शोध आलेख : कविता में कथा कहने वाला कवि-केदारनाथ सिंह / सुमित कुमार चौधरी

 कविता में कथा कहने वाला कवि-केदारनाथ सिंह
- सुमित कुमार चौधरी

शोध-सार : केदारनाथ सिंह की कविताएँ प्रश्नवाचाकता और लोक के साथ-साथ कथा को भी अपने केंद्र में समाहित की हुई हैं। उनकी कविता की धरती समवेशी रूप-रंग में रंगी हुई नयी कविता का नया आयाम प्रस्तुत करती है। कथा की बुनावट में केदारनाथ सिंह ने आधुनिक परिवेश को आत्मसात करते हुए काव्य कथा कहा है। बाघ कविता से लेकर नमक कविता तक की उनकी यह यात्रा कथात्मक संरचना को बख़ूबी दर्शाता है। पारिवारिक विडम्बना बोध, आधुनिक समय में पूंजीवाद का विकृत रूप और ख़त्म होती हुई मानवीय संवेदना उनकी कथात्मक कविताओं का केन्द्रीय विषय है। इसलिए कथा के इन तत्वों का पड़ताल इस लेख में किया गया है।

बीज शब्द : केदारनाथ सिंह, नयी कविता, कथा तत्व, नाटकीयता, आधुनिकता, पूंजीवाद, पंचतंत्र, संवेदना, पारिवारिक विडम्बना, बाघ, नमक इत्यादि। 

मूल आलेख : नयी कविता की परम्परा में केदारनाथ सिंह ‘तीसरा सप्तक’ के कवि हैं। उनकी कवि प्रतिभा समावेशी तेवर का जज़्ब लिए उम्मीद जगाती है। वे नए अंदाज में होकर नये-नये कथ्य को कविता का विषय बनाते हैं। उनकी कविताओं में गाँव से लेकर शहर तक की यात्रा दिखाई देती है। इस यात्रा में उन्हें जो भी दीख पड़ता है उसे वे कविता में बहुत गम्भीरता से रखते हैं। रखने के इस क्रम में वे ऐसे चित्र और घटना को संवेदनात्मक केन्द्रीयता देते हैं। छोटे-छोटे दृश्यों के संकुल से वे अपनी कविता में कथा कहते हैं। दृश्यों की आवाजाही से उनकी कथात्मक कविताएँ नाटकीयता का विधान रचती हैं। साधारण भाषा और मद्धिम लय-गति में तब्दील उनकी कविता किसी सूत्रधार के सहारे खुली सी जान पड़‌ती है। 
 
केदारनाथ सिंह की कथात्मक कविताओं की दयार बहुत लम्बी है। उनके यहाँ विषय की विविधता का रूप इस कदर आया हुआ है कि यह नयी कविता का मानीखेज साबित होता हैलेकिन गौर करने वाली बात यह है कि उनकी तमाम छोटी कविताएँ जो चित्र-बिम्ब में ढली हुई हैं वहीं उनकी लम्बी कविता ‘बाघ’ में जा मिलती हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि केदारनाथ सिंह की अन्य कविताएँ जिसमें कथा का रूप निहित है वह ‘बाघ’ कविता में अपना कैसे जा मिलती हैअसल में नये कवियों की यह ख़ासियत रही है कि उनकी लम्बी कविताएँ अधिकतर उनके पूरे काव्य चिंतन को नत्थी कर एक में समाहित कर लेती हैं। यही सम्मिलन रूप केदारनाथ सिंह के ‘बाघ’ कविता में देखी जा सकती है।
 
 ‘बाघ’ कविता केदारनाथ सिंह की लम्बी कविता है। यह कविता इक्कीस खण्डों की शृंखला में गुथी हुई है। ‘बाघ’ के बारे में केदारनाथ सिंह लिखते है कि, “मुझे लगा पंचतंत्र एक ऐसी कृति है जो एक समकालीन रचनाकार के लिए जितनी चाहे बड़ी चुनौती होपर जरा-सा रुककर सोचने पर वह सृजनात्मक सम्भावना की बहुत-सी नयी और लगभग अनुद्घाटित परतें खोलती-सी जान पड़ेगी। मुझे यह भी लगा कि एक बार यदि उस ढाँचे की कार्य-कारण-बद्ध-शृंखला को थोड़ा ढीला कर दिया जाय तो इस सम्भावना को कई गुना बढ़ाया जा सकता है। वस्तुत: सृजनात्मक सत्य के इसी नये साक्षात्कार से ‘बाघ’ का जन्म हुआ था-लगभग आड़ी-तिरछी रेखाओं के बीच घिरे एक शिशु की क्रीड़ा की तरह।”1 उक्त कथन से यह स्पष्ट होता है कि केदारनाथ सिंह ने ‘बाघ’ का स्थापत्य पंचतंत्र के ढांचे से तैयार की है। यद्यपि उनकी यह कविता हंगरी भाषा के कवि यानोश पिलिंस्की की कविता से प्रभावित हैपरन्तु ‘बाघ’ कविता का महल तैयार करने के लिए उन्हें पंचतंत्र ही उपर्युक्त लगाक्योंकि पंचतंत्र की संरचना में कथा को ढीला-ढाला कर बढ़ाया जा सकता है। इस अर्थ में यह मानवीय संस्कृति के ज्यादा निकट प्रतीत होता है। कवि ने इसी प्रतीती को मुख्य ध्येय मानकर पंचतंत्र की कथा का चुनाव ‘बाघ’ कविता के लिए किया है। दरअसलआधुनिक समय में कवि बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से कथा में चरित्रों के मिथकीकारण के जरिए मनुष्यों के भीतर मर रही संवेदना को उजागर करने की कोशिश करता है। “आज का मनुष्य बाघ की प्रत्यक्ष वास्तविकता से इतनी दूर आ गया है कि जाने-अनजाने बाघ उसके लिए एक मिथकीय सत्ता में बदल गया है। पर इस मिथकीय सत्ता से बाहर बाघ हमारे लिए आज भी हवा-पानी की तरह एक प्राकृतिक सत्ता हैजिसके होने के साथ हमारे अपने होने का भवितव्य जुड़ा हुआ है। इस प्राकृतिक बाघ के साथ-उसकी सारी दुर्लभता के बावजूद-मनुष्य का एक ज़्यादा गहरा रिश्ता हैजो अपने भौतिक रूप में जितना आदिम हैमिथकीय रूप में उतना ही समकालीन है।”मिथकीय रूप में समकालीनता से यह आशय निकलता है कि ‘बाघ’ कविता में जो ‘बाघ’ है उसके कई रूप हैं। कई चरित्र हैं। उसका चरित्र-गतिमान है। बाघ स्थिरता को त्याग कर प्रतीक रूप में बदलता रहता है। कहीं वह प्रकृति का रूप धारण करता हैतो कहीं समूची प्रकृति को निगलता हुआ मनुष्य कातो कहीं सहृदय-रूप में दिखता हैतो कहीं संवेदना का प्रतीक रूप लिए हुए त्रिलोचन के रूप में आता हैतो कहीं उस विराट सत्ता के रूप में जो मानवीय संस्कृति को विखंडित कर हाशिये के समाज को निगलने वाले रूप मेंतो कहीं मनुष्यता को बचाने वाले ‘परम व्यक्ति’ के रूप में। इस तरह कवि ने ‘बाघ’ की अनेक छवियाँ प्रस्तुत की है। उक्त कथन के सन्दर्भ में केदारनाथ सिंह का यह कथन पूर्णता प्रदान करता है। वे लिखते हैं कि, “इस पूरी काव्य- श्रृंखला में मेरी एक कोशिश लगातार यही रही है कि बाघ को किसी एक बिन्दु पर इस तरह कीलित न किया जाए कि वह अपनी ऐन्द्रिक मूर्तिमत्ता को छोड़ कर किसी एक विशेष प्रतीक में बदल जाय। इसलिए श्रृंखला की हर कड़ी में हर बार बाघ एक नये बाघ की तरह आता है- और लगभग हर बार अपने बाघपन के एक नये अनुषंग के साथ।”3

    इस लम्बी कविता के वितान में ‘बाघ’ केन्द्रीय भूमिका में उपस्थित है। वह भिन्न-भिन्न रूपों में होकर कथा की महत्ता को बनाए हुए है। पूरी कथा उसके आस-पास से होकर गुजरती है। कविता में कथा की शुरुआत ‘समय के मार’ से शुरू होती है-

“क्योंकि मैं ही
सिर्फ़ मैं ही जानता हूँ
मेरी पीठ पर
मेरे समय के पंजों के
कितने निशान हैं”4
 
यह ‘समय के पंजों के’ कितने निशान क्या हैजो मेरी पीठ पर है। असल मेंये पंक्तियाँ आधुनिक समय में प्रकृति और मनुष्य के बीच की बढ़ती हुई दूरी को व्यक्त करती है। यानी कि बाघ कविता में ‘बाघ’ और ‘प्रकृति’ में गहरी समानता है। दोनों समान शक्तिशाली हैं। सुन्दर हैं। आकर्षक हैं। दोनों हिंसक भी हैं। बावजूद इसके ‘समय के मार’ से यानी पूँजीवादी व्यवस्था और आधुनिक मनुष्य की खोती हुई आदिमता ने उनके पीठ पर अपने निशान छोड़ दिये हैं। यह निशान प्रकृति को अविच्छिन्नता की ओर ले जा रहा है। यह आधुनिक सदी का सबसे बड़ा सच है। चूँकि मनुष्य का जो लगाव प्रकृति और बाघ के प्रति रहा हैवह लगाव आधुनिक समय या पूँजीवादी संस्कृति और  बाजारीकरण के दौर में विलुप्त प्राय: है। इसी व्यवस्था की मार ‘बाघ’ और ‘प्रकृति’ दोनों पर बराबर पड़ी  है।
 
केदारनाथ सिंह कविता की शुरुआत किसी अदृश्य नाटकीय विधान के माध्यम से शुरू करते हैं। खनकती-दमकती हुई अंदाज में। यह नाटकीय विधान किसी अदृश्य को धीरे-धीरे खोलती हुई हमारे सामने आ खड़ी होती है। कविता के आमुख में कवि इसी नाटकीय विधान का पालन करता हुआ दिखाई देता है। कविता के दूसरे खण्ड में यह विधान अकस्मात् खुलता है-
 
“आज सुबह के अख़बार में
एक छोटी-सी ख़बर थी
कि पिछली रात शहर में
आया था बाघ !”5
 
बाघ आया और उसे किसी ने नहीं देखा। न कोई निशानन ही खून के छीटें-बूँदेपर सबको विश्वास है कि अख़बार में छपी ख़बर सही है। जरूर वह पिछली रात आया था पर-
 
“यह कितना अजीब है।
कि वह आया
उसने पूरे शहर को
एक गहरे तिरस्कार
और घृणा से देखा
और जो चीज़ जहाँ थी
उसे वहीं छोड़ कर
चुप और विरक्त
चला गया बाहर !”6
 
बाघ का इस तरह आना और तिरस्कारघृणा भरे नज़रों से देखकर बिना कुछ नुकसान  किये चले जाना यह क्या दर्शाता हैक्या वह करुणा का परिचायक हैअसल में तमाम पूर्वाग्रहों और धारणाओं का खण्डन करते हुए केदारनाथ सिंह का ‘बाघ’ करुणा का सागर है। बुद्धिमत्ता का प्रतीक है। कविता के चौथे खण्ड में बुद्ध का आना मानवीयता और करूणा का ही परिचायक है। प्रकृति के प्रति उनका सम्मोहन और लगाव है। बुद्ध और बाघ का सामना होने पर बाघ का खूँखार स्वभाव करुणा में तब्दील होता हुआ नज़र आता है-
 
“कभी-कभी दोनों का
हो जाता था सामना
फिर बाघ आँख उठा
देखता था बुद्ध को
और बुद्ध सिर झुका
बढ़ जाते थे आगे”7
 
 ‘बाघ’ के प्रति यह करुणा आज के समय में विलुप्त हो गयी है। मसलनउपभोक्तावादी संस्कृतिबेलगाम शहरीकरण और वैयक्तिकता के समय में प्रकृति की चिंता करते हुए कवि उन मुनाफाखोर समाज-व्यवस्था का पर्दाफाश करता है। केदारनाथ सिंह की इस चिंता में ‘बाघ’ बैठा हुआ नज़र आता है। इसलिए इसके संरक्षण के लिए बुद्ध जैसी करुणा की आवश्यकता हैलेकिन यह करुणा मृत हो चुकी है। तभी बाघ शहर से चला जाता है और लोग इस इन्तजार में रहते हैं कि ‘फिर कब आएगा बाघ’ को अगर अर्थ विस्तारित करते हुए बदल दिया जाए कि ‘प्राकृतिक जीवन शैली या मनुष्यता फिर कब लौटेगी’ तो कोई अतिशय नहीं होगी। यद्यपि ‘फिर कब आयेगा बाघ’ जैसी पंक्ति हमें बाघ को कहानियों में जा बसने की सुगबुगाहट को दर्शाता है। ‘बाघ’ से लेकर ‘प्रकृति’ तक को कथाओं का अंग आधुनिक समय मेंउत्तरवर्ती आधुनिकता के कथा में दफ़न कर दिया गया है। पूँजीवादी व्यवस्था और सत्ताधीश अपने विकास के मॉडल के लिए प्रकृति का लगातार दोहन कर रहे हैं। आज के समय में बाघ की भूख सीमित हो गई हैपरन्तु मनुष्य की भूख निरन्तर बढ़ती जा रही है। वह बाघ से भी अधिक भूखा प्रतीत हो रहा है। आदमी की भूख मिटती नहीं। खेत में खड़ा ट्रैक्टर भी उसे लाल दमकते दाने के समान दिखने लगता है। यह सब देखकर बाघ-
 
“एक दबी हुई ईर्ष्या से
नीचे से ऊपर तक
गौर से देखा समूचे ट्रैक्टर को
और ख़ुद-ब-ख़ुद
एक बुढ़िया की बटुली में
पकने की इच्छा से
हो गया लाल !”8
 
    बाघ की कथा यहीं खत्म नहीं होतीजैसा कि कवि ने भूमिका में कहा है कि ‘बाघ’ का प्रतीक ‘कीलित’ नहीं है। यानी वह बदलता रहता है। अपितु बाघ की यह कथा विभिन्न अर्थ छवियों के साथ निरन्तर चलायमान है। प्रश्न यह उठता है कि क्या बाघ किसी संस्थामिथकमनोभावमनोदशा और प्रवृति का अनावरण करता है या नहींक्या बाघ का ‘कीलित’ प्रतीक विभिन्न अर्थ छवियों के साथ समय संदर्भित तो नहीं हैजाहिर सी बात है कि बाघ की छवि भिन्न-भिन्न अर्थों-प्रसंगो में बदलती रहती है। वह हमारे समय कोव्यक्ति की मनोदशामनोभावोंप्रवृतियों और संस्थाओं को उजागर करता चलता है। यह इस सदी की सबसे बड़ी सच्चाई है। इन कही गई बातों के सिलसिले में बाघ कविता का यह बंद देखिए-
 
“सुंदर बाघ एक चलता-फिरता जादू था
जिसने सब को बाँध रखा था
 
वह लगातार चल रहा था
और चूँकि वह चल रहा था
इसलिए सुन्दर था और
चूँकि कि वह सुन्दर था इसलिए कहीं कोई डर था न भय
 
प्रार्थना में बाघ था
बच्चे स्कूल में पढ़ रहे थे बाघ
लोग आराम से बाघ खा रहे थे
बाघ पी रहे थे
माचिस के अन्दर
चाय की प्याली में
टी.वी. के स्क्रीन पर चल रहा था बाघ
 
किसी ने देखी
सिर्फ़ उसकी आँखें
किसी ने धारियाँ
किसी को दिख गये पूरे जबड़े
किसी को हिलते हुए मांसल पुट्ठे
 
पूरा बाघ किसी ने नहीं देखा
Xxx       xxx      xxx
जब सब लोग थे अपने-अपने काम में
तो सब को थोड़ा-थोड़ा
दिख गया बाघ !”9
 
    उक्त पंक्तियों में ‘बाघ’ की विभिन्न अर्थ छवियाँप्रसंगों और सन्दर्भों में आया हुआ है। ‘बाघ’ का स्वरूप इतना विराट है कि वह जीवन के विभिन्न प्रसंगों को धारण किया हुआ है। यहाँ तक कि ‘लोग बाघ खा रहे हैं’ खाद्य पदार्थ के रूप में। ‘लोग बाघ पी रहे हैं’ पेय पदार्थ के रूप में। टी. वी. के स्क्रीन पर जो चल रहा हैवह भी बाघ ही है। यानी जीवन की बुनियादी जरूरतों से लेकर पूँजीवादी व्यवस्था के विस्तार तक फैला पूरा जीवन प्रसंग बाघ के रूप में है। कवि की यह कल्पना मिथक और यथार्थ के मिश्रण से उपजे हुए सत्य की तरह हैजो बहुत मुश्किल से भौतिक जीवन के वस्तुगत यथार्थ को उद्घाटित करता है। यह यथार्थ और सत्य किसी को दिखाई नहीं देता। तभी सब अपने-अपने काम में इतने मशगूल हो जाते हैं कि उन्हें बाघ पूरा का पूरा दिखाई नहीं देता। यह कहना अतिश्योक्ति होगा कि बाघ किसी को दिखाई नहीं देता बल्कि यह कह सकते हैं कि कोई उसे देखना नहीं चाहता। मसलन वैयक्तिकता और विचारधारा का यह संकुचन ही बाघ को मनुष्यों के बारे में जानने को उत्सुक करता है। वह लोमड़ी से पूछ बैठता है-
 
“‘ये आदमी लोग
इतने चुप क्यों रहते हैं आजकल?’-
एक दिन बाघ ने लोमड़ी से पूछा
लोमड़ी की समझ में कुछ नहीं आया
पर उसने समर्थन में सिर हिलाया
और एकटक देखती रही बाघ के जबड़ों को
जिनसे अब भी ताज़ा ख़ून की गन्ध आ रही थी
फिर कुछ देर बाद कुछ सोचते हुए बोली-
“कोई दुख होगा उन्हें’
 
‘कैसा दुख?’
बाघ ने तड़प कर पूछा
Xxx   xxx   xxx
फिर धीरे से पूछा-
‘क्या आदमी लोग
पानी पीते हैं?’
 
‘पीते हैं’-लोमड़ी ने कहा-
‘पर वे हमारी तरह
सिर्फ़ सुबह-शाम नहीं पीते,
दिन-भर में जितनी बार चाहा
उतनी बार पीते हैं’
 
‘पर इतना पानी क्यों पीते हैं
आदमी लोग?’
बाघ ने आश्चर्य से पूछा
 
‘वही दुख-
मैंने कहा न !’
लोमड़ी ने उत्तर दिया”10
 
 ‘बाघ’ की यह जिज्ञासा कि मनुष्य इतना चुप और दुखी क्यों हैंउसकी संवेदना को दर्शाता है। इस तरह की प्रवृत्ति उत्तर-आधुनिक और पूँजीवादी समाज में नगण्य है। कवि ने मनुष्य की प्यास को ‘जितनी बार चाहा उतनी बार पीते हैं’ जैसी पंक्ति में व्यक्त कर कथा में जान डाल दी है। अपने नाटकीय अंदाज में छठा खण्ड पूरी संवेदना के धरातल को स्पर्श करती है। ‘बाघ के जबड़े में लगा हुआ ताजा खून’ और ‘मनुष्य के दुखों’ को जानने की जिज्ञासा इस तरह विलोमार्थ है कि इसका साम्य बैठाना नामुमकिन सा लगता है। कवि का यह कौशल और ‘दुख’ की महागाथा ‘बाघ’ को द्रवित कर देता है। ‘बाघ’ कविता का यह बंद देखिए-
 
“यह ‘दुख’ एक ऐसा शब्द था
जिसके सामने बाघ
बिलकुल निरुपाय था।” 11
 
    जबकि मनुष्य इसके बिल्कुल अलग। उपभोक्तावादी संस्कृति में तल्लीन है। वह किसी की ख़बर नहीं लेता। बहरहाल, ‘बाघ’ कथा की यति-गति मनुष्यों के भीतर टूटती-बिखरती संबंधों को नत्थी करते हुए उसे जुड़े रहने की नसीहत देती है। मानवीय राग से जुड़े रहना ही बाघ के टूटने और बिखरने को ध्वन्यार्थ करता है। अतएव जिन सम्बन्धों में खाई आ चुकी हैउसे ‘जस का तस’ बनाए  नहीं रखा जा सकता है। यानी जो बाघ टूट गया है वह उसी सूरत और शक्ल में समान रुप से नहीं मिल सकता। कवि का यह प्रतीकात्मक रूप बहुत सार्थक है। यह ‘बाघ’ जो टूट गया है उसे कवि त्रिलोचन उसी रूप में ढूँढने के लिए कुम्हार के पास निकल जाते हैं। बच्चे की ज़िद परलेकिन वह बाघ जो टूट गया हैवह मिल नहीं सकता। चाहे जितना कोशिश किया जाए। ढूंढ़ने की इस प्रक्रिया में ‘तब से कितना समय बीत गया और हम अब भी चल रहे हैं।’ बाल मनोविज्ञान के आधार पर जिस तरह से कवि ने ध्वस्त होती हुई मानवीय राग को पुनः स्थापित करने की कोशिश की है वह बहुत जटिल हैक्योंकि समाज में बढ़ती हुई उग्र पूंजीवादी सोच और भूमंडलीकरण की स्थितियों में समाज अपने मानवीय रागात्मक परिधि से बाहर निकल चुका है। वह निरा अकेला होता जा रहा है। लोग एक दूसरे की ख़बर लेने से कतरा रहे हैं। कवि त्रिलोचन का सहारा लेकर परम्परा का बोध कराते हुए मानवीय संवेदन में अपनत्व की राह ढूंढ़ लेता है। यही मानवीय राग और संवेदन की निर्मिति करने की जद्‌दोजहद में वह ग्यारहवें खण्ड में बाघ और खरगोश को आमने-सामने खड़ा करते हैंक्योंकि मनुष्य की मरती हुई संवदेना शक्ति में विलीन हो गयी है। उसके वर्चस्व में शामिल हो गई है। कवि मनुष्य के इसी वर्चस्व और मरती हुई संवेदना को बाघ के संवेदन रूप में प्रत्यक्षीकृत कर दिया है। चूँकि मनुष्य का निरंतर वर्तमान में रहना उसे कुन्द कर देता है। पशु बना देता है। इसलिए उसे अतीत को भी सहेज कर रखना चाहिए। इसी अतीत के अवलोकन से भविष्य की निर्मिति तय की जा सकती है। न कि पशुओं की तरह वर्तमान में रह कर। कवि कहता है-
 
“वर्तमान
वर्तमान
और एक निरन्तर वर्तमान में रहते-रहते
जब एक दिन ऊब गया बाघ
तो उसने धीरे से ख़रगोश को पास बुलाया
और पाया वह थर-थर काँप रहा है”12
 
    ये पंक्तियाँ शक्ति-संरचना के एकाकी पहलू को कितना स्पष्ट करती हैं। ‘बाघ’ जो शक्ति का प्रतीक हैवह ‘खरगोश’ की थरथराहट को देखकर मृदु हो जाता हैजबकि उग्र पूंजीवादी संस्कृति अपने विषैलेपन को ओढ़े हुए। यहीं से सत्ता की निरंकुशता की शुरुआत होती है। यही सत्ता भविष्य धर्मिता को नष्ट करती है। बाघ वर्तमानता में रहते हुए ऊब गया है। इसलिए वह खरगोश को पास बुलाता हैजिससे यह आभास होता है कि अब सम्बन्धों की नयी दुनिया निर्मित होगी। परन्तु सत्ता की वर्तमान संस्कृति में डूबा हुआ बाघ खरगोश की मुलायम रोएँछोटी सी देह छूते हुए बहुत ज्यादा खुश होता है कि ‘यह एक नयी बात   है।’ यह नयी बात इसलिए भी है कि बाघ अपने प्राकृतिक गुणों को त्याग  करता दिखाई देता है। वह खरगोश के डरने के बाद भी उसे सहलाता हैजबकि बाघ का वास्तविक निहितार्थ क्या है यह सब जानते हैंलेकिन बाघ अपनी शक्ति-सत्ता से बाहर आना चाहता है। बाघ जो निरंकुश सत्ता का प्रतीक हैउस सत्ता का पुराना संवदेनहीन रूप प्रस्तुत करता है। इसलिए सत्ता के अनुररूप यह जो ‘नई बात है’ वह क्या हैउसे कवि की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-

“कि इस तरह जो है
कि जो फैला है उसके आस-पास
और उसके चारों ओर
कि जहाँ दिन-रात रहने और गुर्राने के सिवा
कोई उपाय नहीं है उसके पास
उसके बाहर जाया जा सकता है”13
 
    यानी कि इन पंक्तियों में वर्तमान का अत्यंत सघन चित्र प्रस्तुत हुआ है। इसमें ‘जो है’ और ‘जो हो सकता है’ उससे बाहर भी जाया जा सकता है। मसलनबाघ के प्राकृतिक आचरण (खरगोश को मारकर खा जाना) से बाहर निकला जा सकता है। यानी निरंकुश सत्ता और पूंजीवाद के गठजोड़ से असहाय जनता खरगोश के मानिन्द डरी है। सत्ता और पूँजीपति हमेशा जनता को बरगलाते हैं  कि व्यवस्था बदल दी जाएगी पर ऐसा नहीं होता है। कवि बाघ के प्रतीक के द्वारा इस दुरुह व्यवस्था को भलीभाँति पहचानता है। वह बाघ को प्रतीक रूप में दर्ज़ कर मानवीय समाज में व्याप्त भौतिक पशुता को त्याग करने की कल्पना प्रस्तुत करता है। वह बाघ से कहलवाता है कि ‘उसके बाहर भी जाया जा सकता है’। अर्थात् सत्ता और पूंजी का गठजोड़ तोड़कर बेहतर समाज का निर्माण किया जा सकता है। जहाँ सभी संपन्नता के मुहाने पर एक साथ रह सकें। बिना शक्ति संचय किए।
 
    केदारनाथ सिंह ने बाघ का चरित्र इस तरह गढ़ा है कि वह हर खण्ड में अलग-अलग रूप में उपस्थित होता है। कहीं सत्ता शाही के रूप में तो कहीं धर्म के ठेकेदार के रूप में। जहाँ वह ईश्वर लिखने की हर कोशिश में नाकाम होकर ‘अख़-अख़’ करता नज़र आता है जो हमारी सामाजिक सौहार्द्र को विखण्डित करने को तल्लीन है। यानी जो मनुष्यरूपी बाघ है वह प्रकृति को पिंजरे में क़ैद करता है। प्रकृति को यूँ क़ैद कर वह ख़ुद को ही अपनी परिधि पर चक्कर काटता हुआ पाता है। अपने अकेलेपन के व्यर्थ बोध से वह अपने ही पुट्ठों का नमक अपनी खुरदुरी जीभ से बार-बार चाटता रहता है। उसका यह अकेलापन किसी व्यक्ति से कम नहीं। सत्रहवें खण्ड की यह अंतिम बंद देखिए-
 
“इस क्रिया में
वह इतना अकेला था
और फिर भी इतना तल्लीन
कि उस समय
मुझे आदमी से अलग नहीं लगा वह।”14
 
    कविता के अठारहवें खण्ड में कवि नैरेटर की भूमिका में आया है। वह समय के बदलते  भीषण स्वरूप को देखकर डर जाता है। प्रकृति के दोहन-क्षरण और मनुष्य के निरन्तर मशीन में तब्दील हो जाने को लेकर वह चिंतित है। यह डर उन्हें भी है जो प्रकृति का दोहन कर रहे हैंक्योंकि यह डर उनकी पूंजी और सम्पत्ति में गिरावट से हैजबकि कवि इनसे एकदम अलग सोचता है। उसका डर इनके विपरीत है। वह मनुष्य और प्रकृति के बीच रागात्मक संबंध देखता है-
 
“मुझे भी डर है
पर मुझे एक और भी डर है
बाघ से भी ज़्यादा चमकता हुआ डर
कि हाथ कहाँ होगे
आँखें कहाँ होंगी जो पढ़ेंगी किताबें
प्रेस कहाँ होंगे जो उन्हें छापेंगे
शहर कहाँ होंगे”15
 
    यूँ तो कथात्मक कविता में कवि इन तमाम नाउम्मीदी के बरक्स उम्मीद की लौ जलाता है। ‘जीना होगा बाघ के साथ भी और बाघ के बिना भीहमें जीना होगा।’ पूरी साहस के साथ ‘जीना होगारस्सी से झूलकरवधस्थल से लौटकर जीना होगा।’ यह जिजीविषा बनाये रखना है। हर सूरत-ए-हाल में। कविता देखिए-
 
“समय
चाहे जितना कम हो
स्थान
चाहे उससे भी कम
चाहे शहर में बची हो
बस उतनी-सी हवा
जितनी एक साइकिल में होती है
पर जीना होगा”16
 
    इस कथात्मक कविता में आशावादिता की सार्थक पहल है। मनुष्य अपनी गलतियों को एक-न-एक दिन अहसास करेगा और अपनी मानवीय स्वभावप्रकृति प्रेम की ओर मुड़ेगाजिसमें मनुष्य और विज्ञान का परस्पर तालमेल उनके जीवन का सहजीवी होगा। चूँकि “इस ढलती हुई शताब्दी के इस अन्धे मोड़ पर ‘बाघ’ दरअसल समय के विध्वंसों के खिलाफ़ मनुष्य के संघर्ष की लोकगाथा है।”17  
 
    केदारनाथ सिंह के काव्य संसार में प्राय: सभी लम्बी कविताएँ कथा के आवरण में उपस्थित हैं। उनके यहाँ चरित्र भी हैं और घटनाएँ भी हैं। कभी शहर चरित्र के रूप में उठ खड़ा होता हैतो कभी कोई वस्तु चरित्र का रूप धारण कर लेती है। मसलनउनके यहाँ किसी खास नायक की परिणति नहीं हुई है। उनके यहाँ सब के सब जिन्दगी के गलियारों में उपस्थित वस्तु ही चरित्र के रूप में संवेदना के साथ आए हुए हैं। ‘बनारस’ कविता चरित्र के रूप में आया है। ‘अपनी एक टाँग पर खड़ा’ और ‘दूसरी टाँग से बेखबर’, ऐसे ही ‘माँझी का पुल’ भी एक चरित्र के रूप में आया है। इसमें कई किस्से चलते रहते हैं। कई चित्र हैं- खैनी की जरूरत महसूस करता लालमोहर है। बस्ती के लोग हैंपर माँझी का पुल नहीं दिखता। कवि स्वयं में संलाप करते हुए कहता है-
 
“मैं सोचता हूँ
और सोचकर काँपने लगता हूँ
उन्हें कैसा लगेगा अगर एक दिन अचानक पता चला
वहाँ नहीं है माँझी का पुल !”18
 
कविता में कवि माँझी के पुल पर कहानी कहते हुए चिंतित है। यह चिन्ता आधुनिक सभ्यता के विनाशकरी प्रकृत से है। 
 
`    केदारनाथ सिंह की कविताओं की एक ख़ासियत यह है कि वे कहानियों को भी कविता में ढालकर लिखते हैं। प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ पर उनकी एक कविता है ‘पूस की रात’ उस कविता में भी उसी तरह का दृश्य और घटनाएँ हैं। यूँ तो उनकी कथात्मकता में चरित्रों की भरमार है। नूर मियांटमाटर बेचने वाली औरतइब्राहिम मियांलालमोहरताल्सतायपाणिनी आदि। यहाँ तक की इनकी कविताओं में ‘स्थान’ भी चरित्र-सृष्टि में सहायक है। जैसे- कुशीनगरलहरताराबर्लिनभीमबेटकाजेएनयू और भारत की सीमा पर एक नेपाली गाँवआदि।
 
केदारनाथ सिंह अपनी कविताओं में कथा कहते हुए अक्सर गाँव की ओर लौटते दिखाई देते हैं। यह लौटना उनकी स्मृतियों को झकझोरता है। वह ‘टमाटर बेचती औरत’ में अपनी माँ का अक्स देखने लगते हैं-
 
“वह टमाटर बेच रही है
मुझे टमाटरों की रोशनी में
उसका लहकता हुआ चेहरा दिखाई पड़‌ता है
यह माँ का चेहरा है- मैं ख़ुद कहता हूँ
मुझे गोर्की की ‘माँ’ बेहतर याद आ रही है...।”19
  
    यहाँ एक पूरी मार्मिक कथा की सृष्टि हुई है। केदारनाथ सिंह एक तरफ जहाँ अपनी कविताओं में मार्मिक कथा कहते हैंवहीं दूसरी ओर वे परिवार में व्याप्त विडम्बना की ओर भी संकेत करते हुए नज़र आते हैं। ‘नमक’ शीर्षक कविता परिवार की इसी विडम्बना बोध को व्यक्त करता है। कविता में नमक शहर से गुजरता हुआ चुपके से घर में आ घुसता हैफिर चूल्हे के पास जाकर दाल-सब्जी में घुल जाता है और जब खाने की मेज सजती है तो सबसे ज्याद नमक ही खुश होता है। बजाय इसके कि परिवार के सदस्य। कवि इसी जगह कहता है, “जैसे उसकी जीभ अपनी ही बोटी के/स्वाद का इन्तजार कर रही हो।”20 लेकिन होता यह है कि पुरुष के चीखने पर नमक की सारी खुशियों पर पानी फिर जाता है। पुरुष चीखते हुए कहता है दाल फीकी है और कविताकविता से निकलकर नमक की कहानी बनकर नाटकीय मोड़ ले लेती है। ‘नमक’ कविता का यह अंश देखिए-
 
“कि ठीक उसी समय
पुरुष जोकि सबसे अधिक चुप था
धीरे से बोला-
“दाल फीकी है”
“फीकी है?”
स्त्री ने आश्चर्य से पूछा
“हाँफीकी है-
मैं कहता हूँ दाल फीकी है”
पुरुष में लगभग चीखते हुए कहा
 
अब स्त्री चुप
कुत्ता हैरान
बच्चे एकटक
एक-दूसरे को ताकते हुए”21
 
और इस तरह अन्त में ‘न सही दाल/कुछ तो फीका जरूर है’ के माध्यम से परिवार में व्याप्त विडम्बना की ओर संकेत करता है कि ‘उस समूचे घर में कुत्ते के अलावा इसे कोई नहीं जानता।’ यह नाटकीय और बिम्बीय रूप केदारनाथ सिंह की कविताओं में कथात्मकता की रीढ़ साबित हुई है। गोबिन्द प्रसाद लिखते हैं कि, “नाटकीय स्थितियों को एक अनुक्रम में बाँधते संवाद-संलाप में व्यक्त आख्यानपरकता और चमकते बिम्ब वस्तुत: केदारनाथ सिंह की कविताओं में रीढ़ की तरह है-कविता का स्केल्टन काफी दूर तक इन्हीं के सहारे खड़ा होता है।”22
 
निष्कर्ष : अंतत: निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि केदारनाथ सिंह की काथात्मक कविताएँ आधुनिक समय में व्याप्त विडम्बना बोध, पूंजीवाद और सत्ता के गठजोड़ को बहुत बारीकी से उघाड़ती है। मनुष्य के भीतर से ख़त्म होती हुई संवेदना को बहुत संवेदनशील होकर दर्ज़ करती है। चूँकि मनुष्य अपनी महत्वाकांक्षा के चलते इतना भूखा और निरा अकेला हो चुका है कि उसे आदमियता की कोई ख़बर तक नहीं है। अतः केदारनाथ सिंह की कथात्मक कविताएँ इसी आदमियता की बानगी प्रस्तुत करती हैं।  

संदर्भ :
1. केदारनाथ सिंह, बाघ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. सं. 5.
2. वही, पृ. सं. 5-6.
3. वहीपृ. सं. 6.
4. वहीपृ. सं. 9.
5. वहीपृ. सं. 11.
6. वहीपृ. सं. 13.
7. वहीपृ. सं. 17.
8. वहीपृ. सं. 21.
9. वहीपृ. सं. 58.
10. वहीपृ. सं. 22-24.
11. वहीपृ. सं. 24.  
12. वही, पृ. सं. 35.
13. वहीपृ. सं. 35.  
14. वहीपृ. सं. 50.
15. वहीपृ. सं. 51.
16. वहीपृ. सं. 55.
17. वही, पृ. सं. 63.
18. केदारनाथ सिंह, ज़मीन पक रही है, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. सं. 97.
19. वही, पृ. सं. 33.
20. केदारनाथ सिंह, उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, पृ. सं. 20.
21. वही, पृ. सं. 20.
22. गोबिन्द प्रसाद, कविता के सम्मुख, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, 2002, पृ. सं. 148.
 
सुमित कुमार चौधरी
शोधार्थी-भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-110067
sumitchaudhary825@gmail.com,99714707114  


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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