शोध
सार : प्रेमचंद
की रचना ‘सोज़े वतन तथा अन्य ज़ब्तशुदा कहानियां’ और गांधी के ‘हिन्द स्वराज’ को
औपनिवेशिक सत्ता ने प्रतिबंधित किया। इन दोनों की रचनाओं में स्वराज और भारतीय
स्वतंत्रता के विचार, सिद्धांत और मूल्य शामिल थे। प्रेमचंद अपनी कहानियों के
माध्यम से देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति का ताकतवर संदेश दे रहे थे। साथ ही अपनी
कहानियों के द्वारा भारतीय परंपरागत समाज के उच्चतर मूल्यों को कथासूत्रों में
विन्यस्त कर रहे थे। उनकी कहानियों में भारतीय समाज की सभ्यता समीक्षा भी है। गांधी
के ‘हिन्द स्वराज’ में आधुनिक विश्व सभ्यता की समीक्षा एवं आलोचना है। लेकिन अपनी
विधा की तमाम सीमाओं के बाद भी प्रेमचंद ने यह काम गांधी से पहले किया। ‘सोज़े वतन’
1908 में ज़ब्त की गयी जबकि ‘हिन्द स्वराज’ 1909 में। इस शोध आलेख में इस बात पर भी
विचार किया गया है कि आलोचकों ने प्रेमचंद पर गांधी के प्रभाव को दिखाया है जबकि
प्रेमचंद अपने दौर में कई मायनों में गांधी से आगे विचार कर रहे थे। बाद में गांधी
के विचारों से प्रेमचंद गहरे प्रभावित हुए और यह प्रभाव इतना गहरा रहा कि ‘हिन्द
स्वराज’ की तमाम स्थापनाओं, प्रतिस्थापनाओं, मूल्यों, विचारों और संदेशों को आधार
बनाकर कहानियां लिखी। जब यह ‘समर-यात्रा व अन्य कहानियां’ के रूप में प्रकाशित हुई
तो ब्रिटिश सत्ता ने इसे भी ज़ब्त कर लिया। इस आलेख में गांधी और प्रेमचंद के बीच
वैचारिक समरूपता और अलगाव पर भी विचार किया गया है तथा भारतीय समाज और राष्ट्रीय
आन्दोलन के लिए निर्मित हो रहे मूल्यों पर भी।
बीज
शब्द : सोज़े
वतन, हिन्द स्वराज, उपनिवेशवाद, उत्तर-उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, विउपनिवेशवाद,
राष्ट्रवाद, आधुनिकता, स्वराज, महावृत्तांत, कथावृत्तांत, राजद्रोह, सत्ता, सभ्यता,
संस्कृति-विमर्श, आत्मोत्सर्ग, अधिनायकवाद, महाजनी सभ्यता, पूंजीवाद, जनतंत्र आदि
मूल आलेख
: कथा सम्राट प्रेमचंद की ख्यातिलब्ध
रचना ‘सोज़े वतन’ (1908) और ‘समर यात्रा व अन्य कहानियां’ (1932) तथा महात्मा गांधी
के मूल चिंतन व दार्शनिक विचार को अभिव्यक्त करने वाली विश्व प्रसिद्ध पुस्तक
‘हिन्द स्वराज’ का प्रकाशन 1909 ई. में हुआ। एक ही वक्त में भारतीय साहित्य और
राजनीति के दो शीर्ष व्यक्तित्व व लेखक अपनी लेखकीय दृष्टि, विचार व चिंतन से
ब्रिटिश उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद से सीधे मुठभेङ कर रहे थे। उपनिवेशवाद और
साम्राज्यवाद के खिलाफ उनका लेखकीय प्रतिरोध ‘राजद्रोह’ (सिडीशन) की श्रेणी में
माना गया और इन रचनाओं को प्रतिबंधित किया गया।
ये रचनाएं देशभक्ति-राष्ट्रभक्ति का महावृत्तांत (मेटानेरेटिव्स) रचती
है। ‘स्वराज’ और ‘आजादी’ की परिकल्पना को मूर्त रूप देती है। इसके मूल में भारतीय
संस्कृति और सभ्यता के उस मूल उत्स -‘मनुष्य की स्वाधीन चेतना’ का रक्षण है; जिसे
आध्यात्मिक ऊंचाई कहा गया है। मनुष्य के भीतर स्वाधीन चेतना की निर्मिति तभी संभव
है जब वह मनोवैज्ञानिक और भौतिक रूप से आजाद हो। उसका आत्मबल इतना मजबूत हो कि
बर्बर और शक्तिशाली सत्ता के खिलाफ निर्भीकता से आत्मोत्सर्ग करने को प्रस्तुत हो।
प्रेमचंद और गांधी दोनों की रचनाओं में यह शिक्षा और संदेश मौजूद हैं।
अधिकांश शोध और अध्ययन इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि प्रेमचंद की
रचनाओं पर गांधी का गहरा प्रभाव रहा है। काफी हद तक इसमें सच्चाई है। लेकिन यह तब
होता है जब राष्ट्रीय आन्दोलन में गांधी का विराट व्यक्तित्व उभर कर सामने आता है।
इस बात की ओर लोगों का ध्यान कम गया है कि प्रेमचंद गांधी से पहले ही “स्वराज” की
परिकल्पना को मूर्त रूप देने लगे थे। प्रेमचंद भारतीय राजनीति में हो रहे हलचल से
वाकिफ थे। विवेकानंद और तिलक के विचारों से वे भली भांति परिचित थे। सोज़े वतन 1908
में प्रकाशित हुई और गांधी की रचना वर्ष भर बाद आयी। गांधी भारतीय राजनीति में सक्रिय
रूप से 1915 के बाद शामिल हुए। लेकिन प्रेमचंद अपनी रचना के माध्यम से राष्ट्रप्रेम
और देशप्रेम को पहले ही जाग्रत करने लगे थे। उनकी कहानियां मातृभूमि के प्रति
सर्वस्य न्योछावर कर देने की प्रेरणा से लिखी गयी। सोज़े वतन की पहली कहानी ‘दुनिया
का सबसे अनमोल रतन’ में वे सिद्ध कर देते हैं कि –“खून का वह आखिरी कतरा तो वतन की
हिफाजत में गिरे दुनिया की सबसे अनमोल चीज है”।[1]
‘देश की स्वाधीनता के लिए निर्भीक कुर्बानी’ जैसी अनमोल चीज वे पहले ही खोज चुके
थे। यह खोज कई चमत्कृत और बेशकीमती खोजों पर भारी है। मादरे हिंद की रक्षा में
युद्ध भूमि में घायल मरता हुआ सिपाही दिलफिगार से कहता है –“क्या मैं अपने देश में
गुलामी करने के लिए जिंदा रहूं? नहीं, ऐसी जिंदगी से मर जाना अच्छा। इससे अच्छी
मौत मुमकिन नहीं”। मरते हुए उसने धीमे से कहा –“भारत माता की जय”।[2]
बाद में राष्ट्रीय आन्दोलन में गांधी का व्यक्तित्व और सिद्धांत इतना
बङा, महत्वपूर्ण और प्रभावशाली हुआ कि उनके विचारों, संदेशों का स्पष्ट और गहरा
प्रभाव प्रेमचंद की रचनाओं पर पङा। ‘समर-यात्रा व अन्य कहानियां’ में संकलित
कहानियों पर हिन्द स्वराज और गांधी का गहरा प्रभाव है। “जब ‘कर्मवीर गांधी’ पुस्तक
निकली तो प्रेमचंद ने अपनी भूमिका में लिखा, ‘महात्मा गांधी के पदार्पण से भारत के
राष्ट्रीय जीवन में एक विचित्र स्फूर्ति और सजीवता का विकास हो गया है। आपके आने
से पहले हमारे नेताओं का व्यावहारिक उद्योग का कोई मार्ग न दिखाई देता था। उनकी
सारी सदभावनाएं वाक्यों तक ही सीमित हो जाती थीं। महात्माजी ने हमारे नेताओं को वह
मार्ग दिखा दिया और केवल दिखा ही नहीं दिया, स्वयं उसका व्यवहार करके सिद्ध कर
दिया। इसके उपरांत प्रेमचंद का गांधी से संपर्क, संबंध तथा विचारों एवं कार्यों
में एकरूपता बढ़ती गयी”।[3]
प्रेमचंद की ‘सोज़े वतन’ में संकलित कहानियों के अलावा ‘समर-यात्रा व अन्य
कहानियां’ भी हैं जिन्हें ब्रिटिश शासन काल में ज़ब्त की गयी थी। ज़ब्त की गयी सभी
कहानियों का संकलन ‘सोज़े वतन तथा अन्य ज़ब्तशुदा कहानियां’[4]
के रूप में जिल्दबद्ध की गयी है। गांधी और प्रेमचंद दोनों की इन रचनाओं में भारतीय
संस्कृति और सभ्यता के गहरे विमर्श मौजूद हैं। यह महज वक्ती इत्तेफाक है या दोनों
की अंतर्दृष्टि और विचार का चुनाव कि गांधी हिन्द स्वराज लिखते हुए जिन पुस्तकों
की संदर्भ सूची देते हैं उसमें इटली के महान क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी,
राजनीतिज्ञ व एक्टिविस्ट जोसेफ मैजिनी की पुस्तक ‘ड्यूटीज ऑव मैन’ शामिल है; वहीं
प्रेमचंद 1908 ई. में “सांसारिक प्रेम और देश-प्रेम” नाम से कहानी लिखते हैं और उस
कहानी का हीरो जोसेफ मैजिनी है। प्रेमचंद और गांधी दोनों की निगाहों में मैजिनी
राष्ट्रभक्त हीरो है और दोनों उसके एक्टिविज्म, संघर्ष, कर्म, विचार से गहरे
प्रभावित हैं। मैजिनी अपने देश की आजादी के लिए लगातार संघर्ष करता है। दरबदर होता
है। मुफलिसी और गरीबी में वक्त गुजारता है। लेकिन अपने राष्ट्र के लिए समर्पित भाव
से संघर्ष करता रहता है। मैग्डलीन उससे प्रेम करती है। मैजिनी के दिल में भी
पुरजोश उम्मीदें लहरें मार रही थी लेकिन जवान मैजिनी निर्णय करता है कि –“मैं देश
और जाति पर अपने को न्योछावर कर दूंगा”।[5]
उसने सपना देखा था कि ‘रोम को मैं जरूर एक दिन जनता के राज का केंद्र बनाकर
छोङूंगा”।[6]
प्रेमचंद इस कथा-रूपक में मैजिनी के हवाले से राष्ट्रभक्ति, देश-सेवा, स्वराज और ऐसे
‘जनतंत्र’ की परिकल्पना करते हैं जिसमें सत्ता की चाबी जनता के हाथ में हो।
राज्य-व्यवस्था में आमजन की भागीदारी हो और जनता की भूमिका सर्वोपरि हो। जन
केंद्रित और मानवीय राजनीति हो जिसमें मनुष्य की अस्मिता प्रमुख हो। गांधी भी ऐसे
ही जनतंत्र की परिकल्पना करते हैं। गांधी के लिए जनतंत्र का अर्थ है –“सामाजिक, राजनीतिक
तथा आर्थिक गुलामी से मुक्ति”।[7]
यही ‘स्वराज’ का मार्ग है। गांधी ने मैजिनी के हवाले से कहा है –“मनुष्य का
कर्त्तव्य है कि वह अपने आप पर अनुशासन करना जाने’। यानी स्वराज”।[8]
गांधी ने इसे और विकसित कर कहा ‘सत्ता का आधार नैतिक वर्चस्व और नैतिक अधिकार है”।[9]
रूडोल्फ सी हेरेड ने अपने लेख ‘इंटरप्रेटिंग गांधी’ज हिंद स्वराज’ में लिखते हैं
कि गांधी ‘स्वराज’ का विश्लेषण करते हैं तो दोहरा अर्थ निकलता है, आत्मनियमन,
आत्मनियंत्रण, आत्मानुशासन से होते हुए अंतत: वह स्थानीय सरकार और स्वराज में
बदलता है जिसका दोनों अर्थ ‘स्वतंत्रतता’ के अर्थ में परिभाषित होता है।[10]
आत्मानुशासन ही स्वराज का मूल है जिसे गांधी हिन्द स्वराज में दर्ज करते हैं और
प्रेमचंद मैजिनी के हवाले से अपनी कहानी ‘सांसारिक प्रेम और देश-प्रेम’ में दिखाते
हैं। मैजिनी अपने आत्मानुशासन और अंतर्मन में बसनेवाली अंतर्सत्ता के बल पर ही
सांसारिक प्रेम की बलबती भावनाओं को काबू कर देश-प्रेम में अपने को झोंकता है।
उत्तर-औपनिवेशिक विमर्श के केंद्र में ‘राष्ट्रवाद’ है। जिसकी पङताल होते
ही ‘राष्ट्रवाद’ संदिग्ध हो उठता है। उस दृष्टि को अप्लाई करते ही प्रेमचंद की
कहानी “यही मेरा वतन है” आधुनिकता विरोधी, विकास विरोधी और पोगापंथ में डूबी नजर
आती है। एक व्यक्ति जो अमेरिकन एनआरआई हो गया। बच्चे और परिवार के साथ अमेरिका में
ही सेटल हो गया और दुनिया के एशोआराम और तमाम भौतिक सुखों और संसाधनों को हासिल कर
लिया; उसे बुढ़ापे में देश की याद सताती है और स्वदेश प्रेम उसे भारत खींच लाता है।
परिवार को वहीं छोङ वह अंतिम समय अपने
गांव में गुजारना चाहता है और इसी मिट्टी में मिल जाना चाहता है। लेकिन जब भारत
लौटता है तो उसे वह बचपन का गांव कहीं नहीं दिखता। सबकुछ बदल चुका है। चौतरफा उसे
अराजकता और जहालत दिखती है। अंतत: वह गंगा के किनारे अपना आश्रम बनाता है जहां
साधू-संत धर्म और अध्यात्म कर्म में लिप्त हैं। औरतें गंगा स्नान के लिए जा रही
हैं। कहीं गायत्री मंत्र का उच्चारण हो रहा है, कहीं हवन हो रहा है, कहीं
वेदमंत्रों का उच्चारण हो रहा है। उसे लगता है “यही मेरा प्यारा वतन है, यही मेरा
भारत है। और इसी के दर्शन की, इसी की मिट्टी में मिल जाने की आरजू मेरे दिल में
थी”।[11]
लेकिन इस कथा को उसकी जटिलता में समझने की जरूरत है। कथासूत्रों में
पैबस्त साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की मार और खरोंचों को पहचानने की भी जरूरत है।
अंग्रेजीराज के बाद भारतीय समाज में कई विद्रूपताएं आयी। देश आर्थिक रूप से काफी
विपन्न हुआ। परंपरागत भारतीय समाज में लोग एक–दूसरे पर निर्भर थे। घरेलू उद्योग-धंधे
और कृषि व्यवस्था एक-दूसरे पर आश्रित थी। इसे नयी अंग्रेजी व्यवस्था ने ध्वस्त
किया। समाज में बेरोजगारी बढ़ी। समाज में अपराध बढ़े। शिक्षा व्यवस्था की हालत खराब
हुई। कानूनी लङाई और मुकदमेबाजी की सत्ता सामने आयी। लोगों में नशे और शराब की आदत
लगायी गयी। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘नये जमाने की मुकरी’ कविता और ‘भारत दुर्दशा’
में समाज के विकृत हुए चेहरों की शिनाख्त की थी; वह बदस्तुर जारी था। प्रेमचंद ने
‘यही मेरा वतन है’ कहानी में उन समस्याओं को दिखाया। और उसके बरक्स उस वतन को
खोजने की कोशिश की है जिसकी पहचान धर्म, अध्यात्म, हर-हर गंगे से होती है। गंगा
जिसकी अस्मिता और पहचान है। यह प्रेमचंद का “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” या कहें
“आध्यात्मिक स्वराज” को दर्शाता है।
यह आधुनिकता विरोधी कहानी नहीं है। कथा नायक अपने परंपरागत समाज या
बचपन के समाज को पाना चाहता है इसका मतलब यह नहीं कि वह परिवर्त्तन विरोधी है। ऐसा
ही आरोप गांधी और गांधी के हिन्द स्वराज पर भी लगता रहा। उन्हें भी पश्चिमपरस्त
विचारकों ने आधुनिकता और विकास विरोधी बताने की कोशिश की। लेकिन यहां प्रेमचंद और
गांधी की अंतर्दृष्टि को समझने की जरूरत है। जैसे हिन्द स्वराज विश्व की सभ्यता
समीक्षा प्रस्तुत करता है वैसे ही प्रेमचंद की कहानी भारत की सभ्यता समीक्षा
प्रस्तुत करती है।
आधुनिकता और विकास के समर्थन का मतलब पश्चिम का फोटोकॉपी होना नहीं
है। सत्ता के उन्हीं मानकों, व्यवस्थाओं एवं संरचनाओं को चुन लेना नहीं है जिसे
गांधी ‘शैतानी सभ्यता’ कहते हैं। वे पश्चिम की सभ्यता को ‘मनुष्य की आत्मा की
महाशत्रु’[12]
मानते थे। भारत के पश्चिमीकृत होने की प्रक्रिया को प्रेमचंद ने कथावृत्तांत में
इस तरह पिरोया है –“जिस वक्त बम्बई में जहाज से उतरा और काले कोट-पतलून पहने,
टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलते मल्लाह देखे; फिर अंग्रेजी दुकानें, ट्रामवे और
मोटर-गाङियां नजर आयीं; फिर रबङ वाले पहियों वाली गाङियों और मुंह में चुरुट दाबे
आदमियों से मुठभेङ हुई। फिर रेल का विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन देखा; और रेल पर
सवार होकर अपने गांव को चला, प्यारे गांव को जो हरी-भरी पहाङियों के बीच आबाद था,
तो मेरी आंखों में आंसू भर आये। मैं खूब रोया, क्योंकि यह मेरा प्यारा देश न था,
यह वो देश न था जिसके दर्शन की लालसा हमेशा मेरे दिल में लहरें लिया करती थी। यह
कोई और देश था। वह अमेरिका था, इंग्लिस्तान था, मगर प्यारा भारत नहीं था”।[13]
प्रेमचंद हिन्द स्वराज लिखे जाने और गांधी के सभ्यता विमर्श के पहले ही अपने
कथात्मक विमर्श में सभ्यता समीक्षा कर रहे थे। उनकी कहानी में भारतीय सभ्यता और संस्कृति;
पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति से टकरा रही है।
प्रेमचंद यह मानने को तैयार नहीं हैं कि पश्चिम की सभ्यता और विकास का
मॉडल अंतिम सत्य है। पश्चिम की अधिनायकवादी सभ्यता भारतीय मूल्यों और जीवन-शैली को
तबाह कर रही है। उपनिवेशवाद अपने हितों और स्वार्थ की साधना के लिए एक ऐसी
व्यवस्था बना रहा है जो भारतीय समाज को पीछे ढकेलनेवाला है। वे पश्चिम की महाजनी
सभ्यता के वर्चस्व को देख रहे थे जो बुराइयों की जङ है। उन्हें लगता है कि “पश्चिम
की देखादेखी हम भी धनोपार्जन को ही जीवन का लक्ष्य मानने लगे हैं, सम्पत्ति को ही
सर्वोपरि समझने लगे हैं, यही हमारा धर्म हो गया है... हमारे हृदय की उच्च वृतियां
सभी धन की इच्छा के नीचे दबती जाती हैं”।[14]
प्रेमचंद एक ऐसे भारत की कल्पना करते हैं जो पश्चिम से भिन्न है। इसकी अपनी एक अलग
संस्कृति है, सामुदायिक मूल्य हैं; जिसे पश्चिम की आक्रामक, वर्चस्वशाली आधुनिकता
और भौतिकतावादी व्यवस्था जो शोषण और लूट पर आधारित है; एकरूप कर रही है। वे अपनी
कहानी में पश्चिम की इस सत्तावादी, शक्तिशाली वर्चस्ववादी विमर्श का प्रतीकात्मक
प्रतिरोध करते हैं। प्रेमचंद ने लिखा है “हिन्दुस्तानी सभ्यता की बुनियाद धर्म और
नेकी पर थी जबकि पश्चिमी सभ्यता की बुनियाद लाभ और ईष्या पर है”[15]
गांधी ने हिन्द स्वराज में ठीक यही बात कही है –“’हिन्दुस्तान की सभ्यता का झुकाव नीति
को मजबूत करने की ओर है; पश्चिम की सभ्यता का झुकाव अनीति को मजबूत करने की ओर है।
इसलिए मैंने उसे हानिकारक कहा है। पश्चिम की सभ्यता निरीश्वरवादी है, हिन्दुस्तान
की सभ्यता ईश्वर में माननेवाली है”।[16]
यहां यह कहना उचित होगा कि कालांतर में प्रेमचंद ने गांधी से काफी प्रेरणा ली और
उनके विचारों को कथात्मक नैरेटिव में घुलाया लेकिन ‘यही मेरा वतन है’ कहानी हिन्द
स्वराज के पहले प्रकाशित हो चुकी थी। कहना न होगा, प्रेमचंद जिन मूल्यों और भारतीय
ज्ञान परंपरा की विरासत को कथात्मक सूत्रों में पिरोते हैं, वह ऋषि परंपरा की देन
है। उन्हें विवेकानंद सरीखे विमर्शकारों से विरासत में मिली थी। गांधी और प्रेमचंद
का ‘स्वराज’ एक जैसा ही है। स्वराज केवल खुद का या भारतीयों का शासन और ब्रिटिश
शासन से आजादी भर नहीं है बल्कि “एक ऐसी शासन व्यवस्था जो भारतीय प्रकृति के
अनुरूप और भारतीय मूल्यों से संचालित हो”।[17]
‘शेख मखमूर’ भी आजादी के रूपक में ढली एक ऐसी कहानी है जिसमें मसऊद का
पिता शाह बामुराद साम्राज्यवादी, शक्तिशाली किशवरकुशा की बर्बर और आततायी तलवार के
आगे अपने राज्य को बचा नहीं पाते हैं। उनकी साहस वीरता और मर्दाना जांबाजियां भी
मुल्क की आजादी की रक्षा न कर सकी और वे राज्य से बेदखल हो गये। लेकिन उन्होंने मन
से पराजय स्वीकार नहीं किया। ढलती उम्र में शादी की और मसऊद के जन्म के बाद उसे
प्रशिक्षित किया कि वह अपने राज्य की आजादी के लिए लङे। मसऊद अपनी वीरता, ताकत और
बुद्धि के बल पर किशवरकुशा के साम्राज्य का अंत करता है और अंतत: मुल्क को हासिल
करता है। प्रेमचंद ने लिखा है –“आज से यह अपने मुल्क का बादशाह है, अपनी कौम का
खादिम”।[18]
खादिम वह होता है तो जो लोगों की खिदमत करता है। प्रेमचंद एक ऐसे बादशाह की कल्पना
करते हैं जो जनता का सेवक हो। ऐसी कल्पना करना ही ब्रिटिश सरकार की आलोचना है।
क्योंकि ब्रिटिश सत्ता भारतीयों को गुलाम बना रही थी। आम जन का शोषण कर रही थी और
अंतहीन यातनाएं लाद दी थी। प्रेमचंद अपनी कहानियों से जन जागरुकता पैदा करना चाहते
थे। लोगों में देश भावना भरना चाहते थे जो निर्भीक होकर अपने राज्य को पुन: हासिल
करने के लिए लङे और अंग्रेजी जुल्म से मुक्ति दिला सके।
‘समर-यात्रा व अन्य कहानियां’ संग्रह का प्रकाशन 1932 में हुआ। उसी
वर्ष ब्रिटिश शासन द्वारा ज़ब्त किया गया। उसमें बारह कहानियां संकलित की गयी थी।
कानूनी कुमार, जुलूस, पत्नी से पति, समर-यात्रा, शराब की दुकान, मैकू, आहूति, जेल,
लांछन होली का उपहार, ठाकुर का कुंआ, अनुभव आदि कहानियां राष्ट्रीय–सामाजिक आन्दोलन
से जुङी है। इनमें से अधिकांश कहानियों पर सीधे–सीधे गांधी के विचारों, चिंतन
कार्यशैली का प्रभाव दिखता है। गांधी जैसे-जैसे भारतीय समाज से जुङ रहे थे
औपनिवेशिक सत्ता के विरोध के साथ ही भारतीय समाज सुधार की दिशा में अग्रसर हो रहे
थे। वे हिन्दुस्तान की कमजोरियों, बुराइयों, व्यक्ति और समाज के चारित्रिक और
नैतिक पतन को सुधारने की दिशा में पहल कर रहे थे। ‘कानूनी कुमार’ कहानी में एक तरफ
देश की दुर्दशा, बर्बादी लाचारी, जहालत की बयानगी है तो दूसरी तरफ इन चीजों को ठीक
करने के लिए कानून बनाकर ठीक करने को उद्धत मि. कानूनी कुमार, एम.एल.ए। प्रेमचंद
देश में बढ़ती नशाखोरी, स्त्रियों की दुर्दशा, अकाल मृत्यु, बढ़ती आबादी, बेरोजगारी,
भिखारी कल्चर आदि सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक बुराइयों और कमियों के लिए कानून
बनाने भर को उचित नहीं मानते थे। बल्कि इसके लिए सामाजिक जन-जागरुकता पैदा करने को
उचित मानते थे। कानूनी कुमार और उनकी पत्नी के बीच जो बहसें चलती है उसमें
प्रेमचंद का झुकाव मिसेज कुमार की तरफ है जो समाज को शिक्षित और जागरुक करने पर बल
देती हैं। वह जबरदस्ती कानून बनाकर समाज पर लादने के पक्ष में नहीं हैं। वह कहती
है –“मैं यह नहीं कहती कि सुधार जरूरी नहीं है। मैं भी शिक्षा का प्रचार चाहती
हूं, मैं भी बाल-विवाह बंद करना चाहती हूं, मैं भी चाहती हूं कि बीमारियां न
फैलें, लेकिन कानून बनाकर जबरदस्ती यह सुधार नहीं करना चाहती। लोगों में शिक्षा और
जागृति फैलाओ, जिससे कानूनी भय के बगैर वह सुधार हो जाय। आपसे कुर्सी तो छोङी जाती
नहीं, घर से निकला जाता नहीं, शहरों की विलासिता को एक दिन के लिए भी नहीं त्याग
सकते और सुधार करने चले हैं आप देश को! इस तरह सुधार न होगा। हां, पराधीनता की
बेङी और कठोर हो जायगी”।[19]
मिसेज कानूनी कुमार का यह विचार पूरी तरह गांधी के विचार के समुच्चय में है। गांधी
भारतीय समाज में ‘कानून राज’ नहीं चाहते थे। बल्कि वह चाहते थे समाज की तमाम
बुराइयों का हल और न्याय के मसले को आपसी समझदारी और बिना हिंसा के निपटाये जाएं।
इसके लिए समाज में उचित नैतिक शिक्षा और जन-जागरुकता फैलायी जाए। गांधी का मानना
था कि कानून और अदालतें शासक के औजार हैं; सत्ता के वर्चस्व को कायम रखने की।
उन्होंने हिन्द स्वराज में लिखा है -“अंग्रेजी सत्ता की एक मुख्य कुंजी उनकी
अदालतें हैं और अदालतों की कुंजी वकील हैं”।[20]
जज और वकील “ये दोनों मौसेरे भाई हैं और एक दूसरे को बल देनेवाले हैं”।[21]
उनका धंधा उन्हें अनीति सिखाता है। कानून वे बनाते हैं, उसकी तारीफ भी वे ही करते
हैं। लोगों से क्या दाम लिये जायें, यह भी वे ही तय करते हैं; और लोगों पर रोब
जमाने के लिए आडम्बर ऐसा करते हैं, मानों वे आसमान से उतर कर आये हुए देवदूत हों”।[22]
जितना ज्यादा कानून होगा उतना ज्यादा भ्रष्टाचार और लूट समाज में फैलेगा; इसलिए
गांधी ‘कानून-राज’ नहीं चाहते थे और प्रेमचंद भी अपनी कहानी में इस विमर्श को
उठाते हैं।
एक तरफ प्रेमचंद की कहानी स्वाधीनता की लङाई को कथा का विषय बनाती है
तो दूसरी तरफ सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्त्तन और बदलाव की। ‘समर-यात्रा’ में
संग्रहित अधिकांश कहानियों में स्त्री पात्र बेहद ताकतवर रूप में सामने आती है। यह
संग्रह की नायाब उपलब्धि है और प्रेमचंद की प्रखर स्त्री चेतना की भी। प्रेमचंद ने
राष्ट्रीय आन्दोलन में स्त्रियों की भागीदारी को प्रबल रूप में दिखाया है। जिन
विमर्शाकारों-इतिहासकारों को लगता है कि भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन पुरुषवादी
आन्दोलन है वे इन कहानियों के भीतर से गुजर कर देखें। ‘जुलूस’ कहानी की मिट्ठन
दारोगा बीरबल सिंह की पत्नी है। बीरबल सिंह अंग्रेजी सत्ता का भारतीय नुमाइंदा है।
वह ‘पूर्ण स्वराज’ के आन्दोलन को कुचलने के लिए तैनात है। इब्राहिम जुलूस का
गांधीवादी तरीके से अहिंसक नेतृत्व कर रहे हैं। बीरबल सिंह ने बेटन और घोङे की टाप
से इब्राहिम को कुचल कर हत्या कर दी। शांतिपूर्ण, अहिंसक, सिद्धांतों और नीतियों पर
चलने वाले स्वाधीनता आन्दोलन का यह हश्र देखकर स्वराजियों ने शहीद के मातम में बङा
जुलूस निकाला। यह जुलूस स्वराज के लिए भी था। बीरबल सिंह को फिर ड्यूटी पर तैनात
किया गया। बीरबल सिंह ने देखा कि जुलूस की पहली कतार में उसकी पत्नी मिट्ठन बाई
है। भीङ में चल रही स्त्रियों को मिट्ठन ने बताया कि इन्होंने ही इब्राहिम की
हत्या की। उसके बाद जुलूस में चल रही स्त्रियों ने बीरबल सिंह को लज्जित किया। एक
बुढ़िया ने कहा –‘मेरी कोख में ऐसा बालक जन्मा होता, तो उसकी गर्दन मरोङ देती!”।[23]
एक तरफ घर में मिट्ठन से आन्दोलन को कुचलने के लिए तकरार हुई, दूसरी तरफ जुलूस की
स्त्रियों ने लज्जित किया तीसरे, मिट्ठन ने स्वराजियों का साथ देने के लिए पति
बीरबल सिंह का प्रतिकार किया; जिसकी वजह से बीरबल सिंह का हृदय परिवर्त्तन हो गया।
जिस बीरबल को मिट्ठन ने छोङ देने का निश्चय किया था, वह पाश्चताप की अग्नि में जलकर
इब्राहिम की विधवा के पास पहुंच गया। बीरबल सिंह पद, प्रतिष्ठा, सत्ता और स्वार्थ
की लालच से बाहर आ गया। गांधी जिस तरह की नैतिक और चारित्रिक बदलाव की बात करते
थे, उसका बेहतरीन उदाहरण प्रेमचंद ने अपनी कहानी में रचा। उन्होंने गांधीवादी
पात्र इब्राहिम के चरित्र में आत्मबल, निर्भयता, सत्याग्रह जैसे मूल्यों का समावेश
किया।
स्वदेशी और खादी को रूपक बनाकर ‘पत्नी से पति’ कहानी लिखी गयी। पति को
हिन्दुस्तानी चीजों से नफरत है और पत्नी को स्वदेशी चीजों से लगाव। घर में विलायती
चीजों का अंबार लगा है और पत्नी का दम इन चीजों के बीच घूटता है। बाहर विलायती
कपङों की होली जल रही थी और गोदावरी के पास स्वदेशी का एक सूत भी नहीं है। वह
विदेशी कपङों की होली जलते देखना चाहती है लेकिन विदेशी कपङों में बाहर नहीं निकल
सकती। गोदावरी अपने भीतर से मानसिक प्रतिकार करती है और निर्णय करती है कि मैं
अपनी आत्मा को नहीं बेचूंगी। वह पितृसत्ता और मर्दवादी गुलामी की जकङबंदी से आजाद
होने का यत्न करती है और कांग्रेस के सम्मेलन में पहुंच जाती है तथा देश की आजादी
के लिए लङ रहे कांग्रेस को चंदा देती है। नतीजा यह होता है कि सेठ के अफसर चंदा
देने के लिए जबाबतलब करते हैं। सेठ और साहब में गाली गलौज होती है। सेठ साहब को
थप्प्पङ मार देता है और नौकरी से इस्तीफा देने के बाद बर्खास्त हो जाता है। जब वे
घर पहुंचे तो गोदावरी इस बात के लिए खुश होती है कि गुलामी की बेङियां कट गयी। सेठ
कहता है कि लेकिन घर कैसे चलेगा तो गोदावरी कहती है –“बङप्पन, सूट-बूट और ठाट-बाट
में नहीं है। जिसकी आत्मा पवित्र हो, वही ऊंचा है”।[24]
गोदावरी में सत्याग्रह का बल है। वह अपने आत्मबल और मानसिक दृढ़ता के आधार पर घर की
चारदीवारियों की कैद से मुक्त होती है और देश की आजादी के लिए निकलती है। गांधी के
सिद्धांतों, विचारों और मूल्यों को इसी तरह प्रेमचंद स्त्रियों में प्रतिस्थापित
कर कथा-साहित्य में क्रांतिकारी पहल करते हैं।
प्रेमचंद की क्रांतिकारी ज़ब्तशुदा कहानियों को स्त्रीवादी दृष्टि से
पढ़े तो हम इस निष्क़र्ष को हासिल कर सकते हैं कि अपने दौर तक प्रेमचंद ने बहुत
ताकतवर स्त्री चरित्र को गढ़ा और स्त्री सशक्तिकरण की पहल की। जयशंकर प्रसाद ने भी
बेहद ताकतवर स्त्री चरित्र निर्मित किया लेकिन उनके पात्र और चरित्र अभिजात्य वर्ग
से जुङे हैं। प्रेमचंद ने समाज के सभी वर्गों से पात्रों का चयन किया और स्त्री
चरित्रों में विविधता का समावेश कर स्वाधीनता की आवाज को बहुरंगी बनाया। ‘समर-यात्रा’
की अकेली बुढ़िया नोहरी मृत्यु के द्वार पर बैठी थी लेकिन अंग्रेजी शासन के खिलाफ
उठ खङी होती है। गांव में महात्मा गांधी के सत्याग्रही जनचेतना पैदा करने के लिए आते
हैं। उनके पीछे पुलिस। पुलिस जब सत्याग्रहियों को ठहराने के एवज में कोदई को
गिरफ्तार कर लेती है तो नोहरी पुलिस के सामने तन कर खङी होती है। उसके बचाव में
पहली आवाज नोहरी की उठती है। धीरे-धीरे गांव में सत्याग्राहियों की टीम खङी होने
लगती है तो नोहरी भी उसमें शामिल हो जाती है। उसे लगता है खाट पर दम तोङने से
बेहतर है इनकी सेवा करना। इनकी सेवा से ही मुक्ति मिलेगी और आनेवाली पीढ़ियों के
लिए सुदिन आयेंगे।
गांधी ने राष्ट्रीय आन्दोलन को विस्तृत फलक देने के लिए ‘वालंटियर
कल्चर’ विकसित किया था। ये वालंटियर अलग-अलग क्षेत्रों में काम करते थे। कुछ
राजनीतिक जागरूकता पैदा करने का काम करते थे तो कुछ सामाजिक क्षेत्रों में काम
करते थे। प्रेमचंद ने राष्ट्रीय और सामाजिक आन्दोलन के क्षेत्र में गांधी की
राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक नीतियों, सिद्धांतों और रोजमर्रा की प्रक्रियों को
आधार बनाकर कहानी लिखी। ‘समर-यात्रा’, शराब की दुकान और मैकू ऐसी ही कहानी है।
स्वराज को हासिल करने के लिए सत्याग्रह, आत्मबल और अभयता अनिवार्य कुंजी है। गांधी
ने इसी पर बल दिया है। ‘समर-यात्रा’ कहानी का एक अंश देखें –“स्वराज चित्त की वृति
मात्र है। ज्योंही पराधीनता का आतंक दिल से निकल गया, आपको स्वराज मिल गया। भय ही
पराधीनता है, निर्भयता ही स्वराज है। व्यवस्था और संगठन गौण हैं”।[25]
इसके लिए अनिवार्य है कि व्यक्ति में चारित्रिक दृढ़ता हो। सत्य, अहिंसा, धर्म और
नीति को पालन करने का आत्मबल हो।
शराबबंदी और नशाखोरी गांधी की राजनीति के अनिवार्य पहलू थे। वे देश को
इससे मुक्ति दिलाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने सत्याग्रहियों का दल तैयार करने
पर बल दिया था। कांग्रेस वर्किंग कमेटी में इसे पास किया गया और विचार हुआ कि
कौन-कौन लोग ‘शराब की दुकान’ पर सत्याग्रह के लिए जायेंगे। इसमें खतरा बहुत था
क्योंकि शराबी और गुंडे शारीरिक क्षति पहुंचा सकते थे। इस काम के लिए मिसेज
सक्सेना तैयार होती हैं। एक पढ़ी-लिखी अभिजात स्त्री का शराबबंदी के आन्दोलन में
अग्रणी भूमिका में होना असाधारण बात है। प्रेमचंद मिसेज सक्सेना में निडरता,
निर्भयता, साहस, आत्मबल और सत्याग्रह का निवेश कर ताकतवर चरित्र गढ़ते हैं। वह
शराबियों के सामने चट्टान की तरह खङा होती हैं। शराब लेने से रोकने के क्रम में
घायल होती हैं लेकिन अंतत: विजयी होती हैं। शराब मालिक ने शराब की दुकान बंद करने
का निर्णय लिया और कहा कि भले घाटा-नफा जो हो लेकिन अब स्वदेशी कपङे का रोजगार
करुंगा। ‘मैकू’ शराबी था और लठैत भी। उसकी गुंडागर्दी से लोग भय खाते थे। लेकिन
अंतत: वह भी सत्याग्रहियों के सामने हार जाता है और शराब की दुकान बंद करा देता
है। उसे लगता है कि ये स्वयंसेवक मार खाकर भी हमें सुधारना चाहते हैं। वह
आत्मग्लानि से भर जाता है। सत्याग्रही अपनी जान को खतरे में डालकर हमारा घर उजङने
से बचाना चाहते हैं। यह ख्याल आते ही उसमें बदलाव आ जाता है। व्यक्ति में
कायान्तरण और चित्त परिवर्त्तन की यह कहानियां प्रकरांतर से आत्मानुशासन और स्वराज
की ही परिकल्पना के मूर्त रूप हैं। ‘आहुति’ कहानी भी ‘स्वराज’ का मेटाफर है। आनंद,
विशम्भर, रूपमणि मित्र हैं और उच्च शिक्षित। विशम्भर वालंटियर बन जाता है और
देहातों में जन-जागरुकता फैलाने का काम करता है। उससे प्रभावित हो रूपमणि भी उच्च
शिक्षा छोङ उसके रास्ते पर चलने लगती है। आनंद से रूपमणि का तकरार होता है क्योंकि
आनंद रूपमणि से प्रेम करता है। इस तकरार में स्वराज की अवधारणाएं सामने आती हैं- “कम
से कम मेरे लिए तो स्वराज्य का यह अर्थ नहीं कि जॉन की जगह गोविन्द बैठ जाय। मैं
समाज में ऐसी व्यवस्था देखना चाहती हूं, जहां कम-से-कम विषमता को आश्रय न मिल
सके”।[26]
गांधी ने हिन्द स्वराज में देसी शासक बनाम विदेशी शासक के हवाले से यही बात कही
है। अगर देसी शासक गैर-बराबरी के फासले को न मिटा सके, अन्याय और विषमतामूलक समाज
को समाप्त न करे तो उनमें और अंग्रेजी सत्ता में कोई फर्क नहीं है। गांधी
‘विउपनिवेशीकरण’ (decolonization) तक अपने को
सीमित नहीं करते बल्कि एक वैकल्पिक मूल्य व्यवस्था का समाज रचना चाहते हैं जिसकी
तरफ प्रेमचंद ने इस कहानी में इशारा किया और रूपमणि के मुंह से कहलवाया। ‘अहिंसक
समाज’ की परिकल्पना तब तक संभव नहीं जबतक समाज में गैरबराबरी है और अहिंसक और
न्यायपूर्ण समाज ही गांधी का चरम साध्य है।
‘जेल’ कहानी में किसानों की समस्या, फसली वस्तुओं का अवमूल्यन और जबरन
टैक्स और लगान वसूली का वृत्तांत है। टैक्स न चुका पाने की स्थिति में किसानों की
जमीन-जायदाद की कुर्की, मारपीट सामान्य बात है। “सरकार को तो अपने कर से मतलब है।
प्रजा मरे या जिये, उससे कोई प्रयोजन नहीं”।[27]
पुलिस की मार से एक किसान मर जाता है। उन किसानों की फरियाद कहीं सुनी नहीं जाती
तो वे शहर के लोगों तक फरियाद लेकर आते हैं। पुलिस ने किसानों की भीङ पर गोलियां
चलायी। पहले मृदुला का पति अकारण मारा गया, फिर उसकी सास। वह शोर और पुलिस के हिंसक
उन्माद को देखने छत पर चढ़ी तो गोद में नन्हा बच्चा पुलिस की गोली से मारा गया।
मृदुला का परिवार क्षण भर में उजङ गया तब उसने पुलिस और सरकार के जुल्म के खिलाफ
आन्दोलन किया और जुलूस निकाला। उसके एवज में वह ‘जेल’ में डाल दी गयी। लेकिन जेल की
दीवारों को स्वाधीन चेतना की स्त्रियों ने ‘भारत माता की जय’ के हुंकार से भर
दिया।
प्रेमचंद की यह ज़ब्तशुदा कहानियां राष्ट्रवादी लघु कथाओं का
प्रतिनिधित्व करती है और भारतीय राष्ट्रवाद और स्वराज का एक ऐसा साकार बिम्ब
उकेरती है; जिसमें परंपरागत भारतीय जीवनमूल्य एवं पद्धतियों अनुस्युत हैं। इसके
अलावा गांधी के हिन्द स्वराज एवं उनके विचारों, सिद्धांतों, कर्मों का
बहुरंगी-बहुवर्णी कथात्मक छवि है। साथ ही राष्ट्रवादी विमर्श में समाज की विविध
समस्याओं को अंतर्भुक्त करने की नायाब कोशिश भी। काका कालेलकर ने हिन्द स्वराज के
संदर्भ में लिखा है –“यह किताब द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है; हिंसा की
जगह आत्म-बलिदान को स्थापित करती है; और पशुबल के खिलाफ टक्कर लेने के लिए आत्मबल
को खङा करती है”।[28] यह
बात प्रेमचंद की इन कहानियों के संदर्भ में भी उतना ही सटीक है।
निष्कर्ष
: प्रेमचंद
की ज़ब्तशुदा कहानियां राष्ट्रवादी लघु कथाओं का प्रतिनिधित्व करती है और भारतीय
राष्ट्रवाद और स्वराज का एक ऐसा साकार बिम्ब उकेरती है; जिसमें परंपरागत भारतीय
जीवनमूल्य एवं पद्धतियां अनुस्युत हैं। प्रेमचंद की ज़ब्तशुदा कहानियों और गांधी के
हिंद स्वराज के बीच सिद्धांतों, विचारों, मूल्यों व संदेशों के बीच आवाजाही है।
भारत की सभ्यता समीक्षा तथा देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति जगाने का काम प्रेमचंद अपनी
कहानियों के माध्यम से पहले करते हैं। उनकी कहानियों में उपनिवेशावाद,
साम्राज्यवाद और सामंती व्यवस्था का विरोध है। वैचारिक दृष्टि से गांधी यह काम
प्रेमचंद के बाद करते हैं। सोज़े वतन पहले प्रतिबंधित होता है हिंद स्वराज बाद में।
लेकिन यह क्रम बदलता है। हिन्द स्वराज के प्रकाशन और गांधी के सक्रिय राजनीति में
उतरने के बाद प्रेमचंद उनसे गहरे प्रभावित होते हैं। वे उनके विचारों, सिद्धांतो,
संदेशों, मूल्यों व सक्रिय कर्मों को आधार बनाकर कहानियां लिखते हैं। उनकी
कहानियों में स्वराज, सत्याग्रह, स्वदेशी आन्दोलन, आत्मबलिदान, आत्मानुशासन,
कायांतरण, शराबबंदी-नशाबंदी, जन-जागरूकता जैसे विषय मेटाफर बनकर आये हैं। दोनों
स्वतंत्रतता और स्वराज के हिमायती हैं। प्रेमचंद अपनी कहानियों में उन दिनों
ताकतवर राष्ट्रवादी स्त्री चरित्रों की निर्मिति करते हैं जब स्त्री-विमर्श और
स्त्री-सशक्तिकरण जैसे आन्दोलन नहीं चले थे।
सन्दर्भ
सूची :
[1]
प्रेमचंद, सोज़े वतन तथा अन्य ज़ब्तशुदा कहानियां, (संपादक-अग्रवाल, बलराम), साक्षी
प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2016, पृष्ठ – 25
[2] वही
[3] विश्वनाथ
प्रसाद तिवारी (संपादक), “महात्मा गांधी : सहस्त्राब्द का महानायक”, (प्रेमचंद की
दृष्टि से गांधी को देखना – कमल किशोर गोयनका), सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई
दिल्ली, संस्करण-2009, पृष्ठ–80
[4] प्रेमचंद,
सोज़े वतन तथा अन्य ज़ब्तशुदा कहानियां, (संपादक-अग्रवाल, बलराम), साक्षी प्रकाशन,
दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2016
[5] वही,
पृष्ठ – 29
[6] वही,
पृष्ठ – 31
[7] गिरिराज
किशोर, “हिंद स्वराज: गांधी का शब्द अवतार” सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई
दिल्ली, संस्करण-2009, पृष्ठ–41
[8] वही
[9] वही
[10]
Rudolf C Heredia, Interpreting Gandhi’s Hind Swaraj (article), Economic &
Political Weekly. Jun.12-18. 1999, Vol.34, No. 24 pp.1497-1502 (Swaraj: Gandhi
radically re-interprets ‘swaraj’ and gives it a dual meaning. The original
Gujarati text uses ‘swaraj’ in both sense. Gandhi’s English translation makes
the duality explicit : Swaraj as ‘self rule’ and as ‘self –government’. The first
as self control, rule over oneself, was the foundation for the second,
self-government. In this second sense, local self –government was what Gandhi
really had in mind. Gandhi very decidedly gives priority to self – rule over
self – government, and to both over political independence. Swatantrata).
[11] प्रेमचंद,
सोज़े वतन तथा अन्य ज़ब्तशुदा कहानियां, (संपादक-अग्रवाल, बलराम), साक्षी प्रकाशन,
दिल्ली, प्रथम संस्करण-2016, पृष्ठ-39
[12] गांधीजी,
हिन्द स्वराज, (अनुवादक-अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी) नवजीवन प्रकाशन मंदिर,
अहमदाबाद, संस्करण-2005, पृष्ठ-16
[13] प्रेमचंद,
सोज़े वतन तथा अन्य ज़ब्तशुदा कहानियां, (संपादक-अग्रवाल, बलराम), साक्षी प्रकाशन,
दिल्ली, प्रथम संस्करण-2016, पृष्ठ-36
[14] प्रेमचंद,
विविध प्रसंग, भाग-2 (संकलन और रुपांतर – अमृतराय), हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ–277
[15] प्रेमचंद,
विविध प्रसंग, भाग-3 (संकलन और रुपांतर – अमृतराय), हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ–182
[16] गांधीजी,
हिन्द स्वराज, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, संस्करण-2005, पृष्ठ-46
[17] R.P.
Mishra, Hind Swaraj: Gandhi’s Vision and Ground Realities, Gandhi Sevagram
Ashram, Wardha, (https://www.facebook.com/gandhiashramsevagram)
[18] प्रेमचंद,
सोज़े वतन तथा अन्य ज़ब्तशुदा कहानियां, (संपादक-अग्रवाल, बलराम), साक्षी प्रकाशन,
दिल्ली, प्रथम संस्करण-2016, पृष्ठ-52
[19] वही पृष्ठ
– 71
[20] गांधीजी,
हिन्द स्वराज, (अनुवादक-अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी) नवजीवन प्रकाशन मंदिर,
अहमदाबाद, संस्करण-2005, पृष्ठ -39
[21] वही
[22] वही,
पृष्ठ-37
[23] प्रेमचंद,
सोज़े वतन तथा अन्य ज़ब्तशुदा कहानियां, (संपादक-अग्रवाल, बलराम), साक्षी प्रकाशन,
दिल्ली, प्रथम संस्करण-2016, वही, पृष्ठ–78
[24] वही,
पृष्ठ-90
[25] वही,
पृष्ठ-100
[26] वही,
पृष्ठ-128
[27] वही,
पृष्ठ–134
[28] गांधीजी,
हिन्द स्वराज, (अनुवादक-अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी) नवजीवन प्रकाशन मंदिर,
अहमदाबाद, संस्करण-2005, पृष्ठ -4
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
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