आलेख : अट्ठारह सौ सत्तावन केन्द्रित लोकगीत और इतिहास लेखन की समस्याएं / सुनील कुमार यादव

अट्ठारह सौ सत्तावन केन्द्रित लोकगीत और इतिहास लेखन की समस्याएं 
- सुनील कुमार यादव

भारतीय इतिहास में अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति एक महत्वपूर्ण घटना है। इतिहासकारों ने इस घटना को ‘क्रांति’, ‘गदर’, ‘विद्रोह’ और ‘प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम’ आदि नामों से अभिहित किया है। यह घटना किसी सायास प्रभाव का परिणाम न होकर पहले से हो रही छोटी-छोटी घटनाओं की परिणति थी जिसको इतिहासकारों ने अपने-अपने नजरिए से देखने का प्रयास किया और उन नायकों, सेनानियों, नवाबों, राजाओं और रानियों को केंद्र में स्थापित किया, जिन्होंने सैनिकों का साथ दिया था। परंतु इन सभी इतिहासकारों ने जनमानस के उस हिस्से को गौण बना दिया, जो आंदोलन में पूरी ईमानदारी के साथ लड़ते हुए शहीद हुए। बाद में सबसे ज्यादा दमन इन्हीं का हुआ। इतिहास तथ्य मात्र की चर्चा करता है उस दारुण और दर्दनाक स्मृतियों की नहीं जो समाज में मौजूद रहती हैं। समाज में मौजूद पराजित और पराधीन मनुष्यों की स्मृतियां बहुत लंबी होती हैं। ऐसी स्मृतियों को दीर्घजीवी बनाने का काम साहित्य करता है। विशेष रूप से लोक साहित्य, क्योंकि लोकसाहित्य की रचना लोक यानी जनमानस के द्वारा होती है। मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है- “इतिहास जिनकी उपेक्षा करता है साहित्य उनकी चिंता करता है और उनकी आवाज बनकर उन्हें नया जीवन देता है ।” भारतीय जनता की संघर्षशीलता और रचनाशीलता के जीवंत प्रमाण हैं अट्ठारह सौ सत्तावन से जुड़े लोकगीत और गीत। इस युद्ध में दमन के शिकार हुए जनमानस से यह सिद्ध होता है कि यह एक जनयुद्ध था और इस जनयुद्ध में समाज के सभी वर्गों के लोगों ने भाग लिया और क्रांति के केंद्र में रहकर संघर्ष किया। इतिहासकारों ने क्रांति में शामिल इन सामंतों के अतिरिक्त उस जनता को उपेक्षित कर दिया जो क्रांति के बाद सबसे ज्यादा दमन की शिकार हुई। फिर भी इतिहास इस बात की पुष्टि करता है कि सत्तावनी-संघर्ष न तो एकाकी घटना थी और न ही सहसा विस्फोट था। देश के विभिन्न भागों में उत्पीड़न एवं शोषण की वारदातें लगातार हो रही थी। लोगों में आक्रोश की आग धधक रही थी। अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति देश में हो रहे छोटे-छोटे जनविद्रोहों का चरम उत्कर्ष था। इतिहास की इस घटना को साहित्य के माध्यम से नया आयाम मिला। लोकगीतों और गीतों ने जन की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी। उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को इन गीतों के माध्यम से समझा जा सकता है। 

हिंदी प्रदेश में अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति से जिस नवजागरण का प्रारम्भ हुआ वह राजनीतिक चेतना से युक्त थी। आलोचक रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक में इसी क्रांति को नवजागरण का प्रथम बिंदु स्वीकार किया है और इसके उपरांत लिखे जाने वाले साहित्य पर अट्ठारह सौ सत्तावन के प्रभाव का स्पष्ट उल्लेख किया है। डॉ. रामविलास शर्मा पहले ऐसे आलोचक हैं जिन्होंने हिंदी नवजागरण और हिंदी साहित्य के महत्व को स्थापित किया। इसके पूर्व हिंदी साहित्य में जब भी नवजागरण की बात होती थी तो भारतीय नवजागरण या बंगाल नवजागरण का उल्लेख कर इसकी छाया को हिंदी साहित्य में स्वीकार किया जाता था। डॉ. रामविलास शर्मा इन दोनों में संबंध स्थापित करते हुए अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति से हिंदी नवजागरण की शुरुआत मानते हैं। गुलामी की जंजीरों में जकड़ा कोई भी देश जब तक राजनीतिक रूप से स्वतंत्र न हो उस देश का औद्योगिक विकास हो ही नहीं सकता। भारत का हाल भी ऐसा ही था। मार्क्स के अनुसार “पूंजीपति वर्ग के विकास के हर कदम के साथ उसके अनुरूप इस वर्ग की राजनीतिक प्रगति भी रही है...।” अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति का केंद्र हिंदी प्रदेश था जिसमें गैर हिंदी भाषी क्षेत्र के लोगों ने भी भाग लिया था। इस क्रांति में जातियां एकजुट होती है और सामंती व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करती हैं। अंग्रेज़ भी सामंत के प्रतीक ही थे 1857 की क्रांति ने इस समय के सभी साहित्यकारों को प्रभावित किया जिसमें सिर्फ मध्यम वर्ग ही नहीं बल्कि समाज का हर वर्ग लड़ा। क्रांति से जुड़े लोकगीतों में राष्ट्रीय चेतना, स्वतन्त्रता की चाहत, साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ उठ खड़े होने की भावना विद्यमान है। 1857 की क्रांति में राजनीतिक जागरूकता के कारण ही यह बात ज्यादा पुष्ट होती नजर आ रही है कि यह हिंदी प्रदेश और अस्मिता का प्रथम नवजागरण था। रामविलास शर्मा लिखते हैं कि ‘हिंदी साहित्य के नौ सौ वर्षों के इतिहास को अगर आधुनिक काल का प्रवाह मान लिया जाए और प्रवृत्तियों के आधार पर उसका विभाग न किया जाए तो समस्या बनी रहेगी। विभाग चाहे दस वर्ष का ही क्यों न हों, होना जरूरी है। इसीलिए रामविलास शर्मा ने अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति को हिंदी साहित्य का प्रथम नवजागरण माना और वहां से साहित्य के आधुनिक काल का प्रारम्भ स्वीकार किया। उसके दस वर्ष उपरांत भारतेंदु युग को द्वितीय नवजागरण।’ रामविलास शर्मा से अलग नामवर सिंह मानते हैं कि इस समय के लेखक क्रांति से प्रेरणा न लेकर बंगाल और महाराष्ट्र के नवजागरण से शक्ति ग्रहण कर रहे थे। किंतु इस समय के साहित्य और लोकसाहित्य पर गहराई से विचार किया गया होता तो ऐसी समस्या न आती। इस क्रांति का देशव्यापी होना और साहित्यकारों का इसी से प्रेरणा ग्रहण करना विदित है। एक अवधी लोकगीत द्वारा क्रांति के अखिल भारतीय स्वरूप को समझा जा सकता है-
“श्रीपति महाराज, तू विपति निवारौ। कब अहैं हजरत देश हो
पहिला मुकाम कान्हपुर भेज्यौ : दूसरा बनारस जात हो।
तीसरा मुकाम कलकत्तवा में भेज्यौ : बेंगमें तो भागी पहाड़ हो।
आलम बाग में गोलिया चलत है: मच्छी भवन में तोप हो।

इस लोकगीत से क्रांति के राष्ट्रव्यापी होने का अनुमान लगाया जा सकता है। प्रो. गोपाल प्रधान ने भी अपनी पुस्तक ‘अट्ठारह सौ सत्तावन : महागाथा’ में इसके अखिल भारतीय रूप का उल्लेख किया है। 

क्रांति से हिंदी प्रदेश की सामंती व्यवस्था टूटती है और केंद्र में मानव की स्थापना होती है जिसके उत्स को छायावाद में देखा जा सकता है। अठारह सौ सत्तावन राजनीतिक चेतना की अभिव्यक्ति है जिसका प्रभाव हिंदी साहित्य पर पड़ा है। यदि नामवर सिंह साहित्य में राजनीतिक अस्मिता को नहीं देख पाते हैं, तो इसका सबसे बड़ा कारण है कि वे नवजागरण और इतिहास दोनों को अलग देखने का प्रयास करते हैं और उस समय के लोकसाहित्य पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते। डॉ. रामविलास शर्मा भी क्रांति से हिंदी नवजागरण को भले ही स्वीकार करते हैं लेकिन इन्होंने भी उस समय के लोक साहित्य पर कम ही ध्यान दिया है। वास्तव में ‘नवजागरण’ एक नवीन चेतना का प्रादुर्भाव है और इस चेतना में समाहित मूल तत्वों की उपेक्षा करके नवजागरण की पृष्ठभूमि को विश्लेषित नहीं किया जा सकता। जिसका इस नवजागरण में बड़ा भारी योगदान था वह विधा लोकगीत थी। हिंदी साहित्य में आधुनिकता की शुरुआत भारतेंदु युग से मानी जाती है तथा इसे ही प्रथम नवजागरण के रूप में स्वीकार भी किया जाता है परंतु अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति के संदर्भ में जो लोकगीत मिले हैं उनका अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिक विचारों का शंखनाद अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति से ही प्रारम्भ हो गया था। इस जागरण में स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। स्त्रियों ने अपनी प्रतिभा, त्याग और बलिदान से एक नया इतिहास बनाया। बेगम हजरत महल, रानी लक्ष्मीबाई, सीला देवी, रानी भवानी, लक्ष्मी बाई की सहेलियां काना और मंदरा, राजेश्वरी देवी, पासी उषा देवी, अजीजुननिसा का नाम लिया जा सकता है। स्त्रियों की उपस्थिति को एक बुंदेली गीत द्वारा देखा जा सकता है-     
                                                                                 
 “बांदा लुटो रात के गुइयां, सोउत रई चिरैयां
 सीला देवी लरी दौर के संग में सहस मिहरियां 
अंगरेजन तों करी लराई मारे लोग लुगइयां 
 गिरी गुसाई तब दौरे हैं लरन लगे मरु मइयां ।”

राही मासूम ‘रजा’ ने अपनी पुस्तक ‘अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति-कथा’ में साधारण जन के साथ-साथ इन स्त्रियों के शौर्य और पराक्रम का बहुत ही जीवंत चित्रण किया है-

 “सोचता जा रहा है मुसाफिर
गिरती दीवारे फिर बन सकेंगी
थालियाँ खिलखिलाकर हसेंगी
पूरियाँ फिर घर में छन सकेंगी
 नाज आएगा खेतों से घर में
खेत छूटेंगे बनिए के घर से
गीत गाऊँगा उस रह गुजर पर
शर्म आती है जिस रह गुजर से।”

    इस संदर्भ में सत्येंद्र कुमार तनेजा ने लिखा है कि “इन स्त्रियों में कुछ पुरातन रूढ़ियों में पली और पारिवारिक मर्यादाओं की जकड़न से निकली विवाहिता पत्नियाँ हैं, या सामंती परिवेश और दरबारी बंदिशों को तोड़ती कुछ बेगमें हैं, या विलासी जीवन-शैली से ऊपर उठती वेश्याएँ हैं, संघर्षशील किसानों-कारीगरों की थकी-माँदी बीवियाँ हैं या जंग में दुश्मन का सामना कर रहे सिपाहियों की घरवालियाँ हैं, जाहिर है, सत्तावनी विद्रोह में हर तबके की स्त्री शामिल हुई।” मुझे लगता है भारतेंदु को ‘बाला-बोधिनी’ पत्रिका निकालने की प्रेरणा यहीं से मिली थी।     
सत्तावनी संग्राम वह नवजागरण था, जिसकी चिनगारी को लोकगीतों और गीतों के माध्यम से कस्बों-गावों तक पहुंचाया गया। आमजनता की भावनाओं में जोश को बरकरार रखने के लिए ये लोकगीत गाये गए। अंग्रेजों की दमनपूर्ण नीति के कारण उस विपरीत समय में साहित्य-रचना करना कितना दुर्लभ था। ऐसे समय में आमजनता ने लोकगीतों को आधार बनाकर जन-जन तक अपनी आवाज पहुंचाई। ये लोकगीत ही वे दस्तावेज़ हैं जिसने नवजागरण का शंखनाद किया। अगर हिंदी साहित्य के लेखक बंगाल और महाराष्ट्र से प्रभावित होते और हिंदी प्रदेश पिछड़ा हुआ होता तो अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति हिंदी प्रदेश में कैसे प्रारम्भ हुई होती। यह सोचने का विषय है। मुझे लगता है कि हिंदी के लेखकों को राजनीतिक और सामाजिक चेतना के लिए कहीं और जानें की जरूरत नहीं थी क्योंकि उनके लिए प्रेरणा का उत्स क्रांति में मौजूद था। इस तरह की प्रेरणा हमें सुभद्रा कुमारी चौहान के गीत ‘झाँसी की रानी’ में दिखाई देता है-

“जाओ रानी, याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतन्त्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।”  

    इस गीत को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि हिंदी के लेखक कहीं और से प्रभावित थे! अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति भारतीय इतिहास में वह महासंग्राम है, जिसने न सिर्फ स्वाधीनता आंदोलन की नींव रखी बल्कि अंग्रेजों की दमनपूर्ण नीति का विरोध भी किया। ब्रिटिश सरकार को भय सिर्फ क्रांतिकारियों से नहीं था बल्कि साहित्यकारों द्वारा लिखी जा रही क्रांतिकारी रचनाओं से भी था। यही वह जागरण था जिसने साहित्य और समाज को नई दिशा प्रदान की। यदि अट्ठारह सौ सत्तावन की इस क्रांति में लोकगीतों और गीतों की साहित्यिक पृष्टभूमि को साहित्येतिहास में सम्मिलित किया जाए तो निश्चित ही यह मिथ दूर होगा कि अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति सिर्फ ऐतिहासिक क्रांति थी उसका साहित्य से कोई संबंध नहीं था।

व्यापार के उद्देश्य से आए ब्रिटिश व्यापारियों ने धीरे-धीरे जिस प्रकार भारत की राजनीति पर अपना अधिकार स्थापित किया। वह मुगल साम्राज्य की राजनीतिक कमजोरियों के परिणाम-स्वरूप ही संभव हो सका। प्लासी और बक्सर के युद्ध ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत अब गुलामी की जंजीरों में जीने के लिए अभिशप्त है। सत्ता हस्तांतरण के पश्चात ब्रिटिश कंपनियों ने जिस प्रकार आर्थिक और राजनीतिक शोषण प्रारम्भ किया। अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति उसी राजनीतिक शोषण के विरुद्ध राजनीतिक उद्वेलन का परिणाम थी। अट्ठारहवीं सदी के पहले देश की आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत थी कि उसका बाजार विदेशों तक फैला था, किंतु इस सदी के पश्चात किसानों, मजदूरों और गरीब जनता पर अत्याचार किए गए। किसानों को बंजर पड़ी ज़मीनों पर कर देने के लिए बाध्य किया गया और उनका शोषण किया गया। देश की आर्थिक स्थिति को बर्बाद कर दिया गया। किसी भी देश की आर्थिक स्थिति को अपने वश में, बगैर उस देश की राजनीति पर अधिकार किए नहीं किया जा सकता है। अंग्रेजों ने यही किया पहले देश की राजनीति पर अपना अधिकार जमाया फिर देश की आंतरिक संरचना को तहस-नहस कर दिया। जिससे देश स्वतन्त्रता के बाद भी कई वर्षों तक नहीं उभर पाया। भारत की जनता ने अंग्रेजों की शोषणकारी नीति से मुक्ति पाने के लिए अट्ठारह सौ सत्तावन में संघर्ष किया। जन की आर्थिक स्थिति अकाल और भुखमरी के कारण दिन-प्रतिदिन बिगड़ती गई जिसे एक ‘भोजपुरी’ लोकगीत द्वारा देखा जा सकता है- 

“हो गइली कंगाल हो विदेसी तोरे रजवा में।
सोने की थारी जहाँ जेवना जेंवत रहनी,
 कठवा के डोकिया के भइलीं मुहाल ।
भारत के लोग आजु दाना बिनु तरसे भइया,
लन्दन के कुतवा उड़ावे मजा माल ।”

रजनी पाम दत्त, सब्यसाची भट्टाचार्य जैसे लेखकों द्वारा लिखित पुस्तकों से भी उपनिवेशकालीन आर्थिक विषमता की खाई को समझा जा सकता है।  

अट्ठारह सौ सत्तावन का संघर्ष राजनीतिक दृष्टि से पहला ऐसा आंदोलन था जिसमें पूरा देश राष्ट्रभावना को संजोए संघर्ष कर रहा था। इसमें जहां एक तरफ आंदोलनकारी, क्रांतिकारी, किसान, मजदूर संघर्षरत थे वहीं दूसरी तरफ क्रांति की चेतना से प्रभावित साहित्यकार भी अपनी लेखनी द्वारा संघर्षरत थे। जो साहित्यकार इस दौर में अपने साहित्य के माध्यम से राजभक्ति की आड़ में राष्ट्रभक्ति को जगाने का प्रयास कर रहे थे उसको पढ़कर तात्कालिक समस्याओं को समझा तो जा सकता था किंतु स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किसी मार्ग को नहीं पाया जा सकता था। इस समय इन साहित्यकारों से भिन्न कुछ ऐसे साहित्यकार भी थे जो अपनी लेखनी द्वारा अंग्रेजों की कूटनीति को यथार्थ रूप में व्यक्त कर रहे थे जिसके कारण इनके साहित्य को अंग्रेजों ने जब्त कर लिया। अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित किए गए साहित्य में चेतना का वह रूप मिलता है जिसने लोगों के अंदर देशप्रेम के भाव को जगाया और देश की दुर्दशा के प्रति लोगों को जागरूक किया। इस चेतना से अंग्रेजी सरकार भयभीत हो गई थी। उसे भय था कि अगर जनता अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो गई तो उस पर शासन करना मुश्किल हो जाएगा। अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति इसी जागरूकता की परिणाम थी जिसने स्वतन्त्रता के लिए एक राजनीतिक हलचल को जन्म दिया। इस राजनीतिक हलचल से संबंधित जितना भी साहित्य प्रकाशित हुआ अंग्रेजों ने उन सभी पर प्रतिबंध लगा दिया किंतु लोकगीत के मौखिक रूप पर प्रतिबंध लगाना मुश्किल था। ऐसा नहीं है कि अट्ठारह सौ सत्तावन से संबंधित लिखित साहित्य ही सिर्फ प्रतिबंधित हुआ बल्कि वह साहित्य भी प्रतिबंधित हुआ जो दूसरे आंदोलन की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखा गया था। किंतु प्रेरणा का स्रोत अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति ही थी। आमजनमानस को जागरूक करने में मौखिक लोकगीतों की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही है जिन्हें बाद में लिपिबद्ध भी किया गया। भगवानदास माहौर ने लिखा है कि ‘अट्ठारह सौ सत्तावन के स्वाधीनता संघर्ष के लिए जनता को तैयार करने में लोकगीतों ने बहुत बड़ा काम किया।’

प्रतिबंधन की प्रक्रिया अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति से ही प्रारम्भ होती है क्योंकि मुक्ति की आकांक्षा पहली बार इसी क्रांति से आती है। जिसके बारे में रुस्तम राय लिखते हैं कि “प्रतिबंधित साहित्य चाहे वह किसी भी भाषा या विधा का साहित्य क्यों न हो, स्वातंत्रय चेतना की कोख से पैदा होता है।” अंग्रेजों द्वारा पुस्तक पर प्रतिबंध इसी क्रांति के बाद लगाया जाने लगा। इससे पूर्व पत्र-पत्रिकाओं पर ही अधिकतर प्रतिबंध लगाया जाता था। क्रांति के पश्चात साहित्य में एक नवीन परिवर्तन आया कि ईश्वर का स्थान मनुष्य ने ले लिया। इसके पहले साहित्य के केंद्र में अधिकांशत: ईश्वर को रखा जाता था या किसी राजा-महाराजा को, मनुष्य उपेक्षित था। प्रतिबंधित साहित्य में मनुष्य की पीड़ा, वेदना, दर्द और उसकी अस्मिता के प्रश्न को सीधे-सीधे उकेरा गया। दरअसल लोकसाहित्य बोलचाल की भाषाओं में रचित वह साहित्य है जो समाज में ग्रामीण और निम्न तबके का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें सामान्य जनता के भावों की अभिव्यक्ति होती है। शिष्ट साहित्य की अपेक्षा आमजनता लोकसाहित्य के अधिक निकट होती है। इसलिए ये लोग शिष्ट साहित्य से उस प्रकार उद्वेलित और प्रभावित नहीं हो पाते जिस प्रकार लोकसाहित्य से। अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति में रचित लोकसाहित्य सीधे-सीधे आम जनता की भागीदारी को अभिव्यक करता है। 

साम्राज्यवादी शक्तियों से मुक्ति के लिए जो जनांदोलन प्रारम्भ हुआ उसने साहित्य को भी प्रभावित किया। समाज और साहित्य में एक साथ नई क्रांति का सूत्रपात हुआ जिसके कारण समाज और राजनीति में परिवर्तन की आहट सुनाई देने लगी। क्रांति से जुड़े लोकगीतों और गीतों द्वारा इस आहट को महसूस किया जा सकता है। इन लोकगीतों और गीतों को आधुनिक हिंदी साहित्य में शामिल कर दिया जाए तो हिंदी साहित्येतिहास लेखकों को इतिहासलेखन पर पुनः विचार करने की आवश्यकता महसूस होने लगेगी और निश्चित ही लोकसाहित्य का एक नया क्रांतिकारी रूप हमारे सामने प्रस्तुत होगा। साथ-ही-साथ बाद के साहित्यकारों पर लगाए गए राजभक्ति के आरोप भी खंडित होंगे। साहित्य में उस समय भाषा का प्रश्न भी उभरकर सामने आया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ में आधुनिक काल के अंतर्गत गद्य साहित्य पर लिखते हुए कहा है कि “विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गद्य साहित्य की परंपरा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ।” आचार्य शुक्ल का इशारा भारतेंदु की तरफ था, जिन्होंने गद्य साहित्य की रचना खड़ीबोली में और पद्य साहित्य की ब्रजभाषा में की। इसी समय हिंदी-उर्दू का विवाद भी चल रहा था। रामचंद्र शुक्ल भारतेंदु का उल्लेख कर कहीं न कहीं हिंदी के समर्थन में खड़े नजर आते हैं, क्योंकि भारतेंदु उस भाषा के समर्थक थे जिसका रूप संस्कृत मिश्रित था। जिसे ‘भाखा’ कहा जाता था। अरबी-फारसी मिश्रित हिंदी को रेख्ता, हिंदुस्तानी आदि नामों से जाना जाता था। भारतेंदु ने संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी भाषा से नाटकों का अनुवाद किया लेकिन उर्दू में किसी भी नाटक की न तो रचना की और न ही अनुवाद किया। परंतु ‘रसा’ नाम से उर्दू में लेख जरूर लिखते थे। इस समय के लेखक ऐसी भाषा के समर्थक थे जो संस्कृत मिश्रित खड़ीबोली थी जिसमें अरबी-फारसी के शब्द बिल्कुल नहीं थे। भाषा का समर्थन करने के बाद भी इस युग के लेखकों ने व्याकरण के नियमों और भाषा की शुद्धता पर ध्यान नहीं दिया। ऐसा नहीं था कि इन साहित्यकारों ने भाषा के व्याकरणिक रूप की अवहेलना की किंतु स्वाधीनता के समय इन लेखकों का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था, आमबोलचाल की भाषा में साहित्य रचना करके देशवासियों को यथास्थिति से परिचित कराना। भारतीय संस्कृति अनेक भाषाओं, जातियों एवं धर्मों से मिलकर बनी होने के कारण बेहद समृद्ध है। जिसके अनेक कारण हैं, उसमें राष्ट्रीय एकता और देशभक्ति प्रमुख है। अजीमुल्ला खाँ द्वारा लिखा यह गीत राष्ट्रीय एकता और देशभक्ति को पुष्ट करता हुआ दिखाई देता है-

“हम है इसके मालिक हिंदुस्तान हमारा
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा
ये है हमारी मिल्कियत हिंदुस्तान हमारा
इसकी रूहानियत से रोशन है जग सारा
कितना कदीम कितना नईम, सब दुनिया से न्यारा
करती है जरखेज जिसे गंगो-जमुन की धारा।”

यह गीत हिंदुस्तान की एकता और संस्कृति का प्रतिबिंब है।

हिंदी और उर्दू के साहित्यकार भाषाई आधार पर भले ही अपनी-अपनी भाषा का समर्थन करते थे, लेकिन देशभक्ति के नाम पर दोनों एक थे। भारत की आजादी का प्रमुख सूत्र एकता ही था। सभी धर्मों के लोग एक होकर, एक स्वर में आजादी की मांग कर रहे थे। हिंदू-मुस्लिम एकता अट्ठारह सौ सत्तावन से संबंधित लोकगीतों में सशक्त रूप से प्रतिबिंबित होती है। लोकगीतों और गीतों को हिंदी साहित्य में समाहित कर दिया जाए तो निश्चित रूप से हिंदी-उर्दू की खाई को पाटा जा सकता है और साहित्य के इतिहासलेखन पर नए तरीके से विचार किया जा सकता है। भारत में स्वाधीनता के लिए अनेक लड़ाइयां लड़ी गई क्योंकि स्वाधीनता के बिना किसी भी देश का कोई अस्तित्व नहीं है। अट्ठारह सौ सत्तावन प्रथम स्वाधीनता आंदोलन था जिसमें सैनिकों, किसानों, मजदूरों नेताओं आदि ने संघर्ष किया। इस क्रांति से प्राप्त राष्ट्रीय चेतना को अपने साहित्य में अनेक राष्ट्रवादी साहित्यकारों ने शामिल किया जिसके अंतर्गत सुभद्रा कुमारी चौहान, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, अल्फात हुसैन हाली जैसे लोगों का नाम लिया जा सकता है। इन  साहित्यकारों की रचनाओं के अतिरिक्त भारतीय भाषाओं में राष्ट्रीय आंदोलन के गीतों की जो लहर चली उसे करोड़ो लोगों ने गाते हुए अपनी जान कुर्बान कर दी। प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से संबंधित लोकगीतों और गीतों में इसी प्रकार का भाव छिपा है, जिसने राष्ट्रीय चेतना को जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन गीतों से स्वाधीनता का जो स्वर मुखरित हुआ और आगे के आंदोलनों ने जो प्रेरणा ग्रहण की उससे अंग्रेजी सरकार परिचित थी। ब्रिटिश सरकार ने बहुत पहले विदेशी उपनिवेशों में इन्हीं लोकगीतों और गीतों के सामने अपने हथियार डाल दिये थे। गीत लोगों की जबान पर रहते थे जिसे गाकर करोड़ों लोग आंदोलित होते थे। गेयता के गुण के कारण ब्रिटिश शासन द्वारा इसे प्रतिबंधित नहीं किया जा सका। इन लोकगीतों और गीतों का अभी तक सम्यक अध्ययन नहीं हुआ है, जो देश की एकता और अखंडता के प्रमाण हैं। हिंदी साहित्य और इतिहास दोनों में इन लोकगीतों पर सम्यक अध्ययन की आवश्यकता है तभी हिंदी साहित्य और अट्ठारह सौ सत्तावन दोनों को बंधी-बंधाई परिपाटी से अलग नए तरीके से देखा और समझा जा सकता है।

हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा का प्रारम्भ 1839 ई. में फ्रेंच विद्वान गार्सा-द-तासी द्वारा किया गया। इन्होंने अपने देश में रहकर भारत के हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा। यहां के व्यवहार से उनका कोई सरोकार नहीं था। सिर्फ इतिहास की परंपरा का ज्ञान और अनुवादित सामग्री के आधार पर हिंदी साहित्य का इतिहास लिख डाला। इसके पश्चात उपनिवेशकाल में अनेक इतिहास लिखे गए जिनमें अट्ठारह सौ सत्तावन से जुड़े लोक साहित्य का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इन इतिहास लेखकों में केवल आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में लोकगीतों की परंपरा को चित्रित किया है। वे कहते हैं कि “पंडितों की बंधी प्रणाली पर चलने वाली काव्यधारा के साथ-साथ अपढ़ जनता के बीच एक स्वच्छंद और प्राकृतिक भावधारा भी गीतों के रूप में चलती रहती है।...जब पंडितों की काव्यधारा स्थिर होकर उत्तरोत्तर आगे बढ़ती हुई लोकभाषा से दूर पड़ जाती है और जनता के हृदय पर प्रभाव डालने की उसकी शक्ति क्षीण होने लगती है तब शिष्ट समुदाय लोकभाषा का सहारा लेकर अपनी काव्य परंपरा में नया जीवन डालता है।” आचार्य शुक्ल ने जिन गीतों की चर्चा की है उसे अपनाकर शिष्ट साहित्यकार अपने काव्य को नया जीवन देता है। लोकगीतों और गीतों की परंपरा करोड़ो लोगों के हृदय को राष्ट्रव्यापी बनाती है। अट्ठारह सौ सत्तावन से जुड़े लोकगीतों की परंपरा साहित्य के साथ-साथ बाद के राष्ट्रीय आंदोलन को नई ऊर्जा प्रदान करती थी किंतु इन लोकगीतों और गीतों को इतिहासकारों ने अपने इतिहास में स्थान नहीं दिया। हो सकता है कि उपनिवेशकाल में इतिहासकारों को ब्रिटिश शासन की दमन संबंधी नीति का भय रहा हो जिसके कारण इन इतिहासकारों ने अपने इतिहास में लोकगीतों की चर्चा नहीं की, किंतु स्वतन्त्रता के बाद साहित्येतिहास लेखकों को किसी प्रकार के दमन का भय नहीं था फिर इतिहास लेखकों ने क्यों इस पर विचार नहीं किया? आजादी के पश्चात अनेक महत्त्वपूर्ण इतिहास प्रकाशित हुए लेकिन किसी में भी लोकगीतों और गीतों पर सम्यक विचार नहीं किया गया। इन इतिहास पुस्तकों में ‘हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास’, ‘हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास’, ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’ आदि का नाम लिया जा सकता है। 

साहित्येतिहास में युग-परिवर्तन के सामान्य कारणों की खोज होती है, जिसका नेत्तृत्व इतिहासकार की दृष्टि करती है। अट्ठारह सौ सत्तावन की जिस क्रांति से नवजागरण का प्रारम्भ डॉ. रामविलास शर्मा मानते हैं और जिससे आगे के आंदोलन प्रेरणा लेते रहे हैं। उससे जुड़े लोकगीतों और गीतों पर किसी इतिहासकार की दृष्टि नहीं गई। डॉ. सुमन राजे ने अपने इतिहास में लोकगीतों की चर्चा की गई है लेकिन उनका ज़ोर महिला-लेखन से संबंधित इतिहास तक अधिक रहा। इन्होंने लिखा है कि “लोकगीतों को महिला-लेखन का साक्ष्य मानते हुए उसे इतिहास में दर्ज किया गया है, उसमें इतिहास तलाशा गया है और जन इतिहास की खोज की गई है। और यह भी पहली बार है कि महिला-लेखन का एक समूचा सांस लेता हुआ सौंदर्यशास्त्र भी हमें हासिल हुआ है।” डॉ. सुमन राजे लोकगीतों का उल्लेख तो करती हैं जो थोड़े फेर-बदल के बाद अपने स्वरूप को बनाए हुए है। लेकिन डॉ. राजे उन लोकगीतों और गीतों की चर्चा नहीं करती हैं जिसमें राष्ट्रीय जनजागरण के साथ देश की स्वतन्त्रता की आहट सुनाई देती है। लोकगीतों और गीतों के सौंदर्यशास्त्र को यदि इतिहास में शामिल किया जाए तो निश्चित रूप से साहित्य के इतिहास की पुरानी धारणाओं में परिवर्तन होगा और नवीन धारणाओं की उद्भावना होगी। राष्ट्र और समाज में घटित होने वाली प्रत्येक घटना जिसका प्रभाव साहित्य पर भी पड़ता है उसे साहित्येतिहास में उपेक्षित नहीं रखना चाहिए क्योंकि प्रत्येक युग का साहित्य अपने समय की अभिव्यक्ति होता है। अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति वह महासंग्राम थी जिसने समाज के साथ-साथ साहित्य की दिशा को भी बदला। साहित्य में नए मूल्यों का प्रारम्भ यहीं से हुआ अत: समाज और साहित्य में आई इस नवीन क्रांति को राजनीतिक पृष्ठभूमि के रूप में स्वीकार करके इसे साहित्येतिहास से उपेक्षित नहीं किया जा सकता।

निष्कर्ष रूप में यदि विचार करे तो कहा जा सकता है कि राजनीतिक पृष्ठभूमि में पनपे लोकसाहित्य से ही क्रांति और साहित्य को जोड़ा जा सकता है और साहित्येतिहास लेखन पर नए तरह से विचार किया जा सकता है। लोकसाहित्य किसी भी समाज के सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास का मौखिक दस्तावेज होता है जिसमें लोकजीवन के दुःख-दर्द, हर्ष-उल्लास को अभिव्यक्ति मिलती है। समय-समय पर इन लोकगीतों में हमारे समाज के विविध क्रिया-कलाप, राजनितिक चेतना, जीवन संघर्ष अभिव्यक्त हुए हैं। अट्ठावनी लोकगीतों का महत्त्व तब और अधिक बढ़ जाता है जब ऐसे विपरीत समय में पूरा देश गुलामी के दंश को सह रहा था। अंग्रेजी सरकार निरंतर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन कर रही थी ऐसे समय में आमजनमानस का देशप्रेम और सरकार के प्रति कटु आक्रोश इन गीतों में अभिव्यक्त हुआ। 1857 की क्रांति के अंतर्गत रचे गए लोकगीत इस बात का भी साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि विद्रोह के कुचल जाने के बाद भी भारतीय जनता की अंतरात्मा कुचली न जा सकी। दमन की स्मृतियां आज भी इन लोकगीतों में जीवित हैं। क्रांति के उद्घोष के साथ ही देश में दो तरह का परिवर्तन दिखाई देता है- एक, सत्ता का हस्तांतरण और दूसरा भारतीयों में स्वतंत्रता की चाहत। अपने अधिकार के लिए बार-बार विद्रोह करने की प्रेरणा एवं भावी पीढ़ी में देश के प्रति मर मिटने की चेतना का प्रसार इन गीतों का सारतत्व है। महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए अहिंसात्मक आंदोलन में भी इन लोकगीतों ने अपना योगदान दिया। पूरे देश में विशेष रूप से उत्तर भारत की क्षेत्रीय बोलियों में ये लोकगीत लिखे और पढ़े गए। 1928 के आस-पास राष्ट्रवादी कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित कविता ‘झाँसी की रानी’ में क्रांति के चिह्न स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं जिसे बाद में अंग्रेजों द्वारा जब्त कर लिया गया। लोकगीत भारतीय भाषाओं की सभी बोलियों में रचित हैं। इन लोकगीतों को इतिहासकारों ने साहित्येतिहास के पन्नों से विस्मृत कर दिया है। इसी के साथ इतिहासकारों और आलोचकों में नवजागरण को लेकर जो मतभेद रहे हैं उसकी कड़ी भी कहीं-न-कहीं इन लोकगीतों से जुड़ती है। नवजागरण जिस नवीन चेतना का उद्घोषक है, वही चेतना इन लोकगीतों में भी समाहित है। ब्रिटिश काल का लोकसाहित्य क्रांतिकारी चेतना को अपने अंदर समेटने में सबसे अधिक सक्षम रहा है क्योंकि गेयता के कारण प्रतिबंधन की तलवार इन लोकगीतों पर नहीं चल सकी। अट्ठावनी क्रांति भले ही विफल रही हो परंतु इसने साहित्त्यिक युग को पूर्णत: प्रभावित किया। जनता द्वारा रचित इन लोकगीतों ने सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका यह निभाई कि क्रांतिकारी नायकों के मुक्ति प्रयास को कभी शिथिल नहीं होने दिया। लोकसाहित्य और लोकचेतना क्रांति के आवेग से कभी भी अछूती नहीं थी।  

सुनील कुमार यादव
शोधार्थी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
sunilkumaryadav2591@gmail.com 

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )


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