प्रतिबंधित उर्दू गीतों में अभिव्यक्त स्वाधीनता की चेतना
- अजीत आर्या
सन 1857 के बाद भारत में सत्ता और मूल्यों पर पाश्चात्य असर दिखने लगा था, इसे साहित्य, कला, राजनीति और सामाजिक सुधार आंदोलनों के साथ बौद्धिक संगठनों के माध्यम से अभिव्यक्ति मिलने लगी थी। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जलियांवाला बाग हत्याकांड, गांधी जी के सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन, भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु की फांसी जैसी घटनाओं ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। इस समय में भारतीयों के दृष्टिकोण को कविता, नज़्म, ग़ज़ल, लेख, नाटक आदि विधाओं में कभी मुखरता से तो कभी लक्षणा, व्यंजना में अभिव्यक्त किया गया। इन रचनाओं को जनभाषा में लिखा जा रहा था। जिनमें हिन्दी की बोलियाँ, उर्दू और अन्य भारतीय भाषाएं प्रमुखता से शामिल थीं। मेलों-पर्वों के अवसर पर अक्सर इन बातों का प्रसार होता था। इस अवसर पर होने वाले जुटान में इन बातों को व्यापक जनसमुदाय तक पहुंचाने में आसानी होती थी। इस क्रम में भारतीयों के ऊपर भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा दिया गया बलिया के मेले में बलिया व्याख्यान बहुत प्रसिद्ध है। इस तरह यह रचनाएं लोक चेतना में स्मृति के द्वारा मौखिक रूप से ही प्रचलित थीं।
जिन रचनाओं का स्वर सरकार के कार्यों की आलोचना और सरकार द्वारा किए जा रहे दमन तथा अत्याचार के विरोध में होता था, उन्हें सरकार द्वारा जब्त कर लिया जाता था। लेखकों पर पुलिसिया अत्याचार आम बात थी और उन्हें कई बार आई. पी. सी. की धारा 124(ए )-1860 के तहत गिरफ्तार कर जेल भेज दिया जाता था। जब्ती और गिरफ्तारियों की कार्यवाही को झेलते हुए भी यह लेखक आम जन के साथ हो रहे उत्पीड़न और दमन के खिलाफ लगातार रचनात्मक रूप से प्रतिरोध दर्ज करा रहे थे।
‘आजादी के जब्तशुदा तराने’ (उर्दू साहित्य के प्रतिबंधित गीत) स्वतंत्रता संघर्ष के उस महत्त्वपूर्ण भाग का एक संक्षिप्त परिचय है। जहां सम्पूर्ण भारतवासियों का एक साझा सपना था कि इस मुल्क को अंग्रेजों से आजाद कराना है। इस उद्देश्य को पाने में न धार्मिक भेदभाव आड़े था, न वेष-भूषा की भिन्नता और न ही विचारधारा की भिन्नता, न ही कोई भाषिक पक्षपात, और न ही क्षेत्रीय संकीर्णता इन तमाम भिन्नताओं में जो एक समानता का कारण था वह था ‘गुलामी का दंश’ जो सबके हिस्से में था और उससे उपजी हुई पीड़ा भी। उस समय सभी के हृदय को एक सूत्र से जोड़ने वाली यह पीड़ा ही ज्वाला बनकर उभरी, वह ज्वाला देशभक्ति की ज्वाला थी। जो सभी के हृदय में प्रज्ज्वलित हो रही थी। एक दृढ़ निश्चय था जिसने सबको एक सूत्र में बांध रखा था।
मिर्जा ग़ालिब 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय जो ग़जल उन्होंने लिखी वह उन दुखांत घटनाओं को ही देखकर लिख रहे थे। उसमें अंग्रेजों की गुलामी से देश को मुक्ति पाने की कोई कल्पना तक नहीं की गई थी। उस ग़जल में अंग्रेजों के अत्याचारों और अन्यायों के विरुद्ध एक रोषपूर्ण वर्णन था। यथा -
“चौक जिसको कहें वो मक्तल ,घर बना है नमूनः जिन्दः का” -ग़ालिब
रक्तरंजित हृदय से निकली इन रचनाओं ने ब्रिटिश सरकार को बहुत ही भयभीत कर दिया था। सरकार की यही कोशिश रही कि जनता तक पहुँचने से पहले इन रचनाओं को अपने अधिकार में लेकर जब्त कर लिया जाए।
बीती विभावरी –
इन गीतों और नज़्मों में देशवासियों से आह्वान किया गया है कि ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा प्रतिदिन किए जा रहे अत्याचार और उत्पीड़न से आजिज आकर कवि हृदय व्यवस्था परिवर्तन के लिए गीत के माध्यम से प्रस्तुत होता है। वह युवाओं से विद्रोह करने की मांग करता है। बार-बार इस प्रकार के गीतों मे एक ही बात को अलग-अलग ढंग से दोहराया गया है -
“वक्त का फरमान अपना रुख बदल सकता नहीं
मौत टल सकती है अब,फरमान टल सकता नहीं”
इन गीतों के द्वारा मौत की कीमत पर देश को आजाद कराने का जज़्बा कवियों के द्वारा पैदा किया जा रहा था। वहीं इस तरह के गीत नौजवानों की टोलियों में लोकप्रिय थे। जो कारवां तिरंगा लेकर प्रभात फेरी निकालते थे, वहाँ इन गीतों को सस्वर गाया जाता था। नौजवानों को गुरुरे कारवां कह आगे बढ़ने को प्रेरित करने का कार्य यह गीत कर रहे थे, तो इन्हीं गीतों में तोप के दहाने पर होने पर भी आगे बढ़ने का आह्वान था –
“बिरादराने नौजवां गुरुरे कारवां हो तुम” .
बढ़ते जाना यहाँ दिशाहीन नहीं है बल्कि एक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए है, यह कहा जा सकता है कि सविवेक और सोद्देश्य है। वह हुकूमत जो अन्याय और अत्याचार पर टिकी हुई है, जो बेवजह गिरफ्तार कर लिए गए और जमाने की धीमी पड़ी रफ्तार को मोड़ने की बात बार-बार इन जब्तशुदा तरानों मे आयी है।
“कसम खाओ स्वराज लेकर रहेंगे, कहो कल नहीं आज लेकर रहेंगे”
बालगंगाधर तिलक ने जब ये नारा दिया “स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है” और पंडित नेहरू ने रावी के तट पर कसम खाई कि हम ‘पूर्ण स्वराज’ लेकर रहेंगे। इस गीत में इन्हीं प्रतिज्ञाओं की अनुगूँज सुनाई दे रही है।
भारत का एक-एक व्यक्ति इस आंदोलन में बढ-चढ़कर हिस्सा ले रहा था और कवि\गीतकार अपनी रचनात्मक प्रतिक्रिया से जोश भरने का काम कर रहे थे। कोई भी आंदोलन अपनी रचनात्मकता के साथ किए गए प्रतिरोध के कारण ही लंबा चल पाता है इसके अभाव में उसमें एक प्रकार की ऊब और बिखराव आ जाने की संभावना बनी रहेगी। विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार कर उनकी होली जब पूरे देश में जलायी जा रही थी। स्वदेशी का आंदोलन जोरों पर था तो कविता के माध्यम से कवि विदेशी वस्त्रों को लिबासे-गुलामी की संज्ञा देता है और देशवासियों से आह्वाहन करता है-
“लिबासे गुलामी जलाना पड़ेगा, वतन कैद से अब छुड़ाना पड़ेगा”
ब्रिटिश सरकार द्वारा इन गीतों पर इसीलिए प्रतिबंध लगा दिया जा रहा था क्योंकि इनसे आंदोलनों मे धार आ रही थी। गीत आमजन की जुबान पर चढ़कर उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित कर रहे थे। गीतों के यह आह्वान लोगों को उनकी गुलामी का एहसास कराकर उनके अंदर देशप्रेम और स्वाभिमान के बीज रोपने का काम कर रहे थे।
एक कवि हिंदुस्तानियों के अलावा हुर्रियत (आज़ादी) की देवी को हिंदुस्तान में आमंत्रित करता है और इस आह्वाहन के बाद खुद को न्योछावर कर देने की मंशा व्यक्त करता है, इन गीतों मे कुर्बानी की पराकाष्ठा तक जाकर कवियों ने अपने भाव व्यक्त किए हैं –
“अगर कुछ भेंट आजादी की देवी हम से मांगेगी, समझकर हम जहे किस्मत अपने सर चढ़ा देंगे”
देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है -
स्वतंत्रता सेनानियों को जेल, कालापानी, कुर्की और फांसी जैसी सजाओं से डराया-धमकाया जा रहा था। ऐसे में इस दौर के यह कवि देश के लिए वफादार और मर-मिटने का भाव लिए कविता में प्रस्तुत हो रहे थें। इन जब्तशुदा कविताओं में देश के लिए कुर्बान हो जाने में ही जीवन की सार्थकता थी और आत्माभिमान तथा गरिमा के साथ सूखी रोटी खाने को भी जिल्लत भरी गुलामी की जिंदगी से कई सौ गुना बेहतर बताया गया है। त्याग का जो भाव इतिहास के इस काल में देखने को मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है –
“मिले खश्क रोटी जो आजाद रहकर,तो वो खौफ-ए-जिल्लत के हलवे से बेहतर”
देश की आजादी के लिए मर मिटे शहीदों का सपना गरिमापूर्ण जीवन था और यह सपना वो सरफरोशी की तमन्ना को लिए किसी भी कीमत पर पूरा कर लेना चाहते थे। कफन को सर पर बांध कर चलने वाले इन क्रांतिकारियों का बिम्ब कविता में कवि बिना किसी डर के उभार रहे थे। इन सभी कविताओं में बार-बार एक ही बात आती है जिसे आसान से शब्दों में कहें तो उनका सार यह था कि “आजादी या मौत” एक कविता जिसमें आजादी ना मिलने की स्थिति में मौत को बेहतर माना गया है, जिसे कवि शब्दबद्ध करते हुए निम्न पंक्तियों मे लिखता है-
“मौत बेहतर है अगर आजादिए-कामिल नहीं”
उन दिनों देश भर में प्रतिरोध मार्च, आम सभाएं, और प्रभात फेरी (पैदल मार्च) किए जा रहे थे। पुलिस द्वारा इनपर लाठी चार्ज कर दिया जाना आम घटना थी। ऐसे दृश्यों में जनता के साथ सरकार द्वारा पशुवत व्यवहार किया जाता था। पुलिस द्वारा चेतावनी दी जाती है तो देशभक्त नौजवान द्वारा प्रतिकार में जबाब दिए जाने को कवि कविता में इस प्रकार इंगित करता है –
“कहा नौजवानों ने लेटकर, चलो हम भी खेलेंगे जान पर
न हटेगा पीछे कदम, जो बढ़ा दिया वह बढ़ा दिया”
कुर्बान हो जाने का यह जज़्बा हर भारतीय के अंदर था। जिसे गीत और कविता के रूप में उस समय दर्ज करने पर प्रतिबंध लगा दिया जा रहा था। हजारों सख्त कानूनों का सामना करते हुए भी यह रचनाकार सर कटाने की कीमत पर भी देश को आजाद कराने का जज़्बा अपने अंदर सँजोये हुए थे।
पै धन विदेश चली जात यह अति ख्वारी -
ब्रिटिश नीतियों के कारण देश में आर्थिक बदहाली व्याप्त हो गई थी। किसान\मजदूर भूख से मर रहे थे और जो लोग इसका विरोध कर रहे थे, उनको प्रताड़ित किया जा रहा था। परिवार के परिवार सूली पर चढ़ा दिए गए थे। लेकिन जो चापलूसी और गुलामी करते रहे उन्हें भरपूर संरक्षण अंग्रेजों द्वारा दिया जा रहा था। गरीबी और आर्थिक बदहाली का प्रमुख कारण इन गीतों में नीतियों के अलावा मशीनीकरण को भी माना गया है। भारत के कारीगर हाथ से वस्तुएं निर्मित करते थे, वही वस्तुएं मशीन द्वारा सस्ती लागत और कम समय में तैयार कर दी जाती थी। इस प्रक्रिया को लक्षित करने वाले गीतों को भी प्रतिबंधित किया गया था-
“काश्तकारों के अंगूठे काटते फिरते थे तुम, सर्द लाशों से गढों को पाटते फिरते थे तुम”
शिल्पकारों के अंगूठे काटे जाने से यहाँ आशय उस उत्पादन से है, जो मशीनों द्वारा होने से ग्रामोद्योगों और परंपरागत उद्योगों मे लगे कारीगर भूखों मरने लगे थे। एक तरफ जनता बदहाल थी तो दूसरी तरफ अंग्रेजों की साम्राज्य विस्तार की भूख अत्याचार कर रही थी। बंगाल का नबाब हो या झाँसी की रानी अवध और दिल्ली की रियासतों को जबरन तलवार की दम पर ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने के लिए लाखों बेगुनाहों पर अत्याचार किए गए। उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। शुरुआत में जिस गालिब की पंक्तियों का जिक्र किया गया है, वह काफी है यह बताने के लिए कि हर गली चौराहा मकतल में बदल गया था और हर घर जेलखाने में। देश में अकाल पड़ रहा था आम जनता को खाने के लिए भोजन नहीं था। लेकिन इंग्लैंड मालामाल होता जा रहा था। सरकार के द्वारा लगाए गए कर और इस आर्थिक असमानता को लक्षित कर लिखे गए गीतों पर भी ब्रिटिश हुकूमत द्वारा प्रतिबंध लगाया गया-
“तेरी जेबों में हैं सोने की तोड़े,यहाँ हर जेब खाली हो चुकी है”
कवि इसी गीत में अतीत को याद करता है तो उस जमाने को भी याद करता है जब यह देश सोने की चिड़िया हुआ करती थी। वह वर्तमान के उजाड़ को देखता है, जिसमें पुरा मुल्क लूटा जा रहा है और देश की बदनसीबी तथा बदहाली को बार-बार पेश करता है। जेल और जुर्माने का डर दिखाकर इन आवाजों को दबाने का काम सरकार द्वारा किया जा रहा था। लेकिन कवि चुप नहीं बैठता; वह पूछता है एक सवाल, उसी कविता के माध्यम से-
“कोई कब तक रहे खामोश मजबूरे जफ़ा होकर”
देश के बाहर रह रहे प्रवासी भारतीय लोग भी देश के हालातों पर लगातार चिंता व्यक्त कर रहे थे। उस समय जो भी कानून बनाए जा रहे थे, उनका एक ही लक्ष्य था - दमन। सरकार किसी भी तरह विद्रोह की हर आवाज को दबा देना चाहती थी
“मार्शल ला जेलखाना फांसी और हब्बे हबाम
बंदिशें नजरें जुबां क्या नहीं ईजाद की”
इन तमाम अत्याचारों से देशप्रेमी कवि विचलित नहीं हुआ बल्कि और ज्यादा मजबूती से आजादी की लड़ाई में हिस्सेदार बना। वह एक गीत में इन तमाम जुल्म और सितम की एक लंबी फेहरिस्त देते हुए बोल उठता है कि चाहे कुछ भी हो जाए लेकिन उस वक्त भी मैं सिर्फ वतन के ही नगमें गाऊँगा। देश में व्याप्त अव्यवस्था से वह निजात पा लेना चाहता था। जिसका एक ही समाधान अंग्रेजी राज का अंत था। कवि इन जब्तशुदा तरानों में उन लोगों की आवाज बनना पसंद करता है, जिन्हें सताया गया है, जो भुखमरी से पीड़ित हैं, वह लिखता है –
“सैकड़ों फाकों के मारे जा बसे कौम के फरजंद कब्रिस्तान में
हाकिमों के संग हैं पलते दूध पर,आपकी दौलत से इंगलिस्तान में
पर तुम्हें मिलती नहीं नाने जबी जान आये किस तरह जान में”
आर्थिक असमानता और अंग्रेजों के द्वारा की गई लूट को दिखाने वाली इस कविता को सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था। लोगों को कहीं तेग (तलवार) से मार दिया जा रहा था तो कहीं भूख से, इसी तरह एक कविता में दिनकर जी भी लिखते है –
“श्वानों को मिलता दूध वस्त्र भूखे बालक अकुलाते हैं,
माँ की छाती से चिपक ठिठुर जाड़े की रात बिताते हैं”
यह आर्थिक असमानता के वह सवाल है जो हमारे सामने आज जस के तस बने हुए हैं, जिनसे निपटना आज भी हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
आंदोलनकारियों को पुलिस पीट रही है, लेकिन फिर भी जुलूस बढ़ता जा रहा है। हंटर और गोलियों के सामने अपने बदन को ले आने वाले यह क्रांतिकारी किसी तोप के चलने पर भी अपने हौसलों को नहीं डिगने देते थें। हंटर मारे जा रहे हैं, फिर भी वह मुस्कुरा कर आगे बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे साहित्यिक चित्रों से सरकार का भयभीत हो जाना स्वाभाविक था इसीलिए इन रचनाओं के प्रसार पर पाबंदी लगा दी गई थी। इस गीत में ऐसा ही एक मंजर है-
“राह-ए-रास्त पर ना कोई अड़े, यही खैर है कि पलट पड़े
रहे देर तक जो यहाँ खड़े, तो समझो यां पे लिटा दिया
. . . कोई हंटरों से पिटा किया कोई नरजे नोके सिना हुआ”
यही वो क्रांति गीत थे जिन्हें इंकलाब ज़िन्दाबाद के उद्घोष और वन्दे मातरम के नारों के साथ ब्रिटिश हुकूमत के सामने गाया जा रहा था और उनके द्वारा किए जा रहे अत्याचार का प्रतिरोध किया जा रहा था।
ये देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो कल के--
गुलाम भारत की माताएं अपने बच्चों को भी लोरी में देशभक्ति के गीत सुनाकर बड़ा कर रहीं थीं। उनमें बचपन में ही देश के लिए कुर्बान हो जाने का जज्बा भर दिया जा रहा था। प्रेमचंद की एक कहानी बरबस याद हो आती है जो ‘माँ’ नाम के शीर्षक से है और जिसमें देश के लिए एक माँ के त्याग को दर्शाया गया है। यहाँ एक लोरी में माँ भी अपने आपको सौभाग्यशाली समझ रही थी क्योंकि उसका बच्चा भी देश सेवा के लिए काम आ सकेगा।
“वतन और कौम की सौ जान से खिदमत करेगा यह
खुदा की और खुदा के हुक्म की इज्जत करेगा यह
हर अपने और पराए की इज्जत करेगा यह”
लोरी द्वारा बचपन में ही देशप्रेम सेवा और समानता का पाठ एक माँ के द्वारा एक बच्चे को पढ़ाया जा रहा था। इस बच्चे के पिता की शहादत आजादी के इस महायज्ञ में हो चुकी थी। लेकिन माँ के सपने में भय की बजाय यह आशा थी कि एक दिन जब यह बच्चा जवान होगा, तो अपने पिता के घोड़े पर बैठेगा और वतन के लिए अपने पिता की तरह तलवार उठाएग।
“है उसके बाप के घोड़े को कबसे इंतजार उसका
वतन के नाम पर इक रोज यह तलवार उठाएगा”
यह उम्मीद जो देश के नौनिहालों से थी, इन गीतों में तो कहा जा सकता है कि नौजवानों के कंधों पर आजादी की लड़ाई का पुरा दारोमदार था। डर और अत्याचार के माहौल में ऐसे गीतों की रचना जिसमें ऐसी पंक्तियाँ है –‘मेरा नन्हा एक दिन हथियार उठाएगा’ भविष्योन्मुख आशावादिता का ही शंखनाद करता प्रतीत होता है।
नौजवान शहीद हो रहे थे। उन्हें जेल में भर दिया जा रहा था, तो कवियों के सामने यह चिंता प्रमुख थी कि यह नौजवान इन ज्यादतियों से मायूस और निराश ना हो जाएं। इसीलिए वह ऐसे जोशपूर्ण गीत लिख रहे थे कि जिससे अंग्रेज सरकार घबड़ा उठी। क्योंकि इन कविताओं मे नौजवानों से आग्रह किया गया था कि नौजवां वही है, जिसके सीने पर भारत माता की तस्वीर बनी हो, पैरों मे बेड़ियाँ हो और गले में कफन लिपटा हो।
“बदल दी नौजवाने हिन्द ने तकदीर जिंदा की”
इन गीतों में जेल को एक तीर्थ की तरह दिखाया गया है और बार-बार उन महापुरुषों के उदाहरण दिए गए हैं जो जेल भेज दिए गए थे। नौजवां की हड्डियों को पीसकर बने उरुज से ही हिन्द का सौन्दर्य निखरेगा; ऐसी कल्पना कवि ने की है।
सत्ता की बुनियाद को युवाओं द्वारा ही उखाड़ा जा सकता था और अगर यही इश्क में डूबे रहते तो भारत आजाद न हो पाता। वह संघर्ष अधूरा रह जाता; जिसका सपना वह माँ बचपन में लोरी गाते हुए देख रही थी। महफिलों को फूँक डालने और आजादी की लड़ाई को ही इश्क और ज़िंदगी बनाने का आग्रह यह कविताएं कर रहीं थीं। बार-बार भटके हुए युवकों से प्रश्न किया जाता है और निष्क्रिय युवाओं से कवि गीत के माध्यम से पूछता है-
“आह!क्या दोगे वतन के जर्रे-जर्रे को जबाब”
जिस समय देश में संघर्ष चल रहा हो “करो या मरो” और “आराम हराम है” जैसे नारे देश की जनता को स्वतंत्रतता सेनानियों द्वारा दिए जा रहे हों, ऐसे में तटस्थता अपराध हो जाता है। इसी तटस्थता की पहचान करते हुए युवाओं के उस वर्ग के लिए जो निष्क्रिय था, जो यह मानकर बैठा था कि अंग्रेज नहीं जाने वाले हैं और इसीलिए उनकी गुलामी में संलग्न था, उनकी चापलूसी किए जा रहा था, उनको संबोधित कर एक कविता में वह कहते हैं --
“जुनूने बगाबत ना हो जिन सरों में उन्हें ठोकरों से उड़ाये चला जा”
एक तरफ नई पीढ़ी से उम्मीद थी तो वहीं दूसरी ओर कुछ युवाओं से कवि को निराशा भी रही है लेकिन उसका अपना पक्ष तय है। वह वगाबत चाहता है और अपने देश को आजाद देखना चाहता है, तभी सरकार के सामने झुक गए सिरों को वह ठोकरों से उड़ा दिए जाने की बात करता है।
वह सुबह कभी तो आएगी-
स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने स्वराज का सपना पूरा करने के लिए यह लड़ाई लड़ने की ठानी थी। जिसका आधार था - देश में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की स्थापना करना, हमारे पूर्वजों ने जो भारत बनाने का सपना देखा था, उसमे कोई गैर बराबरी नहीं थी, कोई आर्थिक भेदभाव नहीं था, सबको समान अवसर और कार्य की स्वतंत्रता के लिए ही यह सारी कुर्बानियाँ दी जा रही थी। एक कवि इसी उम्मीद और आशा से लिखता है-
“चंद रोज और मेरी जान फकत चंद ही रोज”
वह देख पा रहे थे कि इन सब दिनों के गुजर जाने के बाद अपना स्वराज आएगा और मजदूरों का राज होगा। कोई किसी का शोषण नहीं कर पाएगा और उसकी कल्पना में हिंदुस्तान कामयाबी के शिखर पर इन गीतों में दिखाया गया है। हिंदुस्तान को अपने सपनों का हिंदुस्तान बनाने के लिए कोई भी कुर्बानी देने को तैयार था और वह भारत के एक एक व्यक्ति को हिम्मत देते हुए कह रहा था-
“ए मादरे हिन्द न हों गमगीन अच्छे दिन आने वाले हैं
आजादी का पैगाम तुझे हम जल्द सुनाने वाले हैं”
इन गीतों में भारत को एक बगीचे की तरह देखा गया और आजादी के पौधे रोपने की बात की गई है। इसके लिए कवि गीत में उन देशों की मिसाल देता है। जिनमें आजादी की लड़ाई लड़ी जा चुकी थी और वहाँ आजादी के बाद मजदूरों का राज आ गया था। कवि आजादी की कलमों को उस देश से लाने की बात कर रहा था। इस तरह एक पूरे परिदृश्य को देखने पर यह भी लगता है कि यह लड़ाई केवल भारत को आजाद कराने भर की नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवता को शोषण मुक्त कराने की है। जिसमें वह देश, धर्म और जाति के बंधनों को स्वीकार नहीं करता बल्कि जहां जो है उसे ही स्वीकार करता है।
“फूलों का कुंज दिलकश भारत में इक बनाएं, हुब्बे वतन के पौधे इसमें नए लगाएं
फूलों में जिस चमन के हो बूए जाँ-निसारी हुब्बे वतन की कलमें हम उस वतन से लाएं”
इन गीतों में दुनिया को दो हिस्सों में बांटकर देखा गया। एक शोषित और दूसरा शोषक ब्रितानी हुकूमत को मिटाकर दुनिया को खुशहाल बना देने का सपना यह गीतकार देख रहे थे। यहाँ कवि राष्ट्र नहीं बल्कि विश्वमानव के रूप में सामने आता है और जब इन्किलाब की बात आती है तो वह गा उठता है-
“रूस का था इन्किलाब, एशिया का इन्किलाब, हिन्द का यह इन्किलाब है, जहां का इन्किलाब”
इस इंकलाब में गरीब हिंदुस्तान को ताज़दारे हिन्द बना देने का सपना शामिल था और इसीलिए यह प्रण इस गीत के माध्यम से सामने आया है –
“भारत ना रह सकेगा हरगिज गुलाम खान:, आजाद होगा होगा आता है वह जमान:”
ये गुलिस्तां हमारा-
अंग्रेज सरकार ने अपनी आलोचना और प्रतिरोध के गीतों के अलावा उन गीतों को भी प्रतिबंधित किया है, जिनमें भारत की प्रकृति और भूगोल का चित्रण किया गया था। एक गीत जिसमें हिंदुस्तान को एक बाग और लोगों को उसकी बुलबुल के रूप में चित्रित किया गया उसके भी प्रसार प्रचार पर रोक लगा दी गई और उसे जब्त कर लिया गया –
“सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तान हमारा, हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलसितां हमारा”
ऐसे अनेक गीतों को सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया; जिनमें भारत को आँख का तारा, जीने का सहारा, मौसमों से नदियों से मोहब्बत की बात को कहा गया था। जान और दिल से अपने देश को चाहना अंग्रेजी हुकूमत में गुनाह था और ऐसे किसी भी प्रकार के गीत या कविता को प्रचारित होने से रोकने के लिए हर संभव प्रयास करती थी। मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना-
सत्ता का चरित्र होता है फूट डालना, दो समुदायों, दो प्रांतों तथा दो लोगों के बीच रहने वाले किसी भी प्रकार की एकता से सत्ता हमेशा डरती है। अगर लोगों के बीच एकता का भाव रहेगा तो सत्ता के दमन पर वह सामूहिक प्रतिक्रिया देंगे और ब्रितानी हुकूमत का तो मूल मंत्र ही था “फूट डालो और राज करो” लेकिन इस दौर की कविता इस बात की पहचान कर रही थी। इसीलिए वह अपना स्वर धार्मिक तथा सांप्रदायिक न बनाकर सामासिक बनाए
हुए थी -
“मजदूर हो दहकां हिन्दू हो मुसलमान हो, सब एक तो हो जाओ फिर उनको दिखा देंगें”
किसान, मजदूर, हिन्दू, मुस्लिम सबकी एकता से ही हिंदोस्तान आजाद हो सकता था। किसी भी प्रकार की धार्मिकता/सांप्रदायिकता आजादी के आंदोलन को कमजोर कर रही थी। इसीलिए जिस गीत में अजान और मंदिर की घंटियों दोनों को बेमतलब बताया गया उस गीत को भी ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था, क्योंकि यहाँ फिर कवि इन तमाम छोटी बातों में नहीं उलझता बल्कि वह सीधे हिंदुस्तान से मोहब्बत की बात करता है-
“नाकूस से गरज है ना मतलब अजान से है, मुझको अगर है इश्क तो हिंदोस्तान से है”
हम अक्सर देखते हैं कि मंदिर-मस्जिद, घंटी-अजान, चालीसा को एक दूसरे का विरोधी मान लिया जाता है, लेकिन हिंदुस्तान को प्रेम करने वाला कवि इन सबकी निरर्थकता पर अपना पक्ष रखता है और संप्रदाय तथा धर्म को प्रेम करने की बजाय देश प्रेम की सीख देता है। गीत में मुख्यता यह बात उभर कर आती है कि धार्मिकता की वजह से हमारी प्रगति का मार्ग अवरुद्ध हुआ है। यहाँ वह भगतसिंह के नास्तिकता और धार्मिकता विरोधी पक्ष से प्रभावित हुआ है, जहां भगतसिंह इन सबको समाज के लिए वर्जित बताते हैं –
“हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई गायें मिलकर गीत ये प्यारा
प्यारा भारत देश हमारा”
उस समय भी धार्मिक फसाद और झगड़े हुए लेकिन कवि ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए तीखे और स्पष्ट शब्दों में कहा –
“जो आड़ में मजहब की हंगामा करे बरपा हम ऐसे फ़सादी को गंगा में बहा देंगें”
आजादी के उद्देश्य में पूर्ण रूप से समर्पित यह गीत उसकी राह में पैदा हो रही किसी भी रुकावट से कभी भी दो-दो हाथ करने को तैयार है। धार्मिकता के नाम पर फसाद फैलाने वाले को सजा देने की बात को दोहराया गया है। मजहब यहाँ किसी भी तरह की दीवार नहीं हैं, क्योंकि आजादी की राह में समर्पित सबकी जाति और धर्म एक था और वह था हिन्दुस्तानी वहाँ पहचान हिन्दी (हिन्द देश का निवासी) या हिन्दुस्तानी के रूप में थी। तमाम आपसी झगड़ों और बखेड़ों को मिटाकर आपस में मिलजुलकर रहने की सीख इस दौर की कविताएं दे रहीं थीं। इसी एकजुटता से हुकूमत को खतरा होता है। इसी कारण इस स्वर की कविताओं को प्रतिबंधित कर जब्त कर लिया जाता था, क्योंकि अंग्रेज इस बात को महसूस कर रहे थे कि यदि यह एकता कायम होती है, तो हमें भारत छोड़कर जाना ही पड़ेगा, एक प्रतिबंधित कविता में-
“टूट जाएंगी गुलामी की कड़ी दम भर में आप, हिन्दू-ओ-मुस्लिम के बस कंधा सटा देने के बाद”
कौमी और वर्गीयता के साथ जातीय एकता का बिम्ब भी हमें इस समय प्रतिबंधित की गईं कविताओं में मिलता है और बार-बार यह आग्रह भी कि हमें यह लड़ाई मिलकर लड़नी है।
जरा याद करो कुर्बानी –
स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम इन प्रतिबंधित गीतों में कई बार आये हैं, कहीं गोली का मुकाबला चरखे से कराया गया है तो कई बार गांधी के लिए इन गीतों में प्रार्थनाएं की गईं हैं, एक गीत जो इस प्रकार है-
‘उन्हें खूब गोली चलाने दो यारों, हमे अपना चरखा चलाना पड़ेगा”
इसमें स्वदेशी की ताकत को दिखाया गया है, इन गीतों में से अधिकतर गीत वह प्रतिबंधित किए गए, जिनमें महात्मा गांधी या काँग्रेस का नाम आया था या फिर उस गीत में काँग्रेस द्वारा चलाए गए किसी आंदोलन का सीधा या प्रत्यक्ष रूप से समर्थन किया गया था। सेनानियों के प्रणों और सपनों को इन गीतों के माध्यम से आम जनता की जुबान पर चढ़ाया जा रहा था, एक गीत जिसमें –
“नेहरू की इल्तिजा में, आजाद की सदा में
गांधी की आत्मा में और हिन्द की दुआ में”
गांधी की ख्वाहिश आम जन की ख्वाहिश बन गई और आम जन की ख्वाहिश गांधी की ख्वाहिश। एक गीत में इसे बहुत ही स्पष्ट शब्दों में रेखांकित किया गया है, जहां कवि गांधी की ख्वाहिश से अपनी ख्वाहिश को जोड़ता है। प्रभात फेरी और जुलूस पर प्रतिबंध लगा दिए जाते थे। गांधी को ईश्वर का अवतार माना जाने लगा था तथा कई तरह की किंवदंतियाँ प्रचलित हो गईं थीं। ऐसी ही एक किंवदंती एक गीत में भी प्राप्त होती है, जो प्रतिबंधित किया गया था –
“जागे हैं अब तो गांधी, दुख दर्द मिट रहेगा, अवतार ले चुके हैं बाँकी कमान वाले”
गांधी-नेहरू पर देश का अटल विश्वास इन प्रतिबंधित गीतों में उभर कर सामने आया है। जीत का हार गांधी के गले में पहनाने की ख्वाहिश हर प्रतिबंधित गीत में दिखती है। सभी आशाओं में एकमात्र प्रमुख आशा यह थी कि स्वराज प्राप्ति के बाद कम से कम कोई भूखा नहीं सोएगा और यही आशा एक गीत के माध्यम से इस प्रकार स्वरित हुई है –
विजय के हार देखेंगें नेहरू-गांधी की गर्दन में
यतीमों को ना दाने दाने का मोहताज देखेंगें”
इन प्रतिबंधित गीतों को समग्र रूप से देखने पर चरखा, स्वदेशी, अहिंसा के साथ-साथ युवाओं के नायक भगतसिंह का सबसे ज्यादा प्रभाव दिखता है एक गीत जिसमें-
“सरदार भगत सिंह का कर देंगें मिशन पूरा
और दत्त जी के चरणों में अपना सिर झुका देंगे”
इस तरह देखा जाए तो ये गीत इसीलिए प्रतिबंधित किए गए थे, क्योंकि उस समय के राजनैतिक नेताओं और आंदोलनों की बात को सीधे जनता को संबोधित करते हुए यह गीत आगे बढ़ा रहे थे। जिसमें गांधी-भगतसिंह प्रमुख रूप से वर्णित किए गए हैं।
हुकूमत के लिए शब्द चयन-
इन प्रतिबंधित गीतों में ब्रितानी हुकूमत के लिए बहुत सारे शब्दों को प्रयोग में लाया गया है। जिनमें सौदागर, मेहमान, किरायेदार, मकान और कई रूप में बहुत ही नरम लहजे में इनका चित्रण किया गया है। कई जगह धार्मिक प्रतीकों के रूप में राक्षस और अगयार जैसे शब्दों को भी अंग्रेजों के लिए प्रयोग किया गया है। जुलमें शहंशाही, फिरंगी और अंग्रेज शब्द जहां तहां प्रयोग किया गया है। ब्रिटिश लोगों को जानवरों में भेड़िया और बिल्ली जैसे प्रतीकात्मक खूंखार और चालाक जानवरों से उपमा दी गई है।
निष्कर्ष : कहा जा सकता है कि पराधीन भारत के कवि/गीतकार “दुखिया दास कबीर है जागे और रोवे” की परंपरा के थे। जिनमें सत्ता से टकराने का साहस था तो वहीं उनके पास एक बेहतर कल का सपना भी था। वह भारतवासियों को जगाने का काम कर रहे थे। यह कवि युवाओं में देशभक्ति का जज़्बा भर देश पर कुर्बान हो जाने की बात को दोहराते हुए अंग्रेज सरकार द्वारा की जा रही लूट-खसोट और अत्याचार पर भी अपनी कलम बेबाकी से चला रहे थे। भारत की प्राकृतिक खूबसूरती के माध्यम से वह “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” का भाव भारतवासियों में भर रहे थे, तो उसकी सामासिक संस्कृति और भाईचारे की विरासत को याद दिला आंदोलन को मजबूत कर रहे थे। शहीद सेनानियों का गौरवगान हो या हुकूमत के लिए प्रयोग किए गए शब्द हर एक पक्ष से यह आजादी के दीवानों को मानसिक मजबूती देने का काम कर रहे थे। यह गीतकार अपनी कलम से बंदूक पकड़े विद्रोहियों से कम नहीं थे। आजादी के इस संग्राम में इनका योगदान अतुलनीय है। जिसका इतिहास और साहित्य में अभी समग्रता से मूल्यांकन किया जाना बाकी है।
संदर्भ :
1.आजादी
की नज़्में, शब्बीर
हसन खां ‘जोश मालीहाबादी’-आजादी के तराने,
सं. डॉ. राजेश
कुमार परती, राष्ट्रीय
अभिलेखागार-1986 पृ.
22
2.नाल:-ए जरस, जमील मज़हरी, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार
परती,
राष्ट्रीय
अभिलेखागार-1986 पृ. 26
3.पयामे-बेदारी,
नौबहार सिंह ‘साबिर टोहानबी’ -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार
परती,
राष्ट्रीय
अभिलेखागार-1986 पृ. 76
4.वतन कैद से अब छुड़ाना पड़ेगा-उस्मान हामिद -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 83
5.वतन के वास्ते हम दार पर चढ़कर दिखा देंगें, अज्ञात यंग कामरेड -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 137
6.आजादी गनीमत है, मौलवी मुहम्मद इस्माइल मेरठी, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 18
7.फ़ीरोजउद्दीन मंसूर, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 100
8.मजलूम की आह, शेख देहलवी -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 107
9.ईस्ट इंडिया कंपनी के फर्जनदों से, जोश मलीहाबादी, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 19
10.विदेशी मेहमान से, असरार-उल-हक-मजाज, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 37
11.कहीं पीछे ना हटना मरदे मैदान वफ़ा होकर, कुँवर हरी सिंह -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 87
12.सुर्ख मछली बनकर तैरेगी छुरी जल्लाद की, अज्ञात -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 129
13.शामे-गुरबत, अली हुसैन शाह, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 89
14.मजलूम की आह, शेख देहलवी -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 107
15.लोरी, अख्तर शीरानी, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 42
16.लोरी, अख्तर शीरानी --आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 43
17.आजादी-ए-वतन, मुहीउद्दीन, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 25
18.शोल:-नवाई, ए एच साहिर, --आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 105
19.तसल्ली, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 34
20.अच्छे दिन आने वाले हैं, अज्ञात क्रांति गीतांजलि -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 138
21.गुलजारे वतन, सुरूर जहनाबाड़दी, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 32
22.इन्किलाब! इंकलाब!!, शिवलाल बिस्मिल -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 95
23.तराना-ए-हिन्दी, डॉ. मुहम्मद इकबाल -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 7
24.उतना ही वो उभरेंगे जितना कि दबा देंगें, सफ़ी लखनवी -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 8
25.हिंदुस्तान, मौलाना जफर अली खान -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 13
26.हमारा देश, हकीम मोहम्मद मुस्तफा खां ‘मद्दह’ -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 31
27.जवान जज्बे, शमीम करहानी -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 55
28.हिन्दुस्तानी आजाद जमात, माहिर -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 109
29.वतन कैद से अब छुड़ाना पड़ेगा, उस्मान हामिद -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 83
30.ए हुर्रियत की देवी हिंदुस्तान आजा, सैयद मकबूल हुसैन -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 98
31.अवतार ले चुके हैं बाकी कमान वाले, आगा इन्किलाब -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 117
32.गजल, अज्ञात -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 144
33.गजल, अज्ञात -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 146
4.वतन कैद से अब छुड़ाना पड़ेगा-उस्मान हामिद -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 83
5.वतन के वास्ते हम दार पर चढ़कर दिखा देंगें, अज्ञात यंग कामरेड -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 137
6.आजादी गनीमत है, मौलवी मुहम्मद इस्माइल मेरठी, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 18
7.फ़ीरोजउद्दीन मंसूर, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 100
8.मजलूम की आह, शेख देहलवी -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 107
9.ईस्ट इंडिया कंपनी के फर्जनदों से, जोश मलीहाबादी, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 19
10.विदेशी मेहमान से, असरार-उल-हक-मजाज, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 37
11.कहीं पीछे ना हटना मरदे मैदान वफ़ा होकर, कुँवर हरी सिंह -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 87
12.सुर्ख मछली बनकर तैरेगी छुरी जल्लाद की, अज्ञात -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 129
13.शामे-गुरबत, अली हुसैन शाह, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 89
14.मजलूम की आह, शेख देहलवी -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 107
15.लोरी, अख्तर शीरानी, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 42
16.लोरी, अख्तर शीरानी --आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 43
17.आजादी-ए-वतन, मुहीउद्दीन, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 25
18.शोल:-नवाई, ए एच साहिर, --आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 105
19.तसल्ली, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 34
20.अच्छे दिन आने वाले हैं, अज्ञात क्रांति गीतांजलि -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 138
21.गुलजारे वतन, सुरूर जहनाबाड़दी, आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 32
22.इन्किलाब! इंकलाब!!, शिवलाल बिस्मिल -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 95
23.तराना-ए-हिन्दी, डॉ. मुहम्मद इकबाल -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 7
24.उतना ही वो उभरेंगे जितना कि दबा देंगें, सफ़ी लखनवी -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 8
25.हिंदुस्तान, मौलाना जफर अली खान -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 13
26.हमारा देश, हकीम मोहम्मद मुस्तफा खां ‘मद्दह’ -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 31
27.जवान जज्बे, शमीम करहानी -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 55
28.हिन्दुस्तानी आजाद जमात, माहिर -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 109
29.वतन कैद से अब छुड़ाना पड़ेगा, उस्मान हामिद -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 83
30.ए हुर्रियत की देवी हिंदुस्तान आजा, सैयद मकबूल हुसैन -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 98
31.अवतार ले चुके हैं बाकी कमान वाले, आगा इन्किलाब -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 117
32.गजल, अज्ञात -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 144
33.गजल, अज्ञात -आजादी के तराने, सं. डॉ. राजेश कुमार परती, राष्ट्रीय अभिलेखागार-1986 पृ. 146
अजीत आर्या
पीएच.डी. शोधार्थी, हैदराबाद विश्वविद्यालय
पीएच.डी. शोधार्थी, हैदराबाद विश्वविद्यालय
ajeetarya42@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
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