प्रतिबन्धों के दौर में अप्रतिहत संन्यासी : स्वामी भवानी दयाल
- बृजेश सिंह कुशवाहा
हम जानते हैं कि औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुख्यतः आर्थिक शोषण रंग, श्रेष्ठता और पश्चिमी वर्चस्ववाद पर केंद्रित था। अपने शासन के आरंभिक दौर में अँग्रेजों ने शासन करने के लिए 'फूट डालो राज करो', 'हड़प नीति' और ‘युद्ध’ जैसी सीधी कार्यवाहियों का सहारा लिया वहीं बाद के दौर में अनेक सुधारात्मक योजनाओं की आड़ में वे अपनी साम्राज्यवादी मंशाओं को छिपाये रखने का प्रयास करते रहे। एक ओर जहाँ स्वतन्त्रता, देशप्रेम और स्वदेशी की चेतना से संपन्न लेखक और क्रांतिकारी ब्रिटिश राज के शोषणकारी चरित्र को उजागर कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर इससे भयभीत ब्रिटिश शासक क्रूरता, दमन और प्रतिबंधों के सहारे साम्राज्यवाद विरोधी चेतना को कमज़ोर करने की कोशिश कर रहे थे। "भारत में प्रेस, जिसे ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपनी सुविधा और लाभ की दृष्टि से प्रोत्साहित करना प्रारम्भ किया था, धीरे-धीरे एक शताब्दी में औपनिवेशिक प्रशासन के प्रति असंतोष के प्रगटीकरण का माध्यम बन गया। यह एक ऐसा माध्यम था, जिससे एक बहुत बड़े वर्ग तक, बिना विचारों की तीक्ष्णता बिखेरे, अपनी बात को पहुंचाया जा सकता था। इसकी शक्ति को पहचानकर ही औपनिवेशिक प्रशासन ने हर संभव तरीके से प्रेस और मुद्रित साहित्य पर नियंत्रण का प्रयास किया।"1 पराधीन भारत में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा साहित्यिक प्रतिबन्धों को स्वातंत्र्य-चेतना को कुचलने के हथियार के रूप में बेहिचक लागू किया गया। जिसके कारण हजारों की संख्या में नवजागरण और मुक्ति की कामना से सम्पन्न, साम्राज्यवाद विरोधी प्रतिरोधात्मक साहित्यिक सामग्री को या तो ज़ब्त कर लिया गया, या तो उनके प्रकाशन को प्रतिबंधित कर दिया गया। यह प्रतिबन्ध विभिन्न देशी भाषाओं के साथ-साथ अँग्रेजी में लिखी पुस्तकों पर भी लगाया गया।
प्रेम नारायण अग्रवाल द्वारा लिखित भवानी दयाल संन्यासी की जीवनी 'पब्लिक वर्कर ऑफ साउथ अफ्रीका' को भी ब्रिटिश राज के कोपभाजन का शिकार बनना पड़ा। इसका प्रकाशन 1939 में 'इंडियन कालोनियल एसोसिएशन' द्वारा उत्तरप्रदेश के इटावा जिले से हुआ था। जिसे उसी वर्ष प्रतिबंधित कर दिया गया। यद्यपि यह किताब भवानी दयाल संन्यासी के जीवन-संघर्षों का दस्तावेज है परंतु इसके माध्यम से ब्रिटिश उपनिवेशवादी चरित्र के उस हिस्से का पता चलता है, जिसने न केवल गिरमिटिया मजदूरों का एक नया वर्ग पैदा किया बल्कि उन्हें नागरिक व मानवोचित अधिकारों से वंचित भी रखा। यह एक बड़ी विडम्बना है कि हिन्दी अकादमिक जगत में भवानी दयाल संन्यासी का नाम हाशिए पर भी नहीं दिखाई देता है। कुछेक लेखों में उन्हें परिचयात्मक सूचनाओं तक ही सीमित रखा गया है। उन्होंने प्रवासी भारतीयों की समस्याओं को जिस तरह वैश्विक पटल पर रखकर औपविनेशिक सरकार के मानवता विरोधी चरित्र को उजागर किया तथा जिसके मूल में स्वाधीनता आंदोलन को मजबूती प्रदान कर पराधीनता मुक्ति के लक्ष्य को ही प्राप्त करना था, उसका समुचित मूल्यांकन अब तक नहीं हुआ है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास की चर्चाओं में प्रवासियों को अलग करके नहीं देखा जा सकता है। प्रवासियों की समस्या मूलतः पराधीन भारत की समस्या से जुड़कर अंतर्राष्ट्रीय पटल पर स्वराज की माँग करती दिखाई देती है।
दक्षिण अफ्रीका के जोहांसबर्ग में 1892 में जन्मे भवानी दयाल संन्यासी प्रखर राष्ट्रवादी, सच्चे देशभक्त, प्रवासी भारतीयों के बीच लोकप्रिय कार्यकर्ता, समर्पित हिन्दी सेवी तथा निष्ठावान आर्य समाजी थे। वे स्वयं गिरमिटिया मजदूर जयराम सिंह के ज्येष्ठ पुत्र थे जो बिहार के शाहाबाद जिले के बहुआरा गाँव के निवासी थे। भवानी दयाल संन्यासी का समूचा जीवन देश की स्वाधीनता और प्रवासी भारतीयों के हितों के लिए ब्रितानी सरकार से संघर्ष करते हुए व्यतीत हुआ। "उनके जीवन का प्रत्येक क्षण लोक-सेवा में ही बीता। उन्होंने अपनी मुक्ति के लिए संन्यास नहीं ग्रहण किया, स्वदेश-बंधुओं की मुक्ति के लिए ही सांसारिक सुखों का त्याग किया। चाहे वे देश-बंधु स्वदेश में बसते हो या विदेश में, भारत में हो या भू-मंडल के विभिन्न भागों में।"2
पराधीन भारत में प्रवासी भारतीयों का विषय स्वाधीनता आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। 'गिरमिटिया प्रथा' की आड़ में भोले-भाले भारतीयों का भारी संख्या में प्रवासन हुआ। उन्हें विदेशी सरजमीं पर ले जाकर न केवल गोरे अंग्रेज मालिकों को बेचा गया अपितु उन्हें मूलभूत अधिकारों से वंचित कर उनके साथ पशुवत व्यवहार किया गया। उनके राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक विकास व सुरक्षा के सवाल को दरकिनार कर दिया गया।
संन्यासी जी को अँग्रेजों की द्वेषपूर्ण श्वेतांग नीति का अनुभव तब हुआ, जब उन्हें उनकी जन्मभूमि में ही प्रवासाधिकार से वंचित कर दिया है। दिसंबर 1912 ई. में वे पत्नी जगरानी देवी और अनुज देवीदयाल के सहित बम्बई से दक्षिण अफ्रीका के नेटाल बन्दरगाह पहुंचे। जहां इमिग्रेशन विभाग के प्रमुख मिस्टर कजिन्स नें उनके सभी दस्तावेजों को मानने से इन्कार कर जहाज़ से उतरने से मना कर दिया। उन्हें परिवार सहित डिटेन्सन कैंप में डाल दिया गया। "कजिन्स अपनी अत्याचार-मूलक नीति के कारण काफ़ी मशहूर थे। भारतीय यात्रियों के पासपोर्ट में कोई न कोई दोष निकलकर उन्हें नेटाल में उतरने न देना उनकी अमलदारी के एकमात्र उद्देश्य था।"3
भवानी दयाल संन्यासी ने कजिन्स की अहम्मन्यता और अभद्रता का जोरदार विरोध किया। बाद में महात्मा गांधी और हेनरी पोलाक के हस्तक्षेप से उन्हें जमानत राशि पर प्रवासाधिकार प्राप्त हुआ, परंतु वे भारतीयों के इस अपमान को सहन करने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने इस मामले की शिकायत दक्षिण अफ्रीका के सुप्रीम कोर्ट में की, जहां एक लंबी लड़ाई के पश्चात उन्हें 'वैध प्रवासी' मान लिया गया। यह पहला अवसर था जब वे सीधे अँग्रेजी हुकुमत से टकराए बल्कि उनकी इस छोटी-सी जीत नें उन्हें आजीवन के लिए क्रांति पथ पर खड़ा कर दिया।
संन्यासी जी महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित थे। दक्षिण अफ्रीका के फिनिक्स आश्रम में रहते हुए उन्होंने सत्य, अहिंसा, स्वदेशी और सत्याग्रह के मूल्यों को आत्मसात किया। वे 1913 के उस महान ऐतिहासिक सत्याग्रह का हिस्सा बनें, जो कालांतर में भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अमोघ अस्त्र सिद्ध हुआ। यह सत्याग्रह गिरमिटिया मजदूरों से वसूले जा रहे तीन पौंड के अन्यायपूर्ण टैक्स को रद्द करने तथा भारतीय रीति से सम्पन्न विवाहों को कानूनी मान्यता प्रदान करने के लिए किया गया था, जिसका नेतृत्व महात्मा गाँधी ने किया था। भवानी दयाल संन्यासी नौकरी छोड़ कर इस आंदोलन में कूद पड़े। उन्होंने भारतीय मजदूरों से अपील की कि "जिस दिन कोयले की खानों की चिमनियां धुंआ उगलना बन्द कर देगी, डरबन के बन्दरगाहों पर जहाजों को कोयला मिलना दुष्कर हो जायेगा, गन्ने के खेतों और चाय के बागानों में काम करने वाले हमारे भाई हल और कुदाल चलाने से इन्कार कर देंगे, गोरे प्रभुओं को खाना पकाने, खिलाने-पिलाने और खिदमत बजाने के बावर्ची और बैरा नहीं मिलेंगे, उसी दिन यह रक्त-शोषी तीन पौंड सालाना टैक्स का अन्त आ सकेगा और हमारे हजारों भाई मनुष्यता के अधिकार को प्राप्त कर सकेंगे।"4 उनके आह्वान से पूरे नेटाल प्रदेश में हड़ताल फैल गया। संन्यासी जी को भारतीयों मजदूरों को हड़ताल के लिए उकसाने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। मजिस्ट्रेट ने उन्हें पाँच पौंड जुर्माना अथवा तीन मास कठोर कारावास की सजा सुनाई। एक सच्चे सत्याग्रही के रूप में उन्होंने जुर्माना भरकर छूटने की अपेक्षा कठोर कारावास को चुना। जेल में अंग्रेज अधिकारियों के अत्याचार और उनके बर्बर पैशाचिक मनोवृत्ति का उन्होंने जो अनुभव किया उसकी विस्तृत व्यथा-कथा 'हमारी कारावास कहानी' शीर्षक पुस्तक में उन्होंने विस्तार लिखा गया है। इस सत्याग्रह आंदोलन में उनकी पत्नी जगरानी देवी ने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया। कस्तूरबा गाँधी के नेतृत्व में सैकड़ों महिलाओं नें भी गिरफ्तारियां दीं। उन्हें मेरित्सबर्ग की जेल में रखा गया। अंततः इस सत्याग्रह आंदोलन के आगे दक्षिण अफ्रीका की यूनियन सरकार को झुकना पड़ा। यूनियन पार्लियामेंट को 'इंडियन रिलीफ ऐक्ट' पारित कर तीन पौंड का टैक्स वापस लेना पड़ा। भवानी दयाल संन्यासी इस अहिंसात्मक सत्याग्रह को बीसवीं सदी की महान और अभूतपूर्व घटनाओं में से एक मानते थे। यही कारण है कि उन्होंने 1914 में अपनी पहली पुस्तक 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' लिखकर न केवल दुनिया को हिन्दुस्तानियों के त्याग और बलिदान से परिचित कराया बल्कि अँग्रेजी राज के अत्याचारों तथा उनकी बर्बरता की बानगी पेश की। इस पुस्तक का प्रकाशन 1916 में हुआ था तथा इसका दूसरा संस्करण 1920 में आया। यहां यह तथ्य विशेष उल्लेखनीय है कि यह पुस्तक भारत में सत्याग्रह शुरू होने से पहले प्रकाशित हुई। उस समय हिन्दुस्तान और विशेषत: हिन्दी भाषियों के लिए सत्याग्रह का सिद्धांत तथा उसके क्रियात्मक प्रयोग का मसला बिल्कुल नया था। सम्भवतः यह 'सत्याग्रह' पर लिखी गयी हिन्दी की पहली किताब थी।"5
दयाल संन्यासी 1919 में दूसरी बार भारत आए। उन्होंने दक्षिण अफ्रीकी प्रवासी भारतीयों की ओर से 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के अमृतसर अधिवेशन में हिस्सा लिया। इस अधिवेशन को संबोधित करते हुए उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस तथा देशवासियों का ध्यान प्रवासियों की समस्याओं तरफ आकृष्ट कराया। उनके नियमित प्रयासों से ही 'काँग्रेस' में 'प्रवासी विभाग' की स्थापना की गयी। जिसके परिणामस्वरूप काँग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों की चर्चाओं में प्रवासी विषय को शामिल किया जाने लगा।
भवानी दयाल संन्यासी ने गिरमिटिया मजदूरों को एकजुट करने और उनके बीच आर्य संस्कृति का प्रचार-प्रसार तथा हिन्दी भाषा के संवर्धन के लिए विभिन्न पत्रिकाओं का संपादन किया। प्रारम्भ में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गाँधी के संपादन में निकलने वाली प्रतिष्ठित पत्रिका 'इंडियन ओपिनियन' के हिन्दी संस्करण का संपादन किया। तत्पश्चात संन्यासी जी ने अपने निजी प्रयासों से 1922 ई. में 'हिन्दी' नामक पत्रिका निकाली। 'हिन्दी' को प्रवासी भारतीयों के 'मुखपत्र' के रूप में सराहा गया। इस पत्रिका का प्रचार प्रसार दक्षिण अफ्रीका और भारतवर्ष के अतिरिक्त केन्या, युगांडा, मॉरिशस, फिजी, सुरीनाम, त्रिनिदाद आदि देशों के प्रवासी भारतीयों में भी था। संन्यासी जी अपने लेखों में माध्यम ब्रिटिश राज की शोषणकारी नीतियों का लगातार विरोध करते रहे। 1857 के गदर पर हिन्दी में लिखी उनकी पुस्तक को ब्रिटिश राज द्वारा ज़ब्त कर लिया गया, जिसमें प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का अन्त करने में अंग्रेजों की क्रूरता को दिखाने का प्रयास किया गया था।
महात्मा गाँधी के आह्वान पर स्वामी जी सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए पुनः भारत आये। उन्हें बिहार के शाहाबाद जिले का काँग्रेस कमेटी का अध्यक्ष चुना गया। बतौर अध्यक्ष स्वामी जी गांव-गांव जाकर भारतमुक्ति की कामना से सम्पन्न ब्रिटिश राज विरोधी चेतना का प्रचार-प्रसार करने लगे। उनके जोशीले भाषणों से लोगों में जागृति की लहर दौड़ गयी। जिसके कारण स्वामी जी को राजद्रोह के आरोप में ढ़ाई वर्ष का कारावास दंड सुनाते हुए हजारीबाग जेल में कैद कर दिया गया। जेल में रहते हुए भी वे हताश नहीं हुए। उन्होंने जेल के भीतर से ही 'कारगार' नामक हस्तलिखित मासिक पत्रिका का संपादन किया। 'कारागार' के कृष्णांक और दिवाली अंक के साथ-साथ सत्याग्रह अंक के कुल बारह सौ पृष्ठों की सामग्री को बिहार विद्यापीठ में सुरक्षित रखा गया था जिसे बाद में पुलिस की तलाशी में गायब कर दिया गया।
जेल से छूटते ही स्वामी जी पुनः प्रवासियों की सेवा में लग गये। 1941 में भवानी दयाल संन्यासी हमेशा के लिए भारत आ गए। उन्होंने अजमेर में अपना निवास स्थान बनाया और वहीं से 'प्रवासी' नामक पत्रिका का संपादन करने लगे। जीवन के अंतिम दिनों में जब वे शारीरिक और आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे थे, तब भी वे प्रवासी भारतीयों के हितों की चिंता करते रहे।
आचार्य शिवपूजन सहाय संन्यासी जी का स्मरण करते हुए लिखते हैं - “स्वामी विवेकानंद और स्वामी रामतीर्थ के बाद स्वामी भवानी दयाल संन्यासी ही एक ऐसे भारतभक्त संन्यासी हुए हैं, जिन्होंने भारत की सीमा के बाहर, समुद्र पार के देशों में 'हिंदी, हिन्दू और हिन्दुस्तान' के मंत्र का शंख फूंका है। विवेकानंद और रामतीर्थ ने विदेशों में केवल हिन्दू और हिंदुस्थान का डंका बजाया था, आपने 'हिन्दी' की भी दुदुंभी बजाई, आर्य संस्कृति की भी ध्वजा फहराई। अतः उन दोनों प्रातःस्मरणीय आत्माओं की तरह आप भी विशाल भारत के निर्माताओं में हैं।" 6
संदर्भ :
भूमिका, डॉ. नरेन्द्र शुक्ल, ब्रिटिश राज और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, 2018, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ - 468, शिवपूजन सहाय, जीवनियां एवं संस्मरण, शिवपूजन रचनावली - (खंड-3)
पृष्ठ-81, भवानी दयाल संन्यासी, प्रवासी की आत्मकथा, 1947, राजहंस प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ-124,भवानी दयाल संन्यासी, प्रवासी की आत्मकथा,1947, राजहंस प्रकाशन,दिल्ली
पृष्ठ-39, Prem Narain Agrawal, 'Bhawani dayal sanyasi - A public worker of south Africa' 1939, UP
पृष्ठ - 469, शिवपूजन सहाय, जीवनियां एवं संस्मरण, शिवपूजन रचनावली - (खंड-3)
बृजेश सिंह कुशवाहा
अस्सिटेंट प्रोफेसर
पी. सी. बागला (पी.जी.) कॉलेज, हाथरस (उ.प्र.)
सम्पर्क : brijeshsinghsingh069@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
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