‘नील दर्पण’ और ‘मा भूमि’ : लेखन, प्रकाशन, मंचन, अनुवाद और प्रतिबन्ध की राजनीति
- डॉ. भीम सिंह
शोध-सार : भारतीय इतिहास का लिखित दस्तावेज राजाओं की वंश-परंपरा और उनके विजय-अभियान को दर्शाता है। इस इतिहास में जनता और जन नदारद है। जन-इतिहास में अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ़ अनवरत संघर्ष प्राथमिक होता है जिसे सत्ता संचालित इतिहासकार उपेक्षित करते हैं। यह इतिहास देशी भाषाओं के साहित्य की अमूल्य धरोहर है। इसमें देश की सामाजिक संरचना के वास्तविक नियामक किसानों की सदानीरा बहती है। विशेष साहित्यिक रचना अपने समय के इतिहास और जन-समाज का जीवंत आईना होती है। नाटक ऐसी साहित्यिक विधा है जो वर्तमान से जुड़ी रहती है। यह विधा लेखन, मंचन, प्रकाशन, अनुवाद और प्रतिबन्ध के पड़ावों से गुजरती भी है। ‘नील दर्पण’ और ‘मा भूमि’ ऐसे ही दो नाटक हैं। ये नाटक आधुनिक भारतीय इतिहास की कोख से उपजे जरुर हैं लेकिन ‘नील-विद्रोह’ और ‘तेलंगाना-आन्दोलन’ का वास्तविक इतिहास भी निर्मित करते हैं। स्वाधीनता के विचार और संदेश, सत्ता के कोश के हिस्से नहीं रहे हैं। आपद-धर्म में राज, प्रजा से पूर्णाहुति की इच्छा प्रकट करता है। ब्रिटिश, निजाम और जमींदार की सत्ता जन-दमन के लिए कुख्यात रही है। जन-आन्दोलन के पीछे के वास्तविक सच को उद्घाटित करते ये नाटक प्रतिबन्ध की राजनीति को भी रूपायित करते हैं। अत: इनका अध्ययन आधुनिक भारतीय इतिहास के स्वराज की अवधारणा, सुधारवादी चेतना/आमूलचूल परिवर्तन और कानूनी बन्दिशों के नजरिये से आवश्यक है। नाटककार के लिए लेखन, राष्ट्रीयता की भावधारा को विकसित करने का एक जरिया रहा है। इसमें अनुवादक की जन-पक्षधरता की राजनीति और अनुवाद का औपनिवेशिक भाषा (अंग्रेजी) के साथ सम्बन्ध को भी उद्घाटित किया गया है।
बीज-शब्द : रैयत (किसान), रैयती (रैयतों की ज़मीन पर खेती), महाल (ग्राम-समूह), महल (ब्रिटिश राजस्व दस्तावेजों में महल एक राजस्व इकाई थी, यह एक गाँव या गाँवों का एक समूह होती थी), निज-खेती (बागान मालिकों की अपनी ज़मीन पर खेती), गुमाश्ता (बागान मालिकों की तरफ से लगान वसूली के लिए आने वाले गुमाश्ता/एजेंट), सट्टा (अनुबंध), वाट (संग्रहण पात्र या एक किणवन), बीघा (ज़मीन की एक माप), ददनी/दादन-प्रथा (करारनामा, अग्रिम ऋण), रामकान्त (पीटने के डंडे का नाम), श्यामचन्द (चाबुक), लठियालों (लठैत), अपलेखात्मक (किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की बदनामी के उद्देश्य से कोई बात प्रकाशित करना अपलेखात्मक है), ‘मुंदडुगु’ (‘पहला कदम’- यह नाटक 1946 में प्रतिबन्धित हुआ), ‘मा भूमि’ (‘हमारी भूमि’- इस नाटक के मंचन पर निजामशाही और स्थानीय जागीरदारों द्वारा बंदिशें लगाई गयीं)।
मूल आलेख :
‘नील दर्पण’ : विरासत, मुकदमा, कार्यवाही और निर्णय
(क) ऐतिहासिक-पृष्ठभूमि
इतिहास-लेखन क्या खेती और उसकी फसलों के आधार पर संभव है ? यदि नहीं, तो दुनिया में ‘नील-विद्रोह’ क्यों विश्व-इतिहास का एक विशिष्ट पाठ है। यह पाठ देशज-चेतना, श्रम की गरिमा और मानवता के संघर्ष का भिन्न आख्यान रचता है। जहाँ उत्पादक-वर्ग का श्रम और संघर्ष इतिहास की आधारभूमि का नवीन पाठ रचते हैं। यह पाठ हिन्दुस्तान के पूर्वी भाग के बंगाल के सामाजिक-वर्ग की 19वीं सदी की लड़ाई से जुड़ता है। यह इतिहास, आम हड़ताल, बहिष्कार, प्रतिरोध और कानूनी चरणों के साथ अनेक दिशाओं में एक साथ प्रवाहमान हुआ । यह बीसवीं सदी की नील की खेती का अंतिम अध्याय भी रचता है। नई रासायनिक खोजों ने इसके कुपाठ का अंत किया। लड़ाई का स्वरुप लाल और श्वेत रूपा इतिहासकारों को भाया है। क्या संघर्ष का एक भिन्न रूप ‘नीला’ या ‘नील-क्रांति’ (Blue Mutiny) से आविष्कृत नहीं होता ? यदि होता है तो इसकी कहानी क्या ‘नील दर्पण’ के सहारे देखी जा सकती है ? या ‘नील दर्पण’ (1860) वह ऐतिहासिक-सामाजिक और साहित्यिक पाठ हो सकता है जो विश्व-इतिहास में नील की खेती को भाषिक रूप में विभिन्न स्तरों से अभिव्यक्त करने का आदर्श-रूप हो ? ‘नील दर्पण’ के अनुवाद देशी और विदेशी भाषाओं में त्वरित गति से होने के मूल में अंग्रेजी पाठ की भूमिका और स्वाधीनता की लड़ाई लड़ते पराधीन मुल्कों की जनता की आकांक्षा को नये सिरे से देखना जरूरी है। अपने स्वत्व का बोध और मानवता इसके मूल ध्येय हैं।
आधुनिक भारत में नील (नील का पौधा : इन्डीगोफेरा टिंकटोरिया) की खेती की शुरूआत फ्रांसीसी लुइस बोनार्ड ने 1770-1780 के रूप में की थी, इससे यह आशय नहीं लगाना चाहिए कि इससे पूर्व नील की खेती नहीं होती थी। नील भारतीय उपमहाद्वीप और मिस्र की प्राचीन सभ्यता (1600 ईसा पूर्व) में अपना मुक़ाम रखता था। इसकी माँग यूरोप (‘वोड’ नाम के पौधे से कपड़े रंगने का काम यूरोप में किया जाता था) और चीनी समाजों को निरंतर रही। सौदागरी-पूँजी, औद्योगिक-पूँजी और वित्तीय-पूँजी के युगों में इसकी आवश्यकता और माँग ने नील के इतिहास का नया पाठ विकसित किया। इस पाठ का एक छोर सैंट डोमिन्ग्यु (हैती) के इतिहास से भी जुड़ता है, जहाँ अफ़्रीकी मूल की जनता ने 18वीं सदी के अंतिम दशकों में नील के बागान मालिकों के खिलाफ बगावत कर दी और नील मालिकों को मौत के घाट उतार दिया था। इस विद्रोह (1791) में मिशनरी लोगों ने नील के बागान मालिकों के खिलाफ आवाज बुलंद की थी और मानवता के हित में अपनी उपस्थिति दर्ज की, इसका परिणाम वैश्विक इतिहास पर पड़ना स्वाभाविक था, फ्रांस ने दास-प्रथा (1792) का अंत किया इससे नील के उत्पादन पर असर पड़ा, नील की माँग आधुनिक कपड़ा उद्योग (सूती कपड़े के छपाई, रंगाई के लिए) को थी। इस बढ़ती माँग का प्रभाव ब्रिटेन के कपड़ा व्यापारियों को भुगतना न पड़े इसके लिए भारत में नील की खेती को प्रोत्साहित किया गया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने बैंकों से हाथ मिलाया, इस काम में नील की खेती की ओर आकर्षित वर्ग ने सबसे पहले कदम बढ़ाया और यह सबसे बड़ा मुनाफे का धंधा बन गया। 1788 ई. में जहाँ भारतीय नील का हिस्सा ब्रिटेन को भेजे जाने वाले में 30 प्रतिशत था वह 1810 में 95 प्रतिशत हो गया। इसके अलावा भू-राजस्व प्रणाली को विकसित करने का काम नये सिरे से शुरू हुआ। इसमें 1793 ई. में स्थायी बंदोबस्त/इस्तमरारी प्रथा के द्वारा बंगाल और बिहार में लार्ड कार्नवालिस ने कम्पनी का पहला हितैषी वर्ग बनाया। दूसरा कदम, थॉमस मुनरो ने रैयतवाड़ी प्रथा (1820-1827 के बीच) के द्वारा बम्बई और मद्रास में उठाया। तीसरा कदम, होल्ट मेकेंजी और विलियम बेंटिक ने गंगा-घाटी, उत्तर-पश्चिम प्रान्तों, अवध, मराठों के अधिकृत प्रदेशों पर लागू किया, इसे महालवाड़ी प्रथा कहा जाता है। इन तीनों भू-राजस्व प्रणालियों में जमींदार, किसान और ग्राम-समूह प्रधान थे। इन तीनों के दोहन से ही इंग्लैण्ड का कपड़ा उद्योग दुनिया में बुलंदियाँ छू रहा था। भारत का उत्पादक वर्ग इस जालसाजी और अन्याय का शिकार हो गया। अधिकतर भारतीय जमींदार वर्ग और व्यापारी नील की खेती के समर्थक थे। इसके दो प्रमाण देखे जा सकते हैं। राजा राम मोहन राय के अनुसार- “जहाँ तक नील की कोठियों के मालिकों का प्रश्न है...उन्होंने यूरोपवासियों के अन्य किसी वर्ग की अपेक्षा – चाहे नौकरी में हों या बाहर – देशवासियों को ज्यादा फ़ायदा पहुँचाया है।” द्वारकानाथ ठाकुर का उद्धरण भी विचारणीय है – “मैंने यह देखा है कि इस देश में नीलहे साहबों के बस जाने से नील की खेती से, समाज को सामूहिक रूप से बहुत काफ़ी फ़ायदा पहुँचा है। जमींदार धनी और समृद्ध हुए हैं, किसानों की आर्थिक स्थिति अच्छी हुई है और उन देशवासियों की अपेक्षा, जो ऐसी जगहों में रहते हैं जहाँ नील की खेती और कारखाने नहीं हैं, वे आम तौर पर ज्यादा आराम से रहते हैं।” इस मत के विरोध में दूसरा वर्ग भी था जिसका मानना था कि – “निलहों को जमींदारियाँ खरीदने और बड़े पैमाने पर नील की खेती कराने का अधिकार दिया गया तो सिर्फ़ किसानों का ही नहीं, जमींदारों का भी सर्वनाश हो जायेगा।” इस मत के समर्थकों में हरीशचन्द्र मुखोपाध्याय (‘हिन्दू पेट्रियट’ के सम्पादक), दीनबंधु मित्र (‘नीलदर्पण’ के नाटककार), रेवरेण्ड जेम्स लॉन्ग (‘नीलहे साहबों के अत्याचार’ पुस्तिका के लेखक और मानवतावादी), शिशिर कुमार घोष (‘अमृत बाजार पत्रिका’ के संस्थापक), गिरीशचन्द्र घोष (नेशनल थिएटर के प्रवक्ता और ‘नीलदर्पण’ को रंगमंच पर लाने वाले), अक्षयकुमार दत्त (‘तत्त्वबोधिनी पत्रिका’ के सम्पादक), डब्ल्यू. एस. सीटन कार (1860-नील आयोग के अध्यक्ष), ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि शामिल थे। हराधन दत्त के अनुसार - बंगाल में नील आन्दोलन के प्रथम विद्रोही “विश्वनाथ सर्दार” (1808 के आसपास) थे, जिन्हें साम्राज्यवादी इतिहासकार जन्मजात डकैत कहते थे, जबकि लूट और शोषण का व्यापार साम्राज्यवादी खुद चलाते थे। 1829 में बंगाल के किसानों ने नीलहे साहबों और पुलिस के ख़िलाफ़ संघर्ष किया। यह सिलसिला चलता रहा। भारतीय किसान वर्ग को यह समझ आ गया था कि ब्रिटिश सत्ता से हथियारों के बल पर लड़ना असंभव है यह समझ उनकी संथाल और 1857 की क्रांति के आधार पर बन गयी थी। उसने कोर्ट का वैधानिक रास्ता अपनाया। उसने बंगाली मध्यवर्ग को अपने सरोकारों से जोड़ा। इस वर्ग ने उसके लिए बौद्धिक वातावरण तैयार किया, संगठन के स्तर पर और पत्रकारिता के हवाले से नील की खेती करने वाले किसानों के पक्ष में जन आन्दोलन को मजबूत किया। नील-विद्रोह ने कैसे भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के सामाजिक संगठन को विकसित किया ? किसानों ने पहली बार नील की खेती करने वाले वर्ग का सामाजिक बहिष्कार करके एक जन-आन्दोलन को संचालित किया। उन्होंने चर्च मिशनरी सोसायटी के फादरों को ईसाइयत की मानवता के राजनीतिक पाठ से साक्षात्कार कराया। नीलहे साहबों के जुल्म के खिलाफ एक वातावरण निर्मित किया। जैसे –“धर्मावतार, मुख्तार लोग झूठ, बेईमानी, दुष्टता सब-कुछ करते हैं, बेहिचक हलफ उठाकर झूठ बोलते हैं, सदा बुरे कामों में फँसे रहते हैं, विवाहिता स्त्री को छोड़ वेश्याओं के घरों में जिन्दगी बिताते हैं। इसलिए जमींदारों को मुख्तारों से बहुत ही नफरत है, पर फिर भी काम पड़ने पर उन्हें बुलाते हैं और अपने पास बिस्तर पर बिठाते हैं। धर्मावतार, मुख्तार लोगों का पेशा ही धोखा है। पर नीलकरों के मुख्तारों द्वारा किसी तरह का धोखा नहीं हो सकता। नीलकर साहब सब ईसाई हैं। ईसाई धर्म में झूठ को बड़ा भारी पाप माना गया है। परद्रव्यहरण, परनारीगमन, नरहत्या आदि काम ईसाई धर्म में बहुत ही घृणित माने गये हैं। ईसाई धर्म में बुरा काम करना तो दूर, मन में बुरे काम की कल्पना से भी नरक में जलना पड़ता है। करुणा, क्षमा, विनय, परोपकार, ईसाई धर्म के प्रधान आदर्श हैं। ऐसे सत्य-सनातन-धर्म-परायण नीलकरों का झूठी गवाही देना कभी सम्भव नहीं। धर्मावतार, हम लोग इन नीलकरों के वेतनभोगी मुख्तार हैं, हमने उनके चरित्र के अनुसार ही अपना चरित्र भी सुधार लिया है। इच्छा होने पर भी हमें गवाह को सिखाने का साहस नहीं होता।” नाटक की भाषा में अभिधा से ज्यादा लक्षणा और व्यंजना का पुट होता है। यह, यहाँ दिखाई देता है। सच को झूठ और झूठ को सच कहने के पीछे शक्ति-संरचना काम करती है। यह शक्ति-संरचना औपनिवेशिक और देशज वर्ग के मध्य नये बनते तंत्र को भी खड़ा करती है। उस सत्ता के अनुरूप भाषिक-संवाद में नाटककार अपने संदेश को संप्रेषित कर देता है। यह संदेश जन सरोकारों से लैस रहता है। यही कला, अभिधार्थ होने पर दमन का शिकार होती है और लक्षणा व व्यंजना के साथ सत्ता की नजर से बचती भी है।
नील-विद्रोह के होने में किसानों का उत्पीड़न प्राथमिक रहा है – “नीलहे साहब जिन खेतों को नील की खेती के लिए चुनते थे, उनमें दूसरे फसल की बजाय नील बोने के लिए किसानों को मजबूर किया जाता था ; नीलहे साहब किसानों के ढाई बीघा खेत को एक बीघा ही मानते थे ; लेकिन उन्हें इतने से ही संतोष नहीं होता था और वे नील के एक बोझे की जगह दो बोझे ले लेते थे ; काश्तकारों की फसलों को वे जान-बूझकर तहस-नहस कर देते थे, उनके मकानों को लूट लेते थे या जला देते थे और उनकी मवेशियों को हाँक ले जाते थे या उन्हें पानी में डुबो कर मार डालते थे ...गाँव के किसान बोरू मंडल और चंदर विश्वास को कोठी के हथियारबंद आदमी पकड़कर ले गये। तबसे उनका कोई पता नहीं है... 2 दिसम्बर को उनके आदमी गोविंदपुर के आनंद सरदार को पकड़ ले गये, इसके बाद फिर 8 तारीख को वे सोनपुरकुरिया के ऊजल मुल्ला और पाटन शेख को पकड़ ले गये... नील की कोठियों के कुछ मालिक पहले अमेरिका में गुलामों के ऊपर हुकूमत कर चुके थे और वे अपने पाशविक अत्याचारों के कारनामें भारत में दुहरा रहे थे।”
‘नील दर्पण’ कब लिखा गया ? इसका प्रकाशन बांग्ला में कब हुआ ? यह नाटक अंग्रेजी में कब अनूदित हुआ ? अनूदित पाठ ने कैसे देश के भीतर और देश के बाहर के बुद्धिजीवियों को अपनी ओर आकर्षित किया ? जनता के मनोबल को कैसे इसने उठाया ? इसके अंग्रेजी अनूदित पाठ की राजनीति ने प्रतिबन्ध को क्यों सहा ? इसके आमुख और अनुवादक के नोट में ऐसा क्या लिखा गया कि इस पर मुकदमा हो गया ? इस नाटक के मंचन ने कब आकार लिया ? मंचित होते ही इसने किसान और नीलकरों के मध्य खाई को कैसे विस्तृत किया ? इसकी भाषा का स्वरुप ‘साधु भाषा’ वाला क्यों नहीं है ? भाषा का चलित रूप, यथार्थ के कितने निकट है ? आधुनिक भारतीय साहित्य के इतिहास में नाटक ने कैसे राष्ट्रीयता को विकसित किया ? इस नाटक ने भारतीय साहित्य में ब्रिटिश सरकार की नाकामी को किस रूप में उजागर किया ? कलकत्ता के सुप्रीमकोर्ट ने इसके लिए किन-किन लोगों को दोषी ठहराया और उनकी क्या सजा निश्चित की ? इन सारे सवालों के परिप्रेक्ष्य में ही इस नाटक को देखने की आवश्यकता है।
दीनबन्धु मित्र (1829-1874) डाक विभाग में कार्यरत थे। उनका अनुभव-संसार व्यापक था। नदिया जिले के मल्लाहाटी में नीलहे साहबों के अन्याय और अत्याचारों का भंडाफोड़ ‘नील दर्पण’ की मूल नाट्य-वस्तु है। इस नाटक को 1858-1859 में लिखा गया। इसका सर्वप्रथम प्रकाशन बांग्ला भाषा में 1860 को हुआ। यह नाटक ढाका से छपा। बंगाल में 1858-1859 का नील-विद्रोह इसकी रचनाभूमि का आधार है। इस नाटक का पहला मंचन ढाका में 1859 को हुआ, जहाँ इसने लोकप्रियता अर्जित कर ली थी। बाद में, गिरीशचन्द्र घोष ने इसको सार्वजनिक टिकट-बिक्री से मंच पर 1872 में कलकत्ता में प्रदर्शित किया, जहाँ दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी। इसने प्रतिरोध की संस्कृति और राष्ट्रवाद का यथार्थ गढ़ा। “ऐसे नाटकों की विद्रोही भावना के दमन हेतु अंग्रेज सरकार ने 1876 में ‘ड्रेमेटिक परफॉर्मेंसेज कन्ट्रोल एक्ट’” जारी किया। ब्रिटिश सरकार के अंग्रेज अधिकारी इस पाठ को लेकर आशंकित थे। उन्हें ग़दर की आशंका थी। अत: उन्होंने इसके अंग्रेजी पाठ की फरमाइश की। इस काम को करने के लिए दो नामों को लेकर बहस आज भी बरकरार है, माइकेल मधुसूदन दत्त और रेवरेण्ड जेम्स लॉन्ग। इनमें से किसने पहले पहल इसका अंग्रेजी अनुवाद किया ? यह अनुत्तरित सवाल है। इस बहस को बंकिमचन्द्र ने 1877 में दीनबन्धु की जीवनी लिखते हुए, माइकेल मधुसूदन दत्त के साथ जोड़कर इसके छिपे हुए सत्य को जीवित किया। अंग्रेजी अनूदित पाठ (1861, कलकत्ता से प्रकाशित) में इसके मूल लेखक और अनुवादक का नाम नहीं होने के कारण यह विवाद बढ़ता ही गया। इसके पीछे के कारकों को गुप्त रखा गया। यह उस समय की सत्ता से बचने का एक जरिया हो सकता है। क्योंकि दीनबन्धु मित्र उस समय की ब्रिटिश सरकार के मातहत थे। माइकेल मधुसूदन दत्त अपने भविष्य निर्माण के लिए संभावनाएँ तलाशने के लिए ब्रिटिश सत्ता पर निर्भर थे। चर्च मिशनरी सोसाइटी के रेवरेण्ड जेम्स लौंग पर ‘अपलेख’ (libel) लिखने के लिए मुकदमा कलकत्ता सर्वोच्च न्यायालय में 19, 20 तथा 24 जुलाई 1861 को चला। इस मुकदमे को ‘महारानी बनाम लौंग’ नाम दिया गया। “सब लोगों को यही लगता था कि सिर्फ रेवरेंड जेम्स लौंग ही नहीं, स्वयं बंगाल सरकार कटघरे में है। ...अधिष्ठाता न्यायाधीश, सर एम. एल. वैल्स थे जिन्होंने ग्यारह बजे अदालत में प्रवेश किया और साम्राज्य के अंतर्गत हिन्दुस्तान का पहला सरकारी मुकदमा प्रारम्भ किया।” “मि. पीटरसन और मि. कावी वादी के वकील थे। मि. एग्लिंटन और मि. न्यूमार्च प्रतिवादी की ओर से वकील थे।” जूरी के 24 सदस्यों में से केवल 17 को ही सम्मन भेजे गये, इसका कारण जूरी सदस्यों की अनुपस्थिति और कलकत्ते के बाहर इंग्लैंड या कहीं और गये हुए हैं बतलाई गयी। इस जूरी के प्रधान मि. एस. अपकार हुए और मि. मानिकजी रुस्तमजी भारतीय सदस्य नियुक्त किए गये।
मि. पीटरसन ने कहा कि – “... यह मुकदमा ...सारे ईसाई सम्प्रदाय के लिए महत्त्वपूर्ण है।...मेरे मुवक्किल हैं ‘इंगलिशमैन’ अखबार के सम्पादक और संचालक-स्वामी मि. वाल्टर ब्रैट। यह मुकदमा अंग्रेजी भारत की ‘लैंड होल्डर्स एसोसिएशन’ और नीलकर समुदाय की इच्छा और पूरी सहमति से चलाया गया है। ...प्रतिवादी... पवित्र पुरोहित समाज के सदस्य हैं। ... अपलेख का प्रचारक हो ...किसी की बदनामी करना किसी भी समय अथवा किसी भी परिस्थिति में बड़ा खतरनाक काम है, पर अगर वह किसी कारण या हेतु के बिना ही ऐसा किया जाय तो विशेष रूप से बुरा है। किसी आदमी की, या उपयुक्त और पर्याप्त कारण के बिना किसी वर्ग की, सार्वजनिक बदनामी करना उचित नहीं। हर आदमी को मनमाने विचार रखने या अपनी राय बनाने की स्वाधीनता है, पर यह तभी तक है जब तक वह व्यक्तियों को न घसीटे या अलग-अलग लोगों अथवा विशेष जन-समुदायों पर आक्षेप न करे। प्रतिवादी ने ... गुप्त रूप से काम किया। पिछली सैशन्स अदालत में मुद्रक मि. मैन्युअल पर मुकदमा चलाया गया था जिसमें उन्होंने अपराध स्वीकार किया और असली आदमी का नाम बता दिया। वह नाम रेव. जेम्स लौंग का था। यहाँ पहले यह बताना जरूरी है कि अपलेख है क्या। जो आदमी किसी दूसरे की बदनामी और बुराई करने के उद्देश्य से झूठी प्रचार भरी बातें प्रकाशित करता है वह ऐसा जान-बूझकर उस उद्देश्य से ही करता है जो उस प्रकाशन द्वारा पूरा होता है।”
उपरोक्त उद्धरण में ‘अपलेख’ (libel) को परिभाषित किया गया है। यहाँ अपलेख का मौखिक या वाचिक रूप महत्त्वपूर्ण नहीं है, उसका लेखन और प्रकाशन इसके केन्द्र में है। यह विधि या कानून की दृष्टि से मुकदमे के दायरे में आने वाला लिखित-प्रकाशित रूप है, जिसमें किसी को अपमानित करने की बू आती हो। यह ‘अपलेख’ नीलकर वर्ग (नीलकर वर्ग को परिभाषित नहीं किया गया है) और दो अंग्रेजी समाचार पत्रों के संपादकों (लेकिन उनके नाम नहीं दिये गये हैं) के प्रति मुखरित हुआ है। असली दोषी लौंग को माना गया है। ‘नील दर्पण’ के अनुवाद में भूलें और अशुद्ध व्याख्याएँ हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। जैसे – ‘सुड़की’ का अर्थ ‘ईंट पीसने वाले’ किया गया है जबकि देशी अर्थ ‘बल्लमधारी’ है। ऐसी भूलों से इसके प्रतिवादी का तर्क ‘वह तो केवल अनुवादक है और पुस्तिका में प्रकट किए गये विचारों के लिए उत्तरदायी नहीं है’ सिद्ध नहीं होता है। मुद्रक ने कहा है कि पांडुलिपि प्रतिवादी से मिली थी और प्रेस के प्रूफों में संशोधन उसी के हस्ताक्षरों में है। यह मुकदमा नाटक के बांग्ला भाषा के मूल पाठ पर नहीं चला। उसके अंग्रेजी अनूदित पाठ पर चला। यह बहस भी दिलचस्प है कि ‘चोरी करे कोई, भरे कोई’। अनूदित पाठ की पुस्तिकाओं को देश के भीतर और बाहर भेजा गया। इससे भारत में ब्रिटिश सरकार को अपनी छवि गिरने की चिंता सताने लगी। कुछ वर्ष पहले के प्रथम ‘स्वाधीनता-समर’ को ‘सिपाई-विद्रोह’ कहकर टालनेवाली सत्ता ‘नील-विद्रोह’ को ‘नील-आयोग’ (1860) की सिफारिशों से सुलझाने में लग गयीं। अब किसानों को बलात तरीके से नील के उत्पादन में नहीं लगाया जा सकता था और उनकी इच्छा के विरुद्ध उनके साथ सट्टा या अनुबंध नहीं किया जा सकता था। ये पुस्तिकाएँ, फिर भी बंगाल सरकार के लिए सिरदर्द बनी हुई थीं। “ये पुस्तिकाएँ देशी लोगों के चाल-चलन को सुधारने के उद्देश्य से सरकार के सबसे बड़े कार्यालय द्वारा प्रचारित की गयीं।” यह पुस्तिका किसी गलती को सुधारने के लिए नहीं लिखी गई थी, इससे विद्वेष के वातावरण को हवा मिली। जैसे – “यह तो एक जाति को दूसरी जाति के विरुद्ध, यूरोपियनों को देशी लोगों के विरुद्ध भड़काने के उद्देश्य से लिखी गयी है। इस पुस्तिका में लिखी बातों से ऐसी स्थिति प्रकट होती है कि जो संसार में किसी भी सरकार के लिए लज्जा और अपमान की बात है। मेरा विचार है कि इस पुस्तिका के आरोप इस देश की सरकार के विरुद्ध हैं।”
लेखक ने अंग्रेजी पाठ की ‘भूमिका’ में ऐसा क्या लिख दिया कि वह ‘अपलेख’ की श्रेणी में माना गया। उसका एक अंश विचारणीय है - “दो दैनिक अखबारों के सम्पादक अपने कालम तुम्हारी प्रशंसा में रँग रहे हैं; उससे दूसरे लोग चाहे जो सोचें, पर तुम्हें उससे कभी ख़ुशी नहीं होगी क्योंकि तुम उनके ऐसा करने का कारण अच्छी तरह जानते हो। चाँदी में भी कैसी अद्भुत आकर्षण-शक्ति है। घृणित जुडास ने ईसाई धर्म के महान प्रवर्तक जीसस को तीस हजार रुपये के लिए पायलेट के हाथों सौंप दिया था। तो फिर यदि दोनों अखबारों के सम्पादक हजार रुपये की आशा में इस देश की गरीब, असहाय प्रजा को तुम्हारे भयंकर चंगुल में फँसा दें तो इसमें आश्चर्य क्या ?” इस प्रकाशन में धन्धे से अधिक घृणा के स्वर हैं। यह घृणा मसीह के साथ विश्वासघात करने वाले जुडास आइकेरियट के साथ धार्मिक वैमनस्य को भी जन्म देती है। साथ ही तत्कालीन यूरोपियन नीलकरों के पक्ष में लिखने वाले दो अंग्रेजी समाचारपत्रों ‘इंगलिशमैन’ (मि.सौन्डर्स, वाल्टर ब्रैट, संपादक) और ‘हरकारू’ (एलेक्जैंडर फोर्ब्स, संपादक) की ओर संकेत किया गया है। ये समाचार-पत्र नीलकर समाज के पक्ष में लेखन करते थे और भारी अनुदान पाते थे। इससे यह सिद्ध होता है कि समाचार-पत्र विशेष हितों और मतामत से अनुप्रेरित होते हैं। इन अख़बारों को ‘नील के अखबार’ कहा जाता था, इसके विपरीत ‘हिन्दू पेट्रियट’ और ‘इंडियन फील्ड’ को देशी प्रभाव में चलने वाले अखबार के रूप में देखा जाता था, क्योंकि उनमें नीलकरों को बड़ी-बड़ी क्रूरताओं का अपराधी दिखाया जाता था। इस कारण ‘हिन्दू पेट्रियट’ के संपादक हरीशचन्द्र पर मानहानि का मुकदमा चला। ‘नील दर्पण’ (The Indigo Planting Mirror or The Mirror of Indigo) में नीलकर समाज के विरुद्ध प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से घिनौने आरोप लगाए गये।
‘नील दर्पण’ नाटक का घोषित उद्देश्य है - समाज की कुछ परिस्थितियों का वर्णन करना। यह वर्णन नीलकर समाज के वुड और रोज जैसे बनावटी नामों (जबकि ये नाम थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ बदल दिये गये) से शुरू होता है। लेखक अंग्रेजी पाठ की ‘भूमिका’ में लिखता है कि- “मैं यह ‘नील दर्पण’ नीलकरों के समुदाय के हाथों में सौंपता हूँ। अब उनमें से प्रत्येक को इसमें अपना मुख देख लेने के बाद अपने मस्तक से स्वार्थपरता के कलंक का टीका मिटाना चाहिए।” ‘नील के यम’ से पहले सब सुखी थे। “पट्टे के पहले यहाँ तो रामराज था। पर मूरख बैरागी बना, देस में अकाल पड़ा।” उनके स्वप्नों की दुनिया में एक परिवर्तन हुआ। कर्जदारी, भुखमरी, उजाड़ खेत, कैद की सजाएँ, जालसाजी, बलात्कार के प्रयत्न, हत्या, अकाल-मृत्यु और आत्महत्या, सभी-कुछ आ धमके। यह सब नीलकर समाज के आने से हुआ, ऐसा प्रजा का मानना था। यह परिवर्तन किसी प्राकृतिक आपदा का परिणाम नहीं है। इसके ठोस राजनीतिक-आर्थिक मायने हैं। “नहीं, बल्कि नीलकर राक्षसों के प्रवेश के द्वारा, जिनके प्रतिनिधि इस नाटक के पात्र वुड और रोज हैं। जो बंगाली दीवान कभी भले थे, उन्होंने भी अब राक्षसी रूप धारण कर लिया ; जो अमीन कभी किसी की हानि न करते थे, वे अब बाघ बन गये ; जिन मजिस्ट्रेटों को इन्साफ-पसन्द माना जाता था वे अब बदलकर अत्याचारी हो गये। और नीलकर की पत्नी !”
अपलेख का एक आधार अंग्रेज स्त्रियों की गरिमा और उनकी छवि को विरूपित करने से भी जुड़ा हुआ है। नाटक में पदी/मिसरानी एक ऐसा ही पात्र है। जिसके हवाले को मुकदमे में शामिल किया गया था। जैसे – “जिसने मेरे देश की स्त्रियों की नेकनामी पर कलंक का काला टीका लगाया है, और उन्हें संसार के सामने ऐसा चित्रित किया है कि वे न्यायाधीशों की वासना पूरी करके नीलकरों की सहायक बनती हैं। सदा-सुहागिन पदी मिसरानी पहले बड़े साहब की शिकार होती है, और बाद में जब बड़े साहब में कुकर्म के लायक शक्ति नहीं बचती तो वह छोटे साहब की वासना पूरी करने लगती है। इतनी बुरी होने पर भी उसमें तो कुछ झिझक मौजूद है, पर दोनों में से किसी नीलकर साहब में तनिक भी नहीं।”
उपरोक्त उद्धरण से यह तो पता चल ही जाता है कि नीलकर अधर्म, अत्याचार और सारी मुसीबतों के मूल में है। ईसाइयत के अनुसार ‘हिपोक्रेसी’ सबसे बड़ा अधर्म है। आधुनिक सभ्यता का पूँजीवाद इसी आधार पर नया तंत्र विकसित कर रहा था। एक सच्चे ईसाई पादरी को यह मंजूर नहीं था, और उसने सारे दोष अपने मत्थे ले लिए। यूरोपीय नीलकरों के समाज में क्या यही यथार्थ है, जैसा नाटक में दर्शाया गया है ? नाटककार को, किसी की बदनामी, झूठी निन्दा और एक जाति को दूसरी जाति के विरुद्ध और एक वर्ग को दूसरे वर्ग के विरुद्ध भड़काने का क्या हक़ है ? एक गवाह ने ‘यूरोपीयन नीलकरों के प्रति प्रजा में बहुत अधिक विक्षोभ है’ का बयान दिया। इसे वकील ने ‘भारी दुराग्रह’ माना। अब सवाल यह उठता है कि सरकार उस समय क्या कर रही थी ? सरकार भी एक पार्टी है इस मुकदमे की। समाज की हालत को ठीक करने की जिम्मेदारी सरकार की थी तो वह कहाँ चली गयी थी ? धार्मिक, कट्टरपंथी, राजनैतिक और पक्षपातपूर्ण लेखन को कैसे सरकार के कार्यालय से प्रकाशित किया गया ? क्या यह पुस्तक सार्वजनिक हित की दृष्टि से प्रकाशित की गयी है ? अगर की गयी है तो इसका प्रकाशन छिपाकर क्यों किया गया, उसकी प्रतियाँ चोरी से ही बंगाल कार्यालय भेजी गयी और देश के बाहर भी। “प्रकाशन गुप्त रीति से किया गया है और उसका उद्देश्य विद्वेषपूर्ण से भी बुरा था।” इस नाटक में निम्न बंगाल के नीलकरों की भाँति ही सरकार और सिविल सर्विस के विरुद्ध भी अपलेख हैं।
इससे यह भरोसा पुख्ता होता है कि कोई अदृश्य शक्ति ईसाई समुदाय को कलंकित करने के लिए गुप्त रूप से कार्य कर रही थी। इसके सम्बन्ध में वकील ने जूरी के सामने कहा कि – “आज मिशनरी शब्द ‘उपद्रवी’ का समानार्थी हो गया है, क्योंकि औपनिवेशिक समाज में जहाँ भी उपद्रव होते हैं वहाँ उनसे किसी – न - किसी मिशनरी का सम्बन्ध अवश्य पाया जाता है।” इस सन्दर्भ में वादी के वकील ने मिशनरी स्मिथ की डेमारारा में हब्शियों के विद्रोह में भूमिका, अन्तरीप के झगड़े और न्यूजीलैंड का हवाला दिया। धर्म के प्रचारकों का धन्धा शान्ति स्थापित करने और सब लोगों में सद्भावना फैलाने के पवित्र कर्तव्य से जुड़ा हुआ है, निन्दा और पाप को प्रश्रय और प्रेरणा देने का नहीं। इस तरह लौंग पर उन्होंने आरोप लगाया, उन्हें एक उपद्रवी और कठमुल्ले के तौर पर संबोधित किया। “अनुवादक कोई देशी आदमी हो तो भी प्रतिवादी ने नाटक को प्रकाशित करके उसे अपना लिया है। उसने नाटक की प्रतियाँ सम्बद्ध व्यक्तियों को, जमींदारों और व्यावसायिक संगठनों और नीलकरों को क्यों नहीं भेजीं ?” यह एक रहस्य और अबूझ पहेली है जिसका कोई उत्तर अभी तक नहीं मिला है।
इस मुकदमे का निर्णय विचारणीय है – “मुकदमे की सभी परिस्थितियों पर तत्परतापूर्वक विचार करने के बाद तुम ‘इंगलिशमैन’ और ‘हरकारू’ अखबारों के मालिकों के विरुद्ध जान-बूझकर और विद्वेषपूर्ण अपलेख के और दूसरे आधार पर उसी अभिप्राय से निम्न बंगाल के नीलकर वर्ग के व्यक्तियों के विरुद्ध अपलेख के दोषी सिद्ध हुए हो।” अदालत का दण्ड है कि – “तुम एक हजार रुपया जुर्माना हमारी परम सत्ताशालिनी महारानी को दो, और तुम आम जेल में एक महीने के लिए कैद में रखे जाओ, और कि जब तक जुर्माना न चुका दिया जाय जेल में कैद रहो।”
आधुनिक भारतीय नाट्य-साहित्य में ‘नील दर्पण’ की यथार्थवादी-दृष्टि, भाषा का चलित-रूप, लेखक और लेखन का सामाजिक-वर्ग के प्रति सरोकार और वस्तुस्थिति को समझने में अनमोल स्थान है। यह नाटक बिना कोई स्लोगन दिये राष्ट्रवाद की उस ज़मीन के सामाजिक-संगठन को उभार रहा था, जहाँ से बदलाव की बयार बहती है। यह एक ‘ट्रेजेडी’ से जुड़ी हुई ‘थीम’ का महाआख्यान है जिसे हर युग में रचा गया है। यह कहानी ‘स्वरपुर’ के ‘मरघट’ में (‘नील के यम’ के प्रभाव से) बदलने का ‘शोकनामा’ है। इसकी नींव से आधुनिक भारतीय भाषाओं के उपन्यासों के मेरुदंड किसान की, जीवन-गाथा का ‘विषाद रस-सूत्र’ संचरित हुआ है। अत: यह हमारी साझी विरासत का वह पाठ है जहाँ शोषक और शोषित की गहरी समझ है। यह समझ, साम्प्रदायिकता की विषैली रोटी की भेँट नहीं चढ़ती है। इसमें तोराप का साहस, ज़मीन, धर्म और निष्ठा के संतुलन के साथ नया भाष्य रचता है। जिसे ‘श्यामचन्द’ नामक चाबुक और ‘रामकान्त’ नामक डंडा भी नहीं डिगा पाते। भारत की आज़ादी के असली हीरो किसान हैं। उनके लिए ‘नील दर्पण’ और ‘जीर्ण जनपद’ रचे गये हैं। किसानों ने सर्वाधिक शहादत दी है देशी और विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने में। आज वही चौराहे पर है, यह एक नयी विडंबना है। भारत के सबसे बड़े सामाजिक-वर्ग का सामूहिक नेतृत्व अब खतरे में है। उसे फिर से ‘नील दर्पण’ को नये सिरे से रचना होगा। जिसमें उसने ब्रिटिश सत्ता को मजबूर करके जीने की राह बनायी थी।
‘मा भूमि’ (1947) : तेलंगाना के किसानों के सशस्त्र संघर्ष का सार्थक दस्तावेज –
आधुनिक काल में स्वाधीनता की चेतना के सूत्रपात और विकास में प्रेस की भूमिका का बड़ा योगदान है। इसमें किसान और उसके हितैषी वर्ग के सम्बन्धों की पहचान एकसूत्रता को निर्मित करती है। यह निर्माण ‘तेलंगाना-आन्दोलन’ के क्रम में नजदीक से देखने को मिलता है। यह आन्दोलन, आज़ादी-पूर्व की निजामशाही और स्थानीय जमींदारों की सत्ता के विरोध में जन्म लेता है। इसके मूल में आर्थिक-शोषण और सामाजिक गैर-बराबरी को देखा गया है। बंधुआ-मजदूरी और भूमिहीनता के खिलाफ यहाँ एक नया चक्रव्यूह रचा जा रहा था। उसके निशाने पर जमींदार वर्ग था। ‘भूमि उसी की, जो उसको जोते’। यह मानव, श्रम और समता की दिशा में उठा अभिनव कदम था। जिसके दुश्मन, पुराने घाघ थे। ये घाघ यथास्थिति के पैरोकार थे, नये समाज और नई दुनिया के संकल्प में उनकी कोई आस्था नहीं थी। आधुनिक भारत के एकीकरण की प्रक्रिया ‘हैदराबाद’ रियासत के बिना अधूरी है। इस रियासत का शासक मुसलमान और अधिकांश प्रजा हिन्दू थी। इस रियासत का सामरिक और देश की अखण्डता के नजरिये से विशेष महत्त्व था। सरदार पटेल ने कहा कि – “आज़ाद हैदराबाद हिन्दुस्तान के पेट में कैंसर जैसा है।” इसका क्षेत्रफल 80,000 वर्ग मील से ज्यादा था, आबादी डेढ़ करोड़ से अधिक थी। यह रियासत तीन भाषा-भाषी क्षेत्रों में फैली हुई थी – तेलुगु, कन्नड़ और मराठी। इस रियासत में ही तेलंगाना-आन्दोलन की निर्मिति हुई। यह तानाशाही और लोकतंत्र के बीच चुनाव का पारस्परिक संघर्ष भी था। अत: लोकतंत्र की हिमायती जनता को निजामशाही और जागीरदारी से चिढ़ हुई। उसने देश की एकता की राह चुनी और दूसरे ने इसके खिलाफ अभियान छेड़ा। यह संघर्ष 1946 से शुरू हुआ जिसमें आर्थिक-समानता और सामाजिक-सद्भावना को महत्त्व मिला। इसकी राह की शुरूआत हिंसा के मार्ग से हुई और अंत भी बड़ा त्रासद रहा। इसमें देशानुराग और श्रमशील तबकों के प्रति जिम्मेदारी का भाव मुखरित है। इसी को ध्यान में रखते हुए ‘मा भूमि’ नाटक वासि रेड्डी (वासि रेड्डी भास्कर राव) और सुंकरा (सुंकरा सत्यनारायण) ने तेलुगु भाषा में लिखा। यह एक राजनीतिक विषय से जुड़ा नाटक है। इस नाटक में लगान और शोषण के खिलाफ जनता ने हथियार उठाये थे। यह नाटक निजाम की तानाशाही और जमींदारों के अत्याचारों की पराकाष्ठा से सिसकते जीवन का आर्त्तनाद है। इस नाटक से पूर्व उनके पहले नाटक ‘मुंदडुगु’ (पहला कदम) पर “मद्रास अडवाइजरी ने उसके मंचन पर प्रतिबन्ध लगाया था। इसका विरोध करते हुए आन्ध्र प्रजा नाट्य मंडली के आदेशानुसार 15.8.46 को पूरे आन्ध्र राज्य में मुंदडुगु दिवस मनाया गया।” “‘मा भूमि’ (हमारी भूमि) के 125 नाटक दल गठित हुए। हजार से अधिक मंचन किये गये। अब तक 20 लाख की जनता को इसे दिखाया जा चुका है। ...पश्चिम गोदावरी जिले में ‘मा भूमि’ के मंचन पर प्रतिबन्ध लगाया गया। मगर यह बड़ी प्रसन्नता का विषय है कि जन आंदोलन के परिणामस्वरूप विलम्ब से ही क्यों न हो, ‘मा भूमि’ और ‘मुंदडुगु’ पर लगाये गये ये प्रतिबन्ध रद्द किये गये।” इस नाटक के आरम्भ में ‘लेखक की ओर से’ लिखा गया है कि – ‘निजाम की तानाशाही के विरोध में संघर्ष किये /करने वाले तेलंगाना के भाइयों को यह नाटक सहयोगी होगा, ऐसी हमारी अपेक्षा है’। यह टिप्पणी निजाम की तानाशाही के खिलाफ प्रकाशित अपनिन्दा के तहत अधिसूचित हुई थी। इसलिए भी इस पर प्रतिबन्ध लगाया गया था।
दूसरा कारण यह रहा कि – ‘नलगोंडा जिले में किये गये जन-संघर्ष के सन्दर्भ में यह नाटक लिखा गया है। नलगोंडा, निजामशाही का एक हिस्सा रहा है। इस संघर्ष के दौरान जो लूटपाट, हत्याएँ और आगजनी हुई उसका विवरण इसमें उपलब्ध है। जैसे – “ इस संघर्ष के दौरान पुलिस ने 240 गांवों में छापे मारे। 85,00 लोगों को हिरासत में लिया गया। 15,390 लोग तत्कालीन निजाम सरकार के हिंसा कांड के शिकार हुए। 12,25.000 का मूल्य रखने वाली संपत्ति लूटी गयी। 52 वीरों ने प्राणों को न्योछावर किये। उस दौरान निजाम के किरातकों (कारिन्दों) ने 64 महिलाओं अर्थात अपनी तेलुगू बहनों के साथ बलात्कार किये थे। इसमें दो की मृत्यु हुई। इस महान सतत संघर्ष ने ही हमें इस नाटक को लिखने के लिए प्रेरित किया।” किसी भी राज चलाने वाली सत्ता पर कोई यदि तथ्यात्मक रूप से आरोप लगाता है तो पुलिस, राज सत्ता और उसकी मशीनरी की साख धूमिल होती है। यह इस नाटक का वैशिष्ट्य है कि इसमें एक जिले के भीतर चलने वाली तत्कालीन गतिविधि का रोजनामचा है। इसमें पुलिस की ज्यादती और उसकी बर्बरता के दृष्टांत हैं और नागरिकों पर निजाम की हत्या का दोष है। आर्थिक बदहाली के कारकों के जिम्मेदार वर्ग का उल्लेख है। यह, स्त्री-जाति की गरिमा के पक्ष में लड़ा गया एक नया पाठ है। इस नाटक में युद्ध के लिए वास्तविक उत्तरदायी तीन मूर्तियों में रजाकार, पुलिस और स्थानीय जमींदार वर्ग को लिप्त माना गया है। ये आधार इतिहास द्वारा प्रमाणित हुए हैं।
सबसे बड़ा कारण जनता का 15 अगस्त को तिरंगा फहराने और देश से जुड़ने का रहा है। वामपन्थी विचारधारा को अस्वीकार करना भी इस संघर्ष के मूल में है। यह पाठ विविध धर्मों, जातियों और वर्गों के मध्य बनते नये समीकरणों के जन-आन्दोलन की बानगी भी है। इसके हिंदी अनुवादक डॉ. वी. कृष्ण ने लिखा है कि – “‘मा भूमि’ नाटक में तेलंगाना की जनता के संघर्षपूर्ण जीवन का यथार्थ चित्रण हुआ है। हिन्दू-मुस्लिम एकता, जन-आन्दोलन में नारी वर्ग का आगे आना तथा सामान्य एवं दलित जनता को सक्षम जीवन निर्माण के लिये संघर्ष में कूद पड़ना न केवल ‘मा भूमि’ की विशिष्टता को रेखांकित करता है, बल्कि आज के वैश्वीकरण के दौर में जन आन्दोलन को पुख्ता करने की आवश्यकता पर भी बल देता है। दरअसल, ‘मा भूमि’ एक कालजयी कृति है।”
इस नाटक के ‘बन्दगी की समाधि’ से जुड़े गीत ने तेलंगाना की जनता को आंदोलित किया था। जैसे – “क्रांति की मशाल जलाई तुमने/ तेलंगाना को भी जगाया तुमने/ घर-घर में बसे हो तुम/ जन-जन के रहे हो तुम/ हे भाई बन्दगी।| हे भाई।|” वीरा रेड्डी की ओजस्वी वाणी से निकला यह गीत प्रबोधन की शैली का है। इसमें उत्साह का भाव और लड़ाई के लिए आह्वान है – “...धधक रही है ज्वाला/ जागो-जागो नौजवानों/ जागीरदारों को ललकारो/ वारिस हो तुम रुद्रमाम्बा के/ वारिस हो तुम प्रतापरुद्र के/ बचाओ इज्जत दिखाओ पौरुष/ ये निजाम कौन है/ ये जागीरदार कौन है/ तेरी है ये धरती/ तेरी है ये खान।|जागो|| भूखे मरने वालों का धरम एक है/ घर उजाड़ने वालों की जमात एक है/ साजिश पहचानो ।|जागो|| जुटो सिपाहियों/ भगाओ दुश्मन/ दिखाओ ताकत/ यही वक्त है।|जागो||” इस नाटक में आर्थिक-संघर्ष की टकराहट जगन्नाथ रेड्डी, उसका समूह और बाकी गाँव की जनता की बायनरी/द्विपदी के मध्य देखे जा सकते हैं। लगान की रकम किसी भी तरह रैयत से ली जाती थी, जब उसने इसकी मुखालफत कर दी तो दोनों वर्गों के मध्य संघर्ष ने जन्म लिया। जैसे – वीरा रेड्डी, वेंकटराव से कहता है कि – “आप सौ एकड़ के जमींदार हैं। पहले आप लगान भरें।...क्या कहता है रे ! तेरी यह मजाल ?”
संघर्ष के मूल में अवाम का ‘भारतमाता की स्तुति’ करना भी रहा है। निजामशाही इसके लिए तैयार नहीं थी और जनता स्वाधीनता के पथ पर चलने लगी थी। जैसे – “ हे माता भारत माता/ हम दौड़ पड़े रणभूमि में/ हे भारत माता हे भारत माता।|हे माता।|” निजामशाही की करतूतों को सीता ने एक गीत में दर्शाया है, उसका सार है – सुनो-सुनो ऐ किसान भाइयो। जुल्मी निजाम का शासन है यह। यह निरंकुश पिशाच का शासन है। यह गरीबों के गले काटता है। कला-कौशल की कामधेनु है तेलंगाना हमारा। जहाँ लाचारी, भुखमरी की मारी सरकार हमारी। शैतान रूपी श्मशान-घाट है निजाम। इसके राज्य में मान–ईमान की प्रतीक प्यारी हमारी माँ-बहनों की अस्मत लूटी गयी है। उनको बंदी बनाया, नंगा घुमाया। ऐसी सरकार के जुल्म से मुक्ति के लिए चलो-चलो, सब बढ़े चलो। बदलाव में यकीन करने वाली जनता ने यह कार्य संगठन बनाकर किया। इसे ‘आन्ध्र महासभा’ नाम दिया गया। ‘शिशुहन्ता काल किरातक को और बर्बरता’ के खिलाफ एकजुटता को यहाँ दर्शाया गया है। आज़ादी को डंके की चोट पर पाना है। यल्लमंदा ‘ग्वाला गीत’ की पैरोडी में गाता है – “हरि हरि नारायण आदि नारायण / करुणाकर है कमल लोचक रक्षा करो हमारी / भेड़ों के गोत्र जानते हैं ग्वाला / भेड़ें जानती ग्वालों के / दोनों के गोत्र भेड़िये जाने/।|हरि|| जमीदारों के गोत्र जानते हैं जागीरदार/ जागीरदारों के गोत्र जानते हैं जमींदार/ दोनों के गोत्र जाने आन्ध्र महासभा/।|हरि|| महाजन के गोत्र जाने दारोगा/ दारोगा के गोत्र जाने महाजन/ दोनों के भेद ग्रामीण जाने /।|हरि।| निजाम के गोत्र जानते हैं कम्पनी वाले / कंपनी के गोत्र जानते हैं निजाम / दोनों के गोत्र जानते हैं संगठन वाले।” निर्धन, भूमिहीन और युवाओं से धरती प्राप्त करने का आह्वान इस नाटक के केंद्र है।
निष्कर्ष : ‘नील दर्पण’ और ‘मा भूमि’ दोनों नाटकों के केन्द्र में किसान और ग्रामीण जनता है। दोनों नाटकों ने अपने-अपने तरीके से प्रतिबन्ध की राजनीति का स्वाद चखा है। दोनों बांग्ला और तेलुगु भाषाओं के ऐतिहासिक नाटक हैं। ये सामाजिक दस्तावेज भी हैं। स्वराज की चेतना दोनों नाटकों के मूल में प्राथमिक-विमर्श के तौर पर देखी जा सकती है। आजादी की लड़ाई का शंखनाद देशी और विदेशी सत्ता के खिलाफ किसानों ने ही फूँका। दोनों नाटक राजनीतिक-अर्थतंत्र को बदलने की हिमायत करते हैं। इन नाटकों से स्वाधीनता की चेतना और सामाजिक-यथार्थ की नई भावभूमि को एक दिशा मिली। दोनों ट्रेजिक नाटक हैं। बांग्ला नाटक के अंग्रेजी अनूदित पाठ ने जहाँ प्रकाशन के 4 वर्ष के भीतर ही यूरोप की अधिकांश भाषाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज कर ली, वहीं हिंदी में इस नाटक के अभी तक 4 अनुवादों का होना निश्चित हुआ है। पहला 1900 के आस-पास (40 वर्ष बाद), फिर 1940 के दशक में इप्टा के सौजन्य से, तीसरा 1970 के आस-पास और चौथा 2006 में। स्वाधीनता, बराबरी, मानव और श्रम की गरिमा इन दोनों नाटकों का ध्येय है। मानवतावाद से लेकर मार्क्सवाद की वैचारिकी इनकी नाट्य-वस्तु के केंद्र में है। ये दोनों नाटक जन-आन्दोलन की कोख से उपजे जरूर हैं लेकिन इतिहास के आधार-ग्रन्थ हैं। हिंदी की भाषा, संस्कृति में नाट्य-साहित्य के अनुवाद की भूमिका की तलाश इसकी संभावना है। तेलुगु भाषा और साहित्य से नाटकों के कम अनुवाद हिंदी में होने को भी देखा जाना चाहिए। यही बात बांग्ला नाटकों के बारे में सत्य नहीं है। नया संदेश, विधाओं का चुनाव करता है। आधुनिकता के उदय के मूल में प्रेस की भूमिका ने पत्रकारिता और नाटक से सम्बन्ध जोड़ा। यह सम्बन्ध अनुवाद के सहारे आकार लेता है। इसलिए हम विश्व साहित्य और भारतीय साहित्य की संकल्पनाओं को जन्म दे सके। पाखण्ड को बेनक़ाब करना नाटक के मूल में है। दोहरे चरित्र की कलई खोलने वाली रचनाएँ हमारे अंतस से हमें रूबरू कराती हैं। नाट्य-लेखन, सामाजिक आन्दोलन और प्रतिरोध की राजनीति का नया पाठ भी सिरजता है। अत: अनूदित पाठ, समय की आवश्यकताओं में अपने नये अर्थों के सहारे प्रकट भी होते रहते हैं। अनूदित पाठ (प्राणवायु), बहुभाषिक समाज और दुनिया को जिंदा रखने वाली कसरतों का परिणाम है। नाटक का लेखन अपने में पूर्ण नहीं होता है। उसको मंचन, प्रकाशन, अनुवाद और प्रतिबन्ध के चरणों से भी गुजरना पड़ता है। यह सार्वजनिक दुनिया और लोक-वृत्तान्त के संघात से अपने को निष्पन्न करता है। यह दैनिक जीवन की हरकतों का कोलाज है। अनुवादकों का जन-आन्दोलनों से सम्बन्ध होने के कारण इनके अनुवाद में उनकी रूचि रही है। लेखन, सामाजिक-सांस्कृतिक कर्म के साथ जिंदा रहने का प्रमाण भी है। अत: नाटक इतिहास, समाज, अर्थ, धर्म, राजनीति, कला, संगीत, नृत्य, शिक्षा और संस्कृति की समग्रता को आत्मसात किये हुए रहता है। ये नाटक, फिल्म के क्षेत्र में भी लोकप्रिय रहे हैं। लोकप्रियता का सम्बन्ध राष्ट्रीय-संस्कृति से भी है। यह कोई सस्ती और वायवीय वस्तु नहीं है। यह सामाजिक सम्बन्धों में प्रकट होती है। भाषा, साहित्य और संगीत इसके पैमाने बनते हैं।
डॉ. भीम सिंह,
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, मानविकी संकाय, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद- 500046.
bhimsingh46@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
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