-डॉ. दिनेश कुमार यादव
शोध सार : समकालीन परिदृश्य में हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में विविध विचारधाराओं ने
विमर्श के केन्द्र में खुद को स्थापित किया है, जिसमें दलित विमर्श, स्त्री-विमर्श, आदिवासी विमर्श, पसमांदा विमर्श
आदि ने पाठक जगत का ध्यान अपनी ओर खींचा है। इस परिप्रेक्ष्य में दलित साहित्य
लेखन कोई आकस्मिक घटना नहीं है। यह प्रगतिशील, जनवादी, राजनीतिक-सामाजिक चेतना के उत्तरोत्तर विकास की एक कड़ी है। इतना ही नहीं वह किसी गैर-दलित साहित्यिक व्यक्तित्व के अभिमत का आग्रही भी नहीं है
क्योंकि अपने आवेगपूर्ण क्षणों में यह अपने स्वतंत्र अस्तित्व की घोषणा करता है।
इसी क्रम में दलित साहित्य के अंतर्गत ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं ने एक नई जमीन
तोड़ने का काम किया है। उन्होंने अपने कविता के माध्यम से भारतीय समाज के उस
अमानवीय चरित्र को बेनकाब किया है, जो झूठ और अमानवीयता के आवरण आबद्ध था। हुआ था। अपनी रचनाओं के
माध्यम से उन्होंने सदियों से हाशिये पर पड़े दलित समाज को साहित्य के केन्द्र में लाकर
खड़ा कर दिया।
शब्द बीज : दलित विमर्श, दलित विमर्श का
स्वरूप, दलित, गैर-दलित, स्वानुभूति बनाम सहानुभूति, दलित कविता, दलित चेतना, दलित अस्मिता का संघर्ष आदि।
मूल आलेख : इस संसार में परिवर्तन की गति शाश्वत है, साथ ही भौतिक चीजों की तरह मूल्य, मान्यताएं और अवधारणाएं भी बदलती रहती हैं। ज्ञान-विज्ञान
के अन्य क्षेत्रों की तरह साहित्य, संस्कृति और कलाओं में उतनी तेजी से परिवर्तन नहीं होते फिर भी जब-जब वाणिज्य, व्यापार और बाजार की वृद्धि होती है, तो ज्ञान-विज्ञान और तकनीक का विकास होता है और रूढ़ियां
टूटती हैं, तो कुछ नये मूल्य समाज में बनते हैं। कह सकते हैं
कि समय और समाज की राह स्वाभाविक प्रवृत्ति है। कभी-कभी राजसत्ता के द्वारा कानून
बनकर कोई आकस्मिक और अप्रत्याशित परिवर्तन भी कर दिया जाता है। यह जो मूल्यों में
संक्रमण और टकराव होते हैं, उसके लिए बौद्धिक आंदोलन की क्रांतियां होती हैं। एक क्रांति बौद्ध और जैन
धर्मों की हुई जिसने टकराव के साथ-साथ कालान्तर में धर्म, संस्कृति और विचारों का वैश्वीकरण हुआ। भारत में दूसरी बड़ी
क्रांति भक्ति आंदालेन की हुयी थी, जिसमें मध्यकालीन व्यापारिक शक्तियों के भारत में आने से सामाजिक, नैतिक मूल्य और मान्यताओं का टकराव हुआ। घात-प्रतिघात
मूल्यों से जो नये मूल्य निर्मित हुए उनमें भारतीय जनमानस ने स्वर्णीम युग का नया
सवेरा देखा था। यूरोप में नवजागरण की औद्योगिक क्रांति के परिणाम स्वरूप भारतीय
महाद्वीप में होने वाले आर्थिक-सामाजिक विकास और मूल्यों के संक्रमण का परिणाम था। भारत
में ब्रिटिश शासन के दौरान ज्योतिबा फूले, पेरियार आदि की दलित चेतना तो दक्षिण के साहित्य और समाज
में मुखर रही, परन्तु हिन्दी क्षेत्र में गांधी की
पुनरूत्थानवाली सुधार चेतना ही सक्रिय थी। यहाँ दलितों पर स्वानुभूतिपरक् नहीं
सहानुभूतिपरक् दृष्टि डाली गयी, इसमें से क्रांति होनी चाहिए थी वह सुधार की चेतना साबित हुयी। एक बात पर गौर
करने की जरूरत है कि भक्ति आन्दोलन की तरह वह भी दक्षिण से ही आया। दूसरी बात
नवजागरण या पुनर्जागरण की तरह देश के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा हिन्दी क्षेत्र
में बहुत देर से शुरू हुआ।
उस समय स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि अम्बेडकर आदि की तरह यहां कोई दलित नेता
नहीं था। जिस प्रकार हिन्दी क्षेत्र में नवजागरण की चेतना फैलाने का दायित्व
हिन्दी के भारतेन्दु आदि साहित्यकारों को जाता है, उसी प्रकार हिन्दी क्षेत्र में दलित चेतना के प्रसार का
श्रेय भी इस क्षेत्र के दलित साहित्यकारों को ही जाता है। इनके साथ अनेक गैर-दलित
साहित्यकार भी हैं, जिन्होंने इस
विषय पर विस्तार से सोचा और लिखा। भारतीय समाज में दलित चेतना आज एक महत्वपूर्ण
चेतना बन चुकी है। यह साहित्य के माध्यम से भारतीय समाज-व्यवस्था में दलितों की
स्थिति-परिस्थिति, मुख्यधारा के
साथ उनके ताल-मेल, अस्मिता और
पहचान आदि की बात करती है। साहित्य में इसी चेतना की अभिव्यक्ति को हम दलित
साहित्य के नाम से जानते हैं।
दलित साहित्य की परिभाषा में दलित की कल्पना, दलित के स्वप्न और दलित के ख्याल को छोड़ा नहीं जा सकता।
परन्तु जरूरत पड़े तो खुद इस दलित शब्द को छोड़ा जा सकता है। दलित जीवन में अभिधा, लक्षणा और व्यंजना की सारी खूबियां और शक्तियां विद्यमान
हैं। दलित साहित्य की परिभाषा और स्वरूप निर्धारण के पश्चात् इसकी रचनाधर्मिता से
सम्बन्धित एक और प्रश्न उठता है कि दलित साहित्य कौन लिख सकता है? क्या दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है या
दलित विषय पर गैर-दलितों की रचनाएं भी इसी श्रेणी में आयेंगी? इस प्रश्न ने एक खासा विवाद पैदा कर दिया है। एक तरफ भोक्ता
की पीड़ा और अनुभूति की प्रमाणिकता है, तो दूसरी ओर स्थिति के प्रति करूणा और सहानुभूतिपरक दृष्टि। इस सम्बन्ध में
शिवकुमार मिश्र कहते हैं ‘‘दलित साहित्य की संज्ञा उसी साहित्य को दी जायेगी जो जन्मना दलित रचनाकार
द्वारा रचा गया हो, उस लेखन को नहीं
जो भले ही दलित जीवन-संदर्भों से जुड़ा लेखन हो परन्तु जिसके लेखक गैर दलित हों।’’1
राजकुमार सैनी का कहना है ‘‘मेरा अभिमत है कि दलित चेतना का साहित्य के लिये दलित होना जरूरी नहीं है।
साहित्य का सम्बन्ध संवेदना से है। दलित जाति का व्यक्ति भी व्यवस्था में बिकाउ
माल की तरह संवेदनशून्य हो सकता है। दूसरी ओर निराला जैसे महाकवि भी हुए हैं, जिन्होंने हिन्दी कविता में पहली बार दलित शब्द का प्रयोग
किया।’’2
मृदुला गर्ग की मान्यता है कि ‘‘गैर दलित लेखक भले ही दलित पात्रों के बारे में सशक्त प्रभावशाली और कलात्मक
रचनाएं दें वे दलित लेखकों की कृतियों से कहीं न कहीं भिन्न होंगी। भाषा, शिल्प, रूपक और मुहावरों के प्रयोग में और कथ्य के निर्वाह में भी।’’3
वास्तविकता तो यह है कि आज सब दलितों ने अपनी समस्या को खुद ही उठाया है। अपना
साहित्य खुद ही लिखना शुरू किया है, तो उन्हें भी दया और सहानुभूति याद आयी है। इस दृष्टि से दलित साहित्य केवल
दलितों का ही साहित्य है। वही इस ईमानदारी से विचार कर सकता है, क्योंकि वह उसका भोक्ता है। फिर भी दलित साहित्य को केवल
दलितों की सीमा में बाँधना उचित नहीं है। साहित्य साहित्य होता है, जिसके सृजन का अधिकार सबको होता है। साथ ही निष्ठा संवेदना
और प्रतिबद्धता आवश्यक है। केवल उपरी सहानुभूति से चेतना की धारा में शामिल नहीं
किया जा सकता है। यद्यपि साहित्य की सामाजिकता किसी वर्ग विशेष की सामाजिकता नहीं
होती है। साहित्य को अखिल मानवता के हित में उसके पक्ष में खड़ा होना चाहिए। दलित
साहित्य न केवल दुर्दशा का दस्तावेज है बल्कि यह पारम्परिक समाज व्यवस्था के
प्रतिकार द्वारा मुक्ति का प्रयत्न भी है। यह वर्ग से अधिक वर्ण की बात करता है, जिसके वह घेरे में है। ‘‘वर्ण व्यवस्था का विरोध जाति भेद और साम्प्रदायिकता का
विरोध दलित चेतना की प्राथमिकताओं में है। दलित चेतना अलगाववाद की जगह समता, एकता और भाईचारे का समर्थन करती है। मानव मुक्ति संघर्ष में
यह मनुष्य की स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय की पक्षधर है और सामाजिक बदलाव के लिए
प्रतिबद्ध है। वह अधिनायकवाद, सामन्तवाद को मानवता का विरोधी मानती है। जहां यह वर्ग वर्ण विहीन समाज की
पक्षधर है, वहीं भाषावाद और लिंगवाद का भी विरोधी है। दलित
चेतना साहित्यिक मानदण्डों में महाकाव्य की रामचंद्र शुक्लीय परिभाषा से असहमत और
पारम्परिक सौंदर्यशास्त्र का विरोधी है’’4
दलित साहित्य धर्म और ईश्वर के पाखण्ड पर
कुठाराघात करता है। कवि दलितों के शोषण और अधोगति के कारणों को भली-भाँति समझता है, साथ ही इसमें धर्म की भूमिका को भी उसकी चेतना देखती है।
इसलिए वह ईश्वर हिन्दू देवी-देवताओं पर प्रश्नचिन्ह् खड़ा करता है कि यदि उनमें
शक्ति है, वे न्याय करने वाले निर्बल के रक्षक हैं तो
दलितों के साथ होने वाले जुल्मों को वे चुपचाप देखते क्यों रहे? जयप्रकाश कर्दम सपने अच्छे लगते हैं में लिखते हैं कि ‘‘कुछ करते क्यों नहीं? इतने सारे देवी-देवताओं में से कभी भी कोई भी दलितों की
रक्षा करने और उनको न्याय दिलाने के लिये कभी सामने नहीं आया, तो उनकी पूजा-अर्चना करने उपवास करने का क्या लाभ है? क्यों माने उन्हें? छल से प्रहार अब भी दलितों पर होता है। दोनों का भगवान न
जाने कहाँ सोता है?’’5
दलित लेखकों में ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, कॅवल भारती, डॉ. धर्मवीर, जयप्रकाश कर्दम, श्यौराज सिंह
बेचैन आदि लेखक हैं। इसमें ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं में दलित यथार्थ का
चित्रण देखने को मिलता है। जो आज के तत्कालीन समाज की वास्तविक परिभाषा को व्यक्त
करता है। उनकी कविता ‘शंबूक का कटा
सिर’ का एक अंश इस प्रकार है -
“गली गली में/राम
है/शंबुक है/द्रोण है/एकलव्य है/फिर भी सब खामोश हैं/कहीं कुछ है/जो बंन्द कमरों
से उठते क्रन्दन को/बाहर नहीं आने देता/कर देता/रक्त से सनी ऊँगलियों को
महिमा-मण्डित।“6
ओमप्रकाश वाल्मीकि भी मार्क्सवादियों की सामाजिक क्रांति के नारे को सिर्फ
दिखावा मानकर आलोचना करते हैं कि -
“ऊँची-ऊँची
अट्टालिकाओं के कहकहे/सफेद पोश/नेताओं के भाषण/चैराहे पर गाँधी का पुतला/गलियों
में/समाजवाद का नारा/मेरा मन बहला रहे हैं।“7
क्योंकि देश के कम्युनिस्ट सत्तर-अस्सी सालों से समाजवादी क्रांति का नारा
बुलन्द किये जा रहे पर सैकड़ों पार्टियों में बँटा वामपन्थी आन्दोलन बिखराव के कगार
पर खड़ा है और अपना जनाधार लगातार खोता जा रहा है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि का कविता संग्रह बस्स! बहुत हो चुका में मार्क्सवादियों को
सकारात्मक नजरों से देखते हैं कि हिन्दू मार्क्सवादियों के वर्ग संघर्ष से बहुत
भयभीत रहता है सबसे ज्यादा विरोध भी वही करता है। इसलिए वर्णवादी हिन्दू सोवियत
संघ के विघटन पर बहुत खुश नजर आता है। इसी सच्चाई की ओर ओमप्रकाश वाल्मीकि इशारा
करते हैं कि -
“वर्ण व्यवस्था
को तुम कहते हो आदर्श/खुश हो जाते थे/समाजवाद की हार पर/जब टूटता है रूस/तो
तुम्हारा सीना छत्तीस हो जाता है/क्योंकि मार्क्सवादियों ने/छिनाल बना दिया
है/तुम्हारी संस्कृति को।“8
उनके लेखन से निश्चित ही सबको अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त हुई और
उनके द्वारा भेंट की गयी अभिव्यक्ति रूप वैशाखी। बाद में निम्न वर्ग के लोगों के
लिए सुरक्षा कवच बन सका। न तो वह शब्दों के सफर में कभी हारे और न ही जीवन के डगर
में। वह बड़े ही नपे तुले शब्दों में बात कहने के आदि रहे हैं। वह लिखते हैं -
“जिसमें उभरता है
बिम्ब/जो उन्हें लगता है वीभत्स/प्रतिशोध से भरा हुआ/जितनी बार भी देखते हैं
वे/उतनी बार हो जाता है/उनका चेहरा विद्रूप/अमानुषिक दर्प से भरा हुआ।“9
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की एक खास विशेषता यह था कि वह जहां कहीं भी गलत थे, उसे सहर्ष स्वीकार करते थे और जहां वह सही होते थे वहां पर
चट्टान की तरह अडिग होकर खड़े रहते थे। बुनियादी सवाल के वे आग्रही थे और
बेबुनियादी सवाल के विरोधी। उनका साहित्यिक चिन्तन व्यक्ति और समाज दोनों के लिये
है। क्योंकि दोनों एक दूसरे के पूरक है। वह ‘शब्द झूठ नहीं बोलते’ में बाकायदा लिखते हैं -
“उन्हें डर
है/बंजड़/धरती का सीना चीरकर/अन्न उगा देने वाले सांवले खुरदुरे हाथ/उतनी ही दक्षता
ये जुट जायेंगे/वर्जित क्षेत्र में भी/जहां अभी तक लगा था उनके लिए/नो एंट्री का
बोर्ड।“10
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने व्यक्ति की मार्मिक संवेदनाओं को बारीकी के साथ पकड़ा
और उसका अध्ययन किया। साथ ही उनकी जीवन की सच्चाईयों से सब को रूबरू भी करवाया।
उनके लिए हर शब्द अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उनका मानना है कि शब्द व्यक्ति
से सीधा ताल्लूक रखते हैं। उनका अतीत, भूत और भविष्य से सीधा सम्बन्ध रहता है, क्योंकि शब्द झूठ नहीं बोलते। वह लिखते हैं कि -
“अंधेरा सिर्फ एक
शब्द भर/नहीं है मेरे लिए/पूरा इतिहास है/जिसे ढोया है हजारों साल से/एक बोझ की
तरह/अभ्यस्त होकर जिए/पीढ़ी दर पीढ़ी।“11
दलित साहित्य विषयक यह मानवतावादी और संवेदनशील विचार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के
ही हो सकते हैं। यही मानवतावादी दृष्टिकोण उनकी एक कविता में कुछ इस प्रकार व्यक्त
हुआ है-
“वह दिन कब
आयेगा/जब बामनी नहीं जनेगी बामन/चमारी नहीं जनेगी चमार/भंगिन भी नहीं जनेगी
भंगी/तब नहीं चुभेंगे/जातीय हीनता के दंश/नहीं मारा जायेगा तपस्वी शंबूक/नहीं
कटेगा अंगूठा एकलव्य का/कर्ण होगा नायक।“12
दलित साहित्य के केंद्र में
हिन्दू धर्म व संस्कृति के प्रति आक्रोश की भावना मुख्य रूप से विद्यमान है। इसमें
कोई दो राय नहीं है कि हिन्दू धर्म और संस्कृति ने दलितों को कभी अपनापन नहीं
मिला। वाल्मीकि जी ने हिन्दू धर्म के हीन संस्कार पर कठोर प्रहार किया और इनकी
कविताओं से स्पष्ट है कि ये हिन्दू संस्कृति रूपी मृतक अब जलाये जाने के लिये
तत्पर है। धर्म के नाम पर अन्याय और अत्याचार सहन करते-करते थक चुके है। इस कवि ने
संस्कृति का भय हृदय से निकाल कर उसका खण्डन किया है। अपनी कविता सधे हुए शब्द में
वाल्मीकि जी ने जो बिम्ब बनाया है, उससे हिन्दू संस्कृति के प्रति दलितों की घृणा और विरोध की भावना बलवती होती
प्रतीत हो रही है -
“मुर्दा संस्कृति
की लाश पर/मडराती चील जश्न मनायेगी/जिसके पंखों के साये में/संस्कृति का तकिया
बनाकर शिकारगाह में अधलेय आदमखोर/निकाल रहा है/दांत में फंसे मांस के रेशे/नुकिले
खंजर से।“13
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने दलित जीवन की समस्त
दशाओं (सामाजिक, सांस्कृति, आर्थिक, धार्मिक व राजनैतिक) में व्याप्त पीड़ाओं को स्वयं महसूस किया है। उनको टीस है
इस बात की कि दलितों को आदमी की तरह कभी नहीं देखा जाता। इसी टीस को वाल्मीकि जी
ने अपने समस्त साहित्य में बखूबी व्यक्त किया है। दलित जीवन की सच्चाई को उन्होंने
अपनी कविता ‘उपोत्पाद’ में कुछ इस प्रकार दर्शाया है -
“पैदा हुए वैसे
ही/जैसे होते है पैदा/गलियों में कुत्ते-बिल्ली/पैदा हुए वैसे ही/जैसी होती है खेत
में पैदा/खरपतवार/हर दूब-झाड़-झंखाड़/पेट्रोल से तारकोल।“14
यदि सामाजिक शोषण को देखा जाय तो वर्ण और जाति
व्यवस्था ने समाज की समरसता को छिन्न-भिन्न कर दिया है। उनके एक-दूसरे के पास
उठने-बैठने पर भी रोक थी। हालत यह थी कि अल्पसंख्य सवर्ण हिन्दू इनकी परछाई से भी
बचकर चलते थे। इनके पास राज-काज के अधिकार थे और आर्थिक संसाधनों पर एकाधिपत्य था।
जिसके परिणाम स्वरूप दलित-बहुजन समाज ने अकल्पनीय शोषण, दुःख और अत्याचार को झेला। जीवन के प्रत्येक कतरे को भोगते
हुए भयंकर यातनाएं झेलनी पड़ी। कवि कहते हैं -
“चूल्हा मिट्टी
का/मिट्टी तालाब/तालाब ठाकुर का/भूख रोटी की/रोटी बाजरे की/बाजरा खेत का/खेत ठाकुर
का/खेत-खलिहान ठाकुर के/गली मुहल्ले ठाकुर के/फिर अपना क्या?/गांव? शहर? देश?”15
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के समस्त साहित्य में
हमारी सामाजिक व्यवस्था का सजीव चित्रण करने के साथ ही उनसे मुक्ति की छटपटाहट और
जीवन विकल्प पाने की इच्छाशक्ति साफ दिखाई देती है। उनके काव्य में एकलव्य और
शंबूक जैसे इतिहास के पात्र जिन्हें इतिहास में जानबूझकर विस्मृत कर दिया गया और
इतना ही नहीं उनपर हुए अत्याचार को नियतिवादी दर्शन का अमलीजामा पहनाकर प्रस्तुत
किया गया। इन सभी पात्रों और चरित्रों के माध्यम से वर्तमान उत्पीड़नकारी व्यवस्था
के खिलाफ प्रखर प्रतिकार दिखाई देता है -
“जैसे हर टहनी
पर/ लटकी हो असंख्यक लांशे/जमीन पर पड़ा हो शंबुक का कटा सिर/मैं उठकर भागना चाहता
हूँ/शम्बूक सिर मेरा रास्ता रोक लेता है/चीख-चीख कर कहता है/युगों से पेड़ पर लटका
हूँ/बार-बार राम ने मेरी हत्या की।“16
निष्कर्ष : इस प्रकार दलित साहित्य का समाजशास्त्र सीधा है। यह बात शत-प्रतिशत सही है कि
दलित साहित्य ने अपने समय और समाज को जिस सच्चाई के साथ चित्रित किया है, किसी साहित्य ने नहीं। इसलिए समाजशास्त्री दृष्टि से यह अब
तक का सबसे यथार्थवादी साहित्य है। इतिहास ने उसकी जो छवि गढ़ी है, जो पहचान बनायी है उससे वह मुक्त होना चाहता है। अतः
अस्मिता और पहचान की तलाश में आकुल -व्याकुल दलित साहित्य की सामाजिकता ही साहित्य
के रूप में सामने आ रही है। यही उसकी सामाजिकता है और साहित्यिकता भी। दलित
साहित्य में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं में सांस्कृतिक यथास्थितिवाद के विरूद्ध
बार-बार आक्रोश उभरता है। कवि सांस्कृतिक यथास्थितिवाद के विरूद्ध बार-बार आक्रोश
उभरता है। कवि सांस्कृतिक प्रतीकों में मौजूद हिंसा, मानवीय घृणा को बन्धुता में बदलने हेतु प्रतिनिधित्व को
नकारने वाले और अन्याय के पक्षधर जातिवादी व्यवहारों पर कड़ाई से पेश आते हैं। वे
प्रकृति के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं की साथ अभिव्यक्ति करते हुए सदियों से कायम
अंधेरे को समाप्त करने के लिये ज्ञान दीप जलाने को प्रतिबद्ध है।
संदर्भ :
पोस्ट डॉक्टरल फेलो
डॉ. अम्बेडकर अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली।
8004840988, dineshy441@gmail.com
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
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