आलेख : झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और हिंदी का प्रतिबंधित साहित्य / मधुरा केरकेट्टा

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और हिंदी का प्रतिबंधित साहित्य
- मधुरा केरकेट्टा 

    सन् 1857 ई. के भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में, जिन स्वतंत्रता सेनानियों की प्रबल प्रेरणा से देश भर में आंदोलन हुआ, उनमें से एक प्रमुख सच्ची वीरांगना झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थीं। वे एक ऐसी यशस्वी प्रभावशाली छवि हैं, जिनप्रभाव जनमानस के अंतर्मन को छुए बिना नहीं रह सकता है। यही कारण रहा है, कि यह ऐतिहासिक चरित्र ब्रिटिश सरकार की आँखों की किरकिरी बन गया। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1835 ई. को वाराणसी में हुआ था। उनके पिता मोरोपन्त ताम्बे और माता भागीरथी ने उनका नाम मणिकर्णिका रखा। बचपन में सभी प्यार से उन्हें ‘मनु’ व ‘छबीली’ कहकर पुकारते थे। मनु जब चार वर्ष की थी, तब ही उनकी माता का देहांत हो गयाl पिता मोरोपन्त मराठा बाजीराव की सेवा करते थे। मनु ने बचपन में ही शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा ग्रहण कर ली, और देश के लिए मरते दम तक उनका अनुपालन किया। लक्ष्मीबाई के इस मनोहारी व्यक्तित्व पर सुभद्रा कुमारी चौहान अपनी कविता में  लिखती हैं – 

 “कानपूर के नाना की मुँह बोली बहन ‘छबीली’ थी 
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी       
नाना के संग पढ़ती थी वह, नाना के संग खेली थी 
बरछी, ढाल कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी”

लक्ष्मीबाई का जीवन भले ही तेईस वर्ष का रहा, लेकिन देश के लिए उनका जो अप्रतिम बलिदान था, उसे भारतवासी आज भी अपने मन-मस्तिष्क में संजोकर रखते हैं। रानी लक्ष्मीबाई आज भी लोगों के दिलों में जीवित हैं।

    आजादी की लड़ाई में, जो भूमिका झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की रही है, उसे हिंदी साहित्य ने भी खूब मान दिया है। कहने का तात्पर्य है कि इस तेजस्वी वीरांगना को लेकर अनेक कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि लिखे गए। सभी रचनाओं में रानी लक्ष्मीबाई का वैशिष्ट्य उल्लेखनीय है, जिसका प्रभाव भारतीय जनता के हृदय में कभी धूमिल नहीं हुआ। इतना ही नहीं, भारत के क्रांतिकारी आदोलनों ने भी इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायक-नायिकाओं को अपना प्रेरणा स्रोत बनाया, क्योंकि प्रथम भारतीय स्वाधीनता संग्राम की विफलता के बाद इस संग्राम के सेनानियों का संघर्ष और बलिदान जनता के लिए धरोहर बन गई। विशेषकर महारानी लक्ष्मीबाई को बीसवीं शताब्दी के लगभग जनता ने अपना आदर्श चुना। इसका अंदाजा साहित्य जगत की सैकड़ों प्रकाशित रचनाओं से लगाया जा सकता है, जिसमें कुछ इस प्रकार हैं – सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ‘झाँसी की रानी’, वृंदावनलाल वर्मा का साढ़े तीन सौ पृष्ठों का उपन्यास ‘झाँसी की रानी’, सुदर्शन की कविता ‘रणचंडी लक्ष्मीबाई’ जो पच्चीस पदों की एक लम्बी कविता है। ब्रिटिश सरकार द्वारा इसके प्रभाव को रोकने के लिए प्रतिबंधित किया गया था। द्वारिकेश मिश्र का बुन्देली काव्य ‘झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई चरित’ आधुनिक बुन्देली लोक भाषा का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। यह कुछ-कुछ बारहवीं सदी के आल्हाखंड की शैली में है, जिसे 1989 ई. में परिष्कार के साथ लगभग ढ़ाई सौ पृष्ठों में प्रकाशित किया गया था। 1935 ई. में कल्याणसिंह और 1948 ई. में हरिमोहनलाल श्रीवास्तव ने क्रमशः ‘झाँसी की रानी : वीरांगना लक्ष्मीबाई’ और ‘आजादी की प्रथम किरण : वीरांगना लक्ष्मीबाई’ की रचना की। कवि मदनमोहन द्विवेदी 'मदनेश' कृत ‘बाई लक्ष्मी रासो’, गंगा प्रसाद सुनार का ‘लक्ष्मीबाई रायसौ’, बालकृष्ण टेंगेशे का ‘लक्ष्मीबाई चरित’, गौरीशंकर द्विवेदी शंकर का ‘वीरांगना लक्ष्मीबाई’, डॉ. आनंद कृत ‘झाँसी की रानी’ आदि उल्लेखनीय हैं। उनकी शाहदत के 150 वर्षों बाद भी उनपर केन्द्रित बहुत सारी रचनाएँ लिखी जाती रहती हैं। ‘1857 की हिरोइन’, ‘भारत की वीरांगना’ कहलाने वाली झाँसी की रानी पर आधारित अनेकों किताबें आज उपलब्ध हैं। 

    हिंदी पत्र-पत्रिकाओं ने भी स्वतंत्रता की चिंगारी को भड़काने में अहम भूमिका निभाई। कलकत्ता से प्रकाशित पत्र ‘हिंदू पंच’ का जनवरी, 1930 का ऐतिहासिक 'बलिदान अंक' जिसे ब्रिटिश सरकार ने ज़ब्त कर लिया था; उसका एक खंड थ, ‘मध्यकालीन भारत के बलिदान’ जिसमें लक्ष्मीबाई पर श्रीयुत देवनारायण वर्मा का आलेख इस प्रकार सम्मिलित था –‘प्रातः स्मरणीया महारानी लक्ष्मीबाई का बलिदान इस अंग्रेजी राज्य में अभूतपूर्व है’। कविता खंड में पहली रचना महेश प्रसाद मिश्र रसिकेश की थी – ‘बलिवेदिका’। इसके छठवें अंश में लक्ष्मीबाई को इस तरह याद किया गया था– “महिष मर्दिनी आदि-शक्ति-रूपिणी चंडिका तुल्य, झाँसी की रानी अरि-अम्बुद-झंझा सी बहुमूल्य।” 

    महाश्वेता देवी ने भी लक्ष्मीबाई पर केन्द्रित कथा रचना बांग्ला में लिखीl ‘दूर हटो ऐ अंग्रेजों तुम, हिंदुस्तान हमारा है’- यह गीत, गीतकार प्रदीप का लिखा हुआ है, तब के साप्ताहिक ‘अभ्युदय' में प्रकाशित इस गीत की पंक्तियाँ हैं – “शुरू हुआ है जंग तुम्हारा, जाग उठा हिन्दुस्तानी, भारतीय महिलाओं जागो बनकर झाँसी की से रानी।” थोड़े हेर फेर के साथ इस गीत को, एक हिंदी फिल्म में भी शामिल किया गया था।   

    झाँसी की रानी का कैनवास देखा जाय तो इतना विस्तृत है, कि यह साहित्य, इतिहास, संस्कृति, समाज, राष्ट्र और जीवनमूल्यों को एक साथ कई अर्थ देती है। सुभद्रा जी की कविता ‘झाँसी की रानी’ जुबां पर चढ़ी हुई कविता है, यह लोक में जन जन तक पहुँची हुई आवाज है। लोक में व्याप्त लक्ष्मीबाई का किरदार साहित्य और इतिहास में बाद में आया इसलिए कविता कहती है – “महलों ने दी आग झोपड़ों ने ज्वाला सुलगाई थी, यह स्वतंत्रता की चिंगारी अंतरतम से आई थी।”  सुभद्रा कुमारी चौहान की अमर कविता ‘झाँसी की रानी’ ने राष्ट्रीय जागरण का जो बिगुल फूंका, वह अविस्मरणीय है l आज भी हिंदी काव्य जगत में ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी’ की एक-एक पंक्ति राष्ट्रीय धरोहर मानी जाती है। कविता की रचयिता को भले ही कम लोग जानते हो, लेकिन पूरे भारत में प्रत्येक विद्यार्थी व जनमानस सुभद्रा जी की कविता ‘झाँसी की रानी’ से अवश्य परिचित है। इस कविता ने न केवल जनता को अपितु उन कवियों को भी चेताया है, जो परतंत्रता के भय से दूसरे लोक की कल्पना में डूबे थेl अतीत का गौरवगान करती यह कविता वर्तमान में भी उदाहरण प्रस्तुत करती है –

 “सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी 
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी 
गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी
 दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी
चमक उठी सन संत्तावन में वह तलवार पुरानी थी 
बुंदेले हरबोलों के मुँह, हमने सुनी कहानी थी
 खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।”

    झाँसी की रानी कविता में, केवल राष्ट्रीयता और देशप्रेम का स्वर ही नहीं, अपितु पूरा इतिहास दिखाई पड़ता है। व्यापारी बनकर आए अंग्रेजों के बढ़ते प्रताप से लेकर रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान तक का पूरा इतिहास सुभद्रा जी ने इस कविता में अंकित किया है – 

“अनुनय विनय नहीं सुनता है, विकट फिरंगी की माया
व्यापारी बन दया चाहता था जब वह भारत आया
डलहौजी ने पैर पसारे अब तो पलट गई काया
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।”

    जब अंग्रेज एक-एक कर सारी रियासतें हड़पते चले गए, और एक दिन अपनी अन्यायपूर्ण नीतियों से पूरा देश हड़प लिया, उस आक्रोश को सुभद्रा जी ने कविता के माध्यम से इस प्रकार  व्यक्त किया है – 

“छिनी राजधानी देहली की, लिया लखनऊ बातों-बात
कैद पेशवा था बिठूर में हुआ नागपुर का भी घात
उदैपुर, तंजोर सतारा, करनाटक की कौन बिसात
जबकि सिंध, पंजाब, ब्रह्म पर अभी हुआ था ब्रज-निपात
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो यही कहानी थी।” 

कविता रानी लक्ष्मीबाई के रणकौशल और उनके द्वारा लड़े गए युद्ध का भी पूरा ब्यौरा प्रस्तुत करती है, जैसे आरंभिक युद्ध में विजयी होती रानी भारतीयों की आपसी फूट से पराजित हुई –  

 “रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर, गया स्वर्ग तत्काल सिधार
यमुना तट पर अंग्रेजों ने फिर खाई रानी से हार
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार 
अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी।”
 
    सुभद्रा कुमारी चौहान ने, रानी लक्ष्मीबाई के योगदान को साहित्य में प्रस्तुत कर, एक सच्चे साहित्यकार के साथ-साथ राष्ट्रभक्त के रूप में भी अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा का परिचय दिया है। इसलिए आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने इस राष्ट्रकवि के बारे में लिखा है कि “राष्ट्रीय कवियों को पूरी सफलता तभी मिल सकती है, जब वे राष्ट्रीय आन्दोलन में स्वयं सम्मिलित हों, और उत्साहपूर्वक जनता को मुक्ति का पथ दिखलावें।” ‘झाँसी की रानी’ कविता के द्वारा ही नेताजी सुभाषचंद्र बोस सुभद्रा जी से परिचित हुए। नेताजी ने अपनी आजाद हिंदी  फ़ौज में रानी लक्ष्मीबाई रेजिमेंट भी बनाई थी।

    सुभद्रा जी देशप्रेम की भावना को काव्यात्मक स्वर प्रदान करने वाली कवयित्री के रूप में विख्यात हैं l उनकी ‘झाँसी की रानी’ कविता में विस्तृत इतिहास, स्मृति-प्रेरणा, ओज और कृतज्ञता सब कुछ है, जो इन पंक्तियों में देखा जा सकता है –

 “जाओ रानी याद रखेंगे हम कृतज्ञ भारतवासी 
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनाशी 
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी 
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी 
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी।”

    सुभद्रा जी हिंदी कविता जगत की अकेली ऐसी कवयित्री हुई, जिन्होंने अपनी कविता की पुकार से लाखों भारतीय युवक-युवतियों को उस युग की उदासी छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में स्वयं को समर्पित कर देने के लिए प्रेरित किया। सिर्फ ‘झाँसी की रानी’ शीर्षक कविता ही उन्हें अमर कर देने के लिए पर्याप्त है। सन 1930 ई. के लगभग इस कविता की धूम थी। आग उगलती हुई और भारतीयों में नवचेतना का संचार करती, उनकी यह रचना प्रतिबंधित होने से बच गई, क्योंकि उस समय मध्य प्रांतीय सरकार के प्रकाशन विभाग में दो ही अनुवादक थे- एक मरहठी में निपुण था दूसरा उर्दू में l हिंदी जानने वाला कोई नहीं था। इसी से कवयित्री और कविता बच गई। सुभद्रा जी के जीवनकाल में ही यह कविता लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुँच गई। इस कविता की प्रसिद्धि इतनी थी कि सैकड़ों लोगों ने इसे छापा; लोक छंद तथा लोक शैली में पिरोया हुआ यह गीत जन-जन तक पहुँचा l इसकी रिकॉर्डिंग हुई l सस्ते कागजों पर छपी यह कविता मेलों में भी बिकती थी। अनेक संपादकों ने इस कविता को संकलित किया। संकलन और संपादन के क्रम में, इस कविता को प्रतिबंधित भी होना पड़ा था। सुभद्रा कुमारी चौहान का यह गीत ‘देशभक्ति के गीत’ पुस्तिका में ‘आजादी की देवी नाम से संकलित है। यह पुस्तिका कुछ चुने हुए देशभक्ति-गीतों का एक संकलन है, जिस पर ब्रिटिश सरकार ने छपते ही प्रतिबंध लगा दिया था। इस संकलन में इसका संदर्भ इस प्रकार दिया गया है - ‘मोहर चंद (मस्त) द्वारा सम्पादित तथा द्वादश श्रेणी प्रेस से मुद्रित, “फौजी ऐलान” पुस्तक से राष्ट्रीय अभिलेखागार प्रतिबंधित साहित्य, अवाप्ति संख्या : 880. यह पुस्तिका 31 मई, 1985 ई. को राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली से इस उम्मीद के साथ पुन: प्रकाशित की गई कि “हमारे अतीत के इन गरिमामय गीतों से देशवासियों को एक नया स्वर मिले और जन मानस में राष्ट्र के प्रति नया उत्साह पैदा हो।” सुभद्रा जी के इस गीत से देशवासियों को एक नई चेतना मिली, अखंड एकता बनाये रखने के लिए वे दृढ़ संकल्पित हुए।

 अंत में यह कहना उचित ही होगा कि हिंदी साहित्य जगत रानी लक्ष्मीबाई जैसी महान व्यक्तित्व का ऋणी है l इस किरदार ने लाखों लोगों के मन में ओज के बीज बोये हैं, आजादी की राह में अपनी वीरता से अंग्रेजों को घुटने टेकने पर मजबूर किया है। अपने पराक्रम से लोगों में देशप्रेम की भावना जगाई है। देश की नई पीढ़ी को स्वतंत्रता संग्राम के समय की गौरवशाली गाथा से परिचित कराने में रानी लक्ष्मीबाई का अनमोल योग

मधुरा केरकेट्टा 
शोधार्थी, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद 
सम्पर्क : mk21350@gmail.com

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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