कुमाऊँनी मांगलिक गीतों में प्रकृति चेतना
डॉ0 कविता
शोधसार - प्रस्तुत शोध-पत्र कुमाऊँनी मांगलिक गीतों में प्रकृति चेतना पर लिखा गया है जिसके अन्तर्गत कुमाऊँ में प्रचलित संस्कार गीत/मांगलिक गीतों में प्रकृति के विविध रूपों को देखा जा सकता है। ये गीत दैनिक जीवन के विविध स्वरूप को हमारे सम्मुख रखते है। प्रकृति पूर्व काल से ही मानव जीवन की सहचरी रही है। मानव के सुख-दुख, हर्ष विषाद सभी में प्रकृति का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। भारतीय दर्शन में प्रकृति को मानव के लिए अभिन्न अंग के रूप में निरूपित किया गया है। इसकी झलक किन-किन रूपों में मांगलिक (संस्कार) गीतों में है ये ही देखने का प्रयास यहाँ किया गया है।
मुख्य बिन्दुः लोकगीत, मांगलिक गीत, प्रकृति चित्रण, संस्कारी परम्परा, संस्कृति, कुमाऊँनी।
कुमाऊँनी लोक साहित्य की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है परन्तु इसका अभिलेखकरण
19वीं सदी से ही माना जा सकता है। इससे पूर्व ये पीढ़ी दर पीढ़ी श्रुति परम्परा से ही आगे चले हैं। लोकगीतों को यदि साहित्यक दृष्टि से देखे तो कहा जा सकता हे कि ये इस क्षेत्र के महाकाव्य है जिनके माध्यम से यहाँ रीति-रिवाज, रहन-सहन, वेशभूषा लोक विश्वास तथा आध्यात्मिकता के दर्शन होते हैं। यद्यपि लोक मनुष्यों का ही समूह है तथापि समूचा जन समूह नहीं अपितु व्यक्ति विशेष ही ऐसी गीत रचना करता है कि समस्त लोक का व्यक्तित्व ही उसमें उभर आता है, और समूचा लोक उसे अपनी वस्तु कहने लगता है। इन गीतों में जो प्रमुख गीत है वो है मांगलिक गीत (संस्कार) इन गीतों को प्रत्येक छोटे-बडे़ शुभ कार्यों में गाया जाता है। मांगलिक गीतों के लिए हिन्दी शब्दकोष में अगीत, अनुगीत, अनुपगीत, अपगीत, अवगीत, आर्यगीत आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। यदि अर्थ के आधार पर देखें तो मांगलिक गीत से तात्पर्य है, एक प्रकार का गीत जो मंगल अवसरों पर गाया जाता है या मंगल की कामना से गाया जाता है।
लोक मानव प्रकृति के कण-कण में भगवान का निवास मानता है उसके प्रति पूज्य भाव रखता है, हमारे यहाँ जो भी कर्म किया जाता है उसकी परख की कसौटी स्वर्ग से होता है। व्यक्ति कोई भी कार्य करने से पूर्व उसके विषय में सोचता है कि इसका फल क्या होगा, इस भय से बुरे काम से दूरी बनी रहती है। दूसरा सबसे बड़ा डर नरक का होता है। लोक दय इन्हीं धार्मिक भावनाओं से अनुशासित रहता है। यह अनुशासन उसके अन्दर का अनुशासन है जिसका पालन वह आजीवन करता है। कुमाऊँ का क्षेत्र तो प्रकृति के सुरम्य गोद में ही विराजमान है यहाँ की सम्पूर्ण संस्कृति,
परम्परायें, रीति-रिवाज प्रकृति से अनुप्रेरित है। यहाँ पर घर-घर में गाये जाने वाले मंगल गीतों में प्रकृति को सहचरी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यहाँ विवाह, जन्मोत्सव,
उपनयन संस्कार व हरे छोटे-बड़े शुभ कार्यो में ये गीत गाये जाते हैं। जहाँ हर इन गीतों का विशेष महत्व होता है। इन गीतों को गाना शुभता का प्रतीक माना जाता है। जैसे ही शुभ कार्य प्रारम्भ होता है उसी समय से ये गीत गाये जाते है व संस्कार व पंडित के मंत्रोचार के साथ-साथ आगे बढ़ते जाते है। इन गीतों में प्रथम या प्रांरभिक गीत को शकुन आखर कहा जाता है जो निम्न प्रकार है-
शकूना दे शकूना दे काज ए अती नीका
दाईण बाजनी, शंख शब्द, दैणी तीर भरियो कलश अति नीका
सो रंगीलो पारल अंचली कमल को फूल
सोई फूल मोलावान्त गणेश, रामीचन्द्र, लक्षीमन, भरत चतुर
जीवा जनम आध्या ममरू होल
सोही पाट पैरी लैन सिद्धि-बुद्धि सीता देही, उरामिनियां, डोलाहिनियाँ
सोहागिनियों आये वानत पुत्र वान्ती होल।[1]
यह गीता कुमाऊँ में सभी शुभ कार्यों के प्रारम्भ होने पर गाया जाता है। इस गीत में कमल के फूल का उल्लेख हुआ उसे भारतीय दर्शन में शुभता का प्रतीक माना जाता है। घर में शुभ कार्य हो रहा है, शंख ध्वनि हो रही है कलश में जल भर लिया गया है इसके बाद स्नान गीत गाया जाता है। जिसमें गंगा-यमुना के जल से स्नान व हल्दी लगाने का चित्रण बड़ा ही मनमोहक रहता है। हल्दी हमारे यहाँ प्राचीन काल से ही शुभता का प्रतीक मानी गई है जो अनेक औषधिय गुणों से युक्त है। विवाह उपनयन संस्कार व बालक के जन्मोत्सव
में इसका प्रयोग किया जाता है इससे सम्बन्धित गीत में इसका उल्लेख किया गया है-
उबटल दलिये मलिये मैल छुटाइये
गंगा जमुना मिली आई तो बाले नवाइयो
कुम्भ कलश भरिलाई तो बालो नवाइयो
माई बहिनी मिली आई तो बालो नवाइये
हल्दी के घर आई तो तेल मोलाइये
कुमकुम कस्तूरी परिमल अंग पैराइये।[2]
अल्पना के ऊपर परात व पाटा रखकर उसमें रोली से स्वास्तिक
देकर परात के नीचे उड़द चावल व पैसे रखे जाते हैं बुआ बहिने ऊपर से चन्दोवा (लाल दुपट्टा) में नारियल व चावल डालकर पकड़े रहती है। माँ, चाची, ताई पाँच सुगाहन मिलकर (बालक, बटुक, कन्यावर) का स्नान कराती है उस समय ये गीत गाती है।
सूर्य चन्द्रमा,
तारों का हमारे जीवन में क्या महत्व है यह बताने की जरूरत नहीं है। कुमाऊँ में हर शुभ कार्य में इनको ईश्वर रूप मानकर निमंत्रण भेजा जाता है-
प्रातः जो न्यूतूं मैं सूरज, संध्या जो न्यूंत में
चन्द्रमा किरणन को अधिकाय
ज्यूनिन को अधिकाय, तारन को अधिकाय समाए
बधाए न्यूतिए आण बधाए न्यूतिए।[3]
भंवरा प्रारम्भ से ही साहित्य में दूत रूप में प्रयुक्त होता रहा है यह परम्परा हम कुमाऊँनी मांगलिक गीतों में भी दिखती है। भंवरे को पितरों को निमत्रण देने को कह रह हैं -
जा रह भवरीला गाथलोक पीतरन न्यूंता दे आज ए,
नौ नीं जायन्यूं गौ नी पछायाणन्यू कारे होला पीतरन को द्वार ए
आधा स्वर्ग, सूरज, चन्द्रमा आधा स्वर्ग बादल रेखा ए,
जारे होला सूना का द्वार रूपा का खुटफूंणा ए रेशम निशांण
बारे होला पितरन द्वारा ए जाना जाना भंवरीला माथी लोक।[4]
यहाँ पर भँवरे का सुन्दर मानवीकरण करते हुए उसे (न्यूत्या)
निमंत्रण देने वाला बनाकर पीतर लोक भेजा गया है। निमत्रंण देने के लिए बहुत ही सुन्दर संवाद के माध्यम से बातचीत हो रही है वह कहाँ रहते है, कहाँ जाना है आदि बाते पूछी जा रही हैं। कार्यक्रम में आगे मंत्रोउच्चार के साथ ‘कलश’ स्थापना का गीत गाया जाता है जिसमें प्रकृति की वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है-
धरती धरमन लै कलश थापिले
चौमुख ब्रह्मा ले, तांबा का छुंड लै
गंगा-जमुना का नीर लै
आज भरियों कलश, आज बधावन नगरी सोहावन
नारियल, सुपारी लै, पंच पल्लव लै, पंच रतन लै कलश थापिलै
रेशम वस्त्र लै, ते सूती जनेऊ लै धन और द्रव्य लै
रोहिणी पिठ्याउ लै, शाली का अक्षतन लै, खेत का जौंन लै कलश।[5]
इससे अगले वाले गीत में ज्यूँती पूजा का गीत गाते हुए मस्ती के फूलों का सुन्दर वर्णन किया गया है जिन फूलों से ही ज्यूती की पूजा होती है गीत में संवाद के माध्यम से इस बात को कहा जा रहा है-
मेरा मामा का कंस राजा का ज्यूती की पूजा
वारे चयनी मस्ती का फूल, जगा नागिजी नाग आपणौ
वारे चैनी मस्ती का फूल
मस्ती का फूलन की बात नी जाणन्यूं लीजा बालारे पइयैं की पाती
पढयै की पाती ले पूजा नही हुनी
भाला-भाला मस्ती का फूल मैरे चैनी मस्ती का फूल।[6]
इसी प्रकार संध्या वंदन के समय जो गीत गाया जाता हे उसमें भी प्रकृति के सुन्दर रूप का वर्णन यहाँ मिलता है। सांझ का समय है सुन्दर सुंगधित पवन प्रवाहमान
है। आसमान में मोतियों की माला की भाँति व तारे चमक रहे हैं और चन्द्रमा सा प्रतीत हो रहा है कि जैसे मोतियों की माला की मध्य गंगा प्रवाहमान है। प्रकृति के सुन्दर दृश्य को इस गीत में देखा जा सकता है-
साँझ पडी संझवाली पायां वली ऐ न
आस-पास गोत्यूहार, बीच चालिन गंगा
लक्ष्मी पुछन स्वामी आपण नारायण
किनू घर आनन्द बधाई ए,
शुभ घड़ी आनन्द बधाई ए।[7]
उपनयन संस्कार के समय हवन की अग्नि को प्रज्जवलित करने हेतु कहाँ नहीं भटका परन्तु अंत में वैश्वानर नामक अग्नि उनको पीपल की डाली में प्राप्त हुई। प्रकृति हमारे संस्कारों गीतों में प्रारम्भ से ही थी महत्वपूर्ण थी इसका प्रमाण हमें इन गीतो से मिलता है।
‘पूर्व को देश मैले हेरो रे फेरो, पश्चिम को देश मैंले हेरो रे फेरो,
उत्तर को देश मैंले हेरो रे फेरो, दक्षिण के देश मैंले हेरो रे फेरो,
नहिं पाया बैखानर देबए, पीपल की डाली भूणी पायाछन, पायाछन वैखानर देबए’।[8]
साहित्य में भँवरा, तोता व कबूतर आदि को दूत के रूप में हमेशा से युक्त किया गया है। यहाँ पर एक बात सोचने की है कि इनका प्रयोग अलग-अलग व्यक्तियों को संदेश भेजने के लिए किया जाता है। पूर्व गीत में भँवरें को दूत रूप में पीतर लोक जाने की बात कही गई है। इस गीत में बेटियों को निमंत्रण देने के लिए तोते (सुवा) को कहा जा रहा है उसके पूरे शारीरिक गुणों का वर्णन करते हुए संवाद शैली में बताया जा रहा है कि कहाँ जाना है किसको बुलाना है ये इन गीतों का ही सौन्दर्य है कि गीत गाते हए ही प्रश्न व उत्तर एक साथ हो रहें है देखें -
सूवा रे सूवा बणखंडी सूवा कौ सूवा नगरी न्यूतोए
सुवा रे सूवा बणखंडी सूवा, हरियो, तेरो गात, रंतगली
तेरी आँख लाल तेरी चौंच, कौ सुवा नगरी न्यूतोए
नौ नी जांणन्यू गौ नी पछाणन्यू,कै घर, कै नारी न्यूतोए
सुभद्रा देही नौ छै, हस्तिनापुर गौ छै,
वीका पुरूष कणि अर्जुन नौ छै, वी घर वी नारि न्यूतो छै।[9]
इससे अगले गीत में महिलाओं के साथ-साथ तारों व अन्य ग्रहों को भी निमंत्रण भेजा गया, परन्तु सभी आ पहुँचे हैं। बहस्पति देव जो गुरू है उन्होंने आने में विलम्ब कर दिया, इसका चित्रण हम इस गीत में देखते हैं-
सबै तारा सबै तारा ऐं पुजी गैन,
बृहस्पति लै के अबेर ए छ ए
सीता देही उरामिणी ऐ पूजी गैन
बृहस्पति लै किया अबेर ऐ छ ए।[10]
कन्या की बारात आते समय गाये जाने वाले गीत में मण्डप निर्माण कैसे किया गया है जिसमें वर आकर बैठेगा इसका वर्णन किया जा रहा है। वर्तमान में तो विकास के नाम पर हमने इस परम्परा को लगभग भूला ही दिया है, परन्तु कहीं-कहीं पर दूर-दराज के गाँवों में आज भी यह परम्परा जीवित है जिसमें हेर बाँसो के खंम्बे बनाकर मण्डप बनाया जाता है’
हरे-हरे बांस कटाओ, मेरे बाबुल ऊँची छवे चौपाल ए
ऊँची छवे चौपाल ए।[11]
आगे के गीत में मण्डप बनाने के लिए जो खम्बे मगाये गये है, वो कहाँ से लाये गए है उनकी महत्ता क्यों है इसका बड़ा ही मनमोहक दृश्य प्रस्तुत किया गया है-
अम्बन, खम्बन दीयो जगायो, बातो झकमक जोत उजालोए
बातो सुन्दर जोत उजालों जी, लाल ही कम्बल बिछौना
ऐ पूजा बिदेशिया लोग जी
कहा बन के खम्ब मँगाए कहा बन के बांस जी
कदली बन के खम्ब मँगाये वृन्दावन के वाँस जी ।[12]
प्रकृति चित्रण के ऐेसे अनेक उदाहरण हम इन गीतों में देख सकते हैं परन्तु धीरे-धीरे शहरीकरण व बड़े-बड़े हॉलों में होने वाले विवाह आदि संस्कारों
में ये अब लुप्त प्रायः होने लगे हैं। अब हम डीजे में गाना चलाना व नृत्य करना सीख गये हैं जिस कारण अपनी वास्तविक संस्कृति से दूर होते रहे है व किराये की संस्कृति अपनाकर स्वयं को सभ्य दिखाना चाहते हैं यदि आज कल की जवान पीढी आप फिल्मी गीत कहें तो हजार सुना देगें लेकिन अपनी लोक संस्कृति में रचे बसे गीतों का उन्हें न अर्थ पता है न गीत, ये गीत प्रकृति को अपने में समाये हुए है, क्योंकि हमारे यहाँ निभाए जाने वाले सभी संस्कार, परम्पराए, प्रकृति से जुड़ी है, चाहे पूजा हो, नामकरण हो, विवाह हो सभी में प्राकृतिक वस्तुओं का प्रयोग बहुत किया जाता है। पेड़ की पूजा की जाती है, जल कुण्ड की पूजा की जाती है, तो स्वाभाविक है कि उनका प्रभाव हमें इन मांगलिक गीतों में भी यत्र-तत्र देखने को मिलता है।
निष्कर्षः
कुमाऊँनी परम्पारिक मांगलिक गीतों का अवलोकन करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ये गीत प्राकृतिक शोभा से ओत-प्रोत है। हमारे जीवन में प्रकृति कितना ज्यादा महत्व रखती है इसका परिचय भी ये गीत हमें देते हैं। हमने इस तत्व का दुनियाँ में सबसे पहले समझा है इसीलिए तो हमारे लिए प्रकृति हमेशा से भोग्या से पहले पूज्या रही है। पाश्चात्य सभ्यता के सम्पर्क में आकर हम अपनी वास्तविकता में अनभिज्ञ होते जा रहे है और प्रकृति को दोहन की वस्तु समझकर उसका अत्यधिक दोहन करने की ओर अग्रसर होते जा रहे हैं, जो बहुत ही भयानक परिणाम हमारे सम्मुख लायेगा।
सन्दर्भ
ग्रंथ:
[1] स्वंय साक्षात्कार के आधार पर
श्रीमती चम्पा तिवारी दिनांक 20 जून 2022 समय 12 बजे स्थान तोली ग्राम पिथौरगढ।
[2] स्वयं साक्षात्कार
के आधार पर श्रीमती दया तिवारी (56 वर्ष) दिनांक 22 जून 2022 समय 3 बजे स्थान तोली
ग्राम पिथौरागढ।
[3] स्वयं साक्षात्कार
के आधार पर श्रीमती दया तिवारी (56 वर्ष) दिनांक 22 जून 2022 समय 3 बजे स्थान तोली
ग्राम पिथौरागढ।
[4] स्वयं साक्षात्कार के आधर पर श्रीमती
माल्ती उप्रेती (60 वर्ष) दिनांक 30 जुलाई 2022 समय 3 बजे।
[5] स्वयं साक्षात्कार
के आधर पर श्रीमती माल्ती उप्रेती (60 वर्ष) दिनांक 30 जुलाई 2022 समय 3 बजे।
[6] स्वयं साक्षात्कार
के आधार पर श्रीमती दया तिवारी (56 वर्ष) दिनांक 22 जून, 2022 समय 4 बजे, स्थान तोली
ग्राम, पिथौरागढ़।
[7] स्वयं साक्षात्कार
के आधार पर श्रीमती दया तिवारी (56 वर्ष) दिनांक 22 जून, 2022 समय 4 बजे, स्थान तोली
ग्राम, पिथौरागढ़।
[8] स्वयं के साक्षात्कार
के आधार पर श्रीमती गीता जोशी (56 वर्ष) एवं श्रीमती मीना पंत (50 वर्ष) दिनांक 4 अक्टूबर
2022 समय प्रातः 8 बजे स्थान काशीपुर।
[9] स्वयं के साक्षात्कार
के आधार पर श्रीमती गीता जोशी (56 वर्ष) एवं श्रीमती मीना पंत (50 वर्ष) दिनांक 4 अक्टूबर
2022 समय प्रातः 8 बजे स्थान काशीपुर।
[10] स्वयं के साक्षात्कार
के आधार पर श्रीमती चम्पा तिवारी (80 वर्ष) दिनांक 22 जून, 2022 समय 2 बजे स्थान तोली
ग्राम पिथौरागढ़।
[11] स्वयं के साक्षात्कार
के आधार पर श्रीमती चम्पा तिवारी (80 वर्ष) दिनांक 22 जून, 2022 समय 2 बजे स्थान तोली
ग्राम पिथौरागढ़।
[12] स्वयं के साक्षात्कार के आधार
पर श्रीमती चम्पा तिवारी (80 वर्ष) दिनांक 22 जून, 2022 समय 2 बजे स्थान तोली ग्राम
पिथौरागढ़।
डॉ0 कविता
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी)
एल.एस.एम.पी.जी. कॉलेज, पिथौरागढ़ (उत्तराखण्ड)
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