- डॉ. पूजा जग्गी
यह आत्मकथ्य एक पोती की भावनाओं और अनुभवों की अभिव्यक्ति करता है, जिसके दादा- दादी और नाना - नानी उस क्षेत्र से संबंधित थे जो 1947 में भारत के विभाजन के बाद “पाकिस्तान” बन गया था। विभाजन और उसके बाद के संघर्षों की कहानियाँ और छवियाँ, जिनके साथ वह बड़ी हुई है, ने एक अमिट छाप उसके व्यक्तित्व और जीवन के अनुभवों पर छोड़ी। एक ओर यह आत्मकथ्य लेखक द्वारा अनुभव किए गए अंतर-पीढ़ीगत आघात (इंटरजेनरेशनल ट्रॉमा) के पहलुओं पर प्रकाश डालता है और अपने दादा-दादी से विरासत में मिली रेजिलिएशन यानी विपरीत परिस्थितियों का साहस से मुकाबला करने की शक्ति जिसमें उसके दादा- दादी और नाना- नानी जिनको सदियों पुराने जन्म स्थानों से बेरहमी से उखाड़े जाने के बाद खुद को फिर से स्थापित किया। यह शोध पत्र इंटरजेनरेशनल ट्रॉमा और विरासत में मिली रेजिलिएशन का एक रोचक मिश्रण है। वह इंटरजेनरेशनल ट्रॉमा के सिद्धांत को स्थापित करता है और उन व्यक्तियों जिन्होंने अपने जीवन में विभाजन जैसे अभूतपूर्व किन्तु दर्दनाक अनुभव किये हों उनके जीवन की व्यक्तिगत और सामूहिक मानसिकता को समझने में इंटरजेनरेशनल ट्रॉमा और उससे सम्बंधित सिद्धांतों के महत्त्व की व्याख्या करता है।
मैंने अपनी मातृ भाषा हिन्दी को चुना क्योंकि यह विषय भूमि से जुड़ा हुआ है और मेरे मन की पृष्ठभूमि का हिस्सा है। हालाँकि मैं एक कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ी हूँ जहाँ पर हिंदी बोलने पर प्रतिबंध था और दंड दिया जाता था। मेरी सातवीं कक्षा की हिंदी अध्यापिका जिनका मेरे प्रति खास प्रेम था, कहती थी कि पूजा की लिखावट ऐसी है जैसे कि किसी कीड़े मकोड़े को स्याही में डूबा के कागज़ पर चला दिया हो। यह बात गर्व का विषय नहीं है। इन तर्कों को यहाँ प्रस्तुत करने का मेरा उद्देश्य है कि मैं स्पष्ट रूप से उसी औपनिवेशिक (कोलोनियल) मानसिकता का हिस्सा हूँ, जिस से स्वतंत्रता के 75 वर्ष उपरांत भी हम आज़ादी नहीं पा सके। दिसेना(2014) ने औपनिवेशिक मानसिकता को जातीय और सांस्कृतिकहीनता की धारणा के रूप में परिभाषित किया और आंतरिक नस्लीय उत्पीड़न का एक रूप बताया और यह मानसिकता पीढ़ी दर पीढ़ी अपना प्रभाव बनाए रखती है।
शुरू करने से पहले यह स्पष्ट कर देना चाहती हूँ की यह शोध पत्र गुणात्मक शोध जिसको हम अंग्रेजी में ‘क्वालिटेटिव रिसर्च’ “फेनोमेनोलॉजिकल रिसर्च” के नाम से जानते हैं, के तहत लिखा गया है। इस प्रकार के शोध में अर्थों और मूल्यों का अंतिम स्रोत मनुष्य का जीवित अनुभव है और वह ज्ञान निर्माण का महत्वपूर्ण साधन माना जाता है (नूबर और उसके साथी,
2019)।
जन्मस्थान, अपने माता पिता और अपने रिश्तेदारों को आप खुद नहीं चुनते बल्कि यह एक संयोग की बात है। जीवन में हमें केवल एक ही व्यक्ति को चुनने का वरदान है (वो आप समझ ही गए होंगे) और अगर आप वह चुनाव ठीक से ना करें तो चुनते ही चुना लग सकता है। यह तो व्यंग्य की बात हुई। किन्तु ऐसे गंभीर और दर्दनाक अनुभवों को उजागर करने वाले इस विषय को अभिव्यक्त करते हुए थोड़ा सा मन को बहलाने का प्रयास था।
मुद्दे पर वापस आते हैं। मेरा जन्म पंजाब के सीमावर्ती जिला अमृतसर में एक हिन्दू पंजाबी परिवार में हुआ। हर व्यक्ति कि तरह यह मेरा खुद का चुनाव नहीं था, पर अगर इसको बदलने का मौका मुझे दिया जाये, तो बदलना नहीं चाहूँगी। विरासत में मिले गुण, प्रतिक्रियाएँ, व्यवहार के स्वरूप और जीवन के प्रति नज़रिया सभी निर्धारित हैं और मेरे व्यक्तित्व विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मेरा बुनियादी सवाल यह की जब किसी बच्चे या बच्ची का जन्म किसी ऐसे स्थान पर होता है, जहाँ हज़ारों साल से हमले होते रहे हों, और भारत-पाकिस्तान विभाजन जैसे कई और मनुष्य को झकझोर देने वाले अनुभव होते रहे हों, तो क्या शिशु के विकासात्मक अनुभव भिन्न होंगे और क्या उसका व्यक्तित्त्व प्रभावित होगा।
निश्चित रूप से होगा और यह दावा मैं हवा में नहीं कर रही हूँ, क्योंकि मनोवैज्ञानिक शोध में इसके ठोस प्रमाण हैं जिसमें में से एक सिद्धांत “इंटरजेनरेशनल ट्रॉमा” के नाम से जाना जाता है। डे अंगेलिस
(2019) ने अपने पत्र में बताया कि कनाडा के एक मनोचिकित्सक डॉ. म. राकोफ्फ ने 1966 में प्रथम बार इस प्रवृत्ति को उल्लेखित किया जब उन्होंने इसे यहूदी होलोकॉस्ट में जीवित बचे लोगों के वंशजों में देखा। ‘इंटरजेनरेशनल ट्रॉमा’ का हिंदी भाषा में सरल अनुवाद करूँ तो कुछ इस प्रकार होगा – “पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाला आघात।” वन्डेन्बोस (2007) उल्लेखित करते हैं कि ‘इंटरजेनरेशनल ट्रॉमा’ एक तथ्य है जिसमें एक भयानक घटना का अनुभव करने वाले व्यक्ति के वंशज उस घटना के प्रति, प्रतिकूल भावनात्मक और व्यवहारिक प्रतिक्रियाएँ दिखाते हैं जो स्वयं उस व्यक्ति के समान होती है। ये प्रतिक्रियाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलती रहती हैं, लेकिन अक्सर इसमें शर्म, बढ़ी हुई चिंता और अपराधबोध, लाचारी की बढ़ी हुई भावना, कम आत्मसम्मान, अवसाद, आत्महत्या, मादक द्रव्यों के सेवन, अति-सतर्कता, दखल देने वाले विचार, रिश्तों में कठिनाई, आक्रामकता को नियंत्रित करने में कठिनाई और तनाव के प्रति अत्यधिक प्रतिक्रियाशीलता है। इस तथ्य के सटीक कारण अज्ञात हैं, लेकिन माना जाता है कि इसमें संबंध कौशल, व्यक्तिगत व्यवहार और दृष्टिकोण और विश्वास शामिल हैं जो बाद की पीढ़ियों को भी प्रभावित करते हैं। घटना के विषय में माता-पिता के संचार की भूमिका और परिवार प्रणाली की प्रक्रिया, आघात संचरण (ट्रॉमा ट्रांसमिशन) में विशेष रूप से महत्वपूर्ण प्रतीत होते है। अंतर-पीढ़ीगत आघात (इंटरजेनरेशनल ट्रॉमा) पर अनुसंधान शुरू में होलोकॉस्ट और जापानी अमेरिकी नज़रबंदी शिविरों के बच्चे बच्चियों, पोते-पोतियों और परपोते-परपोतियों पर केंद्रित था, लेकिन अब यह अमेरिकी भारतीय जनजातियों, वियतनाम युद्ध के दिग्गजों के परिवारों और अन्य लोगों को शामिल करने के लिए व्यापक हो गया है। इस तथ्य को ऐतिहासिक आघात; बहुसांस्कृतिक आघात और माध्यमिक (सेकेंडरी) आघात भी कहा जाता है। विभाजन (1947) जो इतिहास के सबसे बड़े प्रवास की श्रेणी में शामिल है जिसमें भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अंत में लगभग एक करोड़ सत्तर लाख लोग उजड़ गए थे। कई अनुमानों के अनुसार, नव स्थापित भारत-पाकिस्तान सीमा के दोनों ओर हिंदूओं और मुसलमानों के बीच भड़के दंगों में लगभग एक लाख लोगों की मौत हुई, जो मानवाधिकारों के लिए एक आपदा थी।
इसका मेरे संदर्भ में तात्पर्य है कि क्योंकि मेरे नाना-नानी, और दादा-दादी पाकिस्तान के विभिन्न इलाकों में, सदियों से जी रहे थे और उन्हें अचानक इतिहास के सबसे बड़े प्रवास में उखाड़ के फेंक दिया गया, इसका प्रभाव पीढ़ी दर पीढ़ी महसूस किया जायेगा। जब पिछले वर्ष मैं इस सिद्धांत के शोध में कार्य कर रही थी तो मुझे अपने निजी जीवन में इसके कई प्रमाण मिले। संयुक्त परिवार में पालन पोषण में आपके माता पिता की तुलना में दादा-दादी की भूमिका अधिक रहती और मेरे साथ भी ऐसा हुआ। विभाजन से लेकर, 1965 और 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध की दर्दनाक और डरावनी कहानियों के साथ मैं बड़ी हुई थी। किशोरावस्था में (मैं 10-11 वर्ष की रही हूँगी) आतंकवाद का एक लम्बा युग मैंने झेला था। ऑपरेशन ब्लू स्टार और 1984 के दंगे, सब ने मेरी संवेदनशील मानसिकता पर गहरा प्रभाव छोड़ा। इसका एक प्रमाण है की मैं अवसाद के एक बहुत लम्बे दौर से गुज़री, जिस से मैंने कुछ ही वर्ष पहले आराम पाया पर उसके अंश अभी भी मेरे व्यक्तित्व में झलकते हैं। मैं यह दावा नहीं करती कि अंतर-पीढ़ीगत आघात और मेरे अपने अनुभव जो आतंक और पीड़ा से भरे थे केवल वही ज़िम्मेदार है, पर मैं इतना ज़रूर कह सकती हूँ कि यह महत्वपूर्ण कारण रहे होंगे।
जब हाल ही में मैं पाकिस्तान गयी, तो सच मानिएगा पहला कदम रखते ही ऐसा प्रतीत हुआ कि वे चीखों की आवाज़ें मेरे कानों में गूँज रही है और इस अनुभव ने मुझे अंदर से झंझोड़ कर रख दिया। मुझे लगा कि वह सब मेरे साथ हो रहा था। गीता में कहा गया है कि कोई कर्म अपना फल दिए बिना नष्ट नहीं होता। जो कुकर्म तब किये गए सभी समुदायों के लोगों के साथ, न जाने कितनी सदियों तक उनको हमें झेलना पड़ेगा।
क्योंकि मैं एक लड़की /एक औरत हूँ- मुझे बहुत ही गहरे संरक्षण के माहौल में पाला गया, जहाँ पर बहुत रोक टोक की जाती थी। उस समय मैं बहुत चिढ़ जाती थी, परेशान हो जाती थी। बहुत बहस होती थी दादा जी के साथ, पर अब समझ में आता है की जिन्होंने जीवन भर ऐसे प्रलय अनुभव किये हों, तो उनकी प्रतिक्रिया यही होगी। इतिहास की ऐसी किसी भी घटना में औरतें और बच्चे सब से अधिक पीड़ित होते हैं और आने वाली पीढ़ियों तक उनकी गूँज मानो माँ के DNA द्वारा संचारित होती है। मुनीश सिंह (2006) बताते हैं कि बंटवारे के दौरान पंजाब के पूर्व और पश्चिम दोनों इलाकों में, हिंसा की शिकार सबसे ज्यादा महिलाएँ हुई। उन्हें अपने प्रियजनों के सामने अपमानित होना पड़ा; सार्वजनिक रूप से नग्न किया गया और बेरहमी से पीटा गया। अपराधियों ने अमानवीयता के सबसे खराब रूप का प्रदर्शन किया। उनके शरीर पर टैटू और धार्मिक चिन्ह अंकित किये गए। कई औरतों को अपना धर्म बदलने के लिए मजबूर किया गया। बड़ी संख्या में उन्होंने आत्महत्या की और कई को उनके अपने ही परिवार के सदस्यों ने मार डाला।
ऐसी अनेक दर्दनाक कहानियाँ मैंने अपनी दादा-दादी और नाना-नानी से भी सुनी। मेरी दादी की चचेरी बहन पाकिस्तान में छूट गयी और मुस्लिम दंगाइयों के द्वारा अगवाह कर ली गयीं। वह जीवित रही या नहीं और अगर जीवित रहीं तो किस हाल में अपना जीवन बिताया, किसी को ज्ञात नहीं है। दादी को कई बार यह कहानी सुनाते हुए फूट-फूट कर रोते हुए देखा, मानो यह घटना हाल ही में हुई हो। मेरी दादी का देहांत
2010 में हुआ और जीवन के अंतिम छोर तक यह कहानी वह हमें उतने ही शोक और पीड़ा से सुनाती रहीं।
मेरा कथन यहीं समाप्त नहीं होता क्योंकि इन सच्चे अनुभवों का एक ही पहलू मैंने अभी तक प्रस्तुत किया है, जो दर्द से भरा है किन्तु सम्पूर्ण अँधेरा नहीं है। मेरे जैसे व्यक्ति बहुत प्रभावित रूप से उभर कर अपने जीवन की नई शुरुआत भी कर सकते हैं जिसको अंग्रेज़ी भाषा में मनोविज्ञानिक “रेजिलिएशन” यानि ‘मनोवैज्ञानिक लचीलापन’ कहते हैं। फ्रेडेरिक और उसके साथी
(2017) “‘मनोवैज्ञानिक लचीलापन’ को एक व्यक्ति की प्रतिकूल और दर्दनाक घटनाओं का सामना करने और अनुकूलन करने की क्षमता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
इसका महत्वपूर्ण कारण है कि मैंने अपने बड़ों की एक लम्बी यात्रा की कहानियाँ भी सुनी हैं जो शरणार्थी शिविरों से बड़ी कोठियों तक जाने का व्याख्यान करती हैं। अपने निरंतर परिश्रम और अटूट हिम्मत से अपने जीवन का नए सिरे से निर्माण किया और जीवन के हर महत्वपूर्ण क्षेत्र में यानी भौतिकवादी, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक विकास की चरम सीमा को छुआ उनके गहरे दर्द और कटु स्मृतियाँ कभी भी समाप्त नहीं हुईं परन्तु उन्होंने उनके साथ जीना सीख लिया और जीवन के कई कीमती सबक वहीं से प्राप्त किये। उनके सबसे दुखद अनुभव, उनको ईश्वर के निकट लेकर गए और प्रेरणा का स्रोत बनें। मशहूर कवि डॉ. हरिवंश राय बच्चन की रचना ‘मधुशाला’ की यह पंक्तियाँ अत्यधिक सुंदर तरीके से इसका व्याख्यान करती हैं; कवि कहते है –
लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।
जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला,
जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,
ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है,
जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला
मैं अपने निजी तथा कार्यकारी जीवन में सफल हूँ और यह शोध पत्र लिखने का साहस कर रही हूँ, इसका महत्वपूर्ण श्रेय, मेरे पूर्वजों को जाता है। होवेल्ल और उसके साथी
(2021) ने बताया कि अंतर-पीढ़ी के दृष्टिकोण से, जिस तरह चुनौतियों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पारित किया जा सकता है, उसी तरह ताकत और अनुकूली कार्यप्रणाली को भी पारित किया जा सकता है। जैसे मैंने पहले उल्लेखित किया कि मैं अवसाद के लम्बे दौर से गुज़री हूँ। इतना ही नहीं मैं लिवर की ऑटो-इम्यून बीमारी से भी पीड़ित हूँ जो कि लाइलाज है और उसको केवल संचालित क्या जा सकता है। परन्तु इन सभी परिस्थितियों से उभर कर मैं आज सफलता की उचाईयों को छू पाई हूँ और मानसिक और शारीरिक रूप से एक सामान्य व्यक्ति से भी बढ़िया जीवन व्यतीत कर रहीं हूँ। मैं जब प्राध्यापक के तोर पर अपने मनोविज्ञान के विद्यार्थियों को‘साइकोलॉजिकल वेल-बीइंग’ यानि मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य पर चर्चा करती हूँ तो किसी किताबी कथन का सहारा न लेते हुए अपने निजी जीवन से इस संकल्पना को जीवित कर देती हूँ। मुझे एक अच्छी शिक्षिका बनाने में मेरे इन अनुभवों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
समापन करने से पहले यह ज़रूर कहूँगी किइन मुद्दों पर गहरे शोध की आवश्यकता है जो हमें शीघ्र अति शीघ्र करनी चाहिए क्योंकि विभाजन में बचे व्यक्तियों की संख्या दिन प्रतिदिन कम होती जा रही हैं। उदाहरण के लिए मेरे दादा-दादी और नाना-नानी अब जीवित नहीं हैं और यह लेख उनकी सुनायी गयी घटनाओं पर आधारित है। जब वह जीवित थे, परन्तु इसको लिखने की क्षमता मुझ में तब नहीं थी। अगर ऐसा होता तो यकीनी तौर पर यह शोध पत्र अपने आप में और सम्पूर्ण और अधिक ज्ञान देने वाला होता। लेकिन मेरा यह प्रयास उनके लिए एक श्रद्धांजलि है। अपने जीवन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को प्रमाणित करता है। इतना ही नहीं, इसके ठोस प्रमाण मनोवैज्ञानिक, साहित्यिक और ऐतिहासिक शोध में मिलते है (रॉय,2019 ; कुमार और उनके साथी,
2017 ;दुबे, 2015 ; श्रीवास्तव, 2021 ; मेनोन 2006 ; मैनी, 2021 और छटा, 2018 )
लेख का समापन एक स्वयं रचित कविता जो मैंने हाल ही में लिखी है से करना चाहूँगी। यह कविता मेरी मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास का प्रतीक जो की मेरी समृद्ध परन्तु दर्द भरी विरासत की देन है। यह कविता काव्य तकनीक और मीटर में भले ना हो परन्तु मेरे अनुभव और भावनाओं का एक अच्छा निचोड़ है। मैं एक कवयित्री नहीं हूँ पर यह कविता मेरे मन की पृष्ठभूमि से फूटी है। उम्मीद करती हूँ कि मेरे पाठकों को पसंद आएगी।
कितनी भी कठिन हो डगर, तेरी कृपा से सशक्त जीत।
परीक्षा भारी से भारी, परिस्थितियाँ विपरीत,
जान देके है जीने की तैयारी, हार के भी खुद को लुंगी जीत।
घाव मिले अपनों से, उन्हें सैकड़ों नमन,
जगा दिया व्यर्थ सपनों से, करवाया भक्ति मार्ग पर भ्रमण।
आज बने मोक्ष का साधन, वो घोर आलोचना और घृणा,
तड़पाते थे जो तन और मन, सब साथ निरर्थक तेरे साथ के बिना।
खुद में सम्पूर्ण महसूस करती हूँ, बाहरी तूफानों से घबराता नहीं मन,
आत्मा पूर्ण हो, चाहे छलनी हो तन और मन
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