सौरभ सराफ़ एवं डॉ. अर्चना झा
बीज
शब्द : विभाजनमूलक, मिथक,
आधुनिकताबोध,
शकुन-अपशकुन,
बिम्ब-चित्र,
लोकजीवन,
कथानक रूढ़ियाँ,
जीवन-मूल्य,
भावचित्र,
साम्प्रदायिकता l
मूल
आलेख : साहित्य में मानव-जीवन, प्रकृति और नियति का सांस्कृतिक अंतर्सम्बन्ध
सदैव से रहा है। मनुष्य जब-जब भी प्रकृति की शक्तियों से पराजित, भयभीत या आक्रांत होता है, तब-तब वह सांस्कृतिक अन्तर्चेतना की
शक्ति को रूढ़ि, अंधविश्वास,
काल्पनिकता,
अज्ञात सत्ता,
रहस्यात्मक
प्रवृत्ति आदि रूपों में परिकल्पित करता है। ये सभी तत्त्व सामाजिक जीवन में
हर्ष-विषाद या लाभ-हानि के प्रतीकात्मक रूप में शकुन और अपशकुन के ध्वन्यात्मक
अर्थों में व्यवहृत हैं। इसकी अभिव्यक्ति पुरातन काल से लेकर आजतक के साहित्य में
भिन्न-भिन्न रूपों में होती रही है। पहले इसका स्वरूप धार्मिक अंधविश्वास और
रूढ़ियुक्त अर्थों में केन्द्रित था, लेकिन स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य में यह
नवीन भावबोध और आधुनिक सभ्यता के उपादानों से संयुक्त है। इसकी अर्थप्रतीति
वर्तमान युग समय में मनुष्य की बुद्धि और विवेक को जब हिल्लोलित करती है तो
पारम्परिक शकुन-अपशकुन के भावचित्र अंधविश्वास और रूढ़ि के रूप में उच्छिन्न होते
हैं जिसका गहरा मनोवैज्ञानिक संबंध मनुष्य की चेतना से है। यूनियनपीडिया के अनुसार,
“शकुन समाज में
प्रचलित एक अवधारणा है जिसमें यह माना जाता है कि कुछ विशेष प्रकार की परिघटनाएँ
हमारे भविष्य का संकेत देती हैं। अनुकूल भविष्यवाणी करने वाले शकुन को शुभ शकुन
तथा प्रतिकूल भविष्यवाणी करने वाले शकुनों को अपशकुन कहा जात है।”(1) वैज्ञानिक दृष्टि से जब हम शकुन-अपशकुन
का विश्लेषण करते हैं तो वे यथार्थ से परे लगते हैं, लेकिन मनुष्य के मनोजगत में उठने वाले
इन वास्तविक भावोच्छवासों से इंकार नहीं किया जा सकता जो प्रायः विज्ञान के
प्रामाणिक मानकों का भी अतिक्रमण कर जाता है।
उक्त
सन्दर्भ में स्पष्ट है कि आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य के विकास के साथ ही
काल्पनिकता और परम्परागत जीवनमूल्यों के स्थान पर मानवीय अनुभूतियों को अधिक
महत्त्व दिया जाने लगा। विशेषतः प्रेमचन्द
के समय से कथा साहित्य जनजीवन के भोगे गए यथार्थ एवं संवेदनाओं से जुड़ने लगा।
क्रमशः इसकी अगली कड़ी के रूप में राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक सन्दर्भों को महत्त्व देते
हुए प्राचीन कथानक रूढ़ियों को व्यावहारिक जीवन में उतार कर अभिव्यक्त किया गया तो
वही परंपरा, बिम्ब,
प्रतीक, संकेत-बोधक रूप में दृश्यमान हुई।
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कथा साहित्य में ऐसी विभिन्न विषय-वस्तुओं का वृहत्तर
परिदृश्य चित्रांकित है। इस शोध पत्र का मुख्य अभिप्रेत भारत-विभाजन विषयक हिन्दी
उपन्यासों में वर्णित शकुन-अपशकुन की अनेकानेक मान्यताओं का विवेचन करना है।
भारत-विभाजन
को केन्द्र में रखकर लिखे गए हिन्दी उपन्यास और उपन्यासकारों की शृंखला में 20वीं सदी के छठे दशक में यशपाल की
प्रसिद्ध कृति ‘झूठा
सच’, सातवें
दशक में राही मासूम रज़ा कृत ‘आधा गाँव’, आठवें दशक में भीष्म साहनी की कालजयी
कृति ‘तमस’,
नवें दशक में
कृष्णा सोबती कृत ‘जिंदगीनामा’,
दसवें दशक में
नासिरा शर्मा द्वारा रचित उपन्यास ‘जिंदा मुहावरे’, मन्जूर ऐहतेशाम कृत ‘सूखा बरगद’ एवं 21 वीं सदी के प्रारंभिक दो दशकों में
कमलेश्वर की महत्त्वपूर्ण सर्जना ‘कितने पाकिस्तान’ तथा कृष्णा सोबती कृत आत्मकथात्मक
उपन्यास ‘गुजरात
पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान’ समादृत हैं।
लोक
में प्रचलित परम्पराएँ एवं रूढ़ियाँ जैसे-शकुन-अपशकुन के उदाहरण विभाजनमूलक हिन्दी
उपन्यासों में भी यत्र-तत्र दिखाई पड़ते हैं। शकुन-अपशकुन संबंधी धारणाएँ सामाजिक
संस्कारों, धार्मिक
क्रियाकलापों, सांस्कृतिक
मान्यताओं आदि रूपों में परिव्याप्त है। मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक इन
मान्यताओं का गहरा प्रभाव बना रहता है। कथा लेखिका अमृता प्रीतम अपने प्रसिद्ध
उपन्यास ‘पिंजर’
में गुजरात के
छत्तोआनी गाँव में लड़का पैदा होने संबंधी ऐसी ही मान्यताओं को व्यक्त करतीं हैं,
“उनके अपने गांव
और आसपास के गांवों में स्त्रियों का यह विश्वास था कि हर बच्चे के जन्म के समय
विधिमाता स्वयं आती हैं। यदि विधिमाता अपने पति से हँसती-खेलती आती है तो आकर झटपट
लड़की बनाकर चली जाती है, उसे अपने पति के पास लौटने की जल्दी होती है,
किन्तु यदि
विधिमाता अपने पति से रूठकर आती है तो उसे लौटने की कोई जल्दी नहीं होती वह आकर
बहुत समय तक बैठती है और आराम से लड़का बनाती है।”(2) अर्थात पुत्रप्राप्ति के लिए विधिमाता
की पूजा शकुन का पर्याय माना जाता है। इसी प्रकार विवाह संस्कार के समय नवयुवती को
लाल चूड़ी पहनाने एवं उसके माध्यम से पति के दीर्घायु की कामना की जाती है। चूड़ी का
टूटना अपशकुन माना जाता है। देश में प्राचीन काल से प्रचलित विधवा प्रथा इसका
ज्वलंत प्रमाण है। आज के समय में भी ऐसे उदाहरण अपने आसपास देखे जा सकते हैं। ‘पिंजर’ उपन्यास की नायिका पूरो के विवाह पूर्व
का प्रसंग उद्धृत है, “पूरो को ख्याल आया, कहीं उसकी हाथीदांत की लाल चूड़ी उसके
दाहिने हाथ में टूट जाए तो! पूरो के कलेजे को एक धक्का सा लगा। यह शगुन कितना बुरा
है! उसकी शगुन की चूड़ी, उसके सुहाग की चूड़ी उसके हाथों में क्यों
टूटे! पूरो ने अपने दाहिने हाथ को तिरस्कार से देखा।”(3) उल्लेख्य उपन्यासों में शकुन-अपशकुन की
धारणाएँ जन्म एवं विवाह संस्कार के साथ ही मृत्यु संस्कार से भी जुड़ी हुई है। किसी
व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर गो-दान की परम्पराएँ आज भी भारतीय समाज में देखी जा
सकती है। इस कथन के सन्दर्भ में यह लोभ संवरण करना असंभव लगता है कि ‘गोदान’ शब्द स्वयमेव प्रेमचंद को पाठक
मस्तिष्क में टाँक देता है। इसी तरह स्थान विशेष में मृत्यु होने पर उसे भी
स्वर्ग-नरक के नामाभिधान से जोड़कर उसमें शुभ-अशुभ की छानबीन की जाती है।
आलेख
के शीर्षक में अंकित विषयान्तर्गत शुभ-अशुभ एवं निष्ट-अनिष्ट की आशंकाओं के अन्य
अनेक उदाहरण भी भारत-विभाजन विषयक उपन्यासों में देखे जा सकते हैं। सन्दर्भगत
चर्चित उपन्यासकार भीष्म साहनी की कालजयी कृति ‘तमस’ पर दृष्टि केन्द्रित की जा सकती है
जिसमें स्वतंत्रता के ठीक पहले हिन्दू-मुस्लिमों की धार्मिक मान्यताओं और
परम्पराओं को सांप्रदायिकता की ज्वालाओं में झोंककर भारत विभाजन की पृष्ठभूमि रची
गयी थी। जाति और धर्म के आधार पर भारत-पाकिस्तान विभाजन की राजनीतिक
महत्वाकांक्षाओं में आम जनजीवन की मानवीय भावनाएँ चकनाचूर हो जातीं हैं। पलायन और
विस्थापन की त्रासदी भौगौलिक सीमा रेखा तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि विचारों और सिद्धांतों के
संघर्षों में यह धरती खून के छिटों और धब्बों से अपने इतिहास की बदनसीबी को कोसने
भी लगती है। चूँकि इस विभाजन के मूल में धार्मिक विद्वेष को सांप्रदायिकता की
जहरीली हवाओं में बेपनाह फैलाया उड़ाया गया इसलिए जीवन परम्पराओं के शकुन-अपशकुन
संबंधी अनेक भावचित्र हिन्दू-मुस्लिम दोनों समाजों के चित्रित हुए हैं। इस उपन्यास
की केन्द्रीय समस्या सूअर को मरवाकर मस्जिद में फेंक देना और गाय को कटवाकर मन्दिर
में डाल देना है जो स्वयमेव शताब्दियों से हिन्दू-मुस्लिम समाज की धार्मिक संस्कृति
में अपशकुन का प्रबलतम प्रतिरूपण है।
‘तमस’
उपन्यास में
हिन्दू-मुस्लिम दोनों संस्कृति एवं धर्म से जुड़े हुए अनेक ऐसे प्रसंग हैं जहाँ
शकुन-अपशकुन का स्वरूप सद्यः घटित दिखायी देता है। इस परिप्रेक्ष्य में
हिन्दू-मुस्लिम के भीषण सांप्रदायिक दंगों और अनहोनी की आशंकाओं के मध्य कांग्रेस
के नेता बख्शी जी का यह कथन उल्लेखनीय है, “लगता है अब शहर में चीलें उड़ेंगी।”(4)
चीलों का उड़ना
हिंसक घटनाओं की परिणति का प्रतीक ही नहीं, अपशकुन की आशंका ही नहीं, बल्कि अपशकुन का प्रमाणित प्रतिबिंब
है। इसी प्रकार उपन्यास में उद्धृत शिवालय का घण्टा भी अतीत की कुछ ऐसी ही
अप्रत्याशित घटनाओं का संकेत करता है, “वहीं पर मन्दिर के ऊपर घड़ियाल भी किसी ज़माने
में लगाया गया था। ‘अर्सा
भी तो बहुत हो चुका है,’ वयोवृद्ध कह रहे थे, ‘1927 में लगवाया था, या शायद इससे भी पहले।’ इस पर एक सज्जन के मुँह से सहसा निकल
गया, न
ही बजे तो अच्छा है, भगवान
कभी न बजवाए!”(5) उपन्यास
में आगे चलकर इस घण्टे के बजने की भयावहता का भी पता चलता है। खुदाबख्श ने कहा,
“इस घड़ियाल की
आवाज सुनकर रूह कांप उठती है। पहले फसाद में जब बजा था तब मण्डी में आग लगी थी और
शोले आधे आसमान को ढके हुए थे।”(6) ये प्रसंग तत्कालीन दौर के भीषण दंगों और
नरसंहार के वीभत्स दृश्यों के उदाहरण हैं। ‘तमस’ उपन्यास में मुख्य पात्र नत्थू का
थिगलियों में लिपटे कंकड़, गूथे आटें का पुतला और पैर लग जाने का प्रसंग
भी इन्हीं आशंकाओं से जुड़ा हुआ है। रातभर सुअर को मारने लिए किए गए संघर्ष के बाद
नत्थू द्वारा वहाँ से निकलकर घर जाते समय अपशकुन के प्रतीकों का पैर के नीचे आ
जाना असह्य हो गया था। तत्समय नत्थू के मनोभावों को साहनी जी ने उपन्यास में बखूबी
व्यक्त किया है, "कुछ
क़दम आगे बढ़ने पर उसके पैर को ठोकर लगी। उसे लगा जैसे उसके पाँव से टकराकर कोई
चीज़ बिखर गई है। फिर वह समझ गया और समझते ही उसका शरीर झनझना उठा। एक घर के सामने
कोई औरत 'टोना'
कर गई थी,
कुछ थिगलियों
में लिपटे कंकड़ और गुथे आटे का पुतला और उसमें खोंसी हुई लकड़ी की खपचियाँ थीं।
कोई बदनसीब औरत अपना क्लेश किसी दूसरे के घर पर डालने के लिए 'टोना' कर गई थी। नत्थू ने इसे अपने लिए
अपशगुन समझा।"(7)
साहनी
जी ने इन अपशकुनों के साथ ही लोकजीवन में व्याप्त शकुन के प्रतीकों को भी तमस में
स्थान दिया है। प्रकृति में सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, अंधकार-प्रकाश, शुभ-लाभ सभी का अपना पृथक पृथक महत्त्व
होता है। तमस में नत्थू के पैरों के नीचे आ जाने वाली वस्तु के कारण जहाँ वह उसे
अपशुकन मानता है वहीं अगले ही क्षण स्थिति बदल जाती है, उपन्यास में दृष्टव्य है,
"वह
कुछ ही कदम आगे बढ़ा होगा कि उसका दायाँ पैर फिर किसी लसलसी चीज़ में धँस गया और
वह गिरते-गिरते बचा। साथ ही गोबर की तीखी गन्ध आई। उसने खींचकर पैर निकाला तो
अधटूटा घड़ा लुढ़क गया। वह समझ गया और जहाँ पहले उसके मुँह में से गन्दी गाली
निकलने जा रही थी, वहाँ
एक हल्की-सी मुस्कान उसके होंठों पर खेल गई। 'टोने' का अपशगुन इस ठोकर ने जैसे धो-पोंछ
डाला हो।"(8) लोकजीवन
में आज भी गोबर को पवित्र माना जाता है। धार्मिक कार्यों में उसके उपयोग का भी
प्रचलन है। भीष्म साहनी जी ने उपन्यास में लोकजीवन के इन छोटे-छोटे प्रतीकों का
उपयोग कर आम जनजीवन और उपन्यास के मध्य तादात्म्य स्थापित करने में सफलता पायी है।
हिन्दी
उपन्यासों के प्रक्रम में नाटकों में भी वर्णित कतिपय उदाहरणों का अवलोकन
अप्रासंगिक नहीं होगा। मोहन राकेश कृत ‘आषाढ़ का एक दिन’ में ग्राम प्रांतर में आने वाली घोड़ों
की पदचाप से अंबिका व्यथित हो उठती है और अपनी पुत्री मल्लिका को अनहोनी की आशंका से
वर्षों पहले की एक घटना का जिक्र करती है, “कभी वर्षों में ये आकृतियाँ यहाँ
दिखायी देती हैं और जब भी ये दिखायी देतीं हैं, अनिष्ट होता है। कभी युद्ध की सूचना
आती है कभी महामारी की। पिछली महामारी में जब तुम्हारे पिता की मृत्यु हुई,
तब मैंने यह
आकृतियाँ यहाँ देखी थीं।”(9)
शकुन-अपशकुन
के सामाजिक संस्कारों के साथ धार्मिक क्रियाकलापों से जुड़े हुए दृश्य भी विभाजनपरक
साहित्य में सम्मिलित हैं। धर्म का संबंध व्यक्ति के निजत्व से होता है
परन्तुकट्टरपंथी समुदाय द्वारा बल, लोभ, लालच, भयवश धर्मान्तरण करवाने के अनेक उदाहरण विभाजन
विषयक उपन्यासों में बहुतायत में देखे जा सकते हैं। यशपाल कृत ‘झूठा सच’ में हफ़ीज़ साहब द्वारा तारा का धर्म
परिवर्तन करने के लिए तरह-तरह के प्रयासों का वर्णन है। ऐसे ही एक प्रसंग विशेष
में ईद के दिन को शकुन के पर्याय रूप में चित्रित किया गया है। हाफ़िज साहब तारा से
कहते हैं, “आज
ईद का मुबारक दिन है, तू
कलमा पढ़कर उम्मत में शरीक हो जा तो तुझे शान्ति मिलेगी।”(10) धार्मिक उपासना पद्धतियों पर सभी
धर्मावलंबियों का विश्वास होता है। विश्वास की यह डोर इतनी गहरी होती है कि
भिन्न-भिन्न धर्मों, मतों,
सम्प्रदायों को
मानने वाले लोगों की आस्था का केन्द्र भी समान हो जाता है। राही मासूम रज़ा अपने
उपन्यास ‘आधा
गाँव’ में
मोहर्रम के वैशिष्ट्य का रेखांकन करते हैं। गंगौली के ताजिये के प्रति स्थानीय
जनता की बहुत अधिक आस्था जुड़ी हुई है। गंगौली के लोग उसके सामने अपनी उलती रखकर
मन्नत माँगते थे और बड़ा ताजिया उन्हें गिराकर आगे बढ़ता तो मन्नत पूरी होती थी,
“एक साल एक बेवा
ब्राह्मणी की उलती मजदूरों की भूल से जरा कम निकली हुई थी। बड़ा ताजिया उसे गिराए
बिना आगे गुजर गया। वह फूट-फूट कर रोने लगी कि इमाम उससे रूठ गये हैं। इसलिए जरूर
कोई मुसीबत आनेवाली है नहीं तो भला ऐसा हो सकता था कि बड़ा ताजिया उसकी उलती गिराये
बिना चला जाता।”(11) गंगौली
में मुसलमानों के साथ हिंदुओं की भी आस्था इससे जुड़ी हुई थी। ध्यातव्य है कि
भारतीय समाज में लगभग एक हजार वर्षों से साथ रह रहे हिन्दू और मुस्लिम समुदाय सांस्कृतिक
रूप से जुड़े हुए हैं। दोनों धर्मों के मध्य सामासिक संस्कृति का जैसा स्वरूप बना
हुआ है उसका एक कारण लोकजीवन से जुड़े उक्त प्रसंग भी होते हैं। ‘आधा गाँव उपन्यास इसका सशक्त उदाहरण
है। इसी तरह इस्लाम धर्म में तस्वीर खीचवाने को अपशकुन माना जाता है। मुस्लिम
जनजीवन से जुड़ी ऐसी मान्यताओं एवं अंधविश्वासों को केंद्र में रखकर मंजूर ऐहतेशाम
ने ‘सूखा
बरगद’ उपन्यास
की सर्जना की है। उपन्यास का अपशकुन संबंधी एक उदाहरण दृष्टव्य है, “तस्वीर बनाने का काम तो खुदा का है जो
मुर्दा शरीर में जान डालने की शक्ति रखता है। अगर कोई तस्वीर खिंचवाता है, तो गुनहगार है। यह खुदा के काम में
दखलंदाजी मानी जायेगी और उसे सजा के रूप में जहन्नम मिलेगा।”(12) यहाँ एक अन्य विषय मुस्लिम बौद्धिक
वर्ग से जुड़ा हुआ है जहाँ वे मानते हैं कि हिंदुओं की अपेक्षा उनके समुदाय का
समग्र विकास न हो पाने का प्रमुख कारण उनका अंधविश्वास है। इस दृष्टि से ‘सूखा बरगद’ का महत्त्व अप्रतिम है। उपन्यास में
लेखक अपने समुदाय की बेड़ियों को तोड़ने का प्रयास करते हैं।
उपर्युक्त
विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय साहित्य की सुदीर्घ विकास परम्परा में सामाजिक जीवन
चरित्रों के अंकन के साथ ही भावों, विचारों, अनुभूति एवं चिन्तन की अंतर्संरचना में
शकुन-अपशकुन के अनेक बिम्ब-चित्र अंकित हैं जिन्हें मानव जीवन की लम्बी सांस्कृतिक
परम्परा से जोड़कर देखा जाता रहा है। स्वातंत्र्योत्तर भारत-विभाजन विषयक हिन्दी
उपन्यासों में भी इनका प्रतिफलन सामाजिक जीवन के यथार्थ का निदर्शन है।
1. https://hi.unionpedia.org/i/%E0%A4%B6%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%A8
2. अमृता प्रीतम, पिंजर, हिन्द पॉकेट बुक्स, पेंगुइन रैंडम हॉउस इंडिया प्रा. लि. गुड़गाँव, हरियाणा, नवीन संस्करण 2021, पृ.09
3. वही, पृ.11
4. भीष्म साहनी, तमस, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1972, पृ. 68
5. वही, पृ. 75
6. वही, पृ. 75
7. वही, पृ. 31
8. वही, पृ. 31
9. मोहन राकेश, आषाढ़ का एक दिन, राजपाल एण्ड संस, दिल्ली, 1958, पृ. 06
10. यशपाल, झूठा सच, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद उत्तरप्रदेश, तृतीय संस्करण 1969, पृ. 179-180
11. राही मासूम, रज़ा, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1966, पृ. 71-72,
12. मन्जूर ऐहतेशाम, सूखा बरगद, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1986, पृ.16
शोधार्थी, शासकीय विश्वनाथ यादव तामस्कर स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शोध निर्देशक, सहायक प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष हिन्दी, श्री शंकराचार्य महाविद्यालय जुनवानी, भिलाई (छत्तीसगढ़)
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