व्याख्यान : प्रतिबंधित संस्कृत साहित्य / राधावल्लभ त्रिपाठी

प्रतिबंधित संस्कृत साहित्य
- राधावल्लभ त्रिपाठी 

    गजेंद्र पाठक (अतिथि परिचय) - सबका स्वागत है और इस आयोजन में डॉक्टर राधावल्लभ त्रिपाठी का होना ही हमारे इस आयोजन की उपलब्धि है। हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय और अपने सहयोगी, प्रोफेसर रविकांत और उनके CSDS की तरफ से, सर, मैं आपका स्वागत करता हूँ। इस आयोजन में जो लोग जुड़े हैं उनका भी मैं स्वागत करता हूँ, अभिनंदन करता हूँ। डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी का परिचय देने की ज़रूरत यहाँ उपस्थित जितने लोग हैं, उनमें शायद किसी को ज़रूरत नहीं है, फिर भी जो हमारे नये विद्यार्थी हैं और... जो आज पहली बार इस आयोजन में जुड़े हैं उनके लिए मैं… मैं धर्मसंकट की स्थिति में हूँ कि कहाँ से शुरू करूँ परिचय… और... मैंने पहली बार प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी को कादम्बरी के रूपान्तरकार के रूप में जाना था, पढ़ा था और उनकी एक टिप्पणी मुझे बरबस याद आ रही है आज… जो उन्होंने बाणभट्ट और उनके बेटे के बारे में कहा था और फिर अपने बारे में… कि जो कुछ इसमें दिव्य है, मधुर है, और जो कुछ कलुष है, लौकिक है और नश्वर है, सब मेरा है। लेकिन उस रूपान्तर को पढ़ते हुए मुझे लगा था कि यदि कलुष, लौकिक और नश्वर इतना प्रिय हो तो फिर इससे अच्छी बात क्या हो सकती है।

    मैं राधावल्लभ त्रिपाठी जी का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने हमारा निवेदन स्वीकार कर के हमारे विभाग की, हमारे आयोजन की गरिमा बढ़ायी है। मित्रो, राधावल्लभ त्रिपाठी संस्कृत की सारस्वत परम्परा… की कुछ आख़िरी कड़ियों में हैं जो हमें पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की याद दिलाते हैं। गुलेरी जी ने कहा कि भाषा में अपभ्रंश नहीं होता, टूटता नहीं और जो शिखर हैं सभ्यता के, वो अतीत में नहीं भविष्य में होते हैं। राधावल्लभ त्रिपाठी जी संस्कृत के उन चुने हुए लोगों में से हैं जो गुलेरी जी की इस मान्यता से सहमति रखते हैं। द्विवेदी जी ने परम्परा और आधुनिकता के बीच एक बहुत सुन्दर रूपक दिया है। रुका हुआ पैर परम्परा और उठा हुआ पैर आधुनिकता। संस्कृत और हिन्दी को जिस तरह से राधावल्लभ त्रिपाठी जी ने जोड़ कर देखा और फिर उसी… द्विवेदी जी की उसी परम्परा को आगे बढ़ाने का काम किया कि हज़ार सालों का हिंदुस्तान समझना हो तो हिंदी के पास और उससे पहले का हिन्दुस्तान समझना हो तो संस्कृत के पास… दोनों में कोई लड़ाई नहीं है, विरोध भाव नहीं है। मैं अभी हाल में सुन रहा था सर को और हमारे लिए यह परम आश्वस्ति का विषय है और हमारे नये विद्यार्थियों के लिए… राधावल्लभ त्रिपाठी जी से बेहतर कौन जानता है कि हमारे देश का बहुत कुछ, बचाने में और छिपाने में और चुराने में नष्ट हो गया। नयी टेक्नोलॉजी का यूट्यूब पर उपस्थित होकर उन्होंने हमारे नये विद्यार्थियों को, हम सबको, जिस तरह से, इस कठिन समय में भी संस्कृत की परम्परा से और हिन्दी के तमाम विषयों पर अपने व्याख्यान से समृद्ध किया है, यह एक अद्भुत काम है। मैं पुनः बिल्कुल समय का ध्यान रखते हुए, एक बार फिर आपके प्रति आभार व्यक्त करता हूँ और उपस्थित श्रोता समुदाय का स्वागत करता हूँ। आप सबका स्वागत है व्याख्यान के लिए। संस्कृत के प्रतिबंधित साहित्य पर और सर के इतिहास पर, जो समग्र इतिहास लिखा संस्कृत में, उसका ज़िक्र है उसमें और हमारे प्रोजेक्ट के लिए जो औपनिवेशिक काल के प्रतिबंधित साहित्य से जुड़ा हुआ है, यह हमारे लिए एक मंगलाचरण का काम करेगा। हम सब जानते हैं कि संस्कृत में अश्वघोष की बहुत सारी रचनाएँ नष्ट हो गयीं, नष्ट कर दी गयीं, आपको सुनना हमारे लिए आज परम सौभाग्य का विषय है। बहुत-बहुत आभार और स्वागत है।

    राधावल्लभ त्रिपाठी - बहुत बहुत धन्यवाद। क्या मैं आ रहा हूँ ? आप सभी को नमस्कार। मैं हैदराबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग और विकासशील समाज अध्ययन पीठ CS-DS के अपने सभी बन्धुजनों को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। विशेष रूप से रविकांत जी यहाँ मुझे सामने दिख रहे हैं। बहुत समय से संपर्क नहीं हो पाया था। यह एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा अपने मित्रों से जुड़ने का अवसर हमें मिल जाता है। संस्कृत के प्रतिबंधित साहित्य पर संक्षेप में मैं चर्चा करूँगा। आशुतोष जी ने मेरी कुछ बातें कह दी हैं। संस्कृत में, एक तो 19वीं और 20वीं शताब्दियों में अपार साहित्य लिखा गया। जैसा मैं कहता भी आया हूँ कि 19वीं और 20वीं शताब्दियों में संस्कृत में जितना साहित्य लिखा गया है, उसको एक तरफ रखा जाये और 5000 साल पहले का उसका जो साहित्य है, उसको एक तरफ रखा जाये, तो कदाचित् संख्या की दृष्टि से तो अवश्य ही, यह जो पिछली दो शताब्दियों का साहित्य है वह ज़्यादा बैठेगा। बहुत रचनाएँ की गयीं। उनमें से कुछ समकालीन सरोकारों वाली रचनाएँ भी थीं, कुछ राजनीतिक रचनाएँ भी थीं... कुछ प्रतिबंधित भी हुईं। ऐसी कुछ रचनाओं की मैं चर्चा करूँगा। लेकिन सबसे पहले जिस किताब का मैं उल्लेख कर रहा हूँ वह संस्कृत में लिखी गयी किताब नहीं है। वह संस्कृत के बारे में लिखी गयी किताब है और वह प्रतिबंधित की गयी। और बहुत ही बढ़िया और रोचक बात यह है कि वेद पर लिखी गयी किताब, एक वेद के अच्छे पंडित के द्वारा, वो अंग्रेज सरकार ने उसको प्रतिबंधित कर दिया। तो उसके लिए थोड़ा सा जो पण्डित थे, उनके लिए मैं कहूँगा कि उनकी… मेरी जिस किताब की चर्चा आशुतोष जी ने की है, उसमें उनके बारे में ज़िक्र हुआ। वह कोई रचनाकार नहीं है। वह संस्कृत की पत्रिका के बहुत अच्छे संपादक रहे। 'अमृतलता' पत्रिका भी निकालते रहे। और बड़े पण्डित और स्वतंत्रता सेनानी भी हमारे समय के हैं, पंडित श्रीपाद दामोदर सातवलेकर। उनका 1867 में 19 सितंबर के दिन जन्म हुआ था। बहुत ही पारंपरिक वेदपाठियों के ब्राह्मण परिवार में। और जप, होम, संध्या वंदन आदि उनके घर में होते थे, उसी वातावरण में वे बड़े हुए, संस्कृत व्याकरण उन्होंने पढ़ी, पतंजलि महाभाष्य पर बहुत अच्छा अधिकार उनका था, संस्कृत बहुत अच्छी बोलने लग गये थे। चित्रकला में बहुत रुचि थी। क्योंकि उनके पिता भी चित्रकार थे। तो उन्होंने बम्बई का जो जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स है, उसमें प्रवेश लिया और एक चित्रकार के रूप में ख्याति भी अर्जित की। संस्कृत का अध्ययन और उसके साथ अपने… (नेपथ्य की कुछ आवाज़ों के कारण कुछ व्यवधान)... तो मैं जो लम्बा किस्सा है उसको थोड़ा संक्षेप करते हुए, पंडित दामोदर सातवलेकर स्वाध्याय करते रहे, वेद का अध्ययन करते रहे और जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स में चित्रकला का अध्ययन करते रहे और चित्रकार के रूप में ख्याति अर्जित की। यहाँ तक कि, जैसे ही उन्होंने डिप्लोमा प्राप्त किया, जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स के प्राचार्य ने उनसे कहा कि तुम यहाँ प्राध्यापक के रूप में तुरंत ही जॉइन कर लो। उन्होंने प्राध्यापक के रूप में कार्यभार स्वीकार भी किया, एक-डेढ़ वर्ष वहाँ पढ़ाया भी। लेकिन वे एक प्रोफेशनल चित्रकार बनना चाहते थे तो अध्यापन में उनका मन नहीं लगा। एक स्टूडियो वे खोलना चाहते थे। बम्बई में शायद इसके लिए उन्हें उचित वातावरण नहीं लगा। बम्बई में बहुत स्टूडियो थे, शायद कंपीटीशन ज़्यादा था, प्रतियोगिता ज़्यादा थी तो वे हैदराबाद आ गए। हैदराबाद में उन्होंने अपना स्टूडियो सेटअप किया। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि आशुतोष जी बैठे हुए हैं, हैदराबाद के हैं। और कुछ बातें जो मैं कहूँगा, मेरी बड़ी इच्छा है कि मैं वो जगह जाकर देखूँ, जहाँ सातवलेकर का स्टूडियो हुआ करता था, कुछ उनका मिले वहाँ अगर। दो जगह स्टूडियो बनाये सातवलेकर ने। हैदराबाद में बनाया। और पता नहीं वह होगा या नहीं लेकिन लाहौर में। जो उसके चित्र मैंने देखे लाहौर के स्टूडियो के, वह तो बहुत ही बढ़िया राजसी प्रासाद जैसा लगता है चित्रों में। और इतना मजबूत बना हुआ, वह कहीं तो होगा ही। लेकिन अब लाहौर जाकर देखना तो मुश्किल है। बहरहाल, हुआ यह कि चित्रकार के रूप में उनकी ख्याति बढ़ती गयी। 1905 से 1917 के बीच में उनका स्टूडियो हैदराबाद में चलता था। लेकिन उसके साथ वे कुछ दूसरी गतिविधियाँ भी करते थे। वे व्याख्यान आदि देने जाते थे। कुछ स्वतंत्रता संग्राम में जो लोग लगे हुए थे उनसे संपर्क रखते थे। और शायद उन्हीं के संपर्क के कारण वे बम्बई से हैदराबाद गए थे। उनके नाम मिलते हैं कहीं। केशव राव वकील थे और एक सरोजिनी नायडू के पितामह थे। वे उनके भाषणों में अध्यक्षता किया करते थे इसका प्रमाण मिलता है। यह सब मेरी जानकारी, श्रीपाद दामोदर सातवलेकर की मराठी में एक प्रामाणिक जीवनी है, गोखले, पी.पी. गोखले की लिखी हुई। वे उनके साथ रहे लंबे समय तक। और जब सातवलेकर 98 वर्ष के थे, तब उन्होंने उनकी जीवनी लिखी। तो सातवलेकर के जन्म से लेकर उनके 98 वर्ष तक के जीवन का तो अच्छा विवरण हमको मिल जाता है। अंतिम जो 4 वर्ष हैं, वे 102 वर्षों तक जीवित रहे सातवलेकर, उसका विवरण इस किताब में नहीं मिलता। वह भी हालाँकि अन्य स्रोतों से मिल जाता है। बहरहाल, 1900 में हैदराबाद आ गए। वहाँ उन्होंने अपना स्टूडियो बनाया और कुछ अन्य गतिविधियों में भी सक्रिय रहे। उसी बीच 1905 में मराठी में उन्होंने एक लेख लिखा। लेख वे लिखते आ रहे थे। 'केसरी' में उनके लेख छपते थे। वेदों पर उनके लिखे लेख छपते थे। लेकिन एक लेख उनका खासतौर से चर्चित हो गया - वैदिक प्रार्थनाची तेजस्विता। यह 'विश्ववृत्त' नाम से मराठी में एक पत्रिका थी। मैंने इसके पुराने अंक देखे हैं। बहुत ही अच्छी पत्रिका थी। उस समय जैसी स्थितियाँ हैं देश में, सामाजिक और राजनीतिक, और ज्ञान मीमांसाएं जो हैं भारत की, उनको लेकर यह पत्रिका 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक से लेकर 20वीं शताब्दी के शुरु के दशक तक प्रकाशित होती रही। और इसी में एक 'वैदिक प्रार्थनाची तेजस्विता' नाम का एक लेख सातवलेकर का छपा 1905 में। अब, यह लेख थोड़ा चर्चित हुआ, बहुत पढ़ा गया तो इसको पुस्तकाकार भी निकलवाया गया। मराठी में इसको पुस्तकाकार भी निकलवाया गया। लेकिन जब लेख निकला और इसकी चर्चा हुई तो पत्रिका के संपादक पर मुकदमा चलाया अंग्रेज सरकार ने। और पत्रिका के प्रकाशक पर भी मुकदमा चलाया और सातवलेकर पर भी मुकदमा क़ायम हुआ। और जब पता चला कि उसको पुस्तकाकार छपवा रहे हैं, उस लेख को पुस्तिका के रूप में भी छपवा रहे हैं, तो जितनी प्रतियाँ उसकी छपवायी थीं, उनमें से डेढ़ हजार (1500) के लगभग तो ज़ब्त कर ली गयीं। 2000 उन्होंने कुल छपवायी थीं, 500 उन्होंने जल्दी-जल्दी भेज दीं। कोल्हापुर के राजा के पास… साहूजी महाराज के पास वह प्रति पहुँची क्योंकि वे सहानुभूति रखते थे। सातवलेकर से उनके संबंध जीवन भर बने रहे, उन्होंने सातवलेकर की सहायता भी की, सातवलेकर ने उनकी सहायता की। ये सब बताने का अभी अवसर नहीं है। ये बड़े रोचक प्रसंग हैं हमारे आधुनिक इतिहास के... कि शाहू लोगों पर कितना, एक तरह से, संकट था। उनको क्षत्रिय नहीं माना जा रहा था। और पड़े हुए थे पूरे महाराष्ट्रियन ब्राह्मणों के बीच में। शिवाजी के समय से जबरदस्त विवाद चला आ रहा है कि शाहू लोग क्षत्रिय नहीं हैं तो उनका वैदिक विधि से राज्याभिषेक नहीं होगा। यह शाहूजी तक चला आया, उन्नीसवीं, बीसवीं शताब्दियों तक। और अभी भी इस पर बहस होती है। सातवलेकर ने इस पर, जो वेद के बड़े प्रकांड पंडित थे, उनकी बड़ी सहायता की थी। और सातवलेकर को बचाने में, कोल्हापुर नरेश और अवध नरेश, इन दोनों की बड़ी भूमिका रही। बहरहाल, सातवलेकर पर मुकदमा कायम हुआ। इसी बीच इलाहाबाद से उन्होंने इस किताब का हिंदी अनुवाद छपवाया। 3000 प्रतियाँ छपवायीं। उसमें से 2000 ज़ब्त हो गयीं तुरंत। और कुछ प्रतियाँ उन्होंने बाँट दीं। यह किताब अब मिलती नहीं है। जब उस समय छपी थी, 1907 में छपी मराठी में और 1908 में छपी हिंदी में। तो वे संस्करण अब मिलते नहीं हैं। लेकिन सातवलेकर की ग्रंथावली में मूल पाठ इसका मिल जाता है। अब, अंग्रेज़ सरकार, वेद के बारे में लिखी हुई किताब है, वैदिक सूत्र के बारे में लिखी हुई किताब है, और खासतौर से अथर्ववेद का पृथ्वी सूक्त है, इतना बेहतरीन सूक्त है, धरती के बारे में कविता है। इतनी सुंदर कविता भारत की धरती के बारे में कदाचित् दूसरी नहीं मिलेगी। बहुत भावपूर्ण कविता है। 'माता भूमि: पुत्रोऽहम् पृथिव्या:' - यह धरती मेरी माँ है और मैं इसका बेटा हूँ। इसके 64 मंत्र हैं। सातवलेकर ने व्याख्या इसकी कुछ ऐसी की और उन्होंने कहा कि यह हमारा पहला राष्ट्रगीत है। इसमें स्वातंत्र्य का एक भाव है अपने देश के लिए, अपनी माता के लिए मर-मिटने का भाव है। और भी कुछ इस तरह की व्याख्या उन्होंने की। जैसा सातवलेकर को लगा और जैसा उस समय संघर्ष उनके सामने था, भाषण वे दे ही रहे थे… तो इन्हीं सब कारणों से। बाकी, फिलोसॉफी भी उन्होंने की। उन्होंने, भारतीय गणतंत्र का स्वरूप उस समय कैसा था, और पूरी जो, त्रिविध सत्ताएँ हैं, आधी भौतिक, आधी दैविक, आध्यात्मिक, वैदिक वर्ल्डव्यू, उसकी भी व्याख्या उन्होंने की। लेकिन खासतौर से उसके वाक्यों में जो कुछ शब्द आ गये, कि ये हमारा राष्ट्रगीत है, ये हमारी मातृभूमि के लिए अपने पुत्रों को जागृत करने वाला है; तो इस तरह के जो शब्द आ गये, उसकी वजह से अंग्रेज सरकार ने पत्रिका को ज़ब्त किया, पत्रिका के प्रकाशक, संपादक पर मुकदमा चलाया, किताब का मराठी संस्करण ज़ब्त किया, किताब का हिंदी संस्करण ज़ब्त किया और सातवलेकर पर भी मुकदमा चलाया। 'विश्ववृत्त' पत्रिका के तो प्रकाशक और संपादक को तो 3-3 वर्ष की जेल हुई। लेकिन सातवलेकर इस बीच लाहौर आ गये। जैसे उनको लगा कि हैदराबाद में रहना बहुत मुश्किल हो रहा है, और इस बीच निज़ाम का बहुत दबाव उन पर था कि आप यह अच्छा नहीं कर रहे हैं, आप भाषणबाजी क्यों कर रहे हैं, आपका धंधा अच्छा चल रहा है। निजाम इस पर तो बड़े खुश थे कि अच्छा चित्रकार है, चित्र बड़े अच्छे बनाता है। और मैंने देखे, सातवलेकर के जो चित्र हैं, गोखले की किताब में जो कुछ अनुकृतियाँ दी हुई हैं उनकी, बहुत ही अच्छे चित्रकार हैं। माने, उस समय आप देखिए, बीसवीं शताब्दी के शुरुआत के चित्रकारों में, राजा रवि वर्मा के चित्र हैं, उनके मुकाबले आगे के चित्र वे बना रहे हैं। रवींद्रनाथ टैगोर जैसे चित्र बना रहे हैं, उस तरह की चित्रकला सातवलेकर की है। शभिन बहुत अच्छी बनाते थे तो उससे खुश थे निजाम कि हमारा भी पोर्ट्रेट अच्छा बनाता है लेकिन जब देखा कि ये तो… और अंग्रेज़ सरकार से बार-बार संदेश आ रहा था कि तुम्हारे यहाँ कोई पंडित है जो भाषणबाजी भी करता है और इस तरह के लेख भी छाप रहा है। तो जैसे ही मुकदमा वगैरह चला तो ये लाहौर आ गए। लाहौर आ गए तो लाहौर में अपना स्टूडियो बना लिया। भागना खूब पड़ा इनको। और वहाँ भी इनका स्टूडियो अच्छा चला। गुरुकुल काँगड़ी यूनिवर्सिटी में इनके खूब व्याख्यान होते रहे। एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में सातवलेकर की ख्याति थी। लेकिन फिर पंजाब के गवर्नर को संदेश गया कि वह पंडित वहाँ है, उसको किसी तरह गिरफ़्तार कराया जाये। पुलिस इसके पीछे पड़ गयी। ये इधर उधर होते रहे थे लेकिन फिर पुलिस इनको पकड़ कर ले गयी। गोखले अपनी जीवनी में लिखते हैं कि सातवलेकर इतने लोकप्रिय थे कि जिस गाड़ी में पुलिस इनको बिठा कर ला रही थी वह गाड़ी जिस-जिस स्टेशन पर रुकती, वहाँ इनको देखने के लिए भीड़ जमा हो जाती। और एक स्टेशन पर, मैं उसका नाम भूल रहा हूँ, बहुत सारे नौजवान उस कंपार्टमेंट में चढ़ गये और वे पुलिस से लड़ने लगे कि ये इतने बड़े पंडित हैं, हमारे पूज्य हैं, और इनको हथकड़ी कैसे तुमने लगायी, कैसे तुम्हारी हिम्मत हुई। तो यह सब वृत्त उसमें गोखले ने, सातवलेकर के अपने संस्मरण भी हैं। मराठी में उनकी अपनी आत्मकथा है, वह भी एक सोर्स है तो उससे ये सारी जानकारियाँ हमको मिलती हैं। बहरहाल, एक बात यह है कि संस्कृत के साहित्य की समाज के जागरण में, भारत के नवजागरण में बड़ी भूमिका रही है। और अंग्रेजों के विरुद्ध, विदेशी सत्ता के विरुद्ध बगावत का स्वर बुलंद करने में भी वेद पर लिखी हुई किताब की भूमिका रही है और उस किताब को प्रतिबंधित किया गया, यह बात थी। बाद में सातवलेकर तिलक के साथ भी रहे, और गांधी के साथ भी रहे। गांधी के बड़े अच्छे अनुयायी वे हो गये थे और गांधी उनकी बड़ी प्रशंसा करते थे। और वे जिला कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे कई-कई जगह। कई अधिवेशनों में भाग लेते रहे, यह सब कथा है। लेकिन बाकी जीवन उन्होंने ये प्रण किया कि वैदिक साहित्य के अध्ययन और प्रकाशन में अपना जीवन लगा दूँगा। जब एक किताब जरा सी छापने से इतना तहलका मचा है, तो जब चारों वेद मैं हिंदी अनुवाद, मराठी अनुवाद, गुजराती अनुवाद के साथ छापूंगा तो इससे तो समाज मे और जागृति होगी। बहुत बड़ा काम किया। 400 किताबें सातवलेकर ने अकेले लिखीं एक छोटे से गाँव में रह कर के। उसमें से कुछ छोटी छोटी किताबें हैं, कुछ बड़ी किताबें हैं, पूरा महाभारत हिंदी-मराठी अनुवाद के साथ, चारों वेद हिंदी-मराठी-गुजराती अनुवाद के साथ। और बहुत प्रामाणिक व्याख्याकार वेद के माने जाते हैं। सातवलेकर की व्याख्या पद्धति का हम कोर्स में अध्ययन कराते हैं एम.ए. में। उनकी एक इंटरप्रेटेटिव एनालिसिस की पद्धति है। तो वेद के भाष्यकार वे बड़े माने जाते हैं। लेकिन उनकी किताब की एक भूमिका रही और वे प्रतिबंधित हुईं।

    अगली किताब की मैं चर्चा करूँगा और वह भवानी भारती है। और वह अरविंद की लिखी हुई है… काव्य… वह संस्कृत में लिखा हुआ है। महायोगी अरविंद का संस्कृत में लिखा हुआ काव्य है। अरविंद संस्कृत में लिखते थे। उनकी 7 छोटी-छोटी किताबें और मिलती हैं, इसके अलावा संस्कृत में, क्योंकि वे बाद में लिखी गयीं। कविता उन्होंने और नहीं लिखी, यह तो कविता की किताब है। संस्कृत में कविता उन्होंने और नहीं लिखी। कुछ सूत्रबद्ध ग्रंथ उन्होंने; ग्रंथ भी नहीं, पतली-पतली किताबें हैं, मोनोग्राफ जैसे हैं। ब्रम्हसूत्र की शैली में उन्होंने अरविंद दर्शन की व्याख्या, निचोड़ प्रस्तुत करते हुए सूत्र ग्रंथ उन्होंने उस तरह के लिखे। ऐसी सात छोटी-छोटी किताबें उनकी संस्कृत में हैं। लेकिन इस किताब का क़िस्सा ये है कि 1904 से 1908 के बीच में अरविंद, अलीपुर बमकांड में लिप्त पाये गए। सच-मुच में लिप्त थे या नहीं, ये प्रमाणित नहीं है। क्रांतिकारियों से उनके संपर्क थे और नेशनल कॉलेज के वे प्रिंसिपल थे। वंदे मातरम पत्रिका वो बांग्ला में निकालते थे। वंदे मातरम पत्रिका में जिस तरह के लेख छपते थे उस पर तो सरकार की वक्रदृष्टि थी ही और उसके कारण अरविंद को नेशनल कॉलेज की प्रिंसिपलशिप से इस्तीफ़ा देना पड़ा। उन पर मुकदमा चला और उनको जेल हुई। जहाँ तक मुझे याद है, 1904 से 1908 के बीच वो जेल में थे। उसमें किसी रात को उन्होंने स्वप्नाविष्ट दशा में भारत माता के दर्शन किये, कुछ श्लोक उनके भीतर उदित होने लगे। संस्कृत उन्होंने विधिवत नहीं पढ़ी थी। वो तो आईसीएस बनाने के लिए उनको, उनके पिता जी जो कृष्णदत्त घोष थे, उन्होंने इंग्लैंड भेजा था। क्या अजीब मानस था, क्या अजीब मेधा थी अरविंद की, कि कहाँ से उनको साइकिक बर्स्ट हुआ कि क्या हुआ कि सब छोड़कर वेदों के अध्ययन की ओर उनकी रुचि हुई। वो भारत आए तो कुछ क्रांतिकारियों के साथ लग गए और योग-सोधना भी वो कर रहे थे, तांत्रिक साधना भी वो कर रहे थे। जेल हो गई तो उनको कुछ विजन्स आते थे, उसी में भारत माता उनको दिखी, कुछ श्लोक उदित होने लगे उनको। तो उस रात भर में उन्होंने जो स्वप्नाविष्ट दशा में अनुभव किया, उसे उन्होंने लिखना शुरू कर दिया और निन्यानवे श्लोक उन्होंने लिखे। न तो उस काव्य की उन्होंने शीर्षक दिया। अद्भुत श्लोक हैं वो अरविंद के। वो पांडुलिपि ज़ब्त कर ली गई, जब वो जेल से छूटकर आये। अरविंद भी उसको भूल-भाल गए। उसके बाद तो वो पांडिचेरी चले गए अपने योग साधना में लग गए। उन्होंने कह दिया कि अब मेरा पथ अलग होता है। राजनीति से ही अलग हो गए। उस किताब के बारे में भी भूल गए। कहीं से वो किताब मिली, मेरे ख्याल से 1975 के बाद पुराने रिकॉर्ड में जेल से वो किताब मिली और ये प्रमाणित पाया गया ये तो अरविंद की लिखी हुई है। वो उनकी पांडुलिपि पांडिचेरी के अरविंद आश्रम के आर्काइव में रखी हुई है। और हमने 1980 के आसपास एक सेमिनार किया था सागर में, आधुनिक संस्कृत साहित्य पर उसमें एक सज्जन थे हमारे मित्र हैं मुरलीधर कमलाकांत वो भवानी भारती पर अपना पर्चा पढ़ा। तो उन्होंने जब श्लोक पढ़ना शुरू किये, उसका हिन्दी अनुवाद बताना शुरू किया तो लोग चौंके। और लोगों ने कहा कि ये तो अरविंद ने नहीं लिखा होगा। कभी उन्होंने संस्कृत में लिखा हो कुछ, पता ही नहीं है। लेकिन उन्होंने बताया कि ये साबित है कि ये अरविंद का लिखा हुआ काव्य है। अरविंद ही लिख सकते थे उस तरह का संस्कृत में काव्य। अरविंद की वो संस्कृत है क्योंकि कहीं-कहीं उसमें व्याकरण की त्रुटियाँ हैं। वो पक्का पारंपरिक रीति से पढ़ा हुआ पंडित होता है या आधुनिक रीति से भी जिस तरह हम लोगों ने पढ़ा है, उसकी लिखी हुई संस्कृत नहीं है। वो तो कुछ वेद मंत्र पढ़ रहे हैं, कुछ साहित्य पढ़ रहे हैं उससे जो स्फुटित होता चला गया कुछ अद्भुत मेधा से, पूरा कॉन्टेक्स्ट उसका भारत माता को देखकर श्लोक निकल रहे हैं। वो किताब हिन्दी अनुवाद के साथ मिलती है, अंग्रेज़ी अनुवाद के साथ मिलती है। उस पर चर्चाएँ हुई हैं। ज्यादा उसके बारे में कहने की मैं ज़रूरत नहीं समझता। जिन लोगों की जिज्ञासा हो, पांडिचेरी अरविंद आश्रम से प्राप्त कर सकते हैं। कुछ श्लोक ज़रूर उसमें कि क्या वो कह रहे हैं। एक बहुत अलग तरह का भारत माता का विजन वो देखते हैं। जो कैलेंडर में हम भारत माता देखते हैं या बंकिमचंद्र चटर्जी जो अपने वंदे मातरम में जिस तरह का स्वरूप चित्रित कर रहे थे वो एकदम अलग है। वो अरविंद ही उस तरह का देख सकते थे। कलकत्ते की जो काली हैं कुछ वो उसमें आती हैं।

क्रूरैः क्षुधार्तैर्नयनैर्ज्वलद्भिर्विद्योतयन्तीं भुवनानि विश्वा।
हुङ्काररूपेण कटुस्वरेण विदारयन्तीं हृदयं सुराणाम्॥

छंद बहुत बढ़िया है। पक्का छंद है, इन्द्रवज्रा। और कह वे ये रहे हैं कि क्रूर, क्षुधार्त, जलते नयनों से सकल भुवनों को आदीपित करती, हुंकार के कटु स्वरों से देवों के भी हृदय विदारित करती, ऐसी उस देवी को देखा।

आपूर्य विश्व पशुवद्विरावैर्लेलिह्यमानाञ्च हनू कराले।
क्रूराञ्च नग्नां तमसीव चक्षुर्हिस्रस्य जन्तोर्जननीं ददर्श॥

    देवों के भी हृदय विदारित करती, पशु सदृश चीत्कारों से विश्व को भर-भर कर चाटती कराल ठुड्डी अपनी, क्रूर नग्न तमस में चमकती आँख की तरह, हिंस्र जंतु की जननी को उसने देखा। बहुत ही अलग तरह की इमेजरी है। संस्कृत कविता में इस तरह नहीं आती। एक जो अंग्रेजी खूब पढ़ा हुआ आदमी है और जिसने अंग्रेजी कविताएं भी पढ़ी हैं। वह एक अलग तरह की पोएट्री है कि वह हिंस्र जंतु की जननी जैसे है, और वह क्रूर नग्न खड़ी हुई है तमस में चमकते चक्षु की तरह वह, कुछ इस तरह से फिर वह चीख कर के आवाज़ देती है।

भो भो अवन्त्यो मगधाश्च बङ्गा अङ्गाः कलिङ्गाः कुरुसिन्धवश्च।
भो दाक्षिणात्याः शृणुतान्ध्रचोला वसन्ति ये पञ्चनदेषु शूराः॥

हे देश के लोगो ! हे अवन्ति के लोगो ! बंग के लोगो ! मगध के लोगो ! दक्षिणार्थियो ! चोलो !, ये सब है।

माताह्वये वस्तनयान् हि सर्वान् निद्रां विमुञ्चध्वमये शृणुध्वम्॥

    मैं तुम्हारी माता, मैं तुम्हें पुकारती हूँ, तुम अपनी नींद छोड़ो और जागो ! इस तरह का, पूरा काव्य इसी तरह चलता है। राष्ट्रीय जागरण की गीता उस समय लिखी गयी। 1906-07 के आसपास ही यह लिखी गयी होगी। सही-सही समय नहीं ज्ञात है क्योंकि ना तो तिथि अंकित है, और अधूरा भी है। वो पूरा अगर कर पाते, कुछ और उनको अगर लग पाता तो आगे पीछे कुछ लिखते। और शीर्षक भी देते। कुछ भी नहीं है। भवानी भारती टाइटल, जब अरविंद आश्रम के लोगों को पता चला, उन्होंने अध्ययन किया और उस समय अरविंद क्या सोच रहे थे, उस पर उन्होंने विचार किया। और उन्होंने कहा कि भवानी माता के बारे में वो सोच रहे थे उस समय और भवानी भारती नाम से एक मंदिर बनाने का भी संकल्प उस समय कर रहे थे, इसलिए भवानी भारती नाम दे दिया जाये। मेरे ख़याल में ये नाम अरविंद कदाचित् नहीं देते। शतक तो कम से कम होता ही, 100 श्लोक तो करते ही, 99 ही हैं। और भारतीय साहित्य की एक निधि हैं। वह उस कवि के द्वारा लिखी गयी संस्कृत कविता है जिसने कि सावित्री लिखी। और एक… अपने ढंग के… अनोखे कवि की रचना संस्कृत में है।  जो कि ज़ब्त कर ली गयी थी। वह तो पुलिस ने अपनी कस्टडी में रख ली थी। किस्मत की बात है कि वह मिल गयी कलकत्ता के अलीपुर जेल से और उसका अध्ययन किया गया।

    ये दो किताबों की चर्चा मैंने की जो कि बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में आयीं और ज़ब्त की गयीं। इस बीच संस्कृत पत्रकारिता के युग का उदय हो चुका है। समय कम है तो उसकी ज़्यादा चर्चा मैं नहीं करूँगा। ज़्यादा जिनको जिज्ञासा है, एक तो संस्कृत पत्रकारिता पर काफी लिखा गया है इस बीच, किताबें हैं। और 1970 में मेरे विश्वविद्यालय से डॉ. रामगोपाल मिश्र ने पीएचडी के लिए शोधकार्य किया था संस्कृत पत्रकारिता के इतिहास पर। तो 1970 में वह थीसिस सबमिट हुई थी। 1970 तक जितनी पत्रिकाएँ छपीं, उसका दस्तावेज उन्होंने तैयार किया है। वो सब गिन कर उन्होंने कहा है कि 400 पत्रिकाएँ 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से 1970 तक छपीं। इनमें से कुछ 2-4 महीने छपीं, कुछ 2-4 साल छपीं, कुछ 10-15 साल छपीं और कुछ 50-50 साल भी छपीं। लेकिन संख्या 400 है और उनके पुराने अंक उनको उस समय मिले। जैसा आशुतोष जी कह रहे थे कि एक बहुत बड़ी निधि हमने गँवा दी। और हिंदी में तो फिर भी पुरानी पत्र-पत्रिकाएँ मिल जाती हैं। मैं जहाँ रहता हूँ वहाँ सप्रे पुस्तकालय/संग्रहालय है, वहाँ उदंत मार्तण्ड के अंक कदाचित् हैं। सरस्वती के तो पुराने अंक हैं ही। बहुत सारी पुरानी हिंदी की पत्रिकाएँ जो 19वीं शताब्दी के अवसान के समय निकलीं, 20वीं शताब्दी की शुरुआत में निकलीं, वे मिल जाती हैं। लेकिन संस्कृत की पत्रिकाएँ, आप कल्पना कीजिए कि 400 पत्रिकाएँ निकलीं, और उनमें क्या सामग्री आ रही थी, क्या लिखा जा रहा था,  कुछ छिटपुट उद्धरण मिलते हैं, कुछ अंक मिलते हैं। कुछ पत्रिकाओं के अंक अभी भी मिल जाते हैं। कुछ मुझे भी देखने का संयोग मिला। अद्भुत संसार था उनमें। और इन पत्रिकाओं के ग्राहक थे, वे पढ़ी जा रही थीं। जैसा आशुतोष जी कह रहे थे, एक संवाद की स्थिति थी संस्कृत के जगत और हिंदी के जगत के बीच में, जिसको कि धीरे-धीरे ख़त्म किया गया। उपनिवेशवादी दौर में तो इसको सुनियोजित ढंग से ख़त्म किया ही जा रहा था। लेकिन आज़ादी के बाद तो बहुत ज़्यादा… इसको पूरी तरह से… जो संवाद की प्रक्रिया थी, उसको आज़ादी के बाद के 2-3 दशकों में इस तरह से ध्वस्त कर दिया गया जैसे संस्कृत से उसको कुछ लेना-देना ही नहीं रहा हिंदी के संसार का। अपनी आधुनिकता के संसार में जाकर उसने अपने आपको खोजना शुरू किया। लेकिन 1866 में पहली पत्रिका निकली, The Pandit, अंग्रेज़ी में उसका नाम था और काशी विद्या सुधानिधि संस्कृत में उसका नाम था और इसी के आसपास कई पत्रिकाएँ फिर शुरु हो गयीं। छापाखाना जैसे ही आ गया, तो संस्कृत के पंडितों ने प्रिंटिंग की तकनीक का बहुत जल्दी उपयोग करना शुरू किया। इसपे मैंने अन्यत्र लिखा है कि कैसे बंगाली अखबारों के जो संपादक-प्रकाशक थे, हिंदी अखबारों के जो संपादक-प्रकाशक थे, वे संस्कृत के पंडितों से बहुत संपर्क रखते थे, भाषा की शुद्धि के बारे में जानने के लिए। और उस समय हिंदी में जो अखबार निकले, उसमें संस्कृत के श्लोक छपते थे और नये श्लोक छपते थे, नये कवियों के संस्कृत के। उदंत मार्तण्ड के पुराने अंक देखेंगे तो उसमें संस्कृत का श्लोक, हर अंक में कोई ना कोई संस्कृत का श्लोक मिलेगा। वह नया श्लोक मिलेगा, नए कवियों का। तो ऐसी कई पत्रिकाएँ हैं जो संस्कृत में सामग्री छाप रही हैं लेकिन संस्कृत में संस्कृत माध्यम की अपनी पत्रिकाएँ, जिनकी संख्या 1970 तक ही 400 थी, लेकिन उसके बाद अभी तक तो निकली नहीं हैं। 100-150 तो अभी भी पत्रिकाएँ निकल रही हैं संस्कृत में। तो इनमें से कुछ पत्रिकाएँ तो ऐसी थीं जिनके संपादक राष्ट्रीय विचारधारा से जुड़े हुए थे और वे प्रखर और निर्भीक संपादक भी थे। उन्होंने संपादकीयों में अंग्रेज सरकार के ख़िलाफ़ लेख लिखे। कुछ सामग्री भी उन्होंने ऐसी छापी। उनमें से एक पत्रिका तो संस्कृत चंद्रिका थी, जिसके संपादक अप्पा शास्त्री राशिवडेकर थे। अप्पा शास्त्री राशिवडेकर संस्कृत जगत की बहुत बड़ी विभूति हैं। वो कवि हैं, बहुत बड़े संपादक हैं। कम लोग मिलते हैं इतने मनोयोग से, इतने परिश्रम से पत्रिका निकालने वाले। और कितना घनघोर परिश्रम उस समय हुआ करता था, आप सोचिए कि लेटर प्रेस हुआ करते थे। कैसे कंपोज़िंग हुआ करती थी, कैसे छपाई हुआ करती थी, और एक ही आदमी को सारे प्रूफ देखना है, सारे लेख जमा करना है। सामग्री कम पड़ रही हो तो उसी को सारा लिख-लिख के पूरा करना है अंक। और पैसा नहीं है तो अपने पास से पैसा भी लगाना है। हालाँकि संस्कृत चंद्रिका के 3000 ग्राहक थे, ये उसी के पुराने अंकों से पता चलता है। लेकिन अप्पा शास्त्री बार बार उसमें शिकायत करते हैं कि ग्राहक लोग अपना चंदा नहीं भेज रहे। एक-एक, दो-दो रुपये उस समय चंदा हुआ करता था। मैंने तो उनके लेखों, संपादकीयों में लिखा देखा कि दो रुपये बाकी है चंदा आपका, कृपा करके भेज दीजिए। बड़ी राशि हुआ करती थी उस समय एक रुपया, दो रुपया। मनीऑर्डर से भेजते होंगे और उससे पत्रिका छप रही है। नहीं तो अपने पास से लगा रहे हैं लेकिन पत्रिका छप रही है। कुछ पत्रिकाएँ जिनमें अंग्रेजों के खिलाफ सामग्री छपती है तो उन पर अंग्रेज सरकार की वक्रदृष्टि पड़ती है फिर। अप्पा शास्त्री पर भी अंग्रेज सरकार की वक्रदृष्टि रही। और यह पत्रिका तो कलकत्ता से शुरू हुई थी। पंडित जयदेव विद्यालंकार ने शुरू की थी। वे बूढ़े हो गये, अशक्त हो गये, तो अप्पा शास्त्री जो कि इसके बड़े अच्छे लेखक थे, उनसे पंडित जी ने निवेदन किया। अप्पा शास्त्री ने भी कहा कि मैं निकाल लूँगा। तो वे फिर इसको महाराष्ट्र ले आये। महाराष्ट्र से फिर उन्होंने इसको निकाला कई वर्षों तक। दो दशकों तक तो उन्होंने निकाला इसको। बाद में इसको बंद करना पड़ा उन्हें इसको। कोल्हापुर से भी निकाले कुछ अंक उन्होंने, फिर पूना से निकालने की कोशिश की, औंध से इन्होंने कुछ अंक निकाले, फिर वाई से निकाले। अलग-अलग जगहों पर भागना पड़ता था इनको। और शाहूजी महाराज ने भी कोई मदद नहीं की उनकी। क्योंकि एक तरफ तो बड़े राष्ट्रवादी हैं अप्पा शास्त्री राशिवडेकर और क्लाइव की ख़िलाफ़ बड़ी… बड़ी बेबाक टिप्पणी लिख रहे हैं। उसको लुटेरा बता रहे हैं संस्कृत में लिखे अपने संपादकीय में कि कितने कपटजाल इसने फैलाये हैं और कितना इसने लूटा है हमारे देश को। और दूसरी तरफ वे घोड़ पारंपरिक भी हैं। ये संस्कृत जगत में हमेशा बना रहा कि परंपरा अपने आप को कहीं बहुत नया करती है और कहीं वो पूरी तरह से अपने संसार में अपने आप को समेटती है। सातवलेकर की तरह इनकी खुली दृष्टि नहीं थी। इन्होंने उस पर भी लेख लिखना शुरू किया कि शाहूजी क्षत्रिय नहीं माने जा सकते हैं। तो साहूजी ने कहा कि तुम हमारे यहाँ से चले जाओ। इनको हटाया गया वहाँ से।

    इस बीच इन्होंने 'सुनृतवादिनी' नाम से पाक्षिक अखबार संस्कृत में शुरू किया। यह बड़ा इतिहास है कि संस्कृत में अखबार अप्पा शास्त्री निकाल रहे हैं, उसमें देश भर की खबरें आ रही हैं। वह बड़ा निर्भीक अखबार उस समय का है। बहुत थोड़े से अंक इसके अब कहीं-कहीं मिलते हैं पूना की लाइब्रेरियों में। संस्कृत चंद्रिका के तो अंक फिर भी मिल जाते हैं। दोनों पत्रिकाएँ इनको बंद करनी पड़ीं। 1905 में सुनृतवादिनी इन्होंने शुरू की थी। इसको 2-4 वर्ष निकालते रहे। इसके अलावा और भी कुछ पत्रिकाएँ थीं संस्कृत में जो बीसवीं शताब्दी के पहले, दूसरे, तीसरे दशकों में निकलीं और वह दौर ऐसा था कि उसमें गांधी जी राष्ट्र के मंच पर आ चुके थे, तिलक बड़े प्रखर नेता के तौर पर पहचाने जा चुके थे। तो संस्कृत का जो जगत था, वह आंदोलित था। 1920 में अयोध्या से 'संस्कृतसाकेतम्' नाम से अखबार शुरू किया। इसका मुख्य उद्देश्य ही विदेशी शासन का विरोध करना था। इसको फिर बंद करना पड़ा और फिर 1939-1940 में बनारस से 'ज्योतिष्मती' और 'भारत श्री', ये दो पत्रिकाएँ शुरू हुईं। खासतौर से ब्रिटिश शासन के विरोध में बहुत मुखर थीं, दोनों ही पत्रिकाएँ। और ज्योतिष्मती को तो बैन कर दिया ब्रिटिश शासन ने। कुछ अंक निकले इसके, उन्होंने तुरंत ही इसको प्रतिबंधित कर दिया। लेकिन इसको छिपा-छिपा कर छापते रहे इसके संपादक और मुद्रक। एक ही आदमी संपादक और मुद्रक हुआ करते थे। अपने घर में ही उन्होंने प्रेस डाल रखा है। वहीं चुपचाप वो कंपोज़िंग करता है और छापता है। ज्योतिष्मती के बारे में यह मिलता है कि रात भर उसकी कंपोज़िंग, प्रिंटिंग होती थी और सुबह 4 बजे तक उसके अंक छापे जाते थे और 5 बजे के आसपास उसके अंक बनारस में बाँट दिये जाते थे और उसके बाद उसके संपादक और वितरक, भूमिगत हो जाते थे। तो कुल मिला कर जब उसपे प्रतिबंध लगा दिया गया तो इन तरह से भी उसके अंक निकलते रहे। कुल मिला कर के ढाई साल यह पत्रिका ज्योतिष्मती छपी। दूसरी पत्रिका भारतश्री थी। यह भी इसी तरह की पत्रिका थी, इसी समय निकली। एक और पत्रिका 'श्री' थी। यह कश्मीर में श्रीनगर से निकली, 1931 में। और यह काफी लंबे समय तक निकलती रही। क्योंकि कश्मीर थोड़ी रिमोट जगह पर है। अच्छी पत्रिका है। मैंने इसके पुराने अंक देखे। बहुत ही मुक़म्मल पत्रिका है। सामाजिक सरोकारों पर लेख छप रहे हैं, क्रांति पर लेख छप रहे हैं। इन्हीं पत्रिकाओं में। श्री में क्रांति पर लेख छपा हुआ है। क्रांति का स्वरूप क्या होना चाहिए इस पर विचार हो रहा है, संस्कृत में। तो आप देखेंगे कि संस्कृत का जगत आधुनिकता का भी वरण करता रहा। स्वतंत्रता के संग्राम में संस्कृत में कवि, संस्कृत के पंडित, उन्होंने अपना स्वर मुखर किया। उनकी रचनाएँ भी प्रतिबंधित हुईं, पत्रिकाएँ जो उन्होंने निकालीं, वो भी प्रतिबंधित हुईं। तो कुल मिलाकर के ये इतिहास है।

    अब संक्षेप में मैं कुछ ऐसी किताबों की चर्चा करूँगा, जो सीधे-सीधे जो शीर्षक आपने रखा है, उसके दायरे में नहीं आतीं क्योंकि वे प्रतिबंधित नहीं हुईं। लेकिन मेरे हिसाब से आपको उनको अपने इस प्रोजेक्ट के दायरे में स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि वे भारत से नहीं छपीं, भारत से छपतीं तो प्रतिबंधित हो जातीं। अब आप संस्कृत के लोगों की पहुँच देखिए कि हिंदी के बारे में तो मुझे पता नहीं कि उनका क्या ग्लोबल आउटरीच है। लेकिन संस्कृत की ग्लोबल आउटरीच थी, बीसवीं शताब्दी के शुरू में और 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भी। तो विदेशों में जो संस्कृत के लोग काम कर रहे थे, पश्चिमी लोग, उनसे यहाँ के पंडितों का संपर्क था। ये संस्कृत में था। तो सत्याग्रह गीता जब क्षमादेवी राव ने लिखी संस्कृत में, और कैसे उन्होंने लिखी है... क्षमादेवी राव बहुत बड़ी कवि हैं संस्कृत की। अद्भुत उनका साहित्य संसार है। वे अलग तरह की रचनाकार हैं संस्कृत की। उनकी बहुत अलग दुनिया है। संस्कृत का जो पूरा ढर्रा है, उससे बहुत अलग। बहुत बड़े पंडित की बेटी हैं। शंकरपाण्डुरंग पंडित बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े पंडितों में से एक हैं। अंग्रेज तक उनको मानते थे कि ये तो बहुत बड़ा पंडित है। जिस तरह की अंग्रेजी में उन्होंने अपने लेख छपवाये थे इंटरनेशनल जर्नल्स में उस समय। पारंपरिक पंडित थे। लेकिन शंकरपाण्डुरंग पंडित का तो देहावसान हो गया जब क्षमादेवी राव 3 वर्ष की थीं और उनको कुछ मौका ही नहीं मिला पिता से कुछ सीखने का। बहुत ग़रीबी में उनका जीवन बीता, बहुत संघर्ष से। किसी तरह उन्होंने बी.ए. किया, बम्बई के एलफिंस्टन कॉलेज से। संस्कृत पढ़ने की बड़ी ललक थी क्योंकि पिताजी के बारे में जानती थीं कि मेरे पिताजी कितने बड़े पंडित रहे, लेकिन उसके आगे वे नहीं पढ़ सकीं। और उनकी दुनिया बदल गयी, उनका विवाह हो गया। और विवाह हुआ, बम्बई के सबसे बड़े चिकित्सक से। उनकी डिग्रियाँ देखेंगे तो चकित हो जाना पड़ता है कि विदेश से इतनी डिग्रियाँ लेकर चिकित्सा की, कोई आदमी आया है उस समय, 1920 के आसपास, राघवेंद्र राव। क्षमा राव सुंदर थीं, तो राघवेंद्र राव ने उनसे शादी कर ली, 16-17 साल, 18 साल की उम्र थी उनकी। तो इस तरह से उनकी दुनिया बदल गयी। लेकिन संस्कृत पढ़ने की ललक उनकी ख़त्म नहीं हुई तो संस्कृत में कुछ-कुछ वे लिखती रहीं। अंग्रेजी में लिखती रहीं। अंग्रेजी उनकी बहुत बढ़िया थी। अंग्रेजी में उनके नाटक छपे हैं, अंग्रेजी में उनके नाटक बम्बई के क्लबों में खेले जाते थे, थियेटरों में अभिनीत होते थे, विदेशों में चर्चा होती थी, तो ये सब है। बाद में वे समरसेट मॉम से मिलीं थीं तो उन्होंने कहा कि अंग्रेजी में क्यों लिखती हो, इससे क्या मिलेगा। तुम तो संस्कृत में लिखती हो, संस्कृत में ही क्यों नहीं लिखती। समरसेट मॉम जानते थे कि संस्कृत में लिखा जा सकता है। वे यहाँ पर महर्षि रमण के आश्रम में रहे थे। उसी पर एक उपन्यास उन्होंने लिखा था। क्षमा राव को ये बात लग गयी। उन्होंने फिर सोच लिया कि मैं अब संस्कृत में ही लिखूँगी। उसी समय जुहू के बीच पर वे टहल रही थीं। उन्होंने ये किस्सा ख़ुद ही बयान किया है। उन्होंने देखा कि लाठीचार्ज हो रहा है। क्षमा राव लिखती हैं कि मैं एकदम से दहल गयी कि कैसे लाठियाँ चला रहे हैं। और संस्कृत में लोग क्या कर रहे हैं। कैसे महाकाव्य लिख रहे हैं तो इस पर कोई क्यों नहीं लिखता। हमारे समय की गीता, इस पर कोई क्यों नहीं लिखता। और कोई नहीं लिखेगा तो मैं लिखूँगी। तो उन्होंने सत्याग्रह गीता लिखना शुरू किया। और वह अद्भुत काव्य है। सत्याग्रह गीता अगर आप पढ़ें, ट्रेंडसेटर है पूरे संस्कृत काव्य में। एकदम नये तरह का महाकाव्य आ गया, जिसमें उन्होंने महात्मा गांधी को नायक बना कर के लिखा। महात्मा गांधी तो हैं, लेकिन सारा देश नायक है। सारे देश में जो हो रहा है, उसका बयान वे करती हैं। गाँवों में जाती हैं। महिलाओं के साथ क्षमा राव ने काम किया था। कस्तूरबा गांधी के साथ वे गाँवो में गयी थीं। महात्मा गांधी से वे मिली थीं, कि मुझे कुछ काम दे दीजिए। उनके मन में बड़ी ललक थी कि मैं स्वतंत्रता संग्राम में कुछ योगदान दूँ। तो गांधी ने कहा कि बेटा तुम इतने बड़े घर की हो, तुमसे ये सब नहीं चलेगा तो तुम प्रौढ़ शिक्षा का काम करो तो कस्तूरबा के साथ वे गाँवों में जाती थीं। उनकी कहानियाँ बड़ी अद्भुत थीं। गाँव की स्त्रियाँ किस तरह से आज़ादी की लड़ाई में वो अशिक्षित महिलाएँ आगे आ रही हैं, इस पर उन्होंने कहानियाँ लिखीं हैं, संस्कृत में, अनुष्टुप छंद में। बहुत मॉडर्न शॉर्ट स्टोरीज़ उन्होंने संस्कृत में लिखीं। वह एक अलग क़िस्सा है। वे प्रतिबंधित नहीं हुईं। लेकिन वह किताब भारत में नहीं छप सकी। भारत में नहीं छप सकती थी। इतना उनके पति जानते थे। वे विदेश खूब जाते थे। इनको भी खूब बार ले गये। उन्होंने कहा कि चलो, विदेश चलते हैं। और इंग्लैंड से तो छप नहीं सकती, क्योंकि वहाँ तो हमारे कॉलोनाइजर्स हैं। फ्रांस भी खूब जाते रहते थे, तो वहाँ पेरिस में उन्होंने बात की तो पेरिस से छप सकी। और पेरिस के जो सबसे बड़े विद्वान थे उस समय के संस्कृत के, सिल्वा लेवी, उनसे मिलीं। उन्होंने भी ये किताब पढ़ी। फ्रेंच के अच्छे अखबारों में संस्कृत की इस किताब के रिव्यू छपे जो कि एक अनोखी किताब उस समय मानी गयी संस्कृत में। 1932 में पेरिस से सत्याग्रह गीता देवनागरी लिपि में पूरी छपी थी। और वो संस्करण तो अब नहीं मिलता। बाद में आज़ादी के बाद तो भारत से इसके संस्करण छपे। कहीं-कहीं पाठ्यक्रमों में भी यह चलाई जाती है। और हमारे राष्ट्रपति जी ने अभी शायद दो-एक साल पहले कहा कि मुझे पता चला कि सत्याग्रह गीता जैसी कोई एक किताब संस्कृत में लिखी गयी तो उसका तो प्रचार होना चाहिए इत्यादि। तो वह किताब तो मिलती है और इसपे इसलिए मैं बात करना चाहता हूँ क्योंकि एक बड़ा काव्य संस्कृत में उस समय लिखा गया है जिसका बहुत असर पड़ा। क्षमा राव का बड़ा गहरा असर उस समय के और बाद के कवियों पर पड़ा और ठीक उसी समय या इसके कुछ बाद भगवदाचार्य ने ट्रायलॉजी अपनी लिखी। क्षमा राव की भी ट्रायलॉजी है। त्रयी है उनके महाकाव्यों की। पूरा गांधी जी का, और नाथूराम गोडसे उनको गोली मारता है, उस समय तक का पूरा जीवन वृत्त उन्होंने, बाद में दो महाकाव्य और लिखे। वे फिर 1951-52 तक आते रहे तो उन पर प्रतिबंध लगने का, उनकी छपाई रुकने का कोई सवाल नहीं था। भगवदाचार्य फिर दूसरे कवि हुए। वे भी गांधीजी के साथ रहे। गाँधीजी साबरमती आश्रम में उनको बुला कर उनसे संस्कृत पढ़वाते थे, संस्कृत के अच्छे पंडित थे। और दक्षिण अफ्रीका में भी उन्होंने शायद कुछ काम किया था या उनका सम्पर्क था। तो फिर बाद में केन्या से उनके तीन बड़े महाकाव्य छपे। क्योंकि भारत से छपाई नहीं हो सकती थी। बहुत अच्छे महाकाव्य हैं। और बहुत विशाल यह ट्रायोलॉजी है उनकी ये तीनों। भारत पारिजात, पारिजात सौरभ और पूरा गांधीजी का उसी तरह का वृत्तांत उसमें है। बड़ी सरल, सरस भाषा में। 1925-26 के बाद 1930 तक कोई पंडित संस्कृत में इस तरह के बड़े काव्य लिख रहा है यह इससे आप समझ सकते हैं।

    अब एक किताब जो बहुत महत्वपूर्ण है, और अजय मिश्रा यहाँ बौठे हुए हैं, उन्होंने इस पर पीएचडी किया है, वे आधिकारिक व्यक्ति हैं इस पर बात करने के लिए। तो महामहोपाध्याय मथुरा प्रसाद दीक्षित थे। क्योंकि हिंदी विभाग यह कर रहा है, तो मैं यह जानकारी देना चाहता हूँ कि महामहोपाध्याय मथुरा प्रसाद दीक्षित संस्कृत के पंडित थे और संस्कृत के ही शिक्षक भी रहे। संस्कृत के साहित्यकार भी बड़े माने जाते हैं। बहुत उन्होंने संस्कृत में लिखा। लेकिन उन्होंने हिंदी के लिए भी बहुत बड़ा काम किया। पृथ्वीराज रासो का प्रामाणिक समीक्षित पाठ वाला संस्करण उन्होंने बड़े परिश्रम से तैयार किया, जो कि अभी भी बहुत काम का है। उस तरह के संस्करण बहुत कम मिलते हैं हिंदी में। क्योंकि संस्कृत में तो कुछ परम्परा क्रिटिकल एडीशन्स की उस समय आ गयी थी और संस्कृत में एक परंपरा भी थी कि पाठ, भेद, पोथियों में मिला कर के कैसे कैसे प्रामाणिक पाठ तैयार किया जाये। तो उसके संस्कार के कारण पृथ्वीराज रासो का एक प्रामाणिक संस्करण पंडित मथुरा प्रसाद दीक्षित ने तैयार किया था। वे एडिसन कॉलेज, लाहौर में भी अध्यापन करते रहे लेकिन असहयोग आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए उन्होंने नौकरी छोड़ी। सोलन में फिर वे प्रधानाचार्य हुए। तारणेश महाविद्यालय, सोलन में वे प्रिंसिपल रहे। 24 किताबें संस्कृत में उन्होंने लिखीं, जिनमें से कई नाटक हैं बहुत अच्छे और उसमें 6 अंकों में उन्होंने भारत विजयः नाटक 1937 में लिखा। अब चूंकि कॉलेज जो था उनका, तारणेश महाविद्यालय, वह सोलन के महाराजा के स्टेट का कॉलेज था। तो कोई किताब वो नहीं छपवा सकते थे। तो किताब वे लेकर के, जो दीवान हैं, देवी प्रसाद शायद उनका नाम है। देवी लाल उनका नाम है, उनके पास गये कि ये मैंने भारत विजयः नाटक लिखा है, तो इसको छपवाने की अनुमति दे दीजिए। तो उन्होंने कहा कि मैं देखता हूँ। वे संस्कृत समझते थे देवी लाल जी। उन्होंने उसे पढ़ा। पढ़ कर वे चकराये। ये तो भारत स्वतंत्र हो गया, ऐसी कल्पना उन्होंने की। 1937 में मथुरा प्रसाद दीक्षित ने नाटक लिखा, 6 अंकों में, जिसके आखिरी अंक में उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम दिखाया और ये कल्पना की कि गांधीजी के असहयोग आंदोलन के प्रभाव से भारत माता की बेड़ियाँ टूट जाती हैं और अंग्रेज भाग रहे हैं। देवी लाल जी ने कहा कि ये तो खतरनाक किताब पंडित जी आपने लिखी। और ये तो मैं आपको नहीं दूँगा, मैं लौटाऊँगा ही नहीं आपको क्योंकि आपके लिए भी मुसीबत हो जायेगी अगर ये छपेगी तो, और हमारे लिए भी ख़ामख़ा मुसीबत हो जायेगी। तो उन्होंने उसे अपने सेफ में रख ली। अब पंडित जी भी क्या करते, उसी स्टेट में वे भी नौकरी कर रहे थे। यह किताब उनके पास रखी रही। महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज कुछ समय बाद आये, 1937 में जब उन्होंने ये किताब रख ली, तो देवी लाल जी ने ये किताब उनको बतायी। उनके मन में कुछ अपराधबोध था कि नाटक पंडित जी का मैंने रख लिया। मैं छपने को नहीं दे रहा हूँ। और कुछ सहानुभूति स्टेट के राजाओं की थी ही स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के साथ। उन्होंने गोपीनाथ कविराज को दिखाया। गोपीनाथ कविराज ने देखा और उन्होंने कहा कि मैं मिलना चाहता हूँ, कौन हैं यह मथुरा प्रसाद जी। तो दोनों में भेंट हुई। गोपीनाथ जी तो बड़ी विभूति हैं हमारे समय के पांडित्य जगत के, दर्शन के, तंत्र के। तो उन्होंने पूछा मथुरा प्रसाद दीक्षित से कि आपने ऐसा क्यों लिख दिया ? आपको ऐसा क्यों लग रहा है कि असहयोग आंदोलन से देश स्वतंत्र हो जायेगा। और आपने तो उसको स्वतंत्र दिखा ही दिया है। तो मथुरा प्रसाद दीक्षित ने कहा कि मुझे लग रहा है कि जिस तरह से गांधीजी सत्याग्रह कर रहे हैं उसका जबरदस्त असर भारत के मानस पर हो रहा है तो इसका इतना दबाव बनेगा कि जाना पड़ेगा। कुछ इस तरह की बात उन्होंने कही। गोपीनाथ कविराज ने कहा कि अच्छा है लेकिन उन्होंने और कुछ नहीं कहा तो बात आयी-गयी हो गयी। 1946 में इतना जोर पकड़ा भारत छोड़ो आंदोलन के बाद अंग्रेजों के बाद जो पूरे देश में विरोध है कि देवी लाल जी को लगा कि मुझे फिर दोष दिया जायेगा कि यह किताब जो स्वतंत्रता संग्राम पर लिखी गयी थी, इसे आपने ज़ब्त कर के रखा है। तो उन्होंने मथुरा प्रसाद जी को बुला कर किताब लौटा दी और कहा कि अब चाहो तो छपवा लो, अब कर भी क्या लेंगे अंग्रेज, अब तो लग रहा है कि जाना पड़ेगा। अब मथुरा प्रसाद दीक्षित उसको लिये-लिये फिर रहे हैं कि कोई छाप दे। लेकिन उस समय अब उसे कोई छापने को तैयार नहीं हुआ। 1947 में आज़ादी के बाद ही वह किताब छपी। उसमें सारा क़िस्सा बयाँ किया गया है और प्रामाणिक इसलिए है क्योंकि देवीलाल जी ने खुद उसकी भूमिका में यह लिखा। देवीलाल जी से उन्होंने भूमिका लिखवायी कि आपने इसे ज़ब्त किया था, अब आप ही यह सब लिखो जो कुछ भी इसका कच्चा चिट्ठा है। यह भूमिका 1947 में जो भारत विजयः का संस्करण छपा, उसमें हिंदी में देवीलाल जी ने हिंदी में यह सारा किस्सा लिखा, जितना मैंने बताया है कि किस तरह से यह किताब इस तरह से 10-12 साल उनकी कस्टडी में रही। उन्होंने लिखा है कि मुझे अच्छा लग रहा है कि यह किताब छप रही है। आज़ादी के बाद छप रही है, यह और भी अच्छा है, कुछ इस तरह का उन्होंने उसमें लिखा है। यह अपने ढंग का बहुत ही अनोखा नाटक है। इस तरह का कोई नाटक संस्कृत में इसके पहले नहीं लिखा गया और इसके बाद भी नहीं लिखा गया। क्योंकि संस्कृत नाटक के जो सारे नाट्यशास्त्र के, भरतमुनि के विधान हैं, उससे अलग हट कर के… और इसमें तो अलग-अलग झलकियाँ हैं, पूरे देश में जो 19वीं और 20वीं शताब्दी में हो रहा है। और 19वीं और 20वीं ही नहीं, 16वीं और 17वीं से ही जो हो रहा है, कि ईस्ट इंडिया कंपनी आती है, किस तरह से बनियों की तरह से वे कुछ सुविधाएँ माँगते हैं मुग़ल बादशाहों से, किस तरह से वे पैर फैलाते हैं, इसके दृश्य हैं। फिर किस तरह से सिराज़ुद्दौला को धोखा दिया मीर जाफ़र ने, इसके दृश्य हैं। वॉरेन हेस्टिंग्स आता है इसमें पात्र बन कर के, फिर नंद कुमार का अदालत में बयान, उसको फाँसी दी जाती है, इसके भी दृश्य हैं। फिर आगे इस तरह से कहानी अलग-अलग दृश्यों में आगे बढ़ती है। एक अंक में कई-कुछ इस तरह के दृश्य हैं। उनको दिखाते हुए कहानी आगे बढ़ती है। पूरा एक अंक तो 1857 का जो ग़दर है, स्वतंत्रता संग्राम है, उस पर है। मंगल पांडे आदि जो लड़ाई कर रहे हैं, उनको लेकर के हैं, फिर तिलक आते हैं, गांधी भी अवतरित होते हैं। बीच-बीच में भारत माता भी एक पात्र के रूप में आती हैं जो कि बेड़ियों में जकड़ी हुई हैं। और भारत माता के साथ उनकी एक सखी है जो कि कश्मीर की हिमाचली बोली में बोल रही है। संस्कृत नाटक में जो एक परंपरा थी कि स्त्रियों के संवाद देशज भाषा में होंगे, तो उसके हिसाब से उन्होंने जो बोली हिमाचली थी, उसमें उन्होंने भारत माता की सखी के संवाद रखे। और वह सखी बताती है कि ये जो अंग्रेज बहुत ही धोखेबाज हैं, इनसे सावधान रहो। ये तुम्हें कितना सताते हैं। बीच-बीच में अंग्रेज़ आकर के भारत माता को कोड़े से मारता है, सुभाष चंद्र बोस आकर के उसपर झपटते हैं, ये सारे दृश्य इस तरह के उसमें हैं। यह एक अद्भुत परिकल्पना संस्कृत में इस तरह के नाटक की पंडित मथुरा प्रसाद दीक्षित ने की कि किस तरह का माहौल उस समय था। और 1937 में संस्कृत का एक रचनाकार यह सारी परिकल्पनाएँ एक नाटक के रूप में हमारे बीच में रख रहा है। तो यह भारत विजयः के बारे में थोड़ी सी जानकारी मैंने दी। ज़्यादा, मैं समझता हूँ कि समय नहीं है। एक और काव्य के बारे में थोड़े से संकोच के साथ उसकी चर्चा…

रवि कांत - "समय है, आप थोड़ा सा समय ले सकते हैं।"

राधावल्लभ शास्त्री - हाँ, ठीक है। काफी कुछ बातें मैंने कह दीं। कुछ तो छूट ही जाना चाहिए। और बाकी चर्चा आगे चलती रहेगी। लेकिन इसकी चर्चा का मुझे थोड़ा प्रलोभन इसलिए भी है क्योंकि हिंदी के लोग इसमें हैं, हिंदी के प्राध्यापक भी कदाचित् इसमें होंगे तो… 'मतवाला' हिंदी की एक पत्रिका थी। बहुत ही इतिहास है उस पत्रिका का, आप सभी लोग जानते ही होंगे। निरालाजी भी उसके सम्पादक रहे, जहाँ तक मुझे जानकारी है। पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' भी उसके संपादक रहे, जो कि अद्वितीय विभूति हैं हमारे समय की। उग्र जी का क्या कहना है। जैसा कि मैंने बताया कि हिंदी की पत्रिकाओं में, कभी संस्कृत के काव्य, संस्कृत के लेख छपा करते थे। तो इस काव्य के बारे में पता नहीं था लोगों को। 1980 के बाद अचानक… हिंदी में तो किसी का ध्यान नहीं था कि मतवाला में यह काव्य छपा है। हमारे एक गुरुतुल्य गुरु थे, भास्कराचार्य त्रिपाठी। तो भोपाल के साहित्य अकादमी के दफ़्तर में मतवाला के कुछ अंक पड़े थे, वे पलट के देख रहे थे तो उनको संस्कृत में छपा एक काव्य मतवाला के तीसरे वर्ष के 27वें अंक में, 1926 में जो छपा है, उसमें काव्य उनको मिला। यह लंडनस्तोत्तम काव्य है। और नरोत्तम शास्त्री गांगेय इसके कवि हैं। नरोत्तम शास्त्री गांगेय,, विष्णुकांत शास्त्री के पिताजी थे। दुर्भाग्य से विष्णुकांत शास्त्री से भेंट तो होती रहती थी, लेकिन मैं जब-जब मिला उनसे पूछना भूल गया कि क्या उनके पास कुछ और सामग्री है क्या अपने पिताजी की। बहुत कुछ लिखा है उन्होंने संस्कृत में। मुझे संस्कृत चंद्रिका में उनके लेख मिलते थे, नरोत्तम शास्त्री गांगेय के। अपने ढंग के अनोखे पण्डित थे वे। अब लंडनस्तोत्तम उन्होंने लिखा और उग्र जी ने छापा। वे समझ गये थे कि हिंदी में इसको नहीं लिखा जा सकता, इस तरह का काव्य। उसके शीर्षक से आप समझ गये होंगे कि लंदन का स्त्रोत है। लेकिन जैसी उग्र जी की रुचि थी, और जैसा नरोत्तम शास्त्री जी का कवि स्वभाव था कुछ, यह पूरा काव्य श्लेष में लिखा गया। लंदन की स्तुति है, राजस्तुति है, माने लंदन का ध्वंस है। स्तुति करने के बहाने लंदन को डीकॉन्सट्रक्ट किया गया है, उसकी निंदा की गयी है। लंदन की निंदा नहीं, अंग्रेजों की निंदा है एक तरह से। क्योंकि लंदन का नाम तो फिर काव्य में दुबारा आता नहीं, अंग्रेजों का आता है। पूरा काव्य अंग्रेजों के बारे में है। और लंदन शीर्षक उन्होंने इसलिए लिखा है कि पूरे काव्य में उन्होंने श्लेष बनाया है। और श्लेष चूंकि बनाया है, कोई समझ नहीं पाया कि क्या कह रहे हैं। आप इसका 'न' निकाल दीजिए तो बहुत ही अश्लील शब्द बनता है, जो, हमारा ऑर्गन है पुरुष है उसका बोधक हो जाता है। अब सारे श्लोक जो हैं इसके, मेरे ख़याल से कुछ साठ-एक श्लोक हैं, वे दोनों का वर्णन एक साथ करते हैं। उसमें उग्र जी जो चाह रहे थे कि लोग यह अर्थ इसका समझें। जो पाठक है हिंदी का और जिसे संस्कृत आती है, तो उसमें श्लेष बना रहे हैं। एक तो पूरा काव्य व्यंग्य का है, कि संस्कृत के स्रोतों में जिस तरह से विनियोग, देवता और ऋषि होता है, उस तरह से उन्होंने उसका विनियोग,देवता और ऋषि लिखा।

ओम अस्य श्री लण्डनस्त्रोत-महा-मन्त्रस्य गांगेय,
ऋषिः भवुष्टुष्छन्दः,
श्रीलण्डनो देवता, विदग्ध, साधकः, पारतंत्रयम्-बीजं, उत्तेजना शक्तिः, साम्य- 
विचार: कीलकम्‌, कूट नीति:-ज्ञान पूर्वकम्‌ अर्थ सम्पादने विनियोगः।

    अब आप इससे समझ लीजिए कि दोनों बातें वे कह रहे हैं। रति, अभिसार, स्त्री पुरुष, सारे अर्थ इसमें लग रहे हैं। लेकिन ये विदग्ध साधक, पारतंत्र बीज, उत्तेजना शक्ति, साम्य विचार, कीलक होना, कूटनीति ज्ञान होना, ये सब तो सीधे-सीधे राजनीति के संकेत हैं ही। तो इस पर विवाद हो गया था। मैंने इसपे लेख छापा, लेख भेज दिया था समकालीन भारतीय साहित्य में, बहुत अच्छे हमारे मित्र हैं, बहुत प्रबुद्ध व्यक्ति हैं, संस्कृत के बड़े स्कॉलर हैं, पंड्या साहब, तो उन्होंने लिखा कि यह तो अश्लील है… और राधावल्लभ जी ने कैसे इस पर लेख लिख दिया है। और मैंने फिर लिखा उसका जवाब कि हमारे आचार्य बताते हैं कि श्लेष में अगर निकल रहा है अश्लील दोष, तो फिर वह दोष नहीं माना जाता क्योंकि आप फिर दूसरा अर्थ निकाल कर उसका परिहार कर रहे हैं और कह सकते हैं कि मेरा आशय उससे है। अंग्रेजों के ध्वंस से है, मैं वह नहीं बताना चाह रहा हूँ। और सारी बात ही वही थी, नहीं तो वे क्यों लिख रहे हैं, उसका मतलब नहीं था।  वो जो अश्लील अर्थ निकल रहा है, उसको बताने में आशय ही नहीं है; न तो उग्र जी का, जो छाप रहे हैं और न नरोत्तम शास्त्री गांगेय का। तो जिस अभिप्राय से, जिस मोटिव से वो काव्य लिखा जा रहा है, उसको ध्यान में रख कर के उस काव्य का पाठ करना चाहिए―बाद में तो ‘मतवाला’ बंद कर ही देना पड़ा उनको―

“उन्नताय सुरक्ताय बलिने छलिने भृशं। 
अबलानाम् खंडनाय लंडनाय नमो नमः॥”

आप देखिये कि सारे कितने खूबसूरत विशेषण लग रहे हैं : उन्नत है, सुरक्त है, बलि है, छली है। ‘अबलानाम् खंडनाय’ संस्कृत में ही हो सकता है, क्यूँकि अबला का भी षष्ठी में वही बनेगा और अबल का भी षष्ठी में वही बनेगा। तो निर्बलों को सताने वाला और अबलाओं को खंडित करने वाला – दोनों अर्थ निकल जायेंगे, इत्यादि, इत्यादि। 

    'अनेक देश जनता गर्व गंजन कारिणी', ये तो सीधे-सीधे अंग्रेज़ो पर ही कटाक्ष है, कितने कितने देशों की जनताओं को जो लूटता है; 'धनापहारिणी', कितना धन का अपहरण करता है, ऐसे 'तुभ्यं लंडनाय नमो नमः!' इसके साथ ही ये पूरा काव्य ही इसी स्तर पर चलता है। इस तरह के काव्य संस्कृत में लिखे जा रहे थे और अंत में―शायद मुझे अब समापन की तरफ़ बढ़ना चाहिए तो―एक और कवि, जैसा आशुतोष जी ने कहा कि अब पीड़ा हमारी यह है कि नष्ट कितना हो गया, तो एक कवि हुए―अब उनका साहित्य कहीं नहीं मिल रहा है―हरिदत्त पालिवाल ‘निर्भय’। वो भगत सिंह के साथ थे, क्रांतिकारियों के साथ थे। बहुत बड़े पारंपरिक पंडित के बेटे थे, पंडित लक्ष्मीशंकर पालिवाल, जो कि संस्कृत के बहुत बड़े पंडित थे। इन्होंने भी संस्कृत पारंपरिक रूप से पढ़ी। संस्कृत में कविताएँ लिखते थे लेकिन कुछ कम्युनिस्ट हो गये थे, साम्यवादी हो गये थे और क्रांतिकारियों के साथ थे। जेल इनको बहुत जाना पड़ा कई-कई बार, जैसा कि इनकी जीवनी में आता है। जेल में स्वास्थ्य इनका बहुत खराब हो गया था। जेल में ये कविताएँ लिखते रहे। और जेल में कविताएँ, इन्होंने महाकाव्य लिखे। 'रावणायनम्' महाकाव्य लिखा है। बड़े-बड़े काव्य 2-3 हैं और 'शंखनाद:' इनका कविता संग्रह है। उसमें सब राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े हुए गीत हैं। वे सब नष्ट हो गये हैं। छपवाया था इन्होंने, वो भी नष्ट हो गया। यह दुर्भाग्य रहा। हमने पता किया बहुत। ज़िला फ़र्रूख़ाबाद, क़ायमगंज में 'उपमन्यु भवन' इनका घर था। उसके पते से, अमृतलता, जो सातवलेकर निकालते थे, उसमें लेख छपते थे इनके। इनके लेख देख के मुझे लगा कि ये तो बहुत बढ़िया आदमी हैं। ये रूस गये थे तो रूस का यात्रा वृत्तांत संस्कृत में लिख रहे हैं। रूस में क्रांति कैसे हुई, इसपे संस्कृत में लिख रहे हैं। और… रूस देश की कहानियों का अनुवाद संस्कृत में कर रहे हैं। ये सब हरिदत्त पालीवाल के जो छिटपुट लेख हैं, उनसे पता चल रहा है कि वे लिख चुके अभी तक। तो हमने फिर उस पते पर संपर्क किया। तो तब तक दुर्भाग्य से इनका निधन हो चुका था। तो उनके बेटे मिले। उन्होंने बताया कि कोई आये थे, वे उठा के ले गये कि छपवा दूँगा, अब तो कुछ पता नहीं वह कहाँ है। रोने लग गये कि हमें कहाँ पता था कि हमारे पिताजी इतने बड़े साहित्यकार हैं, और इतना कुछ लिख रहे हैं और उनमें बहुत कुछ काम का भी है, एक दिन लोग पूछते हुए आयेंगे, हमें तो कुछ पता नहीं था। ऐसा कई लोगों के साथ हुआ। उनकी पोथियाँ बहा दी गयीं, नष्ट कर दी गयीं, उन्होंने क्या लिखा था। ये सब हुआ। तो हरिदत्त पालीवाल की रचना ज़ब्त कर ली गयीं जो कुछ जेल में उन्होंने लिखीं। कुछ जो बचीं बाहर आने पर, वे कुछ आयीं भी तो अब नहीं मिल रही हैं। जो पत्रिकाओं में है, वो थोड़ा बहुत उनका, वही हमारे सामने है। उसके आधार पर  हम कह सकते हैं कि क्या लिख रहे थे। 1942 के आंदोलन के समय क्या लिख रहे थे। गांधीजी की तो उन्होंने बहुत निंदा की कि ऐसे होता है क्या ! ऐसे क्या आज़ाद हो जायेगा देश ? ऐसे अहिंसा का पाठ पढ़ाने से क्या आज़ाद हो जायेगा देश ? और उनकी यह सोच अंत तक बनी रही। और आज़ादी के बाद भी बड़ी तेज कविता उन्होंने लिखी कि यह आज़ादी है ? यह कोई आज़ादी नहीं है। यह संस्कृत में उन्होंने लिखा, यह कविताएँ कुछ मिलती हैं, छिटपुट कविताएँ उनकी। और जो अकाल था बंगाल का, उसमें उन्होंने यह गीत लिखा था, यह मिलता है…

एकम् तनव्रत नग्नागम् निष्पृच्छग मातप्रशीतं ।
यूरोवृद्धाणाः मेकवन रक्तचिद्इदंदिग्धं ;
एकं प्रेतवनं तत् यत्र न कश्चिद् क्षोकालापि ।
एको ब्रह्मयन आत्मा यस्य न केहः कोपि क्वापि ।।

अलग तरह का गीत है, बंद है संस्कृत में अलग प्रकार का। और सारा देश नंगा, भूखा, सर्दी, गर्मी, आतप, वर्षा, शीतकाल में नंगा खड़ा हुआ, यूरोप के कील उसको नोंच-नोंच के खा रहे हैं, खून रिस रहा है उसकी काया से।

यूरोवृद्धाणाः मेकवन रक्तचिद्इदंदिग्धं;
एकं प्रेतवनं तत् यत्र न कश्चिद् क्षोकालापि।

श्मशान बन चुका है सारा देश।

एको ब्रह्मयन आत्मा यस्य न केहः कोपि क्वापि ।।

भटकती आत्मा की तरह, मेरा सारा देश, उसका घर छीन लिया गया है, उसका घर नहीं बचा है।

यह लिख रहे हैं हरिदत्त पालीवाल, निर्भय उनका उपनाम था। तो जितना लेखन उससे मिलता है, उसमें सुभाष चंद्र बोस के लिए उन्होंने काफी लिखा। क्रांति के गीत जो थे, उस तरह के क्रांति के गीत उन्होंने काफी लिखे।

अटलक्रान्तेर्गायत गीतं प्रलयताण्डवं मण्डयत।
शान्तं गगनं विशोभयत द्विषतां हृदयं कम्पयत।।

अटल क्रांति के गीत गाओ, प्रलय का तांडव रचाओ, शांत गगन को झकझोर दो, शत्रु के हृदय को कंपा दो।

स्वतंत्रतासम्मदमत्ता वलिवेदीवत्र्माध्वन्या रे।

बहुत सारे नये फ्रेज़ेज़ आ रहे हैं संस्कृत कविता में, आप देखिए कि स्वतंत्रता के मद में मतवाले तुम लोग, बलिवेदी के रास्ते पर चलने वाले राही तुम लोग, शहीद लोग…

कथं न विभियाद्योऽरिजनः शिरसा धृतमृति शीर्षण्या रे।।

तुमसे दुश्मन क्यों नहीं डरेगा, तुमने तो सिर पर मृति शीर्षण्य बाँध रखा है। यह उन्होंने कफन के लिए संस्कृत शब्द बनाया। क्योंकि संस्कृत में तो कफन के लिए शब्द नहीं है। तो मृति शीर्षण्य… मौत पर जो, मौत के लिए जो सिर पर बाँधा जाता है कपड़ा, तुम् वह कफन बाँध कर निकल पड़े हो तो क्यों नहीं तुम्हारा दुश्मन तुमसे डरेगा।

अद्य निराशयामाशायाः पुरनरिपि निसृतं सञ्चारम्।
बन्दिनो भङ्क्त कारागारम्।।

इस निराशा के अंधेरे में आशा की किरण फिर से जलाओ बंदियो ! कारागार की दीवारें तोड़ दो।

ऐसे बहुत सारे गीत हैं, जब सुभाष चंद्र बोस ने नारा दिया था दिल्ली चलो, तब उस समय शायद यह गीत लिखा होगा संस्कृत में।

यद्यस्ति जीवितव्यं क्राम्याव देहलीं तत्।
यद्यस्ति वर्तितव्यं क्राम्याव देहलीं तत्॥
यद्यस्ति कर्मकार्यम् क्राम्याव देहलीं तत्।
यद्यस्ति लब्धमन्यं क्राम्याव देहलीं तत्॥

ज़िंदा रहना है तो देहली चल के देहली को हम रौंदेंगे, कुछ करना है, आगे बढ़ना है तो देहली चल के देहली को रौंद देंगे हम। विदेशी शासन के लिए है। तो ये सारे… देवभाषा संकलन उनका है, उसमें ये कविताएँ थीं। और अमृतलता में कुछ लेख उनके परिचितों के छपे हैं, उनमें ये कविताएँ उद्धृत हैं। तो उससे लगता है कि ये साहित्य उनका था। उसमें से काफी कुछ काल-कवलित हुआ, कुछ ज़ब्त हुआ। जो रह भी गया था तो बाद की पीढ़ियों ने उसको नहीं रखा। तो इन शब्दों के साथ मैं समझता हूँ कि मुझे यहाँ समाप्त करना चाहिए। जो कुछ मेरे पास था, जितना मैं प्रस्तुत कर सकता था, मैंने यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास किया। आपने मुझे समय दिया और धैर्यपूर्वक मेरी बातों को सुना, इसका मैं आभारी हूँ। बहुत-बहुत धन्यवाद।


रविकांत - बहुत-बहुत शुक्रिया प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी। हमेशा की तरह ख़ूब आनंद आया, बहुत मजा आया और बहुत कुछ जैसा कि नवोन्मेष ग्रुप जो हम लोग का संस्कृत पढ़ने-पढ़ाने वालों का ग्रुप है, जो आपके निर्देशन में चलता है, जिसमें बलराम शुक्ल और अजय मिश्र और भी कई दोस्त जुड़े हुए हैं। मैं भी वहाँ लर्नर हूँ। मैं कुछ-कुछ सीखने की कोशिश करता हूँ वैसे ही जैसे कि आपने जो सेतु का काम किया है। जैसे कि गजेंद्र जी ने अपनी भूमिका में हमें बताया कि संस्कृत और हिन्दी के बीच में, उसकी अर्वाचीनता के बारे में हमें बताकर उसकी बहुत सारी रुढ़ियाँ तोड़ी हैं कि संस्कृत और संस्कृत में लिखने वाले जो पंडित थे, चाहे वो प्रतिमान का लेख हो, चाहे दीगर जगहों पर, चाहे यूट्यूब प्रोजेक्ट चैनल है नवोन्मेष का, उस पर जाकर देखें तो पायेंगे कि संस्कृत उतनी ही आधुनिक भाषा भी है, लोगों की भाषा भी है। हम सोच सकते हैं कि क्या संस्कृत बतौर भाषा और बतौर साहित्य 'प्रतिबंधित साहित्य' के दायरे में एक नई तरह की चुनौती नहीं पेश कर रही है हमारे सामने। हम जो प्रोजेक्ट कर रहे हैं तो हमें उर्दू और हिन्दी का साहित्य सबसे पहले दिखाई देता है, क्योंकि संख्या ज्यादा है जिसका कि डॉक्युमेंटेशन हो पाया है। लेकिन देखिए कि प्रो. त्रिपाठी हमें उस डॉक्युमेंटशन के मुश्किलात् की ओर भी इशारा कर रहे हैं जोकि अभी हुआ नहीं है। बहुत सारी चीज़ें हम लॉस्ट मानकर चल रहे हैं। हो सकता है इनमें से कुछ चीज़ें इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी में भी मौजूद हों। हो सकता है कि संस्कृत की बहुत सारी चीज़ें इस लायक नहीं समझी गयीं कि उसको प्रतिबंधित करके मशहूर कर दिया जाये, ये भी हो सकता है । ये भी हो सकता है कि संस्कृत का जो दायरा था, पढ़ने-पढ़ाने वाले लोगों का और उसमें ज्ञान बाँटने वालों का और उसके जरिए स्वतंत्रता संघर्ष करने वालों का कोई इतना नीश (niche) ग्रुप था कि वहाँ तक अंग्रेजों की भी या उनके कारकून की पहुँच नहीं रही होगी। लेकिन फिर भी कितना कुछ है जिसे हम लोगों को पढ़ना है और धीरे-धीरे हम कोशिश करेंगे कि अपने प्रोजेक्ट का दायरा बढ़ायें। हम नहीं भी बढ़ा पाये तो इस बात को तो आगे ले जाने की कोशिश ज़रूर करेंगे जिनकी ओर प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी ने इशारा किया है। I'm sure बहुत सारे सवाल होंगे आप लोगों के पास। ये जानना हम चाहेंगे प्रो. त्रिपाठी से, मैं शुरुआत कर देता हूँ सर कि एक तो आपने हमसे बिल्कुल सही कहा है और हम उस लाइन पर बातचीत ज़रूर करेंगे कि जो प्रतिबंधित नहीं भी हो पाया और जाहिर है कि जो एक cat and mouse गेम है, अंग्रेज सरकार और देशभक्तों के बीच में या देशभक्त साहित्य जो लिख रहे हैं उनके बीच में, हम किस तरह से लिखें और कहाँ से छापें, कितना छापें और छापकर के कैसे गायब कर दें कि वहीं पहुँचे जहाँ उसको पहुँचना चाहिए। ये संस्कृत में एक ख़ासियत यह रही होगी मेरे ख्याल से, कितना सच है कितना ग़लत है, एक तो ये स्ट्रेटजी तो बहुत सारे लोग ये रणनीति अपना रहे थे कि बाहर से छापें और संस्कृत में भी चीज़ें बाहर से छपीं। लेकिन बहुत सारी चीजें ऐसी होंगी जो दबा दी गयीं जैसे कि सोलन वाले केस में, देवीप्रसाद जी वाले केस में, भारत विजयम वाले केस में दिखता है। दबा दी गयीं और आखिर में उनको निकाला जाता है। तो उनका कुछ भी हमारा उद्देश्य रहना चाहिए। लेकिन संस्कृत भी उन्हीं संघर्षों से रू-ब-रू थी, जिन संघर्षों से बाकी भाषाएँ थी। और अद्भुत है, लंडन स्रोतम अद्भुत है जो एक साथ दो तरह के प्रतिबंधित साहित्य को हमारे सामने पेश करता है। एक जिसे हम अश्लील कह सकते हैं, दूसरा जो कि अंग्रेजों के खिलाफ़ लिखा हुआ साहित्य था एक तरह से और श्लेष में लिखा हुआ साहित्य था। तो ये एक रणनीति है, रचनात्मक रणनीति थी उस लेखक की, उस कवि की। ये कितनी दिलचस्प बात है जिसका हमें फायदा उठाना चाहिए हिन्दी को भी समझने के लिए और बाकी उर्दू को भी समझने के लिए और बाकी भाषाओं में लिखे साहित्य को भी समझने के लिए। I'm sure बहुत सारे सवाल होंगे हमारे श्रोताओं के पास और कुछ लोग CSDS से भी जुड़े हैं जो परिचित हैं संस्कृत साहित्य से, जो परिचित हैं हिन्दी साहित्य से, प्रतिबंधित साहित्य से भी और बहुत सारे लोग होंगे जिनके पास सवाल होंगे। तो मैं मंच खोलता हूँ आपके लिए।

सवाल (सोनू के शर्मा) - प्रणाम सर। सर मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बोल रहा हूँ। मेरी एक सहज जिज्ञासा है कि संस्कृत साहित्य के इतिहास में स्त्रियों की भूमिका क्या है? और उनकी भूमिका गौण या नगण्य क्यों समझी जाती है ?

राधावल्लभ त्रिपाठी - क्या इसका उत्तर देना है क्योंकि ये विषय से संबंधित तो नहीं है। मैंने चूँकि इस पर अन्यत्र लिखा है, महिला संस्कृत कवियों पर और मेरी इतिहास की किताब है उसमें भी सामग्री है। तो मैं समझता हूँ उसको देख लें। यहाँ उसके लिए अवसर नहीं है। अगला प्रश्न लिया जाये।

सवाल (अजय कुमार मिश्र) - लंदन स्रोतम की जो बात होती है, तो मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है कि श्लेष के माध्यम से या अन्योक्ति के माध्यम से जो बातें आ रही हैं तो जिस कालखंड में इसकी रचना हो रही है उस कालखंड में कोई ऐसा औपनिवेशिक दबाव नहीं दिख रहा। हम आजादी की ओर आगे बढ़ चुके हैं। तो ऐसी उस स्थिति में लंदन स्रोतम की जो आर्द्र सौष्ठव है या उसका एक जो औपनिवेशिक जो महत्व है उसकी कुछेक चीज़ और आप बताते तो अच्छा लगता। 

(सवाल) रविकांत - मैं इसमें एक चीज़ जोड़ना चाहूँगा प्रो. त्रिपाठी कि एक जो सवाल है अंग्रेज़ी राज में और जिस समय राष्ट्रवादी आंदोलन हमारा हो रहा था उसमें सवाल एक मैस्कुलिनिटी का सवाल है कि अंग्रेज़ अपने आप को एक ऐसे पुरुष सत्तावादी इंसान के रूप में देखते हैं, सत्ता के रूप में देखते हैं जिनमें अकूत पुरुषत्व भरा पड़ा है। और भारत के लोग कहीं न कहीं जनाना खूबियों से लैस हैं या मर्दाना नहीं हैं। वो निर्बल हैं, अबला हैं, तो उसमें, उस परिपेक्ष्य में, जहाँ पर कि गांधी एक तीसरा, जैसा कि आशीष नंदी ने भी कहा है कि गांधी ने जनानेपन को ही एक तरह से रेखांकित किया, उसी में गुण ढूँढ़े भारतीयों के लिए और उस संदर्भ में हम लंदन स्रोत को कैसे देखें। उस लड़ाई में, अगर उसमें श्लेष भी है, एक तरह से उनके पुरुषत्व का भंजन भी मुझे कम से कम दिख रहा है। यह उस दावे का भंजन है कि हम इतने मर्द हैं कि हम तुम पर शासन करते रहेंगे। मुझे ऐसा लगा आपके व्याख्यान को सुनकर, आप जाहिर है कि हमें बेहतर बता सकते हैं। 

राधावल्लभ त्रिपाठी - अच्छा मुझे कुछ कहना है क्या? अजय जी के... 

रविकांत - ये जो पुरुषत्व का सवाल है, एक विमर्श है, औपनिवेशिक विमर्श है, इसमें कि अंग्रेज़ अपने आप को पुरुष मानते हैं और चूँकि हिंदुस्तानी जिन पर वो राज करते हैं वो अबला हैं, निर्बल हैं तो उस परिपेक्ष्य में लंदन स्रोत काव्य का क्या हस्तक्षेप है? 

राधावल्लभ त्रिपाठी - अजय जी ने जो प्रश्न उठाया है उस पर तो बहुत लंबी चर्चा हो सकती है। औपनिवेशिक दौर में साहित्य को, कविता को, शब्दों को किस तरह से हथियार बनाया जा रहा है, उसके लिए क्या रणनीति अपनाई जा रही है ये पूरा इतिहास है। रंगमंच में तो हम देखते हैं कि 'कीचकवध' नाटक लिखा गया, ये नारायण प्रसाद बेताब के नाटक हैं, राधेश्याम कथावाचक के नाटक हैं, तो ये आग लगा रहे हैं और महाभारत पर वो लिख रहे हैं, द्रौपदी चीर हरण का नाटक कर रहे हैं, अभिमन्यु वध नाटक कर रहे हैं। जनता सारी हजार-हजार की जनता देख रही है। वो जानते हैं कि ये अभिमन्यु अंग्रेजों के खिलाफ़ एक शहीद की तरह बढ़ रहा है। और हे वीर ! आगे बढ़ो, आगे बढ़ो, देश के लिए आगे बढ़ो। इस तरह के गीत उसमें गाये जा रहे हैं। लेकिन अंग्रेज़ कुछ नहीं कर सकते क्योंकि माइथोलॉजी है। जनता में उत्तेजना फैल जाएगी कि ये तो धार्मिक नाटक है, इसको कैसे रोक दिया। तो ये माइथोलॉजी का इस्तेमाल कर रहे हैं, श्लेष का इस्तेमाल कर रहे हैं। बहुत सारे इस तरह के औजार अपना रहे हैं जिससे कि बात पहुँचाई जाये। क्रांतिकारी लोग जिस तरह से ये रोटी और कमल बेच रहे हैं तो शब्दों के द्वारा रणनीति बनाने के कई तरीके होते हैं तो उस समय के हमारे साहित्यकार ये कर रहे हैं। और लंबा इतिहास है, भारतीय रंगमंच का इतिहास अगर आप देखें। जो नाटक धर्म पर आधारित खेले जा रहे हैं, उनको देखें। तो किस तरह से औपनिवेशिक दौर में जनजागरण के लिए कलाओं को माध्यम बनाया गया। चित्रकला भी हो सकती है, नृत्यकला भी हो सकती है, साहित्य भी हो सकता है। संगीत के बारे में तो मैं नहीं कह सकता। लेकिन ये माध्यम एक अलग तरह का बहुत दूरगामी असर छोड़ते हैं। इसलिए इन्हें नगण्य नहीं समझना चाहिए। और आज़ादी की लड़ाई में इनका योगदान रहा है, मानसिकता बदलने में इनका योगदान रहा है, ये मैं कह सकता हूँ। बाकी, मैं, चूँकि व्यवधान बहुत हो रहा है तो मैं ठीक से सुन नहीं पा रहा हूँ। यहाँ कुछ समस्या है, जहाँ मैं बैठा हूँ।

(सवाल) रविकांत - क्या ऐसा भी हुआ कि आपको संस्कृत का जो विशाल आधुनिक साहित्य है, खासतौर पर, राष्ट्रवादी तेवर का, देशभक्ति के तेवर का, क्या उनमें कुछ सुनते हुए आपको ऐसा भी लगा क्या कि इसको प्रतिबंधित होना चाहिए था, और नहीं हुआ और इसे जानबूझकर नज़रअंदाज किया गया। ऐसा भी कभी लगा क्या ?

राधावल्लभ त्रिपाठी - हाँ, ऐसा लगा। बहुत लगा। अब देखिए कि, लंडन स्त्रोतम, नरोत्तम शास्त्री गांगेय उसको संस्कृत में लिख रहे हैं, उग्र जी छाप रहे हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अब हिंदी में वे इसे लिखेंगे तो तुरंत ज़ब्त कर लिए जायेंगे। और संस्कृत में छपा है तो लोग उसे पढ़ कर समझेंगे तो… भले ही जिनको संस्कृत नहीं आती, हिंदी आती है, वे भी उसका कुछ आशय तो निकाल ही लेंगे। कुछ चर्चा होगी, कुछ सुगबुगाहट होगी तो वे भी समझेंगे कि ये लंडन क्या है, किसकी चर्चा कर रहे हैं, तो भीतर ही भीतर तो वह फैलेगा। लेकिन सरकार उसपे प्रतिबंध नहीं लगा सकती क्योंकि वे कहेंगे कि साहब ! यह तो संस्कृत की कविता है, ज़्यादा से ज़्यादा आप कहिए कि इसमें अश्लीलता है, और क्या है, इसमें तो कुछ है ही नही। और फिर स्त्रोत है। सरकार से आप कहेंगे कि साहब ये तो स्तुति है आप ही की। लंदन की आप देखिए कि क्या तारीफ की है इसमें। तो सारा जस्टिफिकेशन कर सकते हैं और वहाँ समझने वाले अदालतों में कोई नहीं होंगे, यह वे जानते थे। इसलिए संस्कृत, जो अन्य भाषाओं में कहने में असुविधा है, और हमारा मक़सद नहीं पूरा होगा, पहुँच ही नहीं पायेंगे हम कि जो पहुँचाना चाह रहे। ऐसी रचनाएँ मेरे पास बहुत सारी हैं। अद्भुत काव्य हैं वे। बड़े कवियों के काव्य हैं लेकिन वे ज़ब्त नहीं हो पाये। एक तो इतनी अच्छी कविता है। गांधीजी पर पाँच लहरी गलगली रामचार्य ने लिखी। वे बड़े कवि थे। और क्या उसकी भाषा है।

सदा गान्धी टोपी ज्वलतु हृदि पापीयसि नृणाम्।।

यह गांधी टोपी आग की तरह से पापियों के हृदय को जलाती रहे।

और यह तो उसकी टेक है। हर श्लोक के अंत में चौथी लाइन यह आती है। और गांधी टोपी पर 50 श्लोक उन्होंने लिखे। चरखे पर उन्होंने चक्र लहरी लिखी। असहयोग आंदोलन पर उन्होंने असहयोग लहरी लिखी, कारागार लहरी लिखी। और सबमें वही बातें हैं। लेकिन वह कविता इतनी परिष्कृत और इतनी अच्छी है कि उसके कारण चुने हुए लोग तो उसको समझ रहे हैं। यह गांधी टोपी वाली कविता है, यह तो उनके बेटे ने संस्मरण लिखा है कि विनोबाजी वह पत्रिका मँगाते थे। तो उन्होंने वह पढ़ी और गांधीजी के पास लेकर गये कि आपके ऊपर किसी पंडित ने 50 श्लोकों का काव्य लिख दिया। तो गांधीजी बोले कि सुनाओ। तो उन्होंने सुनाया। अच्छा गांधी जी तब तक उतनी संस्कृत समझने लग गये थे। तो वो हँसते रहे उसको सुन-सुन कर के। उन्होंने कहा कि इसको रख जाओ। मैं पढ़ूँगा एक बार इसको अच्छी तरह से। यह तो अच्छी कविता लग रही है मुझे। तो समझने वाले तो समझ रहे हैं कि क्या लिख रहा है। गांधीजी खुश हो रहे हैं उससे, विनोबा खुश हो रहे हैं उसको पढ़ के, जो लोग उसको समझ रहे हैं। लेकिन अंग्रेज़ सरकार नहीं उसको समझ पाती। तो ऐसी रचनाएँ तो काफी मिलती हैं संस्कृत में। इसलिए आपने ठीक पूछा यह कि बहुत सारी रचनाएँ जो कि प्रतिबंधित हो जातीं अगर उनको हिंदी में समझाया जाता, ठेठ भाषा में बताया जाता या हिंदी में वे लिखी जातीं। तो क्योंकि हिंदी और संस्कृत का जगत इतने पास है कि संस्कृत का साहित्यकार हिंदी के अखबार वाले को खोज लेता है, हिंदी के सम्पादक को खोज लेता है। तो उसके बाद तो पहुँच जाती हैं। और ऐसा तो नहीं है कि वो हिंदी में नहीं लिखता। क्योंकि बहुत सारे बड़े साहित्यकार संस्कृत के हिंदी में बहुत अच्छा लिख रहे थे। ये भी बहुत उपेक्षित हमारा पक्ष है कि अंबिकादत्त व्यास ब्रजभाषा के बहुत अच्छे कवि हैं। उनकी कविताएँ यदि आप देखें तो भारतेंदु जैसा लिख रहे हैं, उसके मुक़ाबले में बराबरी में ठहरता है उनका काव्य, ब्रजभाषा का काव्य। भारतेंदु मंडल के बड़े सम्मानित सदस्य हैं लेकिन संस्कृत के भी साहित्यकार बन गये। उसमें भी उनकी छवि बन गयी। तो ये जो संस्कृत और हिंदी में सामीप्य था इसके कारण बहुत सारा साहित्य हिंदी के प्रकाशन जगत के माध्यम से संस्कृत के लोग पहुँचाना चाह रहे थे, पहुँचा रहे थे। ये बड़ी कथा है और इस पर काम होना चाहिए। और अभी भी जितना लुप्त हुआ है, उसको खोजा जा सके, उसको फिर से हासिल किया जा सके, इसपे काम किया जाना चाहिए। तो मेरे बोलने का अगर ऐसा असर होता, इस दिशा में कुछ हो सके, क्योंकि अब मेरी उम्र नहीं रह गयी कि पुरानी लाइब्रेरियों में जाकर के फिर सब इकट्ठा कर सकूँ। उसके लिए फिर सारे देश में घूमना पड़ेगा। कहीं जो कुछ बची रह गयी हैं संस्कृत की, उस दौर की, पूरा जो औपनिवेशिक शासन के साथ संघर्ष का दौर है, उसमें संस्कृत और हिंदी के साहित्यकार क्या कर रहे हैं। अन्य भाषाओं में भी होगा यह सब, लेकिन संस्कृत और हिंदी के बारे में मैं साधिकार कह सकता हूँ यह कि बहुत सारा साहित्य लुप्त हुआ, अब हमको नहीं मिल रहा है जो कि उस समय तो पढ़ा गया। उसको पढ़ के सनसनी फैली, उत्तेजना फैली, जो कि प्रतिबंधित होने लायक था। कुछ प्रतिबंधित भी हुआ, कुछ नहीं हो पाया तो उसकी रणनीति उसके पीछे थी, जिसके कारण ऐसा हुआ।

प्रभात - धन्यवाद प्रोफेसर त्रिपाठी। बहुत ही एनलाइटेनिंग लेक्चर लगा मुझे बल्कि बहुत सारे लोगों को लगा होगा, जो लोग संस्कृत को पुरातन भाषा प्रैक्टिकली मान लेते हैं और यही कॉमन सेंस बन गया है आजकल तो उसको ठीक करने के लिए। मैं दरअसल जानना या कहना यह चाहता हूँ कि प्रतिबंधित करने का जो रवैया था अंग्रेजों का, वह सीधे-सीधे राष्ट्रवादी चेतना से भरी कविताओं को प्रतिबंधित करेंगे, शायद ऐसा नहीं हो। जब तक सीधे-सीधे हिंसा के लिए उकसाती हुई कविता या कहानी या इस तरह के साहित्य की रचना ना हो एकदम खुले तौर पर, तब तक उनको घेरा जाता था। उनपे सवाल उठाए जाते थे, केस किये जाते थे। प्रतिबंधित इतनी जल्दी नहीं किया जाता था। खासकर के '20 के बाद, गांधीजी के वर्णन और उनकी बड़ाई को लेकर के ऐसा कम होता था। या तो हिंसा हो या उसमें कुछ समाजवादी क्रांति की बात हो या फिर कुछ दंगाई प्रवृत्ति की बात हो या फिर कम्युनिटी के ही, हिंदुस्तानी समुदाय के लोगों द्वारा ही कुछ आपत्ति की जाये कि यह असली कविता है, यह हिंसा भड़काने वाली है या जो कहते हैं आजकल भी कि समुदाय को चोट पहुँचाती हुई कविता, भावना को चोट पहुँचाने वाली कविता, साहित्य या लेखन है। तो इस तरह से प्रतिबंधित होने का कोई यूनिफॉर्म या ठोस तरीका नहीं था कि अंग्रेजों के विरोध में कोई कविता है, कहानी है, या नाटक है अंग्रेज़ियत के विरोध में तो उसको सीधा प्रतिबंधित किया जायेगा।

राधावल्लभ त्रिपाठी - हाँ, आप ठीक कह रहे हैं लेकिन जो आप कह रहे हैं वह स्थिति शायद 1930 के बाद अधिक आयी होगी क्योंकि सातवलेकर की किताब में तो कहाँ है हिंसा… वो तो वैदिक सूत्र हैं अथर्ववेद के, उसका अनुवाद कर के, उसकी व्याख्या कर रहे हैं लेकिन उस पर तो बहुत बुरी तरह प्रतिबंध लगाया गया। मुकदमे चले। जेल हुई, सातवलेकर को, पत्रिका के संपादक-प्रकाशक को जेल हुई, बहुत ही कठोर कारावास हुआ। तो यह कह नहीं सकते। लेकिन हाँ, आपने ठीक कहा कि कोई यूनिफॉर्म पैटर्न नहीं है कि कब किस पर प्रतिबंध लगायेंगे। ये एनार्किस्ट होता ही है दृष्टिकोण, जब जैसा उनको लग जाये। निरंकुशतावादी पूरा तंत्र उनका है। तो कहाँ कुचल देना है, कभी पता चल गया, कभी नहीं चला। ये सब तो होता रहा उसमें। इसीलिए कई रचनाएँ जो बड़ी तेजस्वी, प्रखर रचनाएँ हैं, बची रह गयीं, प्रतिबंधित नहीं हुईं। कई सौम्य प्रकार की रचनाएँ प्रतिबंधित हो गयीं, ये भी हुआ। और ऐसा आवश्यक नहीं था कि हर राष्ट्रवाद की रचना को प्रतिबंधित कर दिया गया। खासतौर से यह 1930 के बाद, लड़ाई जब इस तरह की हो जाती है कि गांधीजी का असर है पूरे देश में, तो अंग्रेजों के लिए आसान नहीं रह गया है प्रतिबंध बहुत ज़्यादा लगाना, इतना हम कह सकते हैं।

रविकांत - एक टिप्पणी आयी है, प्रभात जी के सवाल में कंफ्यूज़न है कि हिंसा क्या है, सत्ता इसे तय कैसे करेगी यह उस सत्ता पर निर्भर है। हाँ, लेकिन हमने पिछले सेमिनारों में देखा है कि सत्ता अपने इस कानून को लगातार संशोधित और परिवर्तित करती रही कि कैसे हम अलग-अलग तरह के उकसावे को प्रतिबंधित कर सकें। तो यह कंफ्यूज़न नहीं है, वो कैटेगरीज़ रही हैं। कंफ्यूज़न वहाँ नहीं है, कंफ्यूज़न इतिहास में ही है। सत्ता खुद कन्फ्यूज़ थी कि किसे कैसे फँसाना है। राजीव कुमार शुक्ला ने कहा है कि वे आगे बढ़ायेंगे, पालीवाल जी के परिवार से प्रत्यक्ष सम्पर्क कर के कोशिश करेंगे कि यदि ज़रा भी संभावना वहाँ कुछ प्राप्त होने की दिखे तो उसका लाभ उठाया जा सके।

(सवाल) बलराम शुक्ला - आचार्य जी को प्रणाम और इतना महत्वपूर्ण व्याख्यान देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। ये व्याख्यान हम लोगों के लिए, विशेष रूप से संस्कृत वालों के लिए बहुत महत्वपूर्ण इस दृष्टि से है कि यह स्वतंत्रता आंदोलन में संस्कृतज्ञों के हिस्से की बात करता है कि किस तरह से संस्कृत के पंडित इसमें जागरूक रहे और एक्टिव रहे। संस्कृत में अगर कोई चीज़ लिखी जा रही है तो मुख्य रूप से उसका पाठक संस्कृत का है, उसके अतिरिक्त भी उसको थोड़ा बहुत जानने वाले भी उसके पाठक हो सकते हैं। तो उस समय जितना उसपे ध्यान दिया जा रहा है, कम से कम अंग्रेजी सरकार जो है वह ज़्यादा ध्यान दे रही है क्योंकि वह ज़ब्त कर रही है उसको। लेकिन उसके बाद यह जो हमारी विरासत है, विशेष रूप से संस्कृतज्ञों की जो विरासत है, जो कि आधुनिक भारत के निर्माण में उनकी भूमिका को सुनिश्चित करता है। तो हम बाद के जो संस्कृतज्ञ हैं, जो बाद के दशकों के लोग हैं, जो हम लोग हैं, वो उस विरासत को संभालने में इतने असंवेदनशील कैसे हो गए। और वस्तुतः जितनी संवेदना हमें दिखानी चाहिए थी उनको लेकर के, उस साहित्य के प्रति, क्या हम वस्तुतः असंवेदनशील हो गये या उस समय भी संस्कृतज्ञ समाज उसी तरह से असंवेदनशील था, बाद में तो निश्चित रूप से दिखायी पड़ रहा है कि उतनी संवेदना नहीं रह गयी। तो इसका क्या कारण है, और हम इसको किस तरह से… जैसा कि आपने चर्चा की कि हमें इसे रिट्रीव करना चाहिए तो उसकी क्या प्रविधियाँ हो सकती हैं ?

राधावल्लभ त्रिपाठी - बहुत अच्छा लगा बलराम जी आपको देख कर के, और बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न आपने उठाया। जटिल प्रश्न है थोड़ा। इस समय तो बहुत विस्तार से चर्चा करना सम्भव नहीं होगा। समय बहुत हो रहा है। एक बात जो मुझे समझ आ रही है, आपने स्वयं भी संकेत किया है कि अंग्रेज नहीं उतनी अनदेखी कर रहे थे। तो सीधे-सीधे बात यह है कि संस्कृत में यदि कुछ तेजस्वी लिखा जा रहा है और हमारे समकालीन घटनाओं पर यदि कुछ लिखा जा रहा है तो सत्ता उसकी अनदेखी बहुत ज़्यादा करती है। यही नीति है। और यह तो अंग्रेजों की भी नीति थी कि संस्कृत के बारे में यह हमेशा स्थापित किया जाता रहे कि यह अतीत की भाषा है, पुरोहितों की भाषा है, कर्मकांड की भाषा है और इसका साहित्य बहुत प्राचीन साहित्य है, वर्तमान में कुछ नहीं है इसका। यह बात हमारे दिमागों में, हमारी पूरी शिक्षा नीति में भरी जा रही थी। आज़ादी के बाद भी वही शिक्षा नीति चली। और जो सरकारें आयीं, उनकी भी रुचि इसी में थी कि संस्कृत का गुणगान एक अतीत की भाषा के रूप में… अतीत का बड़ा उसका स्वर्णिम और महान साहित्य है, क्लासिक्स उसमें है, इस रूप में तो उसकी महिमा और बखान होता रहे। लेकिन उसमें यदि कुछ अच्छा, तेजस्वी, नया साहित्य लिखा जा रहा है तो वह हमारे लिए नहीं है। उसको दबाकर के रखना चाहिए क्योंकि संस्कृत उसके लिए थोड़ी है। यह हमें अंग्रेज राज में सिखाया जाता था तो हमारे जो विश्वविद्यालय बने… हमारे पारंपरिक पंडितों के मन में यह बात नहीं थी। क्योंकि वे तो ख़ुद लिख रहे थे उस तरह के काव्य। लेकिन हमारे जो विश्वविद्यालय बने अंग्रेजों की शिक्षा नीति के तहत, उसमें अंग्रेजी पढ़ कर के जो प्रोफेसर बने, उनके दिमाग में पूरी तरह से यह बात थी कि संस्कृत को हमें पढ़ाना है वेद-पुराण, ज़्यादा से ज़्यादा कालिदास, भवभूति जैसे महान जो रचनाकार हैं, उनकी रचनाओं तक हमको जाना है। उसके बाद जैसा कि पाश्चात्य भारतविद्याविदों ने लिख दिया कि दसवीं शताब्दी के बाद संस्कृत की प्रतिभा का क्षरण होता चला गया, उसमें मौलिक कुछ नहीं लिखा गया। जबकि सत्य तो इसके ठीक विपरीत था। क्योंकि मेरा कहना यह है कि दसवीं-बारहवीं शताब्दियों के बाद संस्कृत के साहित्य में सबसे ज़्यादा प्रयोग हुए, बहुत नये तरह का साहित्य बहुत ज़्यादा आया इन शताब्दियों में संस्कृत साहित्य में। और मुस्लिम पीरियड में तो बहुत ही अनोखे ढंग की रचनाएँ की गयीं अकबर के शासन काल में, जहाँगीर के शासन काल में। उसको भी अंग्रेजों की नीतियाँ थीं कि बहुत दबा कर रखा जाये। पंडितों के बीच में और जो फ़ारसी के शायर हैं, रचनाकार है, उनके बीच में संवाद हो रहा है। संस्कृत के पंडित, फ़ारसी सीख कर के संस्कृत-फ़ारसी के कोश बना रहे हैं। यह जो संवाद हो रहा है मुग़ल काल में, इसको पूरी तरह से दबा कर के रखा जाये। तो हमारे जो प्रोफेसर्स बने, यहाँ तक कि जो हमारे गुरु थे अधिकांश, जिन्होंने हमको पढ़ाया। एक हमारे गुरु रामजी उपाध्यायजी के अपवाद को छोड़कर, अधिकांश बड़े-बड़े अच्छे पण्डित थे, लेकिन उनके मन में यह बात थी कि इस समय ज़्यादा लिखा गया संस्कृत में तो उससे क्या करना है। वह हमारे क्या काम का, अरे क्यों लिखना है संस्कृत में, संस्कृत इसलिए थोड़ी है कि उसमें नया साहित्य लिखो, दूसरी भाषाओं में आ ही रहा है नया साहित्य। दूसरी भाषाओं का साहित्य पढ़ कर उसपे अच्छी व्याख्या वे कर सकते हैं। वैसा ही साहित्य संस्कृत में है, और अद्भुत रचनाएँ भी हैं, तो आप उसे पढ़ा ही रहे हैं, उसे देख लीजिए; यह तक उनके दिमाग में नहीं आता था। वे सोचते थे कि इससे कोई मतलब नहीं हमारा। हमारी नौकरी, हमारा दायित्व खाली वेद-पुराण, इतिहास, भवभूति-कालीदास इत्यादि तक पढ़ाने में है। और बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के बाद जो साहित्य है, उसको पढ़ाने के लिए हम नहीं नौकरियाँ कर रहे हैं। वे देखना ही नहीं चाहते उसको। आज़ादी के बाद तीसरे-चौथे दशक तक बहुत ज़्यादा यह स्थिति रही। चौथे दशक तक आकर के जो फिर सेकेंड जेनेरेशन आयी, उसका ध्यान इसपे गया कि ठीक है, इतना पुराना आपने पढ़ाया संस्कृत में लेकिन इसका वर्तमान क्या है ! कुछ हमारे गुरु ऐसे भी थे जो इसकी तरफ ध्यान दे रहे थे तो रिसर्च हुआ शुरू कि आधुनिक संस्कृत साहित्य पर रिसर्च भी होता है। यह हो रहा है और इसका बहुत मख़ौल उड़ाया जाता था कि यह क्या कर रहा है प्रोफेसर वहाँ बैठ कर के ! आधुनिक संस्कृत साहित्य पर रिसर्च करने को दे रहा है, क्षमादेवी राव पर रिसर्च करने को दे दिया, बताइए ! उनपे कुछ रिसर्च होगा ? वह महिला है, उसने कुछ लिख दिया, सत्याग्रह गीता वगैरह तो आप उसी पर रिसर्च करा रहे हैं ! हँसी भी उड़ायी जाती थी। बाद में, 10-20 साल लग गये। कुछ और दूसरे विश्वविद्यालयों ने भी… सागर विश्वविद्यालय में बहुत प्रयोग हुआ। आधुनिक संस्कृत साहित्य पर वहाँ सौ-एक थीसिस करायी गयीं और उसकी हँसी उड़ायी जाती थी। बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय और कुछ एक विश्वविद्यालय ने भी माना कि हाँ, आधुनिक संस्कृत साहित्य पर भी रिसर्च हो सकता है। तो धीरे-धीरे माहौल बदला लेकिन तब तक देर बहुत हो गयी थी। तो बहुत विलंब हो गया। यह एक जटिल परिदृश्य है। इस सवाल का संबंध… जो कि आपलोग चर्चा करते हैं कि, डिकॉलोनाइज़िंग इंडियन माइंड। तो वह जो विउपनिवेशीकरण की प्रक्रिया संस्कृत जगत में बहुत शून्य सी रही। हम लोगों ने सोचा भी नहीं। यहाँ तक कि पारंपरिक पंडितों के मन में भी बहुत सी अवधारणाएँ संस्कृत को लेकर के, अपनी परंपरा को लेकर के वे थीं जो कॉलोनाइज़र्स के द्वारा दी हुई थीं। हमारे जो आधुनिक प्रोफेसर्स थे, उनके दिमाग में तो थीं ही। कभी सोचा नहीं गया संस्कृत के लोगों के द्वारा कि हमें भी हमारे दिमाग़ को क्लीन करने की ज़रूरत है। मेरे भी  दिमाग़ में ऐसी बातें बहुत सी हो सकती हैं जो मेरी पिछली पीढ़ी द्वारा, जो कॉलोनाइज़्ड माइंड है, उससे सीधे चल के आयी हों। अब दूसरे विषयों के जो विद्वजन हैं, बुद्धिजीवी हैं, वे इसपे सोच रहे तो संस्कृत में भी यह बात होनी चाहिए कि कैसे यह जो औपनिवेशिक विरासत संस्कृत जगत ढो रहा है, उसे कैसे उतार के फेंका जाये, यह सवाल भी इससे जुड़ा हुआ है। बाकी तो इससे अलग ज़्यादा कहने का समय नहीं है। यह अलग से, विस्तृत चर्चा का, बहुत विचारोत्तेजक विषय हो सकता है। बलराम जी ने इस विषय को छेड़ा, इसके लिए बहुत धन्यवाद देता हूँ उनको।

(सवाल) श्रीकांत पांडेय - आप सभी सज्जनों को नमस्कार। राधावल्लभ जी मेरे बहुत पसंदीदा लेखक हैं। और राधावल्लभ जी ने एक बहुत महत्वपूर्ण पत्रिका का संपादन किया था, 'साम्य' का। संस्कृत साहित्य पर ही है वो। और उसमें आपने बड़ी महत्वपूर्ण एक बात लिखी थी कि संस्कृत साहित्य को एक पंडिताऊ भाषा मान कर के और खासकर आज के दौर में तो कहीं ना कहीं उसपे मनुवाद का भी लेबल लगा है, उसको दरकिनार कर दिया गया है। और जबकि बहुत ही... जैसे कि हरिभद्र सूरी का उसमें धूर्तोपाख्यान आपने छापा है, उसका एक हिस्सा, और वो बहुत ही सुंदर है। और मैंने तो बहुत सारे लोगों को रिममेंड भी किया वह पढ़ने के लिए। वह अंक भी मेरे पास है। अच्छा, ये बात जो हिंसा वाली थी, जो मैंने अभी कॉमेंट किया था, मेरा कहने का मतलब यह था कि यह ज़रूरी नहीं है सत्ता के लिए कि उसमें कोई दंगा-फसाद कराने की बात हो, तभी हिंसा होगी। यह देखिए कि जो 'शववाहिनी गंगा' है, जो कविता अभी बहुत ज़्यादा प्रचारित-प्रसारित हुई; और जबकि अधिकांश लोगों का मानना है कि जो महिला हैं वो कोई वामपंथी लेखिका नहीं हैं। इसके बावजूद भी जो है एक साहित्यिक नक्सल नाम का पद गढ़ा गया। इसके पहले आप देखें कि दिल्ली विश्वविद्यालय में जो 300 रामायण वाली किताबें हैं, उसमें तो हिंसा जैसी कोई बात है नहीं, लेकिन उसको भी निकलवा के ही दम लिया। आप जानते हैं कि कौन लोग हैं। फिर रेंडी की एक जो रिसर्च आयी, हिंदुइज़्म पर एक किताब थी, उसको भी किया गया। अब जैसे सोजे वतन का ही देखिए। उसमें तो कोई हिंसा या दंगा भड़काने जैसी बात थी नहीं। उसमें तो शहादत का एक भाव था। किसी भी देश में शहादत देने के भाव को बहुत ही अतुलनीय, बहुत ही शौर्यपूर्ण और अच्छा माना जाता है। यह मैं कहना चाह रहा था। और एक सवाल मैं यह पूछना चाह रहा था राधावल्लभ जी से अंतिम जो मेरी बात भी है, वो यह है कि क्या संस्कृत के व्याकरण का जो इतना सुदृढ़ दुर्ग बना दिया गया, उसने संस्कृत का इतना नुकसान किया ? और क्या बाज़ार की भाषा ना बन पाने के कारण भी संस्कृत का नुकसान हुआ ? बाज़ार से मतलब है कि जैसे कि कम्प्यूटर वगैरह में, उसका कोई इस तरीके का… हमारे यहाँ तो कोई ध्यान दिया नहीं गया है कि उसका डेवलपमेंट किया जाये उस तरीके से। तो मैं इसी अपनी अंतिम बात जो मेरी है, इस सवाल के रूप में ही इसका उत्तर राधावल्लभ त्रिपाठी जी से जानना चाहता हूँ। धन्यवाद !

राधावल्लभ त्रिपाठी - धन्यवाद ! अधिकांश जो आपने टिप्पणी की है, उससे मैं सहमत हूँ। और जो आपने हिंसा के बारे में कहा है, इस समय जो हो रहा है, वह एकदम सटीक बात आपने की है। जो सवाल आपने किया है, कि व्याकरण जो उसका पुख़्ता है, उससे उसका नुकसान हुआ है, तो इसपे तो मैंने अन्यत्र लिखा है, मुझे ऐसा नहीं लगता। व्याकरण जो है संस्कृत का, वह ऐसा ग़ज़ब का अद्भुत है कि उसमें नये प्रयोग करने की, नये शब्द बनाने की छूट है। और इसीलिए तो यह संभव हुआ कि संस्कृत में नया से नया साहित्य भी बराबर लिखा जाता रहा। और संस्कृत में ही यह हो सका कि जो कालिदास की कविता पढ़ रहा है, जो वेद पढ़ रहा है, वह आसानी से अत्याधुनिक कवि की कविता को भी समझ सकता है। अश्वदेव माधव तो बहुत ही आधुनिक कवि हैं। उन्होंने तो बहुत ही प्रयोगशील कविताएँ संस्कृत में लिखीं। तो कहाँ पर पाणिनि ने कुछ ऐसे चैनल्स बनाये कि आप नये शब्द बना सकते हैं, नये मुहावरे गढ़ सकते हैं; कहाँ पर भाषा आपको कैसी रखना है, यह उन्होंने व्यवस्था ऐसी की। इसीलिए इसे वैज्ञानिक व्याकरण माना गया। तो यह तो मैं नहीं मानता कि व्याकरण उसके आड़े आया। वह तो उल्टे सहायक है। क्योंकि जिनको समस्या हो रही है अच्छा साहित्य लिखने में, उनकी व्याकरण अच्छी नहीं है। उनको मालूम नहीं कि कैसे आप धातु से शब्द बना सकते हैं। संस्कृत में आप लाखों नये शब्द बना सकते हैं धातु के नाम पर। और अद्भुत भाषा आप खड़ी कर सकते हैं। वह अन्य किसी भाषा में सम्भव नहीं है। कितने खेल उसमें हो सकते हैं। उसकी व्याकरण की वजह से ही होता है। उसका एक आनंद और आकर्षण भी यही है कि हम संस्कृत में क्यों लिखते हैं। नहीं तो हम तो हिंदी में लिखते भी थे खूब। और हमारा तो बहुत सारा साहित्य हिंदी में छपा ही है। तो वह व्याकरण की वजह से। और उसका जो पूरा क्लासिकी बंद है, उसी की वजह से। एक तो आनंद उसमें बहुत आता है और आज़ादी बहुत है उसमें। छंदों में आज़ादी बहुत है पूरी तरह से। तो इसको तो मैं कारण नहीं मानता। और कम्प्यूटर के बारे में जो आपने कहा तो संस्कृत में, कदाचित् भारतीय भाषाओं में तो मेरी जानकारी में सबसे ज़्यादा काम संस्कृत और कम्प्यूटर को लेकर हुआ और हो रहा है और कई जगह हो रहा है। बहुत ज़्यादा ध्यान है उसपर लोगों का। तो यह भी मैं नहीं समझता कि कम्प्यूटर के लिए संस्कृत का उपयोग नहीं किया गया और उसी वजह से उसका मार्किट नहीं खुला। लोगों को नौकरियाँ मिली हैं और कुछ संस्थानों में संस्कृत के लोग रखे गये जहाँ कम्प्यूटर टेक्नॉलॉजी पर काम हो रहा था, जहाँ कोष बनाने के काम हो रहे थे इस तरह के, जहाँ ट्रांसलेशन के पैकेज बनाने के काम हो रहे थे। वे पैकेज संस्कृत व्याकरण के माध्यम से ही तो बनाये गये। बहुत सारे ऐसे पैकेज मिलते हैं कि गुजराती से मराठी में अनुवाद, कन्नड़ से हिंदी में अनुवाद। तो वो पैकेज बनाने के लिए संस्कृत व्याकरण जानने वाले पंडितों को रखा गया क्योंकि संस्कृत व्याकरण वह दरवाजे खोलती है कि आप वह प्रोग्रामिंग कर पायेंगे। तो संस्कृत में इस तरह के प्रयोग अभी भी हो रहे हैं, कई जगह प्रोजेक्ट भी चल रहे हैं। वह समस्या अलग है कि संस्कृत का बाज़ार क्यों नहीं बना। और वो जो अभी हमने बात की है बलराम शुक्ल जी के सवाल को लेकर के, कि उसका बाज़ार बने, यह सत्ताएँ नहीं चाहतीं। कि उसमें जो कुछ नया है, वह सामने न आये; वह अतीत की भाषा के ही रूप में स्थापित होती रहे, इसी तरह से पूरी शिक्षा नीति, पूरा प्रारूप इसी तरह से चलता रहे, यह अभी तक था। तो इसीलिए शायद यह उतना नहीं… बाकी तो, बेरोजगारी की समस्या तो हर जगह है। हिंदी ने ही अपना कौन सा बाज़ार खड़ा कर लिया। अंग्रेजी में, हम जब पढ़ते थे, हमने जब नौकरी शुरू की थी तो अंग्रेजी में बड़ी संभावनाएँ थीं। अभी वहाँ भी क्या ही बचा है। साइंस में जो रिसर्च कर के निकल रहे हैं, वहाँ भी क्या बचा है। बेरोजगारी से तो पूरा त्रस्त हो गया है, पूरी जो हमारी नौजवान पीढ़ी है। किसका ही बाज़ार बचा है। संस्कृत का तो मैं फिर भी कह सकता हूँ कि वे बेचारे ज्योतिष या पंडिताई कर के कहीं ना कहीं से अपना पेट तो भर ही लेंगे। बाकी में तो यह है कि कहाँ नौकरियाँ हैं। तो यह प्रश्न संस्कृत के लिए तो नहीं बनता। इतना ही मैं कहना चाहता हूँ। एक बात में मैं थोड़ा सा संशोधन करना चाहता हूँ, क्योंकि आपने कहा है, 'साम्य' पत्रिका का संपादन मैंने नहीं किया है। विजयगुप्त करते थे। मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं। बहुत ही बढ़िया आदमी हैं। उन्होंने मेरी दो-तीन पुस्तिकाएँ साम्य में छापी थीं। कई पत्रिकाओं का सम्पादन मैंने किया है। संस्कृत की दो-तीन पत्रिकाएँ मैं निकालता रहा हूँ। 'सागरिका' का संपादक मैं रहा। 'दूर्वा', साहित्य की पत्रिका, का संपादन कई वर्षों तक किया मैंने, संस्कृत की। हिंदी में भी कुछ पत्रिकाएँ मैंने संपादित कीं। 'साम्य' पत्रिका बहुत अच्छी पत्रिका है। और अम्बिकापुर में हमारे मित्र रहते हैं विजयगुप्त जी। और बड़ी सेवा उन्होंने साहित्य की किया है…

श्रीकांत पांडेय - जी, जी, आप ठीक कह रहे हैं। वे पुस्तिका के ही फ़ॉर्म में छपे हैं।

राधावल्लभ त्रिपाठी (बात ज़ारी रखते हुए) - हाँ, उन्होंने फिर साम्य के अनुषंध के रूप में दो पुस्तिकाएँ निकाली थीं मेरी। वे अच्छी सराही गयीं। 'संस्कृत कथा की लोकधर्मी परंपरा' और भवभूति पर एक किताब उन्होंने निकाली थी।

आशुतोष कुमार पांडेय - अच्छा तो एक छोटा सा भ्रम हुआ था। सर ने अपने व्याख्यान के दौरान कई जगह मेरा नाम संबोधित किया था। वह बेसिकली मेरा नाम नहीं था। इस प्रोजेक्ट के OPI और हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर गजेंद्र पाठक का नाम था वहाँ।

राधावल्लभ त्रिपाठी - ठीक है तो उसको सुधार लिया जाये। मुझे ज़्यादा जानकारी नहीं थी उसकी तो...।

रविकांत - बहुत-बहुत शुक्रिया प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी। मैं अपने दोस्तों से, जो एकेडेमिक्स हैं, जो विद्यार्थी हैं, उनसे मैं इल्तिज़ा करूँगा कि वे प्रोफेसर साहब को सुनें। यूट्यूब पर उनके कई वीडियोज़ हैं। प्रतिमान पर आए अन्यत्र उन्हें खोज-खोज कर पढ़ें। उनमें बहुत सारे सवालों के जवाब मिलेंगे। और भी बहुत सारी चीज़ें पता चलेंगी संस्कृत के बारे में। लेकिन सिर्फ संस्कृत के बारे में ही नहीं, बल्कि साहित्य को कैसे पढ़ा जाये, उसके बारे में भी। सौंदर्यशास्त्र के बारे में, अलंकारशास्त्र के बारे में। बहुत सारी चीज़ें पता चलेंगी। किसी भी साहित्य के अध्येता आप हैं तो प्लीज़, राधावल्लभ त्रिपाठी जी को ज़रूर पढ़ें। यह मैं आपसे इल्तिज़ा करता हूँ। प्रोफेसर त्रिपाठी से यही कहता हूँ कि आपने हमारा मार्गदर्शन किया है। हम अभी इस प्रोजेक्ट को शुरू ही कर रहे हैं। बलराम जी से यह कहूँगा कि यह सिर्फ संस्कृतज्ञों की कमी नहीं है। इतिहास वाले यह प्रोजेक्ट कर रहे है, साहित्य वाले के साथ बैठकर। यानी बहुत कुछ ऐसा है जो खोजकर लाना है हम लोगों को। और उसका डॉक्युमेंटेशन करना है। वेबसाइट पर डालना है। और बहुत सारे नये एंगल से। अजय जैसे लोग हमारा मार्गदर्शन करेंगे इसपे। बतायेंगे कि कहाँ से लाना है, कैसे सोचना है। आप लोगों को फिर से हम तकलीफ़ देंगे। है ना गजेंद्र जी ! गजेंद्र जी को धन्यवाद कि… और आप सबको धन्यवाद कि आप सब आये और इतनी अच्छी चर्चा हुई। गजेंद्र जी, आप अपनी तरफ से एक बार और धन्यवाद दे दीजिए।

गजेंद्र पाठक - आप सबको धन्यवाद। प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी जी की तरफ विशेष रूप से। बनारस से प्रोफेसर वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी जी जुड़ गये हैं। अजय जी, आशुतोष और हमारे विभाग से बहुत सारे… सबको-सबको प्रणाम। बहुत-बहुत आभार। सबको शुक्रिया। धन्यवाद।

वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी - सबको प्रणाम। अच्छा लगा। देर से जुड़ पाये हम। व्याख्यान के समय तो हम नहीं जुड़ पाये थे। सवालों के समय हम जुड़ पाये। लेकिन उसी से हमको समझ में आ गया कि लक्ष्य क्या है राधावल्लभ जी का। प्रणाम सबको।

राधावल्लभ त्रिपाठी
( समादृत विद्वान )

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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