शोध आलेख : बाला बोधनी : स्त्री प्रश्न के दायरे में / डॉ. अवन्तिका शुक्ला

बाला बोधनी: स्त्री प्रश्न के दायरे में 
-डॉ. अवन्तिका शुक्ला

 

शोध सार : प्रस्तुत आलेख में भारतेंदु हरिश्चंद्र की पत्रिका बालाबोधिनी में महिलाओं के विषय में प्रकाशित आलेखों का अध्ययन किया गया है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बालाबोधिनी पत्रिका 1874-77 के बीच बालाबोधिनी का सम्पादन किया था। इस पत्रिका को हिंदी की प्रथम स्त्री केंद्रित पत्रिका होने का गौरव प्राप्त है। इसमें महिलाओं के जीवन से संबंधित महत्वपूर्ण आलेख लगातार प्रकाशित किये जाते रहे। 19 वीं शताब्दी स्त्री प्रश्नों को लेकर बहुत महत्वपूर्ण रही है। इस दौर में महिलाओं की शिक्षा, विधवा विवाह, बाल विवाह का निषेध, जैसे मुद्दों पर गंभीर चर्चा देश भर में हो रही थी। अलग अलग माध्यमों से लोग जनता को महिलाओं के मुद्दों के प्रति जागरुक करने का प्रयास कर रहे थे। पुरुषों को भी अपने जीवन साथी के रूप में एक शिक्षित महिला की तलाश थी। शिक्षा प्राप्ति और रोजगार के कारण शहरों में एकल परिवारों के गठन की शुरुआत हो चुकी थी। ऐसी स्थिति में महिलाओं के ऊपर बड़ी जिम्मेदारी आ रही थी। उनसे परिवार की साज संभाल की ज्यादा अपेक्षायें भी की जा रही थी। ऐसे ही अनेकों मुद्दों से रूबरू होते हुए भारतेंदु ने बालाबोधिनी के सम्पादन का कार्य किया। इस आलेख में भारतेंदु की स्त्री दृष्टि को उनकी इस पत्रिका के माध्यम से समझने का प्रयास किया गया है। 

बीज शब्द : हिंदी नवजागरण, स्त्री प्रश्न, स्त्री शिक्षा, बालाबोधिनी, नई स्त्री, लैंगिक भेदभाव, समाज सुधार, पतिव्रता, घरेलू श्रम, स्त्री चेतना। 

मूल आलेख : भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी नवजागरण के अग्रदूत के रूप में स्थापित हैं। अंग्रेजों के शासन से दमित और कुचले जनता के आत्मविश्वास को जगाने में और उनके भीतर राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करने में भारतेंदु हरिश्चंद्र का बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। निज भाषा, निज गौरव के माध्यम से राष्ट्रीयता की चेतना का अलख भारतेंदु ने जिस तरह से जगाया उसने उस दौर के सभी वर्गों को प्रभावित किया। खासतौर से युवाओं को। उनके नाटक युवाओं में बहुत लोकप्रिय थे। भगत सिंह ने भारतेंदु के नाटक भारत दुर्दशा में अभिनय भी किया था। उनके साथी जेल में भी भारतेंदु के नाटक के संवाद सुनाया करते थे। भारतेंदु का प्रभाव क्रांतिकारियों में जबरदस्त रूप से मिलता है। वह एक ऐसे आज़ाद भारत का सपना देखते थे, जिसमें निज भाषा, संस्कृति, साहित्य के प्रति लगाव और सम्मान हो। यह भाषा, संस्कृति और साहित्य लोगों को लगातार परिमार्जित करते हुए उन्हें एक बेहतर नागरिक बनाने में अग्रणी भूमिका निभाता रहा।

  19 वीं ती स्त्रियों के प्रश्नों को लेकर एक बेहद महत्वपूर्ण शती रही है, जिसमें महिलाओं के प्रश्नों को सार्वजनिक बहस के दायरे में लाया गया और उन पर गंभीर विचार विमर्श हुआ ताकि उनकी सदियों से शोषित स्थिति में परिवर्तन लाया जा सके और भारतीय महिलाओं को सक्षम बनाकर राष्ट्रीय विकास में भागीदार के रूप में जोड़ा जा सके। इस समय में भारतेंदु जैसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्व की राष्ट्रीय चेतना संबंधी विचारों और प्रयासों को देखते हुए यह भावना स्वाभाविक रूप से उभरती है कि भारतेंदु के महिलाओं के सन्दर्भ में क्या विचार थे? वह भारत की महिलाओं की भूमिका को किस रूप में देखते थे? वह महिलाओं के विकास के लिए किस प्रकार के प्रयासों के हिमायती थे? प्रस्तुत आलेख में भारतेंदु हरिश्चंद्र के महिलाओं के सन्दर्भ में विचारों को जानने का प्रयास किया गया है। इस हेतु उनके द्वारा 1874 से 1877 के बीच निकाली गयी हिंदी की पहली महिला पत्रिका बाला बोधिनी के आलेखों को केंद्र में रखा गया है। भारतेंदु के स्त्री मुद्दों पर विचार जानने के लिए बालाबोधिनी में प्रकाशित आलेखों पर विस्तार से चर्चा की गयी है। 

बालाबोधिनी : एक परिचय

भारतेंदु हरिश्चंद्र की साहित्यिक और वैचारिक पहचान बनाने में उनकी दो पत्रिकाओं कवि वचन सुधा (1868-85) और हरिश्चंद्र मैगजीन (1873-85) का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इन दोनों पत्रिकाओं के बाद 1874 से 77 के दौरान भारतेंदु ने महिलाओं को केन्द्र में रखकर बालाबोधिनी नाम की पत्रिका का संपादन किया गया। इस पत्रिका को हिंदी की प्रथम स्त्री केंद्रित पत्रिका होने का गौरव प्राप्त है। 19 वीं शताब्दी स्त्री प्रश्नों को लेकर भी बहुत महत्वपूर्ण रही है। औपनिवेशिक शिक्षा से प्रभावित तबका महिलाओं के जीवन में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का बीड़ा उठा रहा था, वहीं उसके भीतर के पारंपरिक मूल्य उसे ऐसा करने की इजाजत नहीं दे रहे थे। यह समय उस शिक्षित भारतीय तबके के लिए द्वंद्व का रहा। बहुत से लोगों ने इस द्वंद्व पर विजय प्राप्त की और परंपरा के नाम पर स्थापित कुरीतियों का पुरजोर विरोध किया। इसके लिए उन्हें बहुत ज्यादा आलोचनायें भी झेलनी पड़ीं पर उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। जबकि दूसरा तबका उन लोगों का रहा जिनके भीतर स्त्री मुद्दों को लेकर परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व लगातार चलता रहा। वे महिलाओं की शिक्षा, मुक्ति, स्त्री पुरुष संबंधों की बराबरी पर बात कर रहे थे, लेकिन महिलाओं को ये सभी चीजें वे उनकी पारंपरिक जेंडरगत भूमिका के भीतर ही देना चाहते थे। इस कारण इस दौर में कई प्रकार के विरोधाभास भी मिलते हैं (चक्रवर्ती, 2001)। लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि महिलाओं के जीवन में बड़े बदलाव के लिए इन दोनों प्रयासों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। बालाबोधिनी के संदर्भ में यदि बात करें तो यह हिंदी की पहली स्त्री केंद्रित पत्रिका होने के नाते महिलाओं के जीवन में असमानता, गैर बराबरी, अशिक्षा पर बात करती है पर उससे इतर वह महिलाओं के रोजमर्रा के जीवन की बात करती है और उसमें ऐसे प्रयासों पर प्रकाश डालती है, जिससे उसमें सुगमता आ सके। पर इस सुगमता के लिए कई बार ऐसी बातें भी उपदेश के रूप में आती हैं जो महिलाओं को उनकी जेंडरगत भूमिकाओं में ही सीमित करती हैं। ऐसे द्वंद्व इस पत्रिका में हमें कई स्थानों पर मिलेंगे। बावजूद इसके यह एक महत्वपूर्ण पत्रिका रही है। सरकार का सहयोग भी इस पत्रिका को मिलता था। इसकी सौ प्रतियां सरकार ही खरीद लेती थी। महिलाओं के लिए शिक्षा, इतिहास, चिकित्सा, बच्चों की देखभाल, गणित के अतिरिक्त सम-सामयिक मुद्दों पर भी इसमें आलेख मिलते हैं। स्त्रियों की इतनी महत्वपूर्ण पत्रिका होने के बावजूद भी इसके अंक दुर्लभ थे। इन अंकों को एक साथ लाकर शोधार्थियों का सहयोग करने में वसुधा डालमिया और संजीव कुमार ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और बाला बोधिनी के अंकों का संग्रह निकाला। प्रस्तुत आलेख उसी संग्रह के आधार पर लिखा गया है। यह पत्रिका दस पृष्ठों में निकलती थी और एक सीमित तबके तक ही इसकी पहुँच थी। सरकार द्वारा हाथ खींचने पर यह पत्रिका तीन साल में ही बंद हो गयी और इसे कविवचनसुधा में ही विलय कर दिया गया।

बालाबोधिनी का सबसे बड़ा अभाव यह है कि स्त्री पर केन्द्रित पत्रिका में एक भी स्त्री लेखिका नहीं है। इस पत्रिका में कहीं भी ऐसे आलेख, किस्से, कहानी, कविता आदि नहीं दिए हैं, जिससे महिलाओं का थोड़ा मनोरंजन भी हो, बल्कि पत्रिका स्त्रियों को उपदेश देने के स्वर में ज्यादा बात करती है। अधिकांश पुरुष सुधारकों द्वारा स्त्री की जिस रूप में राष्ट्र निर्माण के लिए अपेक्षा की जा रही थी, वह शिक्षित मां और पतिव्रता पत्नी की थी। इसी भूमिका को सुदृढ़ करने के लिए लोग अलग अलग तरीके से प्रयास में लगे थे। बालाबोधिनी भी इन्हीं प्रयासों की एक कड़ी प्रतीत होती है। बावजूद इसके यह महिला शिक्षा, परिवार और राष्ट्र के लिए महिलाओं की भूमिका के प्रति तत्कालीन सोच और पत्रकारिता को समझने के लिए हमें महत्वपूर्ण आधार देती है, जिसे नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता। 

बाला बोधिनी में स्त्रियों के लिए प्रस्तुत कुछ मुद्दे

बालाबोधिनी में प्रस्तुत स्त्री मुद्दों पर बिन्दुवार विस्तार से चर्चा की गयी है। इन मुद्दों के माध्यम से हम देख सकते हैं कि भारतेंदु स्त्री के बारे में किस दृष्टिकोण से विचार कर रहे थे।

 पतिव्रता धर्म, महिला शिक्षा एवं स्त्री स्वर

बालाबोधिनी में भारतेंदु ने सबसे पहले जिस आलेख को लिया है, उसका नाम शीलवती है। शीलवती एक ऐसा आलेख है, जिसमें एक आदर्श स्त्री को कैसा होना चाहीये उसकी पूरी झांकी दी गयी है। किंतु एक शीलवती स्त्री के भीतर भी अपनी स्थिति और सामजिक व्यवस्था को लेकर पैने सवाल हो सकते हैं, होते हैं। भारतेंदु ने इस आलेख के माध्यम से जहां स्त्री की आदर्श छवि की समाज में व्याप्त धारणा को प्रस्तुत किया है, वहीं दूसरी और इस छवि की सीमाओं और महिलाओं की भीतरी घुटन को भी अभिव्यक्त किया है।

    शीलवती एक ऐसी स्त्री है जो घरेलू है, आज्ञाकारी है, विनम्र है और पढ़ना लिखना भी जानती है। घर की तमाम जिम्मेदारियों को वह प्रसन्नता से निभाती है, पर महिलाओं की स्थिति को लेकर उसके मन में बहुत कष्ट है। उसे लगता है कि महिलाओं के साथ समाज बहुत भेदभाव करता है। अपने मन की बात वह - “भरतखंड की स्त्रियों की वर्तमान दशा” नाम से अपने आलेख में लिखती है। शीलवती अपने आलेख में लिखती है कि भले ही प्राचीन काल में महिलाओं का बहुत सम्मान हमारे देश में होता हो पर आज हम सब केवल दासी और दुःख भोगने वाली बन गयी हैं। कन्या के जन्म होते ही उसके प्रति परिवारजनों के चेहरे की रंगत फीकी पड़ जाती है। शिक्षा नहीं प्रदान करते क्योंकि उन्हें लगता है कि शिक्षा ग्रहण करने से यह स्वाधीन हो जायेगी। शिक्षा प्राप्त न होने से महिलाओं की स्थिति बहुत दीन-हीन हो जाती है। हम मूर्ख बने रहते हैं। 

शीलवती इतिहास में दर्ज शिक्षित महिलाओं के नामों का उदाहरण देते हुए कहती हैं कि यदि कोई बूढ़ी स्त्री धन मिलने पर उसे नहीं छोड़ती, तो बुढापे में विद्या धन मिलने पर वह कैसे छोड़ सकती है। इस प्रकार वह प्रौढ़ स्त्रियों की शिक्षा का मुद्दा भी सामने रखती है।

 इस प्रकार यह आलेख दो मुद्दों पर प्रमुखता से बात करता है, जिसमें एक तरफ स्त्रियों से परिवार की अपेक्षा प्रस्तुत की गयी है उनके आदर्श स्वरूप का वर्णन करके, वहीं दूसरी ओर स्त्रियों की परिवार से अपेक्षा का वर्णन किया गया है कि एक स्त्री अपनी शिक्षा के लिए अपने परिवार से क्या अपेक्षा करती है। उसे शिक्षित होने की लालसा कितनी गहरी है? वह अपने परिवार में अपनी दयनीय स्थिति के प्रति कितने रोष में है? अंत में शीलवती कहती है कि “हम लोगों को सर्वथा उचित है कि तन, मन, धन से पतिव्रतादिक धर्म और स्त्री शिक्षा की वृद्धि में परिश्रम करें और अपना अनमोल जीवन न खोएं।”

इस प्रकार इस आलेख के माध्यम से हम देख सकते हैं कि भारतेंदु स्त्री शिक्षा के हिमायत करते हैं पर वे महिलाओं के भीतर इस भावना को भी पुष्ट करना चाहते हैं कि शिक्षा प्राप्ति से वे उन्मुक्त न हों बल्कि अपने पतिव्रता धर्म का पालन करते हुए पति और परिवार के नियंत्रण में ही रहें। 

एकल परिवारों में महिलाओं को व्यवस्थित होने का प्रशिक्षण

जिस तरह से इस पत्रिका में महिलाओं को अपने गर्भ की देखभाल, बच्चों का पालन पोषण, उनके टीकाकरण, घर के हिसाब-किताब रखने, धोखेबाजों से सावधान रहने की जानकारियाँ विस्तार से दी जा रही है, यह एक महत्वपूर्ण सामाजिक बदलाव की ओर भी इशारा कर रही है। यह एक ऐसा दौर रहा, जिसमें भारतीय पुरुषों ने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर शहरों में नए काम और सरकारी नौकरी करना शुरू कर दिया था। शहरों में ससुराल छोड़कर पति के साथ पत्नियों के बसने का प्रचलन प्रारम्भ हो रहा था। इस नए मध्य वर्ग के उदय में महिलायें पति के साथ एकल परिवारों में रहने लगीं, जहां कई बार ऐसी स्थितियां भी थीं जबकि उनके पास कोई ऐसी बुजुर्ग महिला नहीं थी जो इन्हें इस बदलाव के बारे में बता सके या गर्भावस्था, बच्चों का पालन पोषण करने से जुडी हुई सलाह दे सके। इस जरूरत को समझकर भारतेंदु ने बाला बोधिनी में इन महत्वपूर्ण विषयों पर विस्तार से जानकारी शामिल की, ताकि अकेली स्त्री भी अपनी देखभाल ठीक से कर सके। परिवार से दूर पति के साथ अकेले रहने पर हर तरह की परिस्थितियों से निपटने के लिए समझदारी, जागरूकता, धोखेबाजों की चालबाजियों से बचाव, घर के सामान के व्यवस्था, बच्चों की सुरक्षा सभी के बारे में लिखा, ताकि ऐसी महिलायें आवश्यक जानकारी प्राप्त कर आत्मविश्वासी बन सकें। यह पत्रिका एक बड़े सामाजिक बदलाव की तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट कराती है। 

गर्भ का निर्माण, गर्भावस्था, प्रजनन एवं शिशुपालन के बारे में बेहतरीन जानकारी

बाला बोधिनी पत्रिका में 1874 के फरवरी, मार्च के अंक में बाबू ऐश्वर्य नारायण सिंह का शिशु पालन पर लंबा आलेख है, जो धीरे-धीरे आगे कई अंकों में विस्तारित हुआ है। भारतेंदु ने बालाबोधिनी में महिलाओं के गर्भधारण से लेकर शिशु के पालन पोषण पर सामग्री की जरूरत पर बहुत गहराई से विचार किया है। गर्भ किस प्रकार ठहरता है?, माता पिता की अस्वस्थता और मानसिक स्थिति का भ्रूण पर क्या प्रभाव पड़ता है?, गर्भ धारण के बाद मां को किस प्रकार का भोजन करना चाहिए, किस प्रकार सावधानी से उठना और चलना चाहिए। बच्चे की प्रसूति के समय किन सावधानियों को रखना चाहिए, स्वच्छता और हाईजीन का पालन कैसे करना चाहिए, इस सब पर विस्तार से बालाबोधिनी में मार्गदर्शन किया है। अगर छोटे बच्चे को लेकर कहीं बाहर जाना है, किसी के घर में रुकना है, तो भी मां, बच्चे की सहूलियत के लिए आवश्यक बातों पर चर्चा की है, ताकि नए घर या नयी परिस्थिति में किसी समस्या का सामना न करना पड़े। जिस समय समाज में अंधविश्वास गहरे तक लोगों के मन में भरा था, भारतेंदु महिलाओं से अपने बच्चे को शीतला से बचाव के लिए टीका लगवाने अर्थात वैक्सीनेशन के लिए सलाह देते हैं और उसकी आवश्यकता पर बल देते हैं। वैक्सीनेशन को लेकर लोगों के मन में किस प्रकार के संशय रहते हैं, इसे हम कोरोना काल के दौरान देख चुके हैं। भारतेंदु महिलाओं को भयमुक्त होकर अपने बच्चों को वैक्सीन लगवाने के लिए कहते हैं, ताकि आने वाली नस्लें रोग मुक्त हो सकें। शीलवती आलेख में शीलवती स्त्री शिक्षा की महत्ता पर बात करते हुए कहती है कि हम सब बुद्धिमान होतीं तो टीका लगाने के गुण दोष को भली भांति जान के सीतला से दुष्ट रोग से अपने बहुत से बालकों की रक्षा करतीं। इसी प्रकार अनेक बालरक्षा के उपाय जानकर अपने प्यारे बच्चों को सुखपूर्वक पालती (वसुधा डालमिया, 2014, पृ. 40)। बालाबोधिनी में गर्भ धारण के साथ गर्भपात पर भी बात की गयी है। जबलपुर के सरयू प्रसाद ने गर्भ के विकास, सही से गर्भ की संभार न करने पर माता की म्रत्यु या गर्भपात के बारे में जानकारी दी है (वसुधा डालमिया, 2014, पृ. 339)। स्त्री के गर्भपात की संभावना किन स्थितियों में बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में तुरंत चिकित्सक की देखरेख कितनी आवश्यक है, इस पर विस्तार से चर्चा की है। जिल्द तीन के नवम्बर 1879 के अंक में आलेख गर्भ में शुक्राणु, अंडाणु के निर्माण और उनके संयोग से बनाने वाले भ्रूण के निर्माण, शरीर में होने वाले परिवर्तनों, शरीर का इस बदलाव के लिए सकारात्मक सहयोग इन सभी जानकारियों को विस्तार से साझा किया गया है। उस काल के सन्दर्भ में विचार करने पर हम यह महसूस कर सकते हैं कि यह सब जानकारी का हिंदी में उपलब्ध होना कितना महत्वपूर्ण रहा होगा। महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य के इस महत्वपूर्ण बिंदु पर विस्तार से जानकारी उनके शरीर में घटित होने वाले परिवर्तनों पर जो कि हमेशा दबे छिपे ढंग से बतियाये जाते थे उस पर सार्वजनिक रूप से एक पत्रिका के माध्यम से तफसील से जानकारी शामिल करना और महिलाओं के जीवन के खतरों की सम्भावनाओं पर चर्चा महिला स्वास्थ्य को केंद्र में लाने के एक महत्वपूर्ण प्रयास के रूप में भी देखा जाना चाहिए। यह सिर्फ महिलाओं को एक शरीर के रूप में देखने की बात नहीं है, बल्कि महिलाओं को स्वयं के भीतर होने वाले बदलावों को जानने समझने और खुद को शारीरिक, मानसिक स्तर पर तैयार करने और जीव विज्ञान के इस रहस्य को पूरी वैज्ञानिकता के साथ समझाने का प्रयास है (वसुधा डालमिया, 2014, पृ. 322) 

महिलाओं के भीतर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास का प्रयास

भारतेंदु ने बालाबोधिनी में इंद्रजाल नामक आलेख के माध्यम से महिलाओं के भीतर अंधविश्वास को दूर कर एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करने का प्रयास किया है। आज भी यह प्रयास लगातार विविध संस्थाओं द्वारा देश भर में किया जा रहा है, ताकि लोग किसी धोखे का शिकार न हो पायें और जो लोग चमत्कार का नाम लेकर रसायन विज्ञान की सामान्य क्रियाओं के नाम पर धन उगाही करते हैं और अंधविश्वास फैलाते हैं, वह बंद हो सके। इंद्रजाल में जादू के नाम पर तांत्रिकों द्वारा किये जाने वाली क्रियाओं के पीछे के विज्ञान को सामने लाते हैं। सबसे पहले वह रंगीन फूल को सफ़ेद करने की युक्ति बताते हैं कि किस प्रकार गंधक के धुंए से किसी रंगीन फूल को सफेद किया जा सकता है और जब गंधक के अर्क मिले पानी में फूल को पुनः डाला जाए तो वह अपने वास्तविक रंग में वापस आ जाएगा। इसी तरह नींबू के रस से गुप्त अक्षर लिखने की विधि बताते हैं। भारतेंदु चलते फिरते नींबू का भी रहस्य उद्घाटन कर देते हैं, जिसे भूत विद्या के नाम पर लोगों को सबसे ज्यादा ठगने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। नींबू के भीतर सुई से छेदकर अगर उसमें पारा भर के मोम से बंद कर दिया जाए और उसे आग के पास रखा जाए तो नींबू गतिशील हो जाएगा। इसी प्रकार छूती बोतल में अंडा डालने या हवा में अंगूठी लटकाने की विधि भी वह विज्ञान के माध्यम से बता हैं। इस प्रकार महिलाओं में अज्ञानता और धर्म के भय के कारण फैले अंधविश्वास को भारतेंदु को दूर करने बेहतरीन प्रयास अपनी पत्रिका में करते हैं। आज भी ऐसे अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति जैसी संस्थाएं लगातार अंधविश्वास को दूर करने में लगी हुई हैं (वसुधा डालमिया, 2014, पृ. 119)

 आवश्यक गणित, अर्थनीति एवं पादप विज्ञान की जानकारी

बालाबोधिनी में महिलाओं को हिसाब-किताब का ज्ञान सिखाने के लिए दोहों के रूप में गुरसारणी नाम से जानकारी दी गयी है। इसमें पहले उदाहरण दिया है फिर उसे सोरठा, बरवाई, चौपाई या दोहे में बताया है और अंत में उसका अर्थ समझाया है। 

उदाहरण

जैसे 40 रुपये का 10 मन तो 1 रुपये का 10 सेर होगा

सोरठा

रुपये का जय सेर
तै मन चालीस की गनी
जितने रुपया सेर
चालीस गुण मन एक को

अर्थ

एक रुपये का जै सेर चालीस रुपये का तै मन और जितने रुपये का एक सेर उसके चालीस गुने रुपये का एक मन (वसुधा डालमिया, 2014, पृ. 219)

 इसे बनारस के पंडित हनुमान किशोर ने सांडर्स के हुक्म से बनाया। इसमें हिसाब-किताब को गेयात्मक पदों के साथ बताने का प्रयास किया गया है, ताकि वह पुत्रों के साथ गृहिणियों को भी ठीक ढंग से समझ में आ जाए और वे इसका प्रयोग अपने दैनंदिन कार्यों में कर सकें। साथ ही अपने बच्चों को भी सिखा सकें। भारतेंदु महिलाओं को अपने बच्चों को खेल-खेल में गिनती, वर्णमाला, सुन्दर श्लोक और छोटे स्रोत याद करवाने के लिए विशेष आग्रह करते हैं। यह ज्ञान भी उसी की अगली कड़ी है।

जिल्द तीन के सितम्बर 1879 में प्रकाशित आलेख अर्थनीति वा अर्थशास्त्र में सम्पत्ति और धन का बचाव, उसे सही कार्य में खर्च करना और यंत्रों और तकनीकी की मदद से धन की वृद्धि के उपायों पर चर्चा की है। उन रईसों की भी बात की है, जो अपना जमा धन तवायफों पर लुटाते जाते हैं और उस धन की वृद्धि का कोई उपाय नहीं करते। इस आलेख में यह बताने की कोशिश है कि जमीन या धन जब तक उसमें परिश्रम और नयी तरीके से प्रयास नहीं किये जायेंगे, उसमें वृद्धि नहीं होगी और जमा धन एक न एक दिन समाप्त हो जाएगा। इस धन को देश के विकास में भी लगाने की आवश्यकता है (वसुधा डालमिया, 2014, पृ. 303)

इसके साथ ही उद्भिज आलेख की भी जिक्र आवश्यक है जो कि जिल्द 4 में दिया गया है और पत्रिका के अंतिम आलेख के रूप में कई अंकों में प्रकाशित हुआ है। इस आलेख में बीज के उद्भव और विकास पर बात की है। वनस्पति शास्त्र का ज्ञान हिंदी भाषा में सहज सुलभ बनाना उस दौर में काफी चुनौतीपूर्ण रहा होगा ऐसा मेरा मानना है, पर बालाबोधिनी में इसे प्रस्तुत किया गया। भले ही यह सीधे तौर पर महिलाओं से जुड़ा मुद्दा न हो पर यह ज्ञान विज्ञान की एक नयी शाखा से महिलाओं का परिचय कराती है। इस आलेख में कहा गया है कि “इस विषय की भी एक विद्या है। उस के पढ़ने से खेतों और जंगल का व्यापार उत्तम प्रकार से चल सकता है। अतएव हमारे देश भाइयों को इस विषय की विद्या का अभ्यास कर लेना अत्यावश्यक है, जिसमें कि हमारे देश में खेती और जंगल का व्यापार उत्तम रूप से चलने लगे (वसुधा डालमिया, 2014, पृ. 344)”।

कई बार लगता है कि ये आलेख पुरुषों को केंद्र में रखकर लिखे गए हैं, पर वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि भारतेंदु धीरे धीरे दुनियावी मसलों पर महिलाओं के बीच जानकारी ले जाने और उसकी समझ विकसित करने का प्रयास करते दिखते हैं। भले ही यह प्रयास मुखर नहीं है, पर वह यह जानते थे कि इन विषयों पर धीरे धीरे जानकारी महिलाओं के बीच ले जाना भविष्य में उनकी सोच का विस्तार ही करेगी। 

शिक्षित पति की चाह, स्त्री स्वास्थ्य

बाला बोधिनी में इसके अतिरिक्त लवली मालती संवाद भी दिया गया है। इस संवाद में हम दो बचपन की सहेलियों के बीच की चर्चा सुन उन्हें और उनके आस पास के और रोजमर्रा जीवन को समझ सकते हैं। साथ ही यह भी जान सकते हैं कि स्त्रियाँ अपने पति से कैसी अपेक्षा रखती हैं। लवली अपने पति के कुपढ़ और खराब लच्छन वाले होने की कारण दुखी है। मालती अपनी अन्य सखी चंपा के लम्बे व्रत उपवासों और उसके कारण प्रभावित गृहस्थी और उसके स्वास्थ्य का प्रश्न भी उठाती है। वह यह भी बताती ही कि विवाहित स्त्री को इतने लम्बे चौड़े व्रत रखकर अपना स्वास्थ्य और परिवार की व्यवस्था को खराब करने के बुरे परिणाम होते हैं। चंपा के माध्यम से लवली बाल विवाह के प्रति भी नाराज़गी दिखाती है और स्त्री के खराब स्वास्थ्य का प्रमुख कारण मानती है। लवली नदी में नहाने को बेपर्दगी से जोड़ती है और धर्म के नाम पर इस बेपर्दगी को शिक्षा के अभाव का कारण बताती है। (वसुधा डालमिया, 2014, पृ. 82)। लवली मालती संवाद में हम लवली को एक ऐसी घरेलू महिला के रूप में पाते हैं, जो अपनी घरेलू भूमिकाओं की जिम्मेदारी, नातेदारी, मित्रजनों के मेलमिलाप के साथ स्त्री पुरुष की शिक्षा के महत्त्व और धर्म के मर्म को समझती है। उस पर अपनी स्वतन्त्र सोच रखती है। साथ ही सार्वजनिक जीवन में महिलाओं का आचरण कैसा हो, उसकी भी एक झलक लवली में दिखती है। इस संवाद में प्रतीत होता है जैसे कि भारतेंदु ही लवली के रूप में महिलाओं के लिए अपनी बात कह रहे हैं। जहां महिलाओं के सन्दर्भ में घरेलूपन और आधुनिक सोच के सामंजस्य की तत्कालीन सोच दिखती है, जो आज भी काफी हद तक अपेक्षित है।

स्त्री की हद का निर्माण

बालाबोधिनी में महिलाओं के हित में तमाम मुद्दों पर चर्चा करने के अतिरिक्त सती और जोन ऑफ़ आर्क की कथाओं का भी समावेश है जिसके माध्यम से यह बताने का प्रयास किया गया है कि तमाम आज़ादी तभी तक ही फलीभूत हैं जबकि वह परिवार वालों की सहमति से उपायों में ली जाएँ। अगर स्त्रियाँ स्वयं अपनी मर्जी ही चलाएंगी और अपने पति या परिवार के बड़ों की नहीं सुनेंगी तो उन्हें मुंह की खानी पड़ेगी। सती ने पति की बात न मानकर अपने पिता राजा दक्ष के घर आयोजित यज्ञ में गयीं और वहां मिले अपमान के कारण अपनी जान देनी पडी। वहीं बिहारी चौबे आरलेनस की राजकुमारी की कहानी के अंत में अपना वक्तव्य देते हैं कि “अति साहस और माया भी बुरा ही फल देती है। स्त्रियाँ जो बहुत सा झूठमूठ अभुजाती और माता भवानी की नक़ल करती हैं, सो सबका सत्य होना असम्भावन है और लड़कियों को जो उनमें विशवास हो जाता है सो न होना चाहिए। स्त्रियों के घर जो पतिदेव रहते हैं उन्हीं की भक्तिपूर्वक सेवा करना परमोत्तम है (वसुधा डालमिया, 2014, पृ. 280)

संतान के रूप में सिर्फ पुत्र की ही उपस्थिति

बालाबोधिनी में भारतेंदु बच्चे के पालन पोषण पर जब भी बात कर रहे हैं, वह बालक शब्द का ही लगातार इस्तेमाल करते रहे हैं, बालिका शब्द उन्होंने लड़कियों के शिक्षा के समय ही लिखा है। उनकी सारी हिदायतें बालक पर ही आकर ठहर जाती हैं, हम इस बात को समझ सकते हैं कि उत्तर भारत में पुत्रों को ही संतान माना जाता है। लड़कियों को संतान के रूप में नहीं गिना जाता। बालकों की देखभाल शब्द से हम समझ सकता हैं कि देखभाल के लिए भी प्रमुखता में पुत्र ही रखे गए हैं, पुत्रियाँ नहीं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि शिशुपालन, पतिव्रत, सावित्री चरित्र, लवली मालती संवाद, सती चरित्र, सुलोचना, बाला प्रबोध, स्त्री शिक्षा, सावित्री उपाख्यान, सीता अनुसूया मिलन, गर्भिनीचर्या, आरलेनस की राजकुमारी की कहानी आदि कई आलेखों के माध्यम से हमें हिंदी पट्टी की महिलाओं के लिए ख़ास नैतिक सन्देश मिलते हैं, जिसमें उनसे पतिव्रता गृहणी के उच्चतम आदर्शों तक पहुँचने की अपेक्षा की गयी है और राष्ट्र को किस प्रकार की स्त्री की आवश्यकता है उस पर प्रकाश डाला गया है। लेकिन राष्ट्र को पतिव्रता, घरेलू स्त्री के साथ साथ एक शिक्षित, आधुनिक, विचारवान, स्त्री की भी आवश्यकता है, जिसके लिए स्त्रियों के बीच, शिक्षा, वैज्ञानिकता, तार्किकता, नयी जानकारियों के महत्त्व को भी समझकर उन्हें शामिल किया गया। यहाँ हम भारतेंदु के भीतर एक अंतर्दन्द्व को स्पष्ट देख सकते हैं, जो कि उस ख़ास समय की उपज थी। यह द्वंद्व भारत की सभी महिलाओं के प्रति नहीं था, बल्कि उच्च जातीय, उच्च/ मध्यवर्गीय महिलाओं के प्रति था। इन महिलाओं पर ही सबसे ज्यादा कड़े प्रतिबन्धों का पालन होता आया है। उस समय भी जातिवादी जकड़न के साथ औपनिवेशिक समाज के दबावों के बीच महिलाओं की यौनिकता पर नियंत्रण (जो कि जाति समाज के बने रहने के लिए अनिवार्य तत्व है) और आधुनिक आचार विचार का ज्ञान उन्हें देना एक बड़े ऊहापोह का कारण था। उन्हें निजी जीवन से सार्वजनिक जीवन में लाना था किंतु उनकी यौनिक पवित्रता को भी नियंत्रित करना था। क्योंकि जाति समाज इसके बगैर चल ही नहीं सकता। अतः उन्हें सार्वजनिक जीवन के कुछ हिस्सों से बचाना था। यह हिस्सा निम्न जातियों और उनकी महिलाओं का था। इन शिक्षित उच्च जातीय महिलाओं से एक निम्न जातीय महिलाओं और उनके व्यवहार से एक ख़ास किस्म की दूरी बरतने के लिए उनके व्यवहार को लगातार नियंत्रित किया जाता रहा। पार्थ चटर्जी अपने आलेख राष्ट्र और उसकी महिलायें में 19 वीं सदी की महिलाओं के ख़ास संरचना में निर्मित होने को स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि इस प्रकार से परिभाषित नई स्त्री एक नई पितृसत्ता के अधीन बना दी गयी। वास्तव में घर और परिवार को जोडने वाली जिस सामाजिक व्यवस्था में राष्ट्रवादियों ने नई स्त्री को स्थापित किया, उसे केवल पश्चिमी समाज के मुकाबले ही पेश नहीं किया गया; उसे देसी परंपरा की पितृसता से भी स्पष्ट रूप से भिन्न बतलाया गया। यह वही परम्परा थी, जिसे औपनिवेशिक निंदकों ने मुजरिम के कटघरे में खडा किया था। इतना तो निश्चित है कि अपनी देसी सांस्कृतिक पहचान की निशानियों के रूप में राष्ट्रवाद ने परम्परा से अनेक तत्वों को अपनाया, लेकिन अब यही एक शास्त्रीकृत परंपरा थी- सुधरी हुई, नवरचित, बर्बरता और अबुद्धि के आरोपों से सुरक्षित। यह नई पित्रसत्ता उस फौरी सामाजिक-सांस्कृतिक दशा से भी स्पष्ट रूप से भिन्न थी, जिसमें अधिकांश जनता जी रही थी। कारण कि यह ‘नई स्त्री उसआम स्त्री से ठीक उलट थी जो भोंडी, गंदी, मुँहफट, झगडालू, श्रेष्ठ नैतिक भावनाओं से वंचित, संभोग-प्रेमी, पुरुषों के वहशियाना शारीरिक दमन का शिकार थी (चटर्जी, 2002)

जब हम बाला बोधिनी को देखते हैं तो हमें कुलीन और घरेलू महिलाओं को लेकर बहुत ज्यादा आग्रह मिलता है। लेकिन महिलाओं का एक तबका हमेशा से रहा है जिसकी भागीदारी श्रम में रही है, इन महिलाओं के बारे में बालाबोधनी मौन है। अरुण प्रियम अपने आलेख ‘भारतेंदु की स्त्री चेतना का स्वरूप सन्दर्भ : बालाबोधिनी पत्रिका’ में एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हुए कहते हैं कि भारतेंदु की बालाबोधिनी में समाज के निचले तबके की स्त्रियों की समस्याओं पर किसी पुरुष या स्त्री सुधारक की कोई रिपोर्ट नहीं मिलती। समाज के निचले तबके की स्त्रियों की समस्याओं को इससे पूरी तरह बाहर रखा गया है (प्रियम, 2017)। गरिमा श्रीवास्तव इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं कि “ध्यान देने की बात यह है कि उन्हें पता था कि राष्ट्र को कैसे अधिक उपयोगी बनाने की शर्त पर कौन सी स्त्री चाहिए पर यह नहीं पता था कि स्त्री को क्या चाहिए (श्रीवास्तव)

निष्कर्ष : हम देखते हैं कि महिलाओं की इस पत्रिका में महिलाओं की अपनी आवाज़ नदारद है। भारतेंदु हरिश्चंद्र भी 19 वीं पितृसत्तात्मक दबाव से बाहर नहीं निकल पाए। उन्होंने भी एक ख़ास सीमा के भीतर स्त्रियों के मुद्दों को रखने का प्रयास किया। यह सीमा जाति, धर्म, जेंडर के साथ साथ औपनिवेशिक मानसिकता के प्रतिरोध के अंतर्द्वंदों से उपजी थी। लेकिन महिलाओं के मुद्दों की एक ख़ास बात रही है कि भले ही उसे किसी भी दबाव या सीमाओं के भीतर उठाया गया ही, उसका प्रभाव महिलाओं पर किसी दायरे में सीमित नहीं रहा है। अलग अलग स्थितियों में ने उसे अपने स्पेस के हिसाब से उसका विस्तार लोगों ने अपने जीवन में किया है। इस पत्रिका में प्रकाशित आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और अंध विश्वासों से बचने की जागरूकता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आदि ने स्त्री के जीवन में एक नए विचार का भी बीज रखा। यही इन प्रयासों की उपलब्धि रही है। सीमाओं के भीतर होते हुए भी ये प्रयास सीमाओं के अतिक्रमण का रास्ता भी दिखा देते हैं।

सन्दर्भ :

1.  अरुण प्रियम. (07 03 2017). भारतेंदु की स्त्री चेतना का स्वरूप, सन्दर्भ: ‘बालाबोधिनी’ पत्रिका. स्त्रीकाल : http://streekaal.com/2017/03/researchpaper-arunkumarpriya/ से पुनर्प्राप्त
2.  उमा चक्रवर्ती. (2001). अल्तेकेरियन अवधारणा के परे : प्रारम्भिक भारतीय इतिहास में जेंडर संबंधों की नई चाल. साधना आर्या, जिनी लोकनीता, & निवेदिता मेनन में, नारीवादी राजनीति (पृ. 127-136). नई दिल्ली : हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय.
3.  कृपा शंकर चौबे. (दि.न.). हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के 150 वर्ष. हिंदी समय https://bit.ly/3ecHuED से पुनर्प्राप्त
4.  गरिमा श्रीवास्तव. (दि.न.). नवजागरण ,स्त्री प्रश्न और आचरण पुस्तकें. हिंदीसमय: https://bit.ly/3SFS2uW से पुनर्प्राप्त
5.  ताराबाई शिंदे. (2015). स्त्री पुरुष तुलना. मुंबई : संवाद.
6.  पार्थ चटर्जी. (2002). राष्ट्र और उसकी महिलायें. शाहिद अमीन ज्ञानेंद्र पांडे में, निम्नवर्गीय प्रसंग-भाग 1 (पृ. 65). नयी दिल्ली : राजकमल.
7.  भारतेंदु हरिश्चंद्र. (2008). स्त्री-1. ओमप्रकाश सिंह (सम्पादक) में, भारतेंदु हरिश्चंद्र ग्रंथावली खंड 6 (पृ. 87 -88). नई दिल्ली: प्रकाशन संस्थान.
8.  वीरभारत तलवार. (2017). शिक्षा पर औपनिवेशिक राष्ट्र का नियंत्रण और स्त्री शिक्षा. रस्साकशी (पृ. 11-51). में नई दिल्ली : वाणी.
9.  संजीव कुमार वसुधा डालमिया. (2014 ). बालाबोधिनी. नई दिल्ली : राजकमल
 
डॉ. अवन्तिका शुक्ला
स्त्री अध्ययन विभाग, क्षेत्रीय केंद्र प्रयागराज, म.गां.अं.हिं.वि.,वर्धा
avifem@gmailcom, 8600553082
   

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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