शोध आलेख : आचार्य विष्णुकांत शास्त्री की आलोचना दृष्टि और हिंदी नवजागरण / मनीष कुमार भारती

आचार्य विष्णुकांत शास्त्री की आलोचना दृष्टि और हिंदी नवजागरण
- मनीष कुमार भारती


शोध-सार : 18वीं-19वीं शताब्दी में संपूर्ण भारत में नवीन चेतना का प्रचार-प्रसार हुआ। इस चेतना के परिणामस्वरूप राष्ट्र मध्ययुग से निकलकर आधुनिक विचार तथा जीवन पद्धतियों को ग्रहण करने लगा। जिसमें भावना की जगह तर्क और बुद्धि को महत्व दिया गया। इसे कई नामों से पुकारा गया- पुनर्जागरण, नवजागरण आदि। यह नवजागरण हिंदी प्रदेश में भी घटित हुआ जिसे हिंदी नवजागरण के नाम से जाना गया। हिंदी में नवजागरण की अवधारणा का श्रेय रामविलास शर्मा को है। हिंदी क्षेत्र में नवजागरण की पहली सशक्त साहित्यिक अभिव्यक्ति भारतेन्दु काल की रचनाओं में मिलती है। इसका पहला चरण 1857 का स्वाधीनता संग्राम, इसका दूसरा चरण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का युग और तीसरा चरण महावीर प्रसाद द्विवेदी से शुरू हुआ। 1857 के स्वाधीनता संग्राम के कुछ ऐसे पहलुओं को स्मरण रखना आवश्यक है जो उसे मध्य युग का समापक नहीं, नवजागरण का प्रारंभक सिद्ध करता है। नवजागरण ने धर्मवाद और परलोकवाद के स्थान पर मनुष्य की केनद्रीयता की स्थापना पर बल दिया। नवजागरण के में मनुष्य और उसकी प्रगति है। नवजागरण मुख्यतः बुद्धिवाद, समाजसुधार, वैज्ञानिक खोज, सामूहिक उत्पादन प्रणाली के विकास के साथ हुआ। यह एक नयी दुनिया एवं एक नयी संस्कृति को रचने का प्रयास था।

 

बीज शब्द  : नवजागरण, परलोकवाद, स्वधर्म, स्वराज, राजसत्ता, सामंतवादी, पूंजीवाद, लोक, बुद्धिवाद, आदि।

 

मूल आलेख : हिंदी नवजागरण से अभिप्राय सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद हिंदी प्रदेशों में आये राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जागरण से है। हिंदी नवजागरण की सबसे प्रमुख विशेषता हिंदी प्रदेश की जनता में स्वातंत्र्य-चेतना का जागृत होना है। तत्कालीन समय के मानसिक एव भावनात्मक निराशा के वातावरण से निकालकर भारतीयों को अपनी संस्कृति और सभ्यता पर गर्व करना नवजागरण का मुख्य उद्शेय रहा। हिंदी नवजागरण केवल हिंदी की उन्नति नहीं है। यह एक राष्ट्रीय जागरण है जिसने सदियों की दासता के कारण रूढ़िग्रस्त एवं आत्म केन्द्रित जनता में नवीन चेतना एवं स्फूर्ति का संचार किया। भारतेन्दु ने सन् 1857 की चेतना को सास्कृतिक- वैचारिक नवजागरण का रूप देते हुए क्रांतिकारी सुधारवाद का रास्ता दिखाया।

 

नवजागरण पूरी परंपरा और संस्कृति को वैज्ञानिर तर्क-विधान एवं सामाजिक-राजनैतिक अभिप्राय से जोड़नवाली चेतना है, इसलिए आधुनिक भावबोध की संगठति अभिव्यक्ति नवजागरँ के माध्यम से हुई है, इतिहासकार बिपिन चन्द्र लिखते हैं- ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विस्तार और उसके साथ औपनिवेशिक संस्कृति और विचारधारा का प्रचार-प्रसार की प्रतिक्रिया में ही यह लहर उठनी शुरू हुई थी। बाहरी संस्कृति के फैलाव से भारतीयों के लिए यह जरूरी हो गया था कि वह आत्म निरीक्षण करे...हालांकि औपनिवेशिक संस्कृति के खिलाफ यह प्रतिक्रिया हर जगह और हर समाज में अलग-अलग तरह की हुई। लेकिन यह बात हर जगह सिद्धत के साथ महसूस की गई कि सामाजिक धार्मिक जीवन में सुधार अब जरूरी हो गया है , सुधार की इस प्रक्रिया को आमतौर पर नवजागरण कहा जाता है।[1] हिंदी प्रदेश के नवजागरण पर विचार करते हुए रामविलास शर्मा 1977 में प्रकाशित महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण में लिखते हैं कि हिंदी प्रदेश में नवजागरण 1857 ई. के स्वाधीनता संग्राम से शुरू होता है। डॉ. शर्मा के अनुसार- हिंदी नवजागरण से मतलब है हिंदी भाषी प्रदेश का नवजागरण, हिंदी भाषी जनता का नवजागरण। 1857 का स्वाधीनता संग्राम हिंदी नवजागरण की पहली मंजिल, दूसरी मंजिल भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का युग।[2]

 

नामवर सिंह 1987 के आलोचना के अंक में लिखते हैं कि-  हिंदी नवजागरण का बीज 1857 की राज्यक्रांति में मानना कठिन है। क्योंकि समकालीन शिष्ट साहित्य में उसकी गूँज सुनाई नहीं पड़ती है, लोक साहित्य भले ही प्रचुर मात्रा में रचा गया हो। भारतेन्दु तथा उनके मंडल के लेखक मन् 1857 की राज्य क्रांति की अपेक्षा बंगाल के नवजागरण से प्रेरणा प्राप्त कर रहे थे, जो उससे पहले शुरू हो चुका था ।[3]
           

1857 से हिंदी नवजागरण को जोड़ने में एक कठिनाई यह भी है कि राज्य क्रांति के नितांत असांप्रदायिक पक्ष का संदेश हिंदी नवजागरण तक पूरा-पूरा नहीं पहुँच सका। वह हिंदू और मुस्लिम दो धाराओं में विभक्त हो गया। कईयों का कहना है कि बंगाल का नवजागरण इस प्रकार विभक्त नहीं हुआ।

 

यह ऐतिहासिक सत्य है कि आधुनिक युग में नवजागरण की प्रवृतियाँ बंगाल में सर्वप्रथम परिलक्षित होती हैं और बंगाल के नवजागरण का प्रभाव अन्य प्रदेशों पर भी पड़ा है। फिर भी अपनी-अपनी परंपरा और परिस्थितियों के कारण इन प्रदेशों के नवजागरण की अलग-अलग विशेषताएँ भी हैं। नवजागरण की प्रक्रिया में जिस तरह की गतिविधियाँ बंगाल में चली। वैसी हिंदी प्रदेशों में नहीं चली। यहां नवजागरण की शुरूआत अंग्रेजी सत्ता के खुले विरोध से होती है। समर्थन से नहीं। हिंदी प्रदेशों में जहां एक ओर ब्रिटिश उपनिवेश वादियों का विरोध किया गया, वहीं दूसरी तरफ देशी सांमती प्रवृतियों का विरोध भी इसमें शामिल था। क्योंकि यहां के राजा अंग्रेजों का समर्थन कर रहे थे। यही कारण था कि हिंदी नवजागरण के प्रारंभ में अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का भी प्रबल विरोध किया गया था। जबकि बंगाली नवजागरण में ऐसी बात कम नजर आती है। वहां अंग्रेजी शिक्षा और भाषा दोनों के समर्थन से नवजागरण की प्रक्रिया चली। हिंदी क्षेत्रों में अंग्रेजी राज से पैदा हुई उन स्थितियों को केन्द्र में रखा गया, जो करोड़ों लोगों को भुखमरी का शिकार बनाती थी। हिंदी क्षेत्र में नवजागरण की पहली सशक्त साहित्यिक अभिव्यक्ति भारतेन्दु काल की रचनाओं में मिलती है। नवजागरण काल के साहित्य में आर्थिक जीवन की समस्याओं, धन का विदेश गमन, मंहगाई, अकाल का चित्रण, रूढ़ियों का पर्दाफाश, सामाजिक जीवन की विषमताओं तथा अंग्रेजों की स्वार्थपूर्ण नीतियों का चित्रण और स्वदेशी के प्रति अनुराग का वर्णन इस काल खंड की रचनाओं की प्रमुख विशेषता है। 19वीं सदी में विभिन्न प्रांतों में ऐसे कई प्रभावशाली रूढ़िवादी नेता हुए जो सुधारों के, खासकर धार्मिक सुधारों के, खिलाफ थे। इसके बावजूद वे सुधार आंदोलन की आँच के असर में आए और उन्हें महसूस हुआ कि कुछ सुधारों का समर्थन करना जरूरी है। इस लिहाज से भारतेंदु की तुलना किसी हद तक बंगाल के राधाकांत देव और पंजाब के श्रद्धाराम फिल्लौरी से की जा सकती है।[4]

 

डॉ. नगेन्द्र हिंदी साहित्य के इतिहास में लिखते हैं- आलोच्य युग में जनचेतना नवजागरण की भावना से अनुप्राणित थी। भारतेन्दु ने जनता को उद्बोधन प्रदान करने के उद्देश्य से जातीय संगीत अर्थात लोकगीत की शैली पर सामाजिक कविताओं की रचना पर बल दिया। राष्ट्रीय भावना का उदय भी स काल की अन्य विशेषता है। मुद्रणयंत्रों के विस्तार और समाचार पत्रों के प्रकाशन ने भी जनजागरण में योग दिया। परिणामस्वरूप तत्कालीन साहित्य चेतना मध्यकालीन रचना-प्रवृतियों तक ही सीमित न रह कर नवीन दिशाओं की ओर उन्मुख होने लगी।[5]

 

हिंदी नवजागरण को 1857 से सीधे-सीधे संयुक्त करते हुए आचार्य विष्णुकांत शास्त्री कहते हैं कि- भारतेन्दु ओर उनके सहयोगियों की रचनाओं मे राज-सत्ता पलटने की भावना की उलटी और सीधी दोनों तरह की छायाएँ अनेकानेक स्थानों पर दिखाई पड़ती है। शायद मेरी आँखों का दोष होगा।[6] पर आप भी एक बार यह उदाहरण देख लिजिए। वे इस संदर्भ में भारतेन्दु कृत नीलदेवी नाटक उल्लेख करते हैं जहाँ एक पात्र पागल बनकर कहता है- मार-मार-मार। हमारा देस-हम राजा। तलवार-तलवार। टूट गई, टूटी-टूटी से मार। ढेलों से मार। मुक्का, जूता, लात, लाठी, सोंटा, ईंटा, पत्थर-पानी सबसे मार। हम राजा, हम रानी। हमारा देश, हमारा वेश। हमारा पेड़-पत्ता, कपड़ा-लत्ता, छाता, जूता सब हमारा। ले चला। मार-मार-मार। जाय-न-जाय-न।[7]  कहते हैं न किसी-किसी के पागलपन में भी सलीका छिपा रहता है। वैसा ही यहां कुछ प्रतीत होता है।

भारतेन्दु उससे प्रार्थना करने की सलाह नहीं देते जो भी हर्बा हथियार मिले उससे मारने की प्रेरणा देते हैं। उन्हें मालूम हे कि 1857 में तलवार टूट चुकी है। इसिलिए जो भी मिलता है उसी से मारता है। क्या इसमें राजसत्ता पलटने की प्रेरणा नहीं है ? क्या 1857 की थोड़ी उलटी छाया का आभास इससे नहीं मिलता।

 

भारतेन्दुयुगीन कवियों ने भारतीय इतिहास के गौरवशाली पृष्ठों की स्मृति तो अनेक बार दिलायी, पर उनकी राष्ट्रीय भावना केवल यहीं तक सीमित नहीं रही। अंग्रेजों की विचारधारा और उनकी देशभक्तिपूर्ण कविताओं से भी उन्होंने यथेष्ट प्रेरणा ली , जिसका फल यह हुआ कि क्षेत्रयता से ऊपर उठ कर वे राष्ट्र की नब्ज टटोलने लगे। अंग्रेजों की शोषण- नीति का भारतेन्दु द्वारा प्रत्यक्ष उल्लेख इस भावना की चरम परिणति है-

 

भीतर-भीतर सब रस चूसै, हँसि-हँसि के तन-मन-धन मूसै,
जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि सज्जन, नहिं अंगरेज।[8]

 

1857 से हिंदी नवजागरण को जोड़ने में एक कठिनाई यह भी है कि राज्य क्रांति के नितांत असांप्रदायिक पक्ष का संदेश हिंदी नवजागरण तक पूरा-पूरा नहीं पहुँच सका। वह हिंदू और मुस्लिम दो धाराओं में विभक्त हो गया। कईयों का कहना है कि बंगाल का नवजागरण इस प्रकार विभक्त नहीं हुआ। आचार्य शास्त्री कहते हैं- जबकि महर्षि देवेन्द्र नाथ ठाकुर, राजनारायण बसु जैसे बंगाल के नवजागरण के बड़े-बड़े नेताओं ने सिपाही विद्रोहों से आतंकित होकर भला बुरा कहा था।संवाद प्रभाकर में सुप्रसिद्ध बंगला कवि ईश्वर गुप्त अपनी प्रबल राजभक्ति प्रमाणित करने के लिए सन् 1857 के योद्धाओं के विरूद्ध असंख्य कटूक्तियाँ की थी। फ्रांसीसी राज्य क्रांति के प्रंशसक भक्त, यंग बंगाल के अग्रणी विचारक दक्षिणारंजन मुखोपाध्याय ने लंदन टाइम्स में लेख लिखकर विद्रोहियों की भर्त्सना करने के पुण्य कार्य के पुरस्कार-स्वरूप अंग्रेजों से बहुत बड़ी जमींदारी पाई थी। हिंदू पेट्रियट के संपादक हरिश्चन्द्र मुखर्जी के राजभक्ति से लार्ड केनिंग भी पुलकित हो उठे थे।[9] आचार्य शास्त्री का मत है कि- क्या यह बंगाल के नवजागरण से भिन्न हिंदी नवजागरण की विशिष्टता की ओर संकेत करनेवाला तथ्य नहीं है।क्या इससे यह भी नहीं झलकता कि भारतेन्दु में देशभक्ति और राजभक्ति अभिन्न नहीं है। देशभक्ति को रौंदकर वे राजभक्ति का तमगा पाना नहीं चाहते थे।स्वाभाविक था कि राजभक्त बनने की उनकी चेष्टाओं के बावजूद शासकों की दृष्टि में उनकी राजभक्ति इतनी संदिग्ध थी कि उनकी पत्रिकाओं की सरकारी खरीद बंद हो गई थी। ऑनरेरी मजिस्ट्रेट के पद से त्यागपत्र देना भी उनकी राजभक्ति पर प्रश्नचिह्न लगाता है ।[10]

 

1857 की लड़ी में पहली बार हिंदू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर बड़े पैमाने पर अंग्रेजों से लड़े थे, यह हमारा राष्ट्रीय गौरव है। लड़ाई यदि सफल होती तो वह मिलन सुदृढ़ होता, किंतु दुर्भाग्य से अंग्रेच जीते और उन्होंने फूट डालो और राज करो की नीति को तेज कर राष्ट्रीय एकता में दरार डाल दी। 1857 के आदर्श को ही सामने रखकर भारतेन्दु ने भारतवर्ष की उन्नति के लिए भारतीयों से अपील की थी हिन्दू, जैन, मुसलमान सब आपस में मिलिए। जाति में कोई चाहे उँचा हो, चाहे नीचा हो, सबका आदर कीजिए। मुसलमान भाइयों को भी उचित है कि इस हिन्दुस्तान में बसकर वे लोग हिंदुओं को नीचा समझना छोड़ दें। ठीक भाइयों की भाँति वे हिंदुओं से बरताव करें। ऐसी बात जो हिंदुओं का जी दुखानेवाली हो, न करें जो हिंदुस्तान में रहें, चाहे किसी रंग जाति का क्यों न हो वह हिंदू। सहायता करो।

 

आचार्य शास्त्री कहते हैं- इसका और कारण हिंदी प्रदेश का अपने सांस्कृतिक गौरव के प्रति स्वाभिमान और अपने स्वत्व को अक्षुण्ण रखने का आग्रह है। यही वह तत्व है जो 1857 के संग्राम में मूल रूप से विद्यमान था।[11] स्वधर्म और स्वराज्य ये दो ऐसे तत्व हैं जो 1857 की क्रांति को प्रदीप्त करने में सबसे बड़ी भूमिका अदा की। आचार्य शास्त्री का मत है- हिंदी प्रदेश की धार्मिक संरक्षणशीलता और स्वधर्म-निष्ठा 1857 के संग्राम में जिस भावावेग के साथ भड़की थी उसे दृष्टिगत रखकर ही विक्टोरिया की घोषणा में भारतीय धर्मों में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन दिया गया था। परवर्ती ईसाई मिशनरियों को भी उसके कारण कुछ संयत होना पड़ा था। भारतेंदु और उनके सहयोगियों की धर्मनिष्ठा अपनी उसी परंपरा से डुड़ती है, डिरोजियो पंथियों और ब्राह्म समाजियों से नहीं। [12]   बंगाल का नवजागरण विभक्त नहीं हुआ था इसपर आचार्य शास्त्री कहते हैं- बंगाल के नवजागरण का नेतृत्व आरंभ में हिंदुओं के हाथ में ही रहा। शुरू में मुसलमान अंग्रेजी शिक्षा के प्रति उदासीन रहे। शुरूआत में तीतू मीर के नेतृत्व में शुद्धतावादी इस्लामी आंदोलन अपनाकर अंग्रेजों से सशस्त्र संग्राम किया था। सन् 1857 के बाद सर सैयद हमद से प्रेरणा प्राप्त कर नवाब अब्दुल लतीफ बंगाल के मुस्लिम नवजागरण के अगुआ बने। नवगठित पूर्व बंग-असम प्रदेश के गवर्नर सर बैमफील्ड फुलर के अनुसार- हिंदू और मुसलमान संप्रदाय उनकी दो पत्नियों के सदृश हैं जिनमें मुसलमान ही अधिक प्रिय हैं ।[13]

 

1857 के स्वाधीनता संग्राम के कुछ ऐसे पहलुओं को स्मरण रखना आवश्यक है जो उसे मध्य युग का समापक नहीं, नवजागरण का प्रारंभक सिद्ध करता है। युद्ध सामंतों के नेतृत्व में नहीं, सैनिकों के नेतृत् में लड़ा गया था। भले ही उन्होंने सामयिक सुविधा के लिए सामंतों को नेता के रूप में घोषित कर दिया था। और फिर अपनी इच्छानुसार बहादुरशाह जफर को अपना बादशाह घोषित किया। इस घटना का महत्व निरूपित करते हुए सावरकर लिखते हैं- 11 मई से 16 मई तक घोर संघर्ष में दिल्ली को स्वाधीन किया और फिर अपनी इच्छा अनुसार बहादुरशाह जफर को अपना बादशाह घोषित किया। इन पांच दिनों में ही हिन्दुस्तान में लोकशक्ति का प्रथम बार उदय हुआ था। राजसत्ता का संचालन कौन करेगा, इसका निर्णय का कार्य लोक पक्ष द्वारा किया जाएगा। अपनी सम्मति से राज सिंहासन के संबंध में निर्णय किया था। लोकतंत्र की वास्तविक भावना की जयंती स्वरूप ये पांच दिन हिन्दुस्तान के इतिहास में अमर रहेंगे।[14]

           

अंग्रेजों से अब तक जितनी लड़ाइयाँ हुईं थीं, उनसे सन् 1857 की लड़ाई गुणात्मक रूप से भिन्न थी। इसका नेतृत्व सिपाही कर रहे थे। ये फौजी वरदी पहने हुए हिंदी प्रदेश के किसान थे। भारतीय इतिहास में पहली बार सामंत को मातहत बनाकर भारतीय किसान देश की आजादी के लिए लड़ रहा था। अब तक की यह इस तरह की अंतिम लड़ाई है। स्वाभाविक था कि इस संघर्ष के नेता अंग्रेजों की खुली लूट का पर्दाफाश कर भारतीय गरीब जनता को आर्थिक खुशहाली का आश्वासन भी देते। इसे स्वाधीनता संग्राम कहना बहुत ही संगत है, क्योंकि इसमें स्वाधीनता को सबसे बड़े मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित किया गया था। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी पर अंग्रेजों का कब्जा हो जाने के बाद अपने सिपाहियों को कसम रखाई- जब तक जिएँगे, कलपी हाथ से न जाने देंगे, अपने-अपने हाथों अपनी आजादशाही न दफनाएंगे।[15]

 

आजादी आजादशाही को इसके पहले इतने बड़े मूल्य के रूप में शायद ही प्रतिष्ठित किया गया था। यह संग्राम राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत था। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है यह कौमी गीत जिसे संग्रामी सैनिक गाया करते थे-

 

हम हैं इसके मालिक हिन्दुस्तान हमारा,
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा,
ये है हमारी मिल्कियत, हिन्दुस्तान हमारा,
इसकी रूहानियत से रोशन है जग सारा
कितना कदीम कितना नईम सब दुनिया से न्यार।[16]

 

इस गीत में हिमालय से कन्याकुमारी तक फैले पूरे भारत को अपना प्यारा पवित्र देश घोषित कर उसे स्वर्ग से भी अधिक प्यारा बताया गया है। इसकी आर्थिक समृद्धि और फिरंगी द्वारा की गई इसकी खुली लूट की स्मृति इसे यथार्थ की भूमिका पर प्रतिष्ठित करती है। इसकी मुक्ति के लिए कुर्बानी देने के लिए हिंदू, मसलमान, सिख सबको पुकारा गया है, क्योंकि ये सब मिलकर ही तो इस देश के मालिक हैं- इस गीत में यदि जननी जन्मभूमिश्च गरीयसी की भवना सन्निहित है तो सच्चे देश-प्रेम की वह उमंग भी इसमें झलकती है जो इकवाल को सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा और निराला को भारति जय-विजय करे जैसे अमर गीतो की रचना की प्रेरणा देती है।[17]

 

निष्कर्ष : निश्चय ही 1857 का स्वाधीनता संग्राम हमारे नवजागरण का गोमुख है, जिससे राष्ट्रीयता की गंगा का अजस्र स्त्रोत आज तक प्रवाहित हो रहा है। कुछ आलोचकों का कहना है कि हिंदी नवजागरण का संबंध 1857 से है और कुछ का कहना है कि 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन से नहीं है किंतु हिंदी नवजागरण की पृष्ठभूमि में जहाँ वैचारिक संबंध 1857 की क्रांति से जुड़ती है वहीं दूसरी ओर साहित्यिक संबंध बंगला नवजागरण से भी जुड़ता है।  इस प्रकार हिंदी नवजागरण पर बंगाल के नवजागरण का भी असर है और 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन का भी।

 

संदर्भ :
[1] विपिन चन्द्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली संस्करण-1997, पृ.-46
[2] रामविलास शर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. नई दिल्ली, तीसरा छात्र संस्करण-2018, पृ.-12
[3] विष्णुकांत शास्त्री, आधुनिक हिंदी साहित्य के कुछ विशिष्ट पक्ष,प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष-2004,पृ.-36
[4] वीरभारत तलवार, रस्साकशी, सारांश प्रकाशन् प्रा.लि., नई दिल्ली, वर्ष-2006, पृ.-142
[5] सं. डॉ. नगेन्द्र, डॉ. हरदयाल, मयूर पेपरबैक्स, ए-95, सेक्टर-5, नौएडा, पैतीसवां संस्करण-2009,पृ.- 439
[6] विष्णुकांत शास्त्री, आधुनिक हिंदी साहित्य के कुछ विशिष्ट पक्ष,प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष-2004,पृ.-36
[7] विष्णुकांत शास्त्री, आधुनिक हिंदी साहित्य के कुछ विशिष्ट पक्ष,प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष-2004,पृ.-39
[8] सं. डॉ. नगेन्द्र, डॉ. हरदयाल, मयूर पेपरबैक्स, ए-95, सेक्टर-5, नौएडा, पैतीसवां संस्करण-2009,पृ.- 440
[9] विष्णुकांत शास्त्री, आधुनिक हिंदी साहित्य के कुछ विशिष्ट पक्ष,प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष-2004, पृ.- 40
[10] वही, पृ.- 40
[11] वही, पृ.-42
[12] वही, पृ.-43
[13] वही, पृ.-44
[14] वही, पृ.-46
[15] वही, पृ.-47
[16] वही, पृ.-47
[17] वही, पृ.-47                                                

 

मनीष कुमार भारती
शोधार्थी, हिंदी विभाग
 
डॉ. अंजनी कुमार श्रीवास्तव
सह आचार्य, हिंदी विभाग, महात्मा गाँधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार
bharti.bihar@gmail.com

 

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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