सम्पादकीय : जीवन में इर्दगिर्द
-माणिक
(2) बीते महीने कानपुर जाना हुआ। चमड़ा उद्योग और सैनिक क्रांतियों के लिए प्रसिद्ध
कानपुर को एक लेखक की नज़र से समझने का मौक़ा था। हिन्दुस्तान के प्रतिबद्ध और
न्यारी आदतों वाले कथाकार प्रियंवद से मुलाक़ात का शानदार अवसर। उन्हीं के कथा
साहित्य पर केन्द्रित शोध करने वाले हमारे साथी विष्णु कुमार शर्मा का आग्रह था। योजना
बनी, रेल-टिकट तय हुए, तारीखें पक्की हुईं। आना-जाना आकार लेने लगा। अरसे बाद कोई
ढंग की यात्रा संभव हुई। लगा कि किसी को जानने का यात्रा से बढ़िया और सुगम रास्ता
नहीं है। बैठे, खड़े और लेटे हुए खूब सारी बातें। जाने से पहले भी और लौटने के बाद
भी संवाद अटूट ही रहा। प्रियंवद रात डेढ़ बजे उठ बैठे कि रेलगाड़ी से हम दोनों आ रहे
हैं जबकि आदत के मुताबिक़ शाम साढ़े सात बजे सो जाते हैं और रात में तीन बजे उठ जाते
हैं। रात की तीन से सवेरे की छह तक केवल दो काम। सोचना और लिखना। फिर टहलने जाते
हैं। अंग्रेजों के ज़माने की कब्रों से सजा कब्रिस्तान प्रातः कालीन भ्रमण हेतु उनकी
पसंदीदा जगह है। भरसक शांति और एकांत वाली जगह। वे टी.वी. नहीं देखते और वाट्सएप-फेसबुक
से कोसों दूर हैं। एक अंगरेजी अखबार पढ़ते हैं जिससे देश-दुनिया की टोह संभव हो
जाती है। लेखकों की दुनिया में कोई बड़ा बवाल या गमी हो जाती तो उन्हें कोई न कोई
शागिर्द या हमउम्र बता ही देता है। उस रात और फिर बाद के डेढ़ दिन तक विद्यार्थियों
का इतना आदर अचरज में डाल गया। होटल के बजाय घर में रुकवाया। दो दिन की आवभगत में
खूब आत्मीयता बरती। व्यवहार में अनौपचारिक होना हमने खूब नज़दीक से सीखा। हँसे-ठठ्ठे
और गंभीरता का अद्भुत संतुलन था उन अड़तालीस घंटों में। बहुत सलीकेदार ढंग से गूंथा
हुआ घर। किताबें और हस्तकला के कई प्रतीक। हर कमरे में बैठकी का न्यारा अंदाज़। योजनाएँ
बनाने को प्रेरित करता आशियाना। पढ़ने और बतियाने के लिए एकदम मुफीद मुकाम। भरसक
रोशनी और तल्लीन परिजन से सेवादार। उनके ड्राईवर सहाबुद्दीन ने हमें पूरे मन से
कानपुर घुमाया, भैया (प्रियंवद) का आदेश जो था। सहाबुद्दीन, शेखर..... सब भैया से
दिल से प्यार करते हैं। ढाई दशक से उनके यहाँ रसोई संभालते शेखर बाबू के हाथों का
स्वाद बेमिशाल था। पल-पल यादगार। खानपान के गज़ब के शौक़ीन प्रियंवद। मीनू बनाते समय
इतना डिटेल प्लान करते हैं कि देखता ही रहा गया। साठ साल पार की उम्र। दुबले-पतले
बदन के साथ भरपूर मेहनत के आदी। सोचना-विचारना सबकुछ क्रमवार। उबड़-खाबड़ काम उन्हें
बिलकुल पसंद नहीं आते। बिगड़ जाए तो गुस्सा तेज़ रखते हैं। बातों में इतना सपाटबयानी
आदमी सालों बाद देखा। स्पष्टता गंगोत्री के पानी की तरह साफ़जग। साथ रहे तो जाना कि
चाय के दास हैं प्रियंवद। दे-बड़ा मग भरकर चाय या कभी-कभार कॉफ़ी। ज़िंदगी अपनी शर्तों
पर जीने वाला अदद लेखक। खेमेबाजी से बहुत दूर बैठा गंभीर सम्पादक। ‘अकार’ के ज़रिए
साहित्यिक हस्तक्षेप जगजाहिर है ही। बीते ढाई दशक से चला आ रहा
साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन ‘संगमन’ किसी से छिपा नहीं है। आजकल एक नया मंच बनाया
है ‘अनुष्टुप’। ऊर्जा से उम्र का कोई लेनादेना नहीं। हर वक़्त ताज़गीभरे अंदाज़ में
बात करते हैं। शून्य में देर तक देखकर वाक्य उचारते हैं। बालों में हाथ घुमाने का
उनका अंदाज़ उन्हें ‘मस्तमौला’ करार देता है। शहर के इतिहास से लेकर देश-दुनिया पर
लम्बी-लम्बी बातें हुई। प्रियंवद होना खूब हिम्मत का काम है। वक़्त से बहुत आगे की
सोचता हुआ लेखक। साहित्य के साथ इतिहास में बराबरी का दख़ल रखने वाला इंसान। नि:स्वार्थ
और तमाम आकर्षणों से परे। इस तरह ख़ातिरदारी में गहरी रूचि रखने वाले लेखक को उसके
मूल में जानना उसके साहित्य को पढ़ने की उत्सुकता पैदा कर गया। अंत में लिखा यही है
कि लेखन और जीवन में एकरूपता लाना बहुत कम के बस का मामला होता है। प्रियंवद इसका
बढ़िया उदाहरण है।
(3) इन दिनों सामूहिकता के प्रेम में
हूँ। देखता हूँ कि जब इंसान समूह में होता है और समझ के साथ समूह गति करता है तो
दिशा और लय अपने आप आ जाती है। मंजिल नजदीक का विषय हो जाता है। बच्चियाँ
प्रार्थना करती हुई बहुत सुंदर लगती हैं। समूह स्वरों में ज्यादा ताकत अनुभव होती
है। लड़कियाँ कबड्डी खेलते हुई जीत रही हैं और लड़के टेनिस बॉल। रात की गोष्ठी में
बच्चे गोला बनाकर किसी एक के सानिध्य में संवाद आगे बढ़ा रहे हैं। सीखने-सिखाने की
यह सबसे मुकम्मल तस्वीर है। विद्यालय का पूरा स्टाफ एकजुट होकर हिंदी दिवस,
विज्ञान प्रदर्शनी और किशोरी मेला एक माला में पिरो रहा है। फूल-दर-फूल। गाँधी
जयन्ती के एक दिन पहले बच्चियाँ ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ का अभ्यास कर रही हैं।
राग में राग मिलाती हुईं। लड़के दरी-पट्टी बिछा रहे हैं। कुछ बालिकाएँ वाटिका से
फूल-पत्ती तोड़कर गुलदस्ता बना रही हैं। गरबे का नाच भी सामूहिकता का ही दर्शन देता
है। तसल्लीदायक सूचना यह भी कि एक शनिवार कुछ बच्चियाँ लाइब्रेरी को साफ़-सुफ़ करके
पढ़ने-बैठने लायक बनाती हैं। किताबों को छूकर मुस्कराती हैं। जिधर भी कोई झुण्ड
सामूहिकता के साथ जीता हुआ दिखता है रुक जाता हूँ। वह आनंद और उल्लास की बेला हो
जाती है। भीड़ की शक्ल में में दिखती हुई सामूहिकता आभासी ही होती है। सार्थक
उद्देश्य के अभाव में सामूहिकता दम तोड़ देती है। विजन की अनुपस्थिति में सामूहिकता
अनर्थ का-सा बर्ताव करती है। जब भी बाहर देखता हूँ समूह तो दिखते हैं मगर
सामूहिकता नहीं दिखती है तो दुखी होने के सिवाय कुछ नहीं बचता।
(4) सम्पादन के दौरान
पाया कि सभी छपना चाहते हैं, कोई लिखना नहीं चाहता। कट-कॉपी-पेस्ट की हवा में सभी
को लकवा मार गया है। नए विषय नदारद हैं। आलेख भेजने में संबोधन तक का सलीका नहीं
रहा। एक ही आलेख पाँचेक पत्रिकाओं को फारवर्ड करने को मजबूर युवा। शोधार्थी खुद
अपने लिखे आलेख को पाँच बार पढ़ने से जी चुराता है। पहली पाँच पंक्तियों में ही
कभी-कभी कमज़ोरी पकड़ में आ जाती है। ऊब हो आती है उसे देखकर। पत्रिका के मानकों और
ज़रूरी नियमों को पढ़ना अब उतना ज़रूरी नहीं समझा जाता। बहुत कम होते हैं जो ख़ारिज
हुए अपने आलेख की अंत तक पैरवी करते हैं और यथास्थान सुझाव पर संशोधन करने के लिए
तत्पर नज़र आते हैं। कुछ बिरले महापुरुष आलेख अस्वीकृत होने पर लड़ पड़ते हैं। कई
अस्वीकृति पर कारण माँगते हैं। कई बार कारण बताना कहाँ संभव हो पाता है। सम्पादन
में चालीस साथियों के बीच काम करते हुए लोकतांत्रिकता को बचाए रखना भी मुश्किल
लगता है। सभी की राय का सम्मान करना होता है। सबकुछ समयबद्ध। आंतरिक अनुशासन ही है
जिसके बूते यह प्रकाशन सतत है। पत्रिका की गुणवत्ता को बनाए रखना आसान नहीं है। दबाव
से परे काम करने की आदत से अभी बचे हुए हैं। सीखना जारी है। सम्पादन एक यात्रा है
न कि मंजिल पर पहूँचने के बाद का आराम। देश के हर इलाके से आलेख आने लगे हैं।
विश्वविद्यालयों के काम करने के ढंग का थोड़ा-थोड़ा अंदाज़ पकड़ में आने लगा है। शोध
निर्देशकों के पास वक़्त ही नहीं है। शोधार्थी मैदान में अकेले लड़ रहा है।
अस्त्र-शस्त्र-विहीन। आलेख के आलेख गायब हो जाते हैं। लिखा किसी ने और छपाया किसी
और ने। प्रूफ की गलतियाँ देखने और सुधारने के लिए रत्तीभर टाइम नहीं है।
पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत में हिंदी का प्रसार सुख देता है मगर काम करने के लिए
बहुत स्पेस शेष है जहाँ अतिरिक्त मेहनत की आवश्यकता है। आलेखों में संदर्भ देने की
कई विधियाँ हैं जिनसे मानकीकरण दूर का सपना लगने लगा है। खूब दिक्कतें हैं।
पत्रिकाएँ पचास और ज़रूरतमंद पचास हज़ार। पीएचडी जमा करने के दबाव में अनुनय-विनय
वाले रोज़ दो फोन तो आते ही हैं। कोई भी अपने कंटेंट को लेकर अंत तक टिके रहने की
बात नहीं करता है तो दुःख होता है।
(5) यह अंक हमारे लिए सामान्य अंक की तरह ही है। आप बताएँगे तो कुछ विशेष हो
जाएगा। इलाहाबाद के प्रखर चित्रकार साथी धर्मेन्द्र कुमार का आभार कि जिनके
चित्रों से पत्रिका सुरुचिपूर्ण लगेगी। धनञ्जय मल्लिक की कविताएँ हस्तक्षेप करती
हैं। युवाओं की तरफ से आस बंधाती हुई सी। हर अंक की तरह इस बार भी बलदेव भाई और
दीपक कुमार ने हमें दो इंटरव्यू दिए हैं। आलेखों के विषय में पर्याप्त विविधता का
ध्यान रखा है। मोहम्मद हुसैन डायर के संस्मरण पर खूब प्रतिक्रियाएं मिलती रही हैं
इसलिए उसे सतत रखा है। साहित्य और साहित्येत्तर सब कुछ समाहित करने का प्रयास किया
है। बृजेश भाई, मुकेश मिरोठा जी और दीनानाथ मौर्य जी जैसे कई नए साथी सम्पादकीय
मण्डली में जुड़े हैं, उनकी खुशबू इस अंक में आपको ज़रूर अनुभव होगी। कहानी और थर्ड
जेंडर विमर्श पर इस बार रचनाओं का अभाव रहा है। माफ़ करिएगा। रचनाओं की स्क्रीनिंग,
चयन, प्रूफ रीडिंग और सम्पादन के दौरान लेखकों से संवाद में सहजता बरतने का प्रयास
करते ही हैं फिर भी असुविधा रही हो तो क्षमा चाहते हैं।
- माणिक
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
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