इतिहास के आईने में प्रतिबंधित साहित्य
- डॉ. मीना
शोध सार : प्रतिबंधित शब्द का सामान्य अर्थ है – निषेध अर्थात् पाबंदी, किसी को किसी काम के लिए मना करना। साहित्य समाज का दर्पण होता है। समाज जैसा होता है वैसा ही साहित्य होता है पर कई बार साहित्य समाज को बदलने की कोशिश करता है और शासक वर्ग के विरूद्ध आवाज उठाता है। ऐसे साहित्य पर फिर पाबंदी लगा दी जाती है। इतिहास में ऐसी ढ़ेरों साहित्यिक रचनाएँ हैं जिनके प्रकाशन पर प्रतिबंध लगाया गया। साहित्य, भाषण, विदेशी यात्राओं पर भी प्रतिबंध लगाया जाता है, जो सरकार के विरूद्ध है, उनका पर्दाफाश करता है, उनके विरूद्ध खड़ा होता है। ऐसे में वर्चस्व और सत्ता की यह प्रवृत्ति रही है, यह स्वभाव रहा है कि विरोधी स्वर को, साहित्य को रोके उस पर प्रतिबंध लगा दे। साहित्य जब- जब समाज की चेतना को जाग्रत करता है उसे प्रतिबंधित कर दिया जाता है। ब्रिटिश शासन के समय इस प्रकार की साहित्यिक रचनाएँ प्रतिबंधित की जाती थी, जैसे– जो साहित्य सरकार की स्तुति का नहीं होगा, सरकार के खिलाफ होगा, जनता को भड़काने वाला होगा आदि। इस प्रकार पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाने का एक लंबा इतिहास देखा जा सकता है। साहित्य का इतिहास लिखने वालों ने भी साहित्य में प्रतिबंधित साहित्य की अनुपस्थिति पर कुछ नहीं कहा और साहित्य के इतिहास को जाँचने वालों ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। इतनी अधिक संख्या में प्रतिबंधित साहित्य अपनी अनुपस्थिति को देखकर सोच तो रहा होगा कि ये कैसा चौतरफा दण्ड झेल रहा हूँ? सच और साहस की इतनी बड़ी सजा?
प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची भारी है और सूची में ऐसी किताबें हैं जो विवादास्पद विषयों से संबंधित रही है। सरकार उसे अपने लिए खतरा मान कर उसका बहिष्कार करती रही हैं। इतिहास के पन्नों को अगर उलट–पलट कर देखा जाए तो ऐसे कईं पन्ने मिल जाएँगे जो प्रतिबंध से जुड़े हुए हैं। साहित्यकारों को उनके लेखन के लिए तरह तरह से सताया जाता। इतिहास बताता है कि प्रतिबंधित पुस्तकों के लेखक अक्सर अपने काम को प्रकाशित करने से डरते थे। इतिहास की निश्चित तिथियों में किया गया सृजनात्मक कार्य देशद्रोह या विधर्म का कार्य माना जाता था। अंग्रेजों ने भारतीयों के साहित्य के विकास को रोकने के लिए कईं बाधाएं उत्पन्न की। किन्तु अनेकानेक प्रतिबंधों व अत्याचारों के बावजूद साहसी लेखकों, संपादकों, प्रकाशकों ने वैचारिक क्रांति की मशाल को जलाए रखा। देश की आजादी में गाँधी जी के योगदान को हमेशा याद किया जाता है। रचनाकारों और प्रकाशकों ने गाँधी के प्रतिपादिक सूत्रों (अहिंसा, सत्याग्रह, स्वराज, नमक सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन) को अपने साहित्य द्वारा व्यक्त किया। ये साहित्यकार कोई बहुत बड़े लेखक नहीं थे बल्कि स्थानीय तौर पर ही लोकप्रिय थे, जनभाषा में लिखते थे। ऐसा नहीं है कि लेखक व प्रकाशक सरकार विरोधी रचनाओं के सृजन के खतरों को भांपते नहीं थे। उन्हें सब पता था फिर भी निडर भाव से अपने नाम–पते के साथ साहित्य सृजन करते। सरकार भी विरोधी प्रकाशनों को ज़ब्त करती और साहित्यकार सरकारी यातनाओं, प्रताड़नाओं को झेलता रहता। जनभावनाओं को अभिव्यक्त करता और आजादी के लिए प्रेरित करता यह प्रतिबंधित साहित्य आज भी बहुमूल्य है।
बीज शब्द : प्रतिबंधित, निषेध, वर्चस्व, दमन, मानदण्ड, अनुपस्थिति, संग्राहलय, शोध, जागरूक, आंकड़े, मूल्यांकन, आत्मीयता, विवादस्पद, सुनियोजित, दृष्टिकोण, परिणति, प्रवत्ति, आगाह, विवादित, विधर्म, साम्राज्यवादी, विवेचन, प्रवाह, निर्वासित, प्रतिशोध, संहिता।
मूल आलेख : साहित्य समाज का दर्पण है जैसा समाज होता है वैसा ही साहित्य होता है पर कई बार इसका उलट भी होता है। साहित्य समाज को बदलने की कोशिश करता है, शासक वर्ग के विरूद्ध आवाज उठाता है, जनता को जागरूक करता है, हक की लड़ाई के लिए प्रेरित भी करता है। ऐसे साहित्य पर पाबंदी लगा दी जाती है। इतिहास में ऐसी कितनी ही साहित्यिक रचनाएँ है जिन्हें प्रतिबंधित किया गया हैं। आइये पहले प्रतिबंधित शब्द के सामान्य अर्थ को जान लें इसका अर्थ होता है– निषेध अर्थात जिसका निषेध किया गया हो, पाबंदी लगाना या किसी को किसी काम के लिए मना करना। प्रतिबंध के पर्यायवाची शब्द– अवरोध, रोक, बैन, अड़चन, बंदिश, रूकावट, मनाही, अंकुश, नियंत्रण, दबाव, बाधा, निषिद्ध, वर्जित, प्रतिबंधित, मना किया हुआ आदि। साहित्य, भाषण, विदेशी यात्राओं पर भी प्रतिबंध लगाया जाता है, जो सरकार के विरूद्ध है, उनकी कुरीतियों का खुलासा करता है, पर्दाफाश करता है, उनके विरूद्ध खड़ा होता है। ऐसे में वर्चस्व और सत्ता की यह प्रवृति रही है, यह स्वभाव रहा है कि विरोधी स्वर को, साहित्य को रोके उस पर प्रतिबंध लगा दे। साम्राज्यवादी शक्तियों के संदर्भ में इसे अधिक स्पष्टता के साथ समझा जा सकता है। सम्राज्यवादी शक्तियां अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए उन गतिविधियों का दमन करना चाहती हैं, जो गुलामों में स्वतंत्रता की चेतना भरती है। साहित्य में जब-जब चेतना जाग्रत करने की प्रेरणा दिखाई देती। उसे प्रतिबंधित कर दिया जाता है। 1
ब्रिटिश शासन के समय किसी भी साहित्यिक रचना को निमंलिखित तरह से प्रतिबंधित किया जाता रहा है–
1- रचना सन 1857 के आंदोलन के समर्थन में न लिखी गई हो।
2- कोई भी रचना अँग्रेजी राज्य की नीतियों के खिलाफ, दमन और शोषण के खिलाफ न लिखी गई हो। वह प्रकाशित नहीं होगी।
3- अगर साहित्य स्वाधीनता आंदोलन के पक्ष में लिखा हुआ होगा तो वह प्रकाशन के योग्य नहीं माना जाएगा।
4-ऐसा साहित्य जो रूसी क्रांति और मार्क्सवाद के बारे में जानकारी देने वाला हुआ उसे प्रकाशित नहीं किया जाएगा।
5- जो साहित्य मातृभाषा में होगा प्रकाशित नहीं किया जाएगा।
उपर्युक्त मानदण्डों से साफ–साफ जाहिर है कि जो साहित्य सरकार की स्तुति का नहीं होगा या सरकार के खिलाफ जनता को जागरूक करने वाला होगा, भड़काने वाला होगा उसे किसी भी कीमत पर प्रकाशित नहीं किया जाएगा। इस प्रकार पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाने का एक लंबा इतिहास रहा है। प्रतिबंध लगाने के पीछे की साजिशों को आसानी से समझा जा सकता है।
इतिहास गवाह है कि ब्रिटिश शासन साहित्यकारों पर नजर रखता था। उसने अपने समय में ढेरों पुस्तकों, पत्रिकाओं और अखबारों का प्रकाशनों पर रोक लगा दी थी। खतरा समझ कर उसने साहित्य की हर विधा को प्रतिबंधित किया जैसे– प्रेमचंद की सोजे-वतन, उग्र का कहानी संग्रह, सखाराम गणेश देउस्कर की पुस्तक देशेर कथा का हिन्दी अनुवाद आदि। साहित्यकारों ने जब जब जनता को जागरूक करने के लिए कलम उठाई उसे प्रतिबंधित कर दिया गया। 'संग्राहलयों में ढ़ेरों किताबें ऐसी है कि जिन्हें ध्यान से पढ़ने की जरूरत है, उन पर शोध करने की जरूरत है और ये किताबें जिस दिन प्रकाशित होकर जनता के बीच आयेंगी, साहित्य के इतिहास को देखने, पढ़ने और उसे लिखने का नजरिया निश्चय ही बदलेगा।' 2 वैसे तो साहित्य का इतिहास लिखने वालों की साहित्यिकता का भी मूल्यांकन किया जाता है उसे जांचा जाता है, परखा जाता है। लेकिन ये क्या ? साहित्य के इतिहास को जाँचने वालों ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। इतनी अधिक संख्या में प्रतिबंधित साहित्य अपनी अनुपस्थिति को देखकर सोच तो रहा होगा कि ये कैसा चौतरफा दण्ड झेल रहा हूँ ? क्या मैं अन्य साहित्य से बेहतर नहीं ? सोच रहा होगा कि क्या मुझ में सच्चाई की कमी है ? या विश्वसनीय आकड़ों की ? या फिर सच और साहस की सजा भोग रहा हूँ ?
भगवान दास माहौर का नाम हिन्दी में प्रतिबंधित साहित्य पर विचार करने वालों में लिया जाता है कि इस तरह का पहला प्रयास उन्हीं का था। उन्होंने '1857 के स्वाधीनता संग्राम का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव' विषय पर आगरा विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की। उनका यह शोध प्रबंध सन 1857 के महाविद्रोह पर प्रकाशित और अप्रकाशित रचनाओं के विश्लेषण को प्रस्तुत करता है। यह शोध प्रबंध 1976 को प्रकाशित हुआ। भगवान दास माहौर भगत सिंह के घनिष्ट मित्रों में से एक थे। 'उनकी यह किताब भगत सिंह को समर्पित है। क्योंकि अधिकांश रचनाएँ क्रांतिकारी विचारों से भरी थी, इसलिए एक क्रांतिकारी की हैसियत से भगवान दास माहौर ने गहरी आत्मीयता के साथ इस किताब में प्रतिबंधित रचनाओं का विवेचन और विश्लेषण किया। इस किताब की विशेषता यह भी है कि इसमें हिन्दी के अलावा सन 1857 से संबंधित उर्दू, मराठी, बांग्ला, गुजराती और अंग्रेजी पुस्तकों का भी उल्लेख है।' 3 स्वाधीनता आंदोलन के दौरान, स्वाधीनता आंदोलन से संबंधित कईं रचनाएँ लिखी गई। परंतु साहित्य के इतिहास को जब आप गौर से देखेंगे और पढ़ेंगे तो आपको पता चलेगा कि यह लेखन वहाँ भी प्रतिबंधित है। इसे वहाँ पर उजागर नहीं किया गया। 'जो लोग साहित्य का इतिहास लिखते समय या उसके बारे में सोचते समय इतिहास से अधिक महत्त्वपूर्ण साहित्य को मानते हैं, वे भी उन कविताओं, उपन्यासों, कहानियों और नाटकों पर ध्यान नहीं देते, जिन पर प्रतिबंध लगा था। सोचो इतनी बड़ी सजा इस साहित्य को झेलनी पड़ी।' 4
इतिहास की दृष्टि जब ऐसी प्रतिबंधित रचनाओं पर जाती है तो प्रश्न उठता है कि साहस और सच का रास्ता जो इन रचनाओं ने चुना उस रास्ते का जिक्र साहित्य में कहीं नहीं है ? प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची भारी है और सूची में ऐसी किताबें हैं जो जटिल, महत्त्वपूर्ण और अक्सर विवादास्पद विषयों से संबंधित रही है| सरकार उसे अपने लिए खतरा मान कर उसका बहिष्कार करती रही हैं। दुनिया भर में कईं देशों में पुस्तकों को प्रतिबंधित करने के अपने–अपने तरीके हैं । हालांकि प्रतिबंध एक देश से दूसरे देश में अलग अलग रहा है। विष्णु दामोदर सावरकर का वर्ष 1857 में सशक्त प्रतिरोध विदेशी शासन से मुक्ति पाने का पहला सुनियोजित प्रयास था, जिसे अंग्रेजों ने सिपाही विद्रोह या कुछ भारतीयों का स्वार्थ हित विद्रोह कहा। वीर सावरकर द्वारा रचित '1857 का स्वातंत्र्य समर' क्रांति में भारतीय दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने वाली, विश्व की पहली इतिहास पुस्तक कही जाती है। 'इसमें तत्कालीन सम्पूर्ण भारत की सामाजिक – राजनीतिक स्थिति के वर्णन के साथ साथ हाहाकार मचा देने वाले रण – ताण्डव का सिलसिलेवार और हृदय – द्रावक वर्णन है। पुस्तक लिखने से पूर्व उनके मन में अनेकों प्रश्न रहे और उन्हीं प्रश्नों की परिणति यह ग्रंथ है।' 5 इससे अंग्रेजी सरकार इस कदर भयभीत हुई कि इसे प्रकाशन से पूर्व ही प्रतिबंधित कर दिया।
प्रतिबंधित साहित्य में विश्वामित्र उपाध्याय (सन 1986 'विदेशों में भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन' ), रामजन्म शर्मा की पुस्तक ( सन 1987 'जब्तशुदागीत आजादी और एकता के तराने') भी उल्लेखनीय है। 'सन 1999 में रुस्तम राय की पुस्तक 'प्रतिबंधित साहित्य' दो खण्डों में प्रकाशित हुई। पहले खण्ड में हिन्दी की प्रतिबंधित कहानियाँ और उपन्यास तथा दूसरे में हिन्दी की प्रतिष्ठित कविताएं हैं। सन 2006 में मदन लालक्रांत की किताब स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारी साहित्य का इतिहास प्रकाशित हुई। इसमें भी प्रतिबंधित क्रांतिकारी रचनाओं के आधार पर आधुनिक हिन्दी साहित्य का क्रांतिकारी पक्ष सामने लाने का प्रयास हुआ।' 6 सखाराम गणेश देउस्कर ने अपनी पुस्तक 'देशेर कथा' में निर्भीक होकर देश की आर्थिक स्थिति और पराधीनता पर लिखा। ऐसा कर उन्होंने विदेशी शासन और शोषण की ओर आम लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। 'जब बंगाल का विभाजन नहीं हुआ था, देश की दशा शोचनीय थी। इस क्रांतिकारी पुस्तक का लेखन और प्रकाशन हुआ। इसका हिन्दी अनुवाद पंडित बाबूराव विष्णु पराड़कर ने 'देश की बात' शीर्षक से 1910 में किया, पर प्रकाशित होने से पहले ही ब्रिटिश सरकार ने इसे जब्त कर लिया। '7
इतिहास में दर्ज है कि साहित्य सम्राट मुंशी प्रेमचंद बुराई, अन्याय व असमानता के खिलाफ निर्भीकता से लिखते थे। वे किसी बुराई को देखते तो अपनी लेखनी द्वारा उसका विरोध करते। उन्होंने जो भी लिखा बेबाक लिखा। इसी कारण उनकी लेखनी से तत्कालीन ब्रिटिश सरकार खफा थी। इसी कड़ी में उन्होंने कुछ कहानियाँ भी लिखी। ज्यादातर कहानियाँ क्रांतिकारी प्रवत्ति की थी और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान रची गई थी। अपनी कहानियों के माध्यम से उन्होंने न केवल सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्यों के साथ समाज को आगे बढ़ाने का कार्य किया बल्कि साहित्य जगत को एक नई दिशा भी दी।1906 में उनका कहानी संग्रह 'सोजे वतन' प्रकाशित हुआ। देशभक्ति की भावना से भरपूर इस कहानी संग्रह पर हमीरपुर के जिला कलक्टर ने प्रेमचंद पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया और ब्रिटिश शासन ने इन्हें अपनी 'सुरक्षा' के लिए 'खतरनाक' समझ कर प्रतिबंधित किया, सारी की सारी प्रतियां जला दी और आगाह किया कि वह भविष्य में ऐसा ना करें।
भारत का इतिहास ब्रिटिश साम्राज्यवादी औपनिवेशिक सत्ता के अधीन एक परतंत्र राष्ट्र का इतिहास रहा है। इस दौरान भारतीय जनता ने अनेक प्रकार के दुख–दर्द झेले। उनसे मुक्ति पाने के लिए भारतीय एकजुट होकर लड़े। उनकी साहित्यिक अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाए गए। 'इसके बावजूद भारतीयों में राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चेतना का प्रवाह निरंतर बना रहा। भारत की आम जनता में आजादी की ललक जैसे–जैसे बढ़ती गई और स्वतंत्रता आंदोलन की धार तेज होती गई, वैसे वैसे साहित्य में प्रतिरोध का स्वर तीक्ष्ण होता गया। बड़ी मात्रा में आजादी और एकता के तराने पुस्तकों और पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे और सरकार उन पर प्रतिबंध लगाती रही।' 8 ब्रिटिश शासन भारतीय भाषाओं को अपमान की दृष्टि से देखता था और मातृभाषाओं में लिखे गए साहित्य से डरता था। यही कारण कि वह उस पर प्रतिबंध लगा देता था। क्योंकि प्रतिबंधित भी उसे किया जाता है जिससे भय होता है। विडंबना यही है 'स्वाधीनता आंदोलन के दौरान क्रांतिकारी साहित्य का बहुत बड़ा हिस्सा लोक साहित्य से जुड़ा हुआ है और वह लोक साहित्य अपने देश की सभी मातृभाषाओं में मौजूद है।' 9
पूरी दुनिया में साहित्य लेखन पर प्रतिबंध का एक लंबा इतिहास रहा है। किताबें चाहे धर्म से संबंधित हों, राजनीति से संबंधित हों किसी भी विषय पर लिखी हो उसे बैन किया जाता रहा हैं। इतिहास के पन्नों को अगर उलट-पलट कर देखा जाए तो ऐसे कईं पन्ने मिल जाएँगे जो प्रतिबंध से जुड़े हुए हैं। विवादित किताबों पर प्रतिबंध कोई नई बात नहीं है। साहित्यकारों को उनके लेखन के लिए तरह तरह से सताया जाता। आज के जमाने में तो केवल प्रतिबंध ही लगाया जाता है, लेकिन इतिहास पढ़ने से पता चलता है कि लेखकों को उनकी किताबों के साथ जिंदा जला दिया जाता था अगर किताब थोड़ी सी भी विवादास्पद या सरकार के खिलाफ होती तो उन किताबों और लेखकों को राजद्रोही मान कर सजा दी जाती। मुगल शासनकाल हो या अंग्रेजों के शासनकाल सभी के शासनकाल में लेखकों को तथा उनकी किताबों को प्रतिबंधित किया गया।
पुस्तकों पर प्रतिबंध राजनीतिक, कानूनी, धार्मिक, नैतिक या व्यावसायिक उद्देश्यों से सेंसरशिप का एक रूप है। देश के पहले प्रधानमंत्री पर लिखी गई किताब (नेहरू : अ पॉलिटिकल बॉयोग्राफी ) को 1975 में बैन कर दिया गया। 'अमेरिकी लेखक स्टैनले वोलपर्ट की फिक्शन रचना 'नाइन ऑवर्स टू रामा' को 1962 में प्रतिबंध कर दिया गया। इस किताब में स्टैनले ने गोडसे के हाथों गाँधी की हत्या के आखिरी नौ घंटों का विवरण रचा था। इसी किताब पर बनी फिल्म भी प्रतिबंधित की गई। स्टेनले ने अपनी किताब में गाँधी की हत्या के लिए सुरक्षा कारणों के साथ साजिश को रेखांकित किया गया।' 10
इतिहास बताता है प्रतिबंधित पुस्तकों के लेखक अक्सर अपने काम को प्रकाशित करने से डरते थे। क्योंकि उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था, डरा कर जेल में डाल दिया जाता था, निर्वासित कर दिया जाता था। कईं बार तो उन्हें मौत की धमकी भी दे दी जाती थी। इतिहास की निश्चित तिथियों में किया गया सृजनात्मक कार्य देशद्रोह या विधर्म का कार्य माना जाता था जो मौत, यातना, जेल और प्रतिशोध के अन्य रूपों से दंडनीय है।
अंग्रेजों ने भारतीयों के साहित्य के विकास को रोकने के लिए कईं बाधाएं उत्पन्न की। क्रांतिकारी गतिविधियों ने प्रेस और साहित्य की विषय वस्तु में परिवर्तन किए। कईं प्रतिबंधात्मक कानून लागू किए। जिसके अंतर्गत न केवल प्रेस, समाचार पत्र–पत्रिकाओं, पर्चे, पोस्टर तथा अन्य मुद्रित साहित्य को प्रतिबंधित किया, जब्त भी किया और तो और लेखकों और संपादकों को भारतीय दण्ड संहिता की उन धाराओं के अंतर्गत बड़ी सजाएं भी दी गई। 'जिन्हें विशेष तौर पर इस कार्य के लिए समय समय पर दण्ड संहिता में जोड़ा जाता रहा है। किन्तु अनेकानेक प्रतिबंधों व अत्याचारों के बावजूद साहसी लेखकों, संपादकों, प्रकाशकों ने उस वैचारिक क्रांति की मशाल को जलाए रखा जिसकी रोशनी में आजादी के दीवाने अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे।' 11
देश की आजादी में गाँधी जी के योगदान को हमेशा याद किया जाता है। बीसवीं सदी में गाँधी जी के सत्याग्रह असहयोग आंदोलन, जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड जैसी घटनाओं ने झकझोर दिया और भगत सिंह, राजगुरू व सुखदेव की फांसी से तो पूरा देश ही हिल गया था। स्वतंत्रता संग्राम में देशभक्तों ने अपने अपने तरीके से ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध अपना बिगुल बजाया। रचनाकारों और प्रकाशकों ने गाँधी के प्रतिपादिक सूत्रों (अहिंसा, सत्याग्रह, स्वराज, नमक सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन) को अपने साहित्य द्वारा व्यक्त किया। ये साहित्यकार कोई बहुत बड़े लेखक नहीं थे बल्कि स्थानीय तौर पर ही लोकप्रिय थे, जनभाषा में लिखते थे। 'इन रचनाकारों ने तमाम लोकविधाओं में गाँधी जी के विचारों को प्रचारित किया। इन रचनाकारों में यही संदेश था कि गाँधी जी से अंग्रेजी हुकूमत डरती है। इस पर ढेरों कविताएं लिखी गई जिन्हें बाद में अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया।' 12
'1982 में शुरू की गयी प्रतिबंधित पुस्तकें सप्ताह, अमेरिका लाइब्रेरी एसोसिएशन और एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा प्रायोजित एक वार्षिक अंत-सितंबर कार्यक्रम, उन पुस्तकों पर केंद्रित है जिन्हें वर्तमान में चुनौती दी जाती है और साथ ही उन पर भी ध्यान केंद्रित किया गया है जिन्हें अतीत में प्रतिबंधित किया गया है और उनके संघर्षों पर प्रकाश डाला गया है।' 13 ऐसा नहीं है कि लेखक व प्रकाशक सरकार विरोधी रचनाओं के सृजन के खतरों को भांपते नहीं थे। उन्हें सब पता था, अनजान नहीं थे वो, फिर भी निडर भाव से अपने नाम – पते के साथ आगे आए। गिरफ्तारी, पुलिस, अत्याचार, जुर्माने, जब्ती, जान से मार देने की धमकी आदि को झेलते हुए साहित्य रचा, जो ब्रिटिश हुकूमत के लिए भयभीत करने वाला और असहनीय था। यही कारण है कि सरकार विरोधी प्रकाशनों को जब्त किया जाता रहा और साहित्यकार सरकारी यातनाओं, प्रताड़नाओं को झेलता रहा और इनकी संख्या उत्तरोतर बढ़ती रही। जनभावनाओं को अभिव्यक्त करता और आजादी के लिए प्रेरित करता यह प्रतिबंधित साहित्य आज भी अमूल्य है।
संदर्भ :
1 . ई पाठशाला – हिन्दी का प्रतिबंधित साहित्य और हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ गजेन्द्र पाठक
2. वही
3. वही
4. वही
5. kapot.in/product/1857-ka-swatantraya-samar/
6. ई-पाठशाला, हिन्दी का प्रतिबंधित साहित्य और हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ गजेन्द्र पाठक
7.prabhatkhabar.com/state/Jharkhand/azadi-ka-amrit-mahotsav-sakharam-ganesh-deoskar-the-leader-of-swarajya-was-born-in-the-so
8. samaysamvad.wordpress.com/प्रतिबंधित-कविताओं-का -स /
9. ई – पाठशाला, हिन्दी का प्रतिबंधित साहित्य और हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ गजेन्द्र पाठक
10. aajtak.in/literature/photo/books-that-met-a-banned.fate-in-india-322667-2015-02-25-1
11. nmml.academia.edu/NarendraShukla
12. जनसत्ता, 2017, राकेश पांडेय, प्रतिबंधित साहित्य में गाँधी
13. greelane.com/hi/मानविकी /साहित्य /what-is-a-banned-book-738743
डॉ . मीना
गार्गी कॉलेज,दिल्ली विश्वविद्यालय
meenahindi101@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
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