आलेख : हैदराबाद का मुक्ति संघर्ष का प्रतिबंधित साहित्य और ‘इमरोज’ के संपादक शोएब उल्ला खान / डॉ. जे. आत्माराम

हैदराबाद का मुक्ति संघर्ष का प्रतिबंधित साहित्य और ‘इमरोज’ के संपादक शोएब उल्ला खान
- डॉ. जे. आत्माराम

12 मार्च, 2021 से भारत में आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। देश को आज़ाद हुए पचहत्तर वर्ष हो रहे हैं, अतः सारे देश में राष्ट्रीय-पर्व का माहौल है, यह कुछ-कुछ ऐसी अनुभूति है, जैसे आज से पचहत्तर वर्ष पूर्व भारत में रही होगी। किन्तु एक हैदराबादी के नाते मैं यह सोचने पर विवश हूँ कि आज से पचहत्तर वर्ष पूर्व हैदराबाद में कैसा वातावरण रहा होगा ? क्योंकि 15 अगस्त, 1947 को भारत तो आज़ाद हुआ, पर हैदराबाद नहीं। 
ज़िंदगी का दर्द ले कर इंक़लाब आया तो क्या 
एक दोशीज़ा पे ग़ुर्बत में शबाब आया तो क्या  
तिश्ना-ए-अनवार है अब तक उरूस-ए-ज़िंदगी 
बादलों की पालकी में आफ़्ताब आया तो क्या।
                                        (शकील बदायूंनी)

जब ब्रिटिश सरकार ने इस देश को भारत और पाकिस्तान में बांट कर आज़ाद कर दिया था, वहीं जिन रियासतों के साथ उसका समझौता था उनसे यह कहा कि आप अपनी इच्छा से निर्णय ले सकते हैं, तो हैदराबाद रियासत में खलबली मच गई। क्योंकि हैदराबाद 85% जनता हिन्दू थी और यहाँ का शासक सातवाँ निजाम मीर उस्मान अली खान मुसलमान था। उस समय वह पूरी तरह से रज़ाकारों एवं इत्ताहाद-उल-मुसलमीन के नेताओं के दिशानिर्देशों पर काम कर रहा था, वह उन अलगाववादियों के इशारों पर नाचने लगा था और अपने राज्य की आम जनता की इच्छा के विरुद्ध जाते हुए हैदराबाद को भारत-संघ में शामिल होने से इनकार करते हुए ‘आज़ाद हैदराबाद’ बनाने की घोषणा कर दी थी और घोषणा का विरोध करने वालों पर कहर बरसाना शुरू कर दिया था। 

रज़ाकारों के दुर्भावनाओं एवं जुल्मों का अंदाजा लगाने के लिए सिर्फ इतना जान लेना पर्याप्त है कि, जहाँ देश में चारों ओर आज़ादी का उत्सव मनाया जा रहा था, वहीं देश के बीचों-बीच स्थित हैदराबाद रियासत में आज़ादी का उत्सव मनाने पर पाबंदी थी, तिरंगा फहराना, ‘भारतमाता की जय’ बोलना और ‘वन्देमातरम्’ गाने पर प्रतिबंध था, क्योंकि यहाँ का शासक मीर उस्मान अली खान रज़ाकारों के हाथों कठपुतली बन चुका था, वह वहीं करता जो रजाकार एवं इत्ताहाद-उल-मुसलमीन के नेता कहते। यह हैदराबाद के इतिहास का सबसे ‘अंधकारमय’ दौर था, क्योंकि लगभग 224 वर्षों के हैदराबाद के इतिहास में यहाँ की बहुसंख्यक जनता इतनी असुरक्षित तथा आतंकित पहले कभी नहीं थी। सदियों से धार्मिक-स्वतंत्रता और सांस्कृतिक-सौहार्द का परिचय देने वाली हैदराबाद की जनता हिंसा, शोषण, लूट और अत्याचार का शिकार हो रही थी। उस समय यहाँ की आम जनता की स्थिति दो पाटों के बीच पिस रही थी। एक ओर वह रज़ाकार काज़िम रज़वी की अगुवाई में रज़ाकारों के अत्याचारों से प्रताड़ित थी तो दूसरी ओर ब्रिटिश शासन का समर्थक निज़ाम के राजनीतिक षडयन्त्र का शिकार हो रही थी। ऐसे में, निज़ाम-शासन और उसके साये में पल रहे रज़ाकारों व मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुसलमीन के अत्याचारों के विरुद्ध कुछ भी लिखना तो दूर कुछ बोलना भी मृत्यु को निमंत्रण देने के समान था। ब्रिटिश शासन में तो जनता शासक के शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठा सकती थी, पर निज़ाम की हुकूमत में निज़ाम सरकार के विरुद्ध बोलना आत्महत्या से  कम नहीं था। निज़ाम शासन के खिलाफ बोलने और लिखने, स्वतंत्र-भारत की जय-जयकार करने, अथवा भारत-संघ के समर्थन में प्रदर्शन करने वाले सत्याग्रहियों, नेताओं, और पत्रकारों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया जाता। जो पत्र-पत्रिकाएँ निज़ाम के पक्षपातपूर्ण शासन या क़ाजिम रज़वी की अगुआई में हो रहे रजाकारों के अत्याचारों के विषय में खबरें छापतीं उन पर प्रतिबंध लगा दिया जाता। ‘वैदिक आदर्श’, ‘तेज़’, ‘रैयत’, ‘इमरोज’ आदि ऐसे ही समाचार पत्र थे, जिनका गला घोंट कर बंद करा दिया गया था, क्योंकि ये पत्र निजाम-शासन की कमजोरियों को उजागर कर रहे थे, रज़ाकारों के अत्याचारों से लोगों को परिचित करा  रहे थे, रज़ाकारों के बल पर निज़ाम सरकार के कारिन्दों -– पटेल, पटवारी, जमींदार, देशमुख, और देशपाण्डों -- द्वारा यहाँ के किसानों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं पर किए जा रहे जुल्मों को उद्घाटित कर रहे थे और भारत-संघ का समर्थन कर रहे थे।

इन विषम एवं भयंकर परिस्थितियों में भी अपने प्राणों को संकट में डालकर हैदराबाद में लोकतंत्र की स्थापना और हैदराबाद को भारत-संघ में शामिल कराने हेतु पत्रकारिता को साधन बना कर जिन क्रांतिवीरों ने निज़ाम-शासन के विरुद्ध संघर्ष किया , उनमें प्रमुख हैं - पंडित नरेन्द्र, मंदमूल नरसिंह राव और शोएबउल्ला खान। 

इनमें एक ओर पं. नरेन्द्र वे ‘वैदिक आदर्श’ पत्र के माध्यम से हैदराबाद में आर्यसमाज की स्थापना कर निजाम एवं रज़ाकारों के अत्याचारों को उजागर करते हुए हैदराबाद को भारत-संघ का हिस्सा बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तो दूसरी ओर मंदमूल नरसिंह राव कांग्रेस के आदर्शों पर चलते हुए हैदराबाद में लोकतंत्र की स्थापना हेतु निजाम सरकार को चुनौती पेश कर रहे थे। उसी दौर में एक महत्त्वपूर्ण युवा पत्रकार हुए  शोएब उल्ला खान, जिन्होंने सांप्रदायिक, अत्याचारी रज़ाकारों एवं निजाम शासन के विरुद्ध अपनी कलम से आग उगलते हुए रजाकारों के ‘दिलों में रैल दौड़ाया’।

हैदराबाद पर निज़ामशाही की  सात पीढ़ियों ने शासन किया है, उनमें छठा निजाम मीर महबूब अली खान को सबसे अधिक जनता प्यार मिला. वे अपने समय के लोकप्रिय शासकों में एक थे, पर सातवां निज़ाम मीर उस्मान अली खान अपने पिता मीर महबूब अली खान से बिलकुल विपरीत स्वभाव के थे, मीर महबूब अली खान जहाँ जनता के सुख एवं राज्य की खुशहाली के लिए तत्पर रहते थे, जनता के दुःख-दर्द को जानने और उन्हें दूर करने के लिए सदा उनके बीच रहते थे,  वहीं मीर उस्मान अलीखान से मिलने के लिए भी लोगों को ‘नज़राना’ देना पड़ता था। उस्मान अली खान के शासन में जमींदारों, पटेलों, पटवारियों, देशमुखों को खुली छूट थी, वे ‘कर’ के नाम पर किसानों एवं कमजोर लोगों का शोषण करते थे और जो उनका विरोध करता उन्हें रज़ाकारों की मदद से प्रताड़ित करते और उनकी हत्या तक करवा देते थे। निजाम ये कारिन्दे किसानों से बहुत अधिक ‘कर’ वसूलते, उसमें से कुछ अपने पास रखते और कुछ निज़ाम के खज़ाने में जमा करवा देते थे। कई बार, जो किसान उनके मन-माफिक कर नहीं दे पाते तो, उनकी आधी से अधिक फसल 'कर' के नाम पर छीन लेते थे। इसके अतिरिक्त वे लोग, गरीब एवं कमजोर वर्ग के लोगों से ‘वेट्टि चाकिरी’ (बेगारी) भी करवाते थे। ‘बान्चनु दोरा, ई कालु मोक्कुता’ (‘रहमकरो मालिक, मैं तुम्हारा बच्चा हूँ, तुम्हारें पैर पड़ता हूँ’) कह कर विनती वाले लोगों पर भी किसी प्रकार की दया न दिखाते हुए उन्हें लात मारते थे। इस प्रकार रियासत की जनता एक ओर जमींदारों, पटलों  व पटवारियों से परेशान थी तो दूसरी ओर, रज़ाकार हैदराबाद को ‘इस्लामिक स्टेट’ बनाने के अपने एजेन्टों को आगे बढ़ाते हुए ‘नंगी तलवारें’ लेकर बहुसंख्य जनता के घरों को लूट रहे थे, हत्या और अत्याचार कर रहे थे। उन्हें अपना घर-बार छोड़ कर जाने के लिए मजबूर कर रहे थे। तेलंगाना जनता का धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सव ‘बतुकम्मा’ मनाने वाले स्त्रियों का घोर-अपमान करते और उन्हें प्रताड़ित करते थे। इस तरह मीर उस्मान अली खान के शासन में, जहाँ शेष भारत में आनंद और उत्साह का वातावरण था, आज़ादी का उत्साव मनाया जा रहा था, वहीं हैदराबाद की जनता क्रूर-राजशाही के वातावरण निकल कर भारत-संघ में शामिल होने के लिए तड़प रही थी, हैदराबाद में भी शान से तिरंगा फहराते  हुए, वंन्देमातरम् गाने के लिए, भारत माता का जयकार करने लिए लालायित हो रही थी। 
‘वन्देमातरम्’  गाने पर प्रतिबंध-

    भारत की स्वाधीनता की लड़ाई के दौरान जिस गीत ने देश के नौजवानों के दिलों में जोश तथा मातृभूमि के प्रति श्रद्धा की भावना भर दिया था, वह था – ‘वन्देमातरम्’। बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा लिखित यह गीत स्वतंत्रता का पर्यायतुल्य था। जो बाद के समय में ‘आनंदमठ’ फिल्म के माध्यम से और भी लोकप्रिय हुआ। यह गीत उस समय हर राष्ट्रीय आयोजन में गाया जाता था । किंतु हैदराबाद में स्थिति भिन्न थी, यहाँ इस गीत के गायन पर प्रतिबंध था। स्कूल, कॉलेज, उस्मानिया विश्वविद्यालय सहित यहाँ के सभी कार्यालयों में निजाम के ‘तारन-ए-दकन’ (दकन का गीत) गाने का आदेश था, जिसमें बादशाह मीर उस्मान अली खान की स्तुति की गई थी। जो इसे नहीं गाते उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही होती। फिर भी हैदराबाद की आम जनता और विद्यार्थी स्कूलों, कॉलेजों एवं उस्मानिया विश्वविद्यालय के छात्रावासों में वन्देमातरम् गाते थे। जब हुकूमत को इस बात की खबर हुई तो उसने उन सभी शिक्षकों एवं विद्यार्थियों को बर्खास्त कर दिया। और पूरी कोशिश की कि उस्मानिया विश्वविद्यालय के जिन विद्यार्थियों ने ‘वन्देमातरम्’ गाया, उन्हें कहीं  और विश्वविद्यालय में प्रवेश न मिले।  इन विद्यार्थियों ने अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए अपनी पढ़ाई पूरी की, कैसे पूरी की , इसका इतिहास ही गवाह है। 

    निज़ाम नवाब मीर उस्मान अली खान अंग्रेजों को अपना मित्र, हितैषी और उपकारी मानते थे। एक इतिहासकार के अनुसार वे अंग्रेज शासकों का अनुकरण करने की कोशिशों में सदा प्रयत्नशील रहते थे। उदाहरण के लिए जैसे इंग्लैंड में विशेष अवसरों पर ‘गॉड सेव दि किंग’ गाया जाता है तथा इंग्लैंड के ज्येष्ठ राजकुमार को प्रिन्स ऑफ वेल्स की उपाधि प्रदान की जाती है, उसी प्रकार उस्मान अली खान ने हैदराबाद के एक प्रसिद्ध कवि से एक गीत लिखवाया और उसका नाम दिया ‘तरान-ए-दकन’ (दक्कन का गीत) इस गीत में बादशाह उस्मान की भरपूर प्रसंशा की गई है।

ताबदे ख़ालिखे आलम यह रियासत रखे
तुझको उस्मान बसद-ओ-इजलाल सलामत रखे
जैसे तू फक्रे सलातीन है ब्फल्जे यजदां
यूं ही मुमताज तेरा दौर-ए-हुकूमत रहे।

(अर्थ – जब तक चाँद और सूरज रोशन है, तब तक अल्लाह उस्मान की हुकूमत को बरकरार रखे। जैसे तू अल्लाह की अनुकंपा से सब बादशाहों का गौरव है, उसी प्रकार तेरा शासन प्रतिष्ठित रखे।)
  
    उस समय मीर उस्मान अली खान हैदराबाद रियासत का शासक था, अतः उसके ‘तरान-ए-दकन’ (दक्कन का गीत) पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती है, किन्तु रज़ाकारों के प्रभाव में आकर अपनी ही जनता की ‘आवाज़’ छीन लेना और उनके द्वारा तिरंगा फहराने, भारतमाता जय बोलने और ‘वन्देमातरम्’ बोलने पर लाठियां बरसाना, उन्हें जेलों बंद कर उन पर शोषण करना और हैदराबाद को ‘दक्षिण का पाकिस्तान’ बनाने का प्रयास करते हुए ‘आजाद हैदराबाद’  की घोषणा करना, जैसी  घटनाओं से हैदराबाद में अशांति फैल गई। 

    निजाम शासित हैदराबाद रियासत की शासन-व्यवस्था में काज़िम रजवी की दखल इतनी अधिक बढ़ गई थी कि निजाम काज़िम रजवी के हाथों का कठपुतली-सा व्यवहार करने लगा था, रजवी ने निजाम के शासन को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में  लेते हुए दिसंबर 1947 में निज़ाम पर नई सरकार थोप दी थी जिसका उद्देश्य हैदराबाद को ‘मुस्लिम स्टेट’ बनाना था। “फिलिप मेसन के कथनानुसार निज़ाम ‘दड़बे का खरगोश’ बन चुका था। खरगोश अपने दड़बे में इतना सुरक्षित महसूस करता है कि वह भूल जाता है कि वह एक खरगोश है।”1 

    कासिम रज़वी निजाम से मनचाही नियुक्तियाँ पाता और उनसे मन चाहे आदेश जारी करवाने लगा था। पुलिस और कानून व्यवस्था को अपने पक्ष में पाकर रज़ाकार राज्य की बहुसंख्यक जनता पर हिंसा एवं अत्याचार बढ़ा दिए थे। कासिम रज़वी के अगुवाई में रज़ाकारों ने सदियों से चली आ रही हैदराबाद की गंगा-जमुनी तहज़ीब को नष्ट कर हिंसा, अत्याचार, लूट-पाट, बलात्कार और दहशत के माध्यम से राज्य में अशांति फैला दी थी। “उन सब का लक्ष्य एक था – इस्लामिक राज्य के लिए निज़ाम की स्वतंत्रता और प्रभु सत्ता।”2 

    निजाम सरकार के भारत-संघ का समर्थन करने वाले पत्र-पत्रिकाओं का घला गोंट कर बंद करा रही थी। उस दौरान निजाम सरकार की अराजकता ऐसी थी कि सरकार के विरुद्ध कुछ भी लिखने या बोलने को कड़ी सजा दी जाती थी। फिर भी, रजाकारों के निरंकुश अत्याचारों एवं निजाम के पक्षपातपूर्ण रवैये का विरोध करने का बीड़ा कुछ साहसी पत्र-पत्रिकाओं ने उठाया था। तत्कालीन हैदराबाद राज्य की स्थिति पर भारत सरकार के दक्षिण कमांड के मुख्य, लेफ्टिनेंट जनरल गोडार्ड ने जो रिपोर्ट भारत सरकार को दी, उससे लड़खड़ाते हैदराबाद-शासन की स्थिति सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। “एक बुढ़ाता, जिद्दी, पुराने विचारों वाला शासक निरंकुश और कमज़ोर प्रशासन का प्रमुख है। उसे सही परमार्श नहीं मिल रहा। विभिन्न राजनीतिक आंदोलन और प्रवृत्तियाँ अपने निरंतर दबाव से राज्य को कमजोर कर रही है। इस ढहते हुए प्रशासनिक ढाँचे के साथ धर्मांध अयथार्थवादी इत्तेहाद-उल-मुसलमीन है, जिनके पास सामाजिक मामलों को निपटाने की कोई समझ नहीं है। रियासत की पूर्वी जिलों में कम्युनिस्ट प्रशासन और इत्तेहादियों के खिलाफ खुली बग़ावत पर उतर आए हैं और उनसे संघर्ष कर रहे हैं। इसके अलावा सत्याग्रह आंदोलन भी चल रहे हैं।”3 

    निजाम के कमजोर एवं पक्षपातपूर्ण शासन से हैदराबाद को मुक्त कराने और हैदराबाद को भारत-संघ में सम्मिलित कराने के लिए पं. नरेन्द्र (‘वैदिक आदर्श’), एम. नरसिंह राव (‘रैयत’) आदि कई पत्रकारों ने कड़ा संघर्ष किया, इनमें ‘इमरोज’ के संपादक शोएब उल्ला खान का नाम विशेष उल्लेखनीय है। 

शोएब उल्ला खान ‘गाँधी’ का जन्म-

    तेलंगाना राज्य के खम्मम जिला के सुब्रवेडु गाँव में हबीब उल्ला खान और उनकी पत्नी लायुन्निसा बेगम रहते थे। शादी के बाद उनके सात संतान हुई, पर उनमें से कोई भी जीवित न रह सकी। इस तरह, अपने माता-पिता के इकलौते वारिस के रूप में शोएब का जन्म 17 अक्टूबर,1920 को हुआ।

    शोएब के पिता हबीब उल्ला खान उत्तर प्रदेश के मूलवासी थे। वे निज़ाम सरकार में रेलवे-पुलिस  इन्स्पेक्टर के रूप में कार्यरत थे। हबीब उल्ला खान धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और वे गांधीजी की सादगी एवं राजनीतिक विचारों से काफ़ी प्रभावित थे। वे अक्सर अपने परिवार में गांधी जी के व्यक्तित्त्व की चर्चा किया करते थे। गांधीजी उनके मन-मस्तिष्क में समाए रहते थे। यह संयोग ही था कि जिस दिन शोएब का जन्म हुआ, उसी दिन हबीब उल्ला खान को गांधी जी के दर्शन पाने का अवसर मिला। उस दिन गांधीजी विजयवाड़ा के कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने के लिए मानुकोटा रेलवे स्टेशन (महबूबाबाद) से होते हुए जाने वाले थे, जहाँ हबीब उल्ला खान रेलवे पुलिस अधिकारी के रूप में तैनात थे। जब गाड़ी स्टेशन पर रुकी तो हबीब उल्ला खान गांधी जी के दर्शन पाकर अभिभूत हुए, मन ही मन उन्हें प्रणाम किया और उस दिव्य मूर्ति को मन में बसा लिया। स्टेशन से जब वे घर पहुँचे तो पुत्र प्राप्ति का समाचार पाकर बहुत प्रसन्न हुए। जब उन्होंने पुत्र को देखा तो उसके चहरे में गाँधीजी ही नज़र आ रहे थे। वे अक्सर कहते कि शोएब ने गांधी का नाक-नक्शा ही पाया है, इसीलिए वे उसे प्यार से शोएब उल्ला खान ‘गाँधी’ कह कर बुलाया करते थे।  

शोएब का बचपन-

    राष्ट्र के प्रति प्रेम व भक्तिभाव रखने वाले हबीब उल्ला खान एवं लायुन्निसा बेगम दंपत्ति ने बचपन से ही अपने पुत्र को देश-प्रेम एवं देश-भक्ति के संस्कार दिए। बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में तेज शोएब बहुत अच्छे चित्रकार भी थे। पढ़ाई के साथ-साथ वे तमाम अन्य पाठ्येतर गतिविधियों में भी सक्रिय रूप से भाग लेते थे। शोएब का जीवन बचपन से ही देशप्रेम तथा देशभक्ति के विचारों से पोषित हुआ। वे गांधी जी के सत्य, अहिंसा और सदाचार के सिद्धांतों से बहुत प्रभावित थे। वे ‘सर्वधर्मसमभाव’ के सिद्धांत पर दृढ़ विश्वास करते थे। सत्यान्वेषण और सत्योद्घाटन के प्रति उनकी रुचि बचपन से ही रही। बम्बई से इन्टरमीडिएट और उस्मानिया विश्वविद्यालय से बी.ए. (पत्रकारिता) की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पत्रकारिता को ही अपना व्यवसाय बनाने का निर्णय किया। शोएब एक स्नातक थे, चाहते तो कोई भी सरकारी नौकरी आसानी से पा सकते थे, लेकिन उन्होंने सत्य के मार्ग पर चलते हुए अत्याचार और आतंक के विरुद्ध आवाज़ उठाने का निश्चय किया। 

पत्रकारिता से जुड़ाव -

    शोएब ने  विद्यार्थी जीवन में ही राज्य में हो रही अन्यायपूर्ण घटनाओं और अत्याचारों के विरुद्ध लिखना शुरु कर दिया था। उनके पत्रकारिता-जीवन की शुरुआत उस समय के साप्ताहिक ‘तेज़’ से हुई। इस पत्रिका में निज़ाम सरकारी की कमजोरियों को उजागर करते हुए शोएब ने कुछ लेख लिखे, किंतु यह पत्र निजाम सरकार की पाबंदियों के चलते बंद हो गया। 

    जैसे कि कहा जाता है ‘यदि हौसले बुलंद हो तो रास्ते स्वयं मिल जाते हैं’ उन्हीं दिनों हैदराबाद से राष्ट्रभक्त पत्रकार मंदमूल नरसिंह राव जी के संपादकत्व में राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत एक उर्दू दैनिक ‘रैयत’ निकलता था। यह दैनिक अपने बेबाक विचारों के लिए हैदराबाद में खासा लोकप्रिय था। क्योंकि यह पत्र रज़ाकारों के कुकर्मों एवं निज़ामशाही की साम्प्रदायिक नीतियों की तीव्र भर्त्सना करता एवं उन्हें समय-समय पर चुनौती देता रहता था। 

    शोएब ने ‘रैयत’ में पहले रिपोर्टर तथा बाद में उप-सम्पादक के तौर पर काम करना शुरु किया। शोएब यहाँ भी अपनी लेखनी के माध्यम से निरंकुश निज़ाम सरकार के खिलाफ आग उगलने लगे थे। उनके माध्यम से ‘रैयत’ निज़ामशाही के कारिन्दों की काली करतूतों तथा असामाजिक गतिविधियों के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करने लगे थे। ‘रैयत’ निरंकुश पुलिस-व्यवस्था और धर्मान्ध रज़ाकारों का असली चेहरा जनता के सामने लाने लगे थे। किंतु निरंकुश निजाम सरकार इसे बर्दास्त नहीं कर सकी। उसने एक फ़रमान जारी कर ‘रैयत’ को बंद करने का आदेश दे डाला। “पुलिस कमीश्नर फजल-ए-रसूल खान प्रेस कार्यालय पर पुलिस की भारी संख्या के साथ आए और सम्पादक, उप-सम्पादक और दूसरे सारे कर्मचारियों को जबर्दस्ती बाहर निकालकर ‘रैयत’ के कार्यालय पर ताला लगवा दिया और कड़े शब्दों में धमकी दी, ‘कल से यह अखबार नहीं प्रकाशित होगा। अगर आला हज़रत (सातवें निज़ाम) के हुक्म के ख़िलाफ कोई जुर्रत की, तो उसका अंजाम बुरा होगा।’4. 

    ‘रैयत’ कार्यालय पर ताला लग जाने से शोएब सहित उस कार्यालय में काम करने वाले सभी लोग काफी दुःखी एवं निराश हुए। इस आदेश के विरुद्ध कुछ भी न कर सकने की विवशता-जनित क्रोध से उनका दिल उबल रहा था। स्थिति को समझते हुए नरसिंह राव जी ने शोएब को ढांढस बंधाते हुए कहा, “सच्चे सिपाही बनों ! शोएब, दिल छोटा न करों, हम इस ज़ुल्म के खिलाफ मिलकर लड़ेंगे। हमारा बादशाह नकारात्मक एवं अभावात्मक ताकतों के चुंगल में फँस गया है, ऐसे में उसे शासक कहलाने का कोई हक़ नहीं है, उसका ‘आज़ाद हैदराबाद’ का फैसला उसे एक दिन ले डूबेगा, इसका एक ही हल है और वह है इज्ज़त के साथ भारतीय यूनियन में शरीक हो जाना।” 5 

    नरसिंह राव जी के शब्दों से शोएब को एक प्रेरणा मिली और उसे अपना मुहिम जारी रखने का एक उपाय सूझा। उसने अपने संकल्प-शक्ति का परिचय देते हुए कहा, “नरसिंह राव जी अगर ‘रैयत’ बंद हो जाता है, तो क्या हमारी कलम भी रुक जाएगी – नहीं, ऐसा नहीं होगा, मैं इस पाक काम को जारी रखूंगा, मेरे पास ‘इमरोज़’ अखबार निकालने की इज़ाजत और मंजूरी है, बस कुछ रकम का बंदोबस्त हो जाए, तो मैं अपनी रविश पर चलकर झूठ को सच्चाई से मिटा दूंगा।”6 

    नरसिंह राव जी ने नौजवान शोएब के शब्दों को सुनकर प्रभावित हुए और एक अनुभवी पत्रकार के नाते उसे समझाते हुए कहा कि ‘तुम्हारा इरादा नेक है, मगर इसमें खतरे बहुत हैं, जान भी जा सकती है।’ क्योंकि वे जानते थे शोएब अब अकेला नहीं है, उस पर अपने अपने माता-पिता के साथ-साथ पत्नी और दो वर्ष की छोटी बेटी की जिम्मेदारी भी है। किन्तु शोएब अपना निर्णय ले चुका था। पत्र के प्रकाशन के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था करने के लिए उसने अपनी पत्नी और माँ के गहने बेच दिए। नरसिंह राव जी ने भी इस जोशीले नौजवान की हिम्मत को देख उसकी हर संभव सहायता करने का निश्चय किया और “इमरोज’ के प्रकाशन का मार्ग खोज निकाला।  

इमरोज़ का प्रकाशन -

    नरसिंह राव जी के मित्र तथा बहनोई बूर्गुला रामकृष्ण राव जी से बात कर लिंगमपल्ली, काचीगुड़ा स्टेशन रोड पर स्थित उनके निवास स्थान ‘लाल बंगला’ से “इमरोज’ के प्रकाशित करने की व्यवस्था कर दी। इस तरह ‘इमरोज’ का पहला अंक 15 नवंबर, 1947 को प्रकाशित हुआ।   कुछ ही दिनों में ‘इमरोज़’ हैदराबाद का एक बेबाक तथा निर्भीक दैनिक पत्र बन कर उभरा। 

    ‘इमरोज़’ हैदराबाद की जनता का एक  भरोसेमंद समाचार पत्र बन गया। ‘इमरोज’ में रजाकारों के काले कारनामें नियमित रूप से प्रकाशित होने लगे थे। ‘इमरोज’ में छपी खबरें जनता में चर्चा का विषय बन जातीं। लोग इस पत्र की तुलना लोकमान्य बाल गंगाधर ‘तिलक’ के ‘केसरी’ से करने लगे थे, जिसने अंग्रेजों के शासन को हिला दिया था। 

‘दिन की सरकार - रात की सरकार’ -

    शोएब ‘इमरोज़’ के माध्यम से हैदराबाद रियासत में दिन-ब-दिन बढ़ते अन्याय एवं शोषण का नियमित रूप से खुलासा करने लगे थे। वे उस समय की तमाम घटनाएं, जैसे कि ‘आजाद हैदराबाद की घोषणा’ के विरुद्ध कांग्रेस के स्वामी रामानंद तीर्थ के नेतृत्त्व में किए जा रहे ‘सत्याग्रह’, धूलपेट में हुए दंगें, महिलाओं के साथ हो रहे जघन्य अत्याचार आदि सभी घटनाओं पर बेखौफ ढ़ंग से समाचार छाप रहे थे। इस संदर्भ में, उन्होंने 29 जनवरी, 1948 को ‘इमरोज़’ में निजाम सरकार की कड़ी अलोचना करते हुए ‘दिन की सरकार – रात की सरकार ‘शीर्षक से संपादकीय छापा। जिसका भाव यह था कि – ‘राज्य में आराजकता और अत्याचार चरम पर पहुंच चुका है। सरकार के रवैये से राज्य की जनता दिन-ब-दन पिसती जा रही है। इत्तेहाद-उल-मुसलमीन के सदस्य गाँधी टोपी धारण कर, गाँधी जी जय करते हुए ग्रामीण जनता को लूट रहे हैं। जिम्मेदार पदों पर विराजित शासक-वर्ग के लोग इन घटनाओं को साधारण चोरी का मामला बताते हुए अनदेखा कर रहे हैं। हमारा मानना है कि अराजक-व्यवस्था का ज़हर सर चढ़ चुका है। इन घटनाओं पर एक ग्रामीण व्यक्ति दुःखी होकर सत्य ही कहा था कि ‘हैदराबाद में दिन में एक सरकार और रात में दूसरी सरकार राज कर रही है’..... इत्ताहाद-उल-मुसलमीन संस्था के कार्यालयों पर सरकार अंकुश क्यों नहीं लगा सकती ? जनता के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली मंत्रीमंडल स्थापना क्यों नहीं कर सकती ? कोई भी सरकार जनता के इच्छाओं एवं हितों के खिलाफ काम करते हुए अधिक दिनों तक टिकी नहीं रह सकती।’7 

    कासिम रज़वी एवं मीर उस्मान अली खान ऐसे तीखे सम्पादकीय से बौखला उठे। एक मुसलमान होकर दूसरे मुसलमानों के विरुद्ध इस तरह लिखना, उन्हें असहनीय लगा। रज़ाकारों ने “इमरोज’ के कार्यालय की खिड़कियों से शोएब के नाम धमकियों भरे पत्र डाले जाने लगे थे। उनमें लिखा होता - “शोएब तू यह क्या कर रहा है? तेरा ब़ागी कलम शाह-ए-उस्मान और इस्लामी रियासत के खिलाफ चल रही है, इसका नतीजा बुरा होगा।’ एक और पत्र में लिखा गया, ‘शोएब तुझे इमरोज बंद करना होगा और आज़ाद हैदराबाद छोड़कर उसकी हदों से बाहर चले जाना पड़ेगा।’  कभी-कभी अश्लील बातें भी पत्रों में लिखी होती थी। जैसे ‘बेवकूफ शोएब, तू कमीने! कांग्रेस वालों का कुत्ता है, मुल्क और कौम का गद्दार है’ इस प्रकार रजाकारों ने शोएब को डरा-धमकाकर सरकार तथा उनके विरुद्ध न लिखने की चेतवनी दी।”8  इन धमकियों से शोएब जरा भी विचलित नहीं हुए और उन्होंने अपनी कलम से धार को और पैनी कर दी। 

    रज़ाकारों ने आम जनता पर नहीं, हैदराबाद से होकर गुजरने वाली भारतीय ट्रेनों पर भी हमले करने शुरू कर दिए थे। ऐसी कुछ घटनाओं को देख, 22 मई 1948 के बाद प्रदेश से होकर गुजरने वाली भारतीयों ट्रेनों में भारत सरकार द्वारा सशस्त्र सुरक्षा बल तैनात किए जाने लगे थे। “24 जुलाई को भारतीय पैदल सेना की एक टुकड़ी, हैदराबाद के क्षेत्र से होकर भारतीय परिक्षेत्र में जा रही थी। उस पर नानज नामक गाँव में घात लगाए बैठे रजाकारों ने हमला कर छः सैनिकों को मार डाला और उतने ही लोगों को घायल कर दिया। भारतीय सेना ने प्रतिकार करते हुए हमलावरों को मार डाला और गाँव पर कब्जा कर लिया।”9  हैदराबाद में रज़ाकार इस घटना को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करते हुए भारतीय सेना के विरुद्ध दुष्प्रचार कर रहे थे, तो ‘इमरोज’ सच्चाई को प्रकाशित करते हुए भारतीय सेना के समर्थन कर रहा था। 

काज़िम रजवी की धमकी-भरा भाषण -

नानज की घटना के विरोध में मजलिस ने 19 अगस्त, 1948 हैदराबाद के जमरूदमहल में शोक दिवस मनाया, जिसमें काज़िस रजवी ने अपने जोशीले भाषण में “इमरोज’ के सम्पादक शोएब उल्ला खान को निशाना साधते हुए कहा था, ‘ “अब इन कठपुतलियों को नचाने वाला कोई भी हो, उससे मुझे कोई सरोकार नहीं है। मगर जो हाथ मुसलमानों के इक्तेदार (सत्ता) के खिलाफ, मुसलमानों की इज्जत और नाम के खिलाफ उठता है, उस हाथ को गिर जाना चाहिए, या कट जाना चाहिए।” कासिम रज़वी के इस भाषण से रजाकारों को शोएब के विरुद्ध एक नया बल मिला और वे ‘इमरोज़’ का मुंह बंद करने के षड़यंत्र रचने लगे।’10 

    इसी क्रम में, 20 अगस्त, 1948 को शोएब को एक और धमकी भरा पत्र मिला, जिसमें लिखा था, “क्या गांधी की औलाद है ? अपनी कलम संभालों , वर्ना मौत के लिए तैयार रहो।!”  जानलेवा धमकियों के बाद भी शोएब ज़रा भी विचलित नहीं हुआ और सच्चाई के मार्ग पर आगे बढ़ने लगा। हैदराबाद रियासत बढ़ती हिंसा और अराजकता की स्थिति पर ‘इमरोज’ कार्यालय में शोएब और कांग्रेस के नेता बूर्गुला रामकृष्ण राव तथा रंगारेड्डी अक्सर चर्चा किया करते थे। राक्षस-मनोवृत्ति के रज़ाकारों से शोएब को लगातार मिल रहे जानलेवा हमले की धमकियों को देखते हुए रामकृष्ण राव ने शोएब को सजग रहने की सलाह थी। पर शोएब डरने वाला नहीं था। 

नृशंस हत्या -

    इस घातक वातावरण में भी शोएब सिर पर कफ़न बांधे हर रोज़ की तरह “21 अगस्त, 1948 को ‘इमरोज’ के लिए संपदकीय लिखा, जिसमें उसने इत्तेहाद-उल-मुसलमीन के रवैये की आलोचना की और हैदराबाद रियासत को भारत-संघ में विलय करने की वकालत की। उसी रात जब वह अपने साले के साथ ‘इमरोज’ दफ्तर से अपने घर को जा रहा थे तो रज़ाकारों ने उस पर हमला कर दिया। दो लोगों ने शोएब को बातों में उलझा लिया और तीसरे ने पीछे से रिवाल्वर से उसे गोली मार दी। शोएब के साले पर तलवारों से हमला किया गया, शोएब जमीन पर गिर गया। फिर कासिज रज़वी के 19 अगस्त के भाषण में दी गई धमकी के अनुसार शोएब का हाथ उसके शरीर से काट दिया गया।”11 यह रज़ाकारों की क्रूरता को उजागर करता है।

    डॉ. किशोरीलाल व्यास अपने उपन्यास ‘रज़ाकार’ में लिखते हैं, “गणेश शंकर विद्यार्थी की मौत पर गांधीजी ने कहा था, यह एक सिपाही की मौत है और मैं भी ऐसी ही मौत पसंद करुंगा, और संयोग की बात थी कि गाँधी जी की मृत्यु भी उसी तरह हुई। गांधीजी की मौत पर हैदराबाद के युवा पत्रकार शोएब उल्ला खान ने रंज में डूबकर कहा था कि ‘ए खुदा मौत दे, तो गांधीजी जैसी ही मौत दे, कि आदमी अपने उसूलों के लिए लड़ता हुआ शहीद हो’ और इत्तेफाख देखिए कि हुआ भी ऐसा ही।”12 

    22 अगस्त, 1948 को शहीद शोएब उल्ला खान का जनाज़ा निकाला गया, जिसमें गिने-चुने लोगों ने ही शिरकत की। निजाम सरकार शोएब उल्ला की हत्या को आपसी रंजिश का परिणाम बता कर सत्य का गला घोंट दिया। 

    शोएब की माता को सारे भारत वर्ष से आर्थिक सहायता तथा संवेदना भरे संदेश मिले। उस वीर माता ने वह तमाम राशि को उस्मानिया विश्वविद्यालय द्वारा स्थापित ‘शहीद शोएब उल्ला खान पत्रकारिता पुरस्कार’ को समर्पित कर दी और एक सच्चे देशभक्त की सच्ची माता होने का प्रमाण दिया। 

निष्कर्ष : भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में गांधीवादी सिद्धांतों के लिए लड़ते हुए शहीद होने वाले व्यक्ति कई हो सकते हैं पर शहीद शोएब उल्ला खान के समान  दूसरा पत्रकार देखने को नहीं मिलता है। शोएब उल्ला खान वह वीर है, जिसने मात्र अपने 28 वर्ष के जीवन काल में सत्य, अहिंसा और साहस का मिसाल देते हुए सुदृढ़ भारत-संघ के निर्माण में नींव का पत्थर बन इतिहास के पृष्ठों में दफ़्न हो गया है। शोएब उल्ला खान जैसे वीर के विषय में सभी भारतवासियों को जानने की आवश्यकता है जो हैदराबाद में लोकतंत्र की स्थापना के लिए निरंकुश सांप्रदायिक शक्तियों के साथ संघर्ष करते हुए शहीद हो गया। शोएब उल्ला खान सच्चे पत्रकार की पहचान है और ‘इमरोज’ सच्ची पत्रकारिता का मिसाल है। 

संदर्भ :
  1. नरेन्द्र लूथर, (2018), हैदराबाद की कहानी, पृ.सं. 235, मिलिन्द प्रकाशन, हैदराबाद
  2. वही, पृ.सं 235 
  3. वही, पृ.सं. 251 
  4. डॉ. वर्मा, आनंदराज, पृ.सं. 80, हैदराबाद का मुक्ति संघर्ष, प्र.सं., आर्य प्रतिनिधि सभा, आं.प्र. हैदराबाद
  5. वही, पृ.सं.81 
  6. वही, पृ.सं. 81
  7. https://te.wikipedia.org
  8. वही, पृ.सं. 81
  9. नरेन्द्र लूथर, (2018), हैदराबाद की कहानी, पृ.सं.231, मिलिन्द प्रकाशन, हैदराबाद
  10. डॉ. वर्मा, आनंदराज; पृ.सं. 83, हैदराबाद का मुक्ति संघर्ष, प्र.सं., आर्य प्रतिनिधि सभा, आं.प्र. हैदराबाद
  11. वही, पृ.सं. 81 
  12. वही, पृ.सं. 79 

डॉ. जे. आत्माराम
हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय
 सम्पर्क : 9440947501
  

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )


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