आलेख : राज्यसत्ता, हिंदी की मुख्यधारा तथा कुछ ज़ब्तशुदा कविताएँ और प्रतिबंधन / करमचंद साहू

राज्यसत्ता, हिंदी की मुख्यधारा तथा कुछ ज़ब्तशुदा कविताएँ और प्रतिबंधन
- करमचंद साहू

“रचनाकार भले ही समाज का शासक न हो लेकिन वह कई बार शासकों के लिए ख़तरा ज़रूर बन जाता है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान प्रतिबंधित असंख्य कविताओं, कहानियों, उपन्यासों और नाटकों पर एक नज़र डालते ही यह सच्चाई सामने आ जाएगी। लेखक पाठकों की चेतना व्यापक बनाता है, उसकी संवेदनशीलता परिष्कृत करता है और उन्हें समाज तथा जीवन के बारे में नई दृष्टि देता है। उसी प्रक्रिया में वह कई बार सत्ता और व्यवस्था से बेमेल होने के कारण ख़तरनाक मान लिया जाता है।”

रचनाकार समाज का सबसे संवेदनशील जीव होता है। वह अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज की समस्यायों से तथा उसमें फैली बुराइयों से स्वयं भी लड़ता है और आवाम को उन हालातों से जूझने की प्रेरणा भी प्रदान करता है । वह कर्म से कवि-सृजक तथा क्रांतिधर्मी सैनिक होता है, जिसका अमोघ अस्त्र क़लम होती है। क़लम उसके लिए साध्य भी है और साधन भी।क़लम उसके लिए रोटी, कपड़ा और मकान भी है। एक सच्चा लेखक कभी नहीं थकता न ही कभी हारता है। उसकी आवाज़, आवाम की आवाज़ होती है, जिसमें दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ों को गढ़ने की क्षमता भी होती है और दुश्चरित्रधर्मी सत्ता को उखाड़ फैंकने की असीम-अदम्य ताक़त भी होती है। कहने को एक सच्चा रचनाकार हमेशा सत्ता रूपी तलवार की धार से गुज़रकर साहित्य सृजन करता है। जिससे उसे कभी-कभी सत्ता की कोपाग्नि को भी झेलना पड़ता है। लेकिन वह कभी घुटने नहीं टेकता है। इतिहास साक्षी है, जब-जब कोई सच्चा रचनाकार सत्ता के ख़िलाफ़ कुछ कहने-लिखने की कोशिश करता है तब-तब उसे नाना समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी उसकी रचनाएँ ज़ब्त हो जाती हैं तो कभी उसे सज़ा-ए-मौत मिलती है। लेकिन वह इससे विचलित नहीं होता। लिखता  है, लिखता जाता है, क्योंकि वह जानता है कि उसके अलावा कोई और ये काम नहीं कर सकता।

सत्ता के अत्याचार के ख़िलाफ़ लिखने के लिए वह दो विधियों का इस्तेमाल करता है- एक तो सीधे संबोधित करते हुए सत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है और दूसरी- विभिन्न वक्रोक्तियों, बहुव्रीहियों तथा व्यंग्यार्थों का इस्तेमाल करके, इतिहास आदि से उदाहरण लेकर तथा कल्पना-शक्ति की मदद से वह सत्ता की भ्रष्टता का पर्दाफाश करता है। इन दोनों विधियों में दूसरे के मुक़बले पहली ख़तरनाक़ है। हिंदी साहित्य के इतिहास को अगर हम ग़ौर से देखें तो जिन रचनाकारों ने दूसरी विधि का सहारा लिया है, वे साहित्य के इतिहास में स्थानित हैं, जिन्होंने पहली विधि का सहारा लिया है, वे आज भी अभिलेखागारों तथा संग्रहालयों तथा इतिहास के काल-कराल क़ब्र में दफ़्न हो चुके हैं, जिनको वापस पाना अब लगभग नामुमकिन है। किंतु हिंदी साहित्य का नसीब अच्छा है कि कई ज़ब्तशुदा साहित्य अब भी कई बड़े संग्रहालयों तथा अभिलेखागारों में सुरक्षित हैं, जिनकी ओर साहित्यकारों, शोधार्थियों, इतिहासकारों तथा पाठकों का ध्यानाकर्षण हो रहा है। ये साहित्य न सिर्फ हिंदी साहित्य के इतिहास को समृद्ध कर रहे हैं, अपितु उसके इतिहास की पुनर्रचना की माँग भी कर रहे हैं। यद्यपि एक प्रश्न अब भी बरकरार है कि क्या इन्हें साहित्य माना जाए और साहित्येतिहास में स्थान दिया जाए, क्योंकि इनमें अधिकांश साहित्येतर संग्रामियों के द्वारा लिखे गए हैं। ख़ैर वह एक अलग मसला है!

    ये तो साहित्यकार-समूह का एक पक्ष है, जिसमें वह दीन जनता का सच्चे अर्थ में प्रतिनिधित्व करता है, उसी साहित्यकार समूह का एक और रूप भी अनंतकाल से बरकरार है। वह है सत्ता की हिमायती का रूप।  मैनेज़र पांडेय ने लिखा है- “राज सत्ता से लेखक का संबंध यहाँ भी लगातार बहस का विषय बना हुआ है। 1958 के एक लेख में नागार्जुन ने लिखा था, “मौजूदा शासन के अंदर सर्वांशतः राजाश्रय सच्चे साहित्यकार के लिए ठंडी क़ब्र है, यानी प्राण शोषक समाधि।”

    यानी जो भी साहित्यकार राजाश्रय में रहकर राजा की प्रशस्ति का गान करते हैं, वे चाहे अर्थ तथा यशादि प्रप्त कर लें, लेकिन अपने ‘स्व’ को खो बैठते हैं। जिनका कर्तव्य यह होना चाहिए कि वह क्रूर सत्ता के ख़िलाफ़ जा कर दीन जनता की हिमायत करे, उसकी आवाज़ को शासनतंत्र तक पहुँचाए, वही अगर क्रूरता का साथ देगा तो इससे बड़ा दुःख का विषय और क्या हो सकता है? ब्रिटिश शासन काल में ऐसे भी मुख्यधारा के साहित्यकार हुए हैं, जिन्होंने कभी-कभी ब्रिटिश शासन की हिमायत की है।इसके कई उदाहरण आपको देखने को मिल जाएँगे। आखिरकार साहित्यकार भी एक सामान्य मनुष्य है! इसके पिछे कारण कई हो सकते हैं। सबसे प्रमुख कारण क्या हो सकता है? धर्मार्थकाममोक्ष तथा राज-दंड के भय ने उसे ये करने के लिए मजबूर किया होगा!हमें ज़ब्तशुदा साहित्य के संकलन तथा मूल्यांकन करते वक्त उपर्युक्त बातों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।  

जब भारत में अंग्रेज़ों का शासन था, तब कई क्षेत्रों में अराजकता और अव्यवस्था थी। जनता दोहरे अभिशाप से ग्रसित थी। एक तो अंग्रेज़ी शासन के प्रत्यक्ष तथा परोक्ष अत्याचारों से, दूसरा साहुकारों तथा ज़मीनदारों की प्रत्यक्ष क्रूरता से। जहाँ पर प्रेमचंद आदि मुख्यधारा के लेखक अंग्रेज़ों के मुकाबले ज़मीनदारों आदि की क्रूरता के ख़िलाफ़ अपनी कलम चला रहे थे, वहीं कुछ और लेखक- जिनमें साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता तथा सुधारक, स्वाधीनता संग्रामी आदि शामिल थे, सीधे अंग्रेज़ी हूक़ुमत के विरुद्ध सक्रिय रूप से कविताएँ, कहानियाँ, आँखों-देखी घटनाओं का दस्तावेजीकरण कर रहे थे। हश्र यह हुआ कि जिन्होंने अंग्रेज़ी तंत्र के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई, उनकी रचनाओं को ज़ब्त कर लिया गया। उन्हें कारावास की सज़ा मिली। स्वाधीनता प्राप्ति के इतने सालों बाद आज फिर से उन रचनाओं को खोज निकालने की ज़रूरत महसूस हो रहा है। इससे एक तरफ तो हम अपनी समृद्ध राष्ट्रीय-धरोहर की रक्षा कर सकेंगे दूसरी ओर उनसे प्रेरणा लेकर संप्रति राज्य-समस्याओं से लड़ सकेंगे। समय बदला है, किंतु दीन जनता की स्थिति नहीं!

ज़ब्तशुदा रचनाओं को खोज निकाल कर जिन किताबों का प्रकाशन हुआ है, उनमें मधुलिका बेन पटेल कृत “प्रतिबंधित हिंदी कविताएँ : सात क्रंतिकारी ज़ब्तशुदा काव्य- संग्रह” अपना विशेष महत्व रखती है। यह आश्चर्य की बात है कि इसका पहला संस्करण 2016 में प्रकाशित हुआ, अंग्रेज़ों के प्रत्यागमन के इतने वर्षों के बाद! इस पुस्तक की भूमिका में मधुलिका जी ने लिखा है- “भारतीय इतिहास के अंग्रेज़ी राज और उसमें मुक्ति के लिए किए गए संघर्ष में साहित्य की एक क्रांतिकारी भूमिका है, खासकर कविताओं की। देश को ब्रिटिश शासन की गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए एक ओर जहाँ आंदोलनकारी, क्रांतिकारी तथा जन समुदाय सक्रिय था, वहीं दूसरी ओर इस दौर में लिखी गई, तमाम कविताएँ आज़ादी की भावना को प्रेरित करने, साम्राज्यवादी शक्तियों को उखाड़ फेंकने के लिए जनता को उत्साहित करने में अहम भूमिका निभा रही है। ”

ज़ब्तशुदा विधाओं में सबसे अधिक ज़ब्त कविताओं की हुई, क्यों कि ये पद्यमय होने के साथ-साथ एक गूढ़ अर्थ को अपने अंदर समाए रखने में समर्थ थीं, जिनका इस्तेमाल संग्रामी गा-गा कर लेगों में देशभक्ति जगाने के लिए कर रहे थे। इन कविताओं में कई तो लय-मय गीत थे, कई नज़्म, लोकगीत, ग़ज़ल भी इनमें शामिल थीं।जो पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों, पैंफलेटों आदि में विद्यमान थे। ये अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ डंके की चोट करते थे। मधुलिका जी इन कविताओं की विविधता की बात कुछ यूँ कर रही हैं- “इन कविताओं में विविध प्रकार के स्वर मिलते हैं, जो मूलतः देश प्रेम की भावना से जुड़े हैं लेकिन उनके बाहरी स्वरूप में विविधता प्राप्त होती है। कुछ कविताएँ राजनीतिक घटनाक्रमों को लेकर लिखी गई हैं तथा कुछ में उठ रहे तमाम सामाजिक आंदोलनों को अभिव्यक्त किया गया है। विचारधारा के रूप में भी इनमें कई रूप प्राप्त होते हैं। किसी में रामराज्य का समर्थन है तो किसी में साम्यवादी समाज के निर्माण पर ज़ोर। कविताओं में गीत लोकगीत भी प्राप्त होते हैं।”

आगे उपर्युक्त पुस्तक में संकलित कुछ चुनिंदी कविताओं के सहारे यह दिखाने की कोशिश की जाएगी कि कैसे ये कविताएँ अंग्रेज़ी शासन से लोहा ले रही थीं। ‘वंदेमातरम्’, ‘इनकलाब- जिंदाबाद’, ‘भारत माता की जय’ जैसे नारे उस समय भारत के जन-जन में वह ऊर्जा भर रहे थे, जिनसे वे शासन के द्वारा रचाए गए हर मुसीबतों का सामना भी कर सकें और उनसे निहत्थे लड़ सकें। हिंदू, मुस्लिम, सिख आदि धर्म के लोग वाम- दक्षिण विचारधारा के जन, स्त्री-पुरुष, आबाल-वृद्ध-वनिता सभी भारत-मुक्ति-संग्राम की वेदी में आहुति होने को तैयार थे। सभी ने एक सपना देखा था आजादी का, जिन्हें पूरा करने के लिए सबने प्रण कर लिया था मानो। कोई अहिंसा के मार्ग पर चलकर लड़ रहा था तो कोई हिंसा को अपना कर। किसी को बंदूक का सामना करना पड़ा तो किसी को फांसी का । लेकिन ये अत्याचार जितना बढ़ता गया, इससे जनता में आजादी की आग उतनी धधकती गई। अंग्रेज़ी हुक़ूमत के दमन की हर छोटी-बड़ी घटनाएँ भारतीय जनता के मन में ख़ौफ तो नहीं भर सकीं, बल्कि उन्हें और सशक्त होकर लड़ने के लिए एकीकृत किया। अंग्रेज़ों ने मानो खुद के पैर में कुल्हाड़ी मारी। क्षमाचंद्र रस्तोगी द्वारा संगृहीत व प्रकाशित ‘आज़ादी का बिगुल’ में स्थानित एक गज़ल को हम देख सकते हैं-“छीन सकती है नहीं सरकार वंदेमातरम्/ हम ग़रीबों के गले का हार वंदेमातरम्/ सर चढ़ों के सर में चक्कर उस समय आता ज़रूर/ कान में पहुँची जहाँ झंकार वंदेमातरम्/ … मौत के मुँह में खड़ा है कह रहा जल्लाद से/ भोंक दे सीने में वह तलवार वंदेमातरम्… ईद होली और दशहरा शुबरात से भी सौ गुना/ है हमारा लाड़ला त्योहार वंदेमातरम्/ जालिमों का ज़ुल्म भी काफूर सा उड़ जाएगा/ फ़सला होना सरे दरबार वंदेमातरम्।।” 
 
उपर्युक्त गज़ल में हम उस उत्साह और बेखौफी को महसूस कर सकते हैं। यही कारण है कि अंग्रेज़ी हुक़ूमत को इन जैसी कविताओं को ज़ब्त करना पड़ा होगा, क्योंकि ये कविताएँ और गज़लें न सिर्फ लोगों में देश भक्ति जगाती होंगी अपितु देश के लिए कुछ भी कर गुजरने को प्रेरित अवश्य करती होंगी, जिनसे अंग्रेज़ों को ख़रता था।

स्वतंत्रता संग्राम ने न सिर्फ देश की स्वतंत्रता को प्रोत्साहित किया अपितु मानव मात्र की स्वतंत्रता के लिए भी जगह तैयार की। इसने सदियों से चली आने वाली सबसे बड़ी समस्या- स्त्री-पुुरुष के भेद-भाव को मिटाने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंग्रेज़ों के आने से पहले स्त्री परतंत्र के अधीन थी। सतीदाह प्रथा, अशिक्षा, विधवा के पुनः विवाह पर प्रतिबंध, स्त्री-स्वास्थ्य जैसी कई समस्याएँ भारतीय स्त्रियों को भुगतनी पड़ी थीं। भारत माता अंग्रेज़ों के आने के पूर्व ही स्त्री के रूप में रो रही थी। स्वतंत्रता संग्राम ने एक महत्वपूर्ण कार्य और किया। स्त्रियों को पुरुषों के साथ क़दम से क़दम और कंधे से कंधा मिलाकर संग्राम के पथ पर चलने और सभाओं, जुुलूसों आदि में भाग लेने और अपने शब्दों के ज़रिए लोगों की हिम्मत बढ़ाने के लिए स्वीकृति मिली। यह एक अभूतपूर्व और क्रांतिकारी घटना थी। हिंदी साहित्य में बंगमहिला, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि ने कलम चलाकर यह सिद्ध किया कि स्त्रियाँ पुरुषों से किसी भी मामले में कम नहीं। आश्चर्य की बात है, इनमें से अधिकांश ने अपनी गद्य और पद्य प्रतिभा के सहारे अंग्रेज़ों के खिलाफ कुछ न कुछ अवश्य ही लिखा किंतु इनकी रचनाएँ ज़ब्त नहीं हुईं ! बंग महिला जिनको हम पहले कहानीकारों में गिनते हैं, ‘उन्होंने चंद्रदेव से मेरी बातें’ में तत्कालीन अंग्रेज़ी व्यवस्था पर कितना करारा व्यंग्य किया है! सुभद्रा जी कृत ‘झांसी की रानी कविता’ को ही लें। कितनी ओजस्वी है, जिस समय हिंदी में छायावाद युग मुखर था, अधिकांश कविताएँ एक अतिमानवीय दुनिया में विचरण कर रही थीं, उसी समय सुभद्रा जी ने इस कालजयी कविता को रचकर अंग्रेज़ी अत्याचार का मुखौटा खोल दिया। कवयित्री की अगर दुर्घटना में अकाल मृत्यु नहीं हुई होती तो अवश्य ही और ऐसी कविताएँ हमें मिलतीं।  महादेवी जी भी अपने गद्य के जरिए कम प्रगतिशील नहीं बन गई थीं। किंतु आश्चर्य की बात है ये रचनाएँ अंग्रेज़ों की नज़र से बच गईं ! ऐसा क्यों हुआ होगा, वह एक शोध का विषय है। बहर हाल हम महिलाओं की स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी की बात कर रहे थे। उपर्युक्त कवयित्रियों की तरह और भी ऐसी महिलाएँ हुई होंगी, जिन्होंने कविताएँ लिखी होंगी, या फिर लिखना चाही होंगी अवश्य। आगे कुछ ऐसी पंक्तियों को उद्धृत कर रहा हूँ, जो तत्कालीन बालिकाओं की प्रतिनिधि बनती हैं और कहती हैं- “वीर बालिकाएँ, हम देख चुकी हैं सबकुछ पर अब करके कुछ दिखला देंगी/ निज धर्म- कर्म पर दृढ़ होकर कुछ दुनिया को सिखला देंगी/ है क्या कर्तव्य हमारा अब पहचान लिया हमने उसको/ अरमान अब यही दिल में है, लंदन का तख़्त हिला देंगी/ समझो न हमें कन्याएँ हैं, हम दुष्टनाशिनी दुर्गा हैं/ कर सिंहनाद आज़ादी का दुष्टों का दिल दहला देंगी/ राष्ट्रीय ध्वजा लेकर कर में गावेंगी राष्ट्रगीत प्यारे/ दौड़ाकर बिजली भारत में मुर्दे भी तुरंत जिला देंगी/ बैड़ियाँ गुलामी काटेंगी आज़ाद करेंगी भारत को/ उजड़े उपवन में भारत के अब प्रेम प्रसून खिला देंगी/ कंपित होगी धरती ही क्यों हाँ आसमान हिल जावेगा/ कविरत्न वज्र की भाँति तड़प रिपुदल का दिल देहला देंगी।”

    भारत की सुयोग्य बालिकाएँ न सिर्फ भारत माता की पराधीनता की बेड़ियाँ काटने जा रही थीं, अपितु अपनी बेड़ियों को भी टुकड़े-टुकड़े कर रही थीं। कई पूर्व पितृसत्तात्मक मान्यताओं को ध्वस्त कर रही थीं(बेड़ियाँ गुलामी काटेंगी, आज़ाद करेंगी भारत को…)। 
    कई आलोचकों को इन कविताओं में काव्यांगों की कमी खटकती होगी। लेकिन ये कविताएँ किसी विलासिता की भूमि में पैदा नहीं हुई थीं, रक्त-रंजित जर्जर पराधीन भारत माता की कोख में पैदा हुई थीं। इन कविताओं को तैयार करने वाले कवियों के पास पारंपरिक कवियों की तरह प्रचुर समय नहीं थे कि वे योगासन में विराजमान होते, स्वर्णजड़ित कागजों पर रईसी की कलम से फुर्सत के साथ बैठकर कल्पना की दुनिया में विचरण करते हुए, कविता सृजन करते। तत्कालीन समय की त्वरित मांग यही थी कि काव्यांग की तरफ इन कवियों का ध्यान ही नहीं गया। समस्या पराधीनता थी, अतः काव्य-विषय का अकांगी होना जायज है। सामाजिक समस्या ही कालजयी साहित्य को पैदा कर सकती है। इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि चाहे इन कविताओं में काव्यांगों की कमी का आरोप लग जाए, किंतु एक बात को मानना ही पड़ेगा कि इन कविताओं और गज़लों में संगीतात्मकता तथा गैयता अवश्य ही थी। यही कारण है कि आज भी अगर उस काल की कविताओं को लोगों में याद की जाए, तो देश प्रेम से अनुप्राणित कविताएँ ही अधिक याद होंगी, बनिस्बत छायावादी आदि कविताओं की। क्योंकि काव्यांग कविता को कितना ही शास्त्रीय क्यों न कर दें, जहन में तो वही कविताएँ रहेंगी, जो तत्कालीन समस्याओं पर आधारित हों, जो जन-जन में देश प्रेम जगाए, जो रोम-रोम को पुलकित कर दे, जो अतीत के मार्ग से भविष्य की राह दिखाए। यही कारण है कि हिंदी जानने वाले किसी भी इन्सान को लें तो उसे ‘खूब लड़ी मरदानी वह….’ या फिर ‘मुझे तोड़ लेना बनमाली’ या ‘कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ…’ जैसी कविताएँ कंठस्थ होंगी। वह जब यह गाएगा तो उसकी आँखें चमक उठेंगी और इन कविताओं को सुनने बाले के रोम-रोम पुलकित हुए बिना काम नहीं चलेगा। इस तरह की कई कविताएँ ज़ब्त हुई थीं, धीरे-धीरे वे उद्धार हो रही हैं। ऐसा समय अवश्य आएगा, जब बालक-बालिकाओं से लेकर वयस्क-वृद्धों तक, ज़ब्तशुदा कविताओं की पंक्तियों को, ‘खूब लड़ी…’ आदि कालजयी कविताओं के साथ-साथ याद भी रखेंगे और अवसर आने पर गाएँगे भी। ये कविताएँ भ्रमित जनता को रोशनी दिखाएँगी। जब-जब इनकी ज़रूरत महसूस होगी, तब-तब ये अपनी पूरी पराकाष्ठा के साथ जनता का साथ देंगी। क्योंकि देश चाहे अंग्रेज़ों से स्वतंत्र हो गया हो किंतु वह कई मामले में आज भी पराधीन है। समय बदला है किंतु पराधीनता जैसी समस्याएँ अपना चोला बदलकर आज भी विद्यमान हैं। तब अंग्रेज़ अत्याचारी थे, आज हम में से ही कोई और कई, लॉर्ड कर्जन और माउंट वेटेन हैं। स्वतंत्रता की ज़रूरत अब भी है। अधीनता अब और स्वाकार्य नहीं है- अधीन रहकर जीना बुरा है, है मरना अच्छा स्वतंत्र हो कर/ सुधा को तजकर गरल का प्याला/ है भरना स्वतंत्र होकर…    
  
करमचंद साहू
शोधार्थी, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
20hhhl04@uohyd.ac.in, 75046 81454

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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