शोध आलेख : बंगाल-विभाजन और ‘कीचकवध’: प्रतिबंध और राजनीति / प्रकाश कृष्णा कोपार्डे

बंगाल-विभाजन और ‘कीचकवध’: प्रतिबंध और राजनीति
- प्रकाश कृष्णा कोपार्डे 

शोध सार : प्रस्तुत शोधलेख को कुल चार भागों में विभाजित किया गया है। पहले चरण में कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर का साहित्यिक परिचय और महत्त्व तथा उनके स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को रेखांकित  किया गया है।खाडिलकर का  ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ ‘केसरी’ और ‘नवाकाळ’ में किया लेखन, राजनीतिक चेतना और नरम दल की गतिविधियाँ आदि बिन्दुओं  के प्रकाश में उनके संघर्ष से भरे व्यक्तित्व को उद्घाटित किया गया है। दूसरे चरण में बंगाल-विभाजन की प्रक्रिया, विभाजन  की ब्रिटिशों द्वारा की गयी  राजनीति और कर्जन की भूमिकाओं पर संक्षेप में दृष्टि डालते हुए बंगाल-विभाजन से  स्वदेशी  और बहिष्कार को मिली चेतना पर विचार किया है। तीसरे चरण में ‘कीचकवध’ नाटक की विषयवस्तु, रूपकत्व, प्रतीकात्मकता का विश्लेषण किया है। प्रथम मंचन के कलाकार, नाटक मंडली, नाटक और मंचन को लेकर तथ्यात्मक विवेचन भी उसमें शामिल है। उसके बाद नाटक और ब्रिटिश इस बिंदु पर विश्लेषण करते हुए ब्रिटिश अफसर चिरोल, किनकैड के चार लेख, क्रांतिकारी गतिविधियाँ  और ‘कीचकवध’ का प्रभाव, ब्रिटिश अफसरों में ‘कीचकवध’ की विषयवस्तु को लेकर असहमति,  ब्रिटिशों का संताप, प्रशासन स्तर पर नाटक के प्रतिबन्ध को लेकर हुई कार्यवाइयाँ आदि पर विस्तार से विमर्श किया है। चौथे चरण में नाटक पर लगे प्रतिबन्ध हटाने को लेकर चली अर्जियाँ तथा कोर्ट मामले और समिति स्थापना से लेकर प्रतिबन्ध हटाने तक की प्रक्रिया तथा उसके बाद नाटक मंचन और जनता पर उसका क्या प्रभाव  रहा आदि का विवेचन किया गया  है। इस आधारभूत विवेचन में कालक्रमिक अध्ययन में ऐतिहासिक पद्धति और तुलनात्मक रूप से ‘कीचकवध’ और बंगाल-विभाजन की तुलना की  है। उसके बाद निष्कर्ष के रूप में बंगाल-विभाजन से ऊर्जा लेकर लिखा ‘कीचकवध’ नाटक और महाराष्ट्र की जनता तथा ब्रिटिश सरकार पर पड़े  प्रभावों को स्पष्ट किया  है। एक कृति किस प्रकार किसी सरकार की मानसिकता और नीतियों को प्रभावित करती  है इसका उत्तम उदहरण ‘कीचकवध’ नाटक है।     

बीज शब्द : बंगाल-विभाजन, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता सेनानी, गुलामी, प्रतिबन्ध, शोषण, क्रांतिकारी, स्वदेशी, बहिष्कार, आन्दोलन, नरम और गरम दल, राष्ट्रवाद, नाटक, रंगमंच, नाटक मंडली। 

मूल आलेख : कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर (23 नवम्बर 1872 – 26 अगस्त 1948)  मराठी भाषा के स्वतंत्रता पूर्व समय के लेखक, चिन्तक और पत्रकार के रूप में महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे। सांगली से लेकर नेपाल तक तथा भारत से लेकर यूरोप (प्रथम विश्वयुद्ध के कारण) तक के विषय लेखक और पत्रकार दोनों रूपों में वे देखते और लिखते रहे, सन 1886  में नारायण बापू कानिटकर जी के साथ पहली बार तिलक से मिले, उसके बाद सन 1897 में उन्होंने ‘राष्ट्रीय उत्सवों की आवश्यकता’ शीर्षक से  लेख ‘केसरी’ के लिए लिखा, जिसे बाळ गंगाधर तिलक ने ‘केसरी’ में सम्पादकीय लेख के रूप में प्रकाशित किया। आगे चलकर तिलक के आग्रह के  चलते वे  ‘केसरी’ के साथ जुड़े। तिलक के साथी होने के कारण उन पर गरम दल अर्थात् क्रांतिकारी विचारों का वर्चस्व रहा। पत्रकारिता में उनके यहीं विचार ‘केसरी’ तथा ‘नवाकाळ’ के सम्पादकीय लेखों के माध्यम से हमारे सम्मुख आते हैं। ‘नवाकाळ’ उन्होंने स्वयं 1921 में शुरू किया था। कथनी और करनी दोनों में वे एक सफल चरित्र के रूप में सामने आते है। तिलक के देहांत के बाद वे गांधी विचारों के साथ अपने आप को जोड़ते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि खाडिलकर स्वतंत्रता आन्दोलन के सक्रिय  कार्यकर्त्ता एवं वैचारिक आन्दोलन के अग्रणी सिपाही थे। 

मराठी भाषा और रंगमंच की दृष्टि से इनका कार्य महनीय है। मराठी रंगमंच पर ‘संगीत नाटक’ की परम्परा को स्थापित और समृद्ध करने में इनकी भूमिका अनन्य रही है। ‘सवाई माधवराव की मृत्यु’ इस नाटक से उन्होंने लेखन का आरम्भ किया। संगीत और गद्य नाटक दोनों प्रकारों में उन्होंने लेखन किया। उनका ‘कीचकवध’नाटक जो सन 1907 में खेला गया और प्रकाशित हुआ; जिसपर ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबन्ध लगाया, वह मराठी रंगमंच और भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की श्रेष्ठ उपलब्धियों में से एक है।

    ‘केसरी’ के माध्यम से खाडिलकर ब्रिटिश सरकार की नीतियों पर प्रहार करते थे। सन 1897 का प्लेग संक्रमण और ब्रिटिश अफसरों का जनता पर किया अत्याचार, उनके द्वारा होता स्त्रियों का शोषण आदि पर उन्होंने तीन लेख लिखे थे, अर्थात् वे अंग्रेजों पर वार करने का कोई अवसर गंवाते नहीं थे। सन 1902 से सन 1905 के बीच खपरेल के कारखाने के बहाने वे  नेपाल गए और वहाँ उन्होंने शस्त्र निर्माण का कारखाना लगाया। वे एकप्रकार से आजादी की गतिविधियों में पूर्ण रूप से संलिप्त थे, इसी कारण ब्रिटिश सरकार की नजर भी उनपर बराबर रही। बावजूद इसके वे सरकार के खिलाफ लिखते रहे। उनके इन उपक्रमों के कारण वे एक राष्ट्रीय छवि के रूप में उभरे। 19 सितम्बर 1936 के ‘कर्मवीर’ के वैशंपायन जी पर केन्द्रित संस्मरण में हिंदी के प्रसिद्ध कवि माखनलाल चतुर्वेदी खाडिलकर जी के महत्त्व को यों रेखांकित करते है-  “पिछले यूरोपियन महायुद्ध में, वैशंपायन घटनाओं को इस खूबी से अध्ययन करते की उस ज़माने के पत्रों में उनकी लेख माला निकलती। उन  दिनों वे विद्वतर कृष्णाजी, प्रभाकर खाडिलकर की लेखनी के, विदेशी राजनीति लेखन के उपासक थे।”1 यहाँ माखनलाल चतुर्वेदी और वैशंपायन जी के बीच जो संवाद हुआ है, जिसका सन्दर्भ देते हुए माखनलाल खाडिलकर जी को याद करते हैं। उनके यूरोपियन महायुद्ध और विदेश राजनीति की समझ के कायल वैशंपायन थे, यह अपने आप में सिद्ध करता है कि खाडिलकर जी ने जो लेख प्रथम विश्वयुद्ध को लेकर लिखे थे, वे भारतीयों के लिए कितने महत्त्वपूर्ण थे, जिनका प्रभाव भारत भर के विचारकों और स्वतंत्रता सेनानियों के चिंतन में  था। उनके प्रथम विश्वयुद्ध पर लिखे लेख जो आगे चलकर पांच खंडो में प्रकाशित हुए। वे हम सब के लिए एक  धरोहर हैं।   

लोकमान्य तिलक पर जिन आठ लेखों के कारण राजद्रोह का अभियोग चला था और जिसकी परिणति के रूप में वे मांडले की जेल में डाले गए। उन आठ लेखों में पांच लेख खाडिलकर जी ने लिखे थे, वे इसप्रकार हैं- 1. ‘दुहरा इशारा’, 2. ‘बम के गोले का वास्तविक अभिप्राय’, 3. ‘बम के गोले का महत्त्व’, 4. ‘ये उपाय स्थायी नहीं’, 5. ‘पत्रकार की स्फुट सूचनाएं’। इस प्रकार हम देखते हैं की खाडिलकर के विचार किस हद तक क्रांतिकारी थे और उनका ब्रिटिश सरकार पर क्या परिणाम हो रहा था। उन्होंने सन 1908 से 1910 तक ‘केसरी’ का पूर्ण भार अपने कंधे पर लिया था। ठीक इसी प्रकार उनको भी राजद्रोह का सामना करना पड़ा। सन 1929 में उन्हें एक वर्ष  जेल  की सजा हुई। उन पर ‘नवाकाळ’ में लिखे इन लेखों के कारण राजद्रोह का अभियोग चला- 1.  सन 1921 में नासिक में संपन्न कीर्तन सम्मेलन का अध्यक्षीय भाषण, 2. 4 जून 1927 में गंधर्व नाटक मंडली, पूना में संपन्न सम्मेलन का अध्यक्षीय भाषण, 3.‘नवाकाळ’ में सन 1927 में हिन्दू- मुस्लिम विवाद पर प्रकाशित लेख, 4. ‘मुंबई दंगे और बोल्शेविक बिल’ (‘नवाकाळ’- 9 फरवरी, 1929), आदि। कुल मिलाकर उनके कार्य और लेखन से यह स्पष्ट होता है कि वे एक प्रखर राष्ट्रवादी एवं गंभीर चिन्तक थे। जिन्होंने साहित्यिक लेखन, पत्रकारिता और क्रांतिकारी गतिविधियों में अपना योगदान देकर भारत की सेवा की। 

    लार्ड कर्जन (1899-1906) भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया, तब बंगाल और महाराष्ट्र भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के केंद्र थे। बंगाल का आन्दोलन वैचारिक और क्रांतिकारक दोनों रूपों में ब्रिटिश सरकार के लिए एक चुनौती बना था। इसीलिए बंगाल को लेकर खासी चिंता ब्रिटिश अफसरों में थी; जिसके परिणाम के रूप में सन 1903 से ही विभाजन को लेकर अफसरों में चर्चा होने लगी।  इसी कारण बंगाल में स्वदेशी आन्दोलन तेज हो जाता है।  सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, अरविंदो घोष, विपिनचन्द्र पाल, वी. ओ. चिदम्बरम पिल्लई आदिओं ने प्रशासन के खिलाफ  मोर्चा खोला। फिर भी कर्जन ने 16 अक्तूबर 1905 को बंगाल-विभाजन की प्रक्रिया आरम्भ की और बंगाल को पूर्वी बंगाल तथा पश्चिमी बंगाल के रूप में विभक्त किया। इसके विरोध में भारत भर में जनचेतना से युक्त आन्दोलन हुए। साथ ही बंगाल में हिन्दू- मुस्लिम एकता हेतु ‘राखी बंधन’ से लेकर स्वदेशी और बहिष्कार जैसे आन्दोलन धारदार बने।  बंगाल-विभाजन के परिणाम को लेकर डॉ. सजीव लिखते हैं - “कर्जन ने बंगाल-विभाजन के द्वारा भारतीय राष्ट्रीयता को कुचलने का प्रयास किया था पर वह और ज्यादा बंधा ही। कर्जन की इच्छा थी कि ब्रिटिश साम्राज्य सुरक्षित हो और उसे स्थायित्व मिले पर बंगाल-विभाजन और अपनी प्रतिक्रियावादी नीतियों के द्वारा उसने ब्रिटिश साम्राज्य का कब्र स्वयं ही तैयार कर दी। यह बंग-भंग योजना अगली पीढ़ी के लिए वरदान साबित हुई। भारतवासियों में एक नए उत्साह का संचार हुआ। बंगाल का विभाजन (Partition of Bengal) कर्जन की एक बड़ी भूल साबित हुई, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य को लाभ पहुँचाने की जगह हानि ही पहुँचाई।” 2  जो तर्क ब्रिटिश प्रशासन विभाजन को लेकर  भारतीय जनता में फ़ैला रहा  था, उसके उलटे भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को जैसे विभाजन ने नवीन ऊर्जा भर दी। महाराष्ट्र में विभाजन पर जनता में असंतोष निर्माण करने की जिम्मेदारी तिलक पर थी और उनके साथी के रूप में खाडिलकर जी ने बंगाल-विभाजन को लेकर कर्जन की नीतियों  की आलोचना करते हुए सन 1907 ‘कीचकवध’ नाम का रूपक प्रधान नाटक लिखा, जिसका  महाराष्ट्र में खूब मंचन हुआ और इस नाटक ने  जनता में कर्जन तथा ब्रिटिश सरकार के प्रति नफरत भी पैदा की। इस प्रकार हम देखते हैं कि बंगाल विभाजन ने आजादी के आन्दोलन को गतिशील बनाया, वहीं भारतीय लेखकों ने भी उसमें अपनी और से समिधा के रूप में रचनाएँ तथा लेखों को लिखा।
कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर के ‘कीचकवध’ इस नाटक ने मराठी रंगभूमि और आजादी के आन्दोलन में महती भूमिका निभायी है। प्रो. अरविन्द गणाचारी की मान्यता है कि खाडिलकर जी ने यह नाटक सन 1906 में ही लिखा था। उसके प्रकाशन के पूर्व ही उसे खेला गया। यह मराठी रंगमंच की विशेषता रही है कि पुस्तक रूप में प्रकाशन के पूर्व ही उनका मंचन होता है। ‘कीचकवध’ नाटक लिखा एक वर्ष पूर्व किन्तु वह 23 फरवरी,1907 को पूना में ‘महाराष्ट्र नाटक मंडली’ द्वारा खेला गया।  पुस्तकाकार रूप में वह सन 1907 में प्रकाशित हुआ। स्वयं कृष्णाजी खाडिलकर ने प्रथम प्रकाशन को लेकर नाटक के दूसरे संस्करण की भूमिका में  लिखा है,  “ यह नाटक पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होने से पूर्व ‘महाराष्ट्र नाटक मंडली’ ने मंचन के रूप में प्रेक्षकों के सामने प्रस्तुत करने के कारण, मेरे कई मित्रों ने व्यक्तिगत रूप से अथवा आलोचकों ने मुझे कई उपयुक्त सुझाव दिए। यह एक अवसर था। इन   सुझावों में से अनेक सुझावों का लाभ मुझे हुआ। साथ ही तत्कालीन स्थितियों में नाटक लिखित रूप में छपने से पूर्व इस नाटक का मंचन मैंने खुद भी देखा, जिस कारण नाटक की कई खामियाँ दूर होने में सहायता मिली।” 3 अर्थात नाटक की मूल संहिता में मंचन के बाद लेखक ने परिवर्तन किए, लेकिन उनको लेकर लेखक ने नाटक की भूमिका अथवा किसी लेख में कोई उल्लेख नहीं किया है। 

    इस नाटक ने अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति के प्रति एक रचनात्मक प्रतिरोध को स्थापित करने में अपनी भूमिका निभायी। कीचक को कर्जन के रूप में देखकर जनता इस नाटक को पसंद कर रही थी। वहीं शासक की मानसिकता और एकाधिकार का उन्माद कीचक के रूपक में स्पष्ट दिखता है।  शंकर नारायण सहस्त्रबुद्धे ने उस नाटक की लोकप्रियता और नाटक में काम करते कलाकारों को लेकर दी टिप्पणी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है- “इस नाटक को कर्जनशाही का स्वाद होने के कारण 19/ 07/ 1908  के साल उस समय की परिस्थितियों के अनुसार इस नाटक पर लोग कूद पड़ते थे। यह कइयों  की मान्यता थी और उस समय के मंचन की लोकप्रियता का श्रेय उस समय के ‘महाराष्ट्र नाटक मंडल’ के स्व. भागवत, श्री टिपनिस बंधू, त्रम्बकराव प्रधान, कारखानीस, भट आदि अभिनेताओं के मंचन- कौशल को देना एकदम विपरीत था। ऐसा कहना किसी को भी निश्चित ही  गलत नहीं लगा होगा। आज भी नहीं कह सकते।।।”4  इस नाटक की विषय-वस्तु, ‘महाराष्ट्र नाटक मंडली’ और उनके कलाकारों ने अपनी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग करके उसे जनता में फ़ैलाने का कार्य किया। स्व. भागवत जिन्होंने कीचक की भूमिका निभाई थी, वह मराठी रंगमंच के लिए एक मील का पत्थर साबित हुए। इस नाटक ने वर्ष 1907 से लेकर सन 1910 तक राष्ट्रीय  चेतना को प्रवाहित करने तथा उसके तेज को प्रखर करने में श्रेष्ठ भागीदारी निभाई थी।

    मराठी के समीक्षक वा. ल. कुलकर्णी इस नाटक को एक आदर्श ‘विचार नाटक’ मानते हैं।  नाटक के सफल मंचन के बीच ही नाशिक में 21 दिसम्बर 1909 को विजयानंद थियेटर में अंग्रेज अफसर जैक्सन की हत्या हो जाती है। और यह वहीं समय था, जब भारत में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बम विस्फोटों की एक शृंखला गतिशील थी। जिसका आरम्भ 30 अप्रैल, 1908 मुजफ्फरपुर में बम विस्फोट करके खुदीराम बोस ने किया था। अतः ‘कीचकवध’ ब्रिटिशों के निशाने पर आया।  “चार्ल्स किनकैड और अन्य साथियों ने इस नाटक को प्रतिबंधित करने की मांग उठायी थी। प्रतिबन्ध लगाना अनिवार्य बन जाय, हेतु लन्दन के ‘टाइम्स’ में और मुंबई से प्रकाशित होते ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में ‘राजद्रोह का प्रचार करनेवाला दक्षिण- क्षेत्र का नाटक’ इस प्रकार की आलोचना करते लेख भी प्रकाशित हुए थें।”5 किनकैड को मराठा इतिहासकार के रूप में जाना जाता है, इसलिये उनके लेखन को लन्दन में बैठे लोगो ने गंभीरता से लिया। जिसके परिणाम के रूप में ‘कीचकवध’ पर ब्रिटिश अफसरों में मंथन होने लगा।  जिसकी निष्पत्ति  के रूप में 27  जनवरी, 1910 को यह नाटक प्रतिबंधित हुआ। नाटक के सारे अधिकार ‘महाराष्ट्र नाटक मंडली’ को प्रदान किये गए थे और नाटक प्रतिबंधित हो गया जिसकारण मंडली को आर्थिक नुकसान का सामना भी करना पड़ा। 

    अपने समाचार पत्र ‘नवाकाळ’ में कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर ने ‘कीचकवध’ को पुन: ब्रिटिशों द्वारा मंचन की अनुमति देने के बाद मंचन को लेकर जो कार्य हुआ उस मंचन की जानकारी को लेकर 1 नवम्बर 1926 को एक लेख लिखा था। उसमें वे लिखते हैं- “और ‘कीचक’ की भूमिका में काम करनेवाले अभिनेता स्व. भागवत के समय की मंडली बिखर जाने के बाद भी पहले जैसा जोश और कुशलता से ‘कीचकवध’ रंगमंच पर आज उनकी सक्रिय आस्था और व्यवस्था से आने हेतु ‘महाराष्ट्र नाटक मंडली’ और मण्डली के मालिक देशपांडे और रादाते उनका जितना धन्यवाद माना जाए वह कम ही है।”6 प्रथम मंचन में कीचक  का अभिनय करनेवाले भागवत नागपुर में अपने घर आत्महत्या कर लेते हैं। उनके अभिनय ने इस नाटक को ऊँचे पायदान पर स्थापित किया था। भागवत ही ऐसे कलाकार थे, जिन्होंने कीचक के रूप में कर्जन को भारतीय मानस में प्रचारित किया था। यह नाटक प्रतिबन्ध के बाद श्री दत्तोपंत देशपांडे और नटवर्य दाते जी के प्रयासों से पुन: शुरू तो हुआ; किन्तु संदर्भ और आजादी के आन्दोलन का वैचारिक पक्ष अलग हो जाने से नाटक को लेकर बाद में इतनी उत्सुकता जनता में नहीं दिखी। इसका एक और कारण भी है कि उस समय स्वतंत्रता समर का नेतृत्व गांधी कर रहे थे, जो नरम दल के प्रतिनिधि थे और नाटक जब लिखा गया था तब वह गरम दल की पक्षधरता का प्रतीक था। सन्दर्भ और स्थितियाँ बदलने से नाटक पर भी उसका परिणाम हुआ।

    इस प्रकार हम ‘कीचकवध’ नाटक के मंचन को प्रथम मंचन की लोकप्रियता, ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित होना और महाराष्ट्र नाटक मंडली के प्रयासों से पुन: मंचन,  लेकिन प्रभावहीन होना आदि स्तरों में देख सकते हैं। 

‘कीचकवध’ नाटक रूपकात्मक नाटक है, जिसमें कर्जन के उन्माद और शक्ति के अहम् का वर्णन कीचक के द्वारा प्रस्तुत हुआ है। रूपक प्रयोग के कारण यह नाटक तुरंत ब्रिटिशों की नज़रों में नहीं आया। या यों कहें की ब्रिटिश भारत में राष्ट्र–भाव या स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए इस प्रकार की शैली का निर्माण समय की मांग थी, जिस कारण लेखन में रूपकत्व डाला जाता था। महाभारत के ‘विराट पर्व’ से कथा के बीज लिए गये हैं, किन्तु सन्दर्भ समकालीन है। सुयोधन से कीचक को मिला महाराजा पद का सम्मान, उसको मिली लार्डशिप में निहित है। ‘कीचकवध’ कथा का व्यापार काफी सटीक और  उद्देश्यपूर्ण  है। नारायण कृष्ण शनवारे लिखते हैं, “बंगाल का विभाजन करने वाले दिल्ली में दरबार लगाकर भारत के राजा-महाराजाओं से झुक-झुककर सलाम करवाने वाले स्वयं को भारत का बादशाह समझने वाले, उस समय के उन्मत वायसराय लार्ड कर्जन को ही लोगों ने कीचक के रूप में देखा। प्रेक्षकों ने राजा विराट तथा रानी सुदेष्णा के रूप में इंग्लैंड के उदार मतवादी राजनीतिज्ञ देखें। धर्मराज के रूप में गैर जिम्मेदार नौकरशाह के साथ विनती, अर्ज जैसे कानूनी परन्तु प्रभावहीन मार्गों से लड़नेवाला नरम दल भी उन्हें दिखाई देता है। भीम उनकी दृष्टि में सशस्त्र आन्दोलन द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करनेवाला क्रांतिकारी पक्ष था और सैरेन्ध्री(द्रोपदी) थी असहाय, संकटग्रस्त भारतीय जनता।”7 सैरेन्ध्री की प्राप्ति की अभिलाषा और तड़प जो कीचक के मन में है, वह कर्जन की उन्मादी भावना और भारत पर अधिकार प्राप्ति की लालसा का परिचायक है। नरम दल के रूप में कंकभट की योजना करके खाडिलकर जी एक प्रकार से उनकी आलोचना  ही कर  रहे थे और साथ में नरम दल के रवैये से भारत को हो रहे नुकसान के प्रति भी जनता में आक्रोश पैदा कर रहे थे, यह  सैरेन्ध्री और वल्लभ के संवादों में स्थान- स्थान पर दिखायी देता है।  तो ‘कीचकवध’ महाराष्ट्र की जनता में सैरेन्ध्री (भारत की जनता) के विचारों को प्रवाहित कर रहा था। इसीलिए नाटक ब्रिटिश विद्वानों की नजर में आने लगा।
16 दिसंबर 1876 ‘The dramatic performances Act, 1876 (XIX of 1876)’ पहले से ही लागू किया था। जिसके तीसरे चैप्टर ‘power to prohibit certain dramatic performance’ में जनभावनाओं का प्रक्षोभ तथा ब्रिटिश सरकार के प्रति नकारात्मक भावनाओं का प्रचार- प्रसार करने वाले नाटकों पर रोक  तथा उनपर जुर्माना लगाने जैसे प्रावधान थे। जब पुन: एक बार समाचार पत्रों, पुस्तकों  तथा नाटकों को लेकर जब ब्रिटिश अफसरों में नई नीतियों की पहल होने लगी तब केसरी में एक लेख खाडिलकर  जी का छपा था, जिसमें वे लिखते हैं, “भाषण और प्रकाशन की स्वतंत्रता से राष्ट्रों का जन्म व पोषण होता है। इन दोनों की मदद से भारत राष्ट्र को बनाने का प्रयत्न होता देख इन्हीं पर प्रहार करने की अधिकारी वर्ग की अनेक दिनों से इच्छा थी, और बंगाल के बम्ब विस्फोट का लाभ उठाकर उन्होंने अपनी इस इच्छा की पूर्ति की है।”8 अफसरों की मनमानी, जनता का विद्रोह और नए- नए कानूनों के कारण तत्कालीन समय अनेक संभावनाओं को जन्म दे रहा था, जिसमें  बंगाल-विभाजन एक था। खाडिलकर जी की मान्यता रही की अंग्रेज भारत को कभी भी राष्ट्र के रूप में उभरना देने नहीं चाहते थे, इसीलिए वे भाषण और प्रकाशन पर पाबंदियाँ लगा रहे थे। बात इतनी स्पष्ट है की खाडिलकर एक जगह ‘कीचकवध’ लिखकर कर्जन जैसे व्यक्तित्व को भारत की सामान्य जनता को समझा रहे थे, वहीं दूसरी और वे अंग्रेजी नीतियों पर पत्रों में लिखकर अंग्रेजियत का भी पर्दाफाश कर रहे थे। 
नाटक में सैरेन्ध्री कंक और वल्लभ को यह समझाती है की इस ‘अज्ञातवास’ से ‘वनवास’ ही अच्छा था। अर्थात् द्रौपदी अज्ञातवास के कारण पहचान छुपाने तथा अपने ही देश में गुमनाम जीवन बिताने की विवशता को जाहिर कराती है। वनवास में वे अपने विचारों, व्यवहारों तथा क्षमताओं से परिचित थे और उनका प्रयोग करने में स्वतंत्र थे, लेकिन अज्ञातवास में वे इन सब से दूर एक अपमानित जीवन जी रहे थे। द्रौपदी का यह चिंतन तत्कालीन भारत की चिंता थी। या यों कहे द्रौपदी के माध्यम से खाडिलकर जी की  जनता को अपील थी की- हमें अज्ञातवास की कारा को तोड़ना है।  यह विचार जनचेतना का संवाहक था। 

    रत्नप्रभा और कीचक का एक संवाद इस समय जनता की जुबान पर हुआ करता था। जिसने भारतीय जनता की सोच को प्रभावित किया था। प्रसंग ऐसा है कि रत्नप्रभा ने कीचक से जब सैरेन्ध्री को अपनी नाट्यशाला में न ले जाने का वचन माँगा तब कीचक उसे कहता है- “हम शासक हैं। और सैरेन्ध्री हमारी पाली हुयी बिल्ली। इसलिये जो न्याय तुम्हारे लिए है, वह सैरेन्ध्री को कैसे लागू होगा। शासक शासक है और गुलाम गुलाम है; यह भेद हमेशा याद रखना चाहिए।” 9 कीचक की मानसिकता  और विचारधारा का परिचय इस संवाद से होता है। शासक जनता को किस नजर से देखता है, इस बात को कीचक के वाक्यों ने स्पष्ट किया और महाराष्ट्र में एक लहर पैदा हो गयी। बंगाल विभाजन के बाद तिलक पर महाराष्ट्र में ब्रिटिशों के खिलाफ असंतोष फ़ैलाने की जिम्मेदारी दी थी, उसे ‘कीचकवध’ नाटक अपने मंचन से पूर्ण कर रहा था।

    प्रो. अरविन्द गणाचारी  ‘कीचकवध’ नाटक के राष्ट्रीय महत्त्व को यों रेखांकित करते हैं, “1907-1909 के दौरान, ‘कीचकवध’ एक सफल नाटक रहा। गणेश उत्सव के दौरान कई स्थानों पर इसका मंचन किया गया था, और शौकिया नाटकीय कंपनियों के बीच सबसे लोकप्रिय था। कांग्रेस के सूरत अधिवेशन से लौटने के बाद तिलक, अरबिंदो घोष और लाला लाजपत राय के लिए इसका विशेष रूप से मंचन किया गया था।” 10  सूरत अधिवेशन अपने आप में काफी विवादास्पद रहा। गरम दल के नेता अलग से चल रहे थे। जिसमें तिलक, लाला लाजपत राय और विपिनचंद्र पाल की भूमिकाएं विशेष थी। नाटक गरम दल की नीतियों का समर्थक था, इसीलिए इसे देखने की अपनी एक अलग विशेषता रही।  लाला लाजपत राय (पंजाब) और अरबिंदो घोष( बंगाल) जैसे गैर-मराठी प्रदेशों के नेताओं ने भी इस नाटक को देखा, यह इस नाटक की महत्ता का परिचायक है। बंगाल  विभाजन और उसके बाद उत्पन्न स्थितियों में ‘कीचकवध’ वैचारिक प्रेरणा का कारक बना।

    ‘कीचकवध’ मंचन में चरम पर था, उधर स्वदेशी और बहिष्कार जैसे आंदोलनों के साधनों तथा बम  कांडों ने ब्रिटिश अफसरों तथा तंत्र को संकट में डाला था। बंगाल और महाराष्ट्र में मजबूती के साथ खड़ा आजादी का आन्दोलन अब इंग्लैंड की भूमि में भी लड़ा जा रहा था। इसलिए ब्रिटिश सरकार दमन-नीति का प्रयोग भारत भर में कर रही थी। भारतीय गतिविधियों को राजद्रोह और आतंक के रूप में परिभाषित किया जा रहा था। इन परिस्थितियों में ‘कीचकवध’ नाटक को भी संकटों का सामना करना पड़ा। सुनील सूबेदार इस सन्दर्भ में लिखते हैं, “दो साल के भीतर, जब लंदन में कर्जन विलिक मारा गया और जैक्सन की नासिक के एक थिएटर में गोली मारकर हत्या कर दी गई, ‘कीचकवध’  की राजद्रोह की संभावनाओं को आतंकवादी गतिविधियों के पुनरुद्धार के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था। सर वैलेंटाइन चिरोल ने ‘कीचकवध’ में अलंकारिक निहितार्थ का हर संभव विस्तार से विश्लेषण किया, इस बिंदु को घेरे में लाया कि ‘कीचकवध’ पौराणिक कथाओं से केवल एक दिवालिया और भद्दा चरित्र नहीं है। वह एक दर्शन वाला शासक है : लॉर्ड कर्जन का दर्शन।”11  वैलेंटाइन चिरोल ने कीचकवध का रूपकत्व और आलंकारिकता को पहचाना और कीचक कोई पौराणिक चरित्र नहीं; बल्कि वह लार्ड कर्जन है। चिरोल के कारण ब्रिटिश शासन ‘कीचकवध’ नाटक की विषयवस्तु  को लेकर सचेत और गंभीर हो गई। नासिक में हुई जैक्सन की हत्या के लिए कीचकवध को जिम्मेदार ठहराया गया और सन 1909 के बाद से इस नाटक को लेकर ब्रिटिश हुकूमत हरकत में आ गई। 

    सुनील सूबेदार सर वैलेंटाइन चिरोल को लेकर चर्चा करते हैं, वही प्रो. अरविन्द गणाचारी ‘कीचकवध’ नाटक को लेकर उनका चिंतन है कि इस नाटक को लेकर ब्रिटिश अफसरों में आम सहमति आरम्भिक समय में नहीं बन पा रही थी। उन्होंने ‘Encounter with the colonial state : the proscribed Marathi theatre as mass mobilize in the Indian nationalist discourse’ इस शोध निबंध में लिखा है, “इसकी सफलता ने सरकार को सतर्क बनाया। चूंकि नाटक में राजनीतिक गठजोड़ के संबंध में अधिकारियों के बीच परस्पर विरोधी राय थी, सरकार ने एफ.ए.एम.एच. विंसेंट, पुलिस उपायुक्त, बॉम्बे, को व्यक्तिगत रूप से प्रदर्शन देखने और रिपोर्ट करने के लिए भेजा। विन्सेंट को नाटक में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। इसके बाद न्यायिक विभाग के सचिव ने पुलिस ‘एब्सट्रैक्ट्स ऑफ इंटेलिजेंस’ के माध्यम से स्थानीय अधिकारियों को निर्देश जारी किए: "नाटक ‘कीचकवध’ पुलिस अभियोजन की मांग नहीं करता है और इसके बारे में आगे की रिपोर्ट को बंद किया जा सकता है।” इस निर्णय को जल्द ही उलट दिया गया था। जैसा कि सरकार को कोल्हापुर बम कांड के आरोपी दामू जोशी द्वारा किए गए खुलासे से पता चला है कि खाडिलकर के 1901 से 1905 तक नेपाल में हथियार निर्माण के लिए लंबे समय तक रहने के बारे में।”12 अर्थात् ‘कीचकवध’ की विषयवस्तु को लेकर जाँच करते ब्रिटिश अफसरों में अलग- अलग राय थी। इस कारण इस नाटक को मंचन का मौका अधिक मिला या कहें कि  खाडिलकर की नाट्य कुशलता ने नाटक को कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन बचाया। चिरोल को नाटक में आपत्तिजनक बहुत कुछ दिखा, वहीं  विंसेंट के लिए यह नाटक केवल पौराणिक अभिव्यक्ति थी। यह एक रोचक एवं नाटक के मंचन हेतु सकारात्मक घटना थी, क्योंकि इस विलम्ब ने नाटक को अपना स्पेस प्रदान किया था। 

    ‘कीचकवध’ नाटक बंगाल-विभाजन की अंग्रेज नीति की स्पष्ट आलोचना करता है। सत्ता का मद और अन्याय की भूमिकाएं कर्जन की बंगाल-विभाजन की नीति में झलकती है। प्रशासनिक कारणों की आड़ में हिन्दू–मुस्लिम भेद का निर्माण करके बंगाल के प्रखर आन्दोलन को कमजोर करना था। कंक इसी नीति पर नाटक में कटाक्ष डालता है। उसके माध्यम से बंगाल विभाजन और हिन्दू- मुस्लिम भेद की जो नीति अपनाई जा रही थी, उस पर कंक कहता है- “ राजनीति और धर्मनीति को हाथों में हाथ डाले चलना चाहिए। राजनीति धर्म को गारद न करे। इस बात को पुरुष राजनेता को याद दिलाने की जिम्मेवारी आपके जैसी महासाध्वी को ‘महारानी’ का सम्मान दिया जाता है।” 13 कंक का कथन वस्तुत: भारतीय नरम दल का विचार है। फिर भी भारतीय राजनीतिक सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में यह कथन नेता और राष्ट्र तथा राष्ट्र्संचालन और धर्म इन बिन्दुओं पर विमर्श करता है। साथ ही सुदेष्णा के रूप में ब्रिटन की महारानी के विवेक को जाग्रत करने का प्रयास भी है। कुल मिलाकर ‘कीचकवध’ का यह संवाद अंग्रेजों की अधर्मी प्रवृत्ति और नीतिगत नीचता को दर्शाकर कर्जन के नकारात्मक पक्ष को सामान्य जनता के सामने लाया था।   

    नाटक के मंचन को बंद करवाने का मसला अब ब्रिटिश कार्यालयों का विषय बना। उसी समय ब्रिटिश लेखक और ब्रिटिश सरकार के नुमांइदे  डेनिस किनकैड ने इस विषय में अपनी भूमिका अदा की। इनके कारण ‘कीचकवध’ नाटक संकट में आ गया। मराठी नाटकों की गंभीर अध्येता शांता गोखले ने  ‘Theatre censorship in Maharashtra’ शीर्षक से मुंबई  विश्विविद्यालय में एक व्याख्यान दिया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि  “ लेखक और ब्रिटिश सिविल सेवक डेनिस किनकैड को 1909 में क्रांतिकारी गतिविधियों में अचानक वृद्धि के बारे में लिखने के लिए कहा गया था। किनकैड ने लंदन ‘टाइम्स’ में चार लेख लिखे, जिनमें से एक शीर्षक ‘ए सेडियस प्ले ऑफ द डेक्कन, मराठी नाटक ‘कीचकवध’ की आलोचना था। जो  के. पी. खाडिलकर द्वारा लिखित था। नाटक को राजद्रोह के उदाहरण के रूप में उद्धृत किया गया था।” 14  किनकैड जैक्सन के मित्र थे, जिसकारण किनकैंड ने अधिक तेवर के साथ ‘कीचकवध’ पर लेख लिखे। डॉ. के. के. चौधरी ने अंग्रेजी में  ‘Maharashtra land and its people’ नाम से एक किताब लिखी जिसमें वे कहते हैं  कि किनकैड ने ‘कीचकवध’ नाटक के मंचन को स्वयं देखा था। जब कीचक द्रोपदी को पाने हेतु उन्मत्त है, इस दृश्य को देखकर दर्शक स्त्रियाँ आंसू बहाती है। इन दृश्यों को उसने देखा था, इसीलिए वह नाटक के राजद्रोह को लेकर निश्चित था और उसने अपने लेखों में उन सारी परिस्थितियों के हवाले से उसपर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की। 

    किनकैड भारत का जानकार था और खासकर वह महाराष्ट्र की राजनीतिक, सामाजिक और चेतनागत संस्कृति और इतिहास से परिचित था। मराठा इतिहास और छत्रपति शिवाजी महाराज पर उसने ग्रन्थ लेखन भी किया था। कुलमिलाकर किनकैड उचित रूप से महाराष्ट्र का ब्रिटिश अध्येता होने के कारण उसके निष्कर्षों में एक वजन था। प्रो. अरविन्द गणाचारी उसके ‘कीचकवध’ नाटक के प्रतिबंध हेतु लिखे लेखों के बारे में लिखते हैं, “भारत सरकार ने ब्रिटिश सरकार के सचिव और मराठा काल के इतिहासकार चार्ल्स किनकैड की सेवाओं की मांग की। जो एफ. एल. पर लंदन में थे   ‘टाइम्स ऑफ लंदन’ के वैलेंटाइन चिरोन की भूमिका के माध्यम से, किनकैड ने टाइम्स में चार लेख लिखे [18 जनवरी 1910] संसद के सदस्यों के बीच एक अनुकूल राय बनाने के लिए और गृह सरकार को एक कड़े अधिनियम की तात्कालिकता के बारे में प्रभावी कानून करने के लिए व्यवस्थित किया गया था। वे थे: 1] 'द चितपावन्स ऑफ चिपलून', 2] द सेडिशियस डेक्कन प्रेस, 3] कीचकवध, और 4] प्राचीन भारत के राजनीतिक सिद्धांत। इन लेखों ने न केवल 1910 के भारतीय प्रेस अधिनियम के पारित होने में तेजी लाई, बल्कि तुरंत सरकार का ध्यान ‘कीचकवध’ पर प्रतिबंध लगाने की ओर आकर्षित किया। इन लेखों को क्रमशः 5 और 7 फरवरी 1910  को ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ और ‘बॉम्बे गजट’ में पुन: प्रकाशित किया गया था। 14 जनवरी 1910 को प्रतिबंध के लिए कार्यवाही की गई और 27 जनवरी को आधिकारिक तौर पर ‘कीचकवध’ नाटक पर प्रतिबंध लगा दिया गया।”15  वैलेंटाइन चिरोन ने भी इसप्रकार के प्रयास पहले किये थे, लेकिन उन्हें यश प्राप्त नहीं हुआ था। इस कार्य को किनकैड के माध्यम से पूर्ण किया। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के संदर्भों से युक्त इन लेखों पर ब्रिटिश अफसरों में चर्चा  हुई और फिर ‘कीचकवध’ नाटक के साथ- साथ ब्रिटिश भारत के लिए एक नया कानून आने की पहल होने लगी। तत्कालीन पूना प्रान्त के आयुक्त डब्लू.  टी. मोरिसन ने एक प्रस्ताव बनाया और सन 1910 में  ‘द इंडियन प्रेस एक्ट 1910’ का जन्म हुआ।

    ‘द इंडियन प्रेस एक्ट 1910’ के अनुच्छेद 12(1) के अनुसार ‘कीचकवध’ नाटक के मंचन को प्रतिबंधित किया गया। इसी के साथ नाटक की प्रकाशित कृतियों को भी जब्त करवाया गया। इस एक्ट के अनुच्छेद 12(1) को देखें- “12. (I) Where any newspaper, book or other 'power to document wherever printed appears to the Local Government to- contain any words, signs or visible representations of the nature described in section 4, sub-section (1),। The Local Government may, by notification।in the local official Gazette, stating the grounds of its opinion, -declare u c h newspaper, book or other document to be forfeited to. Hi. Is:. Majesty, and there upon any police-officer may seize the same wherever, found, and any Magistrate may by warrant authorize any police-officer not below the rank of sub-Inspector to enter upon and search for the same -in any premises where the news paper, Book or other- document may be or may be reasonably suspected to be।” 16 इस धारा के अनुसार मंचन और पुस्तक दोनों रोके गए। इस कारण महाराष्ट्र  नाटक मंडली को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा; क्योंकि नाटक मंचन के सारे अधिकार मंडली को बेचे गए थे। इस कानून ने स्थानीय प्रशासन को प्रतिबन्ध के अधिकार प्रदान किये थे, इस कारण ब्रिटिश भारत में अनेक लेखकों को बड़े आर्थिक जुर्माने  देने पड़े और मानसिक तनावों से भी गुजरना पड़ा। खाडिलकर जी ‘कीचकवध’ नाटक के कारण ब्रिटिश प्रशासन की नजर में आये, वे आगे चलकर सन 1929 में राजद्रोह में एक वर्ष तक जेल भेजे गए। उनकी इस जेल यात्रा में ‘कीचकवध’ नाटक तथा ‘केसरी’,  ‘नवाकाळ’ के लेख आदि की भूमिका  रही। 

    ‘कीचकवध’ के साथ-साथ मामा वरेरकर के नाटक तथा खाडिलकर जी का ही एक अन्य नाटक ‘भाऊबन्दकी’ (बिरादरी) नामक नाटक भी ब्रिटिशों के निशाने पर था, लेकिन ‘भाऊबन्दकी’ का विषय सूरत अधिवेशन में हुई कांग्रेस की फूट था, इसलिए वह बच गया। 

    ‘कीचकवध’ नाटक में कर्जन और बंगाल-विभाजन इस विषय के साथ ही भारतीय राजनीति के दृश्य भी देखने को मिलते हैं।  विराट और सुदेष्णा के रूप में ब्रिटिश राजपरिवारों की भूमिकाएं दर्शायी गयी  हैं। भीम/ वल्लभ के रूप में नरम दल के विचार, युधिष्ठिर / कंक के रूप में फिरोजशाह मेहता और गोपालकृष्ण गोखले को वैचारिक रूप से प्रस्तुत किया गया है। द्रौपदी/ सैरेन्ध्री के माध्यम से भारत या भारतीय जनता की भावनाओं का उद्घाटन हुआ है। सुयोधन द्वारा कीचक को प्रदत्त युधिष्ठिर का ‘राज-छत्र’ और ‘महाराज’ पद  कर्जन को मिले अनिर्बंध अधिकार और लार्ड पद को परिभाषित करता है। चीवरधारी दासियों की ‘द्रोपदीपति की जय’ की जयजयकार भारतीय नौकरशाह प्रवृत्ति को दर्शाती है। कर्जन किस प्रकार भारत का शोषण कर रहा है, उसका चित्र समस्त जनता के सामने सैरेन्ध्री रखकर देश को बचाने की गुहार देशवासियों से करती है। जनता के रूप में नाटक के अनेक स्थलों पर सैरेन्ध्री के वचन एक प्रकार से भारतीय मानस को ही उद्घाटित करते हैं। सैरेन्ध्री का एक कथन दृष्टव्य है- “महाराज ! इस कीचक का उन्माद देखने के बाद, ऐसा लगता है,  विश्व में ईश्वर के अस्तित्व की कल्पना पृथ्वी पर अपनी धुन में डोल रही है। ईश्वर को अपमानित करनेवाले इस पापी के प्रदर्शन का भड़का देखकर साधू-संतो को जंगल-पहाड़ों में छुपना पड़ा होगा, यह मुझे प्रतिभासित होता है।”17 कीचक का द्रोपदी मोह ही उसके वध का कारण बन जाता है और भीम कीचक का वध कर देता है। भीम के हाथों कीचक का वध दिखाकर खाडिलकर गरम दल के विचारों से ही देश को आजादी मिलेगी ऐसा अप्रत्यक्ष रूप से कह रहें हैं। वही कीचक का वध ही  देश की मुक्ति का उपाय है, यह भी संकेतित  है। 

    ‘कीचकवध’ पर लगे प्रतिबन्ध को हटाने के लिए क़ानूनी पहल करने की मांग खाडिलकर जी के पास बहुतों ने रखी, लेकिन उन्होंने उसपर कोई कार्य नहीं किया। इस बात को लेकर ‘महाराष्ट्र नाटक मंडली’ के देशपांडे और दाते इन महानुभावों ने प्रयास किये। मुंबई कोर्ट के आवेदन किये गए। अर्जी पर विचार करते हुए कोर्ट ने एक समिति गठित की, जिसके सामने महाराष्ट्र के अमरावती (वर्तमान विदर्भ प्रान्त का एक शहर) में समिति के लिए एक मंचन हुआ। समिति ने अपनी परीक्षण रिपोर्ट कोर्ट में दाखिल की और सन 1926 में इस नाटक पर लगा प्रतिबन्ध हटा। 

    लेकिन मंचन प्रतिबन्ध हटने के बाद ‘कीचकवध’ के मंचन असफल रहे; क्योंकि एक तो मंडली में उतने सशक्त कलाकर नहीं थे, जो उसके पूर्व हुए मंचनों की क्षमता तक उसे उठा पाये। दूसरा कारण  यह था की कीचक और कर्जन काफी प्रासंगिक थे, जो बदले परिवेश के लिए अनुकूल नहीं थे। गांधी युग में भीम या कहे गरम दल का समर्थन करता नाटक असंगत प्रतीत होने लगा। इस कारण नाटक के प्रति जनता का मन उचट गया और नाटक बंदिशों  के हटने बाद भी कोई चमत्कार नहीं कर पाया। 

निष्कर्ष : कृष्णाजी खाडिलकर एक सफल नाटककार, पत्रकार और विचारक थे। उनके लेखन ने  तत्कालीन ब्रिटिश भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन में ऊर्जा भरने का कार्य किया। महाराष्ट्र में ‘केसरी’ और नवाकाळ’ के लेख आन्दोलन की प्रेरणा थे। वहीं प्रथम विश्वयुद्ध को लेकर उनका लेखन विदेश नीति के विशेषज्ञ के रूप में उन्हें स्थापित करने हेतु पर्याप्त है। उनका ‘कीचकवध’ नाटक एक ऐसी रूपकात्मक अभिव्यक्ति है, जिसने महाराष्ट्र की जनता में असंतोष भर दिया था। तिलक के साथी होने  के कारण उन पर भी ‘असंतोष’ का संस्कार हुआ था,जिसे ‘कीचकवध’ में खाडिलकर सटीक बोते दिखाई देते हैं। 

‘कीचकवध’ के माध्यम से कर्जन की नीति, उन्माद और शासक की मानसिकता को दर्शकों के सम्मुख रखकर जनता में विद्रोह का भाव जगाना नाटक का उद्देश्य था, जिसे नाटक ने निभाया। जैक्सन की हत्या,  कोल्हापुर में दामू जोशी का बम कांड, पूना का जनता विद्रोह इस बात को प्रमाणित करते हैं कि  ‘कीचकवध’ नई भूमि को स्थापित करने में सफल रहा। इसी कारण वेलेंटाइन चिरोल किनकैड को कहकर ‘कीचकवध’, तिलक और भारतीय राजनीतिक सिद्धांत पर लेख लिखवाते हैं। इन लेखों  को ‘कीचकवध’ को प्रतिबंधित कराने के लिए लिखा था,  लेकिन  भारत में ‘Indian press Act 1910’ को लागू कराने में भी किनकैंड के लेखों ने विशेष भूमिका निभायी।

रूपकत्व के कारण यह नाटक ब्रिटिशों को ठीक से समझ में नहीं आया था। यह खाडिलकर की विशेषता थी। विंसेट जैसे पुलिस अफसर को भी जांच की रिपोर्ट नकारात्मक भेजनी पड़ी। एक प्रकार से यह नाटक की खूबी ही रही। लेकिन किनकैंड  मराठी भाषा, साहित्य, संस्कृति और इतिहास का गंभीर अध्येता होने के कारण नाटक की मूल संवेदना को उसने पकड़ा और नाटक के प्रतिबन्ध में ब्रिटिशों को आसानी हुई। नाटक में द्रौपदी के माध्यम से स्त्रियों को भी आन्दोलन में सहभागी होने की प्रेरणा मिली थी, किनकैड  ने अपने लेखों में उसका उल्लेख किया था। नाटक में केवल कर्जन की बंगाल-विभाजन की नीतियों की ही आलोचना की गयी है ऐसा नहीं; बल्कि वह  तत्कालीन भारतीय राजनीति  पर भी प्रतीकात्मक रूप से कटाक्ष डालता है। कांग्रेस के नरम और गरम दल को कंक और वल्लभ के संवादों में आप देख सकते हैं। वहीं सैरेन्ध्री का कंक पर सात्विक गुस्सा स्पष्ट करता है की भारतीय जनता में नरम दल के नेताओं  के प्रति एक असंतुष्ट भाव था।
कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि ‘कीचकवध’ नाटक कर्जन के साथ-साथ भारतीय राजनीति  की भी समीक्षा करके अपने युग सत्य को उद्घघाटित करता है। इसीलिए यह नाटक आजादी के आन्दोलन में अनन्य महत्त्व रखता है। वहीं किनकैड जैसा इतिहासकार जब लन्दन और भारत दोनों ही स्थानों से उनपर लेख लिखकर ब्रिटिशों को नाटक के प्रति सचेत करता है, यह घटना ही नाटक के महत्त्व को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है।  

संदर्भ :
  1. माखनलाल चतुर्वेदी रचनावली- 4,  पृष्ठ क्र. 174- 175 
  2. Dr. Sajiva June 29, 2017, https://www।sansarlochan।in/bengal-partition-hindi/
  3. कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर, कीचकवध, दत्तात्रय प्रिंटिंग प्रेस, गिरगांव, मुंबई वर्ष-1926 ‘द्वितीय संस्करण की ‘भूमिका से साभार’ 
  4. शंकर नारायण सहस्त्रबुद्धे, नाट्याचार्य खाडिलकर, नाट्य संशोधन मंडल, पुणे, 23  मई, 1935,  पृष्ठ क्र. 322 
  5. https://divyamarathi।bhaskar।com/news/MAG-natakkar-krishnaji-prabhakar-khadilkar-keechakvad-2749484।html
  6. कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर,  ‘नवाकाल’- 1-11- 1926
  7. नारायण शनवारे, भारतीय साहित्य के निर्माता कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 1984, पृष्ठ क्र. 42 
  8. कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर, ‘केसरी, ‘केसरी- सम्पादकीय,  ‘ये स्थायी उपाय नहीं’ 
  9. कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर, कीचकवध, दत्तात्रय प्रिंटिंग प्रेस, गिरगांव, मुंबई वर्ष-1926 पृष्ठ क्र. 4
  10.  Aravind Ganachari, Research article, 
  11. ‘ENCOUNTER WITH THE COLONIAL STATE: THE PROSCRIBEDMARATHI THEATRE AS MASS MOBILIZER IN THE INDIANNATIONALIST DISCOURSE, 1872-1916, page no. 28 https://www।academia।edu/44156640/Aravind_Ganachari_Censorship_Theatre?email_work_card=view-paper
  12. सुनील सूबेदार, खादिलकर : परिप्रेक्ष्य के लिए एक दलील (Khadilkar : A plea for perspective)  page no. 1  https://www।indianculture।gov।in/flipbook/10133
  13. Aravind Ganachari, Research article, 
  14. ‘ENCOUNTER WITH THE COLONIAL STATE: THE PROSCRIBEDMARATHI THEATRE AS MASS MOBILIZER IN THE INDIANNATIONALIST DISCOURSE, 1872-1916, page no. 28 https://www।academia।edu/44156640/Aravind_Ganachari_Censorship_Theatre?email_work_card=view-paper
  15. कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर, कीचकवध, दत्तात्रय प्रिंटिंग प्रेस, गिरगांव, मुंबई वर्ष-1926 पृष्ठ क्र. 36
  16. https://shantagokhale।com/articles/features
  17. Aravind Ganachari, Research article, 
  18. ‘ENCOUNTER WITH THE COLONIAL STATE: THE PROSCRIBEDMARATHI THEATRE AS MASS MOBILIZER IN THE INDIANNATIONALIST DISCOURSE, 1872-1916, page no। 29 https://www।academia।edu/44156640/Aravind_Ganachari_Censorship_Theatre?email_work_card=view-paper
  19. ACT NO। I OF 1910। Passed by the governor general of India in council    (Received the assent of the Governor General on the 9th February 1910।) page no. 7 
  20. कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर,  कीचकवध, दत्तात्रय प्रिंटिंग प्रेस, गिरगांव, मुंबई वर्ष-1926 पृष्ठ क्र. 72   

प्रकाश कृष्णा कोपार्डे 
सह प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय हैदराबाद
pkoparde@uohyd।ac।in   

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )


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