आलेख : बिहार के कवियों की ज़ब्तशुदा नज़्में / डॉ. मो. जाकिर हुसैन

बिहार के कवियों की ज़ब्तशुदा नज़्में 
- डॉ. मो. जाकिर हुसैन

स्वतंत्रता आंदोलन भारतीय इतिहास का एक ऐसा दौर है जिसमें दर्द, कटुता, संघर्ष और सबसे बढ़कर शहीदों का खून शामिल है। यह अटूट विश्वास और निरंतर प्रयास की ऐसी जीती जागती तस्वीर थी कि अगर एक लड़खड़ाता, तो दूसरा उसको सहारा देने के लिए मौजूद होता। इन वीरों ने अपने हाथों से आजादी का झंडा कभी गिरने नहीं दिया। आजादी के इस महान बलिदान में समाज के हर वर्ग ने अपने-अपने तरीके से कुर्बानी दी। स्वतंत्रता आंदोलन के उस दौर में अन्य वर्गों की तरह लेखकों और कवियों ने भी अंग्रेजों को भगाने में अपनी भूमिका बखूबी निभाई। क्रांतिकारियों से लेकर देश की आम जनता तक में कवियों ने अपनी शायरी से प्राण फूंक दिए। कवियों ने अपनी कविता के माध्यम से एक ऐसा जोशीला राग अलापा जिस से क्रांतिकारियों का उत्साह कभी ठंडा नहीं हो पाया। पूर्ण स्वतंत्रता की जोरदार और तीव्र मांग ने देशभक्ति पर आधारित कविता को विकसित किया। अंग्रेजों को जिस चीज ने सब से ज्यादा परेशान किया वह भारत के विभिन्न हिस्सों में स्वतंत्र रूप से उत्तेजक तहरीरों की गर्दिश थी। ब्रिटेन और अंग्रेजों के विरोध में दर्जन भर पब्लिशिंग हाउस भी खुल गए, जिससे अंग्रेज बेचैन हो गए। इन चुनौतियों का जवाब अंग्रेजों ने सेंसरशिप के माध्यम से दिया। एक विभाग को इसी कार्य के लिए तैनात कर दिया गया था जिस का काम यही था कि भारत की विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित लेखों की जांच करे और देशभक्ति आधारित लेखों को जल्द से जल्द जब्त कर ले और उसे जनता तक पहुंचने न दे। चुनांचे बड़े पैमाने पर इस तरह की तहरीरें जब्त की गईं, जिन में ज्यादातर नज्में थीं ।

    बिहार की भूमि शुरू से ही विदेशी शासकों की विरोधी रही है। मुगलों से लोहा लेने वाला शेरशाह सूरी बिहार का ही वीर सपूत था। उसने दो बार हुमायूँ को युद्ध में ऐसा पराजित किया  कि हुमायूँ खुद बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाने में कामयाब हो सका। 18वीं शताब्दी के मध्य में टिकारी के राजा सुंदर सिंह और प्रसिद्ध जमींदार मोईन खान ने मुगलों के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद किया। इसी तरह मुगलों के पतन के बाद विदेशी शासकों के रूप में जब अंग्रेजों ने इस देश पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहा तो मीर कासिम वह पहला योद्धा था जिसने अंग्रेजों को ललकारा। उसी वक्त से पटना विद्रोह का केंद्र रहा। 1781 में जब राजा चेत सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाया तो सहसराम के शासक रजा काली खान, टिकारी के राजा पीतांबर सिंह, कुटंब और सरैस के जमींदारों ने राजा चेत सिंह का साथ दिया था। सारण में फतेह सिंह ने अंग्रेजों का जीना हराम कर दिया था। 1798 में अवध के अपदस्थ नवाब वजीर अली ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की घोषणा की तो उस समय टिकारी के राजा मित्रजीत सिंह ने उनका साथ दिया। 1831 में छोटा नागपुर के आदिवासी कबीले कोल और 1855 में संथालों ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह 1857 तक जारी रहा। इससे सिद्ध होता है कि बिहार की भूमि ने कभी भी ब्रिटिश सरकार का वफादार बनना पसंद नहीं किया और बराबर आजादी की लड़ाई लड़ती रही और जब 1857 ने इस क्षेत्र का रुख किया तो यह इसके लिए पहले से ही तैयार बैठी थी। एक अस्सी (80) साल के बहादुर सपूत वीर कुंवर सिंह ने अंग्रेजों को इतना छकाया कि आज भी वह इसकी कड़वाहट महसूस करते हैं। पीर अली का यह कथन भी उन को हमेशा परेशान किए रखा कि "जीवन में ऐसे भी मौके आते हैं जिनमें जान बचा लेना सवाब का काम होता है। ऐसे भी अवसर आते हैं जिनमें प्यारी जान दे ही देना सबसे बड़ा सवाब माना जाता है। तुम मुझे फांसी दे सकते हो। मुझ जैसे और लोगों की भी जानें ले सकते हो। लेकिन इस धरती से हजारों आदमी तुम्हारे खिलाफ उठते रहेंगे और शांति से शासन करने का जो लक्ष्य तुम्हारे सामने है वह कभी पूरा न होगा।" पीर अली की यह बात शत-प्रतिशत सही साबित हुई और अंग्रेज 1857 का विद्रोह विफल होने के बाद भी चैन से सत्ता नहीं संभाल सका।

    बिहार में शुरू से ही अंग्रेज विरोधी माहौल बना हुआ था। यहां का हर वर्ग स्वतंत्रता आंदोलन में पहल करना अपने लिए गौरव की बात समझता था। यही भावना बिहार के लेखकों में भी देखने को मिलती है। भारत के अन्य प्रांतों की तरह यहां के लेखकों और कवियों ने भी अपने खूने जिगर से अंग्रेज -विरोधी साहित्य की रचना की। इस क्षेत्र में उर्दू और हिंदी दोनों भाषाओं के लेखकों और कवियों ने असाधारण साहस दिखाया। अब तक के शोध के अनुसार बिहार में लिखी जाने वाली पहली ग़ज़ल 1921 में ज़ब्त की गई जो ज़ब्त की गई कविताओं में सबसे लोकप्रिय है और जिसका पहला मिस्रा है: सर-फ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। सैयद शाह मुहम्मद हसन बिस्मिल अज़ीमाबादी ने बीस वर्ष की उम्र 1921 में इस ग़ज़ल की रचना की। बिस्मल अज़ीमाबादी का जन्म 1901 में और मृत्यु 2 जून 1978 को हुई। उस समय स्वर्गीय काजी अब्दुल गफ्फार दिल्ली से सबाह नाम से एक दैनिक समाचार पत्र निकाला करते थे। बिस्मिल अज़ीमाबादी ने यह ग़ज़ल स्वर्गीय काज़ी अब्दुल गफ्फार को भेजी दी। उन्होंने इसे 1921 के अंक में प्रकाशित कर दिया। अंग्रेज़ों ने इस ग़ज़ल की वजह से इस समाचार पत्र को ज़ब्त कर लिया। फिर 1922 में असरे जदीद, कोलकाता में प्रकाशित हुई। इस ग़ज़ल के अश्आर जितने लोगों की जबान पर चढ़े हुए हैं, उतने ही विवादास्पद हैं। सारा भ्रम उस वक्त पैदा हुआ जब 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में काकोरी डकैती के आरोप में राम प्रसाद बिस्मिल को फाँसी दी गई तो फाँसी पर चढ़ते समय उनकी जबान पर यही शेर था। जब यह घटना सार्वजनिक हुई तो लोग इस कविता के रचयिता राम प्रसाद बिस्मल को ही समझ बैठे। लेकिन जब 1957 में बिस्मल अज़ीमाबादी ने याराने मैकदा/ सैय्यद महमूद अली सबा में यह व्यक्त किया कि "जब स्वाधीनता संग्राम का हंगामा बरपा हुआ तो वहशते दिल (हृदय की बेचैनी) ने उस हंगामे की सुरों में सुर मिलाने की कोशिश की। उस समय की कुछ नज़्में भी बहुत लोकप्रिय हुईं। (याराने मैकदा, पृष्ठ 78)।

    इसमें उन्होंने विशेष रूप से सर-फ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है का जिक्र किया। बिस्मल अज़ीमाबादी के इस बयान से साहित्य जगत में हलचल मच गई और यह चर्चा तेज हो गई कि इस कविता के रचयिता कौन हैं, मिलाप लंदन के संपादक ने 25 मार्च 1973 के भगत सिंह नंबर में अपने संपादकीय में इस कविता को हसरत मोहानी से मंसूब किया है। कुछ लोगों ने रामप्रसाद बिस्मल से मंसूब किया है। जबकि राम प्रसाद बिस्मल ने खुद इसे बिस्मल इलाबादी की कविता स्वीकार किया था। सरदार जाफरी ने तो बड़ी दिलचस्प बात कही कि पंडित राम प्रसाद बिस्मल के साथ सरफरोशी वाली ग़ज़ल का आहंग इतना घनिष्ठ हो गया है कि बिना किसी ठोस प्रमाण के इसे पंडित राम प्रसाद बिस्मल से अलग नहीं किया जा सकता है (नया दौर, लखनऊ, अप्रैल 1999, पृष्ठ 9)। जबकि इस का कोई भी कोई ठोस सबूत नहीं है कि यह ग़ज़ल हसरत मोहानी या राम प्रसाद बिस्मिल या बिस्मिल इलाहाबादी की है।

    सब से पहले यह ग़ज़ल काज़ी अब्दुल गफ्फार के दैनिक सबाह, दिल्ली, 19 अक्टूबर 1921 के अंक में प्रकाशित हुई थी। जैसे ही यह ग़ज़ल प्रकाशित हुई , अंग्रेज़ों ने उस दैनिक सबाह को ज़ब्त कर लिया। काजी अब्दुल गफ्फार ने बिस्मिल  अजीमाबादी को एक पत्र लिखा कि- "आपकी ग़ज़ल की वजह से मेरे अखबार पर आफत टूट पड़ी है। आप भी अपने बचने की चिंता कीजिए।" यह बात बिस्मल अज़ीमाबादी ने अबू मुहम्मद शिबली द्वारा लिए गए एक साक्षात्कार में व्यक्त की थी। आगे उन्होंने बताया कि "मैं भयभीत हो कर इस ग़ज़ल के स्वामित्व से इनकारी हो गया।" मेरे गुरू शाद अजीमाबादी की सरकार तक पहुंच थी, उन्होंने मेरी मदद की और ग़ज़ल में इस तरह संशोधन किया कि उसका आहंग ही खत्म हो गया। इस तरह मैं बच गया (बिस्मल अज़ीमाबादी/ मुहम्मद इकबाल, पृष्ठ 64)। 1920 से जून 1957 तक बिस्मिल अजीमाबादी खामोश रहे और जब उन्हें याराने मैकदा में अपने बारे में लिखने का मौका मिला तो उन्होंने लिखा कि यह कविता मेरी है। इसके बावजूद लोगों ने उन्हें इस ग़ज़ल का रचयिता मानने से इनकार कर दिया। जबकि इस बात के पुख्ता सबूत मौजूद हैं कि यह कविता बिस्मिल अजीमाबादी की है। खुदा बख्श लाइब्रेरी में बिस्मिल अजीमाबादी के हाथ की लिखी और शाद अजीमाबादी द्वारा संशोधित यह ग़ज़ल मौजूद है। बिस्मिल अजीमाबादी की तमाम कोशिशों के बावजूद साहित्यिक हलकों ने यह स्वीकार ही नहीं किया कि यह ग़ज़ल बिस्मिल अजीमाबादी की है। 1972 में किसी मुशायरे के सिलसिले में वामिक जौनपुरी पटना आए, तो बिस्मिल अज़ीमाबादी ने बड़ी मासूमियत से कहा कि यह ग़ज़ल मेरी है लेकिन कोई इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है। वामिक जौनपुरी ने अपनी आत्मकथा गुफ्तनी ना गुफ्तनी में इस घटना का जिक्र किया है। वह लिखते है:

    "इस मुशायरे के दो-तीन दिन बाद परवेज शाहिदी के पिता का देहांत हो गया। मैं भी उन के अंतिम संस्कार में मौजूद था। जनाजे की नमाज हो चुकी थी, कब्र में कुछ काम बाकी था और मैं एक पेड़ की छाया में बैठे हुए इंतजार कर रहा था कि मेरे करीब एक बुजुर्ग शाह मुहम्मद हसन साहिब बिस्मिल अजीमाबादी बैठ गए। मैंने उन की ओर देखा तो वह कहने लगे कि वामिक साहब! दुनिया में हर चोरी और बेईमानी का बदला होता है और अगर चोरी का माल बरामद होने पर मालूम हुआ कि फलां व्यक्ति का है तो उस को वापस मिल जाता है मगर जब साहित्य में चोरी होती है, तो उस की वापसी का भी कोई तरीका होना चाहिए। यह कहते हुए 1922 के असरे जदीद, कोलकाता की एक कॉपी मुझ को दिखलाई जिसमें उनकी यह ग़ज़ल प्रकाशित हुई थी... और शाह साहब फरियादी हुए कि मेरा यह शेर लोगों ने राम प्रसाद बिस्मिल के नाम से प्रसिद्ध कर दिया है। मैंने कहा वास्तव में आपके साथ बड़ी हक तलफी हुई है। मैं इस के निवारण के लिए जरूर कुछ करूंगा। वहां से वापस हो कर मैंने अंजुमन तरक्की उर्दू अलीगढ़ के साप्ताहिक हमारी ज़बान में अंजुमन और पाठकों का ध्यान इस ओर खींचा लेकिन कोई खास नतीजा नहीं निकला, लेकिन एक बात रिकार्ड पर आ गई। (पृ. 270)

    अबू मुहम्मद शिबली ने नया दौर, लखनऊ, अप्रैल 1999 में प्रकाशित अपने एक लेख "क्या राम प्रसाद बिस्मिल शायर थे" में विभिन्न स्रोतों से साबित कर दिया है कि राम प्रसाद बिस्मिल कवि नहीं थे बल्कि जो भी शेर उन्हें पसंद आता उसे अपनी डायरी में नोट कर लेते और कभी-कभी उस में कांट छांट कर एक नया शेर बना लेते थे। सारांश यह कि बिस्मिल अज़ीमाबादी को साहित्यिक चोरी को लेकर जो शिकायत थी अब दूर हो गई। साहित्यिक हलकों में इस ग़ज़ल के रचयिता बिस्मल अजीमाबादी स्वीकार कर लिए गए हैं। सरदार जाफरी ने बाद में स्वीकार किया कि "काकोरी केस में मौत की सजा पाने वाले क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मल की जबान पर अंतिम क्षणों में उर्दू का यह शेर था: सर-फ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। यह शेर बिस्मल के हम-नाम बिस्मल अजीमाबादी का है (आजकल, दिल्ली, फरवरी 1996)। मलिक राम ने लिखा है कि "राजनीतिक हलकों में एक ग़ज़ल पर खूब ले दे हो रही है। बहुत दिनों तक अंदाजे लगाए जाते रहे कि यह किस कवि का है। यह ग़ज़ल सैयद शाह मुहम्मद हसन बिस्मिल ही की है (नवा-ए बिस्माल, पटना, 15-21 अगस्त 2003 ई.)। क़ाज़ी अब्दुल वदूद ने भी "आवारा गर्द अश्आर" में इसे बिस्मिल अजीमाबादी का माना है।

    जब्त की गई कविताओं में "मांझी" का भी नाम आता है। यह कविता रज़ा नकवी वाही की है। उनका जन्म 17 जनवरी 1914 और मृत्यु 5 जनवरी 2002 को हुई थी। वाही अपनी व्यंग्यात्मक और विनोदी कविता के कारण साहित्य जगत में एक अद्वितीय स्थान रखते हैं। 1928 में जब उन्होंने कविता के क्षेत्र में कदम रखा तो गंभीर कविता से इस की शुरुआत की। 1950 तक वह गंभीर कविता लिखते रहे। उस समय जोश मलीहाबादी की क्रांतिकारी कविता धूम मचा रही थी। वाही इस भाषा शैली से इतने प्रभावित हुए कि उन्हीं के तर्ज और तेवर में कई गंभीर और क्रांतिकारी अशआर लिख डाले। मांझी, भूक, आज कुछ खाया नहीं, नौजवानों का कोर्स, किसान का गीत और चलना तेरा काम है राही उनकी प्रसिद्ध और उल्लेखनीय कविताएँ हैं। उस समय वह रजा तखल्लुस करते थे। जब उन्होंने व्यंग्य और हास्य कविता की ओर रुख किया, तो वाही तखल्लुस करने लगे । अली जव्वाद जैदी ने रजा नकवी वाही की नज्म मांझी को जब्त की गई कविताओं में शामिल किया है (यादों की रहगुजर, नया दौर, लखनऊ, आजादी नंबर, अगस्त 1997)। रज़ा नकवी वाही की यह कविता कब प्रकाशित हुई और कब जब्त की गई, इस बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। वैसे प्रबल अनुमान यह है कि यह कविता 1932 और 1940 के बीच छपी और जब्त हुई। यह कविता जोश और आहंग से भरी हुई है। इस नज्म को पढ़ते समय मन एक अजीब सी उत्तेजना की स्थिति में आ जाता है और कुछ कर गुजर जाने पर यह नज्म उकसाती है। इस कविता के कुछ अश्आर देखिए:

बादल भी गरजते हैं मांझी, बिजली भी चमकती है मांझी
दायें बायें सन्नाटा है और रात अंधेरी है मांझी
बुझता है मन का दीया मांझी
हां कश्ती तेज चला मांझी
मंजर पे उदासी छाई है, आकाश का चेहरा उतरा है
नद्दी की लहरें कहती हैं तूफान फिर आने वाला है
तेवर बदले है फिजा मांझी
हां कश्ती तेज चला मांझी

    तीसरी नज़्म जिसे अंग्रेजों ने जब्त की, जमील मजहरी की "नवा-ए जरस: कारवाने इंकिलाब के लिए" है। जमील मजहरी का जन्म 1904 और देहांत 23 जूलाई 1979 को हुआ। उनकी जन्मभूमि हसनपुरा, जिला सारण है। कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1931 में फारसी में एम ए किया। दैनिक असरे जदीद, कलकत्ता में कॉलम लेखक के तौर पर अपने व्यावहारिक जीवन की शुरुआत की। 1937 में बिहार में प्रचार अधिकारी नियुक्त किए गए लेकिन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के तहत जब स्वतंत्रता सेनानी गिरफ्तार कर लिए गए तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। अंग्रेजों ने इसे विद्रोह समझा और उन्हें गिरफ्तार कर लिया। दो महीने वह जेल में रहे। रिहाई के बाद भी उनके तेवर में कोई बदलाव नहीं आया और देशभक्ति पर आधारित कविताओं की रचना जारी रखी। 1920 में जब वह मदरसा आलिया, कलकत्ता में पढ़ रहे थे, तब उन्होंने एक नज्म लिखी। यह उनकी पहली नज्म थी और उन्होंने अपनी पहली ग़ज़ल 1921 में लिखी। उनकी कविता जिस वातावरण में पली बढ़ी वह गुलामी के जहर से दूषित था। हालात का असर उनकी कविता पर पड़ा और उनकी रगों में देशभक्ति की भावना खून बन कर दौड़ने लगी। उनकी देशभक्ति की तीव्रता और अपार भक्ति का एहसास उन की नज्मों से बखूबी होता है। उन्होंने 1933 में एक नज्म "नवा-ए जरस: कारवाने इंकिलाब के लिए" लिखी। इस नज्म में क्रांतिकारियों को जोश दिलाया गया है और देशभक्ति की भावना को उभारा गया है। अंग्रेजों को जैसे ही पता चला, यह कविता जब्त कर ली गई। सिब्ते हसन ने 1940 में एक किताब "आजादी की नज्में" के नाम से प्रकाशित की। अंग्रेजों ने इसे भी जब्त कर लिया। इस पुस्तक में भी यह नज्म शामिल थी। इस किताब में नज्म का शीर्षक "नाला-ए जरस" है जबकि रज़ा नकवी वाही द्वारा संकलित "नक़्श जमील" में इसका शीर्षक "नवा-ए जरस" है। इस नज्म के कुछ अश्आर देखिए:

बढ़े चलो, बढ़े चलो, बढ़े चलो, बढ़े चलो
बिरादराने नौजवां, गुरूरे कारवां हो तुम
जहाने पीर के लिए शबाबे जाविदां हो तुम
तुम्हारे हौसले जवां, बढ़े चलो, बढ़े चलो
बिरादराने नौजवां, बढ़े चलो, बढ़े चलो

    चौथी जब्त नज्म "नौजवानों की दुनिया" है। यह रज़ी अजीमाबादी की रचना है। कवि के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। तज़्किरा मुस्लिम शोरा-ए बिहार में  केवल यह उल्लेख किया गया है कि "रज़ी तखल्लुस है। शायद रज़ीउद्दीन नाम है। वह अजीमाबाद के रहने वाले हैं। आपकी अधिकांश कविताएँ साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं (पृष्ठ 170)। इस नज्म के कुछ अश्आर देखिए:

वह दुनिया जिस का हर जर्रा जुनूं बर दोश होता है
वह दुनिया जिस के सीने में बला का जोश होता है
वह दुनिया जिस में हुस्न ओ इश्क की बातें नहीं होतीं
वह दुनिया जिस में सोने के लिए रातें नहीं होतीं
जहां तलवार की झंकार से चश्मे उबलते हैं 
जहां खुद मौत की आगोश में इंसां पलते हैं
तुझे ए नौजवां ऐसा जहां तैयार करना है
इसी कोशिश में जीना है इसी कोशिश में मरना है

    इसके अलावा "मस्ती के तराने" के नाम से उर्दू नज्मों का संग्रह भी उसी समय लहरया सराय, दरभंगा से प्रकाशित हुआ जिसे यदु नंदन शर्मा ने संकलित किया था। इसमें 11 पृष्ठ हैं जो राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली में संरक्षित है। मुझे यह पुस्तक नहीं मिली, इसलिए अधिक विवरण देने में असमर्थ हूँ। अलबत्ता यह कहने में कोई हर्ज  नहीं कि चूंकि यह पुस्तक संकलित की गई है, इसलिए यह माना जा सकता है कि इसमें विभिन्न कवियों की नज्में होंगी।

    राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली से एक किताब Patriotic poetry banned by the Raj के नाम से प्रकाशित हुई है। इसमें हिंदी की 264, उर्दू की 58, मराठी की 33, गुजराती की 22, पंजाबी की 22,  तमिल की 19, तेलुगु की 10, सिंधी की 9,  बंगाली की 4, कन्नड़ की 3 और उड़िया की एक जब्त की गई किताबों का विवरण है। इसमें बिहार से संबंधित 10 पुस्तकें शामिल हैं। एक उर्दू की जिस का उल्लेख ऊपर हुआ और 9 पुस्तकें हिंदी की हैं जिसके आधार पर हिंदी की सब से पहली किताब 1922 में जब्त की गईं। फिर 1924, 1923 और 1931 में। शेष छह पुस्तकों में प्रकाशन के वर्ष का उल्लेख नहीं है। इन 9 पुस्तकों में लगभग सौ पृष्ठ हैं। इससे पता चलता है कि बिहार के कवियों की हिंदी कविताओं का एक बहुमूल्य संग्रह राष्ट्रीय अभिलेखागार में संरक्षित है। इन किताबों पर अभी तक कोई काम नहीं हुआ है। जिस के कारण बिहार की हिन्दी कविता का एक अनोखा अध्याय आज भी अनछुआ है। दिलचस्प बात यह है कि इन किताबों के लेखक और संपादक हरि मदन सिंह शर्मा, राम लगन राय, प्रकाश, प्रभु नारायण मिश्रा, यदु नंदन शर्मा, राजेंद्र प्रसाद, गोपाल लाल गुप्ता और काली प्रसाद का उल्लेख बिहार राष्ट्र भाषा परिषद से पांच खंडों में प्रकाशित "हिंदी साहित्य और बिहार" और शेम चंद सोमन की "देवंगत हिंदी सेवी" में नहीं मिलता है। हिंदी लेखकों और कवियों की जो 9 पुस्तकें बिहार से प्रकाशित हुईं और अंग्रेजों द्वारा जब्त की गईं । उन पुस्तकों के नाम हैं:

1. राष्ट्रीय पद्य मंजरी/ हरि मदन सिंह शर्मा, पटना: सेंट्रल प्रिंटिंग प्रेस, 1922, 7 पृष्ठ। (राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, प्रविष्टि संख्या 675)
2. विजय सुंदरी/ राम लगान राय , बिहार,  बंधु प्रेस, मुजफ्फरपुर, 1924, 12 पृष्ठ (हिंदी) (राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, प्रविष्टि संख्या 898)
3. आजाद भारत के गाने (प्रकाश), छपरा, देशबंधु स्मारक भंडार, सरस्वती प्रेस, बनारस, 1930, 16 पृष्ठ। (राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, प्रविष्टि संख्या 189-190)
4. लाहौर की सूली अर्थात सरदार भगत सिंह मस्ताना/ राज गुरु सुखदेव, संपादन प्रभु नारायण मिश्रा, गया, श्री प्रेस, 1931, पृष्ठ का उल्लेख नहीं। (राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, प्रविष्टि संख्या 532-533)
5. मस्ती के तारने/ संपादित यदुनंदन शर्मा, लहरया सराय, दरभंगा, प्रकाशन तिथि अंकित नहीं है, 11 पृष्ठ (हिंदी) (राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, प्रविष्टि संख्या अंकित नहीं)
6. स्वराज गीत गुंजन, मुजफ्फरपुर काली प्रसाद, सेंट्रल प्रिंटिंग प्रेस, पटना, प्रकाशन तिथि अंकित नहीं है, 8 पृष्ठ(हिंदी) (राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, प्रविष्टि संख्या 851)
7. मौसम विहार/ राजेंद्र प्रसाद, बिहार स्टैंडर्ड प्रेस, मुजफ्फरपुर, सना प्रकाशन तिथि अंकित नहीं है, 21 पृष्ठ (हिंदी) (राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, प्रविष्टि संख्या 565)
8. राष्ट्रीय वीणा, गया: प्रभु नारायण मिश्रा, श्री बागेश्वरी प्रेस, बनारस, प्रकाशन तिथि अंकित नहीं है, 16 पृष्ठ। ((राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, प्रविष्टि संख्या 631-633)
9. सारण का सेनापति/ गोपाल लाल गुप्ता, बनारस: मीवा लाल एंड कंपनी, श्री बागेश्वरी प्रेस, प्रकाशन तिथि अंकित नहीं है, 16 पृष्ठ। राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, प्रविष्टि संख्या 856)
यहाँ इस तथ्य को भी स्पष्ट करना जरूरी है कि उर्दू और हिंदी में जब्त की गई नज्मों पर जो कितीबें प्रकाशित हुई हैं वह अधूरी हैं। संपादक ने केवल इन कविताओं को एकत्र कर दिया है। कवि और कविता से संबंधित कोई मालूमात इन किताबों में दर्ज नहीं हैं, जैसे कवि कहाँ का रहने वाला है, स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी क्या भूमिका थी, उनकी कविताएं कब जब्त की गईं और ज़ब्त करने के बाद उन्हें किन समस्याओं का सामना करना पड़ा, इस तरह की कोई जानकारी नहीं दी गई है। इसलिए इस पर नए सिरे से काम करने की जरूरत।

डॉ. मो. जाकिर हुसैन
खुदाबख्श लाइब्रेरी पटना

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )


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