति
को अपने धर्म
में ही विवाह
करना चाहिए। अगर
जाति से बाहर विवाह करना
पड़ा तो अनुलोम
क्रम से करना चाहिए। अनुलोम
विवाह का अर्थ है उच्च
वर्ण का व्यक्ति
का निम्न वर्ण
के व्यक्ति के
साथ विवाह करना,
किंतु इसके विपरीत
निम्न वर्ण का व्यक्ति उच्च वर्ण
के व्यक्ति के
साथ विवाह ही
प्रतिलोम कहा जात
है। प्रतिलोम विवाह
वर्ण पतन का कारण माना
जाता है। जाति
व्यवस्था के स्थापित
हो जाने पर अंतवर्ण विवाह स्वजाति
विवाह में परिवर्तित
हो गया, तथा
अनुलोम विवाह कुलीन
विवाह में स्वाजाति
विवाह का तात्पर्य
है कि व्यक्ति
उच्च जाति के वर-वधू
प्राप्त करें।
अंर्तजातीय विवाह प्राचीन
समय से ही एक अपवाद
के रूप में चले आ
रहा है। जाति
व्यवस्था ने इस
विवाह व्यवस्था को
संकुचित कर दिया है। श्री
के॰ एम॰ कपाड़िया7
के अनुसार ‘‘सामान्यतः
अर्न्तजातीय विवाह का
अर्थ उस विवाह
से लिया जाता
है, जो प्राचीन
उपजातियों द्वारा बने
हुए विशाल उपसमूह
में होता है।’’विवाह सामाजिक संगठन के
निर्धारण में जनसंख्या,
प्राकृतिक मूल्य, संस्थागत
कार्य प्रणालियाँ तथा
आदर्श नियम महत्वपूर्ण
भूमिका निभाते हैं।
भारतीय संस्कृति की
पृष्ठभूमि पर फिर
अवलोकन करने का विचार किया
जा सकता है जिसमें विवाह,
परिवार, नाता रिश्तेदारी
पर विचार केन्द्रित
रहा है।
हमारे वेदों
में भी विवाह
तथा उससे संबंधित
विधि विधानों का
वर्णन प्राप्त होता
है। जैसे ऋग्वेद
में वर्णित विवाह
सूक्त में विवाह
तथा स्त्री के
कर्तव्य, उसकी साज-सज्जा, प्रशंसा
विदाई की विवेचना
की गई है। ऋग्वेद में
स्त्री के विवाह
के समय उसका
आचरण, वस्त्र, उसकी
शक्ति, ससुराल में
मान सम्मान आदि
का ध्यान दिया
गया है।
ऋग्वेद8 के अनुसार
‘‘वधू का आच्छादन
वस्त्र अति संुदर
व सुशोभित था,
पतिगृह को जाती हुई वधू
का विचार शुद्ध
था, नेत्र काजल
से युक्त थे
तथा आकाश व पृथ्वी ही
उसका खजाना थे।
तब सूर्या अपने
पति के गृह में गई
तब उसका रथ उसका मन
था। आकाश उपर
की छत थी तथा रथ
के रथवाहक सूर्य
और चन्द्र हुए।
विवाह के पश्चात
की गतिशीलता के
लिए कहा गया है। हे
सूर्य देवि। तेरे
समरूपा रथ के ऋक और
साम द्वारा वर्णित
सूर्य-चन्दरूप बैल
शान्त रहते हुए
एक दूसरे के
सहायक होकर चलते
हैं। वे दोनों
कान मनरूप के
दो चक्र हुए।
आकाश रथ का चलने का
मार्ग हुआ।’’
विवाह के
बाद पति-पत्नी
दोनों हर कार्य
में अपनी सहमति
से भागीदार बनते
हैं। ऋग्वेद में
भी हर कार्य
में दोनों की
सहमति से को बताया गया
है ऋग्वेद9 के
अनुसार जाते हुए
रथ के दोनों
चक्र तेरे कान
हुए, वायु रथ का धुरा
था। पति के गृह को
गमन करने वाली
सूर्या मनोमय रथ
पर आरूढ़ हुयी।
प्राचीन समय में बहुविवाह प्रचलित था।
किंतु 1995 के हिंदू
विवाह अधिनियम के
पारित होने के उपरांत यह
पद्धति हिंदुओं में
अमान्य थी। यह स्थिति सामान्य
नागरिकता अधिनियम के प्रभावी
क्रियान्वयन के पश्चात
यह स्थिति बदल
रही है।
विवाह मनुष्य
की काम भावना
को अनियंत्रित होने
से बचाता है।
जिसके द्वारा पति-पत्नी का
शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, इहलौकिक
व पारलौकिक विकास
हो। मार्कण्डेय पुराण10
के अनुसार ‘‘धर्म
काम तथा पुत्र
की प्राप्ति पति-पत्नी के
संयोग से होती है तथा
पत्नी को त्याग
कर किए जाने
वाले धार्मिक कृत्यों
का कोई फल प्राप्त नहीं होता
है।’’ संस्कृत साहित्यमें विवाह
आठ प्रकार के
माने गये हैं।
इनका विस्तृत उल्लेख
नहीं किया गया
है।
ऋग्वेद11 में स्त्री
को उत्तम सम्मान
देने की बात कही गयी
है कि पिता सूर्य ने
पतिगृह जाती हुई
अपनी पुत्री सूर्या
को गौ आदि देकर तथा
मघा नक्षत्र में
विदाई दी तथा फाल्गुनी नक्षत्र में
पति के घर पहुँचाया जहाँ वह गृहस्वामिनी बनी।
इस प्रकार
ऋग्वेद में वर्णित
विवाह सूक्त के
आधार पर नारी की सम्मानजनक
स्थिति का ज्ञान
होता है। यह सर्वविदित सत्य है कि नारी
पुरूष की अर्द्धांगिनी
है। इसके विषय
में डा. प्रकाश
चन्द्र दीक्षित ने
अपनी पुस्तक ‘भारतीय
सामाजिक व्यवस्था’12 में लिखा
है। संस्कारात्मक दृष्टि
से विवाह का
स्त्री के लिए बहुत अधिक
महत्व है। पुरूष
के लिए भी विवाह एक
महत्वपूर्ण घटना है,
क्योंकि अविवाहित पुरूष
भारतीय समाज में
कोई सामाजिक पद
पद नहीं रखते।
विवाह वास्तव में
स्त्री-पुरूष की
परिधि से बाहर निकालकर सहयोग, समायोजन
के प्रति अग्रसर
करता है। डा. शिव भानु
सिंह ने अपनी पुस्तक ‘समाज दर्शन
का परिचय’13 में लिखा
है - ‘‘विवाह का
उद्देश्य स्त्री-पुरूष
का समाजीकरण करके
उन्हें आदर और सम्मान का
अधिकारी बनाना था।
विवाह पुरूषार्थ का
साधन माना गया
है।’’ हिन्दू धर्म
के अनुसार एक
हिन्दू के जीवन की सार्थकता
धर्म, अर्थ, काम,
मोक्ष अर्थात पुरूषार्थ
की उचित साधना
है। डा. आर. जी. सिंह.
ने अपनी पुस्तक
’भारतीय समाज‘14 में विवाह
को पुरूषार्थ का
साधन बताया है’’जीवन का चरम
लक्ष्य है मोक्ष
प्राप्ति जिसे धर्म,
अर्थ, काम की सााधना से
ही संभव है।
बिना विवाह व गृहस्थ जीवन
बिताये यह साधना
नहीं हो सकती।’’ विवाह यौन सुख
का माध्यम है,
किन्तु भसारतीय दार्शनिक
दृष्टिकोण में इसको
आनन्द प्राप्ति का
माध्यम बताया गया
है। डा॰ राधाकमल
मुखर्जी15 ने यौन
संबंधों को केवल आत्मतुष्टि एवं प्राणिशास्त्रीय
आवश्यकता न मानकर
इसके दार्शनिक दृष्टिकोण
पर भी विचार
किया है। उनके
अनुसार ‘‘यौन का
सबसे उच्च कार्य
ब्रह्माण्डीय एकता को
स्थापित करने एवं
बनाये रखने का है।‘‘ वर्तमान में अन्तर्जातीय
विवाह की अधिकता
पायी जाती है।
नगरीकरण के बढ़ते प्रभाव के
फलस्वरूप समान रूप
से शिक्षित एवं
समान नौकरी व्यवसाय
करने के कारण अर्न्तजातीय विवाह की
बहुलता देखी जाती
है। अन्तर्जातीय विवाह
के विषय में
श्री के. एम. कपाड़िया ने नकारात्मक
प्रवेश तथा डा. नर्मदेश्वर प्रसाद ने
अन्य जाति मंे
विवाह का समर्थन
प्राप्त नहीं माना
है। इनके मतों
का उल्लेख ‘‘भारतीय16
सामाजिक व्यवस्था’’ पुस्तक में
प्राप्त होता है।
अन्तर्जातीय विवाह को
विस्तृत परिदृष्टि में
देखें तो इसका विवरण हमें
वेदों से प्राप्त
होता है। वस्तुतः
इसमें वर-वधू की स्वीकृति
प्रधान होती है जिसमें धीरे-धीरे गोत्र,
पिण्ड, जाति गौंण
होते चले गये।
श्री राजबली पाण्डे
ने गन्धर्व को
अत्यन्त प्राचीन विवाह
माना है एवं इसकी अपनी
पुस्तक हिंदू संस्कार17
में सिद्ध किया
है। विधिपूर्वक किया
गया विवाह स्थायी
होता है तथा व्यक्ति के समाजीकरण
में सहायक भी।
वस्तुतः ऋग्वेद में
वर्णित विवाह सूक्त
स्त्री-पुरूष के
उस सशक्त संबंध
को दर्शाता है,
जो सामाजिक प्रगति
में कर्तव्य एवं
अधिकार का संतुलित
सामंजस्य स्थापित करता है।
प्रस्तुत शोध पत्र
में हिंदू विवाह
के उदात्त पक्षों
का निरूपण किया
गया है। विवाह
निषेध, परित्याग आदि
का यहाँ वर्णन
नहीं किया गया
है। भारतीय समाज
की मूलभूत संस्था
परिवार है। इस सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक
सत्ता को बनाए रखने के
लिए ऋग्वेद में
वर्णित विवाह सूक्त
के महत्व को
समझना आवश्यक है।
वर्तमान समय में समाजीकरण के सातत्य
के लिए हमें
प्राचीन मूल्यों, दृष्टिकोणों,
मान्यताओं केा वर्तमान
परिवर्तनों के आलोक
में समझना होगा।
संदर्भ
1. ऋग्वेद -
10.85.26
2. ऋग्वेद -
10.85.27
3. प्रकाश चन्द्र दीक्षित,
पृ.सं. 169, भारतीय
सामाजिक व्यवस्था
4. मनुस्मृति
- 11.4
5. रघुवंश-
1.69
6. ऋग्वेद-10.27.12
7. के. एम. कपाड़िया
पृ. सं. 129, भारत
में विवाह तथा
परिवार
8. ऋग्वेद-10.85.6,7,10,11
9. ऋग्वेद-
10.85.12
10. मार्कण्डेय पुराण 11.50-73
11. ऋग्वेद-10.85.13
12. भारतीय सामाजिक व्यवस्था, प्रकाशचन्द्र
दीक्षित, पृ. सं.
162
13. समाज दर्शन का
परिचय, शिव भानु
सिंह, पृ. सं.
347
14. भारतीय समाज, डा.
आर. जी. सिंह,
पृ. सं. 150
15. द होराइजन ऑफ मैरिज,
डॉ. राधा कमल
मुखर्जी, पृ. सं.
-10
16. भारतीय समाजिक व्यवस्था,
पृ. सं.177
17. राजबली पाण्डेय, हिंदू संस्कार,
चौखम्बा प्रकाशन बनारस,
पृ. सं. 208
संदर्भ
ग्रन्थ सूची
1.
ऋग्वेद
का सुबोध भाष्य,
डॉ. श्रीपाद दामोदर
सातवलेकर, स्वाध्याय मण्डल पारडी:
1985
2.
द
होराइजन ऑफ मैरिज,
राधाकमल मुखर्जी, एशिया
पब्लिशिंग हाउस बम्बई
1957
3.
भारत
में विवाह तथा
परिवार, के. एम. कपाड़िया, मोतीलाल बनारसी
दास पब्लिशर्स, 2000
4.
भारतीय
सामाजिक व्यवस्था, प्रकाश
चन्द्र दीक्षित, ब्रह्मदत्त
दीक्षित, उत्तर प्रदेश
हिंदी ग्रंथ अकादमी,
1997
5.
भारतीय
समाज, डा. आर. जी. सिंह,
मध्य प्रदेश हिन्दह
ग्रन्थ अकादमी भोपाल
1987
6.
मनुस्मृति,
चौखम्बा प्रकाशन वाराणसी,
2013
7.
मार्कण्डेय
पुराण, गीता प्रेस
गोरखपुर 2015
8.
समाज
दर्शन का परिचय,
डा.ॅ शिव भानु सिंह,
शारदा पुस्तक भवन
इलाहाबाद 1993
प्रोफेसर शालिनी शुक्ला
विभाग प्रभारी संस्कृत विभाग
ल. सि. म.
राजकीय स्नातकोत्तर
महाविद्यालय
पिथौरागढ़
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
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