शोध आलेख : भारतीय समाज और साहित्य में आधुनिक युगीन स्त्री-चेतना और संघर्ष लेखिका / तहसीन मजहर

भारतीय समाज और साहित्य में आधुनिक युगीन स्त्री-चेतना और संघर्ष लेखिका
- तहसीन मजहर

शोध सार : भारतीय आधुनिक स्त्री-चेतना के निर्माण में सामाजिक और साहित्यिक आंदोलनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है. भारत के विभिन्न समाज-सुधारकों ने नवजागरण काल में स्त्री-प्रश्न को प्रमुख बना दिया था. पंडिता रमाबाई, सावित्रीबाई फुले, ताराबाई शिंदे, रुकैया बेगम आदि स्त्रियों ने भी इस काल में स्त्री-चेतना को अभिव्यक्त किया. इस तरह से आधुनिक युग में नवीन स्त्री-चेतना की शुरुआत हुई. हिंदी साहित्य में भी स्त्री-विमर्श की शुरुआत के साथ स्त्री-अभिव्यक्ति को नया स्वर और नई दिशा मिली. छायावाद की महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर महादेवी वर्मा ने अपने लेखन और चिंतन के माध्यम से इसे नया और ठोस आधार प्रदान किया. आधुनिक युग में भारतीय स्त्रियों ने किस तरह अपनी उपस्थिति दर्ज की? भारतीय समाज और साहित्य में किस तरह से आधुनिक स्त्री-चेतना का निर्माण हुआ? इसका स्वरूप क्या है? इसकी वर्तमान दशा और दिशा क्या है? इस शोध आलेख में इन्हीं प्रश्नों की पड़ताल की गई है.
 
बीज शब्द : स्त्री-चेतना, समाज औऱ साहित्य, भारतीय नवजागरण, आधुनिक युग, स्त्री-स्वतंत्रता, स्त्री-विमर्श, स्त्री-आंदोलन, समाज-सुधार, पितृसत्ता, महादेवी वर्मा, स्त्री-लेखन, छायावाद.
 
मूल आलेख : आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के आधुनिक काल की शुरुआत संवत 1900 से मानी है। हालाँकि आधुनिक कालीन प्रवृत्तियों की शुरूआत इससे पहले हो चुकी थी। कुछ विद्वानों ने आधुनिक हिंदी साहित्य का आरम्भ 19वीं सदी में सन् 1857 से माना है। हिंदी नवजागरण के अग्रदूत माने जाने वाले भारतेंदु हरिश्चन्द्र (1850-1885) का आविर्भाव भी इसी दौर में हुआ। भारतीय समाज की परिस्थितियों के हिसाब से 19 वीं सदी का समय स्त्रियों के लिए भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। स्पष्ट है कि यही नवजागरण  का काल था और इस काल में स्त्रियों के मुद्दे पहली बार सशक्त तरीके से उभरे। इस काल में समाज में नई चेतना का उदय हो रहा था और समाज में व्याप्त विभिन्न कुरीतियों को लेकर नए तरह से चिंतन और संघर्ष प्रारंभ हुआ।
             
    राधा कुमार ने लिखा है, “उन्नीसवीं सदी को स्त्रियों की शताब्दी कहना बेहतर होगा क्योंकि इस सदी में सारी दुनिया में उनकी अच्छाई-बुराई, प्रकृति, क्षमताएँ एवं उर्वरा गर्मागर्म बहस के विषय थे। यूरोप में फ्रांसीसी क्रांति के दौरान और उसके बाद भी स्त्री जागरुकता का विस्तार होना शुरू हुआ तथा शताब्दी के अंत तक इंग्लैंड, फ्रांस तथा जर्मनी के बुद्धिजीवियों ने नारीवादी विचारों को अभिव्यक्ति दी। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक रूसी महिलाओं के लिए महिला प्रश्न एक केंद्रीय मुद्दा बन गया था जबकि भारत में, खासतौर से बंगाल और महाराष्ट्र में समाज सुधारकों ने स्त्रियों में फैली बुराइयों पर आवाज़ उठाना शुरू किया।”²
           
 जाहिर है, पूरी दुनिया में इस समय स्त्री-प्रश्नों का सशक्त उभार हुआ। भारत में इस समाज सुधार के पीछे अंगरेज़ी संस्कृति के संपर्क को भी एक वजह माना जाता है। दरअसल, अंगरेज़ी उपनिवेशवाद ने भारत में एक मध्य वर्ग तैयार किया जिसके कारण अपने समाज में सुधार की ज़रूरत महसूस हुईl इतिहासकार बिपिन चंद्रा ने लिखा है, “ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विस्तार और उसके साथ औपनिवेशिक संस्कृति और विचारधारा के प्रचार-प्रसार की प्रतिक्रिया में ही यह लहर उठनी शुरू हुई थी। बाहरी संस्कृति के फैलाव से भारतीयों के लिए यह ज़रूरी हो गया था कि वह आत्मनिरीक्षण करे... हालाँकि औपनिवेशिक संस्कृति के खिलाफ यह प्रतिक्रिया हर जगह और हर समाज में अलग-अलग तरह की हुई, लेकिन यह बात हर जगह सुधार के तौर पर नवजागरण कहा जाता है।”³
 
    समाज सुधार आंदोलन की झलक सबसे पहले बंगाल और महाराष्ट्र में मिलती है क्योंकि दोनों राज्यों का संबंध ब्रिटिशों से सबसे पहले बना। भारतीय नवजागरण का प्रारंभ बंगाल से माना जाता है। इसकी वजह यह मानी जाती है कि यहाँ अंगरेज़ी शिक्षा का प्रचार-प्रसार सबसे पहले हुआl  जाहिर तौर पर भारत में समाज सुधार को लेकर बंगाल के घटनाक्रम को देखना बहुत अहम है। बंगाल में सक्रिय राजा राममोहन राय भारतीय नवजागरण के अग्रदूत माने जाते हैं। रवींद्रनाथ टैगोर ने भी उन्हें ऐसा ही संबोधित किया है। उन्होंने हिंदू धर्म की कुरीतियों को ख़त्म करने के लिए आंदोलन चलाया। उन्होंने स्त्री शिक्षा और विधवा-विवाह जैसे मुद्दों के लिए काम किया। उन्होंने समाज में व्याप्त सती-प्रथी जैसी कुरीतियों को खत्म करवाने के लिए काफी संघर्ष किया। बंगाल में जहाँ राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और केशवचंद्र सेन महिला अधिकारों और समाज सुधार के लिए संघर्ष कर रहे थे तो वहीं हिंदी प्रदेशों में भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट और महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले। महाराष्ट्र में नवजागरण के केंद्र में प्रमुख रूप से स्त्री शिक्षा तथा ब्राह्मणवाद का विरोध दिखाई देता है। इस तरह आधुनिक युग में स्त्रियों के मुद्दों को लेकर एक सार्थक बहस बंगाल में दिखाई पड़ती है। इसकी मिसाल सती-प्रथा निषेध में दिखाई देती है। मसलन बंगाल प्रांत में जहाँ सती-प्रथा पर 1818 में ही रोक लग गई थी, वहीं पूरे भारत में इस निषेध को लागू होने में 11 साल लगे।
 
    स्त्रियों की शिक्षा को लेकर बंगाल में शुरूआती प्रयास हुए। लड़कियों के लिए स्कूल सबसे पहले अंगरेज़ तथा ईसाई मिशनरियों द्वारा 1810 में स्कूल शुरू किए गए। स्त्रियों की शिक्षा से संबंधित पहली पुस्तक किसी भारतीय भाषा(बंगाली) में 1819 में एक भारतीय गुरुमोहन विद्यालंकार द्वारा लिखी गई जिसे कलकत्ता की कन्या बाल समिति ने 1820 में प्रकाशित किया। 1827 तक हुगली ज़िले में मिशनरियों द्वारा 12 कन्या पाठशालाएँ चलाई जाने लगीं।  ऐसा देखा गया है कि गरीब इलाकों में खुले स्कूलों के बारे में जानने के लिए मुस्लिम स्त्रियाँ भी दिलचस्पी ले रही थीं।
 
     दूसरी तरफ़ महाराष्ट्र में स्त्री-आंदोलन के साथ-साथ जाति आंदोलन भी चल रहे थे। बंगाल का समाज सुधार उच्चवर्गीय भद्रलोक तक सीमित था जबकि महाराष्ट्र का सुधार आंदोलन वंचित जातियों को भी शामिल कर रहा था। ज्योतिबा फुले ने 1848 में लड़कियों का पहला स्कूल पूना में खोला था। 1852 तक उन्होंने तीन स्कूल लड़कियों के लिए और एक अछूतों के लिए खोला था। राधा कुमार ने लिखा है, “बम्बई में समाज सुधार कार्यक्रम अपनी शुरुआत से ही दो अलग-अलग बिंदुओं पर लेकिन अक्सर आपस में एक-दूसरे से लड़ी के रूप में गुंथा हुआ था. जाति विरोध आंदोलन नीची जातियों और अछूत गुरुओं द्वारा शुरू किया गया तथा ऊँची जातियों का आंदोलन सुधार के लिए किया गया। इसके विपरीत बंगाल में समाज सुधार आंदोलनों में ऊँची जातियों का वर्चस्व था।”⁵ बंगाल के भद्रलोकीय समाज सुधारकों को लेकर डॉ. गोपा जोशी ने लिखा है, “स्त्री की स्थिति को समग्रता से देखने पर इन कदमों का दायरा सीमित लगता है। इसके मुख्यतः दो कारण हैं- एक इन समाज सुधारकों ने दलित तथा आदिवासी स्त्री की समस्याओं को तरजीह नहीं दी। दूसरा, संभ्रांत सवर्ण स्त्री की भी पितृसत्तात्मक बेड़ियों को तोड़ना इनकी प्राथमिकता नहीं थी।”⁶ हालाँकि तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए इतनी पहल भी कम क्रांतिकारी नहीं थी। इन क्षेत्रों में नवजागरण के प्रसार के प्रभाव का असर हिंदी क्षेत्र में भी था। यहाँ तक कि हिंदी की शुरुआती पत्रिकाएँ भी बंगाल से निकलीं। प्रमुख रूप से 1857 के विद्रोह के पश्चात् हिंदी प्रदेश में नवजागरण का प्रभाव देखा सकता है। यही वजह है कि हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के शुरुआती समय को बच्चन सिंह जैसे विद्वान ने पुनर्जागरण काल कहा है। भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिंदी नवजागरण का अग्रदूत माना जाता है। भारतेंदु प्रगतिशील सोच रखते थे और समाज सुधार में जुटे हुए थे। उन्होंने स्त्री शिक्षा का समर्थन किया था लेकिन परंपरापगत आग्रह भी उनमें था। मसलन वे धर्म-कुल जैसी परंपरागत शिक्षा(स्त्रियों के लिए) से ही सहमत थे, वे आधुनिक शिक्षा और सह-शिक्षा जैसी चीजों के विरुद्ध थे। उन्होंने स्त्री-शिक्षा को लेकर कहा था, “ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल-धर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज शिक्षा दें।”⁷
 
     तात्पर्य यह है कि तत्कालीन भारत में बंगाल और महाराष्ट्र से लेकर हिंदी प्रदेशों में भी स्त्री-मुद्दे प्रमुखता से विद्यमान थे। यह अनायास नहीं था, बल्कि स्त्रियों की अशिक्षा और दयनीय सामाजिक स्थिति को देखते हुए इन मुद्दों का उठना ज़रूरी था। 1901 की जनगणना के आंकड़ों से स्त्रियों की शिक्षा का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। उस समय पूरे भारत में प्रति हजार 98 पुरुष साक्षर थे तो महिलाएं हजार केवल सात इसी तरह बंगाल में प्रति हजार 104 पुरुष और 5 महिलाएं साक्षर थीं। हालाँकि शहरों में स्थिति इससे बेहतर थी। तत्कालीन समाज में बाल-विवाह और विधवाओं के हालात का अंदाजा इसी से बात लगाया जा सकता है। 1918 में अलीगढ़ में हुई समाज-सुधारकों की एक सभा में पुरुष सभापति द्वारा विधवाओं के दिए गए आँकड़ों से पता चलता है कि उस वक़्त संयुक्तप्रांत में महज एक वर्ष की उम्रवाली विधवाओं की संख्या 113 थी, 2 वर्ष की उम्रवाली विधवाएँ 70, दो से तीन साल के बीच की 151, तीन से चार साल के बीच की 603, चार से पाँच साल के बीच की 1131, पाँच से दस साल के बीच की 13,069 और 10 से 15 साल के बीच की विधवाएँ 38,849 थीं।
 
`    स्त्री-चेतना और उनका संघर्ष - यह सत्य है कि स्त्रियों से संबंधित आंदोलनों का नेतृत्व शुरूआत में पुरुष सुधारकों के हाथों में था। लेकिन इसके साथ ही स्त्रियों की ओर से भी संघर्ष तेज़ हो चुका था।जिस वक़्त भारतेंदु हंटर आयोग को पश्चिमोत्तर प्रांत के भद्रवर्ग द्वारा अपनी लड़कियों को स्कूल में न भेजने का कारण समझा रहे थे और उनकी आधुनिक शिक्षा को ग़ैर-ज़रूरी बता रहे थे, उसके कुछ महीनों के भीतर 1883 में कादंबिनी और चंद्रमुखी बोस, बेथुन कॉलेज की दो लड़कियाँ कलकत्ता विश्वविद्यालय की परीक्षा पास कर का भारत की पहली महिला स्नातक बनीं।”⁹ चंद्रमुखी बोस ने शिक्षित होकर सरकारी नौकरी भी की। कादंबिनी आगे चलकर डॉक्टर बनीं। यह स्त्रियों की शिक्षा के प्रति ललक और जागरूकता को दिखाता है। इसी तरह महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले की पत्नी सावित्रीबाई फुले का जिक्र मिलता है। लड़कियों को पढ़ाने और शिक्षक बनने के लिए उन्हें कड़ा संघर्ष करना पड़ा।एक हिंदू स्त्री का उस जमाने में शिक्षक का काम करना समाजद्रोही और धर्मद्रोही बात मानी गई। पूणे में संताप का वातावरण फैल गया। सावित्रीबाई को पाठशाला जाते देखकर ब्राह्मण और उनके चेले-चांटे उन पर कीचड़, गंदगी फेंकते थे, उन्हें पत्थर मारते थे।”¹⁰ इसी तरह पंडिता रमाबाई और ताराबाई शिंदे का नाम आता है। स्त्री के निर्णय लेने की स्वतंत्रता के अधिकार की लड़ाई की शुरुआत पंडिता रमाबाई ने की.¹¹ रमाबाई ने न केवल शिक्षा हासिल करने के लिए संघर्ष किया बल्कि गैर-ब्राह्मण बंगाली शूद्र से शादी भी की। उन्होंने हंटर कमीशन के सामने स्त्रियों के लिए चिकित्सक तथा अध्यापक की शिक्षा की पैरवी भी की थी। उन्होंनेस्त्री धर्म नीतिनामक पुस्तक लिखी।
 
    इससे पहले 1882 में ताराबाई शिंदे नेस्त्री-पुरुष तुलना नामक पुस्तक लिखी, ताराबाई शिंदे की स्त्री-पुरुष तुलना भारतीय समाज की रीति-नीति के प्रति स्त्री के नकार का शुरूआती दस्तावेज के रूप में विद्यमान है। इसमें उन्होंने पितृसत्ता से उत्पन्न कुरीतियों की आलोचना की है। उन्होंने पुरुषों से कटु सवाल भी किए हैं। उन्होंने पुरुष और स्त्री के बीच दोहरे मापदंड को लेकर सवाल किया है, “पुरुष अपने आपको स्त्रियों से इतना भिन्न क्यों समझता है? स्त्री की तुलना में वह खुद को इतना महान् और बुद्धिमान क्यों मानता है? अगर वे इतने ही महान् और हीरो थे तो अंगरेज़ों के गुलाम कैसे बन गए? उनके बीच ऐसी क्या भिन्नता है कि पत्नी के मरने से पति पर कोई आफत नहीं आती, वह जब चाहें दूसरा विवाह कर ले, पर पति के मरने के बाद से विधवा स्त्री को ऐसे-ऐसे दुःख दिए जाते हैं मानो उसी ने अपने पति को मारा हो ये दोहरे मापदंड क्यों? जबकि स्त्री-पुरुष की यौन-इच्छाओं में कोई भेद नहीं।”¹² वास्तव में रमाबाई, ताराबाई शिंदे या ज्योतिबा फुले सभी को अपनी अभिव्यक्ति के लिए कड़े संघर्ष और प्रतिवाद का भी सामना करना पड़ा।
 
    वास्तव में आधुनिक युग के आरंभ में ही स्त्रियों ने पितृसत्ता की बेड़ियों और चालाकियों को पहचाना। इसके लिए उन्हें किसी प्रतीक या बिंब की ज़रूरत नहीं पड़ी बल्कि उन्होंने सीधे-सीधे पुरुषों के वर्चस्व, पितृसत्ता और ब्राह्मणवादी परंपराओं पर सवाल उठाए। यह स्त्री-मुद्दों और उनके नजरिये की नई उड़ान थी। इससे पहले स्त्री या तो मूक बनी रहती या फिर थोड़ा-बहुत विरोध करके शांत हो जाती थी। उनमें मुक्ति की ऐसी चाह नजर नहीं आती लेकिन आधुनिक युग में यह नजर आता है। मिसाल के तौर पर 1905 में बंगाल की बेगम रुकैय्या का लिखा सुल्तानाज ड्रीम देखा जा सकता है। इसमें लेखिका ने ऐसे जादुई मुल्क की कल्पना की है जहाँ पुरुष घर के काम करते हैं और घर से बाहर नहीं जाते। वहीं महिलाएँ व्यस्त वैज्ञानिकों के रूप में तरह-तरह के वैज्ञानिक आविष्कार/उपकरण तैयार कर रही हैं।
 
     नवजागरण के प्रभाव में जो आधुनिकता भारतीय समाज में व्याप्त हुई उसके फलस्वरूप साहित्य में भी स्त्री प्रश्न अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गए थे। इसका प्रभाव हिंदी साहित्य पर भी देखा जा सकता है। इसी समय देवरानी-जेठानी जैसे शुरूआती उपन्यास भी स्त्री-प्रश्न को केंद्र में रखकर लिखे गए। पहली हिंदी महिला लेखिका बंग महिला ने दुलाई वाली(1906) कहानी लिखी। हालाँकि बाँग्ला-समाज और हिंदी समाज में स्त्री-चेतना की एक धारा यह भी थी जिसमें उसे परंपरावादी पितृसत्तात्क मूल्यों के मुताबिक लिखने को प्रेरित किया गया। इसकी वजह यह नज़र आती है कि इन प्रदेशों में समाज सुधार मुख्यतया उच्च वर्गों तक सीमित था। यह पितृसत्तात्मक निषेध की बजाए सुधरने पर बल देता नजर आता है। लेकिन भारत के विभिन्न हिस्सों में नवजागरण काल के प्रभाव में स्त्री-चेतना और लेखन का उभार अपने-आप में बड़ी बात थी। गरिमा श्रीवास्तव ने नवजागरण उपन्यासों के बारे में लिखा है, “नवजागरण कालीन उपन्यास सांस्कृतिक परिवर्तन के एजेंट के रूप में सामने आया था। इसी दौर में स्त्रियों और पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर लिखने की शुरूआत हुई और जेंडर विमर्श प्रारंभ भी।उन्होंने लिखा है, “स्त्री शिक्षा ने पहली बार स्त्री को अभिव्यक्ति का लिखित हथियार दिया।”¹³
 
    वहीं, स्त्रियों की सामाजिक गतिविधियों के बारे में राधा कुमार ने लिखा है, “बीसवीं सदी के आरंभ में महिलाओं के स्वायत्त संगठन बनने शुरू हो गए तथा कुछ ही दशकों में मसलन तीस और चालीस के दशक तक नारी सक्रियता की एक विशेष श्रेणी का निर्माण हो गया।”¹⁴  तात्पर्य यह है कि नवजागरण की पृष्ठभूमि ने स्त्री-चेतना को आगे बढ़ने की परिस्थितियाँ मुहैया कीं।
 
स्त्री-विमर्श :  नई सोच और स्त्रियों की स्थिति - भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। हम कह सकते हैं कि भारतीय महिलाओं ने अपनी आज़ादी के मुद्दों के साथ-साथ देश की आज़ादी के लिए भी संघर्ष किया था। सरोजिनी नायडू, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, भीकाजी कामा, अरुणा आसफ अली समेत अनेक महिलाएँ स्वतंत्रता आंदोलन में पूरी तरह सक्रिय थीं। इसके साथ-साथ कांग्रेस तथा अन्य मंचों से भी वे अपने प्रश्न रख रही थीं। स्वतंत्रता के पश्चात् संविधान में महिलाओं को समान अधिकार हासिल हुए। संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 1947 में हिंदू स्त्रियों के अधिकारों के लिए हिंदू कोड बिल पेश किया था। इस बिल में विवाह की आयु सीमा बढ़ाने, स्त्रियों को तलाक का अधिकार देने, मुआवजा तथा विरासत के अधिकार देने जैसे प्रावधान थे।¹⁵ 1948 में यह बिल सेलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया गया था। फिर साल 1951 में आंबेडकर ने इसे संसद में पेश किया, जिसको लेकर उन्हें काफ़ी विरोध का सामना करना पड़ा। पुरातनपंथियों और रुढ़िवादियों ने इसका भारी विरोध किया जिससे यह संसद में पास नहीं हो सका। बाद में यह बिल चार कानूनों में विभाजित और संशोधित करके 1955-56 के दौरान पास करवाया गया। जाहिर है, स्त्रियों को अपने अधिकारों के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ा।
 
    इस घटनाक्र्म से स्पष्ट होता है कि अब सिर्फ़ पुरातन रूढ़ियों का विरोध भर स्त्रियों का मकसद नहीं था, बल्कि अपने अधिकारों को हासिल करना ही उनका मुख्य उद्देश्य था। इस दिशा में वे अग्रसर हो चुकी थीं। आज़ादी के बाद श्रम, समान वेतन, वैवाहिक और पारिवारिक अधिकार, संपत्ति का अधिकार इत्यादि मुद्दे स्त्रियों के लिए प्राथमिक हो गए थे। महिलाओं के लिए 19 वीं सदी जहाँ सुधारों की थी, वहीं 20 वीं सदी अधिकारों की शताब्दी हो गई।
 
    वर्ष 1970 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष के तौर पर मनाया। यह वही दौर था, जब आधुनिक महिला मुद्दे जोर-शोर से उठ रहे थे। राधा कुमार ने इस दौर के बारे में लिखा है, “नारीवादियों ने महसूस किया कि समानता की अवधारणा को व्यापक बनना होगा ताकि किसी भी ढाँचे की असमानता को चिह्नित करके मिटाया जा सके। इस दौरान पुरुषों से समानता की माँग पहले से थोड़ी कम महत्त्वपूर्ण हो गई और स्त्रियों द्वारा अपने निजी जीवन पर उसके नियंत्रण के अधिकार को लेकर आवाजें उठने लगीं। आर्थिक आत्मनिर्भरता इसका सबसे सशक्त पहलू था और इसके साथ ही अन्य क्षेत्रों में भी समान अधिकारों की माँग ने जोर पकड़ा, परन्तु इन सबसे ऊपर और महत्त्वपूर्ण थी महिलाओं की उनकी देह पर नियंत्रण के अधिकार की माँग।”¹⁶ इसी तरह विभिन्न संस्थानों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा भी लगातार उठता रहा। 1947 में महिलाओं की स्थिति को लेकर बनी समिति ने अपनी रपटसमानता की ओरमें सर्वप्रथम महिला आरक्षण का सुझाव दिया। गोपा जोशी ने इसके बारे में लिखा है, “संविधान के 73 वें तथा 74 वें संशोधन की वजह से अप्रैल 1993 में पंचायतों में तथा नगरपालिकाओं में महिला आरक्षण लागू किया गया। (महिलाओं के लिए) इसके बाद ही महिला संगठनों ने महिलाओं की नीति निर्धारण में भागीदारी के सवालों पर काम करना आरंभ कर दिया। अब महिला आंदोलन की मुख्य प्राथमिकता संसद एवं राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए दबाव बनाना हो गया।”¹⁷ इस तरह से सामाजिक तौर पर महिलाओं की स्थिति को लेकर आज़ादी के बाद विमर्श और आंदोलन चले। इसमें पितृसत्ता के विरोध के साथ-साथ अधिकार और प्रतिनिधित्व की माँग प्रमुख तौर पर नज़र आती है। वास्तव में इस दौर में स्त्री अपनी अस्मिता और अधिकार को लेकर अधिक सजग नज़र आती है।
 
    ठीक ऐसी ही स्थिति साहित्य में भी नजर आती है। छायावाद युग के दौरान महादेवी वर्मा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण महिला साहित्यकार रहीं। उन्होंनेशृंखला की कड़ियाँसमेत विभिन्न रचनाओं के जरिए स्त्री अभिव्यक्ति को ठोस आधार देने का प्रयास किया। महादेवी वर्मा ने लिखा है, “असंख्य विषमताओं का कारण, स्त्री का अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को भूलकर विवेक शक्ति खो देना है।“¹⁸ जाहिर है, महिलाओं का अपनी अस्मिता और विवेक का बोध होना सर्वाधिक ज़रूरी है। तभी वह मुक्ति की ओर अग्रसर हो सकती है। महादेवी वर्मा ने अर्थ(पूँजी) को शक्ति का अंध अनुयायी माना और उन्होंने लिखा है, “स्त्रियों की आर्थिक स्थिति में अब तक(उनके समय तक) परिवर्तन नहीं हो सका है।”¹⁹ स्पष्ट है कि आर्थिक अधिकारों पर भी महादेवी वर्मा एक दृष्टि मुहैया कराती नज़र आती हैं। उन्होंने लिखा है, “आज की बदली हुई परिस्थितियों में स्त्री केवल उन्हीं आदर्शों से संतोष ना कर लेगी जिनके सारे रंग उसके आँसुओं में धुल चुके हैं।”²⁰ जाहिर है, स्त्रियों के अधिकार में आर्थिक स्वतंत्रता भी महत्त्वपूर्ण है।
 
    उसके बाद हिंदी साहित्य में नई कहानी आंदोलन के बाद स्त्री अस्मिता को पहचान मिली और व्यापक तौर पर स्त्री विमर्श का आरंभ होता है। यही भोगा हुआ यथार्थ और अनुभव की प्रामाणिकता मूल संवेदना बन कर उभरी। स्त्री की ओर से स्त्री संवेदना अभिव्यक्त करने का प्रचलन बढ़ा और कई लेखिकाएँ उभरकर सामने आती हैं। इनमें उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, नासिरा शर्मा, मैत्रेयी पुष्पा, प्रभा खेतान जैसी लेखिकाएँ सशक्त तरीके से उभरती हैं।
 
     मुख्य तौर पर यह स्त्री-विमर्श 1960 के बाद व्यापक तौर पर उभरता है। स्त्री-विमर्श को लेकर मैत्रेयी पुष्पा ने लिखा है, “नारीवाद ही स्त्री विमर्श है, नारी की यथार्थ स्थिति की चर्चा करना ही स्त्री विमर्श है।”²¹ वहीं प्रभा खेतान के मुताबिक, “वास्तव में नारीवाद का केंद्रीय मुद्दा है उन समस्याओं को अभिव्यक्त करना, जिन्हें अब तक इतिहासकार केवल पुरुष सन्दर्भ में ही देखते रहने के अभ्यस्त हैं।”²² वास्तव में स्त्री-लेखन साहित्य को नयी भाषा, नया पाठ और नयी दृष्टि देता है। महादेवी वर्मा ने लिखा है, “पुरुष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है, परंतु अधिक सत्य नहीं, विकृति के अधिक निकट पहुँच सकता है, परंतु यथार्थ के समीप नहीं। पुरुष के लिए नारीत्व अनुमान है, परंतु नारी के लिए अनुभव। अतः अपने जीवन का जैसा सजीव चित्र वह हमें दे सकेगी वैसा पुरुष बहुत साधना के उपरान्त भी शायद ही दे सके।”²³
 
     हालाँकि रोहिणी अग्रवाल ने लिखा है, “साहित्य की स्त्री-दृष्टि एक वैश्विक अवधारणा है, जो भारत में 1975 में अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष के साथ क्रमशः आकार लेती दिखाई देती है। इसके मूल में स्त्री मुक्ति आंदोलन की राजनीतिक एवं वैचारिक प्रतिबद्धता को लक्षित किया जा सकता है, जो दास प्रथा की समाप्ति के आंदोलन के दौरान स्त्रियों की स्थिति में सुधार कार्यक्रम के रुप में प्रकट हुई। स्त्री विमर्श चूँकि स्त्री अस्मिता को केंद्र में लाकर उसेमनुष्यरूप में समझे जाने की आवश्यकता पर बल देता है, इसलिए यह अनिवार्य रूप में समाज की विभिन्न संस्थाओं-परिवार, विवाह, धर्म, न्याय, मीडिया और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों को स्त्री संदर्भ में देखता है।”²⁴
 
     आज महिलाओं की स्थिति को हम विभिन्न मानदंडों के आधार पर देख सकते हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में महिलाओं की संख्या करीब 58 करोड़ 64 लाख है, जो देश की कुल आबादी का करीब 48 प्रतिशत है। वहीं प्रति हजार पुरुष 943 महिलाएँ हैं।²⁵ वहीं साक्षरता की बात करें तो महिलाओं ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी प्रगति की है। प्राचीन काल में जहाँ उन्हें पढ़ने की आज़ादी और सुविधा हासिल नहीं थी लेकिन मौका मिलने पर उन्होंने पढ़ाई में बेहतर प्रदर्शन किया है। देश की जनगणना के आँकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं। उदाहरण के तौर पर 1951 में महिलाओं की साक्षरता दर महज 8.86 प्रतिशत थी जो अब बढ़कर 65.46 प्रतिशत हो गई है। गौर करने वाली बात यह है कि 1991 के बाद पुरुषों से मुकाबले महिलाओं की साक्षरता दर तेज़ी से बढ़ी है। 1991 में महिलाओं का साक्षरता दर 39.29 प्रतिशत था जो 2011 में 65.46 प्रतिशत हो गया।²⁶ यानी 26.17 प्रतिशत का अंतर है l वहीं इस दौरान पुरुषों की साक्षरता दर 1991 में 64.13 थी जो 2011 में 82.14 हो गई यानी सिर्फ़ 18.01 फीसदी का अंतर l इसका अर्थ यह निकलता है कि महिलाओं ने इस दौरान काफी तेजी से शिक्षा में वृद्धि की है। इतना ही नहीं सीबीएसई बोर्ड समेत विभिन्न बोर्डों में लड़कियों को लड़कों से भी अव्वल रहने की खबरें आती हैं। यह दिखाता है कि महिलाओं को पढ़ने और बढ़ने का मौका मिल रहा है तो वे काफ़ी बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं, यहाँ तक कि कभी-कभी पुरुषों के मुकाबले ज़्यादा बेहतर। हालाँकि पुरुषों की साक्षरता दर के मुकाबले अभी भी महिलाओं की साक्षरता दर अभी कम है, लेकिन उसका अंतर लगातार कम हो रहा है।
 
    जाहिर है, आज की सामाजिक स्थिति पर नज़र डालें तो इसमें कोई शक नहीं कि स्त्रियाँ हर क्षेत्र में अपना अलग मुकाम हासिल कर रही हैं। लेकिन आज भी उनकी एक बड़ी आबादी स्वावलंबन की दृष्टि से पीछे है। इसी तरह प्रतिनिधित्व के मसले पर उसे पूरा हक़ भी नहीं मिल सका है, मसलन संसद में महिला आरक्षण अब तक लटका हुआ है। विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के उचित प्रतिनिधित्व का संघर्ष अभी भी जारी है। इसी तरह पारिवारिक उत्पीड़न भी भीषण रूप में कायम है।
 
     एक ओर जहाँ महिलाएँ अपनी मज़बूत उपस्थिति दर्ज करा रही हैं तो दूसरी तरफ़ महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध भी लगातार बढ़े हैं। रोजाना महिलाओं के साथ बलात्कार, उत्पीड़न, ऑनर कीलिंग आदि घटनाएँ सामने आ रही हैं। यहाँ तक कि मासूम बच्चियों के साथ भी ऐसी वारदातें हो रही हैं, जो बेहद शर्मनाक है। गौर करने वाली बात कि 2015 में महिलाओं के ख़िलाफ़ हुए कुल 3.27 लाख अपराधों में 1.13 लाख मामलों में पति और परिजन उत्पीड़न में शामिल थे। इसी तरह शर्मनाक रूप से दहेज हत्या के 7634 मामले दर्ज हुए।²⁷ जाहिर है, खुद समाज के बाहरी अंगों के अलावा पारिवारिक उत्पीड़न अब भी एक चुनौती बना हुआ है।
 
निष्कर्ष : इन तमाम पहलुओं पर गौर करते हुए स्त्री-चेतना के लिए यह सबसे अहम है कि स्त्रियों को समाज की पुरुषवादी संरचना और उसकी जकड़न का भान है या नहीं? क्योंकि जब तक इसका भान नहीं होगा तब तक मुक्ति की आकांक्षा कोई कैसे कर सकता है? असल में बेड़ियों की पहचान, मुक्ति की आकांक्षा, विद्रोह और संघर्ष, शिक्षा का महत्त्व तथा आखिरकार स्वावलंबनः ये स्त्री-चेतना से बुनियादी स्तंभ हैं। इस क्रम के पूरा हुए बगैर स्त्रियों को पूरी स्वतंत्रता हासिल नहीं हो सकती। राहुल सांस्कृत्यान ने बहुत पहले ही लिखा है, “स्त्री की स्वतंत्रता और समाज में उसका समान स्थान तब तक कोरी कल्पना ही रहेगी, जब तक कि समाज के लिए जीविका-उत्पादन से उसे अलग रखा जाएगा और उसे घर की चहारदीवारी की रानीबनाकर रखा जाएगा। स्त्री की स्वतंत्रता तभी सम्भव होगी, जबकि वह बिना रोक-टोक जीविका-उत्पादन के काम में पूर्णतया भाग लेने लगेगीl”²⁸ जाहिर है, अब महिलाएँ घर की चहारदीवारी के बाहर निकलने लगी हैं लेकिन इस दिशा में बहुत सारे काम अभी किए जाने बाकी हैं। इसमें समान प्रतिनिधित्व शामिल है। वहीं सामंती प्रवृतियाँ शहरीकरण-आधुनिकीकरण के बाद नए-नए रूप ले चुकी हैं, जिस पर लगाम लगनी ज़रूरी है. कुल मिलाकर स्त्रियों के लिए बहुत कुछ बदला है लेकिन उन सामंती प्रवृत्तियों के खात्मे की ओर उनका संघर्ष अब भी जारी है। महादेवी वर्मा ने लिखा है, “हमें न किसी पर जय चाहिए, न किसी से पराजय, न किसी पर प्रभुता चाहिए, न किसी का प्रभुत्व। केवल अपना वह स्थान, वे स्वत्व चाहिए जिनका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है, परंतु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग बन नहीं सकेंगे। हमारी जागृत और साधन संपन्न बहिनें इस दिशा में विशेष महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकेंगी, इसमें संदेह नहीं।”²⁹ महादेवी वर्मा का यह कथन स्त्री-संघर्ष को बुनियादी दृष्टि प्रदान करता है।
 
                  इस प्रकार से यह स्पष्ट है कि स्त्रियों ने अपने संघर्ष और आंदोलन के बूते नवीन आधुनिक चेतना को अर्जित किया है। इसकी अभिव्यक्ति उनके साहित्यिक लेखन में भी हुई है। नवजागरण काल में ताराबाई शिंदे से लेकर छायावाद काल में महादेवी वर्मा के लेखन के माध्यम से स्त्री-दृष्टि ने नवीन और ठोस आधार प्राप्त किया है। इस आधुनिक स्त्री-चेतना में स्त्रियों की पूर्ण-स्वतंत्रता की मांग समाहित है। यह भी स्पष्ट है कि शिक्षा और आर्थिक स्वावलंबन उनकी स्वतंत्रता के लिए बहुत आवश्यक है। परंतु इसमें स्त्रियाँ किसी अन्य पर विजय अथवा प्रभुता नहीं चाहती, बल्कि अपने स्वतंत्र अस्तित्व की वकालत कर रही हैं। इस प्रकार से स्त्रियों की यह चेतना पूरी मानव जाति की समानता और बंधुत्व की दृष्टि पर आधारित है।
 

संदर्भ :

1.     राधा कुमारस्त्री संघर्ष का इतिहासवाणी प्रकाशनसंस्करण-2014, पृ. 23

2.     बिपिन चंद्राभारत का स्वतंत्रता संघर्षपृ. 46

3.     राधा कुमारस्त्री संघर्ष का इतिहासवाणी प्रकाशनसंस्करण-2014, पृ. 39

4.     वहीपृ. 40

5.     गोपा जोशीभारत में स्त्री असमानताहिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालयदिल्ली विश्वविद्यालयसंस्करण-2015, पृ. 115

6.     वीरभारत तलवाररस्साकशीसारांश प्रकाशनसंस्करण-2006, पृ. 39

7.     वहीपृ. 37

8.     वहीपृ. 43

9.     वहीपृ. 46

10. गोपा जोशीभारत में स्त्री असमानताहिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालयदिल्ली विश्वविद्यालयसंस्करण-2015, पृ. 124

11. के.एममालतीस्त्री-विमर्शभारतीय परिप्रेक्ष्यवाणी प्रकाशनसंस्करण-2010, पृ.सं. 57-58

12. गरिमा श्रीवास्त्वअथ सवर्ण स्त्री प्रति-आख्यानहिंदी समय

13. राधा कुमारस्त्री संघर्ष का इतिहासवाणी प्रकाशनसंस्करण-2014, पृ. 12

14. वहीपृ. 202

15. राधा कुमारस्त्री संघर्ष का इतिहासवाणी प्रकाशनसंस्करण-2014, पृ. 15

16. गोपा जोशीभारत में स्त्री असमानताहिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालयदिल्ली विश्वविद्यालयसंस्करण-2015, पृ. 338

17. महादेवी वर्माश्रृंखला की कड़ियांलोकभारती प्रकाशनसंस्करण-2017, पृ. 14

18. वहीपृ. 86-87

19. वहीपृ. 95

20. मैत्रेयी पुष्पाहंसअक्टूबर 1996, पृ.सं. 7

21. प्रभा खेतानहंसअक्टूबर, 1996, पृ.सं. 75

22. महादेवी वर्माश्रृंखला की कड़ियांलोकभारती प्रकाशनसंस्करण-2017, पृ. 63

23. रोहिणी अग्रवालसाहित्य की स्त्री दृष्टिहिंदी समय

24. भारत की जनगणना, 2011

25. वही, 2011

26. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, 2015 की रिपोर्ट

27. राहुल सांस्कृत्यानमानव समाजलोकभारती पेपरबैक्ससंस्करण-2016, पृ. 24

28. महादेवी वर्माश्रृंखला की कड़ियांलोकभारती प्रकाशनसंस्करण-2017, पृ. 23-24

  
तहसीन मजहर
शोध छात्रा, हिन्दी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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