कुमाऊँ हिमालय के
गंगोलीहाट विकासखंड में जल संसाधनों की स्थिति, वितरण एवं उनका पारंपरिक
प्रबंधन
तनुजा पोखरिया, डॉ. मंजुला चंद, प्रो. डी. सी. पांडे
शोध सार -हिमालय अपने जल संसाधनों, वन विविधता, अद्वितीय वन्य जीवन, समृद्ध संस्कृति और पवित्र हिन्दू तीर्थस्थल के
लिए प्रसिद्ध रहा है। वर्तमान अध्ययन का मुख्य उद्देश्य गंगोलीहट विकासखंड के जल
संसाधनों की स्थिति वितरण का आंकलन करना था। वर्तमान अध्ययन में जल संसाधनों एवं
उनके पारंपरिक प्रबंधन प्रणाली को क्षेत्रीय सर्वेक्षण के माध्यम से एकत्र किया
गया और विभिन्न विधियो का प्रयोग किया गया जिसमें प्रश्नावली,व्यक्तिगत साक्षात्कार, समूह चर्चा एवं जीपीएस
सर्वेक्षण सम्मिलित है। अध्ययन से ज्ञात है की गंगोलीहट विकासखण्ड में जल के मुख्य
स्रोत वर्षा जल, छोटी नदियाँ, धारे/नौले (स्प्रिंग्स)हैं। जल प्रबंधन के लिए स्थानीय ग्रामीण समुदाय ने
स्वदेशी ज्ञान के आधार पर जल संरक्षण व प्रबन्धन की अपनी पारंपरिक प्रणाली विकसित
की है। यद्यपि विगत वर्षों में ग्रामीण क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सामाजिक आर्थिक
परिवर्तनों एवं स्थानीय पारंपरिक ज्ञान में रूचि न होने के कारण यह ज्ञान कम हो
गया है। स्थानीय ग्रामीण समुदाय द्वारा स्थानीय स्वदेशी ज्ञान का उपयोग करके गूल
(छोटी पहाड़ी नहरें), चैक डैम का निर्माण चाल-खाल (गड्ढ़े) का उपयोग जल भण्डारण
एवं वर्षा जल संचयन के लिये किया जाता है।
मुख्य शब्दः गंगोलीहाट विकासखण्ड, जल संसाधन, पारम्परिक जल प्रबन्धन, स्प्रिंग,
प्रस्तावना
पर्वतीय क्षेत्रों में प्राकृतिक जल स्त्रोत
दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले मानव समुदाय के लिए उच्च गुणवत्ता और वर्ष भर ताजे
जल की आपूर्ति का महत्वपूर्ण स्त्रोत है। ये प्राकृतिक जल स्त्रोत हिमालय में
समृद्ध जैव विविधता एवं पारिस्थितिक तन्त्र को सतत बनाये रखते हैं। दूरस्थ पर्वतीय
क्षेत्रों के मध्यम ऊँचाई वाले क्षेत्रों (500-2000 मीटर) में स्थित
बस्तियों व गाँवों में तीव्र बहती हुयी नदियों या ग्लेशियरों के जल तक पहुँच एक
कठिन कार्य है। साथ ही जलापूर्ति के बुनियादी ढाँचे का निर्माण और रखरखाव एक चुनौती है। इसीलिए प्राकृतिक जल स्त्रोत (धारे, नौले) हिमालयी समुदाय के
लिए उच्च गुणवत्ता वाले ताजे जल का सबसे महत्वपूर्ण स्त्रोत है। उत्तराखण्ड हिमालय
क्षेत्र की लगभग 60-70% जनसंख्या घरेलू एवं
आजीविका की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रत्यक्ष रूप से प्राकृतिक स्त्रोतों (Springs) पर निर्भर है
(नीति आयोग 2018) सिद्धिकी एवं
अन्य 2019)। इसके अतिरिक्त
यहाँ के निवासियों के लिए प्राकृतिक स्त्रोतों (धारे एवं नौले) का उच्च सांस्कृतिक
एवं धार्मिक मूल्य भी है। प्रचुर मात्रा
में जल संसाधनों के होने पर भी हिमालयी समुदायों को निरन्तर जल की कमी एवं प्रदूषण
के मुद्दों के साथ गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ रहा है। वनों का विनाश, अनियोजित शहरी विकास, खनन, अनियोजित सड़क निर्माण, उत्खनन (Quarrying) एवं पर्यटन
इत्यादि के कारण क्षेत्र के जल संसाधनों के लिए चुनौतियाँ उत्पन्न करते हैं (वर्मा
एवं जमवाल 2022)। तीव्र जलवायु
परिवर्तन, अनियोजित वर्षा
प्रतिरूप, बढ़ती चरम घटनाओं
के साथ हिमालय क्षेत्र में जल संकट के तीव्र गति से बढ़ने का अनुमान है (मुखर्जी
एवं अन्य,
2015)। पिछले कुछ दशकों में लगभग 60% कम जल प्रवाह वाले स्त्रोत में स्पष्ट रूप से हृास दर्ज किया गया है। एवं
शुष्क अवधि के विस्तार से बारहमासी नदियाँ एवं छोटी जल धारायें मौसमी बन गई है
जिससे हिमालय के ग्रामीण एवं दूरस्थ क्षेत्र प्रभावित हुये हैं। (नीति आयोग, 2018 B)। तापमान और वर्षा में परिवर्तन के कारण जल की उपलब्धता, गुणवत्ता और जल का प्रवाह
प्रभावित होते हैं। इस परिवर्तनशीलता के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में ताजे जल के स्थानिक
व कालिक वितरण धीरे-धीरे प्रतिकूल परिस्थितियों में बदल रहे हैं (चैम्पगैन एवं
प्रेमसागर व अन्य, 2017)। तापमान और वर्षा
में परिवर्तन के कारण जल की उपलब्धता, गुणवत्ता और जल का प्रवाह प्रभावित होते हैं।
इस परिवर्तनशीलता के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में ताजे जल के स्थानिक व कालिक वितरण
धीरे-धीरे प्रतिकूल परिस्थितियों में बदल रहे हैं (चैम्पगैन एवं प्रेमसागर व अन्य, 2017)।
अध्ययन क्षेत्र
प्रस्तुत शोध का अध्ययन क्षेत्र भारत के
पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड के कुमाँऊ हिमालय के अन्तर्गत सम्मिलित जनपद पिथौरागढ़
में स्थित गंगोलीहाट विकासखण्ड है।
गंगोलीहाट विकासखण्ड का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 362.45वर्ग कि॰मी॰ है।
गंगोलीहाट विकासखण्ड का अक्षांशीय विस्तार 29° 32’ से 29° 48’ 45’’ उत्तर तथा
देशान्तरीय विस्तार 79° 49’ 10’’ पूर्व से 80° 10’ 0’’ पूर्व तक है। विकासखण्ड में कुल 298 गाँव हैं जिनमें से 79 ग्रामों के जल संसाधनों
का अध्ययन किया गया है।
जल स्त्रोतों के अध्ययन
की शोध प्रविधि
अध्ययन क्षेत्र में आंकड़ों को एकत्र करने के
लिए विभिन्न विधियों का प्रयोग किया गया था, इनमें जी॰ पी॰ एस॰
सर्वेक्षण, साक्षात्कार एवं
पारिवारिक प्रश्नावली सर्वेक्षण सम्मिलित थे। जल स्त्रोत की विभिन्न सूचनायें जैसे
- ऊँचाई, आस-पास के
क्षेत्र का भूमि उपयोग जल का स्राव, जल स्त्रोत पर
स्वामित्व, जल स्त्रोत पर निर्भर परिवारों की संख्या
इत्यादि सर्वेक्षण किया गया।
जल स्राव की माप
जल स्त्रोतों के स्राव में मौसम के अनुसार
उतार-चढ़ाव होता है। यह मुख्य रूप से पुनर्भरण क्षेत्र ;त्मबींतहम ।तमंद्ध में
वर्षा के प्रतिरूप में भिन्नता एवं वर्षा जल के रिसने की मात्रा पर निर्भर करता है
(तलूर व अन्य,
2020)। जल स्त्रोतों के स्राव का मापन ग्रीष्मकाल (मानसून पूर्व), मानसून काल एवं शीतकाल
में किया गया था। जल स्राव के मापन के लिए कंटेनर/स्टॉपवॉच विधि का प्रयोग किया
गया था जिसमें प्रवाह की ज्ञात मात्रा Flow (Q)
को एक कंटेनर में
एकत्र किया गया। जल स्राव के निर्धारण के लिए समय
को आधार मानकर कंटेनर में भर लिया गया। जल स्राव के समीकरण का उपयोग करके
प्रवाह (Flow) की गणना की गई। यह प्रवाह की गणना करने का सबसे
सरल विधि में से एक है। Q = v/t (तलूर व अन्य 2020)।
गंगोलीहाट विकासखण्ड में
प्राकृतिक जलस्त्रोतों का वितरण
विभिन्न अध्ययनों में यह बताया गया है कि
हिमालयी जल स्त्रोत का वितरण स्थलाकृति, वर्षा एवं पुनर्भरण क्षेत्र की विशेषताओं पर
निर्भर होता है। (महामुनी एवं कुलकर्णी, 2012)। उत्तराखण्ड राज्य के नैनीताल जनपद में तिवारी
एवं जोशी 2013 के अध्ययन से
ज्ञात है कि जल स्त्रोत मध्यम ऊँचाई (1600-2500) मीटर की तुलना में कम ऊँचाई (1500 मी॰ से नीचे) तथा उच्च
हिमालयी क्षेत्रों (2500 मीटर से ऊपर) में अधिक पाये गयें। सिक्किम हिमालय के
अध्ययन से ज्ञात है कि समान विशेषताओं वाले क्षेत्रों (975-1600 मीटर) की ऊँचाई पर जल
स्त्रोतों की संख्या अधिक है (महामुनी एवं कुलकर्णी 2012)। चयनित क्षेत्र
गंगोलीहाट में 79 जल स्त्रोतों का
सर्वेक्षण किया गया है जिनमें 93% बारहमासी हैं। ऊँचाई के
आधार पर देखा जाए तो 63% जल स्त्रोत 1100-1500 मीटर की ऊँचाई
पर पाये गये हैं (तालिका 1)। प्राकृतिक जलस्त्रोतों की संख्या 1500 मीटर की ऊँचाई तक अधिक
है (मानचित्र 1)।
तालिका 1: चयनित ग्रामों
में ऊँचाई के आधार पर स्प्रिंग की संख्या -
ऊँचाई मीटर
में |
चयनित ग्राम |
जलस्त्रोत के प्रकार |
योग |
प्रतिशत |
|
|
धारे |
नौले |
|||
1100 से नीचे |
7 |
06 |
01 |
7 |
8.97 |
1100-1500 |
29 |
26 |
23 |
49 |
62.82 |
1500 से ऊपर |
16 |
15 |
08 |
23 |
2.21 |
योग |
52 |
47 |
32 |
79 |
100 |
स्त्रोत: क्षेत्रीय अवलोकन एवं GPS सर्वेक्षण 2022
प्रवाह दर के आधार पर जल स्त्रोतों का वितरण
स्त्रोतों का प्रवाह दर पूर्णतया भिन्न है।
प्रवाह दर एवं ऊँचाई के सन्दर्भ में जल स्त्रोतों के वितरण में समान प्रतिरुप नहीं
है। जलस्त्रोत का प्रवाह का मापन शीतकाल, शुष्क मानसून काल एवं मानसून काल में किया गया।
अध्ययन क्षेत्र में शुष्क मौसम (अप्रैल से मई) में 19 प्रतिशत जल स्त्रोतों का
प्रवाह दर 5 लीटर/मिनट से कम
था जबकि यह शीतकाल में 8 प्रतिशत एवं मानसून काल में 4 प्रतिशत था। शुष्क मौसम
मं उच्च प्रवाह वाले स्त्रोत की संख्या सबसे कम (35 लीटर/मिनट) 1 प्रतिशत थी जबकि मानसून
काल में उच्च प्रवाह वाले स्त्रोत की संख्या 29 प्रतिशत एवं शीतकाल में 14 प्रतिशत थी तालिका 2। 36 प्रतिशत स्त्रोत के
प्रवाह दर के आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं, क्योंकि इन स्त्रोतों में जल की कमी थी अथवा
स्त्रोत की बनावट प्रवाह दर मापने के अनुकूल नहीं थी। उच्च प्रवाह वाले स्त्रोतों
की तुलना में निम्न प्रवाह वाले छोटे स्त्रोतों की संख्या अधिक है। तालिका से
स्पष्ट है कि मानसून काल में स्त्रोतों के प्रवाह दर में वृद्धि हुयी है। 29 प्रतिशत जल स्त्रोत में 30 लीटर प्रति मिनट से अधिक
प्रवाह दर पायी गई जबकि शुष्ककाल में मात्र 2 प्रतिशत स्त्रोतों का
प्रवाह दर 30 लीटर प्रति मिनट
से ऊपर था। अतः वर्षा प्रतिरुप का प्रभाव प्रवाह दर पर पड़ता है।
तालिका 2: विकासखण्ड गंगोलीहाट में प्रवाह दर के आधार पर जल स्त्रोतों का वितरण
प्रवाह दर लीटर/मिनट |
स्त्रोतों की संख्या |
प्रतिशत |
||||
शीतकाल |
शुष्क ग्रीष्मकाल |
मानसून काल |
शीतकाल |
शुष्क ग्रीष्मकाल |
मानसून काल |
|
5 से नीचे |
6 |
15 |
3 |
8 |
19 |
4 |
5-15 |
17 |
14 |
13 |
21 |
17 |
16 |
15-25 |
6 |
13 |
8 |
14 |
16 |
10 |
25-35 |
10 |
7 |
3 |
8 |
9 |
4 |
35 से ऊपर |
11 |
01 |
23 |
14 |
1 |
29 |
आँकड़े उपलब्ध नहीं |
29 |
29 |
29 |
36 |
36 |
36 |
योग |
79 |
79 |
79 |
100 |
100 |
100 |
स्त्रोतः क्षेत्रीय सर्वेक्षण 2022
मानचित्र 1: विकासखण्ड गंगोलीहाट में ऊँचाई के आधार पर जल स्रोतों का वितरण
सर्वेक्षित 79 जल स्त्रोतों में से 5 जल स्त्रोतों पर गांव के 100% परिवार निर्भर हैं।
जहाँ घरेलू जलापूर्ति के कनेक्शन नहीं हैं भामा गाँव में स्त्रोत को ताले द्वारा
बन्द किया जाता है तथा प्रातः एवं सायंकाल में गाँव में पानी को वितरित किया जाता
है। चाखबोरा, झलतोला, पिल्खी गाँव में भी ऐसी
परिस्थितियाँ पायी गई। शुष्क ग्रीष्मकाल में 1500 मीटर से ऊपर की ऊँचाई में
स्थित ग्रामों में जल स्त्रोत की अत्यधिक कमी हो जाती है। इन परिस्थितियों में
गामीण इन्हीं जल स्त्रोतों पर पूर्ण रूप से निर्भर हो जाते है एवं तीव्र जल संकट
का सामना करना पड़ता है। 40% जल स्त्रोत ग्रीष्मकाल में घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति
करते हैं। 6% जल स्त्रोत
पूर्ण रूप से अनुपयोगी हो गये हैं। उचित प्रबन्धन न होने व उपेक्षित होने से इनका
प्रवाह भी कम हो गया है। कुछ जल स्त्रोतों में जल का स्त्राव मुख्य धारा में न
होकर रिस गया है। यदि इन स्त्रोतों का संरक्षण न किया जाए तो कुछ वर्षों में इनके
सूखने की सम्भावना हो सकती है। कुछ जलस्त्रोत ऐसे हैं जिनमें जल का प्रवाह
पर्याप्त है। परन्तु घरेलू जलापूर्ति के कनेक्शन की सुविधा होने से उपेक्षित हैं
एवं स्वच्छता एवं दीवारें न होने से दूषित भी हो गये हैं। उचित प्रबन्धन न होने व
उपेक्षित होने से इनका प्रवाह भी कम हो गया है। कुछ जल स्त्रोतों में जल का
स्त्राव मुख्य धारा में न होकर रिस गया है। यदि इन स्त्रोतों का संरक्षण न किया
जाए तो कुछ वर्षों में इनके सूखने की सम्भावना हो सकती है। मानवजनित गतिविधियों के कारण जल स्त्रोतों के
प्रवाह में कमी आई है। जिनमें भूमि उपयोग परिवर्तन प्रमुख कारणों में से एक है।
वनों का कटान,
शहरीकरण, कृषि खनन और उत्खनन एवं
जल की बढ़ती माँग के कारण भूमि उपयोग परिवर्तन हुये है एवं जल संसाधनों की
प्राकृतिक गतिशीलता मे भी परिवर्तन हुये हैं (तिवारी एवं जोशी, 2012)।
जल संसाधन संरक्षण एवं
प्रबन्धन की परम्परागत विधियों का अनुप्रयोग
हिमालयी क्षेत्र के अन्य भागों की तरह जनपद
पिथौरागढ़ में भी स्थानीय ग्रामीण समुदाय ने स्वदेशी ज्ञान के आधार पर जल संरक्षण व प्रबन्धन की अपनी
पारंपरिक प्रणाली विकसित की है। यद्यपि विगत वर्षों में ग्रामीण क्षेत्रों में महत्वपूर्ण
सामाजिक आर्थिक परिवर्तनों एवं स्थानीय पारंपरिक ज्ञान में रूचि न होने के कारण यह
ज्ञान कम हो गया है। क्षेत्रीय सर्वेक्षण के दौरान अधिकांश उत्तरदाताओं ने विभिन्न
तकनीकों से पारंपरिक जल प्रबन्धन में अपना अनुभव व्यक्त किया है। जल संसाधनों के
संरक्षण में नैतिक एवं धार्मिक मूल्य महत्वपूर्ण घटक होते हैं। कुछ गांवों में
ग्रामीणों को जल संरक्षण तकनीकी का अच्छा ज्ञान है। क्षेत्र के प्रस्तावित
जलप्रबन्धन गतिविधियों में ये घटक भी सम्मिलित हैं। अध्ययन क्षेत्र में जल संचयन
एवं प्रबन्धन की कुछ प्रमुख परम्परागत विधियाँ निम्नवत् है।
धारा (मुंगरू): अध्ययन क्षेत्र में धारा पेयजल का प्रमुख स्त्रोत है। भूमिगत स्त्रोतों से जल को नक्काशीदार निकास मार्ग के माध्यम से बाहर निकाला जाता है। जिस मार्ग से जल बाहर निकलता है उनका आकार हाथी, गाय, बैल (नंदी) या शेर के चेहरे जैसा बनाया जाता है। कुछ धारे साधारण पाइप के आकार के होते हैं। वर्तमान समय में इन परंपरागत आकृतियों को पाइप लाइन की आकृति में परिवर्तित कर दिया है (छायाचित्र 1)।
छायाचित्र 1: विभिन्न पारंपरिक जल संसाधनः नौला, धारा एवं पारंपरिक चक्की (जातरा)
नौला: नौला, चारों ओर से सीढ़ी वाले
उपले कुएँ होते हैं। ये विशेष रूप से मध्य हिमालय क्षेत्र के उन भागों में पाये
जाते हैं जहाँ जल की कमी होती है। अध्ययन क्षेत्र मे गंगोलीहाट विकासखण्ड में अधिक
नौले पाये गये हैं। ये नौले भूमिगत रिसाव या स्त्रोतों से जल एकत्र करने के लिए
डिजाइन किये गये है एवं स्थानीय समुदायों की द्वारा घरेलू जलापूर्ति के लिए उपयोग
किये जाते हैं। कुएं का निर्माण उल्टे टेपेजाइड (समलम्ब, चतुर्भुज) के रूप में
किया जाता है। नौला तीन ओर से दीवार के घिरा हुआ है एवं छत पत्थर की शिलाओं से बना
है। सीढ़ीयों की दरारों से जल का रिसाव हो सकता है। कभी-कभी स्त्रोत एक से पाँच
मीटर दूर हो सकता है। जल को एक चैनल या पाइप द्वारा कुएँ में ले जाया जा सकता है। जल की कमी वाले क्षेत्रों में जल संचयन एवं
संरक्षण के लिए ये विधि उपयोगी होती है। अध्ययन क्षेत्र में नौलों की स्थिति उचित
नहीं है। नौलों की खराब स्थिति सामुदायिक जल प्रबन्धन में गिरावट को दर्शाती है।
अध्ययन क्षेत्रों के उपेक्षित नौले के प्रबन्धन एवं संरक्षण के लिए इन स्त्रोतों
की पहचान करना आवश्यक है(छायाचित्र 1)।
चाल-खाल (ताल): पर्वतीय
क्षेत्रों में विभिन्न प्राकृतिक संरचनाओं या गड्ढ़ों का उपयोग वर्षा जल संचयन के
लिए किया जाता है, जिन्हें चाल एवं खाल कहा जाता है। मूल रूप से खाल दो शिखरों
के बीच काठी में पहाड़ की चोटी के साथ पाये जाते हैं। खाल (झील) आकार में बड़े होते
हैं। एवं कई हजार क्यूबिक मीटर जल को संग्रहित करते हैं। संग्रहित जल का उपयोग
घरेलू उद्देश्यों एवं कृषि के लिए किया जाता है। चाल का उपयोग मध्य ऊँचाई वाले
क्षेत्रों में स्त्रोतों के पुनर्भर के लिए भी किया जाता है।
गूल: मध्य हिमालयी
क्षेत्रो में सीढ़ीदार कृषि का अभ्यास हजारों वर्षों से किया जा रहा है। अध्ययन
क्षेत्र में ऐतिहासिक रूप से गूल नामक चौनलों के माध्यम से आस पास के छोटी नदियों
के जल को मोड़कर सिंचाई की समस्या हल की गई है। गूल दो प्रकार के होते हैंर कच्ची
गूल एवं पक्की गूल। कच्ची गूलें रेत, मिट्टी, पत्थर से बनी होती हैं
इनका निर्माण पारंपरिकरूप से स्थानीय लोगों द्वारा किया जाता है। इसमें लगभग कुछ
सौ मीटर से लेकर कुछ किलोमीटर तक खोदा हुआ मिट्टी का मुख्य चैनल होता है इस मुख्य
चौनल से कई जल वितरण बिन्दु होते हैं जो कृषि भूमि तक बने होते हैं। पक्की गूलें
सीमेंट से बनी स्थायी मोड़दार संरचनाएं हैं जिनका निर्माण राज्य सरकारों द्वारा
लिया जाता है। ये छोटे गुरुत्व प्रवाह सिंचाई चैनल हैं जो पहाड़ी ढलानों के आर पार बनाए जाते हैं। पर्वतीय
क्षेत्रों में सीढ़ीदार कृषि की जाती है। अध्ययन क्षेत्र में पहाड़ियों के जल
स्त्रोतों को छोटे चैनलों के माध्यम से मोड़दार खेतों को सिंचित करने के लिए गूल का
निर्माण किया गया। हालांकि गूल मुख्य रूप से सिंचाई के लिए होते हैं परन्तु कुछ
स्थानों में गेहूँ और अन्य अनाज पीसने के लिए घराट (Water
Mill) को चलाने के लिए भी इनका उपयोग किया जाता है।
जल संसाधन प्रबंधन में
महिलाओं की भूमिका
अध्ययन क्षेत्र में महिलाएं पीने, घरेलू पशुओं और कृषि
उपयोग के लिए धारा, नौले, तालाब,एवं नदियों, नालों से जल आपूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जल
संसाधनों से संबन्धित प्रबंधन, समस्या, निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की अपेक्षा पुरुष
अधिक सक्रिय हैं। अध्ययन क्षेत्र में जल संरक्षण, जलस्रोत की सफाई और
परिवारों के लिए जल वितरण में भी
महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यद्यपि गूल का निर्माण, घराटों में कार्य करना, जल स्रोतों की मरम्मत, गूल और पाइप लाइनों का
रखरखाव का कार्य पुरुषों द्वारा किया जाता है।
निष्कर्ष
किये गये अध्ययन से स्पष्ट है कि अध्ययन
क्षेत्र में प्राकृतिक स्त्रोत, छोटी नदियाँ, नदियाँ एवं भूमिगत जल पेयजल के मुख्य स्त्रोत हैं। इनमें से
प्राकृतिक जल स्त्रोत (नौले एवं धारे) मध्य ऊँचाई वाले ग्रामों (1400-1800 मी॰) में अत्यधिक
दबाव में हैं। गाँवों की स्थापना के आधार बने ये स्त्रोत तेजी से सूख रहे है या
सूखने की कगार पर हैं। सर्वेक्षित ग्रामों में पहले 3-8 स्त्रोत थे जो वर्तमान
में 1-3 स्त्रोत ही रह
गये हैं जिनमें जल प्रवाह भी कम हो गया है। प्रतिचयनित विकासखण्ड गंगोलीहाट में
घरेलू एवं सिंचाई दोनों के लिए जल की कमी थी। प्रायः यह भी अवलोकन किया कि अनुचित
प्रबन्धन, प्रभावी संरक्षण
उपायों की कमी और उपलब्ध जल संसाधनों का अनुचित उपयोग तथा स्त्रोत की उपेक्षा करना
भी कहीं न कहीं जल की कमी को बढ़ाने में योगदान दे रहे है। उदाहरण के लिए मानसून
काल में वर्षा के जल के अपवाह को जल संसाधन में परिवर्तित करने, वर्षा जल संचयन (Rain
Water Harvesting) एवं
हिम आश्रित नदियों (Snow fed river)
से जल की कमी
वाले घाटियों में जल के स्थानान्तरण के लिए उपाय नहीं किये गये हैं। इसके अतिरिक्त
जल संसाधनों की पुनः पूर्ति (replenishing) पुनर्जनन (Regeneration)
एवं संरक्षण के
लिए प्रभावी रणनीतियों की अत्यन्त कमी है। अध्ययन क्षेत्र के अनेक गाँवों में
अनुपयुक्त रख-रखाव एवं जलापूर्ति की अकुशल व्यवस्था के कारण जलापूर्ति अनियिमित और
आंशिक है जिससे स्थानीय लोगों को गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ रहा है। ऐसी
स्थिति में अध्ययन क्षेत्र के लिए जल संसाधन प्रबन्धन के लिए एक वैज्ञानिक रणनीति
की आवश्यकता है।
संदर्भ-
उत्तराखंड जल संस्थान,
चाल खालः परंपरा का पुनर्जीवन, उत्तराखंड जल संस्थान, देहरादून, 2016 पृष्ट 27-28
हिमालयन
ग्राम विकास समिति, वार्षिक रिपोर्ट 2019, 2020
Chapagain,
P. S., Ghimire, M. L., & Shrestha, S. (2017). Status of natural springs in
the Melamchi region of the Nepal
Himalayas in the context of climate change. Environ Dev Sustain Springer
Science+Business Media B.V. 2017.
Chandra ,
S. (1987). Planning for integrated water resources
development project with special reference to conjunctive use of
surface and ground water resources. Central Groundwater Board, New Delhi.
Chinnasamy,
P., & Prathapar, S. (2016). Methods to investigate the
hydrology of the Himalayan springs: A
review (No. 169). International Water Management
Institute (IWMI).
Kala,
R., Kala C.P. (2006) Indigenous Water Conservation
Technology in Sumari Village of Uttaranchal. Indian
Journal Traditional Knowledge .5(3):394‒396.
Kumar, K., Tiwari,A., Mukherjee,S. Agnihotri,V., Verma R.K. (2019). Technical
report: Water at a Glance: Uttarakhand, GBPNIHESD, Almora, Uttarakhand, India.
Pattanaaik
S.K., Sen D, Kuame N, et al. (2012) Traditional system of water
management in watersheds of Arunanchal Pradesh. Indian
Journal Traditional Knowledge. ;11(4):719‒723.
Mahamuni,
K., & Kulkarni, H. (2012). Groundwater Resources and Spring Hydrogeology in
South Sikkim, with Special Reference to Climate Change. In M. L. Arrawatia
& S. Tambe (Eds.), Climate change in Sikkim: Patterns, impacts and
initiatives (pp. 261–274. Gangtok: Information and Public Relations Department,
Government of Sikkim.
Mukherji, A., Molden, D., Nepal, S., Rasul, G., & Wagnon, P.
(2015). Himalayan waters at the crossroads: Issues and challenges.
International Journal of Water Resources Development, 31(2), 151–160.
Negi, G. C. S., & Joshi, V. (2004). Rainfall and spring
discharge patterns in two small drainage catchments in the Western Himalayan
Mountains India. The Environmentalist, 24(1), 19–28.
NITI
Aayog, (2018). Report of Working Group I - Inventory and revival of
springs in the Himalayas for water security. NITI Aayog India.
Siddique,
M. I., Desai, J., Kulkarni, H., & Mahamuni, K. (2019). Comprehensive report
on springs in the Indian Himalayan Region. ACWADAM.
Tiwari,
P. C., & Joshi, B. (2012). Environmental changes and sustainable
development of water resources in the Himalayan Headwaters of
India. Water Resources Management, 26(4), 883–907.
Vani
M.S., Asthana, R. (2000). Water Rights and Policy in
Uttaranchal: Empowered State and Eroded Public
Rights in Kadekodi. Water in Kumaon: Ecology,
Value and Rights, (Gynodaya Prakashan, Nainital).;209.
Verma,
R., Jamwal, P. (2022). Sustenance of Himalayan springs
in an emerging water crisis. Environ Monit Assess (2022)
194:87
तनुजा पोखरिया
शोधार्थी, भूगोल विभाग,
लक्ष्मण सिंह महर राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
पिथौरागढ़
7579129497 pokhariya.tanuja1990@gmail.com
डॉ. मंजुला
चंद
प्राचार्य (से.नि.) राजकीय महाविद्यालय मुंस्यारी,
पिथौरागढ़, पूर्व विभागाध्यक्ष,भूगोल विभाग,
लक्ष्मण सिंह महर राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय पिथौरागढ़
प्रो. डी. सी. पांडे
विभागाध्यक्ष, भूगोल विभाग,
डीन, कला संकाय, (से.नि.) कुमाऊँ विश्वविद्यालय नैनीताल
एक टिप्पणी भेजें