कविताएं / धनंजय मल्लिक

कविताएं 
धनंजय मल्लिक


 युद्ध में मर जाती हैं कविताएं
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कितनी अजीब सी बात है
आज कल
जब फिजाओं में फैली है युद्ध की हवा
मैं लिखने के लिए निकालता हूं
अपनी कॉपी और कलम
ताकि युद्ध से बचने के लिए लिख सकूं
प्रेम शांति और भाईचारे की कुछ कविताएं
 
मगर हर बार
बचने की लाख कोशिशों के बाद भी
लिखने लगता हूं
युद्ध की कविताएं
जैसे मेरी कॉपी जंग का मैदान हो
और मेरी कलम
उस पर चलती हुई बंदूक
 
अचानक मेरे शब्द
मौत के लिए अनुकूल लगने लगते हैं
मेरे भाव
अराजकताओं पर ठहर जाते हैं
मेरे विचार
गोलियों से कतार में दौड़ने लगते हैं
और फिर
कविता पूरी होती है
जैसे पूरा होता है जीवन काल
जैसे पूरा होता है तानाशाहों का टारगेट ।
 
 
बच्चे की पहूँच
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सड़क के किनारे एक स्कूल है
और सड़क पर
एक बच्चा भान करता है कि वह मजदूर है
बच्चा यह भान नहीं कर सकता
कि वह एक छात्र है
 
इस देश में
छात्र होना आसान नहीं है
मजदूर होने जैसा।
 
 
मजदूर का हिस्सा
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जो पहाड़ों को खोद रहे हैं
और बिछा रहे हैं
रेल की पटरियां
गंवा रहे अपनी जान
बारिश और भूस्खलन में
उनके लिए नहीं है रेलगाड़ियां
वे कोसों चलते हैं पैदल
चप्पलों के बिना
 
वे सड़कें बना सकते हैं
पटरियां बिछा सकते हैं
मगर उसका उपयोग
उनके लिए वर्जित है
उनके हिस्से में सिर्फ़
गायब होना बचा है
चाहे निर्माण के बाद हो
या निर्माण के दौरान।
 
 
 
स्त्री शरीर का पर्यावरण
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उसकी हथेली बहुत सख्त है
चेहरे पर कई दाग धब्बों ने बना लिया है अपना घर
उसकी आँखें भीतर ही भीतर कहीं धंसती चली जा रही हैं
मस्तिष्क के नेपथ्य में
 
होठों पर उग आए हैं खजूर, बबूल कैक्टस जैसे वनस्पति
उसकी छाती के उभार ने खो दिया है
अपने अंदर का खनिज
पेट अब पहले जैसे मुलायम नहीं रहे
तुम्हारी वंश वृद्धि की प्रक्रिया ने उसे
खुरदरा कर दिया है बुरी तरह
उसके बालों के लिए तुम्हारी उपमाएं बदल गयी हैं
बदल गए हैं तुम्हारे वो सारे शब्द और भाव भंगिमाएं
जिसे तुम कभी प्रयोग में लाते थे
 
मगर वो ऐसी नहीं थी
जब ब्याह कर आई थी तुम्हारे घर
तब तुम उतनी ही जोर से आकर्षित हुए थे
उसके यौवन के प्रति
जितने जोर से आज विमुख हुए हो उससे
 
तुम्हें पता है
इतनी जल्दी
उसने क्यों खो दिया अपने शरीर का गुरुत्वाकर्षण?
 
 
पूर्वोत्तर की एक लड़की
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पूर्वोत्तर से एक लड़की आई थी
सूरज को अपनी जेब में भर कर
मुझे उपहार स्वरूप देने
 
मैंने लौटते हुए कहा
मैं इसका ख्याल नहीं रख सकता
तुम्हारी तरह
तुम इसे ले जाओ
बस मेरे लिए थोड़ी सी रौशनी भेज दिया करना
ताकि मैं उगा सकूं
अपने शहर में भी तुम्हारे वहां का एक पौधा
 
वह रौशनी हर रोज भेज दिया करती है मुझे
मगर मैं एक जमीन नहीं खोज पाया हूं
जिसमें रोपा जा सके वह पौधा
बिना किसी विरोध के
 
 
सभ्यता एक शिकारी भी है
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फिर एक जीव
हमारी सभ्यताओं का शिकार हो गया
मैं अपनी खिड़की से देखता रहा
अपने पंखों को खुजलाते हुए एक कौआ
देखते ही देखते
बिजली के खंबे से
फड़फड़ाते हुए नीचे गिर गया
मानो आसमान जमीन पर गिर गया हो हमेशा के लिए
हमारी सभ्यता से चोट खाकर
 
कुछ ही देर में
आसमान में सैकड़ों कौए
काँव काँव करते हुए मंडराने लगे
मनुष्य को उनकी भाषा
न पहले समझ में आती थी और न ही अब
 
कौए की जान
थोड़ी थोड़ी करके
बिजली की तारों में बंट गई
और हम सब के घरों के
पंखे, बल्ब, टी.वी. को
जीवित करने में लग गई
 
हमारी सभ्यताओं को जीवित करने के लिए
फिर एक जीव
कुछ ही दिनों में
हमारे जाल में फँस जाएगा
 
एक बात साफ़ है
मनुष्य के विकास में
मनुष्य भी ज़रूरी नहीं है ।
 
 
मिलन
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जैसे कोई बच्चा
रेलगाड़ी की खिड़की से
निरंतर झांकता है
देखता है नदी, झरने, जंगल और पहाड़
बड़ी उत्सुकता से
 
यकीन मानो
मैंने भी तुम्हें
उसी तरह देखा है
और हर बार उस बच्चे की इच्छा की तरह
जो उस प्रकृति की गोद में खेल कर
एक हो जाना चाहता है
मेरी भी इच्छा हुई है
तुमसे चिर मिलन को
मेरे लिए उस प्रकृति की
अप्रतिम कृति
तुम हो
 
मिलना चाहता हूं मैं भी तुमसे
उस नदी की तरह
जो हर दिन मिलकर भी
अपनी यात्रा ख़त्म नहीं करती
सागर तक पहुंचने के बाद भी
 
पहुंचना चाहता हूं मैं भी तुम तक
किसी भटके हुए मुसाफ़िर की आख़िरी मंजिल की तरह
समाना चाहता हूं तुममें
जैसे ताप समाया रहता है आग में
पानी जैसे बर्फ़ में
बादल जैसे आकाश में
धूल के सूक्ष्म कण मौजूद रहते हैं जैसे
हवा में
 
समाना चाहता हूं
जैसे पंचतत्व समाया रहता है
शरीर में।
 
 
पहले यहां एक पहाड़ हुआ करता था
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पहले यहां एक पहाड़ हुआ करता था
यही कुछ बीस बरस पहले की बात है
लोग कहते हैं
पहले उसे चीरती हुई
रेल की एक पटरी गुजरी
फिर बगल से एक सड़क
धीरे-धीरे इर्द-गिर्द लोग बसने लगी
पहाड़ की जड़े
घर और व्यापार की नीव में ढलती गई
 
अब उस पहाड़ की जगह पर
रेलवे स्टेशन
बस स्टॉप
होटल रेस्तरां
खेल का मैदान
कल कारखाने आदि को
बखूबी अटा दिया गया है
 
पहाड़ से निकलने वाली नदी और झरने
फव्वारा और स्विंग पुल
पेड़ पौधे और जंगल
पार्क
पक्षी और जानवर
चिड़ियाघर में
तब्दील हो गया है
 
पहाड़ अब पहाड़ नहीं रहा
शहर बन गया है ।
 
 
तुम्हारे हाथों की उंगलियां
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उपमा नहीं है मेरे पास
न ही कोई प्रतीक है
और न कोई शब्द
लेकिन हां
जब भी मैं देखता हूं
तुम्हारे हाथों की उंगलियां
तो खोजने लगता हूं कोई नया शब्द प्रतीक या उपमान
जो सही अर्थों में उसकी सुंदरता को बयां कर सके
परंतु असमर्थ रहता हूं हर बार
उसी तरह
जैसे कोई गूंगा
गुड़ के स्वाद को व्यक्त करने में ।
 
 
धनंजय मल्लिक
शोध छात्र, हिंदी विभाग, उत्तर बंग विश्वविद्यालय, दार्जिलिंग, सिलीगुड़ी
dhananjaymallick36@gmail.com, 7908460397
 
 

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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