- डॉ. आरती रानी प्रजापति
शोध सार
: प्रवीणराय
मध्यकाल
की
एक
महत्वपूर्ण
कवयित्री
हैं, लेकिन
साहित्य
में
इनका
स्थान
उतना
महत्वपूर्ण नहीं
रखा
गया
है।
साहित्येतिहासकार
इन्हें
केशवदास
के
कारण
याद
कर
लेते
हैं
वह
भी
असभ्य
भाषा
में।
जो
साहित्यकार
अन्य
स्त्री
रचनाकार
को
सम्मान
देते
हैं
वही
प्रवीणराय
को
उनके
पेशे
के
कारण
उपेक्षा
देते
हैं।
यह
कवयित्री
लेखन, भाव, शिल्प
आदि
सभी
दृष्टि
से
महत्वपूर्ण
हैं।
उन्होंने
जैसा
महसूस
किया
वैसा
लिखा।
स्त्री
विमर्श
भी
अनुभूति
को
ही
मान्यता
देता
है।
प्रवीणराय
उस
अनुभूति
को
मध्यकाल
में
लिख
रही
थी।
कोई
लाग
लपेट
इनके
काव्य
में
नहीं
मिलता।
बात
कहने
के
लिए
किसी
अलौकिक
पुरुष
का
सहारा
नहीं।
प्रेम
है
तो
सीधे
डंके
की
चोट
पर, अकबर तक
से
लड़ने
वाली
प्रवीणराय
निश्चित
ही
एक
महत्वपूर्ण
रचनाकार
हैं, जिन्हें
पढ़ने
और
समझने
की
जरुरत
है।
यह
स्त्री-विमर्ष
के
भी
नए
कोण
खोलती
हैं।
बीज
शब्द : मध्यकाल, कवयित्री, प्रवीणराय, साहित्य, स्त्री-विमर्ष, मध्यकालीन
साहित्य, केशवदास, स्त्री
दशा, भारतीय
समाज, आलोचना।
मुख्य
आलेख : हिंदी साहित्य
में
स्त्री
लेखन
भरपूर
मात्रा
में
मिलता
है
लेकिन
जब
हम
साहित्य
का
इतिहास
देखते
हैं
तो
वहां
स्त्री
लेखन
के
नाम
पर
मीरा, महादेवी
वर्मा
और
सुभद्रा
कुमारी
चौहान
के
अलावा
शायद
ही
ऐसा
कोई
नाम
हो
जो
सामने
आता
है।
आधुनिक
काल
से
पहले
का
साहित्येतिहास
देखा
जाए
तो
मीराबाई, सहजोबाई, शेख, प्रवीणराय
का
नाम
ही
मिलता
है।
प्रवीणराय
16वीं शती यानि
मध्यकालीन
समय
में
एक
ऐसी
महिला
हैं
जिनके
बारे
में
लिखने
से
इतिहासकार
भी
मुंह
नहीं
मोड़
पाते।
वह
हिंदी
के
प्रसिद्ध
कवि
केशवदास
की
शिष्या
थी।
केशव
ने
उनकी
प्रशंसा
में
पद
लिखे
हैं। ‘प्रवीणराय
वेश्या
थीं
तथा
ओरछा
के
राजा
इंद्रजीतसिंह
जी
की
रक्षिता
थीं।
इंद्रजीत
अपने
समय
के
अत्यंत
रसिक
व्यक्तियों
में
से
थे।
उनकी
संरक्षकता
में
अनेक
वेश्यायें
रहती
थीं।
केशवदास
जी
का
निम्नलिखित
पद
प्रवीणराय
के
परिचय
के
लिए
पर्याप्त
होगा-
वीणा पुस्तक धारिनी, राजहंस सुत संग’॥[1]
यह
प्रवीणराय
हैं
या
देवी
सरस्वती
हैं।
शारदा
के
अंग
श्वेत
कांति
वाले
हैं, प्रवीण
के
अंग
भी
श्रृंगार
की
कांति
से
शोभित
हैं, सरस्वती
वीणा
वादन
करती
हैं
तथा
पुस्तक–धारिणी
भी
हैं, प्रवीणराय
भी
वीणा
और
पुस्तक
लिए
हुए
रहती
है।
शारदा
के
साथ
उसका
राजहंस
पक्षी
रहता
है
और
प्रवीणराय
हंस
जात
सूर्यवंशी
राजा
के
साथ
रहती
है।
हमारे
समाज
में
आज
भी
वेश्या
को
अच्छी
नजर
से
नहीं
देखा
जाता, इसी
समाज
में
केशवदास
ज्ञान
की
देवी
सरस्वती
की
तुलना
प्रवीणराय
से
करते
हैं।
इन
पंक्तियों
से
प्रवीणराय
का
महत्व, केशवदास की
स्त्री
दृष्टि, उनकी
नज़र
में
हर
पेशे
को
समान
मानना
और
व्यक्ति
का
ज्ञानी
होना
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है, का
पता
चलता
है।
रीतिकालीन कवियों
ने
भक्तिकाल
की
भांति
स्त्री
को
प्रताड़ना
का
अधिकारी
नहीं
बनाया
है।
वह
औरत
को
सम्मान
देते
हैं।
उसके
हर
कार्य
को
महत्व
देते
हैं।
यही
कारण
है
कि
रीतिकाल
में
गणिका
नायिका
के
वही
मनोभाव
प्रकट
किए
हैं, जो
एक
स्वकीया
के
हैं।
वह
स्त्री
को
उसके
कार्य
या
व्यापार
से
नहीं
आंकते
बल्कि
उसके
भावों
को
देखते
हैं।
प्रवीणराय
अपने
समय
और
समाज
की
एक
महत्वपूर्ण
कवयित्री
हैं।
वह
दरबार
में
रहने
वाली
वेश्या
स्त्री
हैं।
दरबार
में
करुण
रस
का
प्रयोग
सम्भव
नहीं
है।
दरबारी
मानसिकता
में
सीख
कम, मनोरंजन का
साधन
ज्यादा
होती
है।
यही
कारण
है
कि
दरबारी
कवियों
ने
प्रेम, संयोग
चित्रण, वीर
रस
को
ज्यादा
महत्व
दिया
है।
प्रवीणराय
के
काव्य
में
भी
प्रेम, वीर
रस
का
ही
चित्रण
प्राय:
मिलता
है।
प्रवीणराय
ने
नायिका
को
देखकर
प्रियतम
की
बढ़ती
आतुरता
को
चित्रित
किया
है।
नायिका
-
नायक
का
वर्णन
करती
हुई
रचनाकार
लिखती
हैं-
जान अजानत जोरति दीठ बसीठ के ठौरन औरन ह ती॥
आतुरता पिय के जिय की लखि प्यारी प्रवीन बहै रसमाती।
ज्यों-ज्यों कछु न बसाति गोपाल की त्यों-त्यों फिरै मन में मुस्काती॥
नैवारि
लता
के
समान
कोमल
तथा
सुंदर
गुणों
से
युक्त
बाला
को
दूर
से
देखकर
नायक
के
नेत्र
लुब्ध
हो
रहे
हैं, जाने-अनजाने
मिल
जाने
वाली
दृष्टि
ही
संदेशवाहिका
बन
रही
है।
आंखों
की
आकांक्षा
में
आतुरता
के
चिन्ह
देख
रसमाती
बाला
मुस्काती
है।
ज्यों-ज्यों
गोपाल
विवश
होते
हैं, वह
उनकी
विवश्ता
का
आनंद
अपनी
मुस्कान
बनाकर
बिखरेती
जाती
है’।[2]
प्रवीणराय
को
बार-बार
पातुर
कहकर
साहित्येतिहासकार
उनकी
उपेक्षा
करते
हैं।
प्रवीणराय
के
प्रति
उनकी
भाषा
असहज
और
अशिष्ट
भी
हो
जाती
है।[3]
वह
दरबारी
स्त्री
भले
ही
थीं
पर
उनका
प्रेम
अपने
राजा
इंद्रजीत
से
था।
स्वकीया
स्त्री
का
जैसा
प्रेम
अपने
पति
से
हो
सकता
है
वैसा
ही
प्रेम
प्रवीणराय
इंद्रजीत
से
करती
हैं।
उनके
काव्य
का
आधार
ही
इंद्रजीत
का
प्रेम
हैं।
वह
लिखती
हैं-
लगन न दे रूप लैने करुन एक पल मिलै अभिराम तन विपत विकारहूँ॥
कहत प्रवीनराई मोज एक... कवैकी झ निवांए नैन ए दो वैन प्रतिपारहूँ॥
जा दिनां मै लैगौ मोहि इंद्रजीत प्रानप्यारौ दाह नौउन मूंद तोही सै निहारहूँ’।[4]
प्रवीणराय
कहती
हैं
कि
इंद्रजीत
ऐसे
शासक
हैं
जो
जनता
के
दु:खों
को
दूर
करते
हैं।
ऐसे
राजा
यदि
एक
पल
के
लिए
भी
मिल
जाएं
तो
मन
को
शांति
का
अनुभव
हो।
प्रवीणराय
इंद्रजीत
के
रूप
को
मन
में
बसा
कर
रखना
चाहती
हैं
लेकिन
इच्छा
उन्हें
देखने
की
भी
है।
ऐसे
में
संकट
है
कि
क्या
करे? इस
पर
कवयित्री
स्वयं
कहती
हैं
कि
जिस
दिन
मुझे
मेरे
प्राणों
से
प्यारे
इंद्रजीत
मिलेंगे
मैं
दाहिना
नेत्र
मूंद
कर
एक
ही
नेत्र
से
उन्हें
निहारूंगी।
वियोग
की
दशा
का
वर्णन
प्रवीणराय
के
काव्य
में
कम
ही
मिलता
है।
राजदरबार
में
विरह
के
पद
गाए
भी
नहीं
जा
सकते
थे।
इंद्रजीत
से
प्रवीणराय
का
प्रेम
था।
संयोग
होने
से
पहले
ही
कवयित्री
बिछडने
के
पल
को
सोचने
लगती
है।
रात
में
प्रिय
आएगा, सुबह
होते
ही
चला
जाएगा।
प्रिय
मिलन
की
अनुभूति
इतनी
कम
ही
होगी।
रचनाकार
सोचकर
ही
परेशान
हो
जाती
हैं
और
लिखती
हैं-
सारंग में सारंग सुनाइ के प्रवीन बीना,
बैठि पर्यंक पै निसंक हयै के अंक भरौं,
मोहिं मिलें इंद्रजीत धीरज नरिंदराय,
मिलन
की
रात्रि
समाप्त
न
हो
जाए
इसलिए
क्रूर
कुक्कुट
को
वह
कोठरी
में
बंद
कर
देना
चाहती
है।
उसकी
आवाज
को
भी
बंद
करने
की
वह
सोचती
है।
वह
सोचती
हैं
कि
सुबह
होते
ही
जो
चिड़िया
चहचहाने
लगती
है, उसे
जाली
में
बंद
कर
दूंगी।
वीणा
की
आवाज
से
चंद्र
के
मृगों
को
मुग्ध
करूंगी
और
दीपक
की
लौ
को
कपड़े
से
स्थिर
करके
समय
का
आभास
न
होने
दूंगी।
मैं
इंद्रजीत
को
अंक
में
भर
कर
उसके
अधर
का
पान
करूंगी
ताकि
वह
मुझ
में
लीन
होता
रहे
लेकिन
यह
सब
करने
पर
भी
समय
की
आवश्यकता
उसे
मुझसे
अलग
कर
देगी।
रात्रि
का
चाँद
छिप
कर
उन्हें
वक्त
के
समाप्त
हो
जाने
की
सूचना
दे
देगा।
ऐसे
में, ऐ
चंद्रमा, आप
से
प्रार्थना
है
कि
आज
की
रात
थोड़ा
मंद
गति
से
चलना, ताकि
मैं
ज्यादा
से
ज्यादा
वक्त
इंद्रजीत
के
साथ
बिता
सकूं।
विरह
में
नागमती
प्रकृति
से
बात
करती
है।
यहां
कवयित्री, विरह
न
हो
इसके
लिए, प्रकृति
की
शरण
में
गई
है
लेकिन
आलोचक
इस
ओर
इसलिए
ध्यान
नहीं
देंगे
क्योंकि
प्रवीणराय
वेश्या
थीं।
समकालीन
कवि
केशवदास
ने
प्रवीण
की
प्रशंसा
में
बहुत
कुछ
लिखा
है
वहीं
दूसरी
ओर
इतिहासकार
और
आलोचक
चुप्पी
लगा
गए
हैं।
स्त्री
दशा
का
वर्णन -
साहित्य
को
समाज
का
प्रतिबिम्ब
माना
जाता
है।
समाज
के
हर
वर्ग
का
प्रतिनिधित्व
साहित्य
में
मिल
जाता
है।
साहित्य
के
माध्यम
से
समाज
को
काफी
हद
तक
समझा
जा
सकता
है।
साहित्य
समाज
की
परिस्थितियों
का
वर्णन
करता
है।
सोलहवीं
शती
में
स्त्री-दशा
को
उसकी
उस
समय
की
महिला
रचनाकार
के
लेखन
से
समझा
जा
सकता
है।
प्रवीणराय
इन्द्रजीत
के
दरबार
में
रहती
थीं| एक
किंवदंती
है
कि
प्रवीणराय
की
प्रतिभा
को
सुनकर
अकबर
ने
उन्हें
अपने
दरबार
में
आने
के
लिए
कहा| यहाँ
दरबार
की
वह
प्रवृत्ति
उजागर
होती
है, जिसमें
वह
हर
अच्छी
चीज (स्त्री
वस्तु
नहीं
होती
किन्तु
समाज
ऐसी
ही
नजर
से
उसे
देखता
है) को
हथियाना
चाहता
है| माना
जाता
है
कि
दरबारी
वेश्या
का
कोई
आत्म
सम्मान
नहीं
होता, दरबार
के
साथ
उसे
व्यक्ति
भी
बदलने
पड़ते
हैं| अकबर
की
इस
इच्छा
को
प्रवीणराय
ने
इन्द्रजीत
के
दरबार
में
इस
तरह
रखा-
प्रवीणराय
भले
ही
वेश्या
थीं
पर
वह
सिर्फ
एक
पुरुष
को
ही
चाहती
थीं| पैसों
से
उसे
मोह
न
था| अकबर
के
दरबार
में
पहुँचने
पर
भी
उसने
अपनी
काव्य
कुशलता
से
वहाँ
से
बच
निकलने
का
मार्ग
खोजा| पुरुष
कभी
भी
झूठी
चीज
नहीं
खाता| यह
कार्य
तो
स्वान
यानी
कुत्ते
का
होता
है| अकबर
ने
जब
यह
सुना
तो
प्रवीणराय
को
वापस
भेज
दिया| वह
दोहा
था
-
प्रवीणराय
ने
प्राय: श्रृंगार
परक
काव्य
ही
लिखा
है।
अकबर
ने
रायप्रवीण
की
कविता
की
प्रशंसा
सुनकर
उन्हें
अपने
दरबार
में
बुलाया
था।
अकबर
की
प्रशंसा, उनकी
वीरता
का
वर्णन
कवयित्री
इन
शब्दों
में
करती
हैं-
भौंह कमान नहीं, मृग लोचन, खंजन क्यों न चगे तिल नेरे॥
है कचसाहु नहीं उदै इंदु सु, कीर के विम्बन चोंचन मेरे।
कोउ न काहू सों रोस करे सु, डरै उर साह अकब्बर तेरे’॥[8]
अकबर
ऐसे
हैं
कि
सारे
प्रतिमान
उनके
सामने
फीके
पड़
जाते
हैं।
अंग
कामदेव
समान, शेर
सी
कमर, भौंह
कमान
के
समान, आंख
मृग़
के
समान
सुंदर, चंचल
और
खंजन
पंछी
जैसी
हैं। अकबर का डर ही है कि कोई
किसी
से
रोष
नहीं
करता।
यानि
कोई
भी
राजा
किसी
अन्य
से
बैर
भाव
नहीं
रखता।
प्रवीणराय
के
काव्य
में
शिल्प
-
कविता
के
लिए
जितने
भाव
जरुरी
हैं
उतने
ही
शिल्प
भी।
शिल्प
विहीन
कविता
भावों
का
ढ़ेर
मात्र
बन
जाती
है
और
ढ़ेर
कभी
सुंदर
नहीं
लगता।
कविता
में
जितना
जरुरी
भाव
है
उतना
ही
शिल्प
भी
जरुरी
है।
मध्यकाल
में
महिला-लेखन
को
नकारने
का
एक
साधन
पुरुष
आलोचकों
के
पास
शिल्प
भी
था।
पुरुष
आलोचक
यह
मानते
रहे
कि
महिलाएं
शिल्प
में
उतनी
अच्छी
नहीं
हो
सकती
जितने
पुरुष
कारण
उन्होंने
चाहे
जो
दिया
हो
लेकिन
मुख्य
कारण
महिलाओं
को
शिक्षा
से
दूर
रखना
है। मध्यकालीन कवयित्री प्रवीणराय
के
काव्य
में
काव्यशिल्प
की
वह
सभी
विशेषता
मिल
जाती
हैं
जो
एक
पुरुष
रचनाकार
में
मिलती
हैं।
कवित्त छंद का प्रयोग प्रवीणराय की विशेषता है। इस छंद का प्रयोग कवयित्री इस प्रकार करती हैं-
लगन न दे रूप लैने करुन एक पल मिलै अभिराम तन विपत विकारहूँ॥
कहत प्रवीनराई मोज एक... कवै कीझ निवांए नैन ए दो वैन प्रतिपारहूँ॥
जा दिनां मै लैगौ मोहि इंद्रजीत प्रानप्यारौ दाह नौउन मूंद तोही सै निहारहूँ’।[9]
छंद
काव्य
को
और
अधिक
मुखर
करता
है।
कविता
में
प्रयोग
होने
वाले
छंद
उसकी
पठनीयता
को
बढ़ा
देते
हैं।
साथ
ही, उसको
याद
रखना
भी
सरल
हो
जाता
है। प्रवीणराय
के
काव्य
में
तत्कालीन
साहित्य
में
प्रचलित
छंद
स्थान
पाते
हैं।
केशवदास
की
शिष्या
कवयित्री
प्रवीणराय
ने
अनुप्रास
अलंकार
का
प्रयोग
इस
प्रकार
किया
है-
झूँठी पातर भखत हैँ, बारी बायस स्वान’॥[10]
यहाँ कवयित्री ‘सुनिए साह सुजान’ बारी बायस में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग करती हैं। एक अन्य जगह प्रवीणराय अनुप्रास का प्रयोग करती हुई लिखती हैं-
नंद लाल ग्वेंडे लाये लायक उपाय कर देषैंगे सु स्यांम मग्मगे भरबो करैं
गहकै किवार गढी हरह नवोटा नार वीनां नेहवारी वीच दीप बरबो करै’॥[11]
प्रथम
पंक्ति
में ‘सुता
साज
कै
सिंगार
सार
सषिन
सूं
धार
सब, करबो
करै
में’ क्रमश: ‘स’ और ‘क’ वर्ण
का
प्रयोग, ‘लाये
लायक’ में ‘ल’ वर्ण, ‘नवोटा
नार’ में ‘न’ वर्ण
की
आवृत्ति
होने
से
अनुप्रास
अलंकार
है।
साथ
ही
पद
में
लयात्मकता
भी
है।
रत्नावली
के
काव्य
में
अनुप्रास
इस
प्रकार
मिलता
है|
प्रवीणराय
दरबार
में
रहने
वाली
महिला
थीं| प्रवीणराय
के
काव्य
में
दरबारी
श्रृंगार
देखने
को
मिलता
है| दरबारी
व्यक्तियों
को
कवित्त
इस
तरह
से
सुनाना
कि
उनके
सामने
चित्र
उपस्थित
हो
जाए, यह
कवि
के
लिए
बहुत
बड़ी
चुनौती
थी| दरबारी
काव्य
के
प्राय: सभी
कवियों
में
इस
विशेषता
को
देखा
जा
सकता
है| प्रवीणराय
के
काव्य
में
भी
यह
विशेषता
देखने
को
मिलती
है| रीतिकालीन
कवि
वेश्या
को
भी
नायिका
का
दर्जा
देते
हुए
अपने
काव्य
में
उसे
स्थान
देते
हैं| गणिका
का
चित्र
प्रवीणराय
कुछ
इस
तरह
खींचती
हैं-
रात
भर
केलि-क्रिया
में
रत
रहने
के
बाद
नायिका
के
बाल
खुले
हैं, वह
अलबेली
सी
चाल
चल
रही
है।
रति-क्रिया
और
रात-भर
जागने
के
कारण
उसके
पैर
सीधे
नहीं
पड़
रहे
हैं।
नायिका
ने
मुख
में
पान
भरा
हुआ
है, उसकी
कमर
पतली
है।
उसका
वक्ष
बिना
वस्त्रों
के
है।
उसकी
यह
दशा
मन
को
मोहित
कर
रही
है।
नायक
से
नायिका
अपने
मन
की
बात
निसंकोच
कह
देती
है, ऐसे
में
वह
मन
को
हर
लेती
है।
प्रवीणराय
काव्य
कुशल
थीं।
उनकी
भाषा
में
वह
शास्त्रीयता
मिलती
है, जो
मध्यकालीन
दरबार
की
विशेषता
कही
जाती
है।
पूरी
बात
को
कुछ
शब्दों
में
समेट
देना
रचनाकार
की
भाषा
पर
पकड़
को
बताता
है।
प्रस्तुत
बात
को
पुष्ट
करता
एक
उदाहरण
है-
राखन निज पत हेत जगत में अनगिनत आफत झेली।
अब तो नाचूँ पिय ढ़िग या पद आपु नचै हों।
राय प्रवीण प्रतिज्ञा पति पद काहुहि मुख न दिखैं हों’॥[13]
यहाँ
प्रवीणराय
ने
प्रथम
पंक्ति
में
नाची, खायी, खेली, तीन
शब्दों
के
प्रयोग
मात्र
से
अपने
जीवन
को
सम्पूर्ण
रूप
से
उजागर
कर
दिया
है।
कहते
हैं
बिहारी
के
दोहे
इस
तरह
से
बने
हैं
कि
उनसे
एक
भी
शब्द
इधर-उधर
करना
मुश्किल
है।
प्रवीणराय
की
प्रथम
पंक्ति
के
ये
तीन
शब्द
बिहारी
सतसई
की
विशेषता
को
समेटते
हैं।
इन
तीन
शब्दों
में
कवयित्री
ने
अपने
जीवन
को
बखूबी
चित्रित
कर
दिया
है।
यह
पूरा
पद
वेश्या
के
जीवन
को
तो
बताता
ही
है
साथ
ही
प्रवीण
की
शब्द
चयन
शैली, मुहावरा
प्रयोग (आफत
झेली) व
गागर
में
सागर
भरने
की
कला
को
भी
स्पष्ट
करता
है।
प्रवीणराय
दरबार
में
रहने
वाली
कवयित्री
थीं| आलोचकों
ने
उन्हें
वेश्या
माना
है, लेकिन
इन्द्रजीत
के
प्रति
उनका
प्रेम
उन्हें
वेश्या
की
श्रेणी
में
नहीं
रहने
देता| दरबारी
होने
के
कारण
उनकी
लेखनी
में
श्रृंगार
के
साथ
वीर
रस
का
गुण
भी
मिलता
है| इन्द्रजीत
के
युद्ध
को
विषय
बनाकर
लिखा
गया
उनका
एक
पद
द्रष्टव्य
है-
भारथ माचायो तै भुजान धर भीम सम,
लोथ पर लोथ धाह धरया उर जिय तेरे,
इंद्रजीत औ हठे कै उग्रसेन उग्र तेज,
जहाँ
जायसी
जैसे
बड़े
कवि
सोलहवीं
शती
में
स्त्री
को
मर
जाने (जौहर)
की
हिदायत
देते
हैं
और
काव्य
में
उसे
मारते
भी
हैं, वहीं
प्रवीणराय
ऐसा
नहीं
करतीं।
वह
प्रेम
में
जीना
जानती
हैं।
अकबर
ने
प्रवीणराय
से
प्रभावित
होकर
उन्हें
अपने
महल
में
आने
का
निमंत्रण
दिया, पर
वह
नहीं
गयी।
फलस्वरूप
इंद्रजीत
पर
दंड़
लगाते
हुए
अकबर
ने
प्रवीणराय
को
अपने
दरबार
में
बुला
लिया।
प्रवीणराय
दरबार
की
स्त्री
थी
पर
इंद्रजीत
से
उनका
प्रेम
पति-पत्नी
समान
था।
अत: अकबर
के
दरबार
में
जाने
से
प्रवीण
राय
ने
मना
कर
दिया
लेकिन
दंड
के
आगे
प्रवीण
को
झुकना
पड़ा।
ऐसे
में
प्रवीणराय
युद्ध
नहीं
लड़ती।
जौहर
या
सती
नहीं
अपनाती।
आत्महत्या
के
अन्य
उपाय
नहीं
करती, बल्कि
अपनी
काव्य
कला
से
अकबर
को
प्रसन्न
करती
है।
अकबर
के
सामने
प्रवीणराय
ने
यह
दोहा
सुनाया-
जूठी पतरी भखत हैं, वारी-वायस स्वान’॥[15]
सोलहवीं
शती
के
पुरुष
रचनाकार
(जायसी) स्त्री
के
मरने
में
अपने
काव्य
की
सुंदरता
देखते
हैं।
कोई
स्त्री
को
ताड़ना
का
अधिकारी
बनाता
है
तो
कोई
उसे
नागिन
तक
कह
देता
है।
किंतु
स्त्रियाँ
वास्तव
में
ऐसी
नहीं
हैं।
सिख
सम्प्रदाय
भी
स्त्री
के
प्रति
थोड़ी
अलग
धारणा
रखता
है।
प्रवीणराय
लिखती
हैं
तो
बताती
हैं
कि
कैसे
स्त्री
संयोग
में
भी
वियोग
की
दशा
का
अनुभव
कर
व्याकुल
हो
जाती
है
इसलिए
वह
जतन
करती
है
ताकि
उसकी
रात
लम्बी
हो
और
प्रिय
का
अधिक
से
अधिक
समय
उसको
मिल
सके।
मध्यकाल में, जहाँ स्त्री को सांस लेने की आज़ादी भी पितृसत्ता नहीं देती थी, प्रवीणराय तथा अन्य स्त्रियों द्वारा इस तरह से अपनी यौनिकता की अभिव्यक्ति बहुत बड़ी बात है। किसी भी बात को जैसे ठीक लगा कह दिया। अपने आप को यह स्वतंत्रता रचनाकार देती हैं। शायद यही कारण है कि उनका लेखन साहित्य नहीं माना गया। आज के हिंदी-महिला-लेखन में तीखेपन, यौनिक अभिव्यक्ति, विचारों का खुलापन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व दवाब रहित लेखन में सोलहवीं शती के स्त्री-लेखन की छाया देखी जा सकती है। अनुभव को अभिव्यक्ति थेरीगाथा में भी दी गयी है, लेकिन मध्यकाल में वह विद्रोह मिलता है, जो बुद्धकाल की रचनाकारों में भी नहीं था।
प्रवीणराय
इंद्रजीत
से
प्रेम
करती
हैं।
वह
इंद्रजीत
की
पत्नी
नहीं
हैं।
नेह
का
नाता
है, लेकिन
भाव
वही
है।
समाज
इस
बात
पर
बल
देता
है
कि
महिला
की
जिस
पुरुष
के
साथ
शादी
हो, उसकी
ही
होकर
रहे।
पति
को
ही
सब
कुछ
माने।
प्रवीणराय
की
यह
सबसे
बड़ी
देन
है
कि
वे
अपने
लेखन
में
इस
बात
को
स्पष्ट
करती
हैं
कि
मन
मिलना
किसी
भी
संबंध
में
जरुरी
है।
कृष्ण-काव्य
में
गोपियों
का
वर्णन
कवियों
ने
किया
है।
गोपियाँ
प्रेमिका
हैं।
वे
कृष्ण
की
पत्नी
नहीं
हैं।
वहाँ
पति
से
ज्यादा
स्त्री
के
प्रेमी
को
महत्व
दिया
गया
गया
है।
प्रवीणराय
किसी
अन्य
माध्यम
से
बात
नहीं
कहती।
उनका
लेखन
स्वयं
का
लेखन
है।
किसी
और
की
बात
यह
कवयित्री
नहीं
करती, अपने
ही
भावों
को
उन्होंने
अपने
लेखन
का
आधार
बनाया
है।
विवाह
के
बाद
भी
प्रेम
किया
जा
सकता
है।
प्रेम
करना
कोई
गुनाह
नहीं
है।
मानवीय
गुण
है।
वह
अपने
लेखन
में
इस
बात
को
बार-बार
स्पष्ट
करती
हैं।
जिससे
मन
लगा
वह
उसी
की
होकर
रहेंगी।
आज
भी
समाज
इस
बात
को
स्वीकार
नहीं
कर
पाता
कि
स्त्री
अपने
प्रेमी
को
अपनाए।
सोलहवीं
शती
की
महिलाओं
का
ऐसा
करना
बहुत
बड़ा
क्रांतिकारी
कदम
था।
पति
परमेश्वर
है, इसलिए
उसके
खिलाफ
कोई
बोल
कैसे
सकता
है? यही
धारणा
घरेलू
हिंसा, मेरिटल
रेप, दहेज, हत्या, मानसिक
प्रताड़ना, शारीरिक
शोषण
को
जन्म
देती
है।
पति
की
आज्ञा
मानते
हुए
वह
लगातार
बच्चे
पर
बच्चे
पैदा
करती
है
और
इसी
में
खत्म
भी
हो
जाती
है।
निष्कर्ष : प्रवीणराय
का
लेखन
अपने
आप
में
एक
विरोध
है।
जब
महिलाएं
विभिन्न
कुरीतियों
की
शिकार
थीं, उस
समय
यह
महिला
एक
कदम
आगे
बढ़कर
लेखन
कार्य
करती
हैं।
पढ़ती
हुई
स्त्री
से
ज्यादा
खतरनाक
लिखती
हुई
स्त्री
होती
है, क्योंकि
वह
सच
लिख
सकती
है।
बोलने
को
चुप
किया
जा
सकता
है, लेकिन
लेखन
हमेशा
रहता
है।
प्रवीणराय
का
लेखन
वही
चुभने
वाला
लेखन
है।
पद्मावत
की
समीक्षा
में
जिस
जौहर
प्रथा
का
समर्थन
रामचंद्र
शुक्ल
उन्नीसवीं
शती
में
करते
हैं, उसका
विरोध
हमें
सोलहवीं
शती
की
मीराबाई, प्रवीणराय
के
काव्य
में
मिलता
है।
प्रवीणराय
को
उनके
पेशे
के
कारण
इतिहासकार
उचित
स्थान
नहीं
देते
जबकि
यह
रचनाकार
भाव
और
शिल्प
दोनों
की
दृष्टि
से
उच्च
कोटि
की
हैं।
उनका
लेखन
स्त्री-मन
की
अभिव्यक्ति
का
लेखन
है।
संदर्भ
:
[1] डॉ.सावित्री सिन्हा, मध्यकालीन हिंदी कवयित्रियाँ, आत्माराम एंड संस,
दिल्ली, प्रथम संस्करण-1953, पृष्ठ संख्या-240
[2]
वही, पृष्ठ संख्या-242
[3] जार्ज ए ग्रियर्सन, हिंदुस्तान का आधुनिक भाषा साहित्य, द एशियाटिक सोसाइटी 57, पार्कसट्रीट,
कलकत्ता, संस्करण 1889, पृष्ठ संख्या-153
[4]
क्रमांक्र 18833, पद्माकर के स्फुट कवित्त आदि,
हस्तलिखित ग्रंथ संग्रह, राजस्थान प्राच्य विद्या
प्रतिष्ठान, जोधपुर, भाषा-हिंदी, लिपि समय-19वीं
[5]
सावित्री सिन्हा, वही, पृष्ठ
संख्या-244
[6]
देवी प्रसाद ‘मुंसिफ़’, महिला
मृदुवाणी, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, बनारस,
संस्करण 1905, पृष्ठ संख्या-82
[7]
वही, पृष्ठ संख्या-83
[8]
सावित्री सिन्हा, वही, पृष्ठ
संख्या-241
[9]
क्रमांक्र 18833, पद्माकर के स्फुट कवित्त आदि,
हस्तलिखित ग्रंथ संग्रह, राजस्थान प्राच्य विद्या
प्रतिष्ठान, जोधपुर, भाषा-हिंदी, लिपि समय-19वीं
[10]
देवी प्रसाद ‘मुंसिफ़’, वही,
पृष्ठ संख्या-83
[11]
क्रमांक 2345, ग्रंथ नाम प्रवीण सागर, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर,
भाषा-हिंदी, लिपि समय-1910
[12]
किशोरीलाल गुप्त(सं), शिवसिंह
सरोज, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग,
संस्करण 1970ई, पृष्ठ संख्या-310
[13]
हरिविष्णु अवस्थी, बुंदेलखंड की कवयित्रियाँ,
सरस्वती साहित्य संस्थान, संस्करण, प्रथम संरकरण-2016, पृष्ठ संख्या-36
[14]
वही, पृष्ठ-39
[15]
व्यथित ह्रदय, हिन्दी काव्य की कलामयी
तारिकाएँ, प्रोप्राइटर–प्रमोद पुस्तकमाला, कटारा, प्रयाग, संस्करण-1941,
पृष्ठ संख्या-27
पता- सी-77, शिव गली, नानक चंद बस्ती, कोटला मुबारक पुर, नई दिल्ली-110003
aar.prajapati@gmail.com
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