शोध आलेख : स्वतंत्र भारत में दिल्ली राज्यक्षेत्र की राजनीतिक - प्रशासनिक संरचना में लोकतांत्रिक मूल्यों का विश्लेषणात्मक अवलोकन / सुशील कुमार एवं प्रो. हिमांशु बौड़ाई

स्वतंत्र भारत में दिल्ली राज्यक्षेत्र की राजनीतिक - प्रशासनिक संरचना में लोकतांत्रिक मूल्यों का विश्लेषणात्मक अवलोकन 

 - सुशील कुमार एवं डॉ. हिमांशु बौड़ाई

 

शोध सार : वर्तमान राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की राजनीतिक-प्रशासनिक संरचना की आधारशिला 1991 में भारतीय संविधान में 69वें संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 239’क’‘क’ के माध्यम से रखी गयी। संघ राज्यक्षेत्र के रूप में दिल्ली को एक ‘निर्वाचित विधानसभा के साथ उपराज्यपाल द्वारा प्रशासित करने की व्यवस्था की गयी है। वर्तमान में संचालित यह व्यवस्था भी दिल्ली की निर्वाचित सरकार को निर्णय-निर्माण प्रक्रिया में पूर्ण स्वायत्ता प्रदान नहीं करती है। दिल्ली का जनसांख्यिकीय आधार व भौगोलिक विस्तार यहाँ एक सुव्यवस्थित राज्य स्तर पर सरकार की मांग करता है तथा समय-समय पर विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा भी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की आवाज़ उठाई जाती रही है। इस क्रम में लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर दिल्ली की राजनीतिक-प्रशासनिक संरचना में निरंतर बदलाव भी होते रहे हैं, जिसके परिणाम स्वरूप दिल्ली को ‘राज्य’ व ‘केंद्र शासित प्रदेश’ जैसी राजनीतिक संरचना में परिवर्तित किया गया। अतः इस शोध-पत्र में दिल्ली की राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था में आए इन प्रजातान्त्रिक बदलावों का विश्लेषणात्मक अवलोकन करने का प्रयास किया गया है।


बीज शब्दः दिल्ली, उपराज्यपाल, विधानसभा, लोकतांत्रिक मूल्य।

मूल आलेख : भारतीय राजनीतिक इतिहास में दिल्ली प्रशासनिक केंद्र के रूप में रहा है। प्राचीन काल से वर्तमान तक दिल्ली ने अनेक प्रशासनिक बदलावों को आत्मसात किया है। दिल्ली को मुगलों द्वारा राजनीतिक सत्ता के आधुनिक स्वरूप में उभारने की शुरुआत की गयी तथा ब्रिटिश शासन के दौरान 1911 में दिल्ली को आधिकारिक रूप से ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी घोषित किया गया था। स्वतंत्रता से पूर्व दिल्ली क्षेत्र को ब्रिटिश काल में चीफ कमिश्नरी के द्वारा संचालित किया जाता था, जिसकी नियुक्ति गवर्नर जनरल द्वारा की जाती थी। स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने दिल्ली को, इसके प्रशासनिक महत्व के कारण राजधानी स्वीकार कर लिया। 1950 के दशक की शुरुआत से ही राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की राजनीतिक-प्रशासनिक संरचना में दिलचस्प मोड़ आए हैं। इनमें लोकतान्त्रिक सिद्धांत के हवाले से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की पूरजो़र तरीके से वकालत की गयी। किसी भी राजनीतिक शासन तंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है कि उसके पास अपनी नीतियों व कार्यों को लागू करवाने के लिए व्यापक शक्ति हो चूँकि इसकी कमी एक निर्वाचित सरकार के कामकाज को बाधित कर सकती है। यह कई मौकों पर दिल्ली के संदर्भ में उसके सरकारी कक्षों में प्रतिचिन्हित भी हुआ है इसी करण दिल्ली को एक पूर्ण राज्य बनाने की आवश्यकता को इस प्रकार की बाधाओं/अडचनों का एक मात्र हल के रूप में देखा जाता रहा है।

लोकतांत्रिक सरकारों के विषय में चंद्रप्रकाश भांबरी ने अपनी पुस्तक ‘भारत में लोकतंत्र‘ (2011) में कहा है कि स्वतंत्र, भयमुक्त और निरंतर चुनाव, उत्तरदायी सरकार, शक्तियों का बंटवारा, स्वतंत्र प्रेस, स्वस्थ राजनीतिक दलीय तंत्र, निष्पक्ष न्यायप्रणाली आदि लोकतांत्रिक मूल्यों के माध्यम से लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थापित किया जा सकता है। किसी भी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का मूल्यांकन इन लोकतांत्रिक मूल्यों की उपस्थिति और प्रभावी क्षमता के आधार पर किया जाता है क्योंकि बहुत सारे राष्ट्रों ने लोकतांत्रिक होने का दावा संस्थाओं के चिन्हों के आधार पर ही किया है जबकि लोकतंत्र की सामान्य प्रकृति के मूल्य इन देशों के प्रशासनिक ढांचे में उपस्थित ही नहीं है।1 अतः यह अध्ययन करना अति आवश्यक हो जाता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर अब तक दिल्ली में जो शासन प्रणाली चलाई जाती रही है, विशेषत: वर्तमान शासन प्रणाली, लोकतांत्रिक पैमाने पर कितनी खरी उतरी है।
इस शोध-पत्र का स्वरूप सैद्धांतिक है जो ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है। इसमें व्याख्यात्मक और विश्लेषणात्मक शोध पद्धतियों का उपयोग किया गया है। इसमें मुख्यत: प्राथमिक व द्वितियक स्त्रोंतों पर आधारित अध्ययन सामग्री का उपयोग किया गया है, जिसमें शामिल हैं भारतीय संविधान, संबंधित अधिनियम, पुस्तकें, समाचार-पत्र और अन्य पत्र-पत्रिकाएं।
दिल्ली का भौगोलिक विस्तार
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार दिल्ली की जनसंख्या 1.68 करोड़ थी। दिल्ली की कुल जनसंख्या की 93 प्रतिशत आबादी नगरीय क्षेत्र में रहती है जबकि केवल 7 प्रतिशत आबादी ही ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। वर्तमान में प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से दिल्ली को ग्यारह जिलों में बांटा गया है। क्षेत्रफल की दृष्टि से राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र दिल्ली 1483 वर्ग किमी. तक फैला हुआ है। 1483 वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में से 369.35 वर्ग कि.मी. क्षेत्र को ग्रामीण क्षेत्र के रूप में और 1113.65 वर्ग कि.मी. क्षेत्र को शहरी क्षेत्र के रूप में निर्दिष्ट किया गया है।2
स्वतंत्र भारत में दिल्ली की राजनीतिक-प्रशासनिक संरचना में आए प्रमुख बदलाव
लोकतंत्र की दृष्टि से किसी भी देश में वहां के लोगों के नागरिक व राजनीतिक अधिकारों का बहुत महत्व होता है और दिल्ली की जनता अपने नागरिक अधिकारों के प्रति हमेशा सजग रही है इसलिए स्वतंत्रता के बाद से ही दिल्ली की राजनीतिक संरचना को लेकर, यहाँ की स्थानीय जनता द्वारा लोकतांत्रिक मूल्यों से संबंधित सवाल उठाये जाते रहे हैं।3 दिल्ली की राजनीतिक-प्रशासनिक संरचना में आए निम्नलिखित बदलावों (तालिका-1.1) का मुख्य कारण इसके स्वरूप को और अधिक लोकतांत्रिक बनाना रहा है।

वर्ष 

प्रशासनिक बदलाव 

1947-1952 

दिल्ली का प्रशासन भारत सरकार के अधीन 

1952-1956 

दिल्ली को भाग-ग राज्य के रूप में स्थापित किया गया (विधानसभा, मुख्यमंत्री व उसकी मंत्री-परिषद्) 

1956 

दिल्ली विधानसभा का विघटन (सातवें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से) 

1956-1966 

दिल्ली, केंद्र शासित प्रदेश के रूप में 

1957 

दिल्ली में निर्वाचित नगर-निगम की स्थापना  

1966-1980 

मेट्रोपोलिटिन काउंसिल की स्थापना, उपराज्यपाल पद की व्यवस्था(दिल्ली प्रशासनिक अधिनियम-1966 के द्वारा)  

1980 

मेट्रोपोलिटिन काउंसिल का विघटन   

1983-1990 

मेट्रोपोलिटिन काउंसिल की पुन:स्थापना  

1990 

मेट्रोपोलिटिन काउंसिल का पुन: विघटन   

1991- अभी तक  

उपराज्यपाल पद के साथ निर्वाचित विधानसभा(70 सदस्यीय) की व्यवस्था स्थापित (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली अधिनियम, 1991 के द्वारा)   


(तालिका 1.1) 

    मूल संविधान के अनुच्छेद 240 के माध्यम से संसद को, भाग-‘ग‘ राज्यों के लिए विधानमंडल या सलाहकार के रूप में कार्य करने हेतु एक निर्वाचित अथवा नामित निकाय सृजित करने के लिए प्राधिकृत किया गया था। इस आधार पर संसद द्वारा ‘गवर्नमेंट ऑफ पार्ट-सी स्टेट्स एक्ट, 1951’ पारित किया गया जिसके माध्यम से दिल्ली के लिए एक निर्वाचित विधान परिषद् के गठन की व्यवस्था की गयी।4
    दिल्ली में पहला विधानसभा चुनाव 1952 में संपन्न हुआ तथा इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी की विजय हुई और चैधरी ब्रह्म प्रकाश को दिल्ली का प्रथम मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया। इस प्रकार दिल्ली में पहली बार प्रांतीय स्तर पर निर्वाचित विधानसभा अस्तित्व में आई जिसमें कुल 48 सदस्य थें। निर्वाचित विधानसभा के अधिकार क्षेत्र में लोक व्यवस्था, पुलिस, नगर निगमों, जलापूर्ति, विद्युत, परिवहन, भूमि और अन्य जनसुविधा सेवाओं के सम्बन्ध में कानून बनाने की शक्तियाँ नही थीं।5 यह व्यवस्था नवम्बर,1956 तक चलती रही। दिल्ली में उपरोक्त राजनीतिक संरचना के अंतर्गत पहली बार लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थापित करने का प्रयास किया गया। दिल्ली में विधानसभा की उपस्थिति यहाँ के नागरिकों के राजनीतिक अधिकारों को प्रबल व सशक्त बनाने की सुदृढ शुरुआत थी। इस व्यवस्था के माध्यम से दिल्ली के नागरिकों को स्वम् पर शासन करने का अधिकार प्राप्त हुआ परन्तु इसका दायरा बहुत सिमित था क्योंकि दिल्ली विधान सभा को वह सभी अधिकार नहीं दिए गये जो एक सामान्य राज्य की विधानसभा अपने पास रखती है।
‘‘नगर-निगम अधिनियम, 1957‘‘ के माध्यम से स्थानीय स्तर पर शासन तंत्र की व्यवस्था की गयी। यह अधिनियम बोम्बे कारपोरेशन की तर्ज पर तैयार किया गया था। दिल्ली नगर निगम एक प्रतिनिधि निकाय था जिसमें वयस्क मताधिकार के आधार पर दिल्ली के नागरिकों द्वारा चुने गए 100 पार्षद शामिल थे तथा इसमें 13 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित की गयी थी। नई दिल्ली नगरपालिका समिति (केंद्र सरकार का आसन) और दिल्ली छावनी बोर्ड की सीमाओं के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों को दिल्ली नगर निगम के क्षेत्राधिकार से बाहर रखा गया। इस प्रकार इन दोनों (नई दिल्ली नगरपालिका समिति और दिल्ली छावनी) के क्षेत्रों को छोड़ कर दिल्ली नगर निगम का क्षेत्राधिकार लगभग सम्पूर्ण केंद्र प्रशासित दिल्ली पर था। नगर निगम के कार्यों का मुख्य सरोकार स्थानीय मुद्दों से ही था।6

राज्य पुनर्गठन आयोग(1955) का लोकतंत्र के पक्ष में तर्क था कि “हमारा निश्चित मत है कि नगर स्वायत्ता, जो निगम के रूप में अधिक स्थानीय स्वायत्ता प्रदान करेगी, जैसा कि कुछ महत्वपूर्ण संघीय राजधानियों के मामले में भी है और वास्तव में दिल्ली राज्य की समस्या का एकमात्र समाधान है।“ 7 लोकतांत्रिक दृष्टि से दिल्ली की विधानसभा की व्यवस्था व राज्य का दर्जा समाप्त करना दिल्ली की जनता के लिए एक गैर लोकतांत्रिक कदम था। निगम की स्थापना के पश्चात् भी यह व्यवस्था पूर्णतः लोकतांत्रिक मूल्यों को समायोजित नहीं कर सकी क्योंकि केंद्र सरकार का यह कदम दिल्ली के नागरिकों को राज्य स्तरीय सरकार के आभाव के चलते, स्वयं पर शासन करने के अधिकार से वंचित करता था। दिल्ली शहर का जनसांख्यिकीय आधार व भौगोलिक विस्तार यहाँ एक सुव्यवस्थित राज्य स्तर की सरकार की मांग करता था। अतः दिल्ली राज्य के लिए एक ऐसी राज्य शासन प्रणाली की आवश्यकता थी जो यहाँ की जनता के प्रति उत्तरदायित्व पूर्ण कार्यों का निर्वहन कर सकें।।
दिल्ली नगर निगम यहाँ के नागरिकों की आर्थिक-राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा करने में विफल रहा क्योंकि दिल्ली महानगर का विविध क्षेत्रीय विस्तार यहाँ विभिन्न आवश्यकताओं को जन्म देता था। प्रत्येक क्षेत्र के आर्थिक विकास का स्वरूप(पैटर्न) दूसरे क्षेत्र से काफी भिन्न था। उदाहरणतः दिल्ली के कुछ क्षेत्र संघन आबादी के साथ निम्न आर्थिक वृद्धि व कुछ क्षेत्र कम आबादी के साथ उच्च आर्थिक वृद्धि के आधार पर चिन्हित किए जा सकते हैं। दिल्ली की नगरीय जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में मतदाताओं के आकार में आनुपातिक वृद्धि हुई जिससे निगम के कार्यों में दिन-प्रतिदिन वृद्धि के साथ अकुशलता बढ़ती चली गयी तथा दिल्ली के नागरिकों ने निगम की बढ़ती निष्फलता के विरूद्ध अपने आर्थिक-राजनीतिक हितों के पक्ष में प्रबल आवाज उठाई।8 दिल्ली के जनमत दबाव के कारण, 1966 में जनता की मांगों को पूरा करते हुए संसद ने ‘‘दिल्ली प्रशासन अधिनियम, 1966‘‘ पारित किया। इस अधिनियम द्वारा मेट्रोपॉलिटन परिषद की स्थापना की गई, इसमें 56 निर्वाचित तथा पाँच मनोनीत सदस्य शामिल थे तथा इसका कार्यकाल पाँच वर्ष का था। मेट्रोपॉलिटन परिषद्, लेफ्टिनेंट गवर्नर को सलाह देने के साथ-साथ विभिन्न मुद्दों पर केवल चर्चा करने का अधिकार रखती थी। दिल्ली के मुख्य प्रशासक के रूप में पहली बार ‘‘लेफ्टिनेंट गवर्नर‘‘ की नियुक्ति की गई तथा इसकी सहायता के लिए चार सदस्यीय कार्यकारी परिषद् का गठन किया गया। इसमें एक मुख्य कार्यकारी पार्षद व अन्य तीन पार्षद सम्मिलित थे। कार्यकारी परिषद् दिल्ली में मंत्रिमंडल के रूप में थी परन्तु यह मेट्रोपोलिटन परिषद् के प्रति उत्तरदायी नहीं थी तथा न ही यह एक निर्वाचित निकाय थी।9 कानून बनाने की शक्ति किसी भी लोकतांत्रिक सरकार की अनिवार्य विशेषता होती है, किंतु इस व्यवस्था के अंतर्गत दिल्ली में यहाँ के नागरिकों के लिए कानूनों का अधिनियमन संसद द्वारा किया जा रहा था जिससे आम आदमी के सरोकार से संबंधित प्रशासन के दिन प्रतिदिन के कार्यों का संचालन सफलता पूर्वक नहीं हो पा रहा था। वित्तीय शक्तियों के संबंध में भी दिल्ली प्रशासन केवल उन शक्तियों का ही प्रयोग कर पाने में सक्षम था जो उसे केंद्र सरकार द्वारा दी गयी थी। यहाँ तक की दिल्ली के बजट को भी अंतिम रूप विभिन्न केन्द्रीय मंत्रालयों के माध्यम से दिया जा रहा था। यह व्यवस्था लगभग तीन दशकों तक चलती रही।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम, 1991
     केंद्र सरकार ने 14 दिसंबर, 1987 को राजधानी दिल्ली की प्रशासनिक व्यवस्था को अधिक लोकतांत्रिक बनाने के उद्देश्य से आर. एस. सरकारिया की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। 17 जनवरी, 1989 को न्यायमूर्ति आर. एस. सरकारिया ने, भारतीय प्रेस परिषद का अध्यक्ष नियुक्त किये जाने के कारण समिति को त्यागपत्र दे दिया। इसके उपरांत इस समिति की अध्यक्षता एस. बालकृष्णन द्वारा की गयी जिसने केंद्र प्रशासित दिल्ली से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर विचार किया एवं समुचित सुझावों के साथ 14 दिसंबर, 1989 को समिति ने केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी।10
एस. बालकृष्णन समिति ने सिफारिश की, कि राष्ट्रीय राजधानी का एक विधानमंडल हो जो केंद्र सरकार के हितों की रक्षा करते हुए अपने कार्य संपन्न करें। वर्तमान में प्रचलित प्रशासनिक व्यवस्था एस. बालकृष्णन समिति की सिफारिशों पर ही आधारित है। समिति की सिफारिशों के आधार पर संसद ने ‘राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम, 1991’ के माध्यम से दिल्ली में एक निर्वाचित विधानसभा के साथ उपराज्यपाल पद का प्रावधान किया गया है। उपराज्यपाल को राष्ट्रपति के द्वारा नियुक्त किया जाता है। दिल्ली की राजनीतिक संरचना को संवैधानिक रूप प्रदान करने के लिए संसद द्वारा उनहत्तरवें संविधान संशोधन अधिनियम,1991 के माध्यम से भारतीय संविधान में दो नए अनुच्छेदों- 239‘क‘‘क‘ तथा 239‘क‘‘ख‘, को सम्मिलित किया गया। इस संशोधन के तहत दिल्ली को ‘राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र’ कहा गया है व अनुच्छेद 239 के तहत नियुक्त उपराज्यपाल को इसके मुख्य प्रशासक के रूप में उपबंधित किया गया है। दिल्ली की विधानसभा पुलिस, भूमि, और लोक व्यवस्था के विषयों को छोड़कर राज्य सूची व समवर्ती सूची के अन्य विषयों पर कानून बनाने का अधिकार रखती हैं।11
1991 में 69वें संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान में वर्तमान समय में कार्यरत राजनीतिक-प्रशासनिक ढांचे की व्यवस्था की गयी है। लोकतंत्र की मज़बूती के लिए दिल्ली में एक निर्वाचित विधानसभा के साथ मुख्यमंत्री व उसके मंत्रिमंडल तथा केंद्र के अभिकर्ता के रूप में उपराज्यपाल पद की व्यवस्था की गयी है। इस विशेष राजनीतिक व्यवस्था के अस्तित्व में आने के पश्चात् दिल्ली राज्य में लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित एक विशेष राजनीतिक संरचना का सूत्रपात हुआ है। वर्तमान दिल्ली की राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था में निम्न बिन्दुओं के माध्यम से लोकतांत्रिक पहलुओं को देखा जा सकता हैः-
संविधान के अनुच्छेद 239‘क’‘क’ के उपभाग 2(क) में कहा गया है की राष्ट्रीय राजधानी के लिए एक निर्वाचित विधानसभा होगी।12 दिल्ली में निर्वाचित विधानसभा का गठन, यहाँ के नागरिकों के लोकतांत्रिक-राजनीतिक अधिकारों को सुनिश्चित करता है। दिल्ली के नागरिक अब निश्चित समयांतराल में होने वाले चुनाव के माध्यम से अपने मताधिकार का प्रयोग कर, उस राज्य सरकार का चुनाव कर पाते है जो उन पर शासन करती है।

संविधान के अनुच्छेद 239‘क’‘क’ के उपभाग 6 में कहा गया है की मंत्रिपरिषद् विधानसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगी।13

    लोकतंत्र में चुनावों के माध्यम से जनता के प्रति सरकार का उत्तरदायित्व निर्धारित होता है। अर्थात दिल्ली की चुनी हुई सरकार जनता के हित में कार्य नहीं करेगी तो अगले चुनाव में उस पार्टी को जनता द्वारा बहुमत प्राप्त नहीं होगा।
    दिल्ली में एक स्वतंत्र तथा निष्पक्ष न्यायतंत्र है। अन्य राज्यों की भांति दिल्ली का अपना उच्च न्यायालय है जो सरकार बनाम नागरिक तथा केंद्र-राज्य के बीच होने वाले विभिन्न प्रशासनिक झगड़ों का निपटारा करता है तथा इससे सरकार की निरंकुशता पर भी रोक लगती है।

    दिल्ली में शक्तियों का बंटवारा क्षैतिज तथा उर्ध्वाधर दोनों स्तरों पर देखने को मिलता है। जैसेः- क्षैतिज स्तर पर यहाँ कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका के साथ ‘दिल्ली विकास प्राधिकरण’ जैसी संस्था कार्यरत है। वहीं उर्ध्वाधर स्तर पर केंद्र तथा राज्य के साथ-साथ दिल्ली नगर निगम के साथ शक्तियों का बंटवारा किया गया है। दिल्ली में राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय दोनों दलों का जनाधार देखने को मिलता है। यह एक स्वस्थ लोकतांत्रिक दलीय पद्धति के प्रचलित होने का प्रमाण है जो यहाँ लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने में सहायक है।
उपरोक्त लोकतांत्रिक विशेषताओं के बावजूद समय-समय पर वर्तमान प्रशासनिक ढांचे में भी ऐसी विशेष परिस्थितियां उत्पन्न होती रही है जिनमें दिल्ली की राज्य सरकार व केंद्र सरकार टकराव की स्थिति में नजर आते हैं। दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी होने के नाते यहाँ केंद्र सरकार का, उपराज्यपाल के माध्यम से कई मामलों में प्रत्यक्ष नियंत्रण देखने को मिलता है। दिल्ली की प्रशासनिक कार्यप्रणाली में कुछ फैसलों पर दिल्ली की राज्य सरकार, केंद्र सरकार के प्रतिनिधि उपराज्यपाल से असहमत नज़र आती है। इसके पीछे मुख्यता दो कारण हैं। पहला, ’राज्य सूची के तहत दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर किए गये विषय, यानि प्रविष्टि 1(लोक व्यवस्था), 2(पुलिस) और 18(भूमि), जिन पर दिल्ली विधानसभा कानून नहीं बना सकती है। दिल्ली में तैनात प्रशासनिक अधिकारियों से जुड़े कानून बनाना, उनकी पदोन्नति और स्थानांतरण करने का अधिकार दिल्ली के मुख्यमंत्री से ज्यादा उपराज्यपाल(केन्द्रीय गृह मंत्रालय) को ही है। दूसरा, संसद के पास दिल्ली राज्य क्षेत्र के लिए भी राज्य सूची की अन्य प्रविष्टियों पर समवर्ती विधायी शक्तियाँ हैं।’14
मार्च, 2021 में केंद्र सरकार द्वारा पारित ‘दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र शासन अधिनियम 1991’ में संशोधन (2021) ने दिल्ली की निर्वाचित सरकार को लोकतांत्रिक रूप से और भी कमजो़र बना दिया है। इस संशोधन के माध्यम से व्यवस्था की गयी है की सरकार का अर्थ उपराज्यपाल से होगा न की दिल्ली की निर्वाचित सरकार से होगा। यह अधिनियम उन मामलों में भी उपराज्यपाल को विवेकाधीन अधिकार देता है जिन मामलों में दिल्ली की विधानसभा को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है तथा साथ ही विधानसभा या उसकी समितियों को दैनिक प्रशासन से संबंधित मामलों को उठाने या प्रशासनिक निर्णयों के संबंध में पूछताछ करने संबंधित नियम बनाने से रोकता है।15 स्पष्टतः यह कानून दिल्ली की निर्वाचित सरकार के अधिकारों को सीमित करता हैं।
दिल्ली में राज्य स्तर पर एक निर्वाचित सरकार होने के बावजूद भी यहाँ उपराज्यपाल(केंद्र सरकार) के पास अधिक शक्तियाँ है। अत: यहाँ ऐसी परिस्थितियाँ अक्सर दिखाई देती है जिनमें राज्य स्तरीय निर्वाचित सरकार अपने लोकतान्त्रिक शासनीय अधिकारों का केंद्र के द्वारा हनन किये जाने पर दोष आरोपित करती है। इस प्रकार की शिकायतें दिल्ली की राज्य राजनीति में कोई नई नहीं दिखाई पड़ती है। कई बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी इस समस्या के चलते विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने जैसे वायदों को जनता के सम्मुख दोहराया जाता रहा है। लेकिन इस मुद्दे पर हितधारकों ( केंद्र तथा दिल्ली राज्य स्तरीय सरकार) के बीच कोई आम सहमति नहीं बन पाई है। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और प्रशासनिक बाधाओं ने भी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की माँग को हकीकत से दूर रखा है।
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने के पीछे जो मुख्य तर्क दिए जा सकते हैं उनमें दिल्ली की विशाल जनसंख्याँ का होना, दिल्ली को राज्यस्तर पर एक उत्तरदायी निर्वाचित सरकार देना, आम जनता की दिन-प्रतिदिन समस्याओं का आसानी से निपटारा, विभिन्न स्तर के प्राधिकारियों व एजेंसियों में तालमेल की कमी का होना, दिल्ली की राज्य सरकार का नगर निगम पर नियंत्रण न होना आदि है। वही इसके विपरीत दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाना भविष्य के लिए नकारात्मक परिणामों से भरा भी हो सकता है। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाना भारतीय संघीय व्यवस्था में संघीय सरकार के आसन पर किसी राज्य इकाई सरकार का नियंत्रण स्थापित करने जैसा है। जिसके निश्चित ही संभावित दुष्परिणाम हो सकते है क्योंकि राष्ट्रीय राजधानी, राष्ट्रीय महत्व की दृष्टि से केंद्र सरकार का कार्य आसन है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामान्यत: अन्य राज्यों पर निर्भर रहना पड़ता है जैसे खाद्यान पदार्थो के लिए, जलापूर्ति, बिजली आदि के लिए। दिल्ली की अपनी एक राष्ट्रीय पहचान है अर्थात यह एक संश्लिष्ट संस्कृतियों का एक केंद्र है क्योंकि यहाँ विभिन्न राज्यों से आए लोग बसे है यही मुख्य कारण है की यहाँ की जनता दिल्ली को राज्य का दर्जा दिए जाने के मुद्दे पर ज्यादा सक्रिय दिखाई नहीं पड़ती है और यह मुद्दा केवल राजनीतिक दलों द्वारा बनाया एक चुनावी मुद्दा मात्र बन कर रह जाता है। फिर भी इन तर्को को आधार बना कर दिल्ली की राजनीतिक-प्रशासनिक संरचना में बदलावों के लिए उठाने वाली आवाज के महत्व को नकारना अनुचित होगा क्योंकि इस तरह की लोकतान्त्रिक बदलावों पर आधारित माँगों का निरंतर विमर्श में रहना ही हमारे लोकतंत्र के स्वास्थ्य की प्रबल निशानी को परिलक्षित करता है। अत: नागरिकों की विकास की प्रक्रिया को सहज व तीव्र करने के लिए दिल्ली की राजनीतिक-प्रशासनिक संरचना में कुछ बदलाव किये जा सकते है जो निम्न लिखित तीन मुख्य सवालों के माध्यम से सांकेतिक है, जिनका ज़िक्र आगे किया जा रहा हैं।

    भारत का संविधान देश में संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करता है। यहाँ संघात्मक संरचना, शासन की एक प्रमुख विशेषता है। इसी संघात्मक शासन व्यवस्था के अंतर्गत दिल्ली राज्य के प्रशासन में प्रायः यह विशेष प्रकार की जटिलता देखने को मिलती है। दिल्ली में उपराज्यपाल को कुछ विशेष अधिकार आवंटित किये गये हैं जो दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी होने के नाते आवश्यक भी है ताकि केंद्र सरकार के कार्यकलापों में किसी तरह की बाधा उत्पन्न न हो तथा न ही केंद्र सरकार को अपने किसी कार्य के लिए किसी राज्य सरकार के अधीनस्थ रहना पड़े।
    
    वर्तमान समय में दिल्ली के उपराज्यपाल व मुख्यमंत्री के मध्य नवीन विवादास्पद मुद्दों के उभरने से जहाँ एक ओर दिल्ली की लोकतान्त्रिक संवैधानिक कार्यप्रणाली को प्रभावित किया है तथा दो दशक से चली आ रही दिल्ली की राजनीतिक-प्रशासनिक संरचना पर भी प्रश्न-चिन्ह खड़े हुए है। वहीँ दूसरी तरफ इस राजनीतिक संघर्ष में दिल्ली की लगभग दो करोड़ जनसँख्या के विकास की प्रक्रिया बाधित होती नजर आती है इससे आम नागरिकों का लोकतान्त्रिक संस्थाओं के प्रति विश्वास भी कमजो़र हुआ है।
    
     दिल्ली के उपराज्यपाल व मुख्यमंत्री के बीच शिक्षा, स्वास्थ्य, नगर निगम, आबकारी नीति, प्रशासनिक सेवाओं आदि से जुड़े विभिन्न विषयों ने मुख्यत: तीन सवालों/बहसों को जन्म दिया है। प्रथम, क्या वर्तमान में कार्यरत दिल्ली की राजनीतिक-प्रशासनिक संरचना लोकतान्त्रिक रूप से उपयुक्त व्यवस्था है? यह एक अति गंभीर सवाल तो है ही साथ में दिल्ली में इतनी बड़े स्तर पर जनसँख्या विस्तार होने के कारण यह अत्यंत महत्वपूर्ण भी है कि इतनी बड़ी आबादी के नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक प्रभावी प्रतिनिधि लोकतान्त्रिक प्रणाली को लागू किया जाना चाहिए। दिल्ली की निर्वाचित राज्य सरकार को और अधिक लोकतांत्रिक व उत्तरदायी स्वरूप प्रदान करने के लिए दिल्ली में राज्य स्तर की विशेष लोक सेवाओं के सम्बन्ध में दिल्ली राज्य सरकार को समवर्ती अधिकार दिए जा सकते है जिससे निर्वाचित प्रतिनिधियों की नौकरशाही पर प्राथमिकता भी सुनिश्चित हो सकेगी। द्वितीय, क्या सरकार के रूप में दिल्ली की राज्य-सरकार को और अधिक शक्तियाँ दी जानी चाहिए? दिल्ली की राज्य सरकार को और अधिक शक्तियों का आबंटन करना दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की तरफ लेकर जायेगा जिससे वर्तमान में उत्पन्न विवाद और अधिक गहरा सकते हैं क्योंकि यह देश की राजधानी के कामकाज के लिए रूकावट/बाधक हो सकता है। दिल्ली एक पूर्ण राज्य नहीं है अतः यहाँ की विधानसभा वह सभी विधायी शक्तियाँ नहीं रखती है जो एक सामान्य राज्य की विधानसभा के पास होती है। चूँकि दिल्ली में राज्य स्तर पर एक निर्वाचित सरकार है अत: पुलिस, कानून व्यवस्था और भूमि जैसे विषयों में भी उपराज्यपाल के उत्तरदायित्वों को दिल्ली राज्य सरकार के साथ निश्चित सीमा तक (बशर्ते केंद्र सरकार की कार्य प्रणाली प्रभावित न हो) सांझा किए जाने की आवश्यकता है अर्थात् इन विषयों पर भी दिल्ली राज्य सरकार को समवर्ती अधिकार दिए जाने चाहिए ताकि दिल्ली की कानून व्यवस्था और नगरीय विकास प्रक्रिया में दिल्ली की निर्वाचित राज्य सरकार की भूमिका सुनिश्चित हो सके। तृतीय, क्या वर्तमान में चुनी हुई सरकार व उपराज्यपाल के बीच उत्पन्न विभिन्न विवादास्पद मुद्दों के पीछे केंद्र तथा राज्य में कार्यरत दो अलग-अलग राजनीतिक दलों के मात्र चुनावी राजनीतिक हित है? इसके प्रतिउत्तर में कहा जा सकता है की दिल्ली राज्यक्षेत्र जिस राजनीतिक दल के द्वारा शासित है उसके पास राजनीतिक अनुभव व कौशल की कमी है वहीँ केंद्र में सत्ता रूढ़ दल के पास एक लंबा राजनीतिक अनुभव है। उपराज्यपाल(केंद्र सरकार) और राज्य स्तरीय चुनी हुई सरकार को अपने-अपने दायित्वों को समझना होगा तथा जनकल्याण को अपनी कार्यप्रणाली में सर्वोच्च स्थान देना चाहिए।
    दिल्ली में उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के अधिकारों को लेकर उत्पन्न विभिन्न विवादों पर सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने अपने निर्णय में कहा की ‘दिल्ली के उपराज्यपाल, लोकप्रिय रूप से निर्वाचित दिल्ली के मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली सरकार की ‘सहायता और सलाह’ से कार्य करेंगे तथा दोनों (उपराज्यपाल व दिल्ली की निर्वाचित सरकार) एक-दूसरे के साथ सहयोगात्मक रूप से काम करने के लिए उपबंधित है। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने अपने निर्णय में कहा कि अनुच्छेद 239 के तहत या सरकार के दायरे से बाहर के मामलों को छोड़कर उपराज्यपाल के पास निर्णय लेने का कोई स्वतंत्र अधिकार नहीं है।16
निष्कर्ष : उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता के बाद दिल्ली की राजनीतिक प्रशासनिक संरचना में अपेक्षित लोकतांत्रिक सुधार किये गए तथा इन सुधारों ने वर्तमान में दिल्ली के नागरिकों को राजनीतिक रूप से और अधिक सशक्त किया है। विशेषतः ‘नगर निगम अधिनियम, 1957’ ने स्थानीय स्तर पर व ‘राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम, 1991’ ने राज्य स्तर पर दिल्ली के नागरिकों के राजनीतिक अधिकारों को अधिक प्रासंगिकता प्रदान की है।
    केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम, 1991 के माध्यम से एक सफल प्रयास किया गया है कि दिल्ली राज्य की प्रशासनिक प्रणाली में लोकतांत्रिक मूल्यों का समावेश हो। वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत दिल्ली एक पूर्ण राज्य नहीं है, आधिकारिक तौर पर यह एक संघ राज्यक्षेत्र है जिसकी जनसांख्यिकीय संरचना नगरीय है साथ ही दिल्ली के राजधानी होने के कारण केंद्र सरकार के तीनों मुख्य अंगों- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के मुख्यालय दिल्ली में ही स्थापित है। अतः दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया गया है।
    
    दिल्ली संघ राज्य क्षेत्र की प्रशासनिक व्यवस्था से उत्पन्न विशेष स्थिति का कुशल संचालन, केंद्र सरकार तथा दिल्ली राज्य सरकार के परस्पर सहयोग तथा सामंजस्य से किया जा सकता है। इससे दिल्ली की राजनीतिक-प्रशासनिक संरचना के क्रियाकलापों में भी लोकतांत्रिक मूल्यों की वृद्धि होगी तथा दिल्ली के नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों की प्राप्ति सुनिश्चित हो सकेगी।


सन्दर्भ : 
1. भान्भरी, चन्द्र प्रकाश, 2011, भारत में लोकतंत्र, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, पृ. 5-9 
2. डिस्ट्रिक्ट सेन्सस हैण्डबुक, एन. सी. टी. ऑफ डेल्ही, 2011 
3. गुप्ता, शिव चरण, 1987, डेल्हीसिटी ऑफ फ्यूचर, विकास पब्लिशिंग हाउस, न्यू डेल्ही पृ. 23-25 
4. वाजपेई एंड वर्मा, एस. सी. एंड एस. पी., 1998, लैंडमार्क्स इन डेल्ही एडमिनिस्ट्रेशन, ज्ञान पब्लिशिंग हाउस. न्यू डेल्ही, पृ. 20-21 
5. उपरिवत, पृ.-22 
6. उपरिवत, पृ.-24-25 
7. शर्मा, एस. के., 2015, दिल्ली सरकार की शक्तियां और सीमाएं, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, पृ.48 
8. वाजपेई एंड वर्मा, एस. सी. एंड एस. पी., 1998, लैंडमार्क्स इन डेल्ही एडमिनिस्ट्रेशन, ज्ञान पब्लिशिंग हाउस न्यू डेल्ही, पृ.26-27 
9. उपरिवत, पृ.-29-32 
10.शर्मा, एस. के., 2015, दिल्ली सरकार की शक्तियां और सीमाएं, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, पृ. -50 
11. दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र शासन अधिनियम,1991 (1992 का अधिनियम संख्यांक 1)  
12. भारतीय संविधान, अनुच्छेद 239’क’‘क, उपभाग-2(क) । 
13. भारतीय संविधान, अनुच्छेद 239’क’‘क, उपभाग-6 
14. शर्मा, एस. के., 2020, दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा, प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली, पृ.135 
15. द हिन्दू न्यूजपेपर, 16 सितम्बर, 2021, नई दिल्ली। 
16. द हिन्दू न्यूजपेपर, 04 जुलाई, 2018, नई दिल्ली। 

  

सुशील कुमार 
शोधार्थी, राजनीतिक विज्ञान विभाग 
हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखण्ड-246174 
sushilmehra.kumar@gmail.com, 9911317509 
  
प्रो. हिमांशु बौड़ाई 
राजनीतिक विज्ञान विभाग 
हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखण्ड-246174 
himanshubourai@gmail.com, 9068506193 
 
 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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