सुधा अरोड़ा हिंदी कथा साहित्य का जाना-पहचाना नाम है। ‘युद्ध विराम’, ‘दहलीज पर संवाद’, ‘बगैर तराशे हुए’, ‘महानगर की मैथिली’, ‘औरत की कहानी’, ‘काला शुक्रवार’, ‘कांसे का गिलास’, मेरी 13 कहानियाँ’, ‘रहोगी तुम वहीं’ उनके कहानी संग्रह है। आप ‘सारिका’, ‘कथादेश’, ‘जनसत्ता’ में नियमित रूप से स्तम्भ लेखन करती रही हैं। आपकी रचनाओं का अनुवाद विभिन्न भाषाओं में हो चुका है। आप टी. वी. धारावाहिक, फिल्म पटकथा व रेडियो रूपक आदि के लिए भी लेखन कार्य करती रही हैं। आम औरत : जिन्दा सवाल ‘स्त्री विमर्श’ पर आपकी महत्त्वपूर्ण पुस्तक है।
पुस्तक के
आरंभ में सुधा जी ने ‘गुमशुदा दोस्त की तलाश’ शीर्षक से एक छोटा-सा आत्मकथ्य लिखा
है जिसमें उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन से लेकर लेखकीय जीवन की तमाम उथल-पुथल का
वर्णन किया है। बचपन की रुग्णावस्था के नितांत अकेलेपन से निपटने के लिए माँ
द्वारा दी गई डायरी व पिता द्वारा दिए गए राजेंद्र यादव के उपन्यास ‘गुनाहों का
देवता’ ने उन्हें साहित्य की ओर मोड़ दिया। पत्र-पत्रिकाओं में कहानियों के प्रकाशन
व पाठकों की प्रतिक्रियाओं भरे पत्रों ने उन्हें लगातार लिखते रहने का हौंसला दिया।
मध्यवर्गीय परिवार की सबसे बड़ी लड़की होने के नाते शादी-ब्याह के दबाव से जूझना
निश्चित था, ऐसे में माँ मजबूत ढाल बनकर सामने आई। माँ की निरंतर एक ही प्रेरणा
रही – लिखो, लिखो, बस लिखो। इंजीनियर-लेखक जितेन्द्र भाटिया से शादी, नौकरी, बच्चे
व लगातार मकान बदलने की जद्दोजहद के बीच अपने भीतर की लेखिका को बचाए रखना एक बड़ी
चुनौती रही। लेखिका का मानना है कि एक स्त्री के लिए लिखना पुरुष से अधिक
चुनौतीपूर्ण है। एक पुरुष लेखक सबसे पहले लेखक होता है; बाद में पिता, पति या अन्य
जबकि एक स्त्री सबसे पहले एक माँ है, फिर पत्नी- बहू और सबसे अंत में लेखक।
पुस्तक
में 1995 ई. से 2005 ई. के बीच ‘वामा’ शीर्षक स्तम्भ में प्रकाशित लेखों का संकलन
है। पुस्तक में संकलित पहला लेख ‘यह भिक्षा पात्र विरासत में देने के लिए नहीं है’
में वे बताती हैं कि महिलाओं को बारह-पंद्रह घंटे के घरेलू श्रम के बदले कोई
तनख्वाह नहीं मिलती। अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं के लिए उन्हें पुरुष के आगे हाथ
फैलाना पड़ता है। “हकीकत यह है कि एक घरेलू औरत या हाउस वाइफ का दर्जा एक सम्भ्रान्त
भिखारी से ज्यादा नहीं होता।”[1]
आर्थिक आत्मनिर्भरता आत्मसम्मान की पहली शर्त है इसलिए माँओं को ताकीद करते वे
कहती है कि अपनी बेटियों को सबकुछ देना पर यह भिक्षा पात्र उन्हें विरासत में देने
के लिए नहीं है। ‘बेटी संज्ञा बहू सर्वनाम’ लेख में वो कहती हैं कि भारतीय महिलाओं
(सास) द्वारा बेटी और और बहू में फर्क किया जाता है। बहू को ‘इसे’, ‘उसे’
(सर्वनाम) कहकर संबोधित किया जाता है; वह भी किसी की बेटी है, उसका भी नाम
(संज्ञा) है। ‘औरत ही औरत की दुश्मन है’ यह बात इसी एक रिश्ते को लेकर यह प्रचारित
की जाती है। ज्यादा करें तो दूसरा रिश्ता ननद-भाभी का माना जा सकता है। ‘औरत से
जुड़े मिथ’ लेख में इसकी पड़ताल करती लेखिका लिखती हैं “बेटे की शादी करते ही वह बहू
को घुसपैठिए के रूप में देखती है, जिसके हाथ में उसने बाईस-चौबीस साल का पला-पलाया
बेटे सौंप दिया है !.... और उस नई स्वामिनी को छोटी-से-छोटी बात पर जलील करने का
मौका वह हाथ से जाने नहीं देती। अब जो औरत जिन्दगी भर गृहस्वामी से दबती रही है,
सत्ता का पहला अवसर पाते ही वह स्वयं उसी मालिक पुरुष का प्रतिरूप बन जाती है।”[2]
पुस्तक में लेखिका ने राजस्थान की भंवरी देवी बलात्कार कांड व रूपकंवर सती कांड,
मुजफ्फरनगर का इमराना कांड, मथुरा कांड, मुरादाबाद कांड जैसे औरतों के ‘स्व’ को
कुचलने वाले बहुचर्चित घटनाक्रमों के साथ कई अल्प-चर्चित मुद्दों को भी लेखन का
विषय बनाया है। ये घटनाक्रम तो महज कुछ नाम है वरना व्यवस्था ऐसी बना दी गई है कि
स्त्री की अस्मिता हर-जगह, हर-रोज कुचली जा रही है। एंड्रयू मोर्टन की किताब
‘डायना- हर ट्रू स्टोरी’ के हवाले से वे बताती हैं कि भारत हो बिट्रेन या अमेरिका
‘औरत होने की सजा एक है’।
दहेज के
कारण हजारों विवाहिताएं हर वर्ष आत्महत्याएँ करती हैं। आत्महत्या के पीछे काम करने
वाले कारकों की पड़ताल करें तो अनेक कारक हो सकते हैं। माँ-बाप बेटी की शादी कर
स्वयं को जिम्मेदारी से मुक्त समझना चाहते है जबकि उनकी जिम्मेदारी इसी से ख़त्म
नहीं हो जाती। लडकियों को आत्मनिर्भर बनाए बिना ये संभव नहीं। ऐसे में दहेज की
यातना से दुखित हो, आत्मघाती कदम उठाना ही उसे ठीक लगता है। लेखिका ने ‘सपनों की
पोटली और पैरों तले की जमीन’ लेख में इसका विश्लेषण भी किया है। वो लिखती हैं कि
“किसी भी लड़की के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता अपने लिए आजादी और इज्जत कमाने की पहली
शर्त है... हर समाज में वर्चस्व का निर्धारण अर्थसत्ता से ही होता है। आर्थिक
आत्मनिर्भरता से बहुत सरे समीकरण बदल जाते हैं। पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे के साथी
और सहयोगी बनकर रहें, इसके लिए जरूरी है कि घर-गृहस्थी के कार्य-क्षेत्र का
बँटवारा भी सानुपातिक हो।”[3] कुल
मिलाकर समाज के आधे हिस्से की बेहतरी के बिना समाज की बेहतरी संभव नहीं। उनका
मानना है कि उत्तराधिकार संपत्ति में बेटियों को बराबर का हिस्सा दहेज प्रथा को
सम्पूर्ण रूप से समाप्त कर सकता है। परन्तु यह भी सच है कि कानूनों की सामाजिक
स्वीकार्यता बिना परिवर्तन संभव नहीं।
युद्ध और
सांप्रदायिक हिंसा का सबसे बड़ा खामियाजा औरतों को भुगतना पड़ता है। औरत की
सेक्सुअलिटी को आदमी ने हव्वा बना रखा है तथा उसकी पवित्रता को मिथ। इसलिए युद्ध
और हिंसा का सबसे घृणित आक्रमण औरत की अस्मत पर होता है। बदले की भावना में कबीलाई
संस्कार शत्रु-पक्ष की औरतों को निशाना बनाते हैं। हमला किसी भी ओर से हो शिकार
बनती हैं सिर्फ औरतें। इसके ताजा उद्धरण के लिए लेखिका ने गुजरात के ‘गोधरा कांड’
को लिया है। इसी तरह घरेलू हिंसा जिसमें शारीरिक व मानसिक हिंसा दोनों सम्मिलित
है। घरेलू हिंसा के संबंध में लेखिका का मानना है कि पहला प्रतिकार ढंग से किया
जाए तो वह भविष्य की हिंसा को रोक सकता है । मानसिक हिंसा उससे ज्यादा खतरनाक है
जिसके चिह्न भी दिखाई नहीं पड़ते। लेखिका ने मानसिक हिंसा के कई सारे रूप बताएं हैं
जिनमें – चुप्पी, उपेक्षा, व्यंग्य-बाण, अनशन प्रमुख है। उनका मानना है कि औरत के
लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता इन सब से बचने का पहला उपाय है। हालाँकि वो मानती है कि
“आर्थिक आत्मनिर्भरता बेशक प्रताड़ना की स्थिति में कोई बदलाव ला पाने में कारगर
नहीं होती, पर इससे जीवन में निर्णय लेने और उन्हें कार्यान्वित करने की क्षमता जरूर
बढ़ जाती है।”[4]
कला व
साहित्य जगत में अनैतिक संबंधो को लेकर एक मिथक प्रचलित है कि ऐसे संबंध रचनाकार
को प्रेरणा देते हैं और उसकी कल्पना-शक्ति को उर्वर बनाते हैं। ऑस्कर वाइल्ड,
वाल्तेयर से लेकर हिंदी में जैनेन्द्र कुमार व राजेंद्र यादव तक इसकी खुलेआम वकालत
करते रहे हैं। दरअसल यह भी पितृसत्तात्मक सामंती मनोवृत्ति का एक उदाहारण है जिसकी
पीड़ा अंततः एक औरत को ही भुगतनी पड़ती है।
‘मीडिया में औरत’ अध्याय में लेखिका ने सबसे
पहले जिक्र किया है शेखर कपूर की फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ का। लेखिका ने कुछ
साहित्यकारों व महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ फिल्म का प्रीव्यू देखा। कुछ
महिला संगठनों ने फिल्म का विरोध भी किया। सेंसर बोर्ड ने भी कुछ दृश्यों पर अपनी
कैंची चलाई। सेंसर बोर्ड की असहजता व अस्वीकार्यता का कारण उसके सामंती संस्कार
है। लेख में उन्होंने कई साहित्यकारों व महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं की टिप्पणियों
के साथ फिल्म का विरोध होने पर आहत निर्देशक शेखर कपूर की सेंसर बोर्ड को उत्तर
स्वरूप लिखी कविता ‘वेलकम टू द रियल वर्ल्ड’ का भी जिक्र किया है। उनका मानना है
कि भारतीय दर्शकों के फिल्म को लेकर अपरिपक्व रवैए का दोषी वह स्वयं इतना नहीं है
जितना हिंदी फिल्मों के निर्देशक। हिंदी साहित्य में ‘स्त्री विमर्श’ की लगभग सभी
पुस्तकों में फूलन एक अहम किरदार के रूप में उपस्थित रही है। लेकिन यहाँ लेखिका ने
जो मार्के की बात नोट की है वो फूलन के जीवन के उत्तरकाल से संबंध रखती है- “पुरुष जाति द्वारा अपमान और यातना के भीषण दौर
से गुजर चुकने और बन्दूक उठा लेने के लिए मजबूर फूलन जेल से रिहा होने के बाद
खूबसूरत-सी जापानी छतरी, काला चश्मा और बढ़े हुए नाखूनों पर लाल नेलपॉलिश लगाकर
नारी के विद्रूप का वह एंटी क्लाइमेक्स प्रस्तुत करती है जहाँ अंततः पुरुष के बिना
उसकी गति नहीं, बेशक इसके लिए उसे किसी राजनेता की तीसरी पत्नी बनाना पड़े।”[5]
राजस्थान
के भटेरी गाँव की साथिन भंवरी के जीवन पर बनी फिल्म ‘बवंडर’ जिसका निर्देशन जगमोहन
मूंदड़ा ने किया और जिसकी पटकथा स्वयं लेखिका ने लिखी, के निर्माण की प्रक्रिया के
द्वारा उन्होंने बॉलीवुड के भीतरी चरित्र से रूबरू करवाया है। किस तरह निर्देशक ने
उनकी पटकथा में कुछ मसालेदार दृश्य अन्य लेखक से लिखवाकर फिल्म बना दी जो भंवरी की
वास्तविकता के साथ अन्याय करते हैं। किस तरह मीडिया के सामने भंवरी से राखी
बंधवाकर और उसके परिवार को लाखों की सहायता का वचन देकर एक फूटी कौड़ी नहीं दी। अन्य
अध्याय में लेखिका ने स्त्री को ‘वस्तु’ बना देने और बाजारीकरण को बढ़ावा देने में
छोटे परदे की भूमिका को दिखाया है। मटुकनाथ व उसकी प्रेमिका जूली प्रकरण के बरक्स मीडिया
का चेहरा दिखाया है।
‘औरत की
जिन्दगी में धर्म का दखल : कुरान की नारीवादी व्याख्या’ में लेखिका ने मुस्लिम
महिलाओं में शिक्षा के कारण आती धार्मिक चेतना के द्वारा धर्म जो कि अब तक पुरुष
का ही क्षेत्र माना जाता रहा है, में दखलंदाजी को दिखाया है। साथ ही यह भी बताया
है कि किस तरह मुस्लिम पुरुषों (धर्म कोई हो, पुरुषों का चरित्र एक ही है) ने अपने
हित के लिए पवित्र कुरान को दुर्व्यख्यायित किया।
लब्बोलुआब
यह है पुस्तक ‘आम औरत जिन्दा सवाल’ स्त्री विमर्श की पुस्तकों में एक नाम और जोड़ती
है। लेखिका ने किताब में ले-देकर उन्हीं प्रसंगों पर बात की है जो स्त्री विमर्श
की किताबों में पहले खूब लिखे जा चुके हैं। इन प्रसंगों में भी नए विचार व नए
दृष्टिकोण का अभाव है। कुछ अध्याय पूरे-के-पूरे बिना पढ़े छोड़े जा सकते हैं।
‘आत्मकथ्य’ में विवरणों की भरमार ऊब पैदा करती है। भाषा सरल है पर कथ्य के बिना
रोचकता नहीं आ पाती।
सहायक आचार्य, हिंदी, डॉ. बी. आर. अम्बेडकर राजकीय महाविद्यालय महुवा, दौसा
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