जन-जगृति की अमर कृति ‘भारत-भारती’
तेजप्रताप तेजस्वी
मैथिलीशरण गुप्त भारतीय बोध के कवि हैं। उनके भावबोध में भारतीय जनमानस है, अतीत की गौरवशाली विरासत है, वर्तमान का यथार्थ सत्य है और भविष्य के स्वप्न हैं। कविता कैसे जनप्रिय होती है और जन-जागरण का काम करती है, गुप्त जी की कविताएं इसकी बानगी पेश करती है। 'भारत भारती' गुप्तजी के यश का आधार स्तंभ हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'हिंदी साहित्य का इतिहास' (1929) में कहा कि 'गुप्तजी की प्रतिभा की सबसे बड़ी विशेषता है कलानुसरण की क्षमता अर्थात उत्तरोत्तर बदलती हुई भावनाओं और काव्य प्रणालियों को ग्रहण करते चलने की शक्ति। इस दृष्टि से ये निस्संदेह हिंदी भाषी जनता के प्रतिनिधि कवि कहे जा सकते हैं। भारतेंदु के समय से स्वदेश-प्रेम की भावना जिस रूप में चली आ रही थी उसका विकास 'भारत-भारती' में मिलता है।इधर के राजनीतिक आन्दोलनों ने जो रूप धारण किया उसका पूरा-पूरा आभास पिछली रचनाओं में मिलता है। इनमें हम सत्याग्रह, अहिंसा,मनुष्यतत्ववाद, विश्वप्रेम, किसानों और श्रमजीवियों के प्रति प्रेम और सम्मान सबकी झलक पाते हैं।'(1) इससे स्पष्ट है कि भारतेंदु कालीन समाज में देश प्रेम का जो स्वरूप था,उसका समृद्ध विकास गुप्तजी ने किया है।भारत- भारत भारतीय जनमानस में राष्ट्रप्रेम, समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की पक्षधरता की वकालत करने वाली कृति है।
भारतीय नवजागरण एक विश्वव्यापी विषय है।इसका हर क्षेत्र में अलग-अलग स्वरूप है। यह राष्ट्रीयता स्वाधीनता आंदोलन और जनतंत्र से जुड़ा हुआ है। यूँ तो नवजागरण के कई परिभाषा हैं, परन्तु रामविलास शर्मा कहते हैं कि किसी देश या उसके प्रदेश के 'सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन' को नवजागरण कहते हैं। इस परिभाषा पर विचार करें तो हम पाते हैं कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम एक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन हैं। जब हम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन कहते हैं, तो भारतीय नवजागरण के व्यापक स्वरूप को ही समझने की कोशिश करते हैं।इस कोशिश में 'भारत भारती' हमें दिशा प्रदान करती है और हमारा मार्गदर्शन करती है। भारत-भारती विदेशी प्रभुत्व के विरुद्ध भारतीय स्वाधीनता आंदोलन को तीव्रता प्रदान करती है।यह राष्ट्र नेताओं को प्रेरित करती है, सामाजिक गतिशीलता तेज करती है और राष्ट्रीय- आत्म पहचान की वकालत करती है।इसी कारण विश्वनाथ त्रिपाठी 'हिंदी साहित्य का सरल इतिहास' में भारत-भारती की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि 'गुप्तजी की कविताओं में राष्ट्रीय भावना चरम विकास पर पहुँची। गुप्तजी को भारत भारती से बहुत अधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई। भारत- भारती में देश के अतीत-वर्तमान का चित्र खींचा गया था और भविष्य की सुखद कामना की गई थी। भारत-भारती की पंक्तियाँ हिंदी भाषी क्षेत्र के शिक्षित जनों को कंठस्थ थीं। कविता से जन-जागरण का काम यदि किसी ने सबसे अधिक सफलता के साथ किया, तो गुप्त जी ने। वस्तुतः गुप्तजी इसी कृति के कारण राष्ट्रकवि कहलाए। '(2. त्रिपाठी, विश्वनाथ, हिंदी साहित्य का सरल इतिहास ,पृष्ठ संख्या-104)
संस्कृत काव्य साहित्य में प्रतिरोध की परंपरा का एक जीवंत इतिहास है।प्रतिरोध एक आवाज है,जो जुल्म के खिलाफ उठती है।यह सत्ता से लोहा लेती है और सत्ता के लिए चुनौती बन जाती है। संस्कृत साहित्य में भर्तृहरि एक ऐसे कवि हैं जिनमें कबीर जैसे फक्कडों की बानगी का पूर्वाभास हमें मिलता है।‘वैराग्य शतक’ और ‘विज्ञान शतक’ इस बात के प्रमाण है।कवि यहाँ अवधूत होकर बोलता है, कविता के स्वर सत्ता के प्रतिरोध में हथियार की तरह उठते हैं। भर्तृहरि के एक श्लोक का हिंदी अनुवाद देखिए:-
“क्या लुप्त हो गये हैं कंदराओं से कंद?
क्या सूख गये हैं पर्वतों के निर्झर?
क्या एकदम ध्वस्त हो गये हैं सरस फलों वाले पेड़
और वल्कल वाली उनकी शाखाएँ
उनकी जो मुँह ताके जा रहे हैं,
विनय का लबादा ओढ़े रहने वाले
उन दुष्टों के
कठिनाई से पाए थोड़े से धन के घमंड में
हवा में थिरकती भौहों वाले चेहरे।
यहाँ सत्ता को लेकर आक्रोश का जो स्वर है,वह संस्कृत साहित्य के कवियों के अभिव्यक्ति के स्वर हैं। यह वही अभिव्यक्ति है,जिसे नई कविता में मुक्तिबोध ‘अंधेरे में’ कविता में परम अभिव्यक्ति कहते हैं। राज्यसत्ता को चुनौती देने का साहस संस्कृत कवियों में मिलता है।उनमें राज्यसत्ता को चुनौती देने का साहस और राजा के सामने खरी-खरी कहने का साहस है। भर्तृहरि एक श्लोक में राजा को चुनौती देते हुए कहते हैं:-
“न नटा न विटा न गायकाः न च सभ्येतरवादचञ्चव।
नृपमीक्षितुमत्र के वयं स्तनभारानमिता न योषित।।”(3.शतकत्रयादिसुभाषितसंग्रह,184)
अर्थात: हम नहीं है नट,भाड़-भड़ैते गायक,
कुछ गंदा भद्दा भी कहना नहीं जानते हम।
झुक झुक पड़ते वक्षस्थलों वाली स्त्रियां भी नहीं हम।
न तो राजा जी के दर्शन पाने वाले
हम हैं ही कौन!” (4)
मैथिलीशरण गुप्त ‘भारत-भारती’ के माध्यम से भारत के विद्या, कला-कौशल और सभ्यता-संस्कृति के उज्ज्वल पक्ष दिखाना चाहते हैं। उनका मानना है कि जो आर्य जाति कभी संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराये का मुँह ताक रही है। मैथिलीशरण गुप्त चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि ‘परन्तु क्या हमलोग सदा अवनति में ही पड़े रहेंगे? हमारे देखते-देखते जंगली जातियाँ उठकर हमसे आगे बढ़ जाएं और हम वैसे ही पड़े रहें, इससे अधिक दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है? क्या हमलोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गए हैं कि अब उसे पा ही नहीं सकते? क्या हमारी सामाजिक अवस्था इतनी बिगड़ गयी है कि वह सुधारी ही नहीं जा सकती? क्या सचमुच हमारी यह निद्रा चिरनिंद्रा है? क्या हमारा रोग ऐसा असाध्य हो गया कि उसकी कोई चिकित्सा ही नहीं?(5.भारत भारती, प्रस्तावना,4) मैथिलीशरण गुप्त के आह्वान में भारतेंदु हरिश्चंद्र का आह्वान शामिल है। गुप्तजी कहते हैं:-
“हम कौन थे,क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी,
आओ विचारे आज मिलकर ये समस्याएं सभी।
यद्यपि हमें इतिहास अपना प्राप्त पूरा है नहीं,
हम कौन थे,इस ज्ञान को, फिर भी अधूरा है नहीं।।”(6.भारत-भारती-10)
मैथिलीशरण गुप्त भारतीय भावबोध के कवि हैं। उन्हें पता है कि संसार परिवर्तनशील है। वह जानता है कि निशि-दिवा के समान विपदा और संपदा मनुष्य के हाथ आते जाते रहते हैं। एक अनाथ कभी नरनाथ बन जाता है। जो उत्सव में मग्न रहता है, वह शोक से रो भी सकता है। गुप्तजी को भारत भूमि से अटूट प्रेम था। उनका देश उनके लिए सिरमौर है। वह भू-लोक का गौरव है, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल है, मनोहर है, हिमालय की विशाल संस्कृति उनके पास है, तो गंगा जैसी पावन पवित्रशिला नदी है। राष्ट्रीय सांस्कृतिक धारा के जितने कवि हुए हैं, उन सबमें भारतीय अतीत प्रेम का मोह हमेशा रहा है। गुप्तजी प्रेम,राष्ट्रीयता और क्रांति के कवि हैं। वे अतीत से वर्तमान और भविष्य की प्रेरणा प्राप्त करते हैं। प्राचीनता और नवीनता का समन्वय उनकी कविताओं की विशेषता है। उनकी भारत-भारती में पराधीन भारत की टीस,हमारी सांस्कृतिक विरासत और क्रांति की ललकार एक साथ सुनाई देती है। इस अनुपम समन्वय के कारण वे निर्विवाद रूप से राष्ट्रकवि कहे जा सकते हैं। उन्होंने नवजागरण के उद्घोष, भारत के महिमाशाली अतीत के चित्रण और राष्ट्रीयता की भावना की चिन्तनमुक्त ओजस्वी अभिव्यक्ति ने गुप्तजी को अमर कर दिया।उनके भारतबोध में भारत एक सिरमौर राष्ट्र है:-
भू-लोक का गौरव,प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ?
फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल जहाँ।
संपूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?
उसका कि जो ऋषिभूमि है,वह कौन ? भारतवर्ष है।।
हां, वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है,
ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है?
भगवान की भव-भूतियों का यह प्रथम भंडार है?
विधि ने किया नर सृष्टि का पहले यही विस्तार है?(8..भारत-भारती,10)
भारत- भारती तीन खंडों में विभाजित है। उनका पहला खंड अतीत खंड है, दूसरा वर्तमान तथा तीसरा खण्ड भविष्य है। अतीत खण्ड भारतीय सभ्यता-संस्कृति पर गर्व करने की वकालत करता है। गुप्तजी ने प्राचीन भारत के विद्या, कला-कौशल, धन-संपदा, दर्शन, धर्म- काल,ज्ञान-विज्ञान आदि को उजागर किया है। इसका दूसरा खंड तत्कालीन भारत में व्याप्त दारिद्रय, भुखमरी, अव्यवस्था, आपसी भेदभाव, देश दुर्दशा आदि का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करते हैं। नैतिक और धार्मिक पतन के लिए गुप्तजी संत-महात्माओं के निष्क्रियता को जिम्मेवार ठहराया है। गुप्तजी का मानना है कि जो भारत प्राकृतिक संपदा से संपन्न था,वह आज विपन्न हो चुका है। जिस भारत का एक समय उत्कर्ष था, वह आज अपकर्ष का वस्तु बन गया। जो कोकिला प्रेम गीत गाती थी, वह आज दावाग्नि-दग्धारण्य में रोने चली गयी है। जो भारत जगत का मुकुट था, वह भारत आज आठ-आठ आँसू बहा रहा है। गुप्तजी कहते हैं :-
“दुर्भिक्ष मानो देह धर के घूमता सब ओर है,
हा! अन्न ! हा हा ! अन्न का रव गूँजता घनघोर है।
सब विश्व में सौ वर्ष में, रण में मरे जितने हरे,
जन चौगुने उनसे यहाँ दस वर्ष में भूखों मरे।(11..भारत भारती, वर्तमान खण्ड,93)
गुप्त जी कहते हैं कि लाखों भिखारी यहाँ घूमते हैं। एक चिथड़ा वस्त्र ही उनकी कमर में है। भारतीयों की स्थिति नग्न-भग्न है। बालक रोते और विलखते हैं। मनुष्य के पास आवास के लिए एक तरुतल मात्र है। उन्हें हेमंत कंपकंपाता है, तप तपाता है और वर्षा व्यथित करती है। उनका पेट और पीठ एक समान है। निकले हुए दाँत बाहर हैं।वह वनमानुष प्रजाति का लगता है। उनके नेत्र भीतर धसें हैं,परन्तु शुष्क आँतों में प्राण फँसे हुए हैं। वे एक मुट्ठी अन्न के लिए द्वार-द्वार भटकते हैं:-
“है एक मुट्ठी अन्न को वे द्वार-द्वार पुकारते,
कहते हुए कातर बचन सब ओर हाथ पसारते-
“दाता तुम्हारी जय रहे हमको दयाकर दीजियो, -
माता! मरे हा! हा! हमारी शीघ्र ही सुध लीजियो।”(12.भारत-भारती,94)
बीसवीं सदी को विज्ञान का सदी कहा जाता है और 21 वीं सदी को ज्ञान का सदी कहा जाता है। 21 वीं सदी का दूसरा दशक खासकर 2020 और 2021 मानवीय समाज का क्रूर साल रहा है।कोरोना जैसी वैश्विक महामारी ने भारतीय अर्थव्यवस्था की नींव हिला दी। विश्व समाज के सामने कोरोना एक चुनौती बनकर आई। भारतीय शासन व्यवस्था मूकदर्शक की स्थिति में रही। कितने मजदूरों ने महानगरों से गाँवों की दूरी नाप दी, तो कितनों ने अपनी प्राण गंवाई। किसानों की स्थिति तो दयनीय से बदतर हो गयी। किसानों ने आत्महत्या भी। इसी विपतकाल में भारत सरकार ने कृषि कानून लाकर किसानों को हौसले को चकनाचूर कर दिए। विश्व समाज कभी नहीं भूल सकता कि कोरोना काल में भारतीय किसानों ने कृषि बिल के विरुद्ध में अपनी आवाज बुलंद की और सफलता पाई। परन्तु यह सफलता अस्थायी है। गुप्तजी के समय जैसा है। आज किसानों को पूर्व की तरह अन्न पैदा नहीं होता है। उनकी संपत्ति दिनों-दिन घटती जा रही है। जब तक भारत वर्ष में अन्य देशों में जाना बंद नहीं होगा, तब तक देश संपन्न नहीं हो सकता। आरसी दत्त लिखते हैं कि चंदगुप्त के हिन्दू राज्य का बल और विस्तार उसके राज्य में जान और माल की रक्षा और उस प्राचीन समय में खेती और सिंचाई के प्रबन्ध की उत्तम दशाओं का वर्णन ऐसा है जिसे आजकल का प्रत्येक हिन्दू उचित अभिमान के साथ स्मरण करेगा। परन्तु आज कृषकों की स्थिति है:-
“सौ में पचासी जन यहां निर्वाह कृषि पर कर रहे ,
पाकर करोड़ों अर्द्ध भोजन सर्द आहें भर रहे।
जब पेट की ही पड़ रही, फिर और की क्या बात है,
होती नहीं है भक्ति भूखे’ उक्ति यह विख्यात।।”(13.भारत-भारती,)
भविष्यत खण्ड में मैथिलीशरण गुप्त ने भारतीयों को जगाने का काम किया। उन्होंने एकता पर बल दिया। भारतीय जनमानस को सुषुप्त अवस्था से जागृत अवस्था में आने का आह्वान किया। उन्होंने देश के उद्धार करने का आह्वान जन-जन से किया। उन्होंने जातीय अस्मिता को जगाने का काम किया। हम जानते कि हिंदी नवजागरण जातीय निर्माण की घटना है। रामविलास शर्मा ने पुराने सामंती संबंधों पर व्यापारिक पूंजीवादी की विजय को जातीय निर्माण का मुख्य कारक माना है। मैथिलीशरण गुप्त का मानना है कि अनेक शताब्दियाँ बीत गयी, परन्तु भारतवासी नहीं जगा। वह कुंभकर्ण की नींद लेकर सोता रहा। वे कहते हैं कि अब भी समय शेष है। अब जागने का सही समय आ गया है। वे कहते है कि तुम्हारे पूर्वज सत्यवादी थे, उनसे अलौकिक सत्य और शील की प्रेरणा लो और अपनी दशा का मूल्यांकन करो:-
“निज पूर्वजों के सद्गुणों को,यत्न से मन में धरो,
सब आत्म-परिभव-भाव तज निज रूप का चिंतन करो।
निज पूर्वजों के सद्गुणों का गर्व जो रखतीं नहीं,
वह जाति जीवित जातियों में रह नहीं सकती कहीं।।
किस भाँति जीना चाहिए,किस भांति मरना चाहिए;
सो सब हमें निज पूर्वजों से याद करना चहिए।
पद चिन्ह उनके यत्न-पूर्वक खोज लेना चाहिए,
निज पूर्व-गौरव-दीप को बुझने न देना चाहिए।”(14.भारत भारती,161)
विजयेंद्र स्नातक का मानना है कि गुप्तजी अपने युग की सीमाओं बंधकर समसामयिकता को ही काव्य का विषय नहीं बनाते थे युगबोध की सजग दृष्टि उनके पास थी, किंतु भारत के स्वर्णिम अतीत के प्रति भी उनकी गहरी आस्था थी। वह अपने वर्तमान के आगे जाने वाले अनागत भविष्य को भी देख रहे थे।कालजयी कवि वही होता है जो तीनों कालों पर समदृष्टि रखकर विकासोन्मुख बना रहता है।अप्रासंगिकता का प्रश्न चिह्न उस पर नहीं लगता है।वह परंपरा में विश्वास रखता हुआ, स्वस्थ परंपरा को आगे बढ़ाता है।राष्ट्रकवि गुप्तजी इसी कोटि के कवि थे।भारत में उनकी भारती सदैव गुंजित होती रहेगी।अतः आज जो विघटनकारी साम्प्रदायिक स्थितियाँ हैं, उनमें जो साहित्य सम्प्रदाय से भिन्न, सर्वधर्म समभाव, मानवतावाद, समता मूलक समाज, बंधुत्व, मानवाधिकार, सामाजिक उत्तरदायित्व, सामाजिक समानता, लोकतांत्रिक भागीदारी, सहिष्णुता, सहकारी भावना, रचनात्मकता, संवेदनशीलता, शांति, अहिंसा, प्रेम आदि मूल्य विकसित करने पर बल देगा, वह साहित्य जन कंठहार होगा और प्रासंगिक बना रहेगा। गुप्तजी के भारत भारती में उपर्युक्त विशेषताएँ निहित हैं। यही कारण है कि गुप्तजी ने भारत के विषय में जो सोचा और जनता को जगाने का काम किया वह आज भी प्रासंगिक है। बल देव ने ठीक ही कहा है:-
“उनमें कालिदास जैसी विशालता, तुलसीदास जैसी समन्वयवादी दृष्टि, विवेकानंद जैसी निर्भीकता, रवींद्र जैसी संगीतात्मकता, प्रेमचंद जैसी यथार्थोन्मुखी आदर्शवादिता है। उन्होंने पराधीन भारत की जड़ता को अपनी ओजस्वी वाणी से तोड़ने का प्रयत्न किया। यदि रवीन्द्रनाथ टैगौर विश्व कवि हैं, तो गुप्तजी भारतीय जनता के सच्चे प्रतिनिधि कवि हैं।”(15)
संदर्भ :
1.शुक्ल,आचार्य रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास,अनुपम प्रकाशन, पटना कॉलेज के सामने, अशोक राजपथ,पटना - 800004, पृष्ठ संख्या-420 संस्करण-2013
2.त्रिपाठी, विश्वनाथ, हिंदी साहित्य का सरल इतिहास,पृष्ठ संख्या-104,ओरियंट ब्लैकस्वान प्राइवेट लिमिटेड,हिमायत नगर,हैदराबाद-500029, पुनर्मुद्रण-2018
3.भर्तृहरि:-शतकत्रयादिसुभाषित संग्रह, पृष्ठ संख्या 184
4.तिवारी,विनोद ,पक्षधर,संयुक्तांक14-15,जनवरी-दिसंबर-2013, लेख-संस्कृत कविता में जनजीवन के निरूपण व प्रतिरोध की परंपरा-राधावल्लभ त्रिपाठी, पृष्ठ संख्या 19-20)
5.गुप्त, मैथिलीशरण,भारत-भारती, प्रस्तावना, पृष्ठ संख्या-4,साहित्य-सदन चिरगाँव झाँसी,छतीसवाँ संस्करण २०४४ विक्रम
6.गुप्त, मैथिलीशरण,भारत-भारती, प्रस्तावना, पृष्ठ संख्या-10,साहित्य-सदन चिरगाँव झाँसी,छतीसवाँ संस्करण २०४४ विक्रम
8.गुप्त, मैथिलीशरण,भारत-भारती, प्रस्तावना, पृष्ठ संख्या-10,साहित्य-सदन चिरगाँव झाँसी,छतीसवाँ संस्करण २०४४ विक्रम
9.शुक्ल,आचार्य रामचंद्र, अतीत की स्मृति,पृष्ठ संख्या-103(रामचंद्र शुक्ल संचयन नामवर सिंह),साहित्य अकादेमी,रवींद्र भवन,35,फ़िरोजशाह मार्ग, नई दिल्ली 110001,प्रथम संस्करण 1988
10.शर्मा,रामविलास, राग-विराग,निराला, सूर्यकांत त्रिपाठी, राम की शक्ति पूजा,, पृष्ठ संख्या-103-104,लोकभारती प्रकाशन, पहली मंजिल,दरबारी बिल्डिंग,महात्मा गाँधी मार्ग इलाहाबाद-211001,लोकभारती संस्करण-2014
11.गुप्त, मैथिलीशरण,भारत-भारती, वर्तमान खण्ड, पृष्ठ संख्या-93,साहित्य-सदन चिरगाँव झाँसी,छतीसवाँ संस्करण २०४४ विक्रम
12.गुप्त, मैथिलीशरण,भारत-भारती, वर्तमान खण्ड, पृष्ठ संख्या-94,साहित्य-सदन चिरगाँव झाँसी,छतीसवाँ संस्करण २०४४ विक्रम
13.गुप्त, मैथिलीशरण,भारत-भारती, वर्तमान खण्ड, पृष्ठ संख्या-97,साहित्य-सदन चिरगाँव झाँसी,छतीसवाँ संस्करण २०४४ विक्रम
14.गुप्त, मैथिलीशरण,भारत-भारती, भविष्यत खण्ड, पृष्ठ संख्या-161,साहित्य-सदन चिरगाँव झाँसी,छतीसवाँ संस्करण २०४४ विक्रम
15.राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त,संपादक-विजय अग्रवाल,लेख-भावोत्कर्ष के कवि-बलदेव,संस्करण-1994,प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार,पृष्ठ संख्या-21
तेजप्रताप तेजस्वी
शोधार्थी , दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
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