-सरस्वती कुमारी
सारांश : प्रतिबंधन का अर्थ होता है "निषेध होना" अर्थात् तत्कालीक सत्ता धारियों के विरुद्ध विविध माध्यमों से आवाज उठाकर आमजन्य को जागृति करना। जिससे स्वंय को साम्राज्यवादी गुलामी से मुक्त कर सकें। इसी तरह जब साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाओं द्वारा जनसामान्य में स्वाधीनता आंदोलन की चेतना जागृत करने की कोशिश किया गया तो तत्कालिक सरकार द्वारा उन सभी माध्यमों को प्रतिबंधित कर दीया गया।
बीज शब्द : ब्रिटिश शासन के समय के विविध पत्र-पत्रिकाएं,
बांग्ला प्रतिबंधित रचनाएं, हिंदी प्रतिबंधित रचनाएं
प्रस्तावना : अंग्रेजों के भारत में काबिज़ होते ही प्राच्य ज्ञान, संस्कृति और मूल्यों पर पाश्चात्य प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा। सभ्यताओं के बीच की खाई से जागरूक लोग भारतीय जनता के एक हिस्से की उदीयमान राष्ट्रीय प्रतीक बन रहे थे। परंपरागत चिंतन और पाश्चात्य प्रभाव से राष्ट्रीय चेतना का ढाँचा गुना-बुना जाने लगा, जिसको साहित्य, कला, राजनीतिक और सामाजिक सुधार आंदोलनों और बौद्धिक–साहित्यिक संगठनों के माध्यम से अभिव्यक्ति मिली।
1857 का स्वातंत्र्य समर- प्रकाशन से पूर्व प्रतिबंधित पहली
पुस्तक वर्ष 1857 का सशक्त प्रतिरोध विदेशी शासन से मुक्ति पाने
का पहला सुनियोजित प्रयास था, जिसे अंग्रेजों ने निर्दयतापूर्वक
कुचल दिया। इसे अंग्रेजों ने सिपाही विद्रोह या कुछ भारतीयों का स्वार्थ-हित विद्रोह कहकर सीमित करने की
कोशिशें कीं। वीर सावरकर ने ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’
पुस्तक भारतीय दृष्टिकोण से लिखी थी। इसमें तत्कालीन संपूर्ण भारत की
सामाजिक-राजनीतिक स्थिति के वर्णन के साथ-साथ हाहाकार मचा देने वाले रण-तांडव का सिलसिलेवार और हृदय-द्रावक वर्णन
किया गया। इससे अंग्रेजी सरकार इस कदर भयभीत हुई कि इसे प्रकाशन से पूर्व ही प्रतिबंधित
कर दिया।
आंदोलनों की
बयार बीसवीं सदी में गांधीजी के सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन,
जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड, भगतसिंह, राजगुरु व सुखदेव की फांसी जैसी घटनाओं ने पूरे देश को झकझोर दिया। अंग्रेजी
स्रोतों के बरअकस भारतीय दृष्टिकोण को साहित्यकारों ने कविता, नज़्म, ग़ज़ल, लेख, नाटक आदि विधाओं में व्यक्त किया। इनमें अधिकतर बुद्धिजीवी लेखक नहीं अपितु
जनभाषा में लिखने वाले रचनाकार थे, जो स्थानीय तौर पर बहुत लोकप्रिय
थे। मेलों, पर्वों और जन-सभाओं में इन रचनाओं ने लोगों को उद्वेलित किया। ये पढ़ी
कम गईं लेकिन गाई ज्यादा गईं। मुंह से मुंह तक सफर करती लोक-चेतना
के ध्येय को पहुंचती रही।
लेखक
व प्रकाशक सरकार विरोधी रचनाओं के सृजन के खतरों को समझते थे फिर भी वे अपने नाम-पते के साथ आगे आये। गिरफ्तारी, पुलिस अत्याचार,
जुर्माने, जब्ती सभी को झेलते हुए साहित्य रचा
गया, जो ब्रिटिश हुकूमत के लिए भयभीत करने वाला और असहनीय था।
अत: सीआईडी तथा 1860 में बने आईपीसी कानून
की धारा 124ए के तहत इन्हें जब्त कर लिया जाता। कुछ ही प्रतियां गुप्त रूप से बची रहीं, जो भारत के विभिन्न अभिलेखागारों तक पहुँचीं।
इंडिया आफिस
रिकॉर्ड लाइब्रेरी लेखिका में इंडिया ऑफिस लंदन में हिन्दी प्रतिबंधित साहित्य का अध्ययन
किया। ब्रिटिश हुकूमत द्वारा भारत के विभिन्न क्षेत्रों से जो भी आपत्तिजनक पैम्फलेट
और साहित्यिक पुस्तिकाएँ छपीं, उन्हें जब्त कर इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी
लंदन में स्थानांतरित कर दिया गया। यहाँ यह संग्रह अलमारियों में तालाबंद करके रखा
गया। वर्ष 1947 के बाद ही इसे अलमारियों से निकाला गया तथा,
विस्तृत कैटलॉग तैयार किए गए
और ‘गोपनीय संग्रह’ के तौर पर
1967 तक अलग रखा गया। अब यह साहित्य शोधकर्ताओं के लिए खुला है। यहाँ
भारत की विभिन्न भाषाओं के उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में प्रकाशित तथा प्रतिबंधित 28000 से भी
अधिक प्रकाशन उपलब्ध हैं।
सियासी सरगर्मियों
पर रचित इतिहास वर्ष
1905 से 1931-32 तक की राजनीतिक सरगर्मियों पर
सबसे अधिक साहित्य रचा गया, जिसने आज़ादी के संघर्ष में विशिष्ट
भूमिका निभाई। जलियांवाला बाग (1919) त्रासदी पर ‘जख्मी पंजाब’ प्रतिबंधित ड्रामा लाला किशनचन्द ज़ेबा द्वारा
वर्ष 1922 में लिखा गया और लाहौर से प्रकाशित हुआ। उस समय भारत
सत्याग्रह की राह पर अग्रसर हो रहा था। स्वतंत्रता को ‘अस्तित्व
के स्वाभाविक गुण’ की तरह पाने के लिए औपनिवेशिक साम्राज्य पर
दबाव बना रहा था, दूसरी तरफ औपनिवेशिक प्रशासन भारत में अपना
साम्राज्य बचाये रखने के लिए हर तरह की प्रताड़नानाएँ जुल्म और जोर-जबरदस्ती से राष्ट्रवाद
की भावना को कुचलने पर आमादा था।
एक अंश :- अगर चलती रही गोली, यूँ ही निर्दोष जनों पर। तो कोए और कबूतर ही,
रहेंगे इन मकानों पर मिटा डालेंगे गर इस तरह, हाकिम
अपनी प्रजा को। हुकूमत क्या करेगी फिर वह, मरघट और मसानों पर
|
इसी तरह विदेशी
कपड़ों के बहिष्कार,
पश्चिमी फैशन पर साहित्यकार व्यंग करते हुए लिखते हैं कि
-"सब यही कहते हैं हम साहब बने, हाय!
क्या पागल खुदाई हो गई। यह नई तहजीब की तालीम है, दाढ़ी- मूछों की
सफाई हो गई। कुत्ते का पट्टा तो कॉलर था जरूर, और जंजीर उसकी टाई हो गई। बस गई नजरों में जब से लेंडिन्या,
घर की जोरू से लड़ाई हो गई।"1
1931 में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिये जाने के विरोध में क्रांतिकारियों के प्रति
सहानुभूति और अतुलनीय बलिदान पर विपुल साहित्य रचा, जिसे प्रतिबंधित
कर दिया। साहित्यकारों ने हिन्दोस्तान की एकता को दीन-धर्म से
ऊपर से ऊपर स्थान दिया।
एक प्रतिबंधित
ग़ज़ल
:-
" तुम राम कहो वह रहीम कहें,
दोनों की गरज अल्लाह से है।
तुम दीन कहो वह धर्म कहें,
मंशा तो उस की राह से है |
तुम इश्क कहो वह प्रेम कहें,
मतलब तो उसी की चाह से है।
वह जोगी हो तुम सालिक हो,
मकसूद दिले आगाह से है |
क्यों लड़ता है मूरख बन्दे,
यह तेरी खाम खयाली है।
है पेड़ की जड़ तो एक वही,
हर मज़हब एक-एक डाली
है |
बनवाओ शिवाला या मस्जिद,
है ईंट वही चूना है वही।
मेमार वही मज़दूर वही,
मिट्टी है वही गारा है वही |
फिर लड़ने से क्या हासिल है,
जीफ़हम हो तुम नादान नहीं।
भाई पर दौड़े गुर्रा कर वो,
हो सकते इंसान नहीं
| "2
छापेखाने की
शुरुआत और जन-चेतना भारत में छापेखाने खोलने का श्रेय पुर्तगालियों को जाता है, जिन्होंने 1550 ईसवी में बाहर से दो छापेखाने मंगवाए,
जो धार्मिक पुस्तकें छापने के काम आते थे। तदुपरांत दक्षिण में कुछ छापेखाने
लगे तथा 17वीं शताब्दी में भीमजी पारिख ने मुंबई में एक छापाखाना
लगाया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी 1674 में मुंबई में एक छापाखाना
स्थापित किया। 18वीं सदी के दौरान मद्रास, कोलकाता, हुगली, मुंबई और उत्तर
भारत में दो-एक स्थानों पर छापे खाने स्थापित हुए। पुस्तकें,
पुस्तिकाएँ और पत्रिकाएँ छपने लगीं। लोगों ने पुस्तकों की उपयोगिता समझी और निजी छापेखाने
भी स्थापित किये जाने लगे। स्वतंत्र अख़बार के रूप में 1780 में
जे.ए. हिक्की ने साप्ताहिक ‘बंगाल गजट’ प्रकाशित किया, जो
‘कोलकाता जनरल एडवर्टाइजर’ भी कहलाता था। यह
‘हिक्की गजट’ के नाम से अधिक प्रसिद्ध रहा। इसने
वॉरेन हेस्टिंग्स जैसे ऊंचे अफसरों पर हमले किए, जिससे ब्रितानी
सरकार नाराज़ हो गई। उनके विरुद्ध पहला कदम यह उठाया गया कि उनको डाक की सुविधाओं से
वंचित कर दिया। उसके बाद छापेखाने पर कब्जा कर लिया। कुछ दूसरे अखबार भी प्रकाशित हुए,
जिनके सरकार से वैमनस्यपूर्ण सम्बन्ध रहे और सरकारी क्रोध का सामना करना
पड़ा। कुछ संपादकों जैसे विलियन डूआन, चार्ल्स मैक्लीन और बाद
में जेम्स सिल्क बकिंघम को तो भारत से निकाल बाहर कर दिया गया।
प्रकाशन
पर कड़े सेंसर लगा दिये और मुक्त प्रकाशन के प्रतिकूल 1818 में प्रेस नियम बनाए, जिनमें किसी कार्य या कार्रवाई
की भारत सरकार से संबंधित इंग्लैंड के अन्य सार्वजनिक अधिकारियों की किसी प्रकार की
निंदा, स्थानीय प्रशासन के राजनीतिक कार्य पर किसी प्रकार का
निन्दात्मक लेख, काउंसिल के सदस्यों, उच्चतम
न्यायालय के जजों के सार्वजनिक व्यवहार आदि सहित कई मामलों में टीका-टिप्पणी निषिद्ध कर दी गई। सरकार की दमनकारी कार्रवाइयों का अगला कदम 1867 में
प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन ऑफ बुक्स एक्ट था, जिसने किताबों और अखबारों
की छपाई और प्रकाशन पर नियंत्रण लगाया। इसके तहत प्रकाशन की प्रति चाहे वह प्रतिबंधित
ही क्यों न कर दिया हो, इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी रिकॉर्ड को भेजना
आवश्यक कर दिया।
प्रेस एक्ट
लागू करने के पीछे की मंशा तेजी से बढ़ रहे देसी प्रकाशनों पर 1878 में वर्नाकुलर प्रेस एक्ट लागू कर दिया, जो ब्रिटिश सरकार
की आलोचना का मुखपत्र हो रहे थे, उन्हें दंडित किया गया। वर्ष
1910 का प्रेस एक्ट अंग्रेजों की कठोरतम कार्रवाई था। इसने प्रेस पर
कार्यकारिणी का नियंत्रण बढ़ा दिया। कार्यकारिणी को अधिकार दे दिया गया कि वह ज़मानत
वक्त में बहुत बड़ी राशि की मांग करें और इच्छा अनुसार जब्त कर लें। इसे मुद्रणालयों
पर कब्जा कर लेने का अधिकार भी मिल गया। एक भारतीय जज लॉरेंस जेंकिंसन ने कहा कि प्रेस एक्ट के सेक्शन-4 की धाराएं बहुत व्यापक हैं, इसमें सारी बातों का समावेश
है, जो कभी भी किसी भी आदमी के दिमाग में आ सकती हैं। इसका इस्तेमाल
कुछ ऐसी किताबों के खिलाफ भी हो सकता है, जो तारीफ के काबिल हैं।
ब्रितानी हुकूमत विरोधी प्रकाशन जब्त होते रहे और सारी यातनाएं, प्रताड़नाएं झेलते हुए इनकी संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती रही। जनभावनाओं को अभिव्यक्त
करता और आज़ादी के लिए प्रेरित करता यह प्रतिबंधित साहित्य अमूल्य है !
प्रतिबंधित
हिंदी
-साहित्य हमारे देश की अमूल्य संपति है | सेंसरशिप
के उपरांत भी देश से जुड़े लगभग प्रत्येक मुद्दों पर चर्चा हुई | इन कृतियों में किसान , स्त्री तथा दलितों मजदूर के अतिरिक्त विदेशों में गुलामों
की जिन्दगी जीने को विवश प्रवासी भारतीयों की समस्या को भी बहुत ही सुंदर ढंग से चित्रित
किया गया है | सतर्क साहित्यकारों ने प्रवासी भारतीयों के ऊपर
होंती क्रूर हिंसा को अपनी कृतियों के द्वारा उद्घाटित किया है | साम्राज्यवादी मनोवृति के अनुरूप अंग्रेज भारतवासियों की ग़रीबी एवं मजबूरी
का अनुचित लाभ उठाने की कला में दक्ष हो चुके थे | स्वयं नियामक
बनकर वे पार्श्व में रहे और छल-नीति का पालन करते हुए भारतवासियों
को सौंपा | देश के छोटे-नगरों ,
तीर्थ-स्थानों आदि पर आरकटियों का आतंक छाया हुआ
था | हकीकत से अनजान , दबे-सहमे ये बेबस लोग यंत्रवत सरकारी कार्यवाही पूरी करने देते थे | दूसरे शब्दों में , उन्हें प्रतिज्ञाबद्ध कुली की मंजूरी देनी पड़ती थी | धोखाघड़ी में फँसे इन लोगों को यही नहीं मालूम था कि अब वे इन्सान नहीं रहे , फिजी शासन के गुलाम रह गए हैं | फिजी में उनके जीवन या व्यवसाय के किसी पहलू या हित की बात उठाएँ , वह जुल्म या यंत्रणा से भरी मिलेगी |
वहाँ निपट दमन एवं शोषण का शासन था | अपने देशवासियों की गुलामी की दर्दभरी बातें खुलने लगीं | देशाभिमान जाग उठा और चारों ओर भयंकर विरोध होने लगा | " 3
साम्राज्यवादी
शक्तियाँ खुद परोक्ष रूप में रहकर मजदूरों की भर्ती का काम बिचौलियों को सौंप देती
थी
| भारत का मजदूर वर्ग : उद्भव और विकास
(1830-2010 ) किताब में सुकोमल सेन लिखते हैं- " इन मजदूरों
को भरती करने का तरीका अवर्णनीय संत्रास से भरा था | यूरोप के मालिक भारत के ग्रामीण इलाकों से मजदूरों को एकत्र करने के लिए भारत के अपराध जगत से जुड़े कुछ बिचौलियों का इस्तेमाल करते थे | इन आदमियों को प्रचलित शब्दों में अरकथी कहा जाता था | यह अरकथी बहुत ही लापरवाह और बेरहमी से तमाम धूर्ततापूर्ण उपाय अपनाकर इन बेरोजगार , अधनंगे , भूखे ग्रामीण लोगों को लालच देकर भारत से बाहर जाने के लिए तैयार करते थे | " 4 वहाँ इन्हें अनवरत श्रम और हिंसा का सामना करना पड़ता था | ब्रिटिश राज में जब्त की गई पुस्तकों से इस बर्बरतापूर्ण सचाई का खुलासा होता
है | लक्ष्मणसिंह के नाटक ' कुली प्रथा
' में प्रवासी भारतीयों की दीन-दशा का वर्णन है
| -" कुली-प्रथा ' का लेखन 1913 में हुआ जिसके पीछे गणेशशंकर विद्यार्थी एवं माखनलाल चतुर्वेदी की प्रमुख भूमिका रही है | प्रारम्भ में यह नाटक धारावाहिक रूप से ' प्रताप ' में छपता रहा | इसे पुस्तकाकार मिला 1916 में और तभी इस नाट्य -कृति पर प्रतिबंध लगा दिया गया | " 5
मजदूरों को बहुत कम पैसा मिलता था
| नाटक के प्रथम अंक ( प्रथम दृश्य) में नौकर के व्यक्तव्य से यह स्पष्ट पता चलता है -"
नौकर : प्रसन्न रहें हमारे डी पी अफसर , फिर किसका डर ? आज उन्होंने लिखा हैं कि दस कुलियों की आवश्यकता है
, प्रति मनुष्य 210 रुपए मिलेंगे | " 6 ब्रिटिश शासन में प्रतिबंधित की गई बाबूराम पेंगोरिया की पुस्तक ' राष्ट्रीय आल्हा ' में भारतीयों को विदेश भेजे जाने का
विवरण है | यह पुस्तक जैन प्रेस आगरा से 1930 में प्रकाशित हुई थी | इसमें बाबूराम पेंगोरिया
' भारत प्रवासी ' नामक कविता में लिखते हैं-
'' अब कितने बाहर भारतवासी उनका भी कुछ करुँ बखान |
भूख की ज्वाला ने जब मारे पहुँचे परदेशन में जाय
|
इनकी संख्या इस प्रकार है फिजी पहुँचे साठ हजार |
पौने तीन लाख हैं मारिसिस में डीना टॉड में एक लाख उनतीस हजार
|
नौ लाख भारतीय सिंघल द्वीप में पुगरंडा में दस हजार
|
गिल्वर्ट द्वीप में बसे तीन सौ सेंटल मेन्टस असी हजार
|
न्यूजीलैण्ड में बसे पाँच सौ दस हजार है जंजीबार | '' 7
इस प्रकार वे
हांग कांग
, केन्या , दक्षिण अफ्रीका , जमैका सहित दूसरे देशों में रहे भारतीयों का विवरण देते हैं |
विदेशों में रह रहे भारतीयों ने भी हिंदुस्तान से प्रकाशित साहित्य के
आदान-प्रदान की व्यवस्था कर रखी थी | यह
साहित्य समुद्री जहाज से पार्सल द्वारा या प्रवासी भारतीयों द्वारा चोरी-छिपे भेजा जाता था | फिर भी कई बार पुलिस के हाथ यह साहित्य
लग जाता था | इस प्रकार के जब्त साहित्य की संख्या भी अधिक थी
किन्तु यहाँ पर हम कुछ पुस्तकों की बात करेंगे | इस बात को अधिकतर
इतिहासकारों ने स्वीकार की है कि स्वातन्त्र्य वीर सावरकर का लिखा हुआ '
1857 का प्रथम स्वातन्त्र्य समर ' विदेशों में
जब्त हुआ | अभिलेखागार में प्रतिबंधित साहित्य की सूची में प्रकाशित
' इंडियन वॉर ऑफ 1857 ' नामक शीर्षक से
451 पृष्ठों की एक पुस्तक का उल्लेख मिलता है | बाद में यह पुस्तक मराठी, हिंदी , तथा दूसरी भारतीय भाषाओं में छपी और जब्त हुई | इस तरह
पूना से ही रधुनाथ भागवत द्वारा 1909 में प्रकाशित 93
पृष्ठों की एक पुस्तक ' वंदे मातरम ' का वर्णन प्राप्त होता है |
सुप्रसिद्ध
क्रांतिकारी तारकनाथ दास ने कलकत्ता की सरस्वती लाइब्रेरी से 1931 में एक पुस्तक प्रकाशित की थी ' इंडिया इन वर्ल्ड पॉलिटिक्स
' इसे भी अंग्रेज सरकार ने जब्त कर ली थी | 1942 में बड़ौदा से ' रिवॉल्ट ऑफ 1857 ' प्रकाशित केवल 52 पृष्ठों की उनको भी जब्त कर लिया गया
| ' हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन ' द्वारा
1 जनवरी 1925 को एक बुलेटिन प्रकाशित किया था
| 'दि रेवुल्शनरी ' शीर्षक से प्रकाशित
4 पृष्ठों का यह बुलेटिन अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया था |
लाला हरदयाल और उनकी गदर पार्टी से सम्बन्धित ' सोशल कोंक्वेस्ट ऑफ द हिंदू रेस ' अंग्रेज सरकार ने जब्त
कर ली थी | जितेन्द्र नाथ सान्याल ने भगतसिंह की आत्मकथा
' सरदार भगतसिंह ' के नाम से अंग्रेजी में इलाहाबाद
से प्रकाशित करके बाहर भेजने का प्रयत्न किया था | उसे भी अंग्रेज
सरकार ने जब्त कर लिया था |
रामप्रसाद बिस्मिल
की अप्रकाशित पुस्तक
' क्रांतिकारी जीवन ' से लिए गये थी | इसको भी जब्त कर लिया गया था | श्यामा प्रसाद मुखर्जी
ने स्थान-स्थान पर ओजस्वी व्याख्यान दिए थे | इन भाषणों का संग्रह मनोरंजन एन. भौमिक ने नादिया
(बंगाल) से 1942 में
' फेज ऑफ इंडियन स्ट्रगल ' के नाम से प्रकाशित
करके विदेशों में भेजा था | जिसे अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया
था | लाला लाजपतराय द्वारा अंग्रेजी में लिखित पुस्तिका
' एन ओपन लेटर ' 1917 में जब्त कर ली गईं
| बाद में धीरे-धीरे गांधी के समर्थकों की पुस्तकों
का प्रतिबंध हटाया जाने लगा |
अत: इसी तरह बांग्ला साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाओं में भी स्वाधीनता
आंदोलन की भावना उदघोषित हो रहि थी, जिसके कारण ब्रिटिश सरकार
ने विविध आयामों में इनको प्रतिबंधित कर दिया था अर्थात् बांग्ला की "देशेर कथा" जिसके लेखक क्रांतिकारी विचारक एवं सखाराम
गणेश देउसकर द्वारा लिखित क्रांतिकारी बांग्ला पुस्तक है, एवं
इस पुस्तक का अनुवाद "देश की बात" नाम से बाबूराव विष्णु पराड़कर ने किया था। 1904 की इस
पुस्तक पर पाबंदी अंग्रेज सरकार ने 1910 में लगाई क्योंकि इस
पुस्तक की कथावस्तु के अंतर्गत ब्रिटिश साम्राज्य में गुलामी की जंजीरों में जकड़े
भारतीय जनता की शोषण, उनकी पीड़ा, यातना
व दर्द की चीत्कार का जीवंत दस्तावेज है। तभी तो इस पुस्तक का मात्र पांच वर्षों में पांच संस्करण
की तेरह हज़ार प्रतियों के छपने की सूचना से भयभीत होकर अंग्रेज सरकार ने इस पुस्तक
को प्रतिबंधित कर दिया। क्योंकि यह पुस्तक अंग्रेज सरकार की सूक्ष्म से सूक्ष्म यातना
को उजागर करते हुए स्वाधीनता चेतना को आमजन्य में जागृत करता था।
साथ ही कांग्रेस
द्वारा संचालित आन्दोलन की निति का आलोचना करते हुए लेखक इस पुस्तक की भूमिका में लिखते
हैं-"हमारे आन्दोलन भिक्षुक के आवेदन मात्र है। हमलोगो को दाता की करूणा पर एकांत रूप से निर्भर रहना पड़ता है। यह बात सत्य होते हुए भी राजनीति की कर्तव्य बुद्धि को उद्घोषित करने के लिए पुन: पुन:
चीत्कार के अलावा हमारे पास दूसरे उपाय कहां है।"8
उसी समय देउस्कर
की एक किताब तिलकेर मुकदमा पर भी पावबंदी लगायी गई थी। साथ ही बांग्लादेश के राष्ट्रीय
कवि काजी नजरूल भी अपनी समस्त रचनाओं के माध्यम से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ भारतीयों
के मन में स्वाधीनता आंदोलन के चेतना को जागृत किए थे। चुकी उन्होंने अंग्रेजी हुकुमत
के अत्याचार को देखते हुए क्रांतिकारी कविता लिखे साथ ही इस कविता द्वारा क्रांतिकारियों
को और प्रेरित भी किए विद्रोही कविता के माध्यम से। यह कविता 1922 में प्रकाशित "अग्निवीणा" काव्य संग्रह की कविता है जो अंग्रेजों के मन में भय उत्पन्न कर देता है कि कहीं सोए भारत माता
के सुपुत्र जागृत हो रहे हैं, और अपनी धरती मां की गर्भ को लहूलोहान
करने वालों का नरसंहार कर भारतमाता को मुक्ति दिलाएंगे अर्थात् इसी संदर्भ में
"विद्रोही" कविता की कुछ पंक्तियां
"कबीर चौधरी द्वारा अनूदित" की गई है-
"मैं विद्रोही वीर,
पीकर जगत का विष,
बनकर विजय ध्वजा,
विश्व रणभूमि के बीचो-बीच
खड़ा रहूंगा अकेला
फिर उन्नत शीश
मैं विद्रोही वीर
बोलो वीर…."9
यानि कि इस
कविता में इतनी क्रांतिकारी चेतना थी कि
रविंद्रनाथ टैगोर इस कविता से प्रभावित होकर "वसंता" नाटक तक लिखे थे, और
उनका "घरे-बाहरे" उपन्यास भी इसी संदर्भ में था।
भारत की आजादी
की लड़ाई में मीडिया एवं पत्र-पत्रिकाओं का बड़ा योगदान था,
क्योंकि कुछ अखबार के एडिटर निडर होकर ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध लिखते
हुए उनके किए गए अत्याचारों का यथार्थ रूप प्रस्तुत करते हैं। ऐसा ही एक अखबार
"अमृत बाजार" पत्रिका था, यह भारत का बहुत पुराना पत्रिका था, जिसको
1868 में शिशिर कुमार घोष और मोतीलाल घोष मिलकर साप्ताहिक रूप में कलकत्ता
से निकालते थे। परंतु ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध होने के कारण देशद्रोह का आरोप लगाकर
इसे प्रतिबंधित करने की कोशिश किया गया परंतु अंग्रेजी भाषा में पुन: इस पत्रिका को शिशिर कुमार घोष ने प्रकाशित करवाते हुए, 1905 में बंगाल विभाजन एवं 1946 में कोलकाता में हो रही विद्रोह
के खिलाफ आवाज उठाकर यह पत्रिका ने भारत में निडर पत्रिका की किताब को पाया देश को आजादी दिलाने
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए।
अत: चाहे किसी भी भाषा में हो बस लिखा जाता था, पत्रिकाओं
के माध्यम से जनता को जागृत किया जाता था। परंतु जिस भी पत्रिका ने लोगों की आवाज बनकर
ब्रिटिश सरकार का विरोध किया, उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
इसी संदर्भ में "सोमप्रकाश, भारत मिहिर,
ढाका प्रकाश, सहचर" आदि समाचार पत्रों के खिलाफ भी मुकदमे चलाए गए। जिनमें "ढाका प्रकाश" पत्रीका को बंगाल के इंडिगो विद्रोह
के लिए ही जाना जाता है।
संदर्भ :
(पीएचडी) शोधार्थी
हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
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