- प्रीति हुड्डा
शोध सार : आधुनिक हिंदी साहित्य का जन्मदाता भारतेंदु हरिश्चंद्र को माना जाता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने साहित्य के माध्यम से तत्कालीन भारतीय समाज की विसंगतियों पर चोट की है। भारतेंदु निबंध, कहानी, यात्रा वृत्तांत, नाटक, कविता यानि साहित्य की प्रचलित नयी और पुरानी सभी विधाओं में समान अधिकार से लेखन कर रहे थे। भारतेंदु के नाटक औपनिवेशिक भारतीय समाज को समझने की दृष्टि से अधिक कारगर हैं जिसमें उन्होंने अंग्रेजी व्यवस्था की आलोचना तो की ही है, साथ ही भारतीय समाज में व्याप्त भेदभाव के विभिन्न कारकों की भी आलोचना की है। वे धर्म, जाति, अमीरी-ग़रीबी के आधार पर किये जा रहे भेदभाव को, जिससे लोग आपस में बंटे हैं, एकजुटता नहीं बन पा रही जिसके कारण विदेशी ताकतें उनपर अपना आधिपत्य जमाती जा रही हैं। ‘अंधेर नगरी’ उनका प्रमुख नाटक है जिसके माध्यम से वह यह सन्देश देना चाहते हैं कि कैसे सत्ता में मधांद व्यक्ति अपने अविवेकपूर्ण फैसले का शिकार स्वयं हो जाता है। इस नाटक की शैली व्यंग्य प्रधान है और यह व्यंग्य सीधे जनता के हृदय को छूता है।
बीज शब्द
: नाटक, प्रहसन, भारतेंदु, आधुनिकता, व्यंग्य, स्वाधीनता,
उपनिवेशवाद, जातिवाद, भेदभाव, हिन्दू, मुस्लिम, अंधेर नगरी...इत्यादि।
मूल आलेख
: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जिस कालखण्ड में लिख रहे थे वह संक्रमण
का दौर था। समाज में भी और साहित्य में भी। भारतीय समाज में एक केन्द्रीयकृत सत्ता
के रूप में ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता स्थापित हो चुकी थी। इस समय अग्रेजों के
द्वारा भारत के आर्थिक दोहन का कार्य अपने चरम पर था। इसका विश्लेषण दादा भाई
नौरोजी ने 'धन निष्कासन सिद्धान्त (The Theory of
drain)' देकर किया।1 इससे भारत के
तत्कालीन बुद्धिजीवियों में एक खलबली मची। प्रसंगतः इसकी अभिव्यक्ति भारतेन्दु के
नाटक 'भारत दुर्दशा' में देखने को
मिलती है- "पै धन विदेस चलि जात...|”2 समाज में एक नवीन प्रवृत्ति
और देखने को मिलती है। समाज मध्ययुगीनता के केंचुल को उतार कर आधुनिक एवं
वैज्ञानिक विचार की तरफ अग्रसर हो रहा था। इसके कारण तमाम प्रकार के सामाजिक
रूढियों एवं संस्कारों को लेकर तीखी बहस छिड़ी। इस बहस में अनेक बुद्धिजीवी एवं
लेखक सम्मिलित थे।
भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र भी इस बहस को अपने साहित्य सृजन में स्थान देते हैं। विशेषतः नाटकों
में। संभव है नाटक विधा इसके अनुकूल रही होगी क्योंकि इस समय औपनिवेशिक सत्ता
द्वारा कड़ा सेंसरशिप लगाया गया था। भारतेन्दु ने नाटकों में इन बातों को अधिकतर
व्यंग्य के माध्यम से प्रस्तुत किया है। उनके नाटकों में सामाजिक विकृतियों पर, धार्मिक पाखण्ड पर, धर्मपोषित जाति पर, राजनीतिक विद्रूपताओं पर, सरकारी आर्थिक नीतियों पर
व्यंग्य देखने को मिलता है।
भारतेन्दु
ने समाज के आधे भाग के सवाल नारी प्रश्न पर सहृदयता से विचार किया। उन्होंने पाठकों
के सामने नारी जीवन का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया। इस सन्दर्भ में गिरीश रस्तोगी
का कहना है. "कबीर की तरह युग प्रवर्तक, फक्कड़, क्रान्तिकारी और सजग आलोचक, प्रेमचन्द की तरह यथार्थ
को चित्रित करने वाले और निराला की तरह विराट जीवन्त प्रखर और निर्भीक एवं ओजपूर्ण
व्यक्तित्व- सम्पन्न भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी के प्रथम मौलिक नाटककार ही नहीं,
वह आज की समकालीन विशेषज्ञों के लिए चुनौती बने हुए हैं और उनकी
प्रासंगिकता निर्विवाद है।"3
भारतेन्दु
के रचनात्मक महत्त्व को रेखांकित करते हुए प्रसिद्ध नाट्यालोचक गिरीश रस्तोगी
लिखती हैं, “वस्तुतः भारतेन्दु ने एक ओर छुआछूत, विधवा-विवाह, अनमेल विवाह,
नारी-व्यक्तित्त्व आदि विषयों पर खुलकर लिखा, बल्कि प्रेमचन्द और निराला की तरह
पुरानी घिसी-पिटी मान्यताओं को, सड़ी-गली धारणाओं और पिछड़ेपन को मोहवश गर्व की तरह
नहीं, आलोचनात्मक दृष्टि से देखना सिखाया |”4
भारतेन्दु
द्वारा रचित 'पाखण्ड विडम्बना' (1873
ई.), 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' (1873
ई.), 'प्रेम जोगिनी' (1875 ई.),
'विषस्य विषमौषधम' (1876 ई.), 'भारत दुर्दशा' (1876 ई.), 'भारत
जननी' (1877 ई.), 'अंधेर नगरी'
(1881 ई.) प्रमुख रूप से व्यंग्य नाटक हैं। इसमें वैदिकी हिंसा
हिंसा न भवति, विषस्य विषमौषधम तथा अंधेर नगरी प्रहसन की
श्रेणी में आते हैं। वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति में भारतेन्दु ने वैदिक धर्म के
नाम पर हिंसा करने वाले मांसाहारियों, शराबियों (मद्यपान) और
व्यभिचारियों पर करारा व्यंग्य किया है। विषस्य विषमौषधम नाटक में देशी राजाओं के
कुप्रबंध, भारतीय राजाओं के चारित्रिक पतन तथा उनके संबंध
में ब्रिटिश सरकार की नीतियों का पर्दाफाश किया गया है। 'अंधेर
नगरी' तो मूर्ख राजा के प्रशासन को लेकर लिखा गया नाटक है।
वस्तुतः भारतेन्दु अपने आपको नवजागरण की चेतना से जोड़ते है तथा अपने समय की
समस्याओं का यथार्थ चित्रण करते हैं। भारतेन्दु के इस महत्त्व को मूल्यांकित करते
हुए डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं, "भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र का यह युगान्तकारी महत्त्व है कि उन्होंने अपने प्रदेश की सांस्कृतिक
आवश्यकताओं को पहचाना।”5
भारतेन्दु
की नजर तत्कालीन समाज में व्याप्त विसंगति व भ्रष्टाचार पर थी | उन्होंने अपने
प्रहसन में सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक भ्रष्टाचार व विकृतियों पर करारा
व्यंग्य किया है। भारतेन्दु के 'अंधेर नगरी' नाटक में भ्रष्टाचार के सभी रूपों पर व्यंग्य देखने को मिलता है। यह अपने
आप में प्रतीकात्मक शैली में लिखा गया नाटक है। जिसमें प्रतीकात्मक ढंग से
भारतेन्दु ने कभी चने वाले के माध्यम से, तो कभी चूरन वाले तो कभी सब्जी-फल बेचने
वाली कूजड़ीन के माध्यम से तत्कालीन सत्ता के प्रतीक सेठ-साहूकारों पर व्यंग्य किया
है। वह लिखते हैं-
“चूरन अमले सब जो खावै ।
दूनी रिश्वत तुरत पचावै ।।
चूरन नाटक वाले खाते ।
इसकी नकल पचाकर लाते ।।
चूरन सभी महाजन खाते।
जिससे जमा हजम कर जाते।।”6
एक
प्रकार से देखें तो यह चिंता भारतेन्दु ने किसानों के तरफ से की है। यह जमाखोरी की
प्रवृत्ति कमोबेश आज भी दिखाई पड़ती है। इस प्रकरण में सरकारी अमलों की भी मिली
भगत होती है। जिन पर व्यंग्य करते हुए भारतेन्दु ने लिखा है ‘चूरन अमल सब जो खावें, दूनी रिश्वत तुरंत पचावे' | यह रिश्वतखोरी, जमाखोरी एक पूरी साजिश है आम जन के खिलाफ, जिसमें पूँजी निर्माण का खेल
खेला जाता है, एक विशेष वर्ग के द्वारा। 'भारत दुर्दशा' में उन्होंने बाल विवाह और बहुविवाह
से होने वाली कुप्रवृत्तियों की ओर संकेत किया है। समाज में प्रचलित जन्मपत्री के
आधार पर कर्म करने वालों की कटु आलोचना की है-
"जन्मपत्र विधि मिले
व्याह नाहिं होन देत अब।
बालकपन में व्याहि प्रीति बल नाश कियो सब ।।
करिकुलीन के बहुत व्याह बल
बीरज मार्यो।
विधवा विवाह निषेध कियो व्यभिचार प्रचार्यो।7
धार्मिक
पाखण्ड का यह कथ्य "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' में भी
मिलता है। ब्राह्मण लोगों के माँस खाने की प्रवृत्ति और उनके द्वारा धार्मिक 'प्रोपेगेंडा' खड़ा करने के सवाल पर- "हे
ब्राह्मण लोगों ! तुम्हारे मुख में सरस्वती हंस सहित वास करें और उसकी पूँछ मुख
में न अटके हे पुरोहित, नित्य देवी के सामने पशु मराया करो
और प्रसाद स्वाया करो।”8
कबीर
ने भी अपने तत्कालीन समय में इन धर्माचार्यों के ऊपर तीखा व्यंग्य किया था। 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' नाटक में व्यभिचारी साधु
गण्डकीदास का चरित्र चित्रण जो विदूषक के द्वारा किया गया है उसका लहजा भी
व्यंग्यात्मक ही है-
"विदूषक महाराज, गण्डकीदास जी का नाम तो रंडादास जी होता तो अच्छा होता।
राजा- क्यों ?
विदूषक- महाराज यह तो रंडा
के ही दास हैं |”9
दरअसल यह
गण्डकीदास का चरित्र तमाम साधुओं की लम्पटता का चित्रण है, जो धर्म को व्यवसाय बनाकर धन उगाही का कार्य करते हैं। इसी क्रम में
भारतेन्दु ने 'प्रेमजोगिनी' नाटिका में
काशी के धार्मिक ब्राह्मण, पण्डा, पुरोहित
आदि की छिछली धार्मिक कुप्रवृत्तियों का रेखांकन किया है। धर्म की आड़ में इन लोगों
का मुख्य धन्धा परदेशियों को ठगना, स्त्रियों को फंसाकर
वासना पूर्ति करना होता है। आगे चलकर फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के मैला आँचल में इस तरह
की चीजें और स्पष्ट हो जाती हैं | कैसे धर्म के नाम पर अधर्म, शोषण और व्यभिचार
मठों के महंत, साधू करते हैं, इसे हम देखते हैं | पिछले वर्षों में हुई विभिन्न घटनाओं
ने इस पर से पर्दा उठा दिया है |
इस नाटिका में कहानी का एक प्लाट नारी आदर्श को
लेकर भी है। यहाँ पर भारतेन्दु ने स्त्रियों के लिए आदर्श प्रस्तुत कर अपने
कर्त्तव्य की इति श्री नहीं कर ली है, वरन् स्त्री चरित्र की दुर्बलताओं पर तीखा
व्यंग्य किया है। इस संदर्भ में 'प्रेम जोगिनी' में बनितादास का कथन देखने योग्य है-
"बनितादास - भाई
साहेब,
बड़ेन का नाम बेच थे
और इन सबन में कौन लच्छन
है,
न पढ़ना जा…
चूरन साहेब लोग जो खाता
सारा हिंद हजम कर जाता।।
चूरन पुलिस वाले खाते।
सब कानून हजम कर जाते।”10
ब्रिटिश
सरकार के शोषण एवं उसकी न्याय प्रक्रिया की तीखी आलोचना का चित्रण भारतेन्दु ने 'अंधेर नगरी' में किया है -
"अंधेर नगरी अनबूझ
राजा ।
टका सेर भाजी टका सेर खाजा
।।
नीच ऊँच सब एकहि ऐसे। जैसे
भडुए पंडित तैसे । ।
कुल मरजाद न मान बड़ाई ।
सबै एक से लोग लुगाई ||
वेश्या जोरू एक समाना ।
बकरी गऊ एक करि जाना ।।
धर्म अधर्म एक दरसाई राजा
करे सो न्याय सदाई ।।”11
भारतेन्दु
के नाटकों में विवेकहीन सत्ता व्यवस्था निशाने पर है | ‘भारत-दुर्दशा’ और ‘अंधेर
नगरी’ इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं | ‘अंधेर नगरी’ तो वस्तुतः अंध-व्यवस्था का प्रतीक
है | उपर्युक्त पंक्ति में भारतेन्दु ने दिखाया है कि ऐसे नगर में रहने से बचना
चाहिए जहाँ भाजी और खाजे के मूल्य में कोई अंतर न हो | क्योंकि ऐसी अंधेर नगरी और
वहाँ के अदूरदर्शी राजे के राज में जनता की सुरक्षा और गरिमा को खतरा है | इस नाटक
की महत्ता पर टिप्पणी करते हुए गिरीश रस्तोगी ने कभी कहा था, ‘यह ऊपर से
हास्य-प्रधान दिखनेवाला नाटक वस्तुतः तीखी व्यंग्यपूर्ण रचना है। यह दूसरी बात है
कि भारतेन्दु का व्यंग्य बहुत कटु और उतना प्रत्यक्ष नहीं होता जितना बंगला
नाटककार माइकेल का है शायद यह उस युग की जरूरत भी थी फिर भी भारतेन्दु के व्यंग्य
का सौन्दर्य आक्रामकता में नहीं, उसकी
अनायास प्रवाहमान अभिव्यक्ति और रोचकता में है, जो हँसता भी है और तिलमिलाता भी
है। इस सामान्य-से दीखनेवाले कथानक में सामन्ती व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था की
भ्रष्टाचारिता, सत्ता की
विवेकहीनता, शिथिलता-जड़ता, सत्ताधारी मानसिकता, उसकी निरंकुशता, निरीह जनता को लम्बे समय तक
उलझाने और ठगने की प्रवृत्ति, आज
के युग में मूल्यों की विकृति और विसंगति को चित्रित किया गया है । इसे अगर मात्र
दृष्टान्त शैली मानें तो इसका केन्द्र बिन्दु कर्मफल है - लोभवृत्ति और चौपटराजा
की परिणति। लेकिन नाटक का मूल स्वर प्रचलित अराजक, मूल्यहीन, अमानवीय व्यवस्था-प्रणाली का है
जिसमें अन्याय है, झूठ
है, लोभ और
स्वार्थ है, शोषण
जैसी वृत्तियाँ पनप रही हैं और फिर भी जीवन प्रवहमान है ज्यों-का-त्यों। 'अन्धेर नगरी' बन्ध व्यवस्था का प्रतीक है। चौपट
राजा विवेकहीनता और न्यायदृष्टि के न होने का मूर्त स्वरूप है। उसका न्याय भी
अन्धता का प्रमाण है क्योंकि बकरी की मृत्यु का दण्ड देने के लिए गोवर्धन पकड़
लिया गया, अर्थात्
कोई भी दण्डित हो सकता है। अविवेकी, प्रमादी, मूल्यहीन राजा की परिणति तो
भारतेन्दु ने दिखायी ही है, लेकिन
साथ ही उन्होंने गोवर्धन के द्वारा मनुष्य
की लोभवृत्ति पर भी व्यंग्य किया है। लोभवृत्ति ही मनुष्य को 'अन्धेर नगरी' की अन्धव्यवस्था, अमानवीयता में फँसाती है।
अंग्रेजों की न्याय-दृष्टि और प्रणाली में भी शोषक-शोषित, अपराधी-निरपराधी में कोई अन्तर
नहीं था, आज भी
हमारी न्याय प्रणाली की यही स्थिति है। हमारी समकालीन शासन व्यवस्था पर शोषकवृत्ति
पर तो, 'अन्धेर
नगरी' व्यंग्य
ही है पर यह अन्धेर नगरी विश्व के किसी भी कोने में हो सकती है, क्योंकि ये प्रवृत्तियाँ आधुनिक
युग की देन हैं।’
भारतेन्दु
व्यवस्था और सत्ता के चरित्र को समझ रहे थे | उन्होंने भांप लिया था कि झूठ और
चाटुकारिता का बोलबाला है | देसी रियासतों के जमींदार, छोटे-मोटे रजवाड़े अंग्रेजी
सरकार की जी हुजूरी कर रहे और पद-प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहे-
“साँच कहैं ते पनही खावै।
झूठे बहु बिधि पदबी पावै।।
छलियन के एका के आगे। लाख
कहौ एकहु नहिं लागे ।।
भीतर होई मलिन की कारो।
चाहिए बाहर रंग चटकारो।।
धर्म अधर्म एक दरसाई। राजा
करे सो न्याव दरसाई।।
भीतर स्वाहा बाहर सादे।
राज करहीं अमले अरु प्यादे।।”12
भारतेन्दु
ने भांप लिया था कि भारतीय जमीदार और रजवाड़े अपने हितों के लिए सत्ता के साथ
जाएंगे, और वही हुआ | प्रेमचंद तक आते आते स्पष्ट हो गया कि भारतीय संभ्रांत वर्ग
दो हिस्सों में विभाजित हो चुका था | एक अंग्रेजों के साथ था तथा दूसरा कॉंग्रेस
के साथ | दोनों अपने-अपने हितों को अपने हिसाब से सुरक्षित कर रहे थे |
भारतेन्दु
ने देशी राजाओं पर भी व्यंग्य किया है। ब्रिटिश सरकार के शासन में आकर देशी राजाओं
को वीरता ठण्डी पड़ गई। शक्ति और साहस के अभाव में वे पूरी तरह से सरकार की
कठपुतली बन गए थे। भारतेन्दु ने उनकी चाटुकार स्थिति पर व्यंग्य करते हुए लिखा है।
"कलकत्ते के प्रसिद्ध राजा अपूर्व कृष्ण से किसी ने पूछा था कि आप लोग कैसे
राजा है, तो उन्होंने उत्तर दिया, जैसे
शतरंज के राजा, जहाँ चलाइए वहाँ चलें।”13
ब्रिटिश
प्रशासन के द्वारा भारत के शोषण के संदर्भ में भारतेन्दु ने सरकार की कटु आलोचना
की है। ब्रिटिश सरकार की इन शोषक नीतियों को भारतेन्दु ने व्यंग्यात्मक रूप में पर्दाफाश
किया है। 'भारत दुर्दशा' के प्रथम
अंक में एक योगी गाता है -
"अंग्रेज राज सुख साज
सजे सब भारी |
पय धन विदेश चलि जात यहे अति ख्यारी।।
ताहू पे महँगी काल रोग
बिस्तारी
दिन दिन दूनो दुःख ईश देत हा हा री।
हा हा! भारत दुर्दशा न
देखी जाई ।।"14
भारतेन्दु
ने देशवासियों में व्याप्त आलस्य और अकर्मण्यता पर भी कटु व्यंग्य किया है-
"दुनिया में हाथ पैर
हिलाना नहीं अच्छा।
मर जाना पर कहीं उठ के
जाना नहीं अच्छा।।
फाकों से मारिये पर न कोई
काम कीजिए दुनिया नहीं अच्छी है जमाना नहीं अच्छा।।
मिल जाए हिन्द खाक में हम
काहिलों को क्या, ए मीरे फर्श रंज उठाना नहीं अच्छा।।”15
निष्कर्ष : भारतेन्दु का
समय राजनीतिक और सामाजिक रूप से संक्रमण का दौर था | अंग्रेजों के खिलाफ गदर विफल
हो चुका था | संभ्रांत और जमींदार वर्ग भी दो भागों में बँट चुका था | समाज में
अंतर्विरोध स्पष्टतः परिलक्षित होता दिखता है | भारतीय समाज में भेद के कई स्तर पर
था जिसका फायदा औपनिवेशिक शक्तियों ने उठाया | जाति और धर्म के आधार पर स्पष्टतः
विभाजित भारतीय समाज व्यवस्था को अंग्रेजों ने पहचान लिया था | इस दरार को
दिन-प्रतिदिन बढ़ाते ही गए | जिसका परिणाम यह हुआ कि भारतीयों में एकता बनने की
बजाय दूरी बढ़ती गयी | अंग्रेजी राज धीरे-धीरे अपनी जकड़ मजबूत बनाता गया | भारतेन्दु ने इन चीजों को समझा और अपने गद्य और
नाट्य साहित्य में पुरजोर उठाने का प्रयास किया | अपने नाटकों में जाति, धर्म,
अशिक्षा, आलस्य, असमानता, गरीबी जैसे महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर व्यंग्य के माध्यम
से उठाया। हालांकि वह भी अंतर्विरोध से मुक्त नहीं हैं | वह भी दो-चित्तेपन का
शिकार हैं लेकिन ये उनके युग की सीमा थी |
वस्तुतः भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र ने तत्कालीन समाज में पैदा होने वाले तमाम अन्तर्विरोधों को पहचाना और
विशेषतया नाटकों में उनको अभिव्यक्त किया। वे उस समय में जिन प्रश्नों से जूझ रहे
थे वे सवाल तत्कालीन बुद्धिजीवी, समाज सेवी, राजनीतिज्ञों के सामने भी था। महत्वपूर्ण बात यह है कि इनमें से किसने अपने
विचारों या रचनाओं में इसे जगह दिया। यहाँ यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि
भारतेन्दु उन सवालों को अपने नाटकों में पूरी शिद्दत से उठा रहे थे।
1. भारत का स्वतंत्रता संघर्ष विपिन चन्द्रा, पृ. सं 68, नैरोजी ने अपनी पुस्तक 'Un British Rule in India' में इसकी विस्तृत चर्चा की है।
10. वही, प्रेमजोगिनी, पृ. 91
12. वही, पृ. सं. 290
15. वही / (भारत दुर्दशा) पृ. 114
सहायक पुस्तकें –
हिन्दी नाटक, बच्चन सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन
रस्साकशी , वीरभारत तलवार, वाणी प्रकाशन
हिन्दू परम्पराओं का राष्ट्रीयकरण : भारतेंदु हरिश्चंद्र और उन्नीसवीं सदी का बनारस I वसुधा डालमिया I अनुवाद: संजीव कुमार I योगेन्द्र दत्त , राजकमल प्रकाशन
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली.
preeti.jnu259@gmail.com
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
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