साक्षात्कार : जिजीविषा को निरंतर बनाए रखना साहित्य की एक बड़ी उपादेयता : कमलेश भट्ट ‘कमल’ / डॉ. दीपक कुमार

जिजीविषा को निरंतर बनाए रखना साहित्य की एक बड़ी उपादेयता : कमलेश भट्ट कमल’ 
( डॉ. दीपक कुमार की बातचीत )

 
उत्तरप्रदेश वाणिज्यिक कर विभाग में एडीशनल कमिश्नर पद से सेवानिवृत्त तथा उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान से सम्मानित और कहानी, ग़ज़ल, यात्रा-वृत्तांत, आलोचना, हाइकु, बाल साहित्य आदि विभिन्न विधाओं के माध्यम से साहित्य जगत को निरंतर समृद्ध करने वाले प्रतिष्ठित गज़लकार कमलेश भट्ट ‘कमल’ से डॉ. दीपक कुमार ने बातचीत की। 
            
साहित्य की विभिन्न विधाओं में से आपने ग़ज़ल विधा को अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए क्यों चुना और एक ग़ज़लकार के रूप में आपकी यात्रा कैसे शुरू हुई?
    कोई भी रचनाकार सिर्फ एक विधा में लिखकर अपने आप को संपूर्ण रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सकता है। कुछ संवेदनाएँ पद्य के माध्यम से तो कुछ गद्य के माध्यम से अभिव्यक्त हो पाती हैं। इन दोनों धाराओं में भी कई-कई विधाएँ हैं। कहना न होगा कि रचनाकार अभिव्यक्ति के दौरान कई विधाओं में हाथ आज़माता है और धीरे-धीरे उसे स्वयं ही समझ में आ जाता है कि किस विधा में उसका हाथ तंग है और किस विधा में वह प्रभावपूर्ण ढंग से अपने को अभिव्यक्त कर पा रहा है। ग़ज़ल मेरे लिए एक ऐसी विधा है जिसमें मुझे लगता है कि मैं अपने आप को ठीक-ठाक ढंग से अभिव्यक्त कर पा रहा हूँ। ऐसा ही कुछ मेरे साथ हाइकु विधा में भी है। लिखने को तो मैंने गीत, नवगीत, दोहे, बाल कविताएँ और छन्द मुक्त कविताएँ भी लिखीं, लेकिन बात बनी ग़ज़ल में ही आकर। यदि गद्य की बात करूँ तो मैं कहानी, लेख, यात्रा-वृत्तांत, समीक्षा, आलोचना, बाल-साहित्य आदि विधाओं में भी लिखता आ रहा हूँ, लेकिन जो संतोष मुझे एक अच्छी ग़ज़ल लिख लेने से प्राप्त होता है, उस तरह का किसी अन्य विधा से प्राप्त नहीं होता है।
 
    साहित्य से मेरा जुड़ाव 1975-76 से ही हो गया था, जब मैं गाँव से चलकर लखनऊ विश्वविद्यालय में स्नातक की कक्षा में प्रविष्ट हुआ था। यह शुरुआत गीत और कहानियों के माध्यम से हुई थी। कभी-कभी गोष्ठियों में ग़ज़लें मुझे आकर्षित करती थीं। इस बीच एकाध बार ग़ज़ल सीखने का मन भी हुआ, कुछेक ग़ज़लें लिखीं भी, लेकिन उर्दू ग़ज़ल का काव्यशास्त्र विशेष रूप से जिसमें पहले बहरें रटाई जाती हैं, मुझे हजम नहीं हुआ। फिर 1990 में कानपुर में तैनाती हुई तो ग़ज़ल पर मैंने नये सिरे से बहुत जद्दोजहद की और तब मेरी समझ में आया कि ग़ज़ल और कुछ नहीं, वज़न के समानांतर वज़न का एक प्रारूप भर है और इस प्रारूप के भीतर जो एक लयात्मकता छुपी होती है, वही उस ग़ज़ल की बहर होती है। इस छोटी-सी समझ के बाद मैंने ग़ज़ल में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। मैंने लगातार अपनी समझ को परिपक्व करने का प्रयास किया। कुछ मित्रों के साथ संवाद- विमर्श भी हुआ। कुछ पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों का भी सहारा लिया और अब पिछले चार दशकों से ग़ज़ल मेरी प्रमुख विधा है।
 
आपकी अब तक कितनी ग़ज़ल रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं? कृपया नामोल्लेख ज़रूर करें।
    यदि ग़ज़ल संग्रहों की बात की जाए तो अब तक मेरे चार ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पहला संग्रह 'शंख सीपी रेत पानी' आत्माराम एंड संस,नई दिल्ली से 2001 में प्रकाशित हुआ था। इसमें 108 ग़ज़लें संगृहीत हैं। दूसरा संग्रह 'मैं नदी की सोचता हूँ ' वर्ष 2009 में प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ, जिसमें 104 गजलें हैं। तत्पश्चात वर्ष 2015 में आधारशिला प्रकाशन, हल्द्वानी से 87 ग़ज़लों का मेरा तीसरा संग्रह ‘पहाड़ों से समंदर तक’ आया। चौथा ग़ज़ल संग्रह 'शिखरों के सोपान' नाम से वर्ष 2018 में विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी से प्रकाशित हुआ जिसमें कुल 108 ग़ज़लें संगृहीत हैं। इनके बाद अब ज्योति जगाए बैठे हैं और मनसा वाचा नामक संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। ग़ज़लों के सृजन का यह क्रम निरंतर चल रहा है। मेरे लिए यह संतोष का विषय है कि विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ मेरी ग़ज़लों को निरंतर प्रकाशित करते हुए मेरा उत्साहवर्धन करती रहती हैं। पाठकों का भी भरपूर स्नेह मेरी ग़ज़लों को मिलता रहा है। दो ग़ज़लें महाराष्ट्र शिक्षा बोर्ड के कक्षा-9 के पाठ्यक्रम में भी हैं।

एक समर्थ ग़ज़लकार के रूप में आपकी ग़ज़लें अपने समय को किस तरह से व्यक्त कर पा रही हैं?
    मेरा प्रयास यह रहता है कि मैं अपने समकाल को अपनी ग़ज़लों में ठीक ढंग से अभिव्यक्त कर सकूँ। मेरा समकाल समय और समाज के कठोर यथार्थ, मानव मन की अनुभूतियों और संवेदनाओं से मिलकर बनता है। मेरी कोशिश यह रहती है कि ग़ज़लों में यथार्थ को व्यक्त करते हुए भी नकारात्मक सोच को हावी न होने दिया जाए बल्कि यथार्थ के बीच से जो सकारात्मकता ढूंढी जा सकती है उसे भी ढूंढा जाए। जिजीविषा को निरंतर बनाए रखना भी मुझे साहित्य की एक बड़ी उपादेयता लगती है। उम्मीद का दामन किसी भी दशा में न छूटने पाए, यह उद्देश्य भी मेरी ग़ज़लों का होता है। जीवन का व्यापक अनुभव और उसका ताप ग़ज़लों को जैसे-जैसे पका रहा है, मुझे लग रहा है कि मैं अपनी अभव्यक्ति को और परिपक्वता के साथ पाठकों तक संप्रेषित कर पा रहा हूँ।
 
क्या वंचित समाज की पीड़ा भी आपकी ग़ज़लों में व्यक्त हुई है? यदि हाँ, तो किस तरह?
    भारत में यदि उच्च मध्यवर्ग और उच्च वर्ग को छोड़ दिया जाए तो पूरा समाज ही वंचितों का है। इसकी अपनी-अपनी श्रेणियाँ अवश्य हैं। कुछ की दाल-रोटी किसी तरह चल पाती है तो कुछ को इस दाल रोटी के लिए रोजाना कठोर परिश्रम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इसी देश में लाखों-करोड़ों खाली पेट भी सोने के लिए अभिशप्त हैं। कुछ समाजों में सुखी जीवन एक सपने की तरह होता है। गांव का किसान, यदि बहुत बड़े किसानों की बात न की जाए, तो हमेशा से ही शोषित और वंचित जीवन रहा है। श्रमशील मजदूर तबका किसी तरह की दाल रोटी का जुगाड़ भले कर ले लेकिन वह सुख उसको कभी नहीं मिल पाता जिसके वह सपने देखता आया है। हिंदी ग़ज़ल और स्वयं मेरी ग़ज़लें भी, समाज के ऐसे ही तबके के सुख-दुख से जुड़ी हुई हैं। वह यह भी देखने की कोशिश कर रही है कि ऐसी कौन सी शक्तियाँ है, ऐसे कौन-से लोग हैं जो वंचित समाज को सदा वंचित ही बनाए रखने का दुष्चक्र करते रहते हैं? ऐसा क्यों है कि देश में अन्न का पर्याप्त भंडार होते हुए भी लाखों-करोड़ों लोग भूख और कुपोषण के शिकार हो रहे हैं? आर्थिक स्तर पर समाज में भयानक विषमताओं की जिम्मेदारी भी तो किसी को लेनी ही होगी। यदि देश की इतनी बड़ी आबादी सिर्फ दाल-रोटी के संकट से जूझती रहेगी तो देश के लिए बड़े सपने कौन देखेगा? मैं समझता हूँ ग़ज़ल के विषयों में ये तमाम सारी चीजें शामिल हैं। और तो और, बड़े शहरों में रहने वाले लोग और हर तबके के लोग पर्यावरण प्रदूषण के चलते शुद्ध ऑक्सीजन तक से वंचित हैं जो जीवन की मूलभूत आवश्यकता है। ऐसे ही शुद्ध पीने का पानी समाज के एक बड़े तबके के लिए आज भी चुनौती बना हुआ है। तो इस तरह की कितनी ही चीज़ें मेरी ग़ज़लों का विषय बनी हैं।
 
समकालीन हिंदी ग़ज़ल के प्रमुख ग़ज़लकारों के रूप में आप किन रचनाकारों को महत्वपूर्ण मानते हैं? और क्यों?
    यदि हिंदी के तीन प्रमुख ग़ज़लकारों का मुझे चयन करना हो तो मैं अशोक रावत, ओमप्रकाश यती और देवेंद्र का चयन करूंगा। इसका प्रमुख आधार हिंदी ग़ज़ल के प्रति उनकी प्रतिबद्धता तो है ही, ग़ज़ल के माध्यम से बहुत सार्थक और सटीक अभिव्यक्ति भी इसका एक सुदृढ़ कारण है। अशोक रावत ने अपने समय और समाज के यथार्थ को बहुत सलीके से व्यक्त करने की कोशिश की है तो ओमप्रकाश यती ने गांव तथा परिवार के रिश्तों को बड़ी मार्मिकता के साथ अपनी ग़ज़लों में स्थान दिया है। देवेंद्र हमारे समय के ऐसे ग़ज़लकार हैं जो नितांत प्रयोगशील हैं और समय के यथार्थ को बहुत बारीकी से तथा बहुत पैनेपन के साथ व्यक्त करते हैं। तीनों ही ग़ज़लकार लेखन में एक लंबे समय से सक्रिय हैं और ग़ज़ल उनकी प्रमुख विधा भी है।
 
दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को राजनीतिक तेवर प्रदान किया और हिंदी ग़ज़ल को समकालीन समस्याओं से जोड़ा। क्या समकालीन हिंदी ग़ज़ल अब भी राजनीतिक चेतना से संपन्न है?
    दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें समकालीन यथार्थ को संवेदनशील और बेहद कलात्मक तथा प्रभावपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त करती हैं। समकालीन समय का विद्रूप पूरी व्यापकता के साथ उनमें अभिव्यक्त हुआ है। हिंदी ग़ज़ल ने अपना मुहावरा यहीं से प्राप्त किया है और यह वही मुहावरा है जो समकालीन कविता का मुहावरा है। आज की हिंदी ग़ज़लों में राजनीतिक छलछद्म के साथ- साथ सामाजिक विसंगतियां, ग्रामीण जीवन के कठोर यथार्थ, मजदूरों की समस्याएं, स्त्री-जीवन की समस्याएं जैसे कितने ही विषयों तथा पर्यावरण और उसके प्रदूषण जैसे विषय पर भी शेर लिखे जा रहे हैं। धार्मिक पाखंड, मज़हबी उत्तेजना, सामाजिक ध्रुवीकरण, आतंकवाद आदि कितने दूसरे विषय भी हिंदी ग़ज़ल में अभिव्यक्ति पा रहे हैं। बाजारवाद, उपभोक्तावाद तथा आधुनिक टेक्नोलॉजी की कितनी बातें हिंदी ग़ज़ल का विषय बन रही हैं। जातीय विद्वेष, जातीय टकराव, भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार,नौकरशाही आदि विषय भी ग़ज़लों में स्थान पा रहे हैं। हिंदी ग़ज़लें तमाम कठोर परिस्थितियों में भी लोगों को संघर्ष और जिजीविषा की ताकत दे रही हैं, उनके साथ उम्मीद बनकर खड़ी है। कहने का आशय यह कि समकालीन हिंदी ग़ज़ल का परिदृश्य बहुत ही व्यापक सरोकारों वाला तथा आदमी के सुख-दुख, उसकी चेतना व उसके जीवन संघर्ष से जुड़ा हुआ है और यदि ग़ज़लों की कोई स्वीकार्यता समाज में कहीं बन रही है तो उसके पीछे इन सब का बहुत बड़ा योगदान है।
 
हिंदी साहित्य की विविध विधाओं में स्त्री सरोकारों से जुड़ी हुई रचनाएँ लिखी जा रही हैं, क्या समकालीन हिंदी ग़ज़ल में स्त्री के जीवन से जुड़ी हुई समस्याओं को प्रभावी तरीके से अभिव्यक्त किया जा रहा है?
    जैसा मैं कह चुका हूँ हिंदी ग़ज़ल का मुहावरा जन-सरोकारों से संपन्न है । उसमें मनुष्य के सुख-दुख समान रूप से शामिल हैं और स्त्री इसका बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है। स्त्री के सुख-दुख को की अनदेखी करके साहित्य की कोई भी विधा अपनी सामाजिकता को प्रमाणित नहीं कर सकती है। चूँकि ग़ज़ल एक मुक्तक काव्य है, इसलिए प्रबंधकाव्यों जैसी केंद्रिकता तो यहाँ मिलना संभव नहीं है, लेकिन कभी-कभी सीधे स्त्री केंद्रित ग़ज़लों तो कभी ग़ज़लों के बीच आए शेरों के माध्यम से स्त्री-जीवन के सुख-दुख,उसके संघर्ष, उसकी जद्दोजहद, उसकी आकांक्षाएँ और उदारताएँ हिंदी ग़ज़ल में सार्थक अभिव्यक्ति पा रही हैं। महिला ग़ज़लकारों ने अपने जीवन के संबंध में अपेक्षाकृत प्रामाणिक ढंग से ग़ज़ल और शेर कहकर इस परिदृश्य को और भी यथार्थपरक और चेतना संपन्न बनाया है।
 
मुंशी प्रेमचंद के समय से ही दलित वर्ग और ग्रामीण जीवन की दुश्वारियों को साहित्य में बयाँ किया जाता रहा है, क्या समकालीन हिंदी ग़ज़ल में भी ऐसी प्रवृत्ति दिखाई देती है?
    निश्चित रूप से समाज का विपन्न वर्ग जिसमें अधिकांश ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं, हिंदी ग़ज़ल का एक महत्वपूर्ण विषय है। हिंदी ग़ज़ल में हज़ारों शेर कहे गए होंगे इन ग्रामीणों पर जिनमें दलित वर्ग भी शामिल है। हाँ, जिस तरह का सीधा-सीधा वर्ग विभाजन कथा और कविता के क्षेत्र में दलितों को लेकर दिखता है, वैसा हिंदी ग़ज़ल में कम दिखाई देता है। वहाँ तो साहित्य इस समय दलित,ओबीसी, स्त्री-पुरुष, सवर्ण,वामपन्थ-दक्षिण पन्थ आदि कितने ही खानों में बँटकर केवल विमर्शों का मैदान और राजनीतिक पिछलग्गूपन का शिकार हो कर रह गया है। अच्छा है कि हिंदी ग़ज़ल में ये चीज़ें उस तरह से अपनी पैठ नहीं बना पाई हैं और इस कारण अभी उसकी एकाग्रता भंग होने से बची हुई है।
 
भारत में किसान और मजदूर की हालत हमेशा दयनीय रही है। क्या समकालीन हिंदी ग़ज़ल में इस पक्ष को सामने रखकर भी गज़लें लिखी जा रही हैं?
    समाज के ये दोनों ही वर्ग देश में हमेशा से राजनीतिक शोषण और घनघोर उपेक्षा के शिकार रहे हैं। सत्ता किसी की भी रही हो, इन्हें वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं समझा गया। देश का औसत किसान अपनी दाल-रोटी भी बड़ी मुश्किल से जुटा पाता है और यही हालत मजदूरों के भी हैं। यह बात मैं पहले ही कह चुका हूँ कि समाज का जो भी उपेक्षित और कमजोर तबका है, हिंदी ग़ज़ल का विषय अवश्य बना है। बहुत से ग़ज़लकार गांव की पृष्ठभूमि से आए हैं। वे गांव की समस्याओं को अच्छी तरह समझते हैं। गांव का ही आदमी शहर में आकर मजदूर बन जाता है, रिक्शा चलाने लगता है, ठेली लगाने लगता है फिर भी वह एक सम्मानजनक जीवन जीने का सपना ही उम्र भर देखता रह जाता है। इन स्थितियों की भरपूर और संवेदनापूर्ण अभिव्यक्तियां आपको हिंदी ग़ज़ल में दिखाई देंगी। अब तो कुछ रचनाकारों ने ऐसे ही तमाम विषयों को लेकर अलग-अलग विषयकेन्द्रित पुस्तकों का संपादन भी शुरू कर दिया है, जिससे हिंदी ग़ज़लकारों की इन विषयों की चिंताएं और उनके सरोकार समग्रता के साथ उभर कर आते दिखाई दे रहे हैं।
 
उर्दू ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल में संवेदना और शिल्प के स्तर पर आप क्या अंतर मानते हैं?
    मैं हिंदी ग़ज़ल को हिंदी में उर्दू ग़ज़ल का पुनर्जन्म मानता हूँ। उर्दू में ग़ज़ल को जब प्रायः स्थगित विधा मान लिया गया था, तब हिंदी में ग़ज़ल अपनी आँखें खोल रही थी। उर्दू ग़ज़ल में, चूँकि इसकी परिभाषा को ही 'माशूका से बातचीत' के दायरे में सीमित कर दिया गया था, इसलिए वह अपवादों को छोड़कर, हमेशा इस दायरे के आसपास ही घूमती रही। जबकि हिंदी में ग़ज़ल का मुहावरा सामाजिकता से जुड़ा हुआ है और अपने समय और समाज के सुख-दुख व संघर्षों की अभिव्यक्ति उसका मुख्य ध्येय रहा है। हिंदी ग़ज़लों में जैसी विषयगत व्यापकता दिखाई देती है, वैसी उर्दू ग़ज़ल में नहीं है। उर्दू ग़ज़ल आज भी फ़ारसी के बिम्बों-प्रतीकों से बंधकर एक अजीब तरह के अजनबियत के माहौल में जीती है, जबकि हिंदी गजल में स्थितियां ऐसी नहीं हैं। रही शिल्प की बात तो वह सिर्फ ग़ज़ल विधा का है, किसी भाषा का नहीं। ग़ज़ल किसी भी भाषा में लिखी जाय, उसका शिल्प समान रहेगा। शिल्प के आधार पर जो लोग हिंदी और उर्दू ग़ज़ल को एक बताते हैं, वह भ्रम में जीते हैं और उन्हें इस भ्रम से बाहर निकलने की आवश्यकता है।
 
क्या हिंदी ग़ज़ल से रूमानियत पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है?
    दरअसल यह समय ही रूमानियत का नहीं है। मनुष्य अपने दैनंदिन जीवन में इतनी सारी समस्याओं से घिरा हुआ है, उसके इतने दुख हैं, उसकी इतनी उदासियाँ हैं कि रूमानियत से पहले उनका निराकरण जरूरी है। मनुष्य को जितनी रूमानियत की आवश्यकता है वह उसे अपने घर-परिवार में पा लेता है, जी लेता है। लेकिन एक सुखी जीवन जीने के उसके जो दूसरे संसाधन हैं, यदि वे उसे प्राप्त नहीं होते हैं तो उसका जीवन दुखों के संसार में तब्दील हो जाता है। हिंदी ग़ज़ल के सरोकार उसके इसी संसार से जुड़े हुए हैं। वह ऐसे मनुष्य के साथ खड़े होकर उसको ताकत देने का प्रयास करती है, उसके संघर्ष में साथ खड़े होने का प्रयास करती है तथा उसकी उम्मीद को हर हाल में जिंदा रखने की कोशिश करती है। छिटपुट रूप से रूमानियत भी हिंदी ग़ज़लों में मिलती ही है लेकिन वह छिटपुट ही है। यहाँ आपको महबूब की ज़ुल्फ़ों पर मर-मिटने तथा उसके पीछे-पीछे लार टपकाते घूमने वाले अथवा शराब के नशे में चूर होकर माशूका की चौखट पर दम तोड़ने वाले रचनाकार तो नहीं ही मिलेंगे। 
 
दीपक कुमार : कुछ ग़ज़लकार मानते हैं कि देवनागरी में लिखी हुई ग़ज़ल हिंदी ग़ज़ल है, आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?
    यह एक निहायत मूर्खतापूर्ण समझ है। लिपि कभी भी किसी भाषा का निर्धारण नहीं करती है, क्योंकि एक ही भाषा अनेक लिपियों में लिखी जा सकती है। भाषा का संबंध मनुष्य के जीवन और उसकी संस्कृति, सभ्यता तथा उसके रहन-सहन से जुड़ा होता है। लिपि का इससे कोई लेना-देना नहीं है। उर्दू भाषा की कोई ग़ज़ल देवनागरी लिपि में लिख दी जाय तो वह हिंदी ग़ज़ल नहीं बन जाएगी। इसी तरह कोई हिंदी ग़ज़ल फ़ारसी लिपि में लिख दिए जाने भर से उर्दू ग़ज़ल नहीं बन जाएगी। हमारे हिंदी साहित्य का इतिहास ऐसे तमाम उदाहरणों से भरा है जहाँ उसे फ़ारसी समेत और भी कुछ दूसरी लिपियों में लिखे साहित्य से खोजा गया है। इस तरह की फ़तवेबाज़ी हिंदी ग़ज़ल के आंदोलन को पटरी से उतारने का कार्य करती है और ऐसा करने वाले की ग़ज़ल के बारे में पूरी समझ को ही प्रश्नांकित कर देती है। यदि हिंदी और उर्दू में कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास अलग-अलग विधाएं हो सकती हैं तो ग़ज़ल क्यों नहीं हो सकती है? दोनों भाषाओं की ग़ज़लों को एक बताने या मानने की ज़िद में क्यों पड़े रहते हैं हम? हम किसी एक भाषा की विधाओं को उस भाषा के साथ ही जोड़कर पूरा सम्मान देने से क्यों कतराते हैं? दरअसल हिंदी में ही ग़ज़ल के कुछ ऐसे रचनाकार है जो उर्दू वालों से भी एक अच्छा शायर कहलाने का तमगा पाने के व्यामोह में जीते हैं। इसीलिए वे कुछ लोगों को गोलबंद करने वाला फतवा जारी कर देते हैं और इसे अपनी बड़ी उपलब्धि मानते हैं।
 
समकालीन हिंदी ग़ज़ल हिंदी की आरंभिक ग़ज़लों से किस प्रकार भिन्न है?
    हिंदी ग़ज़ल का इतिहास काफी पुराना है और इसकी जड़ें 13-14वीं शताब्दी के अमीर खुसरो तक जाती हैं। ग़ज़ल ही नहीं बल्कि हिंदी भी तब एक बनती हुई भाषा ही थी। तो उस समय की स्थितियों और ग़ज़ल की तुलना हम आज से नहीं कर सकते। बहुत दिन तक हिंदी में ग़ज़ल एक प्रायोगिक विधा के रूप में ही व्यवहृत होती रही। उसका न तो कोई विकसित रूप था और न ही विधा के रूप में उसकी कोई अलग पहचान। दुष्यंत कुमार के माध्यम से हिंदी ग़ज़ल की पहचान सुनिश्चित होने के बाद से रचनाकारों में ग़ज़ल विधा के प्रति जो विश्वास और आत्मविश्वास पैदा हुआ, उसकी तुलना हम शुरुआत के दिनों से कैसे कर सकते हैं?
 
समकालीन कविता और समकालीन हिंदी ग़ज़ल में आप विशेष तौर पर क्या अंतर मानते हैं?
    दोनों में सबसे बड़ा अंतर तो शिल्प का ही है। ग़ज़ल का अपना एक सुनिश्चित और सर्वज्ञात शिल्प है जो लय और छन्दों पर आधारित है जबकि दूसरी ओर समकालीन कविता में छंद का कहीं कोई उपयोग नहीं है, अपवाद स्वरूप यत्किंचित लयात्मकता कहीं-कहीं दिखाई दे जाती है। अपने विशेष शिल्प के कारण ग़ज़ल में एक ख़ास कलात्मकता होती है, जिसमें ज़रा-सा भी विचलन उसको विकलांग बना देता है। समकालीन कविता हर तरह की अनगढ़ता को अपनाकर भी आगे बढ़ सकती है। अभिप्राय यह कि कलेवरगत सौष्ठव का समकालीन कविता के लिए कोई महत्व नहीं है। इस कविता में बौद्धिक विलास और वाणी विलास भी खूब देखने को मिलता है और इसका सबसे बड़ा विद्रूप यह है कि जिस वर्ग को लक्षित करके यह लिखी जाती है यह उसकी ही समझ से परे है! जबकि ग़ज़ल अपनी सहजता और अभिव्यक्ति के कलात्मक पैनेपन के चलते लक्षित वर्ग तक आसानी से पहुँच बना लेने में सक्षम है। समकालीन कविता विदेशी प्रभावों से भी पूरी तरह आक्रांत है जबकि हिंदी ग़ज़ल के साथ ऐसा कुछ नहीं है। दोनों की समानता यह है कि समकालीन कविता का ऐसा कोई विषय नहीं होगा जो हिंदी ग़ज़ल का विषय न बना हो।
 
समकालीन कविता में छंद की उपेक्षा की गई है, इस आधार पर हिंदी ग़ज़ल की छन्दोबद्धता को आप आधुनिक जीवन की जटिल मानसिक संक्रियाओं को व्यक्त करने में समर्थ मानते हैं अथवा नहीं?
    साहित्य भी अगर जीवन की तरह ही जटिल हो जाएगा तो मनुष्य और उसके बीच संवाद कैसे हो पाएगा? समकालीन कविता की जटिलता ने ही पाठक और उसके बीच संवाद को स्थगित किया है। दुष्यंत कुमार जैसा छन्दमुक्त कविता का कद्दावर कवि यदि ग़ज़ल जैसी विधा की ओर उन्मुख हुआ तो उसके पीछे इस संवाद को सहज बनाने की आकुलता ही थी और इसे उन्होंने अपनी ग़ज़लों से प्रमाणित भी किया। ग़ज़ल अपने चरम पर अत्यंत सहज विधा बन जाती है और दुनिया का ऐसा कोई यथार्थ नहीं है, चाहे वह कितना भी जटिल क्यों न हो, जो ग़ज़ल का विषय नहीं बन सकता। दुष्यंत और उनके बाद की हिंदी ग़ज़लों ने इसे अपनी तरह से करके दिखाया भी है। तो मैं ग़ज़ल को एक बहुत ही अभिव्यक्ति -संपन्न और संवेदनशील तथा संप्रेषणीय विधा मानता हूँ और मुझे पूरा विश्वास है कि हिंदी कविता में आने वाला समय इसी विधा का है।
 
हिंदी ग़ज़ल के प्रति आलोचकों का रवैया सकारात्मक नहीं रहा है, इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
    हिंदी ग़ज़ल में आलोचक ही नहीं थे तो उनका रवैया सकारात्मक या नकारात्मक होने की बात ही नहीं रह जाती है। दरअसल हिंदी ग़ज़ल की आलोचना के लिए ग़ज़ल के शिल्प से मोटा-मोटा परिचय होना एक बड़ी अनिवार्यता है और मैं नहीं समझता कि हिन्दी कविता के हमारे किसी भी आलोचक में ग़ज़ल विधा की ऐसी समझ थी जो उसकी आलोचना के लिए उन्हें प्रेरित करती। यदि वे आलोचक ग़ज़ल के शिल्प से परिचित नहीं थे तो अच्छा ही हुआ कि वे ग़ज़ल की आलोचना में नहीं उतरे। नहीं तो विचारधारा और दूसरी प्रवृत्तियों के आधार पर बहुत सारा ऐसा अनर्थ कर डालते, जो ग़ज़ल विधा के लिए हानिकारक ही सिद्ध होता। दूसरे ऐसे आलोचकों के पास छंदमुक्त कविता की आलोचना के तमाम सारे औजार पश्चिम से बने-बनाए उपलब्ध हो रहे थे और जिसके आधार पर बौद्धिक कविताओं की उससे भी अधिक बौद्धिक आलोचनाएँ हो रही थीं। 'अहो रूपम अहो ध्वनिः' वाली स्थिति थी। पत्र-पत्रिकाएँ, अकादमियाँ, साहित्यिक संस्थाएँ ऐसे ही लोगों के कब्जे में थीं और वे मनमानेपन के साथ छंदमुक्त कविताओं के पक्ष में खड़े हो गए थे। उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि वे कविताएँ उस आम आदमी तक पहुंच नहीं रही हैं, जिनके लिए उनके लिखे जाने का ढिंढोरा पीटा जा रहा था। उस समय कवियों,आलोचकों और प्रकाशकों का एक ऐसा स्वार्थ-केंद्रित गँठजोड़ बना हुआ था जिसमें ग़ज़ल क्या, छंद की कोई भी विधा प्रवेश पाने से वर्जित हो गई थी। लेकिन समय हमेशा एक-सा नहीं रहता है। समय ने करवट ली और उसी छन्दमुक्त कविता से निकल कर आए दुष्यंत ने हिंदी ग़ज़ल को पहचान देते हुए न केवल ग़ज़ल विधा को हिंदी के केंद्र में स्थापित करने का श्रीगणेश किया, वरन इस बहाने छंद की वापसी भी हिन्दी कविता की मुख्य धारा में सुनिश्चित होने लगी।
 
क्या हिंदी ग़ज़ल में आलोचना को विकसित करने की दिशा में हिंदी ग़ज़लकारों के द्वारा भी प्रयास किए जा रहे हैं? यदि हाँ, तो आप इसे किस तरह देखते हैं?
    एक तरह से यह हिंदी ग़ज़लकारों की विवशता हो गई है कि आलोचक भी उनके बीच से ही सामने आएँ क्योंकि सम्यक आलोचना के अभाव में सृजन में जो अराजकता पनपती है, वह हिंदी ग़ज़ल में भी है। रचनाकारों में अधैर्य की स्थितियाँ इस तरह की हो गई हैं कि लोग आलोचना के नाम पर केवल प्रशंसा सुनने के आदी होते जा रहे हैं। यह उनके रचना कर्म के लिए शुभ संकेत तो नहीं है। बड़ी संख्या में हिंदी के रचनाकार उस्तादों के चंगुल में फंसकर 'शायर' बनने और जीवन जी लेने से पहले ही जीवन के शेर कह डालने का दावा कर रहे हैं। ग़ज़लकार जो कुछ लिख रहे हैं वह कितना महत्वपूर्ण, प्रासंगिक, मूल्यवान और शाश्वत है इसका निर्णय वे ख़ुद तो कर नहीं सकते। उनकी रचनाओं के बीच झोल की स्थितियाँ कहाँ-कहाँ हैं, अपनी भागमभाग में वे नहीं देख पा रहे हैं। इन सबके लिए एक दायित्वपूर्ण आलोचना की विशेष आवश्यकता है और इसकी शुरुआत धीरे-धीरे ग़ज़लकारों द्वारा ही शुरू की जा चुकी है। हालांकि एक ऐसे वरिष्ठ ग़ज़लकार की आलोचना सिरे से ही भटकी हुई लगती है जो रचनाकारों को भी भटकाने का ही काम करेगी और कर भी रही है। धीरे-धीरे ऐसे भटकाव पर भी अंकुश लगेगा क्योंकि कुछ युवा हिंदी ग़ज़ल को लेकर बहुत गंभीर किस्म का काम करने का मन बना चुके हैं,जिसमें आलोचना भी शामिल है।
 
आज हिंदी ग़ज़ल के प्रति नए पाठकों और लेखकों में अत्यधिक उत्साह देखने को मिल रहा है, इसके क्या लाभ और क्या हानियाँ हैं?
    नि:संदेह वर्तमान समय और आने वाला समय हिंदी ग़ज़ल का ही है और यदि पाठकों व रचनाकारों में इसको लेकर खास आकर्षण है तो इसमें हानि जैसी कोई बात समझ में नहीं आती है क्योंकि साहित्य से जुड़ाव पाठक को कुछ न कुछ तो सार्थक देगा ही, यद्यपि साहित्य किसी पाठक को क्या देता है, इसका कोई आकलन हमारे पास नहीं होता है। अच्छा शेर कभी-कभी पाठक की पूरी जीवन-दिशा बदल देता है। दुष्यन्त कुमार के शेर-'कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो' ने कितने पस्त लोगों के मन में जिजीविषा का संचार किया होगा और इससे समाज में कितना सकारात्मक घटित हुआ होगा इसका आकलन कैसे किया जा सकता है? दुष्यंत कुमार तो बानगी भर हैं, हिंदी ग़ज़ल में बहुत सारे रचनाकारों ने जानदार शेर लिखे हैं और ये शेर अपने हिसाब से अपनी यात्रा पूरी कर रहे हैं। कोई विधा जब रचनाकारों के बड़े आकर्षण का केंद्र बनती है तो वहाँ एक भीड़-सी लग जाना स्वभाविक है। भीड़ में कुछ अच्छे रचनाकार होते हैं तो कई सारे कमज़ोर रचनाकार भी होते हैं। उनमें से ही धीरे-धीरे कुछ कालजयी रचनाकार उभरकर आते हैं जो विधा को आगे बढ़ाते हैं। हिंदी ग़ज़ल की स्थिति इस समय यही है और इसमें चिंतित होने जैसी कोई बात नहीं है।
 
क्या हिंदी कविता की तरह हिंदी ग़ज़ल में भी गंभीर ग़ज़ल और मंचीय ग़ज़ल जैसे भेद किए जाते हैं? यदि हाँ, तो आप किसे अधिक महत्व देते हैं और क्यों?
    देखिए ग़ज़ल की ही बात नहीं है, पूरा काव्य मंच ही अगंभीर रचनाओं का पर्याय बन चुका है। क्योंकि मंच का एकमात्र उद्देश्य श्रोताओं को रिझा कर उनसे ताली बजवाना और पैसे कमाना भर रह गया है। ठीक वैसे ही जैसे बाजीगर यह सब काम करता है। कभी महादेवी वर्मा ने कहा था कि 'तराजू उठाने वाले हाथ कलम के साथ न्याय नहीं कर सकते' मंच का कवि श्रोताओं के 'आशीर्वाद' के लिए ऐसे गिड़गिड़ाता है जैसे उसके बिना उसका वजूद ही नहीं बचेगा। काव्य मंचों की दुनिया में अब बड़े-बड़े ठेकेदार पनप गए हैं और वे अपने हिसाब से ठेके लेते हैं। ऐसे मंचों का अब कोई साहित्यिक मिशन शेष नहीं है। दरअसल यह रीढ़विहीन रचनाकारों का मंच है, जिन्हें पैसे देकर आप कहीं भी बुला कर अपनी प्रशंसा करा सकते हैं। मैं यह बात कई बार कह चुका हूँ कि साहित्य का काम लोगों को रिझाना नहीं, उनको जगाना है। ऐसे में गंभीर ग़ज़ल के लिए मंच पर जगह ही कहाँ बचती है? मुट्ठी भर रचनाएँ लिखकर या कई बार लिखवाकर भी लोग मंच के बहुत बड़े 'कवि' बन जाते हैं। यही उनकी सीमा है और यही उनकी असलियत भी है। इसलिए मंच की ग़ज़लों को महत्व देने का अवसर ख़ुद मंच वालों ने ही ख़त्म कर रखा है !
 
अंत मे नए ग़ज़लकारों को आप क्या संदेश देना चाहते हैं?
    एक तो यही कि नये ग़ज़लकार उस्तादों से ग़ज़ल भले सीखें लेकिन उन्हें अपना माई-बाप न समझ लें, बल्कि अपने बुद्धि और विवेक को जाग्रत करें। ग़ज़ल थोड़ी मुश्किल विधा ज़रूर है लेकिन इतनी भी मुश्किल नहीं कि उसे सीखा न जा सके। हाँ, सिर्फ़ रदीफ़- क़ाफ़ियों की जानकारी भर ग़ज़ल नहीं है। ग़ज़ल में बहुत जल्दी साहित्य के आसमान पर छा जाने की हसरत आपको मोह-भंग का शिकार बना सकती है क्योंकि ग़ज़ल साधना की चीज़ है- साधना भी एक-दो दिन की नहीं बल्कि पूरी ज़िदगी की। ग़ज़लकार में यदि साधना करने का धैर्य नहीं है तो यह दुनिया उसके लिए नहीं है।

    दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि रचनाकार को शुरुआत में ही यह तय करना पड़ेगा कि वह हिंदी का 'ग़ज़लकार' बनना चाहता है या उर्दू का 'शायर'? ध्यान रहे कि उर्दू में फ़िराक़ गोरखपुरी जैसे बड़े रचनाकार को भी बहुत मुश्किल से स्वीकार किया गया था। कृष्ण बिहारी ‘नूर’ जैसे शायरों को तो अभी तक ठीक से स्वीकार भी नहीं किया गया है। हिंदी बहुत बड़ी भाषा है। हिंदी में लिखकर कोई भी नया ग़ज़लकार जितने व्यापक पाठक वर्ग तक पहुँच सकता है, किसी अन्य भाषा में लिखकर नहीं। यह भी महत्वपूर्ण बात है कि भाषाएँ रचनाकार को छोटा-बड़ा नहीं बनातीं अपितु यह उसकी साधना है जो किसी भाषा विशेष में उसकी कद-काठी का निर्धारण करती है।
 
ग़ज़ल के संबंध में बेबाकी से अपने विचार व्यक्त करते हुए हमसे बातचीत करने के लिए आपका कोटिशः आभार।
 
डॉ. दीपक कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी), राजकीय महाविद्यालय खैरथल (अलवर)
9950885242 


 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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