- देवेश व डॉ. आशा
शोध
सार
: इक्कीसवीं सदी
में
प्रवेश
करने
से
लगभग
एक
दशक
पूर्व
भारत
सरकार
ने
भारतीय
अर्थव्यवस्था
को
खोला।
इक्कीसवीं
सदी
एक
उम्मीदों
से
भरा
भविष्य
था।
भूमंडलीकरण
पर
चिन्तन
ने
ज़ोर
पकड़ा।
हिंदी
के
लेखकों
ने
इस
समय
का
अपना
पाठ
तैयार
किया
और
महत्वपूर्ण
साहित्य
रचा।
भूमंडलीकरण
के
आर्थिक,
सामाजिक,
राजनीतिक
अथवा
सांस्कृतिक
पक्षों
पर
हिंदी
कथा
साहित्य
में
विस्तार
से
विचार
हुआ।
प्रदीप
सौरभ
का
उपन्यास
'मुन्नी
मोबाइल' बीसवीं सदी
के
अंतिम
दशक
और
इक्कीसवीं
सदी
के
पहले
दशक
के
समय
को
आधार
बनाकर
सामाजिक
परिवर्तनों
की
कथा
कहता
है।
यह
उपन्यास
तकनीकी
के
सकारात्मक
और
नकारात्मक
पहलुओं
का
वर्णन
प्रमुखता
से
करता
है।
बीज
शब्द :
इक्कीसवीं
सदी,
भूमंडलीकरण,
सामाजिक
परिवर्तन,
औपनिवेशिक वर्चस्व, पश्चिमीकरण,
नवउपनिवेशवाद,
नवउदारवाद,
नवसाम्राज्यवाद,
आधुनिकता,
तकनीकी,
नेशनल
कैपिटल
रीजन,
अस्मितामूलक,
राजनीतिक
समीकरण।
मूल
आलेख : बीसवीं शताब्दी
के
उत्तरार्ध
में
वैश्विक
स्तर
पर
बड़े
परिवर्तन
हो
रहे
थे।
ब्रिटिश
हुकूमत
जहाँ
अपना
औपनिवेशिक वर्चस्व खो
रही
थी
वहीं
अमरीका
का
आर्थिक
प्रभुत्व
तेज़ी
से
बढ़
रहा
था। विज्ञान का
विस्तार
और
उसका
विकास
मानव
जीवन
पर
अपना
असर
डाल
रहे
थे।
पूरी
दुनिया
एक-दूसरे से
किसी
न
किसी
रूप
में
जुड़
रही
थी।
इस
परस्पर
जुड़ाव
को
भूमंडलीकरण
का
नाम
दिया
गया।
हालाँकि विश्व का
लगभग
हर
हिस्सा आरंभ से
ही
शेष
जगत
से
जुड़ने
के
विभिन्न
रास्ते
तलाशता
रहा
है
परंतु
इस
रूप
में
यह
अवधारणा
बीसवीं
शताब्दी
के
उत्तरार्ध
में
निर्मित
व
विकसित
हुई।
विश्व
के
विभिन्न
देश
जब
आर्थिक
तथा
व्यापारिक
धरातल
पर
एक-दूसरे से
जुड़ने
लगे
तथा
वस्तुओं
और
सेवाओं
का
परस्पर
आदान-प्रदान
बेरोकटोक
आरंभ
हुआ
तभी
से
भूमंडलीकरण
की
शुरुआत
मानी
जाती
है। भूमंडलीकरण की
अवधारणा
पर
बात
करते
हुए
पुष्पपाल
सिंह
बताते
हैं
''भूमंडलीकरण
के
दो
पक्ष
हैं
: आर्थिक और सांस्कृतिक
किन्तु
ये
दोनों
कोई
बिलकुल
अलग-अलग
संभाग
(कम्पार्टमेंट्स, वाटर
टाइट
कम्पार्टमेंट्स) नहीं हैं, दोनों एक-दूसरे से प्रभावित
और
संग्रन्थित
हैं।
वैश्वीकरण के आर्थिक
पक्ष
से
उपभोक्तावाद
या
बाज़ारवाद
जुड़ा
हुआ
है।''1 विभिन्न
देशों
को
आर्थिक
स्तर
पर
एक-दूसरे से
जोड़ने
के
पीछे
का
मूल
विचार
था
व्यापार
का
प्रसार तथा वैश्विक
आर्थिक
विकास।
भूमंडलीकरण
के
द्वारा भारत या
विश्व
के
अन्य
देशों
को
अमरीकी
संस्कृति
ने
अपने
में
ढालना
आरंभ
कर
दिया। समाज निरन्तर
गतिशील
तथा
परिवर्तनशील
होता
है।
समय
के
साथ
समाज
की
प्रवृत्तियाँ,
तत्व,
विचार
और
मान्यताएं
आदि
सभी
परिवर्तित
होते
हैं। किसी भी
भूगोल
के
समाज
के
विचार
और
मान्यताओं
पर
उसके
इतिहास
का
प्रभाव
अनिवार्य
रूप
से
पड़ता
है।
यहाँ
भूगोल
भी
समाज
का
रूप
निर्धारित
करने
में
अपनी
महत्वपूर्ण
भूमिका
निभाता
है।
विभिन्न
सामाजिक
परिवर्तनों
को
उनका
रूप
देने
में
आर्थिक
तथा
राजनीतिक
परिवर्तनों
की
भी
महत्वपूर्ण
भूमिका
होती
है।
भूमंडलीकरण
के
सन्दर्भ
में
विचारकों
की
मान्यता
है
कि
भूमंडलीकरण
के
पर्दे
में
अमरीका
नें
अपने
एजेंडों
को
साकार
करने
का
काम
किया।
विश्व
बैंक
और
अंतर्राष्ट्रीय
मुद्रा
कोष
आदि
संस्थाओं
नें
इसकी
ज़मीन
तैयार
की
इसलिए
भूमंडलीकरण
को
स्पष्ट
तौर
पर
अमरीकीकरण
कहा
जाने
लगा।
पुष्पपाल
सिंह
कहते
हैं
''भूमंडलीकरण
की
निसर्ग
प्रक्रिया
में
श्रेयस्कर
यह
था
कि
विश्व
के
समस्त
देश, उनकी संस्कृतियाँ, एक-दूसरे
को
प्रभावित
करते, एक-दूसरे
का
श्रेष्ठ
ग्रहण
करते
किन्तु
वास्तविकता
यह
है
कि
यह
प्रक्रिया
मात्र
पश्चिमीकरण
बनकर
रह
गई
है
और
भी
दो-टूक
कहें
तो
यह
पश्चिमीकरण
भी
नहीं
है
अपितु
मात्र
'अमेरिकीकरण' बनकर रह
गया
है।''2 यहाँ यह
समझना
ज़रूरी
है
कि
इन
बड़ी
अवधारणाओं
और
प्रक्रियाओं
का
प्रभाव
सामान्य
जन
पर
प्रत्यक्ष
और
परोक्ष
दोनों
रूप
से
पड़ता
है।
उनके
विचार, भावना और
व्यवहार
तथा
इच्छाओं
और
आकांक्षाओं
में
बदलाव
होने
लगते
हैं।
जिससे
सामाजिक
परिवर्तन
को
बल
मिलता
है।
आज़ादी
के
बाद
राष्ट्र
निर्माण
का
जो
क्रम
नेहरू
ने
आरम्भ
किया
उसमें
शहरों
को
महत्व
दिया
गया।
नेहरू
नें
चंडीगढ़
जैसे
आदर्श
स्वरुप
वाले
शहर
का
निर्माण
कराया।
नए
रोज़गारों
की
ज़मीन
शहर
थे।
शहरों
के
निर्माण
और
उन्हें
सुचारु
रूप
से
चलाने
में
लगने
वाली
शक्ति
की
माँग
का
अर्थ
था
रोज़गार।
भारत
में
जब
बहुराष्ट्रीय
कंपनियों
का
जाल
बिछना
आरम्भ
हुआ
तो
लोग
उनकी
तरफ
खिंचे
चले
आए।
बहुराष्ट्रीय
कंपनियों
के
पास
एक
पूरी
व्यवस्था
थी
जिसके
भीतर
अनेक
प्रकार
के
कार्य
थे
जिन्हें
करने
के
लिए
गाँवों
से
पलायन
किया
जा
सकता
था।
शहरों
और
गाँवों
के
द्वन्द
के
बीच
कस्बों
नें
भी
अपनी
जगह
पाई।
वे
न
तो
शहर
बन
पाए
और
न
गाँव
ही
रह
पाए।
इन
नए
उभरते
शहरों
को
पश्चिम
के
नए
मूल्यों
की
हवा
लगी
जहाँ
जीवन
में
खुलापन
था, संबंधों के
नए
समीकरण
थे, विकास के
नए
मायने
थे। आज़ादी के
बाद
भूमंडलीकरण
का
छा
जाना
एक
प्रकार
से
नवउपनिवेशवाद
ही
था।
गिरीश
मिश्र
भूमंडलीकरण
के
दौर
में
विकसित
हो
रहे
बीपीओ
अर्थात
बिज़नेस
प्रोसेस
आउटसोर्सिंग
पर
बात
करते
है, इन्हें
कॉल
सेंटर
भी
कहा
जाता
है
वे
कहते
हैं
''हाई
स्कूल
या
विश्वविद्यालय
से
निकलते
ही
कॉल
सेंटर
पर
नौकरियां
मिल
जाती
हैं।
बशर्ते
कि
वे
तेज़-तर्रार
और
फ़र्राटेदार
अंग्रेज़ी
बोल
सकते
हैं।
उन्हें
क्रयशक्ति
प्राप्त
होने
के
साथ
वे
नवीनतम
प्रौद्योगिकी
से
वाखिफ़
हो
जाते
हैं।
वे
बढ़िया
कपड़े
पहनने
लगते
हैं, महंगे रेस्तरां
में
खाने-पीने
लगते
हैं।
साथ
ही
ऐसा
वातावरण
पैदा
हो
जाता
है
जहाँ
लड़के-लड़कियों
के
मेल-मिलाप
में
कोई
बाधा
नहीं
आती।''3 इसी तरह
'मुन्नी
मोबाइल' उपन्यास में
भी
वक्ता
बताता
है
''एक
दशक
से
कम
में
कॉल
सेंटरों
के
ज़रिये
क़रीब
पच्चीस
लाख
युवाओं
को
नौकरी
मिली।''4 तथा ''कॉल सेंटर
के
लोगों
नें
एक
अलग
दुनिया
को
जन्म
दे
दिया
था।
चमकते
कॉल
सेंटरों
के
अंदर
शीशे
से
झाँकने
में
ही
अंदर
की
एक
झलक
मिल
जाती
है।
हाथों
में
हाथ
डाले
युवा
होठों
में
होठ
डाले
लड़के-लड़कियाँ।
ड्रेस
कॉड
न
होने
के
चलते
कॉल
सेंटर
नाईट
क्लबों
और
डिस्को
की
तरह
का
आभास
देते
हैं।’’5 अब नए लड़के-लड़कियाँ कॉल
सेंटरों
में
खपने
लगे
हैं।
यहाँ
का
माहौल
उनके
व्यक्तित्व
को
एकदम
रूपांतरित
कर
देता
है
यह
रूपांतर
सकारात्मक
कम
नकारात्मक
अधिक
लगता है।
विश्व
और
भारत
दोनों
के
आगामी
भविष्य
के
स्वरुप
को
निर्मित
करने
वाले
दो
प्रशासनिक
निर्णयों
का
ज़िक्र
करना
यहाँ
समीचीन
होगा।
ये
वे
निर्णय
थे
जिन्होंने
दुनिया
को
आर्थिक, सामाजिक और
सांस्कृतिक
रूप
से
बदल
दिया। ''उधर
अमेरिकी
राष्ट्रपति
रोनाल्ड
रीगन
और
ब्रिटिश
प्रधानमन्त्री
मारग्रेट
थैचर
ने
भूमंडलीकरण
को
नए
आयाम
दिए
और
उसे
नवउदारवाद
से
जोड़ा।''6 इधर भारत
में
''वर्ष
1991 की
24 जुलाई
को
डॉ.
मनमोहन
सिंह
भारत
के
नए
वित्त
मंत्री
बने
और
उन्होंने
नरसिंह
राव
सरकार
का
पहला
बजट
पेश
किया
जिसमें
उन्होंने
रेखांकित
किया
कि
वे
खुले
बाज़ार
और
मुक्त
उद्यमों
को
तरजीह
देंगे।
इसके
साथ
ही
भारत
का
नजरिया
बदल
गया।
अब
वह
केंद्रीय
नियोजन
के
अपने
पुराने
रस्ते
से
हट
गया।''7
वर्ष
2009 में प्रकाशित
प्रदीप
सौरभ
का
उपन्यास
'मुन्नी मोबाइल' बीसवीं
सदी
के
अंतिम
दशक
से
लेकर
इक्कीसवीं
सदी
के
पहले
दशक
तक
के
समय
में
हो
रहे
सामाजिक
परिवर्तनों
को
व्यक्ति
और
समाज
के
वैषम्य
के
माध्यम
से
प्रस्तुत
करता
है। 'मुन्नी
मोबाइल'
का
समाज
एक
ऐसे
भूगोल
पर
आधारित
है
जो
दिल्ली
से
सटे
साहिबाबाद
में
है।
पूरे
भारत
से
आए
हुए
लोग
यहाँ
रहकर
अपनी
आजीविका
का
इंतज़ाम
करते
हैं।
अलग-अलग
तरह
के
लोगों
से
मिलकर
बने
इस
क्षेत्र
में
सामाजिक
व्यवस्था
का
आधार
जाति
ही
है।
जाति
के
आधार
पर
ही
यहाँ
संबंध
और
शक्ति
समीकरण
तय
होते
हैं।
दिल्ली
के
इतना
क़रीब
होने
से
यह
क्षेत्र
दिल्ली
हो
जाना
चाहता
है, परन्तु
यह
ठीक
प्रकार
से
एक
कस्बा
ही बन
पाया
है।
लेखक
ने
इस
क्षेत्र
को
गाँव
कहकर
सम्बोधित
किया।
साहिबाबाद
गाँव
जाति
के
साथ
संख्या
के
आधार
पर
भी
विभाजित
है। "गाँव
में
जाटों
का
वर्चस्व
है।
गुर्जर
भी
हैं।
लेकिन
गाँव
में
बिहारियों
ने
सामाजिक
समीकरण
गड़बड़ा
दिए
हैं।’’8 यहाँ भले
ही
अब
बिहारियों
की
संख्या अधिक
हो
गई
हो
परन्तु
"पंचायत पर जाटों
का
ही
कब्ज़ा
है।’’9
साहिबाबाद
तथा
इस
जैसे
अन्य
क्षेत्रों
का
समय
के
साथ
जैसा
रूप
विकसित
हुआ
है
उसमें
इन
प्रवासी
लोगों
का
योग
है।
इन्हीं
के
रहने
के
तरीकों,
ज़रूरतों,
इच्छाओं
आदि
ने
इन
गांवों,
कस्बों
तथा
शहरों
को
इनका
वर्तमान
रूप
प्रदान
किया
है।
दिल्ली
के
आस-पास
विकसित
हो
रहे
ऐसे
क्षेत्रों
और
वहां
के
निवासियों
के
लिए
उपन्यास
में
वक्ता
कहता
है।-
"मुन्नी तो मुन्नी,
नेशनल
कैपिटल
रीजन-
गुड़गांव,
फरीदाबाद,
ग़ाज़ियाबाद
और
नोएडा
में
रहने
वाले
अपने
को
दिल्ली
का
ही
मानते
हैं।
वे
अपनी
पहचान
न
तो
उत्तर
प्रदेश
से
जोड़ना
चाहते
हैं
और
न
हरियाणा
से।
असल
में
यहाँ
वे
मजबूरी
में
रहते
हैं।
रहना
तो
वे
दिल्ली
में
ही
चाहते
थे,
लेकिन
महंगी
दिल्ली
में
मकान
खरीदने
का
उनका
सपना
पूरा
नहीं
हुआ।"10
जिस
तरह
ये
क्षेत्र
निर्मित
हुए
हैं
जिन्हें
देखकर
ऐसा
प्रतीत
होता
है
कि
देश
के
विकसित
क्षेत्रों
ने
अविकसित
क्षेत्रों
को
अपना
उपनिवेश
बना
लिया
है।
वे
विकसित
क्षेत्र
इन्ही
अविकसित
रह
गए
क्षेत्रों
की
सेवाओं
पर
पल
रहा
है।
एनसीआर
मूल
रूप
से
कृषि
आधारित
रोज़गारों
वाला
क्षेत्र
रहा
है।
एनसीआर
के
लिए
चयनित
इस
क्षेत्रों
में
जबसे
विकास
का
कार्यक्रम
आरम्भ
हुआ
तबसे
बड़ी
मात्रा
में
यहाँ
ज़मीनों
की
बिक्री
होने
लगी
तथा
भविष्य
को
देखते
हुए
लोगों
नें
भविष्य
के
विकसित
इन
नगरों
में
घर
बनाए।
ज़मीनों
की
क़ीमते
बढ़ीं
और
ज़मीनें
बेचने
वाले
रातोंरात
करोड़पति
होते
गए।
योजना
और
विकास
कार्य
के
लिए
प्रयोग
में
आने
वाली
ज़मीन
के
बदले
में
सरकार
ने
मुआवज़े
दिए।
इन
मुआवज़ों
और
ज़मीन
बेचकर
प्राप्त
किये
गए
पैसों
की
भी
इन
क्षेत्रों
की
सामाजिकता
के
निर्माण
में
महत्वपूर्ण
भूमिका
रही
है।
इस
नए
मिश्रित
समाज
के
निर्माण
से
एक
नई
मिश्रित
संस्कृति
का
जन्म
हुआ
है।
दिल्ली
क्योंकि
राजधानी
है
इसलिए
दिल्ली
में
इस
प्रकार
की
मिश्रित
संस्कृति
अरसे
से
रही
है।
दिल्ली
अपने
भीतर
सब
को
समा
लेती
है।
सबको
आपने
में
ढाल
लेती
है।
परंतु
दिल्ली
के
अलावा
उसकी
सीमाओं
पर
भी
एक
प्रकार
के
नए
समाज
का
निर्माण
होने
लगा
है
जिसमें
विभिन्न
संस्कृतियों
के
लोग
साथ
में
रहते
है
अब
वह
चाहे
इच्छा
से
हो
या
मजबूरन।
मुन्नी
को
भी
ये
नए
प्रकार
की
संस्कृति
मिली
और
उसकी
दुनिया
बदलने
लगी।
"हर जगह उसे
नए-नए
अनुभव
होने
लगे।
नए
घरों
में
उसकी
भोजपुरी
भाषा
की
दीवार
टूट
गई।
उसके
नए
घर
मराठी,
बंगाली
और
मारवाड़ी
थे।
महाराष्ट्र
बंगाल
और
राजस्थान
की
मिट्टी
और
वहाँ
की
सांस्कृतिक
पहचान
से
रूबरू
होने
की
उसकी
शुरुआत
हुई।’’11
बिंदु
यादव
बिहार
के
बक्सर
की
रहने
वाली
है।
सत्रह
साल
की
उम्र
में
वह
अपने
पति
के
साथ
साहिबाबाद
आई।
तब
से
यहीं
रही।
यहाँ
रहकर
उसने
दुनिया
को
बदलते
देखा
और
अपनी
दुनिया
भी
बदली।
ज़रूरतें
पूरी
करने
के
लिए
रुपयों
की
ज़रुरत
रहती
जो
पति
की
तनख्वाह
से
पूरी
नहीं
हो
पा
रही
थी।
मुन्नी
ने
छोटे-छोटे
काम
कर
रूपए
कमाना
सीखा।
मुन्नी आर्थिक
रूप
से
कुछ-कुछ
स्वतंत्र
होने
लगी।
अपने
हाथ
में
पैसा
आते
ही
उसके
सपने
आसमान
छूने
लगे।
''पहली
बार
जब
उसने
स्वेटर
बुनकर
पचास
रूपये
कमाए
तो
उसने
सपनों
की
झड़ी
लगा
दी।
उसे
लगा
अब
टीवी
से
लेकर
फ्रिज
तक
सब
उसके
घर
आ
जाएगा।
बाहरी
दुनिया
के
साथ
उसका
यह
मेल
मिलाप
उसे
खूब
भाया।''12 बीसवीं शताब्दी
के
अंतिम
दशक
की
और
देखें
तो
उदारवादी
आर्थिक
दृष्टिकोण
अपनाकर
भारत
ने
अपनी
जनता
को
बाहरी
अनुभवों
को
महसूस
करने
का
एक
स्पेस
दिया।
बाहरी
तकनीकी, भोज्य, ब्रांड्स, सूचनाओं ने
भारतीय
मानस
के
मन
को
आमूलचूल
रूप
से
बदला।
मुन्नी
के
जीवन
के
विभिन्न
उतार-चढ़ावों
में
हम
यह
बदलाव
स्पष्ट
रूप
से
देख
सकते
हैं।
मुन्नी
के
व्यक्तिगत जीवन में
हुए
बड़े
बदलावों
में
प्रमुख
है
मोबाइल
फ़ोन
का
मिल
जाना।
इच्छा
से
उपजी
यह
ज़रूरत
मुन्नी
को
लगातार
मोबाइल
पाने
के
लिए
कोशिश
करने
को
मजबूर
करती
है।
मोबाइल
हाथ
आने
के
बाद
मुन्नी
के
लिए
दुनिया
कुछ
अलग
हो
जाती
है।
तकनीकी
के
विकास
ने
मनुष्य
के
जीवन
को
एकाएक
बदल
कर
रख
दिया
है।
कठिन
से
कठिन
कार्य
सरलता
से
कर
लेने
की
शक्ति
तकनीकी
ने
मनुष्य
को
दे
दी
है।
इसके
चलते
मानव
के
भीतर
भी
बदलाव
हो
रहा
है।
उसकी
इच्छाओं,
नज़रियों,
जीवन
शैली
आदि
सभी
को
तकनीकी
ने
प्रभावित
किया
है।
‘मुन्नी
मोबाइल’ में
वर्णित
समाज
के
लिए
भी
यह
बात
सही
साबित
होती
है।
मुन्नी
के
जीवन
में
मोबाइल
के
प्रवेश
से
एक
तरफ
उसके
भीतर
आत्मविश्वास
आता
है
तो
दूसरी
ओर
संसाधनों
को
जुटा
लेने
के
विभिन्न
रास्ते
भी
खुल
जाते
हैं।
तकनीकी
के
माध्यम
से
ही
मुन्नी
की
पहचान
ही
बदल
जाती
है।
वह
मुन्नी
से
मुन्नी
मोबाइल
बन
जाती
है।
मुन्नी
ने
मोबाइल
के
प्रयोग
से
अपना
आर्थिक
विकास
किया।
भले
ही
वह
आगे
जाकर
नकारात्मक
रूप
ले
लेता
है।
वह
वेश्यावृत्ति
के
कारोबार
करने
लगती
है
और
अंततः
उसकी
हत्या
होती
है।
उसकी
बेटी
रेखा
चितकबरी
मुन्नी
की
विरासत
संभालने
लगी
है।
वह
वही
काम
अब
इंटरनेट
और
कंप्यूटर
के
माध्यम
से
करती
है।
यह
तकनीकी
का
अगला
चरण
है।
'मुन्नी
मोबाइल'
में
दृष्टिगत
हो
रहे
समाज
के
परिवर्तन
का
एक
आधार
रोज़गार
या
व्यवसाय
भी
है। ‘मुन्नी
मोबाइल’
के
समाज
के
भीतर
उन
इन
रोजगारों
की
पड़ताल
करना
भी
ज़रूरी
हो
जाता
है
जो
इस
बदलते
हुए
समाज
में
बन
रहे
हैं
या
विकसित
हो
रहे
हैं।
आनंद
भारती
पत्रकार
हैं।
जिनके
अलावा
मुन्नी
स्वयं
लंबे
समय
तक
आनंद
भारती
का
घर
सम्भालती
है।
इस
समय
में
अपने
काम
को
लेकर
उसकी
एक
समझ
बन
जाती
है
जिसके
साथ
वह
अपने
काम
को
कुछ
और
बढ़ाने
लगती
है।
धीरे-धीरे
उसके
पास
खाना
बनाने
वाली
महिलाओं
की
एक
पूरी
फौज
खड़ी
हो
जाती
है,
जिनसे
वह
पहली
तनख्वाह
का
आधा
हिस्सा
कमीशन
के
रूप
में
लेती
आगे
जाकर
वह
अपने
पड़ोसी
से
एक
पुरानी
बस
खरीदकर
उसे
एक
तय
रुट
पर
चलाने
लगती
है।
परिस्थितियों
के
कारण
उसमें
ख़ुद
कंडक्टरी
करने
लगती
है।
एक
महिला
का
बस
में
कंडक्टर
हो
जाना
लीक
से
हटकर
काम
है।
यहाँ
एक
अलग
प्रकार
का
काम
भी
हो
रहा
है
जिसे
कभी
एक
काम
की
तरह
नही
देखा
गया
परंतु
परिवर्तित
होते
इस
समाज
में
यह
क्षेत्र
पेशे
में
तबदील
हो
गया
है।
उपन्यास
में
वक्ता
कहता
है
"साहिबाबाद गाँव
के
युवाओं
में
अपराध
ने
पेशे
का
रूप
ले
रखा
है।"13 मुन्नी स्वयं
वेश्यावृत्ति
के
कारोबार
में
शामिल
हो
जाती
है।
वह
स्वयं
यह
कार्य
नही
करती।
बल्कि
वह
लड़कियाँ
सप्लाई
करती
है।
'मुन्नी
मोबाइल'
के
समाज
पर
नवउदारवाद,
भूमंडलीकरण
तथा
आधुनिकता
जैसी
अवधारणाओं
का
प्रत्यक्ष
अथवा
परोक्ष
रूप
से
प्रभाव
पड़
रहा
है।
इसके
चलते
यह
समाज
लगातार
परिवर्तित
हो
रहा
है।
दिल्ली
बनने
की
इच्छा
पालने
वाला
यह
समाज
न
तो
गाँव
रहता
है
और
न
शहर
ही
बन
पाता
है।
अपराध
इसका
अनिवार्य
अंग
बन
गया
है।
राजनीतिक
समीकरण
पारंपरिक
आधारों
पर
ही
तय
हो
रहे
हैं
परंतु
उनमें
प्रवासियों
की
भूमिका
बढ़
गई
हैं।
प्रौद्योगिकी
के
विकास
से
सब
कुछ
सहज
प्राप्त
कर
लेने
की
भावना
भी
यहाँ
बढ़
गई
है। अतिरिक्त की
इच्छा
मनुष्य
को
ग़ैर
ज़रूरी
समाज
भी
जमा
करने
को
मजबूर
कर
रही
है।
इस
तरह
तकनीकी
के
विकास
को
भी
यह
समाज
ठीक
प्रकार
संभाल
नही
पा
रहा
है।
यह
चाहे
साहिबाबाद
के
स्तर
पर
हो
अथवा
अंतरराष्ट्रीय
स्तर
पर।
सभी
तरफ
सभी
कुछ
का
उपभोग
कर
लेने
की
चाह
समाज
की
नैतिकताओं
का
स्वरुप
बदल
रही
है। उपन्यास का
यह
समाज
हमारे
वर्तमान
यथार्थ
समाज
का
प्रतिनिधित्व
करता
है।
इसमें
वर्णित
विभिन्न
पहलू
वर्तमान
समाज
के
तत्वों
का
बखान
करते
हैं।
उपन्यास
में
वर्णित
समाज
भी
वर्तमान
समाज
की
तरह
परिवर्तनशील
है।
यह
परिवर्तन
मानव
मूल्यों
और
जीवन
पर
अपना
असर
स्वाभाविक
रूप
में
डाल
रहा
है लेकिन यह
परिवर्तन
स्वयं
स्वाभाविक
नही
लगता।
सामाजिक
परिवर्तन
को
हम
व्यक्ति, उसकी इच्छाओं
के
स्वरुप, उसकी आवश्यकताओं, पारस्परिक संबंधों
के
रूप, जीवन मूल्यों, राजनीतिक स्थिति, आर्थिक ढाँचे
के
शिल्प, बाज़ार के
स्वरुप
आदि
के
धरातलों
पर
देख
सकते
हैं। मुन्नी का
साहिबाबाद
आने
का
कारण
पति
का
रोज़गार
रहा।
इस
क्षेत्र
का
अपना
एक
चरित्र
था
जिसमें
मुन्नी
रमी।
उसके
हिसाब
से
ढली
और
इसी
जगह
के
मुताबिक़
उसने
अपने
व्यवहार
को
भी
परिवर्तित
किया।
आरम्भ
में
आनंद
भारती
और
उनका
पेशा
दोनों
ही
मुन्नी
का
संबल
बनते
दिखाई
देते
हैं।
मुन्नी
के
अपना
मोबाइल
होने
की
इच्छा
उसे
किसी
भी
प्रकार
मोबाइल
पा
लेने
की
जुगत
में
भिड़ा
सकती
थी
लेकिन
सरलतम
उपाय
था
आनंद
भारती
से
कहना।
प्रोद्यौगिकी
का
एक
विकसित
अंग
मोबाइल
मुन्नी
को
एक
नई
पहचान
दे
जाता
है
इस
पहचान
का
आधार
है
मोबाइल
से
बढ़ा
मुन्नी
का
आत्मविश्वास।
ऊँची
ईमारतों
और
झुग्गियों
के
बीच
केवल
एक
सड़क
भर
का
अंतर
है।
यह
सड़क
है
जो
इन
दोनों
समाजों
को
परिभाषित
करती
है।
सड़क
जिससे
शहर
चलता
है।
इसी
सड़क
को
कभी
किसी
नें
परिवर्तन
का
कारक
माना
होगा।
और
परिवर्तन
हुआ
भी।
इन्ही
सड़कों
से
लोग
शहर
आए
और
कभी
वापस
नहीं
लौटे।
उन्होंने
शहरों
के
एक
पुर्जे
के
रूप
में
खुद
को
ढाल
लिया।
उन्होंने
बाज़ार
के
रूपों
को
समझा
और
अपनाया
और
बदला
भी।
ये
लोग
इस
नई
दुनिया
में
अपनी
परम्पराएँ
भी
लेते
आए
और
भूगोल
के
हिसाब
से
उन्हें
बदला।
इस
प्रकार
पहले
से
उपस्थित
समाज
में
नए
तत्वों, मान्यताओं, परम्पराओं, विचारों आदि
का
घुलना
हुआ।
'मुन्नी
मोबाइल' के समाज
में
परिवर्तन
के
इन
सभी
रूपों
को
देखा
जा
सकता
है।
राजनीतिक
समीकरणों
पर
हम
पहले
भी
बात
कर
चुके
है, यहाँ फिर
से
उसे
देख
लेना
चाहिए।
पहले
से
उपस्थित
समाज
में
नई
पहचानों
के
आगमन
से
राजनीति का विस्तार
होता
है।
इसमें
नए
विचार
और
विचारधाराएँ
शामिल
हो
सकने
की
संभावनाएं
बढ़
जाती
हैं।
इस
तरह
के
समीकरण
अस्मितामूलक
राजनीति
के
अंकुर
के
लिए
धूप
का
काम
कर
सकते
हैं।
उपन्यास
में
मुन्नी
प्रत्यक्ष
रूप
से
क्षेत्रीय
राजनीति
का
अंग
न
भी
बनी
हो
परन्तु
उसके
चरित्र
में
वह
संभावनाएं
दिखाई
देती
हैं।
एक-दूसरे प्रकार
की
राजनीति
का
वर्णन
उपन्यास
में
बहुत
ही
विस्तार
से
किया
गया
है
वह
है
सांप्रदायिक
राजनीति।
बीसवीं
शताब्दी
का
अंतिम
दशक
और
इक्कीसवीं
शताब्दी
के
पहले
दशक
में
भारतीय
राजनीति
के
परिदृश्य
पर
जिस
प्रकार
दक्षिणपंथी
साम्प्रदायिक
राजनीति
का
उदय
होता
है
वह
भविष्य
के
लिए
भारत
के
चरित्र
को
बदल
देता
है, जिसके प्रत्यक्ष
भोक्ता
हम
स्वयं
हैं।
पत्रकार
आनंद
भारती
के
सांप्रदायिक
राजनीति
के
वीभत्स
के
अनुभव
भी
गवाह
बनकर
उभरते
हैं।
इस
तरह
राजनीति
से
होते
हुए
साम्प्रदायिकता
मनुष्य
के
मन
में
घर
कर
जाती
है।
जिसका
नतीजा
सामान्य
जन
को
ही
भुगतना
पड़ता
है।
इस
तरह
समाज
में
कई
दरारें
उभर
आती
हैं।
समाज
के
इस
परिवर्तन
पर
भी
नज़र
रखना
अति
आवश्यक
है।
भूमंडलीकरण और
सामाजिक
परिवर्तन
को
जोड़ने
वाला
एक
तत्व
है
पूँजी।
पूँजी
इक्कीसवीं
सदी
की
दुनिया
में
किसी
भी
स्तर
के
परिवर्तन
को
तय
करने
की
कसौटी
हो
गई
है।
उपन्यास
में
मुन्नी
के
जीवन
के
अलाव
अन्य
पात्रों
के
जीवन
में
आ
रहे
परिवर्तनों
के
पीछे
का
कारण
कहीं
न
कहीं
पूँजी
ही
है।
मुन्नी
के
आर्थिक
एवं
सामाजिक
विकास
के
पीछे
भले
ही
उसका
आत्मविश्वास
हो
परन्तु
उसका
एक
तत्व
पूँजी
ही
है
इससे
इनकार
नहीं
किया
जा
सकता।
भूमंडलीकरण
ने
विभिन्न
देशों
की
अर्थव्यवस्थाओं
को
जोड़ा।
अर्थव्यवस्थाओं
के
इस
तरह
जुड़ने
के
सकारात्मक
एवं
नकारात्मक
दोनों
पक्ष
हैं।
विश्व
के
लिए
सबसे
घातक
समस्या
के
रूप
में
बार-बार
लौट
आने
वाली
स्थिति
है
आर्थिक
मंदी।
वैश्विक
अर्थव्यवस्था
में
मंदी
भी
वैश्विक
होती
है
सो
उसका
प्रभाव
लगभग
सम्पूर्ण
विश्व
पर
पड़ता
है।
2007 से लगभग 2010 तक
के
अमेरिका
के
सबप्राइम
संकट
जिसे
मौटे
तौर
पर
मकानों
की
कीमतों
में
गिरावट
के
तौर
पर
देखा
जा
सकता
है।
इसका
सीधा
असर
भारतीय
अर्थव्यवस्था
पर
पड़ा
''अमेरिका
के
सबप्राइम
संकट
से
पूरी
दुनिया
में
आर्थिक
मंडी
का
दौर
शुरु
हो
चूका
था।
चारों
तरफ
हाहाकार
मच
गया
था।
इंडिया
भी
इस
संकट
से
अछूता
नहीं
रहने
वाला
था।
हज़ारों
नौकरियाँ
जाने
रही
थीं।
अमेरिका
की
उधार
लेकर
की
जीने
वाली
मौज-मस्ती
पर
विराम
लग
गया
था।''14 इसी आर्थिक
संकट
के
चलते
आनंद
भारती
की
भांजी
की
नौकरी
चली
जाती
है।
तीन
महीनों
तक
कोई
नौकरी
नहीं
मिलती
और
किश्तों
पर
ख़रीदी
हुई
गाड़ी
भी
बैंक
ने
ज़ब्त
कर
ली।
किश्तों
पर
खड़ा
हुआ
जीवन
कितना
अस्थिर
और
कमज़ोर
होता
है
इसका
सहज
उदाहरण
आनंद
भारती
की
भांजी
अस्मिता
की
यह
कहानी
है।
आर्थिक
परिवर्तनों
से
सामाजिक
बदलावों
की
एक
भूमिका
तैयार
होती
है।
उपन्यास
में
मुन्नी
के
पड़ोस
के
कुछ
लोगों
को
अपनी
ज़मीन
के
एवज
में
सरकार
से
मुआवज़ा
मिला।
उस
मुआवज़े
की
राशी
से
वे
भले
ही
एकाएक
संपन्न
हो
गए,
लेकिन
उनके
परिवारों
में
अन्य
समस्याएं
शामिल
हो
गई
हैं।
उनके
बच्चे
जिनकी
जेबें
भरी
हैं
अब
उनकी
सुनते
नहीं
और
आवारागर्दी
में
उस
पूँजी
को
लुटा
रहे
हैं
''बच्चों
की
मर्ज़ी
के
आगे
वे
लाचार
हैं।
घर-बाहर
का
सारा
काम
बच्चों
ने
अपने
हाथ
में
ले
लिया
है।
बच्चों
की
मनमानी
के
चलते
ज़मीन
के
मुआवज़े
में
मिले
पैसे
से
ख़रीदी
बसें
भी
गाँव
में
इधर-उधर
खड़ी
हैं।
बच्चे
उन
पर
ध्यान
नहीं
देते।
वे
तो
मोटरसाइकिलों
या
फिर
जीपों
में
दिन
भर
इधर-उधर
चौधराहट
करते
रहते
हैं।''15 इन आर्थिक
रूप
से
संपन्न
बच्चों
की
चौधराहट
से
एक
तो
इनके
परिवार
के
आर्थिक
भविष्य
पर
प्रश्नचिह्न
लग
जाता
है
तो
एक
प्रश्न
यह
भी
खड़ा
होता
है
पैसे
के
बल
पर
मिल
रही
इस
चौधराहट
से
वह
कैसे
समाज
का
निर्माण
कर
रहे
हैं।
संबंधों
की
गर्माहट
के
खोते
जाने
का
सम्बन्ध
भी
इन
नए
आर्थिक
संबंधों
से
प्रतीत
होता
है।
भांजी
अस्मिता
का
अपने
मामा
आनंद
भारती
से
सम्बन्ध
पहले
जैसा
नहीं
रहा।
वह
दिल्ली
में
ही
रहती
है
लेकिन
अपने
मामा
से
मिलने
का
वक़्त
तो
क्या
फ़ोन
पर
बात
करने
की
फ़ुर्सत
भी
उसके
पास
नहीं
होती।
वह
केवल
अपने
काम
निकलवाने
के
उद्देश्य
से
ही
आनंद
को
कॉल
करती
है।
औपचारिकताओं
को
वह
आवश्यक
नहीं
समझती।
आर्थिक
आत्मनिर्भरता
मनुष्य
को
अकेला
करती
गई
है।
यह
अकेलापन
उसका
स्वयं
का
चुना
हुआ
है।
जिम्मेदारियों
के
दबावों
से
मुक्ति
की
आकांक्षा
शायद
इसके
पीछे
काम
करती
हो।
उपन्यास
में
एक
स्थान
पर
मानव
के
स्वार्थ
और
उपयोगितावादी
दृष्टिकोण
की
चर्चा
में
प्रदूषण
और
ग्लोबल
वार्मिंग
के
दुनिया
पर
प्रभावों
की
चर्चा
में
नदियों
का
ज़िक्र
आता
है।
नदियाँ
जो
मानवीय
सभ्यता
और
संस्कृति
का
आधार
रही
हैं, मानव की
दृष्टि
से
ओझल
होती
रही
है।
यह
दृष्टि
में
रहते
हुए
भी
महत्त्व
खोते
जाना
है।
धार्मिक
और
सांस्कृतिक
रूप
से
जिस
देश
में
नदियों
का
महातम्य
गाया
जाता
है
उसी
देश
में
नदियाँ
प्रदूषण
से
क्षत-विक्षत
हो
रही
हैं।
एक
ओर
उनका
दोहन
है
तो
दूसरी
ओर
उनको
लौटाया
जाने
वाला
प्रदूषण।
''कमाई
और
कमाई।
बस
इतना
ही
सरोकार
है
उनका
दिल्ली
और
जमुना
से।
पीने
का
पानी
नहीं
मिलेगा
तो
क्या!
बाज़ार
से
खरीद
लेंगे।''16 दिल्ली की
यमुना
नदी
अब
एक
नाले
से
कम
नहीं
रह
गई।
उसे
लेकर
कोई
चिंतित
नहीं
दीखता।
न
जनता
न
सरकार।
ऐसे
में
मानवीय
सभ्यता
के
सतत
विकास
का
सिंहावलोकन
करें
तो
हम
पाते
हैं
कि
नदियों
की
आर्थिक
और
धार्मिक
उपयोगिता
के
अलावा
कोई
अस्मिता
नहीं
बची
है।
नदियाँ
केवल
एक
उदाहरण
भर
हैं।
प्रकृति
प्रदत्त
उपादानों
के
प्रति
मानव
का
दृष्टिकोण
उपयोगितावादी
होता
गया
है।
इसके
चलते
ग्लोबल
वार्मिंग
जैसी
भीषण
समस्या
को
भी
नज़रंदाज़
किया
जाता
रहा
है, जा रहा
है।
'मुन्नी मोबाइल' के सामाजिक
परिवर्तन
के
विभिन्न
आयामों
पर
दृष्टिपात
करने
पर
हम
यह
समझ
पाते
हैं
कि
जिन
भी
परिवर्तनों
को
उपन्यास
में
वर्णित
किया
गया
है
वे
आधुनिकता, भूमंडलीकरण और
नवउदारवाद
के
आरंभिक
दौर
से
लेकर
उसके
प्रसार
तक
के
समय
में
हुए/हो
रहे
परिवर्तन
हैं।
हालाँकि
आधुनिकता
वाली उलझन
उपन्यास
में
दिखाई
नहीं
देती।
प्रौद्योगिकी
के
विकास
ने
परिवर्तन
की
गति
को
तेज़
किया
है।
साथ
ही
उसमें
अन्य
तरीकों
से
भी
अपना
योग
दिया
है।
उन
'अन्य
तरीकों' का एक
उदाहरण
तो स्वयं मुन्नी
भी
है।
बिंदु
यादव
जो
साहिबाबाद
आकर
मुन्नी
बन
गई, वह मोबाइल
के
आ
जाने
से
मुन्नी
मोबाइल
बन
जाती
है
यह
तो उसके चरित्र
के
सम्पूर्ण
रूपांतरण
का
आग़ाज़
भर
है।
'मुन्नी
मोबाइल' के प्रकाशन
को
दशक
से
अधिक
समय
बीत
चुका
है।
यहाँ
बीते
दशक
में
हमारा
समाज
बहुत
बदल
गया
है।
इस
बदलाव
के
प्रमुख
कारणों
में
से
एक
तकनीकी
और
उसी
का
एक
हिस्सा
इंटरनेट
है।
इंटरनेट
नें
समानांतर
जगह
का
निर्माण
किया
है।
यह
जगह
और
इसको
नियंत्रित
करने
वाली
कम्पनियाँ
दुनिया
के
विभिन्न
समाजों
को
इसके
माध्यम
से
नियंत्रित
कर
रही
हैं। राजनीति भी
इसका
इस्तेमाल
अपने
हक़
में
कर
रही
है।
आज
'मुन्नी
मोबाइल' का समाज
भी
शायद
इसी
तरह
बदल
रहा
होगा।
वहाँ
भी
तकनीकी
और
राजनीति
एक-दूसरे
को
इस्तेमाल
कर
रही
होंगी।
वहाँ
भी
कई
नई
मुन्नियाँ
बन
रही
होंगी।
निष्कर्ष
: बीसवीं सदी
के
अंतिम
दशक
में
भारत
की
आर्थिक
नीतियों
के
परिवर्तन
ने
आगामी
सदी
के
आर्थिक, सामाजिक तथा
सांस्कृतिक
स्वरुप
की
ज़मीन
तैयार
की।
भूमंडलीकरण
इन्हीं
आर्थिक
परिवर्तनों
का
एक
हिस्सा
बना।
मानवीय
जीवन
के
सूक्ष्म
तथा
स्थूल
सभी
तरह
के
परिवर्तन
साहित्य
में
परिलक्षित
होते
हैं।
साहित्य
भले
ही
इतिहास
न
हो
फिर
भी
वह
समय
के
पाठ
का
एक
आधार
मुहैया
कराता
है।
हिंदी
उपन्यासों
ने
भारत
के
समय
और
समाज
के
परिवर्तनों
का
गंभीर
पाठ
तैयार
किया
है।
प्रदीप
सौरभ
का
उपन्यास
'मुन्नी
मोबाइल' अपने रचना
समय
के
मनुष्य
और
उसके
समाज
में
आ
रहे
बदलावों
की
न
केवल
शिनाख़्त
करता
है
बल्कि
उन
परिवर्तनों
के
कारणों
को
भी
प्रस्तुत
करता
है।
भूमंडलीकरण
और
तकनीकी
विकास
के
प्रभाव
सकारात्मक
तथा
नकारात्मक
दोनों
ही
रूपों
में
हमारे
समक्ष
प्रस्तुत
होते
हैं।
मुन्नी
की
कहानी
एक
सामान्य
कामकाजी
महिला
के
जीवन
की
कहानी
है।
राजनीति, बाज़ारवाद, तकनीकी आदि
जिस
प्रकार
मुन्नी
को
प्रभावित
कर
रहे
हैं
उसी
तरह
हम
सब
भी
उनके
पाश
में
फंसते
जा
रहे
हैं।
इनका
प्रसार
बहुराष्ट्रीय
कंपनियों
से
लेकर
झुग्गी
तक
है।
इस
प्रकार
भूमंडलीकरण
के
द्वारा
भारत
में
हो
रहे
सामाजिक
परिवर्तनों
में
अमरीकी
संस्कृति
का
हस्तक्षेप
अधिक
नज़र
आता
है।
उपन्यास
'मुन्नी
मोबाइल' इस सांस्कृतिक
परिवर्तन
की
प्रक्रिया
की
समझ
को
न
केवल
प्रस्तुत
करता
है
बल्कि
उसे
पाठक
के
लिए
सरल
भी
करता
है।
1. पुष्पपाल सिंह, भूमंडलीकरण और हिंदी उपन्यास, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012, पृ.सं.17
15. प्रदीप सौरभ, मुन्नी मोबाइल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृ.सं.106
16. प्रदीप सौरभ, मुन्नी मोबाइल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृ.सं.94
devesh95.du@gmail.com, 8506050600
प्रोफेसर, अदिति महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय
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