शोध आलेख : प्रतिबंधित साहित्य के आलोक में ‘बुंदेलखण्ड केसरी’ / डॉ. संगीता मौर्य

प्रतिबंधित साहित्य के आलोक में ‘बुंदेलखण्ड केसरी’
- डॉ. संगीता मौर्य

शोध सार :  इतिहास गवाह है कि जब-जब सामाजिक शोषण और दमन की प्रक्रिया बलवती हुई है, उसी के अनुरूप उसका जमकर विरोध हुआ है। किसी भी राजनीतिक आन्दोलन की सफलता पत्र-पत्रिकाओं पर निर्भर करती है। भारतीय स्वतंत्रता के दौरान हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ आम जनमानस की आवाज़ बनीं हुई थीं। समाज में घटित हो रही आन्दोलनकारी घटना की सूचना को जन-जन तक पहुँचाने में इनकी अग्रणी भूमिका रही है। यही नहीं भारतीय राष्ट्रीयता के विकास और उसको दिशा देने का कार्य हिन्दी की प्रतिबन्धित पत्र-पत्रिकाओं ने बखूबी किया। पत्रकारिता समाज की संपूर्ण गतिविधियों का दर्पण है। समाज में व्याप्त रुढ़ियों, कुरीतियों, अन्याय तथा शोषण के प्रति पत्रकारिता संघर्ष छेड़ती है। वस्तुतः जब कोई लेखन व्यवस्था के खिलाफ जाता है, उसे प्रतिबन्धन का शिकार होना पड़ता है। भारतीय स्वतंत्रता के दौरान प्रतिबन्ध के बावजूद भी हिंदी-पत्र पत्रिकाओं ने अंग्रेजी दासता के खिलाफ अपनी मुखर आवाज़ से देश के नौजवानों में देशभक्ति और देश प्रेम की भावना को और गहराई प्रदान की।

बीज शब्द :- पत्रकारिता, हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ, प्रतिबंधित साहित्य, बुन्देलखण्ड केसरी, स्वतंत्रता आन्दोलन, देशभक्ति। 

मूल आलेख : भारत विविधता से परिपूर्ण देश है। इसकी सामाजिक संरचना में व्याप्त विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनैतिक तत्व आदि सभी इसकी विशिष्टता को परिलक्षित करते हैं। ऐतिहासिक गौरव, स्वाभिमान, वीरता एवं सांस्कृतिक विरासत का धनी बुन्देलखण्ड मध्य भारत का एक प्राचीन क्षेत्र है। यह प्राचीन काल में शिक्षा और तपोभूमि का क्षेत्र रहा है। बुन्देलखण्ड की यह भूमि तप की ही नहीं बल्कि वीरों, कवियों की भी भूमि है। इसकी गौरव गाथा कई उन्नायकों द्वारा निर्धारित होती है। एक ओर रीतिकाल के प्रतिस्थापक आचार्य महाकवि केशवदास हैं तो दूसरी ओर वीरता का गान करने वाले महाकवि भूषण और लालकवि। राष्ट्रीय धारा के कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं तो वहीं ऐतिहासिक उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा जिन्होंने ‘झाँसी की रानी’ नामक उपन्यास लिखकर मातृभूमि का कर्ज उतार दिया है। हिंदी साहित्य में जिस प्रकार चंद्रधरशर्मा ‘गुलेरी’ अपनी एक कहानी के बल पर विश्वप्रसिध्द हुए उसी प्रकार आल्हा-उदल की कहानी कहने वाले जगनिक को भला कौन नहीं जानता - 

बारह बरस लै कूकुर जिये और तेरह लै जिये सियार।
बरिस अठारह छत्री जिये आगे जीवन को धिक्कार।

    यह पंक्ति केवल साहित्य जगत में ही नहीं बल्कि लोकमानस में भी व्याप्त है। देखा जाये तो व्यापार की दृष्टि से भारत हमेशा से ही विश्व के तमाम देशों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। समय-समय पर बाहर से लोग भारत आये। अंग्रेजों के आगमन के बाद भारत इसका उपनिवेश बना। भारत में उपनिवेशी शासन के कुछ परिणाम अच्छे रहे तो कुछ बुरे। अच्छे परिणामों में सबसे महत्त्वपूर्ण शिक्षा का प्रसार और पत्र-पत्रिकाओं का विकास था। “पं. जुगुल किशोर शुक्ल ने बंगला, अंग्रेजी और फ़ारसी भाषा भाषियों को अपनी भाषा में समाचार पढ़ते देख हिन्दी भाषियों को अपनी भाषा में पत्र देने की प्रेरणा मिली तो भारतेन्दु ने विदेशी व्यामोह में फँसे भारतीयों को भारतीय संस्कृति एवं भारतीय वस्तुओं के प्रति आकर्षण पैदा करने के लिए पत्रकारिता का प्रयोग किया। देश को आज़ादी दिलाने की तमन्ना हिन्दी पत्रकारिता के मूल में थी।”[1] 

    देखा जाये तो भारतीय जनमानस में व्याप्त गरीबी, अंग्रेजों द्वारा किया जा रहा आर्थिक शोषण तथा ज़मींदारों के बढ़ते अत्याचारों से पत्रकारों को प्रेरणा मिली। “भारत में पत्रकारिता का उद्भव अंग्रेजों के समय हुआ। पत्रकारिता के उद्भव में अंग्रेजों का योगदान अपरोक्ष ही रहा। अंग्रेजों का दमनपूर्ण निषेध पत्रकारिता के उद्भव के लिए वरदान सिद्ध हुआ।”[2] पत्रकारिता भारतीय जनमानस की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बना। कहा जा सकता है कि भारतीय पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता के विकास की कहानी है। “आधुनिक जन-जीवन और साहित्य में पत्रकारिता का विशिष्ट स्थान है। पत्रकारिता ही एक ऐसा माध्यम है जो हमारे जीवन की विविधताओं, नित्य नूतन और दैनिक घटनावलियों-प्रसंगावलियों को शीघ्र प्रस्तुत करने की असीम क्षमता रखता है।”[3] अंग्रेजों के अत्याचार के विरुद्ध जब जनता लामबंद होने लगी तो तब इन पत्र-पत्रिकाओं ने एक-दूसरे के साथ को बढ़ावा दिया न केवल बढ़ावा दिया बल्कि एक मजबूती प्रदान की। तब ब्रिटिश सरकार को खतरा उत्पन्न होने लगा और वह पत्रिकाओं के बढ़ते प्रभाव को देख भयभीत होने लगी और उसको प्रतिबंधित करने का उपक्रम करने लगी। प्रायः ऐसा देखा जाता रहा है कि सत्ता के विरोध में उठने वाली आवाज़ को दबाने के लिए या फिर उसे कमजोर करने के लिए उससे सम्बन्धित साहित्य को प्रतिबंधित किया जाता है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान भारतीय पत्र-पत्रिकाओं ने जब जनता की आवाज को अभिव्यक्ति देना आरम्भ किया तो ब्रिटिश अधिकारी उसे सहन नहीं कर सके। “राष्ट्रीय विचारधारा के समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं पर अंग्रेजी सरकार की कोप-दृष्टि अनवरत रही। यही कारण है कि देशभक्तों के जीवन चरित्रों अथवा अंग्रेजी सरकार के अभिशापों का वर्णन करने वाली पत्र-पत्रिकाओं को सरकार द्वारा तत्काल प्रतिबंधित कर दिया गया। पत्रिकाएँ भारतीय स्वाधीनता संग्राम का एक महत्त्वपूर्ण साधन थीं। राष्ट्रीय विचारों से ओत-प्रोत साहित्य का प्रकाशन, जिसकी संपूर्ण जिम्मेदारी हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं ने उठायी।

    हिंदी के दैनिक एवं साप्ताहिक पत्रों ने हमेशा सरकार की दमन नीति की निंदा कर, क्रांतिकारियों एवं भारतीय जनता के प्रति सुरक्षात्मक दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया। पाक्षिक एवं मासिक पत्र-पत्रिकाओं ने कारागार बंदियों की प्रशस्ति एवं सहानुभूति में अनेक तरह की रचनाएँ प्रकाशित कीं।”[4] प्रतिबंधित साहित्य हमारी वह निधि है जो देश को आजाद कराने में अपनी अहम भूमिका अदा करती है। भारत पर अंग्रेजों के कब्जा जमा लेने के बाद धीरे-धीरे भारतीय ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति और मूल्यों पर पाश्चत्य संस्कृति का प्रभाव साफ़ दिखाई देने लगा। इन दोनों सभ्यताओं के आपसी संपर्क से भारत में एक मध्यम वर्ग का उद्भव हुआ जो उदीयमान राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में उभर रहे थे। अंग्रेजों द्वारा लायी गई नई शिक्षा का मुख्य उद्देश्य भी यही था जिससे सस्ते क्लर्क, अपने माल के लिए ग्राहक एवं ब्रिटिश राज के प्रति निष्ठा रखने वाले मध्यम वर्ग का निर्माण किया जा सके। दोनों संस्कृतियों के मेल-जोल से राष्ट्रीय चेतना का ढाँचा निर्मित हो रहा था। साहित्यिक संगठनों के माध्यम से कला, साहित्य, राजनीति आदि सभी को अभिव्यक्ति मिल रही थी। इन साहित्यिक संगठनों में अन्य चीजों के अलावा साहित्यिक पत्रिकाएँ महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही थीं। जिनमें बनारस अख़बार, विशाल भारत, प्रवासी, उदंत मार्तण्ड, बंगदूत सुधाकर, धर्म प्रकाश, प्रजाहित, लोकमित्र, बाला बोधिनी, हिंदी प्रदीप, विद्यार्थी, पियूष प्रवाह, सेनापति, मालवा अख़बार, ज्ञान दीपक जगदीप भास्कर, फूलों का हार ग्वालियर गजट, जगदीप भास्कर, माधुरी, चाँद जैसी दर्जनों पत्रिकाएँ राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी भूमिका का निर्वहन करने में लगी हुई थीं। “भारतीय पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता के विकास की कहानी है। दोनों की विकास भूमि एक-दूसरे की सहायक रही हैं। यदि पत्रकारिता को राष्ट्रीयता ने प्रवहन दिया तो पत्रकारिता ने भी राष्ट्रीयता के विकास के अनुकूल भूमि तैयार की।”[5] स्वाधीनता आन्दोलन से संबंधित सभी पत्र-पत्रिकाओं का एक ही उद्देश्य था, भारत को आज़ादी दिलाना।

    सन 1932 में ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ का प्रारम्भ ‘उरई’ से होता है। पूर्णतया साइक्लोस्टाइल अर्थात प्रतिलिपित्र रूप में प्रकाशित इस पत्र ने सन 1935 तक संपूर्ण बुन्देलखण्ड में राष्ट्रीय चेतना एवं जन-जागरण को प्रोत्साहित किया। इस पत्र में आन्दोलन के समाचारों को बहुत ही गुप्त और गोपनीय स्थानों पर लिखा जाता था। “ब्रिटिश सरकार द्वारा इस दौरान जब्त किये गए प्रकाशनों में एक अनियतकालीन पत्र यह भी था जिसका 18 दिसम्बर 1933 का अंक जब्त कर लिया गया।”[6] इस जब्त अंक में बहुत सारी विस्फोटक सामग्री का प्रकाशन हुआ था। ‘हमारी कलम से’ नामक संपादकीय में संपादक रणधीर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है- “बुन्देलखण्ड केसरी का यह छोटा सा विशेषांक हम उन व्यक्तियों को सहर्ष समर्पित करते हैं जो कि बुन्देलखंडी हैं, बुन्देलखण्ड से प्रेम रखते हैं और जो बुन्देलखण्ड से जरा भी परिचित हैं। खासकर हम यह अंक उन नवयुवकों के हाथ में देना चाहते हैं जो कि अपनी माँ के लिए अपनी जननी जन्मभूमि के प्रति अपना कुछ कर्तव्य समझते हैं। वे इसे पढ़ें और अपना कर्तव्य, अपना पथ निश्चय करें और देश को दासता पाश से मुक्त करें।”[7] 

    स्वतंत्रता आन्दोलन का यह दौर सविनय अवज्ञा आन्दोलन के रूप में जाना जाता है। उस दौर में जनता तक क्रांति से जुड़े नेताओं के आन्दोलन सम्बन्धी विचारों का सम्प्रेषण करने तथा संबंधित क्रियाविधियों की जानकारी के साथ ही सरकारी प्रतिक्रिया की सूचना देने वाला ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ एकमात्र पत्र था। अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों और उच्चाधिकारियों द्वारा अनायास संपादकों को चेतावनी देना, पत्रों को जब्त कर लेना तथा प्रेस को तहस-नहस कर देना एक शौक बन गया था। इस विषम परिस्थिति में अपने अस्तित्व को बचाए रखना एक कठिन कार्य हो गया था। ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ के कुल चालीस अंक जब्त किये गए। इस विकट परिस्थिति में भी इस पत्र ने अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिए थे। इस पत्र में मुख्य रूप से जोशीले गीत, प्रतिरोध और विद्रोह से परिपूर्ण कविताएँ तथा गांधी के विचारों का प्रकाशन होता था। ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ का मुख्य ध्येय था- 'पूर्ण स्वतंत्रता'। बुन्देलखण्ड केसरी के जब्त किये गये अंक में ‘बुन्देलखण्ड केसरी की तलाश में’ नाम से प्रकाशित वार्तालाप में एक अंग्रेज पुलिस अधिकारी का कथन है- इस कमबख्त बुन्देलखण्ड केसरी के मारे नाकों दम है। यह मेरे थानेदारों की पोल खोलता है, किसानों को भड़काता है, सरकारी भंडाफोड़ करता है।’[8] वीरता की गाथा को सामने रखकर यह पत्रिका भारतीयों में राष्ट्रीय भावना जागृत करने की कोशिश करता है....

हूँ जग माता विश्व विधाता, देश स्वतंत्र बनाऊँ मैं।
आश्रयदाता, कष्ट निपाता, बंधन मात्र हटाऊँ मैं।[9]
 
आगे की पंक्तियों में स्वतंत्रता का स्पष्ट उद्दघोष है-

अधीन होकर बुरा है जीना मरना अच्छा स्वतंत्र होकर।
सरल को तज कर गरल सा प्याला है पीना अच्छा स्वतंत्र होकर।
मिले उपाधि या मान पदवी, जो सेवा करके तो व्यर्थ है सब।
गढ़े में घृणा के हो व्याकुल उतरना अच्छा स्वतंत्र होकर।[10]
 
    इस प्रकार हम देख सकते हैं कि बुन्देलखण्ड केसरी में प्रकाशित अनेक रचनाएँ अंग्रेजों को खुली चुनौती दे रही थीं। इस अंक में आज़ादी के दौरान सजा पाये हुए हमीरपुर जिले के लोगों के नामों की सूची दी गई जिसमें पता, सज़ा की अवधि एवं जुर्माना की राशि का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। “स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान हिन्दी की प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाओं ने जहाँ राजनीतिक चेतना का विकास किया, सामाजिक, सांस्कृतिक अभिरुचि को प्रोत्साहित किया तथा भारतीय समाज को सुधार, परिष्कार और जागृति की राह दिखाई, वहीं शैल्पिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया।”[11]

निष्कर्ष : भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन विकास के अनेक स्तरों से गुजरा। हिन्दी की प्रतिबन्धित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित विभिन्न लेखों और रचनाओं के माध्यम से हमें आन्दोलन की विभिन्न प्रवृत्तियों का पता चलता है। सिर्फ यही नहीं बल्कि बीसवीं सदी के आरम्भ में सम्पूर्ण भारत में हुए राजनीतिक उथल-पुथल की घटनाओं का जिक्र भी इन्हीं पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही पता चलता है। प्रत्येक पत्र-पत्रिका का यह प्रयास होता है कि वह पाठक वर्ग की बौद्धिक भूख को शांत कर सके। यद्यपि बुन्देलखण्ड केसरी का स्वरूप राष्ट्रीय न होकर प्रादेशिक ही अधिक रहा फिर भी यह कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान एक प्रबुद्ध पाठक वर्ग या जिसने हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का हर स्तर पर साथ दिया।  

संदर्भ  :
[1] अंग्रेजी राज और प्रतिबंधित हिंदी पत्रिकाएँ- डॉ.संतोष भदौरिया, पृष्ठ-16.
[2] वही, पृष्ठ-12.
[3] वही, पृष्ठ-11.
[4] वही, पृष्ठ-41.
[5] हिंदी पत्रकारिता- डॉ.कृष्णबिहारी मिश्र, पृष्ठ-48
[6] पुलिस फाइल 1107/1934 (उ.प्र. अभिलेखागार, लखनऊ)
[7] बुन्देलखण्ड केसरी, 18 दिसम्बर 1933, पृष्ठ-4.
[8] बुन्देलखण्ड केसरी, दिसम्बर 1933, पृष्ठ-16-17.
[9] बुन्देलखण्ड केसरी, दिसम्बर 1933, पृष्ठ-2.
[10] वही पृष्ठ-2
[11] अंग्रेजी राज और प्रतिबंधित हिंदी पत्रिकाएँ- डॉ.संतोष भदौरिया, पृष्ठ-153
 
डॉ. संगीता मौर्य
सहायक प्रोफेसर-हिंदी, राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गाजीपुर, (उ.प्र.)
  
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )


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