डॉ. रामप्रकाश सिंह
शोध-सार : काशीनाथ सिंह समकालीन हिंदी कथा साहित्य के
महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं। उनके साहित्य में उत्तर प्रदेश के पूर्वांचली समाज और
संस्कृति की छवियाँ दृष्टिगोचर होती है। इस समाज और संस्कृति में कथाकार काशीनाथ
सिंह की गहरी पैठ है। उनकी कहानी ‘पहला प्यार’,
‘लाल किले का बाज़’, ‘तीन काल-कथा’, ‘अपना रास्ता लो बाबा’ के माध्यम से इसकी झलक मिल जाती है। उनका उपन्यास
‘काशी का अस्सी’ अपने कथ्य और शिल्प में एकदम नया प्रयोग था। यह प्रयोग सफल ही
नहीं सार्थक भी साबित हुआ और काशीनाथ सिंह को एक नयी पहचान मिली। आगे चलकर इस
उपन्यास पर ‘मोहल्ला अस्सी’ नाम से एक फिल्म का भी निर्माण हुआ। काशीनाथ सिंह ने
बनारस के एक छोटे से मोहल्ले, गंगा नदी के घाट और एक चाय की
दूकान के माध्यम से भारत की आंतरिक सामाजिक, राजनीतिक,
सांस्कृतिक समस्या को बखूबी चित्रित किया है। उन्होंने अपने उपन्यास
के माध्यम से यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि जिस जनता को नेता और बुद्धिजीवी
अज्ञानी, गँवार, नासमझ समझते हैं,
वस्तुतः वह जनता हर बदलाव को अपने अनुसार समझती है। वह वैश्विक
घटनाओं को स्थानीय परिप्रेक्ष्य में समझती है। ‘काशी का अस्सी’ आधुनिक भारत का एक
क्रिटिक रचता है।
बीज शब्द :
काशी, बनारस, अस्सी, आधुनिकता,
उत्तर-आधुनिकता, भूमंडलीकरण, स्थानीयता, उपन्यास, शिल्प,
बाजारवाद, मार्क्सवाद, जातिवाद,
समाजवाद, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, मण्डल कमीशन... इत्यादि।
मूल आलेख :
‘काशी का अस्सी’ (2002) उपन्यास में बनारस के अस्सीघाट और अस्सी मुहल्ले से जुड़ी पांच
प्रतिनिधि कहानियां हैं। कहानियों का सन्दर्भ 1990 के दशक की
राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था है, परन्तु वे आज भी प्रासंगिक
हैं। बनारस अपनी विशिष्ट संस्कृति के लिए भारत ही नहीं, विश्व
में विख्यात है। मौजमस्ती, फक्कडपन, गालियाँ,
भांग और पान यहाँ के जीवन का अंग हैं। इस उपन्यास में कहानी के अन्य
केंद्र बिंदु हैं ‘पप्पू की चाय की दुकान’ और तन्नी गुरु जैसे बिंदास पात्र। पोशाक
के नाम पर गमछा, लंगोट, लुंगी और जनेऊ
धारण किये हुए और पान चबाते हुए अपनी मस्ती में मस्त। चाय सुड़कते हुए, भांग की मस्ती में एक दूसरे से गपियाते, भरपूर एक
दूसरे को गरियाते, गर्मागर्म राजनीतिक बहसों में उलझे लोग बनारस
की जीवंत संस्कृति का प्रतीक हैं। चाय की दुकान ही इनका सेमिनार हॉल, भाषण मंच, यहाँ तक कि उनकी संसद है। उनके लिए दुनिया
भर के नेता, विचारधाराएं, संस्कृतियाँ
सब ब्रह्मांड के छोटे-छोटे पिंड हैं और उस ब्रम्हांड का केंद्र है अस्सी।
‘काशी का अस्सी’
के कुछ पात्र लगभग हर कहानी में मौजूद होकर अपने चरित्र की छाप छोड़ते हैं । इनमें
मुख्य हैं - गया सिंह, तन्नी गुरु, रामजी राय और पूरा व्याख्यान प्रत्यक्ष
दर्शी की तरह सुनाते स्वयं काशीनाथ सिंह । अस्सी मोहल्ले की एक चाय की दुकान को
धुरी बना कर सभी कहानियां उसके इर्द-गिर्द घूमती हैं।
भाषा काशी की है - न संपूर्ण हिंदी और न ही 'गन्दगी' रहित - रोज़मर्रा की-सी। धक्के देना और धक्के
खाना, जलील करना और जलील होना, गालियां
देना और गालियां पाना अस्सी की नागरिकता के मौलिक अधिकार और कर्त्तव्य बताये गए
हैं। इस कृति की हर कहानी समाज अथवा राजनीति के किसी पहलू पर कटाक्ष करती है। कुछ
बातें कहानी के क्रम में अथवा लेखक द्वारा दिए गए विवरण में अंतर्निहित हैं,
तो कुछ बातें पात्रों की बातचीत से सामने आती हैं । हर राजनीतिक पार्टी
और सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन पर पात्रों के माध्यम से टिपण्णी की गयी है। कौन-सी
पार्टी किसे टिकट दे, इसका फैसला प्रत्याशी की जेब देख कर
होना, बाबरी गिरने पर रातों-रात हर मस्जिद पर लाउड-स्पीकरों
का लग जाना और सेकुलरिज्म की राजनीति जैसे कई विषयों का उल्लेख काशीनाथ सिंह के इस
उपन्यास में मिलता है। जय ललिता, हर्षद मेहता, बोफोर्स आदि के घोटालों पर बहस है।
समय और 'टेक्नोलॉजी'
के साथ आने वाले सामाजिक संबंधों में बदलावों और भौतिक सुख-
सुविधाओं की लत लगने से उजड़ते सामाजिक ताने-बाने पर इस कृति में निशाना साधा गया
है। जिस तरह समृद्धि की प्यास लगाने के पीछे 'मल्टीनेशनल'
पूँजीवाद का हाथ बताया गया है। उसी तरह बीवियों और नौकरीपेशा पतियों
के अंदर भरे गए मल्टीनेशनल चीज़ों के पाखंड पर बड़ी रोचक शैली में इस उपन्यास में
प्रकाश डाला गया है।
अपना उल्लू सीधा करने के लिए कैसे हम अपने
स्वार्थ को युक्तिसंगत (rationalize) करते हैं, इस पर 'पांडे कौन
कुमति तोहें लागी' में व्यंग्य किया गया है। कैसे पड़ोसी की
समृद्धि से कुंठित शास्त्रीजी भी विदेशियों की आवभगत में पाखंड रचते हैं और ऐसा
करने के लिए वे कैसे अपने धर्मनिपुण मन को बहलाते हैं। विचारधाराओं के भिन्न होते
हुए भी यारियां होना, वाचाल प्रवृति की चाय की दुकान पर
अधिकायत, काशी के घाटों का वाद-व्यवहार और हर छोटी-बड़ी बात
पर बहस करने की फुर्सत, यह सब शायद अब घाटों और नुक्कड़ की
दुकानों से निकल कर व्हाट्सप्प ग्रुप्स में जा बसा हैं।
नब्बे के दशक की मंडल-कमंडल की राजनीति और धर्म
के नाम पर बंटते लोगों से बनारस कैसे अछूता रह जाता। ‘हर हर महादेव’ की जगह ‘जय
श्री राम’ ने ले ली। हालांकि पिछले कुछ समय से काशी में बदलाव आ रहा है। भारतीय
संस्कृति, संगीत, कला, भाषा आदि सीखने के लिए विदेशी बड़ी संख्या में
बनारस आने लगे हैं। जाहिर है साथ में वे अपनी जीवन शैली और नशा भी भी ला रहे हैं। भांग
के नशे में मस्त रहने वाले बनारस में अब हेरोइन, ब्राउन सुगर
और चरस जैसे महंगे नशे भी पहुँच गए हैं।
‘काशी का अस्सी’
कृति को दो हिस्सों में समझा जा सकता है। एक वैश्वीकरण के पहले के बनारस की
संस्कृति और दूसरी उसके बाद की संस्कृति। वैश्वीकरण ने दुनिया को कुछ तो दिया,
लेकिन उसके साथ बहुत-कुछ छीन लिया। भूमंडलीकरण ने तमाम मनुष्य
विरोधी रूढ़ियों और प्रथाओं को तोड़ा, लेकिन इसके साथ ही सामूहिकता
की भावना को ख़तम कर दिया। उपन्यास में काशी की संस्कृति, उसके
क्षरण और समकालीन दौर की राजनीति और धर्म के आतंक एवं उसके द्वारा फैलाये जाने
वाले उन्माद को ठेठ काशी के लहजे में उपन्यासकार ने वर्णित किया है।
दुनिया के प्राचीनतम नगरों में से बनारस भी एक ऐसा
नगर है जहाँ की धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियाँ आज तक जीवंत और गतिमान हैं। इसकी
निरंतरता में यहाँ की सांस्कृतिक समन्वय की प्रवृत्ति रही है। काशी का यह विराट
समन्वयात्मक स्वरूप गंगा तट पर बने घरों में देखा जा सकता है। काशी में विभिन्न संस्कृतियों के प्रभाव और परंपरा का मूल
कारण गंगा के तट पर उनकी स्थिति रही है। यहां की धार्मिक परंपरा में यक्ष गान एवं
प्रकृति पूजा की परंपराओं का संबंध भी घाटों से रहा है। लेखक ने अस्सी की
धार्मिकता के बारे में लिखा है कि “उस दिन सिंगार था अस्सी के देवी-देवताओं का। चार-पांच महीने देवी-देवताओं
के श्रृंगार के महीने होते हैं। ऐसी कोई गली, सड़क, नुक्कड़ , दोराहा, तिराहा,
चौराहा नहीं जहां कोई न कोई देवी-देवता ना हो और उसका शृंगार ना
होता हो”1
काशी
में गंगा किनारे बने घाटों पर विभिन्न भौगोलिक क्षेत्र एवं सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक परिवेश से
सम्बद्ध जीवन के दर्शन होते हैं। घाटों एवं घाटों के समीपवर्ती क्षेत्रों में
संपूर्ण भारत के लोगों का निवास है, जहां उनकी समग्र सांस्कृतिक
गतिविधियां संपन्न होती हैं। यहां पर सांस्कृतिक विविधता में एकता की परंपरा का
व्यवहारिक रूप देखा जा सकता है जो वर्तमान भारत के सामाजिक, धार्मिक
और जातिगत कटुता की स्थिति में एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करती है। क्षेत्रीय
संस्कृतियां अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम रखते हुए काशी के परंपरागत रहन-सहन,
लोकजीवन, आचार-विचार, पर्व-महोत्सव
आदि से पूरी तरह घुलती-मिलती हैं, जिसमें बनारस और बनारस की
सांस्कृतिक परंपरा का समग्र रूप देखने को मिलता है।
अस्सी के संगम पर सिर्फ
भारतीय लोग ही नहीं, बल्कि अमेरिकी सपनों से मोहभंग का शिकार हुए लोग भी अस्सी के घाट पर मोक्ष
पाते हैं। उपन्यासकार काशीनाथ सिंह ने उपन्यास में कैथरीन शर्मा को डायरी से अस्सी
के बारे में पढ़ते हुए दिखाया है “यह मोहल्ला है अस्सी,
धर्म की धुरी। आज की भाषा में मनुवाद का शक्तिपीठ। सनातन धर्म जहां चौबीस
घंटे हरिकीर्तन करता है। शंकराचार्य से टकराने वाला शहर है। जिसके आकाश में धर्मध्वजा
फहराती रहती है। काशी में कोई विद्वत्परिषद है जिसका सचिवालय है यह मोहल्ला”2
‘काशी का अस्सी’ उपन्यास में एकदम शुरुआत में लिखा गया है कि शहर बनारस के दक्षिणी
छोर पर गंगा किनारे बना ऐतिहासिक मोहल्ला अस्सी। तब एकदम स्पष्ट हो जाता है कि इस
उपन्यास का संबंध सांस्कृतिक इतिहास से है। एक तो बनारस ऐतिहासिक शहर और उसमें भी
ऐतिहासिक मोहल्ला अस्सी। इसका संबंध हमारी सांस्कृतिक धरोहर, मूल्य और कोमलता से है।
अस्सी का लोकजीवन सबसे अलग है। यहां पर वैमनस्य, कटुता और जातिगत
विभाजन के रहते हुए भी अस्सी अपनी सामूहिकता को खत्म नहीं होने देता। इसी अर्थ में
अस्सी की जुटान स्वयं अपने समाज के भेदभाव के सामने प्रतिरोधी रूप में है। उपन्यास
की शुरुआत बिल्कुल यूटोपिया जैसी लगती है। एक ऐसा मुहल्ला जहां सभी खुश हैं। वहां
कोई विभेदीकरण नहीं है। कोई अतिरेक नहीं। कोई विषमता नहीं है। है तो सबसे अधिक सिर्फ
बिंदासपन। गुरु यहां की नागरिकता का सरनेम है। तब लगता है अच्छा फक्कड़ाना अंदाज है।
उपन्यासकार लिखता है- “न कोई सिंह न पांडे न जादो दो ना राम।
सब गुरु। पैदा भैया वह भी गुरु जो मरा वह भी गुरु। सबसे बड़ा जनतंत्र है यह।”3 अस्सी एक जगह मात्र नहीं, यह एक परिघटना है। अस्सी घाट में सिर्फ जजमानी पंडिताई नहीं है। वह
सामूहिकता और आनंद के मेल का दस्तावेज है।
सन
अस्सी के पहले के अस्सी में भांग की संस्कृति है और कवि
सम्मेलन की परंपरा। बनारस में अकेले नहीं खायी जाती है। सिगरेट अकेले पी जाती है। भांग
घोटने से लेकर उसको छानने और उसको साथ पीने में स्थानीयता का अद्भुत रंग है। एक
सुखद एहसास है, जहाँ सामूहिकता है। जहाँ बगैर किसी वैमनस्य
के, बगैर किसी व्यावसायिकता के, बगैर
किसी विभेद के बैठना एक स्मृति बन चुका है। ‘काशी का अस्सी’ अस्सी के दशक के अंतिम
सिरे की घटनाओं से शुरू होकर इतिहास और भविष्य की गहराइयाँ नापता है।
अस्सी के लोग आपस में बातें गालियां देते हुए
करते हैं। गालियों के बिना कोई बात पूरी नहीं मानी जाती है। शिक्षित हों या
अशिक्षित सब आपस की बातचीत में गालियों का प्रयोग करते हैं। गालियाँ यहाँ के
बाशिंदों का प्यार है। अस्सी की भाषा और गालियों से परहेज के लिए उपन्यासकार ने
शुरू में ही कह दिया है कि “मित्रों यह संस्मरण वयस्कों के लिए है, बच्चों और बूढों के
लिए नहीं। और उनके लिए भी नहीं जो यह नहीं जानते कि अस्सी और भाषा के बीच ननद-भौजाई
और साली-बहनोई का रिश्ता है।”4 यहाँ हम देख सकते हैं कि बनारस की
संस्कृति में भाषायी नैतिकता का आग्रह नहीं है।
अस्सी अष्टाध्यायी है और काशी इसका भाष्य है। कमर
में गमछा, कंधे पर लंगोट और बदन पर जनेऊ अस्सी का यूनिफार्म है। यहाँ ‘हर हर महादेव’
और ‘भो..’ कहकर अभिवादन किया जाता
है। मस्ती इसकी मुद्रा है और हंसी इसकी साँस। गुरु यहाँ की नागरिकता का सरनेम है। कुछ
लेना न देना मगन रहना, अस्सी की जीवन बूटी है। ‘जो मजा बनारस में, न पेरिस
में न फारस में’- इश्तहार है इसका। काशी का अस्सी गाता, बजाता,
झूमता, मदमाता है। किसी के पास कोई डिग्री नहीं,
रोजगार नहीं, व्यवसाय नहीं और काम नहीं। काम
के नाम पर सिर्फ जजमानी। माथे पर चन्दन की बिंदी, मुह में
पान और तोंद सहलाता हाथ। न किसी के आगे गिडगिडाना न हाथ फैलाना। दें तो भला न दें
तो भला। बड़े से बड़ा गवर्नर बड़े से बड़ा ओहदा सब बराबर हैं अस्सी के तन्नी गुरु के
लिए।
एक दिन तन्नी गुरु पप्पू की चाय की दुकान में
मुंह में पान भरे बैठे थे तभी किसी ने कहा, “किस दुनिया में हो गुरु। अमरीका रोज-रोज आदमी को
चन्द्रमा पर भेज रहा है। और तुम घंटे भर से पान घुला रहे हो ? मोरी में पच से पान
की पीक थूककर तन्नी गुरु बोले, देखो। एक बात नोट कर लो। चंद्रमा
हो या सूरज... जिसको गरज होगी, खुदै यहाँ आएगा। तन्नी गुरु टस
से मस नहीं होंगे हियाँ से। समझे कुछ ?”5 अस्सी पर पप्पू की चाय की
दुकान हर परिवर्तन की दृष्टा है, राजनीतिक परिवर्तन से लेकर
भौतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के संकेत सूत्र पप्पू की दुकान से उठते हैं, उठते रहेंगे। आम आदमी के जीवन की बहस का केंद्र है पप्पू के चाय की दुकान।
अपने समय की सारी खबरें हैं इस उपन्यास में। इससे
जिन्दगी के बदलते टुकड़ों को देखा जा सकता है। समय की कथा को पप्पू की चाय की दुकान
से इस तरह कहा जाता है कि वह पप्पू की दुकान न होकर पूरा देश की प्रतीक बन जाती है।
अस्सी के बारे में काशीनाथ सिंह प्रतिभा कटियार के साथ एक साक्षात्कार में कहते
हैं कि “अस्सी सिर्फ एक जगह नहीं हैं। यह नगर भी है, क़स्बा भी और गाँव भी है। यहाँ जो चाय की दुकान है
वहां रिक्शे वाले, दूध वाले, विद्यार्थी,
गायक, कवि, पत्रकार,
प्रोफ़ेसर सब इकठ्ठे होते हैं। यह ऐसी जगह है जहाँ ढेर सारी
विविधताएं एकत्र होती हैं। प्रजातंत्र का असली चेहरा भी यहीं नजर आता है। एक
रिक्शे वाला भी अपनी बात को प्रोफ़ेसर साहब को समझाते हुए नजर आता है। तो एक
विद्यार्थी बिना किसी डर के अपने विचार व्यक्त कर रहा होता है। कहीं कोई डर नहीं,
कोई घबराहट नहीं। सच्चा लोकतंत्र यहीं हैं”6 इस जगह पर
ऐसा लगता है कोई अपनी विद्वता का बखान नहीं कर सकता है। यहाँ सब गुरु हैं, गुरु के भी गुरु हैं। किसी को किसी का कोई भय नहीं। जो कहना होता है बिना
झिझक के कहता है। अस्सी का राग इस देश का वह राग है जिसमें हर तरह के षडयंत्र और
दमघोटू व्यवस्था के बीच खिलखिलाते हुए आम आदमी की संघर्ष कथा को आगे बढ़ाता है।
अस्सी चौराहे पर किसी भी कार्यक्रम या बिना
कार्यक्रम के पप्पू के चाय की दुकान पर काव्य गायन होता रहता है। अस्सी वासियों का
जमावड़ा लगा रहता है। साथ में विदेशी लोग भी इस मस्ती से पीछे नहीं रहते। गीत-संगीत
के लिए कोई बाजे की जरूरत नहीं होती है वहां। लोगों के हाथों में और मुंह में ही
कई प्रकार के बाजों का यंत्र हैं। जब चाहते तब शुरू हो गए। काव्य पाठ्य गीत संगीत
चलता रहता है तो लोग इसका भरपूर आनंद उठाते हैं। आनंद के साथ-साथ मस्ती में
टिप्पणी भी करते रहते हैं। लेखक अस्सी के गायन माहौल पर लिखता है “दूसरे किनारे पर
बैठी विदेशी युवती क्रिस्टीन ने कुल्लड़ किनारे करके तानपुरा उठा लिया। उधर
किन-किन हुआ नहीं कि एक ढोलकिया ने अपने सामने की मेज को तबला बना लिया और तालियों की गड़गड़ाहट
के बीच निर्गुण मेला आयोजित हो गया”7
अस्सी
चौराहे पर पप्पू की चाय की दुकान कवियों के लिए फक्कड़पनी करने की जगह है और इनका
संसद भवन भी यही है। त्रिवेणी कला संगम से लेकर चुनावी प्रचार-प्रसार तथा सेमिनार
हाल भी है पप्पू की दुकान। जब लोग यहां पर बैठते हैं तो खाने-पीने का हिसाब अलग-अलग
होता है। कोई पान खिलाने की जिम्मेवारी लेता है तो कोई पकौड़ी। किसी की ओर से
सिर्फ गीत गाना। सब के सब एक साथ भांग के नशे में मस्त होते हैं और एकता बनाकर
शुरू करते हैं। उपन्यास का लिखता है कि सेमिनार हॉल में बैठे हैं। गधों का महाकवि
ब्रह्मानंद सहोदर, ने संदेश
भेजा था कि मुझे चाय, पकौड़े और पान तुम्हारी ओर से। गीत
मेरी ओर से। आ जाओ लेन-देन की बात क्या, मोहब्बत बड़ी चीज है।
तुलसी
घाट के निकट अस्सी चौराहा पर कबीर का बाजार है जहां आज भी उनके आह्वान की गूंज
सुनाई पड़ती है, ‘जो घर
जारे आपना चले हमारे साथ’ और ‘घर फूंक तमाशा देखने की मौज मस्ती, जमाने को ठेंगे पर रखकर चलने की निर्भीकता, घर
जोड़ने की माया से मुक्त अपना अंदाज, अस्सी चौराहे की मौलिक
पहचान है। यह बेरोजगारी का रोजगार दफ्तर है और कोई नहीं जानता है, यहाँ बेरोजगार हैं। किसी को नहीं पता कि ये जीते कैसे हैं। सभी जानते हैं
कि ये जी रहे हैं और शान से जी रहे हैं। एकदम हंसमुख और प्रसन्न। यहाँ रोजगार-बेरोजगार
सभी एक ही घाट का पानी पीते हैं।
‘काशी का अस्सी’ में बतरस का ही सजीव रंग है। तुलसीदास
जैसे संत के साथ भी सलूक ऐसा किया गया है कि भक्त जन मर्माहत हो उठे हैं। व्यंग, खिलंदड़ापन और कौतुक-लीला। कुल मिलाकर जिसे हम ‘विट’
कहते हैं, वह इनकी भाषा की जान है। इनकी भाषा लोकजीवन से
संपृक्त है, जिसका कारण उनकी ठेठ किसान चेतना है। लेखक लिखता
है “भ्रष्टाचार लोकतंत्र के लिए ऑक्सीजन है, है कोई ऐसा
राष्ट्र जहाँ लोकतंत्र हो और भ्रष्टाचार न हो? जरा नजर दौड़ाइए पूरी दुनिया पर,
ये छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियां क्या हैं? अलग-अलग छोटे-बड़े
संस्थान, भ्रष्टाचार के प्रशिक्षण केंद्र, सिद्धांत, ये सब मुखौटे हैं जिनके पीछे ट्रेनिंग दी
जाती है। आप क्या समझते हैं जो आदमी चुनाव लड़ने में पन्द्रह-बीस लाख खर्च करेगा वह
विधायक या सांसद बनने पर ऐसे ही छोड़ देगा आपको ? देश को?”8 इस कथोपकथन
के द्वारा लेखक ने धन आधारित लोकतंत्र पर व्यंग्य किया है।
‘काशी
का अस्सी’ की भाषा का कोई विकल्प नहीं है। व्यंग का पैनापन भाषा की जान है। आत्मोहास
और आत्म-व्यंग्य की विशिष्टता ने व्यंग्य की मारक क्षमता को और भी तीखा और
प्रभावोत्पादक बना दिया है। तिलमिला देने वाले व्यंग्य इस उपन्यास में भरे पड़े हैं।
रक्त-गोत्र की शुद्धता के मिथ्या दंभ पर आधारित अलगाववादी वर्ण-व्यवस्था की
अमानवीयता पर कड़े से कड़ा प्रहार करने की लंबी परंपरा रही है, लेकिन उसके समर्थक बुद्धिजीवी समय-समय पर नए-नए मिथक
और झूठे आदर्श गढ़कर उसके औचित्य का प्रतिपादन भी करते आए हैं। उन्हीं समर्थकों से
किया गया एक छोटा-सा प्रश्न जितना सहज उतना ही तिलमिला देने वाला भी | लेखक वर्ग-जाति
व्यवस्था पर व्यंग्य के माध्यम से कहता है, “पूछा मुनिवर ने-
नाम? “बताया जाबालि, ‘पिता का नाम? बालक चुप। फिर पूछा पिता
का नाम? बालक ने कहा ‘नहीं मालूम’ मुनिवर ने रजिस्टर बंद कर दिया और कहा-‘माँ से
पूछकर कल आना। जाओ।’ बालक लौट गया। मां से पूछा-पाछा। और अगले दिन फिर हाजिर... बालक
ने बताया- माँ को भी नहीं मालूम। मां ने कहा कि जाने कितने पुरुष आए उस बीच। तुम
उनमें से किससे पेट में आए और कौन तुम्हारा पिता है, मैं
कैसे बता सकती हूं? मुनिवर सोच में पड़ गए.. तुम सच बोले इसलिए, हो-ना-हो, ब्राम्हण हो’.. और घने जंगल और बियाबान
में अकेले तपस्या कर रहे ये ऋषि-मुनि खुद क्या थे? आदिवासी, टोना
टोटका वाले। खुद क्या थे? नारद को देखो तो दासी पुत्र, वशिष्ठ
को देखो तो वैश्या पुत्र। कोई घड़े में पाया गया तो कोई जंगल-झाड़ में, कोई नदी में, कोई खेत में? जाने कितने तो
किसी-न-किसी अप्सरा के, जो जिसे मिला, वह
उसी का बेटा। टोना-टोटका, पूजा-पाठ, कर्मकांड,
यही इनकी आजीविका थी। ज्ञानकांड इन सबों के बस के बाहर का था। याज्ञवल्क्य
तक को उसके लिए दौड़ना पड़ता था जनक के पास। सब के सब जारस और यही भोसड़ी के वर्ण-व्यवस्था
देते हैं। देखो तो सभी जातियों के गोत्र ब्राह्मण ऋषियों के नाम पर। जब सभी के
पुरखे तुम ही हो तो उन्हें जातियों में क्यों बांटता है
बे”9 वर्ण व्यवस्था पर
व्यंग की आड़ में करारा प्रहार किया है। व्यंग्य का लक्ष्य यदि व्यक्ति या जाती हो
तो संचित संस्कारों पर चोट पड़ती है, पर लक्ष्य यदि झूठ पर
आधारित कोई मिथक अथवा सैद्धांतिक जुड़ाव हो तो व्यंग्य की दिशा सकारात्मक और उसका
प्रभाव व्यापक हो जाता है। सत्य के नाम पर जो महान असत्य वर्णाश्रम व्यवस्था की
जड़ में घर बना बैठा है, उस पर प्रहार करना लोग का अमंगल
नहीं, बल्कि लोकमंगल का आनंद विधायक तत्व है। इस संदर्भ में
उपन्यासकार पहले तो अपने को सवर्ण संस्कारों से मुक्त करता है और श्रेष्ठता के
मिथ्या दंभ पर प्रहार करता है।
आज
के संदर्भ में जातिवाद और धार्मिकता के नाम पर कभी जनता को भड़काया जा सकता है। ब्राह्मणों
का आरंभ से ही जैसा जन्म और आचरण रहा, स्वयं को स्थापित करने की उसकी पोल उपन्यास के इस वक्तव्य में खोली गयी है।
वाल्मीकि रामायण द्वारा ब्राह्मणों के जन्म संस्कार पर व्यंग्य करते हुए उपन्यास
के पात्र रामजी बोलते हैं, “राम का दरबार लगा था। चारो भाई
अपने पाने आसन पर। सभी मंत्री भी अपनी जगह। उसी में फटे सिर वाला कुकुर मुंह में
कागज दबाए फरियाद के लिए पहुंचा। राम ने लक्ष्मण से कहा, ‘पूछो,
क्या बात है?’ कुत्ते ने बताया- “महाराज!” एक ब्राह्मण ने मारा है। यह माथा देखिए। राम चिंतित। ब्राह्मण पर न तो कोई दफा लगाई जा सकती है न उसे
सजा दी जा सकती है। राम ने लक्ष्मण से पूछा- “भाई लखन! तुम ही बताओ ब्राह्मण को
क्या सजा दी जाए?’ कुत्ते ने टोका- ‘नहीं महाराज! सजा आप नहीं, हम बताएंगे।’ “तुम ही बोलो” राम ने कहा। कुत्ता बोला- ‘महाराज! उसे किसी
मठ का महंत बना दो’.. क्यों ?- कुत्ते ने कहा- ‘महाराज! पिछले जन्म में मैं भी
महंत था। देखिए, इस जन्म में कुक्कुर हूँ। आप उसे महंत बना
देंगे तो अगले जन्म में वह भी कुत्ता होगा”10 कुत्ता यहां ब्राह्मण जाति व्यवस्था का प्रतीक है।
भारत
में भूमंडलीकरण के दौरान पश्चिमी समाज सांस्कृतिक कुतूहल के साथ आता है और उसके
साथ अपनी विकृति भी लाता है। इस पर उपन्यास के पात्र गया सिंह पश्चिमी संस्कृति पर
व्यंग्य करते हुए कहते हैं, “वह शुरू में ऐसे ही किसी मुल्क को चाटना शुरू करता है जैसे गाय बछड़े को
चाटती है -प्यार के साथ। बाद में जब चमड़ी छिलने लगती है, खाल
उधड़ने लगती है, दर्द शुरू हो जाता है, जीभ
पर कांटे उभरते दिखाई पड़ने लगते हैं, जबड़े चलने की आवाज
सुनाई पड़ती है तब पता चलता है कि यह जीभ गाय की नहीं किसी और जानवर की है। और
क्या समझते हो जो देखते-देखते देश का देश चबा गया हो और उसमें भी सोवियत रूस जैसा देश,
उसके लिए नगर का मोहल्ला क्या चीज है”12 पश्चिम जिस प्रकार से पूरब में अपने लिए अवसर सृजित कर रहा है, ठीक वही पूरब के लिए पश्चिम में नहीं हो रहा है। यहाँ की औपनिवेशिक
मानसिकता उनकी हर अति को चुपचाप शिरोधार्य करने के लिए बेबस है। उपन्यास में गया
सिंह इन विदेशियों पर एक जगह व्यंग्य करते हैं। वो कहते हैं, “उन्हें जितनी बार आना-जाना हो- आयें-जाएं, जब तक
रहना हो तब तक रहें, लेकिन हम नहीं। हमारा घर उनका घर है,
लेकिन उनका घर उन्हीं का घर है, हमारा-तुम्हारा
नहीं.. अभी क्या देख रहे हो थोड़े दिन बाद यही बोलेंगे कि अस्सी जर्जर हो रहा है,
ढह रहा है, मर रहा है, हमें
दे दो तो नया कर दें- एकदम चमचम। कल बनारस को चमकाएंगे, परसों
दिल्ली को ठीक करेंगे, नरसों पूरे देश को ही गोद ले लेंगे और
झुलायेंगे-खेलाएंगे अपनी गोद में। यह बाद में पता चलेगा कि हम किस की गोद में है-
जसोदा मईया की कि पूतना मईया की”11
इस उपन्यास में
तत्कालीन समाज में घट रहे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक बदलाओं को, घटनाओं को प्रमुखता से लेखक ने उठाया है | नब्बे के दशक की एक ऐसी ही
महत्त्वपूर्ण घटना का जिक्र इसमें आया है | जनता पार्टी के विश्वनाथ प्रताप सिंह
के माध्यम से | जो ठाकुर-ब्रह्मण-भूमिहार 3 अगस्त, 1990 को
देवीलाल के निकाले जाने पर वीपी सिंह जिंदाबाद के नारे लगा रहा थे उन्हीं लोगों ने
15 अगस्त, 1990 को मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने पर
वीपी सिंह मुर्दाबाद के नारे लगाने शुरू कर दिए। “राजनीति में इतने बड़े फेरबदल को
कौन नोटिस करता? सारे उच्च वर्ग जो क्षत्रिय वीपी सिंह के साथ थे उन्होंने
रातों-रात कैसे जनता दल में शिफ्ट कर लिया, इस माइग्रेशन को
तो पकड़ा जाना चाहिये था न? काशीनाथ सिंह ने इसको पकड़ा, अस्सी
का उच्च वर्ग बहुत राजनीतिक है और अन्दर से बहुत जातिवादी भी।”12 लेखक
की दृष्टि यथार्थ के निषेध में व्यंग नहीं ढूंढती है, बल्कि यथार्थ
से टकराहट में व्यंग्य का विकास करती चलती है। इसीलिए फक्कड़ और जिन्दादिली की
दुनिया के मध्य से ही समाज और सियासत के गंभीर सच भी उभरकर सामने आते हैं। मंदिर
आन्दोलन का दौर सिर्फ मस्जिद ढहाने का नहीं, बल्कि भारतीय
धर्मनिरपेक्षता को ढहाने का आन्दोलन भी है।
राजनीतिक हित
में धर्म के इस्तेमाल से धार्मिक साम्प्रदायिकता इतनी बढ़ गयी कि मंदिर आन्दोलन की
आड़ में गांवों व शहरों में जमीनें हथियायी गयीं। भगवान कहीं भी प्रकट होने लगे। कहीं
भगवान के पैरों के निशान मिल गए। इसी बात पर उपन्यास में कांग्रेसी नेता वीरेंद्र पाण्डेय
भाजपाई नेता राधेश्याम को फटकारते हुए कहते हैं, “कम्पटीशन शुरू हो गया है। जीटी रोड के किनारे मस्जिद, मजार बनाकर जमीन हड़पने का। वे भी हड़प रहे हैं, लेकिन
तुम्हारे मुकाबले वो कहीं नहीं हैं। मस्जिद खड़ी करने में तो समय लगता है, यहाँ तो एक ईंट या पत्थर फेंका, गेरू या सेनुर पोता,
फूल-पत्ती चढ़ाया और माथा टेक दिया-‘जय बजरंग बली’ और दिन दहाड़े दो
आदमी ढोलक-झाल लेकर बैठ गए- अखंड हरिकीर्तन। भगवान धरती फोड़कर प्रकट भये हैं,
.. अयोध्या का फायदा यह हुआ कि चंदौली से कछवा के बीच जीटी रोड के
किनारे सैकड़ों एकड़ जमीन हथिया लिया तुम लोगों ने सेनुर पोत-पोतकर। एक फायदा और हुआ
है। नगर के हर गली मोहल्ले में दो-दो चार-चार मानस मर्मज्ञ पैदा हो गए हैं भोसड़ी
के। जिन जजमनिया निठल्लों को कल तक पादने का भी सहूर नहीं था, वे घूम घूम कर रामकथा कह रहे हैं। और एक एक दिन के पच्चीस-पच्चीस हजार लूट
रहे हैं।”13 भारतीय समाज धार्मिक अन्धविश्वाश में आकंठ डूबा है। धर्म
का सहारा लेकर पुजारी धन संपत्ति लूटते हैं। सरकारी जमीन पर कब्ज़ा करते हैं।
आजादी के बाद
इतना लम्बा समय बीत जाने के बाद अब यह कहा जा सकता है कि देश की विकास प्रक्रिया
को गति देने में सत्ता और प्रतिसत्ता दोनों विफल रही हैं। अपनी असफलता छिपाने के
लिए उसने जाति और धर्म के प्रश्न उछाल दिए हैं। विघटनकारी और सांप्रदायिक शक्तियों
ने धर्म को उन्माद एवं राजनीतिक समूहीकरण के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। ‘काशी
का अस्सी’ में इस बिंदु को लेकर नामवर सिंह ने कहा है कि “बाबरी मस्जिद का ध्वंस
अपने आप में एक घटना नहीं है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की एक घटना है, ये पूरी
राजनीति इस परिप्रेक्ष्य में कैसे आई है, यह उपन्यास में
नहीं आया है.. मखौल ज्यादा है उसममें|”14
धर्म की लोगों को एकत्र करने की क्षमता के कारण सांप्रदायिक
ताकतों ने धर्म को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। 1989 में राम मंदिर का
शिलान्यास और इसके बनाने के लिए पूरी दुनिया से एकत्र की गयीं रामशिलाएं भारतीय
समाज के सामासिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने की एक शुरुआत थी। 1990 में ही
लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में दस हजार किलोमीटर की दूरी तय करने वाली राम रथ
यात्रा ने सांप्रदायिक उन्माद को देशव्यापी कर दिया। रथयात्रा के सांप्रदायिक
उन्माद की चरम परिणति 6 दिसंबर, 1992 को हुई। जब राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित हिदुत्ववादी ताकतों ने
अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ढहा दिया। इस घटना से पूरा भारतीत समाज नफरत की आग
में झुलस गया। एक-दूसरे के प्रति जो अविश्वाश जो पैदा हुआ वो बढ़ता ही जा रहा है। इसी
के सहारे एक फासीवादी राजनीतिक पार्टी प्रचंड बहुमत से केन्द्रीय सत्ता पर काबिज
हो गयी। साम्प्रदायिकता, वैश्विक पूंजीवाद और उपभोतावादी
संस्कृति ने अस्सी का सौमनस्य और उसके फक्कडपन एवं हंसी-मजाक को समाप्त कर दिया है।
अब फक्कड़ भी नहीं दीखते अस्सी पर। लेखक कहता है “उनका दम घुट रहा था चौराहे पर
होने वाली हर शाम की आईडीबीआई, यूटीआई, आईसीआईसीआई, ऑफ सीजन सेल, एनएससी..
शेयर बेचने खरीदने की चर्चाओं से .. वही चौराहा, वही गलियां,
वे ही दुकानें, वे ही मकान, लेकिन जाने क्या हुआ कि धीरे-धीरे वो गुमसुम होते चले गए।”15
इसी समय का एक
सांप्रदायिकता और मंदिर-मस्जिद के मुद्दे को केंद्र में रखकर दूधनाथ सिंह ने
‘आखिरी कलाम’ नामक उपन्यास लिखा है | उन्होंने भी अपने उपन्यास में
धार्मिक-सांप्रदायिक राजनीति की पोल खोली है | वह दिखाते हैं कि कैसे लोगों को
धर्म के नाम पर बांटा गया है | उनकी मूलभूत समस्याओं से उनका ध्यान हटाया गया है |
आमजन मंदिर-मस्जिद की राजनीति में मर-कट रहे, ऐसे में किसी की राजनीतिक रोटी सिंक रही, ये बेचारी
जनता को क्या पता ! समाज में विभाजन बढ़ रहा, जनता इससे बेखबर
है | इसी दौर में स्वयं प्रकाश जैसे कथाकार ने ‘पार्टीशन’ जैसी महत्त्वपूर्ण कहानी
लिखी जिसमें वह दिखाते हैं कि कैसे लोग अपने दैनंदिन जीवन में राजनीति का शिकार हो
रहे, और एक दूसरे पर उनका अविश्वास बढ़ता जा रहा है |
जब पूरे देश और
दुनिया को भूमंडलीकरण ने अपनी चपेट में ले लिए था तो काशी का ये छोटा-सा मोहल्ला
अस्सी कैसे उससे बच सकता था। अस्सी का नाम बदल गया था। अब वो तुलसी नगर हो गया था।
काशीनाथ सिंह के, इस उपन्यास के सन्दर्भ में उनकी भाषा पर बात करें तो हिन्दी विद्वत समाज
दो भागों में विभाजित है | एक तो वे आलोचक और पाठक हैं जिनके लिए इसकी भाषा बहुत
यथार्थपरक और साहित्य में एक नये प्रयोग के तौर पर देखते हैं, जिसमें नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, रवींद्र कालिया, वीरभारत तलवार जैसे नामचीन आलोचकों
का नाम लिया जा सकता है | काशी का अस्सी’ की भाषा एवं उसकी बारीकियों को समझाते
हुए आलोचक नामवर सिंह लिखते हैं “लेखक भाषा में लिखता है और भाषा उसकी बनाई हुई
नहीं है। उसे बहुत दिनों में एक पूरे समाज ने बनाया है। इसलिए अक्सर ऐसा होता है
कि लेखक लिखना कुछ और चाहता है लिख कुछ और जाता है”16 संप्रेषण कितना ही अच्छा क्यों न हो, लेकिन जरा भी
ऊंच-नीच हो तो बात का बदलना लाजमी है।
काशीनाथ
सिंह की भाषा का एक दूसरा पहलू भी है जिसको नजरंदाज नहीं किया जा सकता | वह है इस
उपन्यास में स्त्री-अंगों को लेकर दी जाने वाली गालिययों का प्रयोग!जो एक पाठक को
मुँह पड़े कंकड़ की तरह खटकी है | अब सवाल यहाँ यह बनता है कि क्या लेखक इन गलियों
के प्रयोग के बिना अपनी बात कह पाने में सक्षम नहीं है? काशीनाथ सिंह से पहले
हिन्दी में हरिशंकर परसाई और श्रीलाल शुक्ल जैसे व्यंग्यकार हुए हैं | काशीनाथ
सिंह के ही समकालीन मनोहर श्याम जोशी ने व्यंग्य रचना लिखी है लेकिन उनकी भाषा ऐसी
अवांछनी तत्त्वों से रहित है | काशीनाथ सिंह की भाषा का बचाव करते हुए उनके
प्रशंसक आलोचक अक्सर यह तर्क देते हैं कि ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों का चित्रण इस
भाषा के बिना प्रामाणिक नहीं होगा! अब यहाँ यह देखना है कि राही मासूम रजा, फणीश्वरनाथ, सरीखे रचनाकारों
ने बिना एक भी अवांछित शब्द प्रयोग के ग्रामीण जीवन को यथार्थपरक ढंग से नहीं रचा
है?
मृणाल
पाण्डेय ने नब्बे के दशक में एक आलेख लिखा था, ‘समालोचक मिल तो लें उनसे जो पापड़ बेलती हैं’ में साहित्य में प्रयोग होने
वाली मर्द वाली भाषा, विशेषकर उपमा, रूपक,
मुहावरे, लोकोक्तियां, जोकि
स्त्री विरोधी हैं, स्त्री जननांग केंद्रित हैं, की आलोचना की और ये बताया कि जाने-अनजाने हमारे प्रगतिशील और गंभीर लेखक
भी शिकार हैं | काशीनाथ सिंह के ‘काशी का अस्सी’ की भाषा के आलोक में मृणाल पाण्डे
का यह तर्क ठीक लगता है | मृणाल पाण्डे की इस भाषिक प्रयोग की समझ को आधार बनाकर
डॉ. राजेश चौधरी जैसे सचेत पाठक और आलोचक राजेन्द्र यादव के इस तर्क से असमती
व्यक्त की कि ‘महिलायें इससे ज्यादा गालियां रोजमर्रा के जीवन में सुनती हैं |’ इस
उपन्यास की भाषा और बचाव में राजेन्द्र यादव के तर्क का समर्थन करने वाली अर्चना
वर्मा से उन्होंने एक बातचीत में जब प्रश्न किया तो अर्चना वर्मा का तर्क था कि
‘समाज में गालियां हैं तो रचना में आएंगी ही!’ अब यहाँ यह सोचने वाली बात बात है
कि क्या बिना गाली, बिना स्त्री विरोधी मुहावरे, लोकोक्ति और स्त्री विरोधी भाषा के, यथार्थपरक साहित्य
नहीं लिखा जा सकता! इस प्रकार के भाषिक प्रयोग करने वाल साहित्यकारों को सोचना
चाहिए | क्योंकि ग्रामीण और यथार्थ के नाम पर वह ऐसी भाषा के प्रयोग की छूट नहीं
ले सकते | प्रेमचंद, रेणु, श्रीलाल
शुक्ल, हरिशंकर परसाई, स्वयं प्रकाश
आदि का साहित्य हमारे सामने है !
निष्कर्ष
समग्रतः देखें तो ‘काशी का अस्सी’ एक ऐसी
औपन्यासिक कृति है जिसमें अस्सी चौराहे पर पप्पू के चाय की दुकान कई संस्कृतियों
की ग्राहक बनती है। पूर्वांचल एवं बिहार की संस्कृति तथा राजनीति चाय के साथ
उपस्थित होती है। बनारस शहर होते हुए भी गाँव है । जहाँ लोक-भावनाओं और संवेदनाओं
का घनीभूत रूप देखा जा सकता है।
यह कृति हमारे समय का प्रामाणिक दस्तावेज है,
सिर्फ घटनाओं के अंकन की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि
समूचे उपन्यास में अपने समय की वैज्ञानिक दृष्टि से की गयी पड़ताल और टिपण्णी
महत्वपूर्ण है। इस रचना में भूमंडलीकरण के विघटनकारी प्रभावों के प्रतिरोध का
स्पष्ट स्वर है। प्रतिरोध उस संस्कृति का जिसने काशी की आजादी में खलल डाला।
‘काशी का अस्सी’ में राजनैतिक सत्ता के बरक्स
लोक है। इस उपन्यास का सौन्दर्य एवं सन्देश इसके इसी द्वंद्व में है। सत्ता का
अभिप्राय यहाँ राजनीतिक सत्ता मात्र से नहीं है। राजनीतिक सत्ता सत्ता का एक रूप
है। भारतीय राजनीतिक, सामाजिक और
सांस्कृतिक इतिहास को पलटें तो देखेंगे कि आजादी के बाद भारत में वर्षों तक
परिवर्तन होते रहे। धर्म की आड़ में गांवों व शहरों की जमीनें हथियाना शुरू हो गया।
लोकतंत्र में अफवाहों का पूरा तंत्र भी खड़ा किया गया। क्योंकि सांप्रदायिक
उत्तेजना पैदा करने में अफवाहें चिंगारी का काम करती हैं। भारतीय समाज में जाति-व्यवस्था
ऐसा फैक्टर है जिसे तोड़ने के लिए कई क्रांतिधर्मी अपनी अपनी तरह से टकराते रहे। जिस
जाति व्यवस्था से मुक्ति के लिए लम्बे समय से तमाम बुद्धिजीवी और राजनेता संघर्ष
कर रहे थे उसी जाति के सहारे यहाँ के राजनेता अपनी और पार्टी की नाव पार लगाने लगे।
‘काशी का अस्सी’ बीते तीन दशकों में भारत में हुए सामाजिक, राजनितिक
और सांस्कृतिक परिवर्तन की दास्तान है। अस्सी चौराहे से उपन्यास में उपन्यासकार
काशीनाथ सिंह उपभोक्ता संस्कृति, दिखावे और बाजारवाद के
खिलाफ एक सशक्त आवाज उठाता है।
उपन्यास
के अंतिम हिस्से में लेखक ने बिरहियों की कहानी के माध्यम से पूंजीवादी
अर्थव्यवस्था और अंधाधुंध मशीनीकरण के कारण उत्पन्न समस्याओं को बड़े रोचक ढंग से
उठाया है। हवा-पानी भी अब बाजार की वस्तुवों में तब्दील हो रहे हैं। बाजार सबको
निगल रहा है। यहाँ तक कि लोगों के होंठों की हंसी को भी। बाजार चाहता है कि लोग
हँसने में समय को व्यर्थ बर्बाद न कर, उसके लिए उत्पादन के काम में लगायें। जो साथ बैठकर हँसते थे अब गायब होने
लगे हैं। टेलीविजन, कंप्यूटर गेम्स, विडियो
गेम्स ने लोगों को उन्हीं के घरों में कैद कर दिया है। हंसने के लिए आदमी को टीवी
का सहारा लेना पड़ता है। टीवी खोलने में वहां खड़ा एंकर आपको चुटकुले सुनाता है और
और हम लोट-पोट होकर हँसते हैं। टीवी बंद होते ही हमारी हंसी गायब हो जाती है। हंसने
के लिए हम बाजार से सीडी खरीद कर लाते हैं। इसी हंसी को खरीदने के लिए हम दिन रात
काम करते हैं। नींद की गोली की तरह हंसी के लिए टीवी और विडियो गेम्स ने ले ली है।
सन्दर्भ
:
डॉ. रामप्रकाश सिंह (असिस्टेंट प्रोफेसर)
हिंदी विभाग, डॉ.भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली. ramprakashsingh66@gmail.com
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)
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