हिंदी साहित्य के विकास में छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों का योगदान
- राकेश कुमार
शोध-सार : वैसे तो हिंदी साहित्य की विकास परम्परा में अनेक क्षेत्रों के लोगों ने अपना योगदान दिया है, जो विशेष उल्लेखनीय हैं। लेकिन इस शोध आलेख में हम छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों का अध्ययन प्राचीन समय से लेकर आधुनिक समय तक। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काल विभाजन के अनुरुप करेंगे जिससे कि यह पता चल सकेगा की हिंदी साहित्य के विकास में छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों का योगदान भी अतुलनीय रहा है। उन्होंने भी अपने परिश्रम और कलम की ताकत से हिंदी साहित्य की सेवा की और उसे सींचा है।
मूल आलेख : हिंदी साहित्य की इतिहास परंपरा काफी पुरानी है, लेकिन हिंदी भाषा का साहित्य के रूप में प्रयोग अपभ्रंश के विकसित रूप खड़ी बोली हिंदी के रूप में होता है। हिंदी साहित्य के विकास को अनेक विद्वानों ने अपनी सहूलियत के हिसाब से अनेक भागों में विभाजित किया है, किंतु सबसे प्रामाणिक और सटीक विभाजन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी का माना जाता है। जिन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास को चार भागों में बांटा है, जो इस प्रकार है आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल। आचार्य शुक्ल द्वारा किये गए विभाजन को ही अधिकांश लेखकों ने सही माना और उसी के अनुसार ही अपनी रचना एवं व्याख्या की है। हिंदी साहित्य के विकास में केवल एक व्यक्ति का योगदान नहीं रहा, अपितु अनेक व्यक्तियों, समूहों और पत्र-पत्रिकाओं का योगदान रहा है, इसे समृद्ध और पल्लवित करने में। अन्य क्षेत्रों के समान ही छत्तीसगढ़ का भी हिंदी साहित्य के विकास में योगदान कम नहीं है, छत्तीसगढ़ में अनेक ऐसे कवि या लेखक हुए जिन्होंने माँ हिंदी के कोष को समृद्ध किया और अपने कलम की ताकत से इसे लगातार सींचते रहे। “भारत के अन्य क्षेत्रों की भाँति छत्तीसगढ़ के अंचल में भी हिंदी विकास का क्रम ब्रज और अवधि भाषा के बाद हुआ है। यहाँ भी हिंदी साहित्य की परंपरा अत्यंत गौरवपूर्ण रही है। यूं तो यहाँ की प्रमुख भाषा छत्तीसगढ़ी है, जिसके विकास का अलग से इतिहास है और लोक साहित्य की परंपरा में इसकी भी अलग से सकता है। पर इस लोक साहित्य की प्राचीनता से हिंदी साहित्य का इतिहास पहले आता है”।1 आज हम ऐसे ही छत्तीसगढ़ के रचनाकारों का अध्ययन करेंगे जिन्होंने हिंदी साहित्य की सेवा निश्चल भाव से की है।
छत्तीसगढ़ की प्रमुख भाषा हिंदी और लोक भाषा छत्तीसगढ़ रही है। यहाँ बहुतायत की संख्या में लोग छत्तीसगढ़ी भाषा का ही प्रयोग करते हैं, फिर भी हिंदी साहित्य की विकास परंपरा अत्यंत गौरवमयी रही। यहाँ के विद्वानों ने हिंदी साहित्य के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कई विद्वानों ने छत्तीसगढ़ में हिंदी साहित्य के क्रमिक इतिहास को देखते हुए अपने-अपने अनुसार काल विभाजन किया। “किसी ने छत्तीसगढ़ में हिंदी के विकास को रचना काल के अनुसार पांच भागों में विभक्त किया है 1.चारण कवियों की शृंखला, 2.भक्तिकाल, 3.भारतेंदु युग, 4.द्विवेदी युग, 5.आधुनिक काल। किसी ने तीन काल में विभक्त किया है- 1.भारतेंदु काल, 2.द्विवेदी काल और 3.आधुनिक काल। और किसी ने सिर्फ दो काल में विभक्त किया है- प्राचीनकाल और आधुनिक काल”।2 परंतु इनमें से कोई भी काल विभाजन उचित एवं तार्किक सिद्ध नहीं होता है। छत्तीसगढ़ में हिंदी साहित्य के क्रमिक विकास को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काल विभाजन के अनुरूप किया जाए तो कोई अनुचित नहीं होगा, क्योंकि हिंदी साहित्य में आचार्य शुक्ल का काल विभाजन सबसे प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक काल विभाजन माना जाता है, इन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास को चार भागों में बांटा है जो इस प्रकार है-
1. वीरगाथा काल (आदिकाल 1050 से 1375 तक)
2. पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल 1375 से 1700 तक)
3. उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल सन 1700 से 1900 तक)
4. गद्य काल (आधुनिक काल 1900 से अब तक)
“छत्तीसगढ़ का हिंदी काव्य साहित्य हिंदी राष्ट्रीय साहित्य से पृथक नहीं है, अतः छत्तीसगढ़ में काव्य चेतना के संस्कार का अनुशीलन करते हुए उपर्युक्त काल क्रमों का ध्यान रखना आवश्यक है, इन कालों में छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों की गतिविधि क्या थी? यह एक अनुशीलन का विषय है, अनुशीलन करके इस काल विभाजन के साथ समन्वय करने पर छत्तीसगढ़ में हिंदी विकास का क्रम स्पष्ट हो जाता है”।3
हिंदी साहित्य के वीरगाथा काल की समय सीमा 1050 से 1375 विक्रम संवत्तक रही। इससे पूर्व संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, की परंपराएं रही जिसका अंतर्भाव हिंदी साहित्य के पूर्व साहित्य के रूप में कर दिया गया। संस्कृत भाषा का प्रयोग छत्तीसगढ़ में चौथी सदी से आरंभ होकर कलचुरी वंश तक चलता है, लेकिन संस्कृत की अपनी विशिष्टता होने के कारण वह सर्वसाधारण के बीच प्रचलित न हो सकी और कालांतर में हिंदी सर्वसाधारण की भाषा बन गई। छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय राजवंश एवं राजाओं के होने के पश्चात् भी हिंदी के वीरगाथा युग के समान यहाँ विशुद्ध वीरकाव्य प्राप्त नहीं हुए, इसके संबंध में पंडित लोचन प्रसाद पांडेय ने लिखा है कि “हिंदी साहित्य में संस्कृत युग के बाद आदिकाव्य के अंतर्गत श्री राज रासो जैसे वीर गान का सर्वव्यापी प्रभाव पड़ा। किन्तु इस अंचल में उस गान की प्रतिध्वनि नहीं हुई। छत्तीसगढ़ में यों तो भाटों की परंपरा रही है, किंतु उनके काव्य का मौखिक रूप होने के कारण वे लोक साहित्य तक ही सीमित रह गये। वीर रस का कोई काव्य छत्तीसगढ़ में नहीं लिखा गया”।4 संपूर्ण छत्तीसगढ़ में पूर्व में चौदह रियासतें थीं और सभी रियासतों ने अपनी शक्ति के अनुसार हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। खैरागढ़ के राजदरबार के चारण कवियों की रचनाएं जो 15वीं से 16वीं शताब्दी तक प्राप्त होती है, ये सभी हिंदी साहित्य के आदि युग की प्रवृत्तियों के समान ही रही, लेकिन ये कुछ देर से परिलक्षित होती है। ये नौ चारण कवि थे जो एक ही वंश के थे इनमें सबसे प्रथम दलपत राम राव एवं अंतिम कमल राय थे। इन सभी ने खड़ी बोली हिंदी साहित्य की साधना की और हिंदी को समृद्ध बनाया। इन्हीं की वंश परंपरा में दलवीर आते हैं ये अपने समय के सफल कवियों में गिने जाते हैं। इन्होंने खैरागढ़ के राजा घनश्याम के लिए खड़ी बोली हिंदी में एक कविता लिखी जो इस प्रकार है-
“गुण न कटक देख, भूप भय रवाना नहीं।
झाड़ो तलवार और हिम्मत अड़ाना है,
कल-बल-छल और साहस बहादुरी
के
शाप न घटाना और अकल बढ़ाना है”।5
खड़ी बोली हिंदी का छत्तीसगढ़ में आज से साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व इतना शुद्ध रूप मैं उपयोग होना किसी आश्चर्य से कम नहीं। कविता में हिंदी का इतना शुद्ध रूप देखकर मन विस्मित हुए बिना नहीं रह सकता। ऐसे ही और अनेक विभूति हुए जो हिंदी साहित्य की साधना में रमे रहे और उसके विकास में अपना योगदान देते रहे। रत्नपुर के राजकवि गोपाल मिश्र एक उल्लेखनीय नाम है जिन्होंने औरंगजेब की क्रूरता पूर्ण शासन की धज्जियां उड़ाने वाली रचना खूब तमाशा की रचना की। इनकी अन्य रचनाएँ सुदामा चरित्र, भक्ति चिंतामणि, रामप्रताप, जैमिनी अस्वमेघ आदि भी इनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ है। इनके पुत्र माखन भी एक अच्छे कवि थे इनकी अपूर्ण रचना रामप्रताप को इन्होंने ही पूर्ण किया। इनके पश्चात् रत्नपुर के बाबू रेवाराम का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है, ये संस्कृत और हिंदी दोनों के ही बड़े अच्छे साहित्यकार थे इन्होंने लगभग 13 ग्रंथों की रचना कर संस्कृत एवं हिंदी के कोष को प्रशस्त किया है। इसके बाद कुछ अन्य कवि भी हुए जो अपने राजाओं के आश्रम में रहकर साहित्य की सेवा करते रहे। इन्हें वीरगाथा युग का कवि तो नहीं कहा जा सकता परंतु ये सभी उसी समय के समान ही राज्याश्रित थे, इसके कारण ही इनका उल्लेख यहाँ किया गया है।
पूर्व मध्यकाल भक्ति काल 1375 से 1700 विक्रम संवत् हिंदी साहित्य के क्रमिक विकास का अगला चरण है जो दो धाराओं में सगुण और निर्गुण धारा में विभाजित था। निर्गुण धारा के प्रवर्तक कबीरदास जी है। भले ही कबीरदास जी का संबंध छत्तीसगढ़ से ना रहा हो लेकिन इनके अधिकांश शिष्य छत्तीसगढ़ से ही थे। इनके पंथ के प्रमुख स्थानों में एक बनारस है, तो दूसरा कवर्धा है। कवर्धा छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ का प्रमुख स्थान माना जाता है यही से कबीर पंथ के साहित्य का प्रचार-प्रसार हुआ। छत्तीसगढ़ में कबीर के कई शिष्य थे किंतु उनके प्रमुख शिष्य धरमदास छत्तीसगढ़ के बांधवगढ़ के निवासी थे जो आगे चलकर कबीर के उत्तराधिकारी हुए और कबीर के पंत को आगे बढ़ाया। इन्होंने ही कबीर के विचारों और उपदेशों को बीजक नाम से संगृहीत किया है, इनकी प्रमुख रचनाऐ श्री गुरु माहात्म्य, ज्ञान चिंतक, ज्ञान प्रकाश, विवेक सागर, धर्म बोध, ज्ञान स्थिति बोध, ब्रह्म विलास, उग्र गीता आदि हैं। जगजीवन दास चंदेल क्षत्रिय थे, इन्होंने छत्तीसगढ़ में सतनामी संप्रदाय की स्थापना की। इनकी वाणी से हिंदी साहित्य को बड़ा बल प्रदान हुआ। इसी क्रम में छत्तीसगढ़ में एक और शाखा का जन्म हुआ जिसके आदि प्रवर्तक गुरु घासीदास हुए उन्होंने सत्य को ही ईश्वर और धर्म माना और अपनी वाणी से लोगो का उद्धार करने में लग गये। इनके अनुयायी सतनामी कहलाए और इनके मरणोपरांत गिरौदपुरी में हर साल मेला आयोजन होता है। भक्ति काल में प्रवाहित दूसरी धारा सगुण भक्ति की थी सगुण भक्ति धारा के कवियों में श्री वल्लभाचार्य जी का स्थान प्रथम आता है भले ही इनका कार्यक्षेत्र ब्रजभूमि रहा हो किंतु इनका जन्म रायपुर के चम्पारण नामक स्थान पर हुआ। “ब्रज एक पावन तीर्थ स्थान है, जहाँ भारत के विभिन्न प्रांतों की श्रद्धालु जनता का आगमन प्राचीन काल से हो रहा है, फलतः वल्लभाचार्य के अनुयायी पर्याप्त संख्या में हर प्रांत में पाये जाते हैं, फिर भी छत्तीसगढ़ को इस बात का गर्व तो है ही कि उसने वल्लभाचार्य जैसे पुष्टिमार्ग के संस्थापक को जन्म दिया”।6 इनकी दार्शनिक दृष्टि शुद्धाद्वैतवाद की थी इनका लक्ष्य शंकराचार्य के मायावाद और निर्वतवाद से मुक्ति की थी। इनके प्रमुख ग्रंथ श्रीमद्भागवत की सुबोधिनी टीका, तत्वदीप निबंध, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा, ब्रज सूत्र भाषा, सोलह प्रकरण ग्रंथ आदि हैं। इनकी रचना अणुभाष्य को पूर्ण इनके पुत्र विट्ठलनाथ ने किया था। वल्लभाचार्य के पश्चात् सगुण धारा की प्रवृत्ति को प्रभावित करने का कार्य इनके पुत्र विट्ठलनाथ एवं नाती गोकुलनाथ ने किया। इन दोनों की रचनाएं हिंदी साहित्य के विकास की दृष्टि से सशक्त रचनाएं हैं। इनके पश्चात् छत्तीसगढ़ में सगुण धारा के कवियों के रूप में गोपालचंद्र मिश्र, माखन लाल मिश्र, बाबू रेवाराम, पहलाद दुबे, पंडित शिवदत्त शास्त्री, तेज नाथ शास्त्री, अमराव बख्शीं आदि आते हैं। गोपाल कवि की शठ शतक, माखन कवि की छंद विलास, प्रह्लाद दुबे की जयचंद चंद्रिका, गंगाधर मिश्र की कोसलनंद, बाबू रेवाराम की कृष्णलीला, पंडित तेज नाथ शास्त्री की रामायण सार संग्रह, अमराव बख्शी की रामलीला रामायण नाटक, कवित्त रामायण, फतेह विनोद, फतेह विलास, आदि रचनाओं ने छत्तीसगढ़ में हिंदी साहित्य के विकास में विशेष योगदान दिया है।
कपिल नाथ कश्यप- वैदही विछोह,
बावरी राधा, युद्ध आमंत्रण, सीता विलाप, राम राज्य, सीता की अग्निपरीक्षा, स्वतंत्रता के सेनानी, आहृान,
सुलोचना विलाप, पुरुषार्थ प्रेम पीयूष,
बिखरे फूल, न्याय, श्री राम जन्म, चित्रलेखा।
मुकुटधर पाण्डेय- स्मृति पुंज,
परिश्रम, हृदय दान, शैलवाला, मामा, पूजा का फूल, कानन
कुसुम। इन्हें छायावाद के प्रवर्तक के रूप में भी जाना जाता है। इन्हें पद्मश्री
की उपाधि एवं डी. लिट. से सम्मानित
किया गया है।
संदर्भ :
- मदनलाल गुप्त, छत्तीसगढ़
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- मदनलाल गुप्त, छत्तीसगढ़
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- प्यारेलाल गुप्त, प्राचीन
छत्तीसगढ़ प्रथम संस्करण, प्रकाशक रविशंकर विश्वविद्यालय
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- मदनलाल गुप्त, छत्तीसगढ़
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- मदन लाल गुप्त, छत्तीसगढ़
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- मदनलाल गुप्त, छत्तीसगढ़
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- प्यारेलाल गुप्त, प्राचीन
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रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर म.प्र., 1973।
- छत्तीसगढ़ की विभूतियाँ एवं
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- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिन्दी
साहित्य का इतिहास, लोक भारती प्रकाशन,नई दिल्ली,आठवां संस्करण 2012।
- डॉक्टर विमल कुमार पाठक, छत्तीसगढ़
के हीरे, श्री प्रकाशन, दुर्ग छ.ग. 2010।
- डॉ. राजकुमार बेहार, श्रीमती निर्मला बेहार, छत्तीसगढ़ के गौरव रत्न,
छत्तीसगढ़ शोध संस्थान रायपुर।
- डॉ. नगेंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, प्रकाशन मयूर पेपरबैक्स,
नई दिल्ली, 2018।
राकेश कुमार
शोधार्थी (हिन्दी), कल्याण स्नातकोत्तर महाविद्यालय भिलाई नगर, दुर्ग छ.ग.
Yrakesh143.ry@gmail.com, 9691938999
शोधार्थी (हिन्दी), कल्याण स्नातकोत्तर महाविद्यालय भिलाई नगर, दुर्ग छ.ग.
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
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